Sunday, January 08, 2017

सरकारें चुनाव पूर्व इतनी सक्रिय और ‘जन-हितैषी’ क्यों हो जाती हैं?


बहुत कुछ बदल गया लेकिन चुनाव के मौकों पर सत्तारूढ़ पार्टियों का जनता को झुनझुना थमाना बंद नहीं हुआ. एक दिन में 5790 शिलान्यास, 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देना, रेवड़ी की तरह यश भारती बांटते रहना.... अखिलेश सरकार कोई नई नजीर पेश नहीं कर रही. चुनाव करीब देख सभी सरकारें इसी तरह के लुभाववनेफैसले करती रही हैं. रश्म अदायगी की तरह यह सब कबसे चला आ रहा है.
क्या जनता ऐसे फैसलों से खुश होती है और सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में इससे जनमत बनता है? या जनता अच्छी तरह जानती है कि यह चुनावी झुनझुने हैं? जनता कई मायनों में क्रमश: समझदार हुई है. उसे पता है कि चुनाव के मौकों पर सरकारें सभी को खुश करना चाहती हैं. इसलिए वह अपनी कई लम्बित मांगों को चुनाव के ऐन पहले जोर-शोर से उठाती है. देखिए कि पिछले कुछ समय से समाज के विभिन्न वर्ग अचानक सड़कों पर उतर आए हैं. धरना स्थल से लेकर विधान भवन तक नारेबाजी, जुलूस और उग्र आंदोलन हो रहे हैं. दिन भर रास्ते जाम रहते हैं. यह सब सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के तरीके हैं और सबको उम्मीद रहती है कि इस नाजुक समय में उनकी मांग पूरी कर दी जाएंगी. चुनाव पूर्व का यह अवसर स्वर्णिम माना जाता है.
जनता के विभिन्न वर्ग इस मौके की ताक में रहते हैं तो सरकार ढूंढ-ढूंढ कर लोगों को खुश करने की कोशिश में लगी रहती है. ऐसे-ऐसे फैसले कर दिए जाते हैं जो नियम-कानूनों पर खरे नहीं उतरते और जिनके बाद में रद्द हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है. 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का फैसला ऐसा ही है. सपा सरकार अपने पहले कार्यकाल में भी यह फैसला कर चुकी थी लेकिन कानूनी अड़चनों के कारण लागू नहीं हो पाया था. फैसला हुआ लेकिन सम्बद्ध वर्ग को उसका कोई लाभ नहीं हुआ. चुनावी फैसलों की नियति ऐसी भी होती है.
सत्तारूढ़ पार्टी के चुनाव हार जाने पर इनमें से कई फैसले या तो रद्द कर दिए जाते हैं या भुला दिए जाते हैं. सत्ता में नई-नई आई दूसरी पार्टी के लिए फैसले बदलना मुश्किल नहीं होता क्योंकि चुनाव बहुत दूर होते हैं और जनता भी जानती है कि नई सरकार पर इन फैसलों को अमल में लाने की जिम्मेदारी नहीं है.
सरकारें अपने पूरे कार्यकाल के काम-काज पर भरोसा क्यों नहीं करती होंगी? अगर ऐसे तमाम फैसले करना जनहित में है तो उन्हें पहले क्यों नहीं किया जाता? क्या सरकारें और राजनीतिक दल मानते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत छोटी होती है और पहले लिए गए फैसले उसे याद नहीं रहते? क्या यह माना जाता है कि जनता अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए ही राजनीतिक दलों का मुंह ताकती है? क्या वह भरोसा नहीं करती कि सरकारें व्यापक जनहित में ही महत्वपूर्ण फैसले करेंगी? लगता तो ऐसा ही है और यह बहुत अफसोसनाक है. कैसी लोकतांत्रिक त्रासदी है कि एक अदद सड़क या पार्क या वेतन-भत्ते में संशोधन वगैरह, मांग जायज हो या नाजायज, के लिए लोग चुनाव का इंतजार करते हैं. आखिर बाकी समय सरकारों को हम किस काम के लिए छोड़े रखते हैं? (NBT, Dec 25, 2016) 

  

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