Saturday, April 13, 2019

क्या वोट की राजनीति तक ही सीमित है दलित प्रेम?



ठीक एक साल पहले, तेरह अप्रैल 2018 की सुबह उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों में एक फोटो प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी. प्रदेश के बदायूं जिले की इस फोटो में बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर की मूर्ति लोहे के सींखचों से बने बाड़े में कैद है. बाहर एक पुलिस वाला पहरेदारी में तैनात है. फोटो का समय कम विडम्बनात्मक नहीं था. 14 अप्रैल आम्बेडकर का जन्म दिन होता है.

उन दिनों आम्बेडकर प्रतिमाओं से तोड़-फोड़ की घटनाएं अचानक बढ़ गयी थीं. तीन-चार जिलों से ऐसी खबरें आने के बाद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने जिलाधिकारियों को सख्त निर्देश जारी किये थे कि इस पर रोक लगाई जाए. बदायूं के किसी अधिकारी को मूर्ति की सुरक्षा का यही तरीका सूझा होगा.

यह भी उन्हीं दिनों की बात है कि हाथरस के एक दलित युवक को कासगंज के ठाकुरों ने अपने गाँव के बीच से होकर बारात नहीं ले जाने दी. मामला अदालत से लेकर प्रदेश सरकार तक पहुँचा. कई दिनों के मान-मनौवल के बाद पुलिस संरक्षण में बारात निकली, वह भी बदले हुए रास्ते से.

सत्रहवीं लोक सभा के लिए चुनाव हो रहे हैं. दलितों के वोट पाने के लिए लगभग सभी राजनैतिक दल हर चंद कोशिश कर रहे हैं. अपने को दलितों कीवास्तविक हितैषी पार्टी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. आम्बेडकर सभी के परम आदरणीय नेता बने हुए हैं.

कांग्रेस परेशान है कि कभी उसके पीछे एकजुट रहने वाले दलित मतदाताओं को वापस पाले में कैसे लाया जाए. हाल के वर्षों में भाजपा ने अपना दलित-हितैषी चेहरा बनाने की बहुत कोशिश की है. 2014 में उसके बहुमत से केंद्र की सत्ता में आने का एक प्रमुख कारण दलितों का समर्थन भी था. कभी सवर्णों की पार्टी का दर्जा रखने वाली भाजपा उसके बाद से दलितों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए कई जतन कर रही है. प्रधानमंत्री ने आम्बेडकर के अस्थि कलश के समक्ष सिर नवाया और सफाई कर्मचारियों के पाँव पखारे. भाजपा के शीर्ष नेताओं ने दलितों के घर जाकर खाना खाने जैसे आयोजन किये. एससी-एसटी एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से आक्रोशित दलितों को खुश करने के लिए संसद में संशोधन विधेयक पारित कराया.   

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दलितों की बड़ी नेता मायावती की चिन्ता है कि दलितों पर अपना जादू कैसे बनाए रखा जाए. इसलिए वे भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस की चालों से भी दलितों को आगाह कर रही हैं. गाँव-कस्बों में दलितों के साथ हमेशा से टकराव की मुद्रा में रहने वाली पिछ्ड़ी जातियों के नेता अखिलेश यादव पहली बार यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि समाजवादी पार्टी उनके लिए कितनी फिक्रमंद है. बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान दलित वोटों पर अपना-अपना दावा करते हैं. इस बीच वहाँ महादलितयानी दलितों में भी दलित उप-जातियों के नये नेता निकल आये हैं. दलित वोटों की लड़ाई और घमासान हो गयी है.

