सुबह पता चला कि आज उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी (उपपा) का नौवां स्थापना दिवस
है. उत्तराखण्ड में अपेक्षित परिवर्तन के लिए राजनैतिक विकल्प की कामना से आठ साल
पहले पी सी तिवारी एवं साथियों ने इस पार्टी का गठन किया था. कुछ चुनाव भी इस बीच
लड़े लेकिन सफलता बहुत दूर रही. इस बार भी वह कुछ सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर रही
है.
उत्तराखण्ड के निरंतर बिगड़ते हालात को बदलने के लिए कई जुझारू संगठनों, नए-पुराने आंदोलनकारियों, जनता
के विभिन्न वर्गों, खासकर
युवाओं-महिलाओं में बेचैनी अक्सर सामने आती है. उपपा ने पिछले साल नानीसार में
ग्रामीणों की जमीन हड़पने के खिलाफ जो जोरदार संघर्ष किया, उसे सभी का समर्थन मिला था. पी सी तिवारी और उनके कुछ
साथियों पर जानलेवा हमला हुआ था. जनता की जमीन साजिशन हड़पने और आंदोलनकारियों पर
हमले के खिलाफ बहुत सारे लोग, संगठन, आदि नानीसार में एकत्र हुए थे. नानीसार आंदोलन ने जन
संगठनों की एकता की जरूरत रेखांकित की थी लेकिन बहुत जल्द वे सब फिर अपने-अपने
कोनों में सीमित हो गए.
आज नानीसार आंदोलन और उसमें व्यापक भागीदारी की याद इसलिए आ रही है कि उनमें
से कुछ संगठन, दल और कार्यकर्ता
उत्तराखण्ड के अलग-अलग हिस्सों में चुनाव लड़ या लड़ा रहे हैं. सब अलग-अलग हैं, यह
जानते हुए भी कि उत्तराखण्ड में सार्थक हस्तक्षेप के लिए उनकी एकता बहुत जरूरी है.
अलग-अलग चुनाव लडकर वे कुछ हासिल नहीं कर सकते.
उत्तराखण्ड लोक वाहिनी, उपपा, विभिन्न वामपंथी दल, परिवर्तन की चाह से हर चुनाव में बनने वाले कुछ गुट और कई लड़ाकू साथी निर्दलीय
भी चुनाव लड़ते आए हैं. इनमें से जीतता एक भी नहीं. भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से
राज्य की सत्ता में आते और जनता के संसाधनों की लूट मचाते हैं. जनता उनसे आजिज आने
के बावजूद उन्हें चुनती है क्योंकि किसी और राजनैतिक ताकत पर उसकी भरोसा बन नहीं
पाया.
परिवर्तन चाहने वालों और उत्तराखण्ड के चौतरफा शोषण से लड़ने वालों, उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों और तरह-तरह से हस्तक्षेप करने
वालों की कमी नहीं है लेकिन दुर्भाग्य कि वे एक नहीं हो पाते. एक न हो पाने की
वजहें बहुत बड़ी नहीं हैं. उत्तराखण्ड के वर्तमान दयनीय हालात क्या उनमें न्यूनतम
सहमति के आधार पर भी एकता नहीं कर सकते?
जैसे, उपपा और उस जैसे जो
भी संगठन/दल, इसमें स्वराज अभियान
को भी शामिल मानें, चुनाव लड़ने या लड़ाने
जा रहे हैं, क्या वे सब मिलकर एक
दूसरे का तन-मन-धन से समर्थन नहीं कर सकते? वे
तमाम लोग जो किसी भी रूप में बेहतरी के लिए सक्रिय हैं और जो उनसे सहानुभूति रखते
हैं, इसे एक जरूरी अभियान मान कर इस
चुनाव में हर सम्भव साथ नहीं दे सकते?
रातों रात कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति खड़ी नही हो सकती जो भाजपा या कांग्रेस का
मुकाबला करे. सभी परिवर्तनकामी ताकतें मिलकर
चुनाव लड़ें और यह कोशिश करें कि आठ-दस या पांच-छह विधायक जिता लें. ये पांच-छह
विधायक भी काफी हो सकते हैं सरकार पर दवाब बनाने के लिए. यह भी हो सकता है कि इन
चंद विधायकों के बिना कोई सरकार बन ही नहीं पाए, उस
स्थिति में ये विधायक किसी भी सरकार को बाहर से समर्थन दें और उत्तराखंड के
संसाधनों की लूट वाला कोई भी फैसला पारित न होने दें. ऐसा होने पर सरकार गिरा दें.
होने दें बार-बार चुनाव.
इससे एक तरफ कुछ हद तक लूट-खसोट रुकेगी तो दूसरी तरफ जनता तक यह संदेश जाएगा
कि राज्य में बदलाव तथा वास्तविक विकास के लिए किन ताकतों पर भरोसा किया जा सकता
है.
आप सोचें कि पी सी तिवारी, कमला पंत, राजा बहुगुणा, प्रभात ध्यानी, आदि (उदाहरणार्थ चंद मित्रों के नाम लेने के लिए क्षमा
करेंगे) को विधान सभा में क्यों नहीं पहुंचना चाहिए और बदलाव के लिए बेचैन लोगों में किसको इस पर आपत्ति हो सकती है? आखिर ये और इन जैसे तमाम जुझारू साथियों की पीठ सड़कों पर
लड़ने-पिटने के लिए ही कब तक ठोकी जाएगी?
क्या इस बारे में अब भी नहीं सोचा जाना चाहिए, हालांकि
चुनाव सिर पर हैं? मैंने नानीसार
आंदोलन के वक्त भी ऐसी अपील की थी. हो सकता है यह सब बहुत सरलीकृत उपाय और भावुक
अपील लगती हो लेकिन यह प्रयास क्यों नहीं किया जा सकता जबकि उत्तराखण्ड की लूट चरम
पर पहुंच गई है और कोई दूसरा विकल्प भी सामने नहीं है? चुनाव का बहिष्कार करके क्या होगा? और, भाजपा-कांग्रेस को
हराने लायक बड़ा राजनैतिक विकल्प बनाने का इंतजार कब तक करेंगे और तब तक उत्तराखण्ड
बचेगा भी?
तो, दोस्तो?
-नवीन जोशी, 18 जनवरी, 2017
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