Saturday, January 21, 2017

मुलायम-युग के बाद नया चोला पहन रही सपा



दृश्य 2007: गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री हैं मुलायम सिंह यादव और विधान सभा चुनाव का सामना कर रहे हैं. लखनऊ में अपने बंगले से सुबह जल्दी निकलते हैं औरअंधेरा होने के बाद लौटते हैं. एक दिन में नौ-दस चुनाव सभाएं. हेलीकॉप्टर एक जगह 30 मिनट से ज्यादा नहीं रुकता. बंगले में वापस आकर नेताओं-कार्यकर्ताओं-मीडिया से मिलने का लम्बा सिलसिला. सोने के लिए मुश्किल से चार घंटे. चुनाव सभाओं में कभी हरयाणा से चौटाला को ला रहे हैं तो कभी आंध्र से चंद्र बाबू नायडू को, असम से गोस्वामी तो कर्नाटक से बंगरप्पा.

दृश्य 2012: विपक्षी नेता के रूप में बहुमत वाली मायावती सरकार के खिलाफ तूफानी चुनाव प्रचार. युवाओं की कमान बेटे अखिलेश को दी है तो खुद अपनी चुनाव सभाओं में सपा प्रत्याशियों को मंच पर खड़ा करके जनता के सामने उनसे माफी मंगवा रहे हैं-इन्होंने गलती की थी और आपने सजा दे दी. अब आप इन्हें माफी दे दो और जितवा दो.

साल 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन से पहले मुलायम ने काफी पापड़ बेले, बड़ी उठा-पटक झेली और सपा को यू पी की ताकतवर पार्टी बनाने के लिए जबर्दस्त मेहनत की. गांव-देहात तक साइकिल चलाई और धर्मशाला में सोए. इस तरह लोहिया के इस चेले की साइकिल बड़ी धमक से एकाधिक बार यूपी की सत्ता तक पहुंची. यू पी का यह नेता देश का भी बड़ा नेता बना. क्षेत्रीय दलों और वामपंथियों के बीच सम्मान से स्वीकारा जाने वाला.

लेकिन मुलायम नामधारी यह देहाती पहलवान राजनीति में भी अपना चरखा दांव चलाता रहा. कभी दुश्मनों से दोस्ती की और दोस्तों को चित किया. इसी वजह से एक बार प्रधानमंत्री की दौड़ में आगे होकर भी उसे दगा मिली.
बढ़ती उम्र और कतिपय बीमारियां भी मुलायम को घर नहीं बैठा सकीं. उनके तेवर और दांव-पेंच चलते रहे. बेटे को यूपी की कमान सौंप कर वे केंद्र की राजनीति में जमना चाहते थे. प्रधानमंत्री बनने का सपना अब भी कुनमुना रहा था. लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मुलायम का अपना पसंदीदा दांव उनके अपने ही बेटे ने उनके खिलाफ लगा दिया.

विपरीत परिस्थितियों में भी ठसक से रहने वाले मुलायम आज अपने ही बनाए अखाड़े में चित हैं. 2017 के विधान सभा चुनाव में वे सेनापति नहीं हैं, संरक्षक हैं. आदेश देने वाले नहीं, मजबूरी में आशीर्वाद देने वाले पिता. अब बेटा है सेनापति और सर्वे-सर्वा. टिकट के लिए मुलायम के दर पर अब भीड़ नहीं है. उलटे, वे बेटे को छोटी-सी लिस्ट थमा कर निवेदन कर रहे हैं कि इन्हें टिकट दे देना.

मुलायम का यह हश्र दयनीय है. यहां इस विश्लेषण में जाने का समय नहीं है कि उनकी यह गति क्यों हुई. संक्षेप में सिर्फ इतना कि इसके लिए कोई और नहीं वे खुद दोषी हैं. उन्होंने समय और स्थितियां के अनुकूल आचरण करने में भूल की. सन 2012 की चुनाव सभाओं में जब वे कह यह रहे थे कि यह चुनाव युवाओं का है और वे ही सपा की सरकार बनाएंगे, तो फिर क्यों भूल गए कि युवा बेटे को सत्ता सौपने के बाद उसकी राह में रोड़े नहीं लगाने चाहिए. बेटा बगावत नहीं करता तो अपना राजनैतिक भविष्य डुबो बैठता. खैर.
अब पूछा जा सकता है कि मुलायम के सुप्रीमोन रह जाने के नफा-नुकसान हैं? पार्टी की चुनाव-सम्भावनाओं पर इसका क्या असर पड़ेगा? चुनाव प्रचार का दृश्य कैसा होगा?  

इस बात पर सभी राजनैतिक विश्लेषक एकमत हैं कि मुलायम के नेतृत्व में सपा का जो नतीजा इन चुनावों में निकलता, अखिलेश के कमान सम्भालने के बाद उससे अच्छा ही रहेगा. अखिलेश की बगावत उनकी लोकप्रियता का ग्राफ काफी बढ़ा है.

