राजनीति और विशेषकर चुनावों में
धन-बल का बोलबाला पहले से रहा है. 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा
ने इसे पूरी तरह दौलत का खेल बना दिया. इस चुनाव में वह बेहिसाब धन बहा रही है. पिछले
पाँच साल में सरकार, नरेंद्र मोदी और पार्टी के प्रचार में भी
उसने बहुत ज्यादा सरकारी और पार्टी का धन खर्च किया. आरटीआई के जरिए समय-समय पर
इसके आंकड़े सामने आते रहे हैं.
भाजपा कितनीअमीर हुई है इसका अंदाजा
चुनाव आयोग को दिये गये उसके इस हिसाब के
इस अंश से लगाया जा सकता है- वित्तीय वर्ष 2017-18 में भाजपा को चुनावी बॉण्ड
योजना से 210 करोड़ रु से ज्यादा मिले. कुल चुनावी बॉण्डों का लगभग 95 फीसदी धन
भाजपा ही के हिस्से आया.’ कुल 222
करोड़ रु के बॉण्ड जारी किये गये थे.
चुनावी बॉण्ड जारी करके राजनैतिक
दलों के लिए धन जुटाने का खेल भाजपा ने ही शुरू किया. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को
दिये हलफनामे में चुनाव आयोग ने चुनावी बॉण्ड का विरोध किया है. आयोग ने कहा कि इसके जरिए राजनीतिक दल सरकारी
कंपनियों और विदेशी स्रोत से धन प्राप्त कर सकेंगे, जो जन प्रतिनिधित्व कानून का
उल्लंघन होगा. आयोग ने कहा कि हमने 2017 में चिंता जाहिर की थी और केंद्र सरकार से इस पर
पुनर्विचार की मांग की थी.
मोदी
सरकार ने चुनाव आयोग की इस मांग पर विचार करना तो दूर, उस कानून में ही संशोधन कर दिया जो
राजनैतिक दलों को विदेशों से धन लेने से रोकता था. विदेशी मुद्रा नियंत्रण कानून के
अनुसार राजनैतिक दल विदेशों से धन प्राप्त नहीं कर सकते थे. जन प्रतिनिधित्व कानून
के अनुसार भी यह प्रतिबंधित था. माना गया था कि राजनैतिक दल विदेशों से चंदा लेंगे
तो हमारी सरकारें उन विदेशी धनदाताओं के दवाब में रहेंगी. भाजपा और उसके नेताओं ने
इस भावना की कोई कद्र नहीं की.
मोदी
सरकार ने 2016 और 2018 के बजट प्रस्तावों की आड़ में विदेशी मुद्रा नियंत्रण कानून को
भी बदल दिया. इस बदलाव के बाद अब राजनैतिक दल न केवल विदेशों से धन ले सकते हैं, बल्कि उस लेन-देन की कोई जांच भी नहीं
हो सकती. यही नहीं, कानून में यह संशोधन 1976 से लागू कर
दिया गया है. यानी 1976 में बने इस मूल कानून के खिलाफ यदि किसी दल ने पूर्व में विदेशी
चंदा लिया भी होगा तो उसकी जांच नहीं की जा सकेगी.
राजनीति और प्रशासन में पारदर्शिता
की बात करने वाली भाजपा की यह करनी उसकी कथनी के सर्वथा विपरीत है. इससे साबित
होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपने को ‘सजग
चौकीदार’ कहते घूमना और चुनाव सभाओं में ईमानदारी बरतने,
काला धन जब्त करने और भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई करने की डींगें
हाँकना सिर्फ दिखावा है. तमाम चोर दरवाजों से पार्टी के लिए धन जुटाने की यह चाल
लोकतंत्र को धन-तंत्र बना देने के अलावा और क्या है?
