Wednesday, April 03, 2019

मुद्दोंं की बजाय भावनाओं के हथियार



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अपने पाँच साल के शासन की उपलब्धियाँ गिनाने को कम नहीं होनी चाहिए.  अक्सर वे अपने भाषणों में दावा भी करते रहे हैं कि उनकी सरकार ने देश के आम जन के लिए पहली बार क्या-क्या किया है. साठ साल के कांग्रेसी राजकी तमाम गड़बड़ियाँ गिनाते हुए वे उसे दुरुस्त करने की बात लगातार करते रहे हैं. अभी कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि पाँच साल गड्ढे भरने में लग गये. अब गाड़ी सरपट दौड़ानी है.

पिछले आम चुनाव में जनता ने उन्हें भारी बहुमत से सत्ता में बैठाया था. सरकार चलाने में किसी किस्म की गठबंधन-बाध्यता या मजबूरियाँ उनके सामने नहीं रहीं. पार्टी उनके पीछे एकजुट खड़ी रही. आरआरएस का भी पूरा समर्थन रहा. इसलिए आज जब वे दोबारा सत्ता की दावेदारी करते हुए जनता के बीच जा रहे हैं तो उनका जोर अपनी सरकार की उपलब्धियों पर ही क्यों नहीं है? वे जनता से एक और मौका माँगने के लिए अपने काम-काज के बढ़िया हिसाब पर भरोसा क्यों नहीं कर रहे?

यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि चुनाव-प्रचार पर निकले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का मुख्य स्वर हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकवाद, सेना का शौर्य, आदि पर क्यों केन्द्रित हो गया है? वे क्यों कांग्रेस को हिंदू-विरोधी साबित करने में पूरा जोर लगा रहे हैं? वे क्यों कहने लगे हैं कि कांग्रेस ही है जिसने हिंदू-आतंकवादशब्द गढ़ कर करोड़ों हिंदुओं का अपमान किया है और इसीलिए उनके नेता हिंदुओं के आक्रोश से डर कर उस सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं?

चंद रोज पहले की एक चुनाव सभा में मोदी के इस भाषण के क्या अर्थ निकाले जाने चाहिए कि पाकिस्तान और आतंकवादी चाहते हैं कि मोदी चुनाव हार जाए? जब वे कहते हैं कि विपक्षी नेताओं के भाषणों पर पाकिस्तान में तालियां बजती हैं, वहां के अखबारों में उनकी बातें सुर्खियां बनती हैंतो क्या वे अपनी उपलब्धियों की तुलना में इसे ही चुनाव जीतने का बड़ा फॉर्मूला मानते हैं?

मोदी ही नहीं, भाजपा के सभी स्टार प्रचारकों का मुख्य स्वर अपनी सरकार के पांच साला-प्रदर्शन की बजाय हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान और भारतीय सेना पर केन्द्रित हो गया है. भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह हों या उत्तर प्रदेश के संन्यासी-मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, वे कांग्रेस को हिंदू-विरोधी और पाकिस्तान-परस्त साबित करने में लगे हैं. योगी तो भारतीय फौज को मोदी जी की सेनातक कह गये जिस पर चुनाव आयोग को नोटिस लेनी पड़ी है. यह अनायास तो नहीं हो सकता. भाजपा और संघ के रणनीतिकारों ने बहुत सोच-विचार कर ही यह सुर अपनाया होगा.

दूसरी तरफ, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी अपना सुर बदला है. मोदी सरकार पर राफेल सौदे, बेरोजगारी, नोटबंदी के दुष्प्रभाव, आदि को लेकर तीखे हमले करने वाले राहुल गांधी इन दिनों अपनी चुनाव सभाओं में जनता को खूबसूरत सपने दिखाने लगे हैं. कांग्रेस की सरकार बनने पर वे देश के 20 फीसदी गरीब परिवारों को न्यूनतम आय योजना के तहत सालाना 72 हजार रु देने, नौकरियाँ बढ़ाने, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, स्वास्थ्य का अधिकार सुनिश्चित करने, जैसे कई लुभावने वादे कर रहे हैं.

राफेल विमान सौदे में प्रधानमंत्री मोदी पर सीधे भ्रष्टाचार का आरोप लगाते नहीं थकने वाले राहुल गांधी का यह सुर-परिवर्तन क्या बताता है? आरोपों की निरर्थकता दिखने लगी है या कि लड़ाई के हथियार बदलने की जरूरत आन पड़ी है?

