Wednesday, April 10, 2019

चुनाव आयोग की साख दाँव पर



नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म की रिलीज चुनाव बाद तक टालने औरनमोटीवी पर रोक लगाने का चुनाव आयोग का ताज़ा फैसला स्वागत योग्य है लेकिन क्या इसमें उसने बहुत देर नहीं लगाई? एक बार तो लग रहा था कि यह फिल्म 11 अप्रैल को जारी हो जाएगी लेकिन अंतिम समय पर आयोग ने रोक लगा दी. यह अलग बात है कि इस बीच उसके ट्रेलर खूब जारी हुए.

और क्या नमोटीवी पर रोक लगाने के निर्णय में भी विलम्ब नहीं हुआ? क्या चुनाव आयोग केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री के दवाब में है?  

इन मामलों पर गौर कीजिए और स्वयं अपनी राय बनाइए- 

एक-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को लातूर में अपनी चुनाव सभा में बालाकोट हमले और पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट माँगे. उन्होंने पहली बार वोटर बने युवाओं से अपील की कि आपका पहला वोट बालाकोट पर हमला करने वाले बहादुर सैनिकों और पुलवामा के शहीदों को समर्पित हो सकता है क्या? विपक्ष ने शिकायत न की होती तो भी क्या आयोग को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए था? अब जबकि महाराष्ट्र के निर्वाचन अधिकारी की रिपोर्ट मिले भी एक दिन हो गया है, चुनाव आयोग इस पर कोई निर्णय क्यों नहीं ले पा रहा? वैसे भी, आसार यही हैं कि प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी कार्रवाई या टिप्पणी की सम्भावना नहीं के बराबर है. 

दो- पिछले छह महीने में आय कर विभाग ने विभिन्न राज्यों में कम से कम 15 बड़े विपक्षी नेताओं और उनके सहयोगियों के ठिकानों पर छापे डाले हैं. इनमें कर्नाटक में पाँच, तमिलनाडु में तीन, आंध्र में दो, दिल्ली में दो, और मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और यूपी में एक-एक विरोधी नेता निशाने पर रहे. इसी दौरान उत्तराखण्ड के सिर्फ एक छोटे भाजपा नेता के यहाँ छापा पड़ा, उससे भी भाजपा ने अपना नाता तोड़ लिया. चुनाव आयोग के पूछने पर आय कर विभाग ने उसे बताया कि उसकी कार्रवाई पूरी तरह निष्पक्षऔर तटस्थ है.

तीन- चुनाव आयोग ने जब केंद्रीय प्रत्यक्ष कर विभाग और राजस्व सचिव से बैठक में यह कहा कि चुनाव के दौरान काले धन की धर-पकड़ के लिए  छापे पूरी निष्पक्षता, तटस्थता और भेदभाव रहित होकर डाले जाने चाहिए तो राजस्व विभाग ने रूखा जवाब दिया कि हमें मालूम है कि निष्पक्षताका क्या अर्थ होता है. यही नहीं, राजस्व विभाग ने चुनाव आयोग से कहा कि वह अपने अधिकारियों से कहे कि चुनाव में अवैध धन के प्रयोग पर नियंत्रण लगाएं और हमें भी सूचित करें. इण्डियन एक्सप्रेसमें बुधवार को छपी एक खबर के अनुसार चुनाव आयोग को राजस्व विभाग का यह जवाब और उसका टोन नागवार लगा. जवाब में उसने इतना ही कहा कि हमें सारे छापों की नहीं, बल्कि चुनाव सम्बंधी अनियमितताओं के बारे में बता दिया जाए.

चार- टीवी पर दिन-रात भाजपा और मोदी का प्रचार करते नमोटीवी चैनल पर आयोग ने पहले चरण के मतदान की पूर्व संध्या पर रोक लगाई. पूछा ही जाना चाहिए कि यह फैसला लेने में आखिर इतनी देर क्यों लगी? पहले चरण का प्रचार थमने के बाद भी नमो चैनल पर भाजपा का प्रचार जारी था. यह भी नोट किया जाना चाहिए कि नमो टीवी आचार संहिता लागू होने के बाद लांच किया गया था. तब भी आयोग इतने दिन मौन रहा.

