नवीन जोशी
कई बार मेरे मन में यह ख्याल आता है कि अगर अखिलेश मुलायम के बेटे न होकर
तेज-तर्रार सपा नेता मात्र होते तो क्या मुलायम के खिलाफ बगावत कर पाते? करते तो क्या अधिसंख्य सपा सांसद, विधायक और दूसरे नेता-कार्यकर्ता उनका साथ देते? और, क्या अंतत: विजयी अखिलेश को मुलायम उसी तरह आशीर्वाद देते जैसे कि अब हार मानने के
बाद दे रहे हैं? उदाहरण के लिए, क्या आजम खां ऐसी बगावत कर सकते थे? तौबा-तौबा!
यानी राजनैतिक दलों में नेतृत्व हस्तांतरण या हथियाने के लिए रक्त-सम्बंधी होना
जरूरी है.
जवाब में नरेंद्र मोदी का ख्याल आता है. मोदी जी ने भाजपा के बूढ़े नेतृत्व के
खिलाफ बगावत ही की, हालांकि उसका स्वरूप
खुली चुनौती की बजाय लम्बी व्यूह-रचना थी. मोदी की टीम ने बहुत चतुराई और रणनीति
से आडवाणी जी को हाशिए पर डाल कर पूरी भाजपा पर कब्जा कर लिया. लेकिन सवाल उठता है
कि यदि अटल- आडवाणी का कोई रक्त-सम्बंधी भाजपा में नम्बर दो की हैसियत में होता तो
क्या मोदी यह तख्ता पलट कर पाते? भाजपा नेता और
कार्यकर्ता तब किसका साथ देते?
बात जाहिर है कि राहुल गांधी पर आएगी. उन्हें
कांग्रेस में मां सोनिया के बाद नम्बर दो की हैसियत से काम करते हुए काफी समय हो
गया है. अब पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात चल रही है. मगर राहुल में नेतृत्व की
क्षमता दिखाई नहीं देती. बल्कि, अक्सर वे मजाक का
पात्र बन जाते हैं. कांग्रेस की युवा पीढ़ी में राहुल से काबिल कई युवा हैं. कुछ
सयाने कांग्रेसी भी राहुल की तुलना में कहीं
ज्यादा योग्य और नेतृत्व सम्भालने में सक्षम हैं लेकिन कोई इस बारे में सोच भी
नहीं सकता, बगावत करना तो दूर.
इंदिरा गांधी की तरह सोनिया भी अपने बेटे के अलावा किसी और को नेतृत्व देने का
ख्याल दिल में लाएं भी क्यों!
पता नहीं नेहरू अपनी एकमात्र पुत्री इंदिरा की ताजपोशी करते या नहीं. उनकी मृत्यु अचानक हुई. शायद तब के दिग्गज कांग्रेसी ऐसा न
होने देते. अन्यथा शास्त्री जी प्रधाननमंत्री कैसे बनते. खैर. घुट्टी में राजनीति
पीने वाली इंदिरा ने 1969 में ‘बूढ़ी चौकड़ी’ के खिलाफ बगावत कर कांग्रेस के बड़े धड़े पर कब्जा किया और
जल्द ही खुद कांग्रेस बन गईं. उसके बाद किसी की हिम्मत उन्हें चुनौती देने की नहीं
हुई. बहू होने के बावजूद मेनका का क्या हश्र हुआ?
राजीव के समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बगावत की लेकिन वह पार्टी पर कब्जा करने
से ज्यादा बाहर जाकर नया दल बनाना था. कांग्रेस पूरी राजीव के साथ ही रही. एक बार
विश्वनाथ प्रताप ने बयान दे दिया था कि कांग्रेस में ना द तिवारी बेहतर
प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं. तब तिवारी जी को राजीव के प्रति अपनी वफादारी
साबित करने में पसीने छूट गए थे. वही तिवारी जी आज अपने बेटे को राजनीति में
स्थापित करने के लिए किस गति को प्राप्त हुए हैं !
बाद में ‘प्रधानमंत्री
मटीरियल’ तिवारी जी और अर्जुन
सिंह ने बगावत की थी लेकिन वह सोनिया से ज्यादा नरसिंह राव के खिलाफ थी. दोनों को
बाद में वापस सोनिया ही की शरण जाना पड़ा क्योंकि उनका साथ और किसी कांग्रेसी ने
नहीं दिया.
अब तो वंशवाद की कटु आलोचक भाजपा भी उसी राह पर चल पड़ी है. (नभाटा, 22 जनवरी, 2017)
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