इस तरह भाजपा ने जो अकूत धन कमाया है
उसका उपयोग भी खूब चतुराई और रणनीति के तहत किया है. उसने अपना दिल्ली का मुख्यालय
ही अत्यंत भव्य नहीं बनाया, बल्कि
देश भर में जमीनें खरीद कर आलीशान दफ्तर बनवाये हैं. पिछले पाँच साल में कई
राज्यों में जिले-जिले नये पार्टी कार्यालय खोले गये. एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार उत्तर
प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के नये भवनों पर
500 करोड़ रु खर्च हुए हैं. उत्तर प्रदेश के 51 और मध्य प्रदेश के 42 जिलों में के
पार्टी कार्यालयों का उद्घाटन हाल ही में हुआ है. इन वातानुकूलित दफ्तरों में नवीनतम सूचना प्रौद्योगिकी सुविधाओं के साथ आरामदेह
अतिथि कक्ष भी हैं. पहले उसके दफ्तर किराए के भवनों में बदहाली में हुआ करते थे.
सोशल मीडिया सेल पर भी भाजपा खूब
खर्च कर रही है. विरोधी दलों और विरोधी विचार वालों के खिलाफ निरंतर सच्चा-झूठा
प्रचार करने और भाजपा एवं नरेंद्र मोदी की छवि चमकाने के लिए बड़ी फौज सक्रिय है.
स्वयंभू सेनानियों के अलावा नियमित भुगतान पर नियुक्तियाँ की गयी हैं. कांग्रेस और क्षेत्रीय दल शासित शासन वाले
राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त मुँह मांगी कीमत पर जारी है. दूसरे दलों के
सम्भावनाशील प्रत्याशियों को रातोंरात
अपने पाले में लाया जा रहा है. ‘पंचायत
से लेकर संसद तक का हर चुनाव येन-केन-प्रकारेण जीतने की तिकड़मों के पीछे पार्टी की
अकूत कमाई ही है.
सिर्फ पांच साल के मोदी शासन में
भाजपा सबसे अमीर पार्टी बन गयी है. उसके मुकाबले ’70 साल राज करने वाली’ कांग्रेस आज ‘बहुत गरीब’ साबित हो रही है. कांग्रेस अपने उत्तर
प्रदेश मुख्यालय भवन का किराया भी नहीं जमा कर सकी है. उसे खाली करने का नोटिस
पिछले दिनों दिया गया था. राजनैतिक बॉण्ड और देसी कम्पनियों से चंदा पाने में भी भाजपा
के मुकाबले कांग्रेस फिसड्डी साबित हुई है.
धन-तंत्र से संचालित इस राजनीति ने जनता
के जरूरी मुद्दों के लिए लड़ने वाले और सक्रिय राजनीति में आकर हस्तक्षेप करने के
लिए प्रयासरत उन समर्पित छोटे दलों, आंदोलनकारियों
और प्रत्याशियों को हाशिए से भी बाहर धकेल दिया है. दोस्तों-समर्थकों और
परिवारीजनों से चंदा जुटा कर चुनाव लड़ते हुए जरूरी सवाल उठाने और वैकल्पिक राजनीति
की बात करने वालों के लिए कहीं जगह ही नहीं बची है. इस धन-तंत्र में आकण्ठ डूबे
मीडिया के लिए उनके संघर्ष और समर्पण के कोई मायने नहीं हैं. मीडिया के लिए
वही उम्मीदवार हैं जो अपने प्रचार की बड़ी कीमत चुका सकते हैं. धन-बली दलीय
प्रत्याशियों के चुनावी कोलाहल में सामान्य प्रत्याशी की आवाज और पहचान उभर ही
नहीं पाती.
चुनाव में धन-बल का यह वर्चस्व सभी
प्रत्याशियों को जनता के सामने पेश होने यानी चुनाव लड़ने के लिए बराबरी का अवसर
नहीं देता, जो कि आदर्श चुनाव में
होना चाहिए. जो प्रत्याशी 70 हजार रु भी नहीं जुटा पाते उनके लिए 70 लाख रु की चुनाव-खर्च सीमा
क्रूर मजाक ही है.
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