आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन
करने के कारण चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी,
पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और पूर्व मंत्री आजम खान को दो से तीन दिन तक
चुनाव प्रचार करने से रोक दिया है. आयोग ने यह ‘सख्त’
कार्रवाई इसलिए की है कि ये नेता चुनाव प्रचार में साम्प्रदायिक
भावनाएं भड़काने और अभद्र टिप्पणियों के
दोषी पाये गये. इसे संयोग कहिए या सुप्रीम कोर्ट का दवाब कि इस कार्रवाई से पहले
सर्वोच्च अदालत ने चुनाव आयोग से पूछा था कि धर्म और जाति के आधार पर वोट मांग कर
आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर क्या कार्रवाई की जा रही है.
चुनाव आयोग की इस सख्त कार्रवाई से
एक बात स्पष्ट है कि संवैधानिक पदों पर बैठे जिम्मेदार नेता भी अब चुनाव आचार
संहिता का खुल कर उल्लंघन करने लगे हैं. छुटभैय्ये नेताओं और प्रत्याशियों की ‘जुबान फिसलने’ या जानबूझ कर जातीय-धार्मिक और
व्यक्तिगत अशालीन टिप्पणियाँ करने के मामले चुनाव के दौरान पहले भी खूब होते थे.
हाल के वर्षों में ऐसे मामले न केवल बढ़े हैं बल्कि ऐसे नेता भी आचार संहिता का
उल्लंघन करने लगे हैं जो संविधान की शपथ लेकर महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं.
देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री,
उसी प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं और अपनी पार्टी की
राष्ट्रीय अध्यक्ष, एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और कई बार
मंत्री रहे एक नेता से यह अपेक्षा कतई नहीं की जाती कि वे आचार संहिता का उल्लंघन
करेंगे. बल्कि, उनसे अपेक्षा यह रहती है कि वे अपनी पार्टी
के छोटे नेताओं-कार्यकर्ताओं को ऐसा करने से रोकेंगे. लेकिन देखिए कि न केवल
उन्होंने साम्प्रदायिक भावना भड़काने वाले भाषण दिये बल्कि उनमें से दो ने चुनाव
आयोग की इस बारे में मिली नोटिस का जवाब तक देना उचित नहीं समझा. और, इन जिम्मेदार नेताओं में से एक ने भी यह नहीं माना कि उनसे गलती हुई.
यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि
योगी ने अपने भाषण में कहा था कि ‘उन्हें
अली प्यारे हैं तो हमें बजरंगबली प्यारे हैं.’ उन्होंने ‘हरे वायरस’ का उल्लेख भी किया था. मायावती ने देवबंद
में मंच से अपील की थी मुसलमान अपने वोट का बंटवारा न करें और सिर्फ गठबंधन के
उम्मीदवार को ही वोट दें. गलती स्वीकार करने की बजाय हमारे इन नेताओं ने क्या किया?
मुख्यमंत्री योगी ने चुनाव आयोग को दिये जवाब में कहा है कि मैंने
आचार संहिता का उल्लंघन किया ही नहीं. मैं तो विपक्षी नेताओं की छद्म
धर्मनिरपेक्षता का पर्दाफाश कर रहा था. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने सम्वाददाता
सम्मेलन में कहा कि मैंने कुछ गलत नहीं कहा. चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के दवाब में
और दलित-विरोधी मानसिकता से काम कर रहा है.
इसका अर्थ यह है कि इन नेताओं ने जो
कहा और जिसे साफ-साफ आचार संहिता का उल्लंघन माना गया,
वह गलती से या भावावेश में मुँह से नहीं निकला, वह सोच-समझ कर ही कहा गया. यही वह तथ्य है जो चिंताजनक है. चुनावी राजनीति
आज उस जगह पहुँच गयी है जहाँ आचार संहिता उल्लंघन इरादतन और वर्ग-विशेष के
मतदाताओं को इंगित करके किया जाता है.
प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का एक
विशिष्ट जातीय-धार्मिक गणित है. कहीं मुसलमान मतदाता बहुतायत में हैं,
कहीं सवर्ण हिंदू, कहीं पिछ्ड़ी जातियों के वोटर
ज्यादा हैं और कहीं दलित. हर पार्टी के पास इनकी उप-जातियों का गणित भी है. पूरा
चुनाव इसी गणित और गोलबंदी से लड़ा जाता है. हमारी चुनाव प्रणाली की त्रासदी यह है
कि मात्र 25-30 फीसदी वोट पाने वाला प्रत्याशी चुनाव जीत जाता है. एक अध्ययन के
अनुसार 70 प्रतिशत विधायक और सांसद कुल पड़े वोटों के अल्पमत से चुनाव जीतते हैं
यानी मतदाताओं का बहुमत उसके विरुद्ध होता है.