वैसे भी, जिन हालात में अखिलेश पिता मुलायम को अपदस्थ कर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उससे काफी हद तक सवालों के उत्तर मिल जाते हैं. चुनाव आयोग ने भी माना कि सपा का भारी बहुमत अखिलेश गुट के साथ है. मुलायम अपने पक्ष में कोई दस्तावेज ही पेश नहीं कर सके. साफ है कि लगभग सारी पार्टी अखिलेश के साथ चली गई. जो चंद नेता मुलायम के साथ रह गए थे वे भी चुनाव आयोग के निर्णय के बाद उधर हो लिए. बचे शिवपाल और अमर सिंह तो वे खुद ही अंतर्धान हो गए हैं. इस चुनाव में तो उनकी कुछ नहीं चलने वाली. अमर सिंह को पार्टी से बाहर ही समझिए.

पार्टी में दो-फाड़ होता तो कयास लगाए जा सकते थे कि किस गुट का क्या अंजाम होगा. साइकिल चुनाव चिह्न जब्त हो जाता तो बड़े सवाल खड़े हो जाते. अपने पूर्व कथन के मुताबिक अगर मुलायम अखिलेश के खिलाफ चुनाव लड़ते तो अद्भुत और अभूतपूर्व नजारा बनता. इस सब की नौबत नहीं आई. पूरी पार्टी अब अखिलेश के पीछे एक है. नेता जीबदल गए हैं. इसके साथ पार्टी का चेहरा भी थोड़ा बदला है. इसलिए कुछ परिवर्तन तो अभी होने लगे हैं.

टिकट वितरण का निर्णय अखिलेश और रामगोपाल कर रहे हैं. अपराधी प्रवृत्ति वाले कुछ खास नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, यह साफ है. हवा भांप कर माफिया अतीक अहमद ने खुद ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. मुख्तार अंसारी भी टिकट नहीं पाएंगे, यद्यपि ये सब अब अखिलेश के पाले में हैं. यह देखना रोचक होगा कि अखिलेश ऐसे तत्वों से किस हद तक पार्टी की सफाईकर पाते हैं क्योंकि मुलायम के जमाने से सपा में अपराधी नेताओं की भरमार है. सभी दागियों को टिकट वंचित करना सम्भव नहीं होगा. मुख्तार के भाई टिकट पा सकते हैं. चुनाव जीताऊ उम्मीदवार भी तो चाहिए. इसी कारण उन पूर्व मंत्रियों में भी कुछ को टिकट मिलेगा जिन्हें अखिलेश ने ही अपनी सरकार से हटा दिया था.

कुछ महीने पहले जब पिता-पुत्र टकराव चरम पर था, एक मंच से मुलायम ने मुख्यमंत्री बेटे को लताड़ते हुए कहा था- हैसियत क्या है तुम्हारी, सिर्फ साफ-सुथरी छवि से चुनाव जिता सकते हो?’ अखिलेश को अब अपनी हैसियत ही साबित करनी है. मुलायम शीर्ष पर होते तब भी सपा को यह चुनाव अखिलेश की निजी छवि और सरकार की उपलब्धियों के आधार पर लड़ना था. मतदाताओं को स्वाभाविक रूप से यह संदेश भी मिल गया है कि अखिलेश के काम-काज में अब रुकावट डालने वाला कोई नहीं होगा.

कांग्रेस से तालमेल करने की अखिलेश की सोची-समझी रणनीति पर अमल हो गया है. मुलायम शायद राजी नहीं होते.

मुलायम की अखिल भारतीय स्वीकार्यता की कमी अखिलेश को नहीं खलने वाली. लालू, ममता बनर्जी समेत कुछ अन्य बड़े नेता अखिलेश का प्रचार करने आने वाले हैं. कलह के समय मुलायम के ज्यादातर राष्ट्रीय दोस्त अखिलेश का ही पक्ष ले रहे थे.

और, यह नहीं मानना चाहिए कि मुलायम चुनाव प्रचार वास्ते नहीं निकलेंगे. उनकी भूमिका भीष्म पितामह से ज्यादा ही होने वाली है. उधर चाचा शिवपाल भी घर बैठे नहीं रहेंगे. उन्हें भी अपना भविष्य देखना है.

सत्ता में वापस आ गए तो अखिलेश की बल्ले-बल्ले होनी ही है. अन्यथा पिता व चाचा की तरफ से पराजय के लिए इंगित किए जाएंगे. लेकिन सपा में अब मुलायम-युग नहीं लौटेगा. चुनाव के बाद वह क्रमश: नया अवतार लेगी. 

-नवीन जोशी
(प्रभात खबर, 22 जनवरी 2017) 




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