Monday, April 22, 2019

पहाड़ों से महानगरों तक बगरा वसंत


भवाली से नीचे उतरते ही पहाड़ी सड़क के तीखे मोड़ पर एकदम से वह सामने दिख गया. चटख लाल रंग वाले फूलों की ओढ़नी ओढ़े, इतराता सड़क पर झुका हुआ था.

-आ-हाssss! बुरांश!वसंत की गुनगुनी धूप में खिलखिला रहे उन बड़े-बड़े सुर्ख फूलों ने तन-मन में गुदगुदी मचा दी. गाड़ी मोड़-दर-मोड़ पार करती ढलान उतर रही थी. घाटी के उस पार पहाड़ी की घनी हरियाली के बीच भी जगह-जगह बुराँश के फूल दहक रहे थे. मन का लोक गायकगा उठा- पारा भीड़ा बुरूँशी फुली रै, मी झै कूनूँ मेरि हीरू ऐ रै छ.उस पार पहाड़ी पर बुराँश क्या खिले कि मुझे लगा मेरी हीरू आकर खड़ी हो गयी है!

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत को तो खिले बुराँश देखकर लगा था कि पूरा जंगल ही जल उठा है. वन-प्रांतर को दहका देने वाली अपनी रंगत वाले बुराँश ने पंत जी को अपनी एकमात्र कुमाऊँनी कविता लिखने के लिए विवश कर दिया था- सार जंगल में त्वे जस क्वे न्हाँ रे, क्वे न्हाँ! फुलन छै के बुराँश सार जंगल जस जलि जाँ!...पूरे जंगल में तुझ जैसा कोई नहीं रे, कोई नहीं. तू फूलता क्या है, बुराँश कि सारा जंगल ही सुलग उठता है.... तुझ में दिल की आग है, तुझ में जवानी का फाग है!

साल-दर-साल गर्मियों में सचमुच की आग से जल उठने वाले कुमाऊं के जंगल इस अप्रैल तक लप-लप कर फैलती लम्बी-आड़ी-तिरछी अनगिन अग्नि-जिह्वाओं और ऊपर उठते धुएँ के तप्त गुबारों से बचे हैं. इसलिए सुर्ख बुराँश-जड़ित हरित पर्वत शृंखलाओं के पार हिम-शिखरों को चूमती धूप अपना आनंद चारों तरफ लुटा पा रही है. प्रकृति के अद्भुत चितेरे कवि चंद्र कुँवर बर्त्वाल ने इसी वसंत के स्वागत में लिखा था- रोएगी रवि के चुम्बन से अब सानन्द हिमानी. फूट उठेगी गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.

हमने बचपन में साक्षात देखा था. युवा सूर्य महाशय इतने उन्मत्त होकर हिमानी को चूमते कि उसके आनन्द-रुदन से नदियाँ खूब कल-कल निनाद करती, इठलाती पहाड़ों से उतरती थीं. जितना ऊष्ण चुम्बन, उतनी तेज और ऊंची लहरें. पता नहीं अब रवि के चुम्बन में वह ऊष्मा नहीं रही या हिमानी ही उतना प्रेम-विगलित नहीं हो पाती, हिम-पोषित नदियाँ कल-कल, छल-छल करना ही भूल गयी हैं.

बाँज-बुराँश के जंगल से निकल कर सड़क किसी गाँव के पास से गुजरने लगी तो बाग-बगीचों में आड़ू, खुबानी, पुलम, आलूबुखारू के पेड़ हलकी गुलाबी और सफेद रंगत वाले फूलों से लदे दिखे. कुछ पेड़ों की शाखों पर एक भी पत्ता नहीं है. एक-एक डाल, एक-एक टहनी नन्हे-नन्हे फूलों के गुच्छों से लदी-फदी है. पराग-कण एकत्र करने के लिए मधुमक्खियाँ उन पर मणमणाती नाच रही हैं. क्या इन मधुमक्खियों को पता है कि इस प्रक्रिया में वे प्रकृति के फलने-फूलने के लिए गर्भाधान का उत्सव भी रचा रही हैं? पखवाड़े भर बाद ही इन फूलों के पीछे फलों की गोलाइयाँ आकार लेने लगेंगी!    

पूरे पर्वत प्रदेश पर वसंत उतरा हुआ है. पेड़-पौधों की शाखाओं पर नव-पल्लव मंद-मंद हवा में नाच रहे हैं. हरी-धानी-पीताभ-रक्ताभ नाजुक पत्तियों पर धूप नाच रही है. नहीं, अपने मद्धिम ताप से सेक कर उन्हें आने वाले समय से लड़ने के लिए तैयार कर रही है. इसीलिए हर रोज पत्तियों का रंग बदल रहा है.

