मायावती चुनावी रथ यात्रा पर नहीं निकलतीं लेकिन अपनी रैलियों में वे उड़नखटोले
से जाती हैं. राहुल रोड शो और यात्राओं के दो चरण कर चुके हैं. अखिलेश 2017 की रथ
यात्रा पर निकल चुंके हैं. 2012 में भी वे अपने रथ पर निकले थे. जवाब में भाजपा
नेताओं के लिए चार रथ तैयार हैं. एक निकल चुका है और तीन बस निकलने ही वाले हैं.
इन यात्राओं के नाम जरूर आकर्षक होते हैं- बेहाल प्रदेश, विकास, परिवर्तन, आदि.
चुनाव आचार संहिता लागू होते ही प्रचार पर कई अंकुश लग जाते हैं. इसलिए अब
काफी पहले से शोर-शराबा और धूम धड़ाका होने लगे हैं. रथ यात्राएं और रोड शो इसीलिए
बढ़ गए हैं. चुनाव के समय नेता जनता के बीच जाना चाहते हैं लेकिन धूल-धक्कड़ और कठिन
यात्राएं अब उनके बस की बात नहीं. सभी की जीवन शैली आराम तलब हो चुकी है. वे दिन
गए जब चप्पल चटकाते नेता जनता के बीच जाते थे. अंगोछा बांधे, जहां-तहां चौपाल लगाते और कहीं भी चाय-पानी पीते बड़े नेता
अब नहीं दीखते. समाजवादी और वामपंथी भी नहीं, जो
सीधे जनता के बीच से आते और उनसे बराबर मिलते-जुलते रहते थे. वक्त के साथ समाजवाद
और वामपंथ का चाल-चेहरा भी खूब बदला है.
रोड-शो अब भी मेहनत का काम है लेकिन रोड शो में नेताओं के बीमार पड़ जाने की
खबरें काफी आने लगी हैं. रथ और विमान के जरिए सुकून से यात्राएं हो जाती हैं. रथ
में क्या नहीं होता. वातानुकूलित बैठक, बिस्तर, टॉयलेट, खान-पान का इंतजाम.
बीच-बीच में हाइड्रॉलिक पम्प से ऊपर अवतरित हो कर भाषण दिया, हाथ हिलाए, मालाएं जनता की तरफ
उछालीं और आगे चल दिए. शाम को तरोताजा अपनी कोठी या अतिथि गृह में हाजिर. धूल खाने
और पसीना बहाने की जरूरत नहीं. जनता के बीच होकर भी जनता से दूर!
दलित के घर जा कर खाना खाने वाले भी नहीं जान पाते कि दलितों का हाल कैसा है.
उनकी दिलचस्पी यह जानने में है ही नहीं. जनता और समाज के हालात जानने की इच्छा
किसी पार्टी के नेता में नहीं. चरण सिंह या मुलायम सिंह या कांशी राम या उनसे पहले
के कई नेताओं ने किस तरह पार्टी संगठन तैयार किया,
यह इतिहास में दर्ज है. अब पद-यात्रा की जगह रथ-यात्रा ने ले ली है. पद-यात्रा में
पैरों को कष्ट होता था और जनता के दुख-दर्द दिखाई देते थे. रथ-यात्रा में भीड़
दिखाई देती है, उसके गिले शिकवे
नहीं. राजनीति में अब उसकी जरूरत नहीं रही.
मीडिया ने भी नेताओं का काम आसान कर दिया है. जितना प्रचार वे करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा मीडिया कर देता है. अब ‘जनाधार’ वाले नेता नहीं रहे, सब ‘मीडियाधार’ वाले हैं. रथ यात्रा, रोड
शो और रैलियां भी वास्तव में अपना असर मीडिया के जरिए करते हैं. सोशल मीडिया अलग
एक मंच है. चुनाव जनता के बीच से ज्यादा मीडिया में लड़ा जाता है.
इस सब के लिए खूब धन चाहिए और इसकी कमी किसी के पास नहीं. चुनाव में अकूत राशि खर्च की जाती है और जीतने पर उससे कई गुना
कमाया जाता है. इस धन तंत्र को हम अब तक लोक तंत्र कह रहे हैं. (NBT, 06-11-2016)
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