चूँकि चुनाव जीतने के लिए कोई 30
फीसदी वोट पर्याप्त होते हैं, इसलिए
सभी उम्मीदवार और प्रत्याशी जातीय-धार्मिक मतदाता समूहों को लक्ष्य करके प्रचार
करते हैं. कोई मुसलमानों को सम्बोधित करता है और कोई जवाब में हिंदू मतों का
ध्रुवीकरण कराने की कोशिश में लगा रहता है. इसी जातीय-धार्मिक आधार पर प्रत्याशी
खड़े किये जाते हैं और भाषण भी इन्हीं वोटर-समूहों को लक्ष्य करके दिये जाते हैं.
पहले इतना लिहाज बरता जाता था कि खुलेआम आचार संहिता का उल्लंघन नहीं होने पाये.
येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के इस अनैतिक और उग्र दौर में आचार संहिता और मर्यादा
सबकी धज्जियाँ उड़ाई जाने लगी हैं. गलती न मानना भी इसी रणनीति का हिस्सा है कि जो
कहा सही कहा और डंके की चोट पर कहा.
इसलिए काफी पहले से चल रही चुनाव
सुधार चर्चाओं में एक सुझाव यह भी शामिल है कि चुनाव जीतने के लिए कुल मतदान का
पचास फीसदी से ज्यादा वोट पाना अनिवार्य कर दिया जाए. सन 2000 में गठित संविधान
कार्यकरण समीक्षा आयोग की बैठकों में इस पर खूब चर्चा हुई थी. सवाल उठा था कि यदि
किसी को भी पचास फीसदी से अधिक वोट नहीं मिले तो? उपाय
सुझाया गया कि तब सबसे ज्यादा वोट पाने वाले दो प्रत्याशियों के बीच पुनर्मतदान
हो. चुनाव आयोग ने भी इसे व्यावहारिक पाया था लेकिन पता नहीं क्यों अंतिम रिपोर्ट
में इस सुझाव को सिफारिश के तौर पर शामिल नहीं किया गया. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक
रिफॉर्म्स (एडीआर) ने भी इसे चुनाव सुधार के लिए महत्त्वपूर्ण सिफारिशों में शामिल
किया है.
चुनाव जीतने के लिए पचास फीसदी से
ज्यादा वोट पाना अनिवार्य करने का एक लाभ यह होगा कि प्रत्याशियों को
जातीय-धार्मिक मतदाता समूहों की बजाय क्षेत्र के सभी मतदाताओं को सम्बोधित करना
होगा. उनके बीच लोकप्रिय होने की कोशिश करनी होगी. इस प्रयास में वह जातीय-धार्मिक
आधार पर प्रचार से बचेगा. बहुमत से जीतने वाला जनता का वास्तविक प्रतिनिधि भी
होगा.
जिस तरह आज आचार संहिता की जान-बूझ
कर धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं, चुनाव
जीतने के लिए समाज की सतरंगी चादर तार-तार की जा रही है और धन-बल से मतदान को
प्रभावित किया जा रहा है, उसे देखते हुए चुनाव सुधार अब
अत्यावश्यक हो गये हैं.
पिछले दो-तीन दशक में चुनाव-प्रक्रिया
कुछ साफ-सुथरी हुई थी. प्रत्याशियों की सम्पत्ति और आपराधिक इतिहास के शपथ-पत्र
दाखिल करना अनिवार्य करने से जो बदलाव आया था, वह
निष्प्रभावी लगने लगा है. आचार संहिता का सख्ती से पालन कराने से भी थोड़ा फर्क
पड़ता है लेकिन जातीय और साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति को
थामने के लिए कुछ बड़े सुधारों की जरूरत होगी.
लोकतंत्र की शक्ति के लिए चुनाव की
शुचिता को बनाए रखना जरूरी है लेकिन उस देश के ताने-बाने को अक्षुण्ण रखना उससे
ज्यादा जरूरी है जिसमें लोकतंत्र रहना है.
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