पत्तियों पर वसंत के राग-रंग का अद्भुत कोलाज वापसी में रामनगर से गुजरते हुए कॉर्बेट पार्क में दिखाई दिया. पूरा जंगल जैसे अदृश्य पिचकारियों से होली खेल रहा था. अलग-अलग रंगों के विविध शेड्स में खिलखिलाते पेड़ एक दूसरे से होड़ ले रहे थे. एक ही वृक्ष पर कितने ही रंग. नये फूटे पल्लवों का अलग शेड है तो दो-चार दिन पुरानी पत्तियों की अलग ही दीप्ति. हफ्ते भर धूप ताप चुकी पत्तियों ने हरे-धानी रंग पर तनिक लालिमा भी ओढ़ ली है. कहीं लाल-लाल पत्तियों से सजा पेड़ फूलों का भ्रम दे रहा है तो कहीं पत्ते विहीन शाखों पर फूल-ही फूल हैं. कहीं अपना जीवन पूरा कर चुकी पीली-भूरी कुछ पत्तियाँ अब भी शाखा से चिपके रहने का मोह नहीं छोड़ पा रहीं. जाते-जाते पास की टहनी पर उगी नयी कोपलों से उनका कोई संवाद चल रहा होगा शायद- अनुभव जन्य कोई गूढ़ सन्देश! इन सबके बीच टेसू अलग ही शान से गमक रहा है. सड़क पर दौड़ती गाड़ी के भीतर भी जंगल के इस वसंत राग की मादक महक से मस्त हुई हवा की किलकारी हमारे कान सुन पा रहे थे.

भारी मन से अपने शहर लौटना हुआ कि महानगरों के कंक्रीट-वन में वसंत का यह उत्सव कहाँ देखने को मिलेगा. वसंत यहाँ आना तो दूर, इस तरफ झाँकने में भी सहम जाता होगा. मौसमों और ऋतुओं के लिए हमने शहरों में कोई गुंजाइश ही कहाँ छोड़ी है.

पहाडों पर वसंत के मेले की मधुर यादों के साथ उदास होकर दूसरी सुबह खिड़की से बाहर झांका तो सामने के छोटे से पार्क में आम के पेड़ ने उलाहना दिया- वसंत को हमने भी न्यौता है, हुजूर, देखने की फुर्सत है आपको? लपक कर बाहर आया तो पाया कि पूरा आम वृक्ष मंजरियों से लदा, खुशी के मारे कुछ नीछे झुक आया है.    मुहल्ले का इकलौता कचनार सफेद-बैगनी फूलों से सचमुच फूला नहीं समा रहा. थोड़ी दूर एक मकान के पीछे से झाँक रहे सेमल में लाल-नारंगी अनार फूट रहे हैं.

तो, हमारे हिस्से का वसंत कंक्रीट के इस जंगल में भी नाना विधि उत्सव मचाये हुए है. सहजन के सफेद फूल तेजी से झर-झर कर अपने पीछे नाजुक पतली फलियों को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने में लगा है. चिड़ियाघर, राजभवन, और जहाँ कहीं भी अच्छी हरियाली बची है, वहाँ वसंत पूरी मस्ती में उतर आया है. पीपल के ताजा पत्तों पर उसने सुनहरी पॉलिश चढ़ा दी है. चिलबिल के पेड़ों पर धानी गुच्छे बन्दनवारों की तरह डोल रहे हैं.  

हाँ, महानगरों में भी वसंत ने यहाँ-वहाँ जंगली बेरियाँ पका दी हैं. सिंगड़ी की कंटीली झाड़ों के सिरों पर वह प्रकृति की जलेबी को आकार देने में लगा है. कहीं-कहीं अब भी बच रहे इमली के विशाल पेड़ों पर आकार लेतीं फलियां अभी से जीभ में चटकारा भर दे रही हैं. उस शांत-शर्मीले पेड़ पर कब जामुनी शहतूत निकल आये, हमने देखा ही नहीं!  

मन की उदासी पूरी तरह बिला गयी. महानगरों में हमने प्रकृति की ओर देखना छोड़ दिया है या हमें फुर्सत ही नहीं है लेकिन प्रकृति बिना आहट रचना में मगन है. नीम की कोमल धानी पत्तियों के बीच निमकौरियों के गर्भाधान के भी यही दिन हैं. और, गुलमोहर तथा अमलतास मई-जून की चटक दोपहरियों में धूप को मात देती हँसी के साथ खिलने को तैयार हो रहे हैं.


(नभाटा, मुम्बई, 21 अप्रैल, 2019)

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