इस मामले में आयोग की भूमिका शुरू से वालों के घेरे में है. शिकायतें मिलने के बाद आयोग ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से जवाब माँगा था तो उसने कहा था कि यह डीटीएच ऑपरेटर्स द्वारा दी जा रही विज्ञापन प्लेटफॉर्म सेवा है. बस, आयोग चुप हो गया था, हालांकि टाटा स्काई ने बताया था कि नमो चैनल की सामग्री भाजपा कार्यालय से आती है. अब आयोग कह रहा है कि इस प्रसारण का खर्च भाजपा के खाते में जुड़ेगा. इससे  भाजपा को क्या फर्क पड़ने वाला है. उसके पास अकूत धन है और पार्टी के खर्च की कोई सीमा तय नहीं है. इसके अलावा पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में बड़े पुलिस अधिकारियों के तबादलों पर भी उसका रवैया विवादास्पद बना हुआ है.

ये मामले क्या कहते हैं?

टी एन शेषन के कार्यकाल से अब तक चुनाव आयोग की सख्ती और निष्पक्षता काबिले तारीफ रही है. उसने चुनावों की शुचिता और तटस्थता को बनाए रख कर विपक्ष और जनता का भरोसा जीता है. लेकिन इस बार सत्तारूढ़ दल के प्रति चुनाव आयोग की नरमी चर्चा में है.  कहा जा रहा है कि उसकी निगहबानी कमजोर पड़ गयी है, कि वह सरकारी दवाब में है, तो अकारण नहीं. कई पूर्व सैन्य अधिकारियों, अवकाश प्राप्त अफसरों और सिविल सोसायटी के जिम्मेदार लोगों ने भी आयोग को इस बारे में पत्र लिखे हैं. सवाल उठ रहे हैं कि क्या चुनाव आयोग मोदी के दवाब में है?

चुनाव आयोग पहले ही निर्देश दे चुका था कि चुनाव प्रचार में सेना का उल्लेख न किया जाए. उसके बावजूद स्वयं प्रधानमंत्री सेना और शहीदों के नाम पर वोट माँग रहे हैं. प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिए ऐसा आचरण क्या कहा जाएगा?

कुछ दिन पहले उपग्रह मार गिराने की क्षमता के सफल प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करना आयोग की नजर में चुनाव संहिता का उल्लंघन नहीं था. इस पर भी सवाल उठे.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के मामले का उदाहरण भी सामने है. योगी ने भारत की सेना को मोदी की सेनाकहा था. जिस पर विपक्ष ने ही नहीं, खुद पूर्व सैनिकों ने भी आपत्ति की थी. चुनाव आयोग ने निर्वाचन अधिकारी की रिपोर्ट पाने के बाद योगी से जवाब माँगा. अपने जवाब में भी योगी ने यही कहा कि उन्होंने मोदी की सेना कह कर कुछ गलत नहीं किया, इसके बावजूद आयोग ने योगी को सिर्फ भविष्य में सतर्क रहने की सलाहदेकर मामला खत्म कर दिया था.

अपनी सभी चुनाव सभाओं में प्रधानमंत्री सेना की बहादुरी का उल्लेख कर रहे हैं. ध्यान दीजिए कि ये प्रधानमंत्री की सामान्य जन सभाएं नहीं, भाजपा की चुनाव सभाएं हैं. यहाँ वे जो कहते हैं वह भाजपा के लिए  वोट माँगने के लिए कहते हैं.

लातूर में उन्होंने पहली बार के वोटरों से जो अपील की वह बहुत चालाकी भरी और आदर्श चुनाव संहिता को धता बताने वाली है. कहा जा सकता है कि उन्होंने बहदुर सैनिकों और शहीदों के नाम पर भाजपा को वोट देने की अपील नहीं की.  उन्होंने तो पहला वोट बहादुर सैनिकों और शहीदों को समर्पित करने की बात कही. बहुत सम्भव है कि आयोग को यही सफाई दी जाए और वह मान ले.

अगर ऐसा होता है तो अह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा और चुनाव आयोग की रही-सही साख भी जाती रहेगी. प्रधानमंत्री पद की साख तो स्वयं मोदी ने अपनी वाणी से गँवा रखी है.  
http://samachar.org.in/election-commission-credibility-at-stake/

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