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद आरएसएस-भाजपा का  पुराना और जाना-पहचाना एजेण्डा है. हर चुनाव में यह राग अलापा जाता है. जिन लालकृष्ण आडवाणी को आज मोदी-शाह की टीम ने हाशिए से भी बाहर धकेल दिया है, 1980 और 90 के दशक में उन्होंने ही इन मुद्दों को खूब हवा दी थी. नयी भाजपा उसी लहर पर सवार होकर आज यहाँ तक पहुँची है, किंतु जिन अटल जी का नाम वर्तमान नेतृत्त्व आज तक भुना रहा है उन्होंने भी पांच साल शासन चलाने के बाद इस एजेण्डे को इतना तूल नहीं दिया था. सन 2004 के चुनाव में वे अपना शाइनिंग इण्डियाका नारा लेकर उतरे थे, पाकिस्तान-विरोध और राष्ट्रवाद का मुख्य सुर लेकर नहीं. क्या तब शाइनिंग इण्डियाकी विफलता से आज यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सरकार की उपलब्धियाँ नहीं, पार्टी का मूल एजेंडा ही असली ताकत है? उसकी पूँछ पकड़ कर ही चुनाव वैतरणी पार करनी होगी?

या, कांग्रेस का सायास क्रमश: हिंदूकरणअब भाजपा को बड़ा खतरा लगने लगा है? पिछले दो-एक साल से कांग्रेस का उदार हिन्दुत्व का चोला धारण करना चर्चा में है. भाजपा नेतृत्व इसकी खिल्ली उड़ाता और नेहरू-गांधी परिवार के हिंदू होने पर ही सवाल उठाता रहा है. क्या अब उसे यह लगता है कि कांग्रेस का यह चोला-बदल असर दिखाने लगा है? इसलिए उसकी काट के लिए कांग्रेस को हिंदू-विरोधी साबित करने में ताकत लगानी होगी? क्या इसीलिए बताने की कोशिश की जा रही है कि कांग्रेस ने हिंदू-आतंकवादकहकर करोड़ों हिंदुओं का अपमान किया है?

और, क्या कांग्रेस ने हिंदूकरणका तीर निशाने पर लगा देख कर ही अपनी रणनीति बदल दी है? भाजपा को हिंदू-मुसलमान और पाकिस्तान में उलझा कर वह जनता से कुछ बहुत खूबसूरत वादे करने की तरफ क्या जान-बूझ कर मुड़ गयी है? न्यूनतम आय योजना के लुभावने वादे की व्यावहारिकता पर अर्थशास्त्रियों में भी कुछ धीर-गम्भीर चर्चा होना क्या सिर्फ संयोग है? भाजपा के लुभावने बजट-प्रस्तावों की तुलना में इसे और आकर्षक एवं चर्चित मुद्दा बनाना सोची-समझी रणनीति नहीं है?

चुनाव-संग्राम जिस जगह पहुँच गया है, वहाँ ऐसे कई सवाल उठने स्वाभाविक हैं? मोदी सरकार को सबसे बड़ा भरोसा अब तक के अपने प्रदर्शन पर होना चाहिए था, जैसा कि उसका दावा है कि वह बेमिसाल है. या तो इस दावे पर स्वयं ही शंका है या जनता के विवेक पर कि वह सरकार के काम-काज की बजाय भावनात्मक मुद्दों पर वोट देती है. क्या मतदान के दिन करीब आते-आते लड़ाई इसीलिए भावनाओं की पिच पर पहुँचाई जा रही है?
भावनाओं के इस युद्ध में कांग्रेस के शस्त्र शायद कमजोर पड़ रहे थे. इसीलिए उसने दूसरी तरह के हथियार  चुन लिए हैं. वह मोदी सरकार की कथित उपलब्धियों के सामने बड़े और आकर्षक वादे लेकर मैदान में आ डटी है. मोदी पर सीधे वार करने में जो तीर कामयाब होते नहीं लग रहे थे, उनकी जगह न्यायजैसे शस्त्र कम से कम चर्चा में तो आ ही गये हैं.

चुनाव-महाभारत के अस्त्र-शस्त्र एकाएक बदले दिख रहे हैं. अभी और नये पैंतरे दिखाई देंगे लेकिन जो हालात हैं उनमें निर्णायक लड़ाई भावनाओं के घातक हथियारों से ही लड़ी जाएगी.      

(प्रभात खबर, 3 अप्रैल, 2019) 
   
  


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