आम्बेडकर की कर्मभूमि रहे महाराष्ट्र में दलितों के समर्थन की दावेदारी करने वाले एकाधिक राजनैतिक दल हैं. कोई सत्तारूढ़ दल के साथ गठबंधन में है तो कोई विपक्ष के साथ और कोई अपनी अलग चुनावी राह पर. देश के अन्य राज्यों में भी यही हाल है. जिन राज्यों में दलित पार्टियाँ नहीं बनीं, वहाँ यूपी से बहुजन समाज पार्टी पहुँची है या फिर कांग्रेस और भाजपा में उनका समर्थन पाने की लड़ाई छिड़ी हुई है.

दूसरे-तीसरे दर्जे के दलित नेताओं की भी पूछ बहुत बढ़ गयी है. एक पार्टी के असंतुष्ट दलित नेता को विरोधी पार्टी ससम्मान अपनी पार्टी में शामिल ही नहीं कर रही, उसे फौरन लोक सभा का टिकट भी दे रही है. आजादी के बाद लम्बे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस ने जगजीवन राम को दलित नेता के रूप में मंत्रिमण्डल में बराबर जगह दी. उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार को सरकार और संगठन में महत्त्वपूर्ण दर्जा मिलता रहा. गैर-कांग्रेसवाद और मध्य जातियों के उभार के दौर में भी कुछ दलित नेता केंद्र और राज्य स्तर पर सत्ता का सुख पाते रहे. कांशीराम ने दलितों को राष्ट्रीय पार्टियों के पिछलग्गू बने रहने की बजाय दलितों की अपनी पार्टीबसपा के झण्डे तले एकजुट करने का अभियान चलाया. उनके प्रयास से बसपा एकाधिक बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आयी.

इस पूरे दौर में दलितों के जमीनी हालात में बहुत सुधार नहीं आया. सार्वजनिक जल-स्रोतों से पानी लेने पर दलितों की पिटाई, स्कूलों से दलित छात्रों के अपमानजनक निष्कासन, सरकारी दफ्तरों में दलित कर्मचारियों से भेदभाव, जाति-सूचक सम्बोधनों से अपामनित करने, पालकी अथवा घोड़ी ले जाने के अपराधमें दलितों की बारातों पर हमले, बेगार, बर्बर दमन, महिलाओं से बलात्कार, जैसी घटनाएँ देश के विभिन्न भागों में लगातार होती रहीं. आज भी हो रही हैं. आम्बेडकर प्रतिमाओं में तोड़-फोड़ इस दमन-उत्पीड़न के प्रतीक हैं.

स्वाभाविक सवाल है कि क्या राजनैतिक दलों के दलित-हितैषी चेहरे और दलितों की वास्तविक स्थिति में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है? जब सभी पार्टियाँ दलितों के उत्थान का वादा और दावा करती हैं तो समाज में यह परिलक्षित क्यों नहीं होता? क्या नेताओं का दलित-प्रेम वोट की राजनीति तक सीमित है? स्वयं दलित नेता भी क्या वोट ही के सौदागर हैं?

ऐसा नहीं है कि आजादी के इतने वर्षों में दलितों के हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया. आरक्षण की बदौलत और जागरूकता से उनमें शिक्षा और रोजगार बढ़े हैं. राजनैतिक-सामाजिक चेतना आयी है. नेतृत्व विकसित हुआ है. अत्याचार और दमन के विरुद्ध प्रतिरोध करने और बराबरी के अधिकार के लिए लड़ने की क्षमता पनपी है लेकिन एक सीमित दायरे में. बहुसंख्यक दलित आज भी गरीब, शोषित-उत्पीड़ित है. उसका वोट आज भी खरीदा और बरगलाया जा रहा है.

दलितों के वोट संख्या बल में महत्त्वपूर्ण हैं. यह इसी से पता चलता है कि सभी दल उन्हें सत्ता पाने की कुंजी मान रहे हैं. चुनाव बाद वे उनके मान-सम्मान, बराबरी और वास्तविक हित के लिए भी ईमानदार कोशिश करते हैं, हालात तो यह नहीं बताते.

(नभाटा, मुम्बई, 14 अप्रैल, 2019) 
    

    


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