Sunday, November 16, 2025

'डेटिंग' और 'हग' वाले हमारी कशिश न समझ पाएंगे

1970 के दशक की बात है। सूचना निदेशक और साहित्यकार ठाकुर प्रसाद सिंह के दफ्तर में अक्सर युवाओं का जमावड़ा लगा रहता था। युवा लेखकों-कवियों को वे खूब प्रोत्साहित करते थे। अपने खास अंदाज़ में रोचक किस्से भी सुनाया करते थे। एक दिन बताने लगे कि कहीं फोन करने के लिए जब उन्होंने चोगा उठाकर कान में लगाया तो रिसीवर से आवाज़ें आ रही थीं उन दिनों अक्सर ऐसा हो जाता था। आपकी फोन लाइन किसी दूसरी लाइन से अपने आप जुड़ जाती थी और आप उनकी बातचीत सुन सकते थे। तो, फोन पर एक लड़का किसी लड़की से किसी शांत और एकांत जगह में मिलने की बात कर रहा था। लड़का हर बार एक जगह सुझाता तो लड़की तुरंत मना कर देती कि वहां ऐसा है, वहां वैसा है, वहां पास में चाचा रहते हैं, वहां दीदी की ससुराल है, वगैरह।

ठाकुर साहब बता रहे थे- बेचारा प्रेमी जोड़ा मिलने के लिए छटपटा रहा था। सो, थोड़ी देर बाद मैंने फोन पर कहा कि अगर चिड़ियाघर या दिलकुशा या रेजीडेंसी में न मिलना चाहो तो किसी लायब्रेरी में मिलो। वहां कोई देखेगा भी तो शक नहीं करेगा। यह कहकर फोन रख दिया मैंने।

पता नहीं वे सच्चा किस्सा सुना रहे थे या किस्से की मार्फत हम युवाओं को मिलने की जगह सुझा रहे थे। वह उम्र ही ऐसी थी। इकतरफा प्रेम में सभी पड़े रहते थे। अगर किसी का किस्सा दोतरफा हो गया तो मिलने के अवसर और जगहें ढूंढना बोर्ड के इम्तहान पास करने से कठिन होता था। हो सकता है, ठाकुर साहब को हममें से किसी के इस संकट का पता चल गया हो।

बहरहाल, उस समय तो नहीं लेकिन चंद वर्ष बाद शहर के पुस्तकालय हमारा बढ़िया और गोपनीय मिलन केंद्र अवश्य बने। ठाकुर साहब की सलाह तो काम आई ही, किताबों की संगत में मुहब्बत भी क्लासिकहुई! मोतीमहल स्थित आचार्य नरेंद्र देव पुस्तकालय और हजरतगंज के सूचना केंद्र वाले पुस्तकालय का आनन-फानन सदस्य बना-बनवाया गया। मेफेयर बिल्डिंग में ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी में बिना सदस्य हुए भी देर तक बैठा जा सकता था। वहां एसी चलता था और चंद ही पाठक होते थे। कोई-कोई तो सिर्फ ठंडी हवा में झपकी लेने आ जाया करते थे और एक पत्रिका सामने खोलकर ऊंघा करते थे। वहां निश्चिंत होकर देर तक बैठा और मंद्र स्वर में बतियाया जा सकता था। काउंटर पर बैठे हिंदुस्तानी सख्श की निगाह जरूर पीछा करती रहती थी।

लड़कियों के लिए भी लाइब्रेरी जा रही हूंकहकर घर से निकलना कुछ आसान होता था। तब लड़कियों को आज जैसी आज़ादी नहीं थी। शाम को अंधेरा होने तक घर लौटना होता था। कोई दो-ढाई घंटे बाद हाथ में एक किताब लेकर घर लौटने पर सवालों से कुछ बचत हो जाती थी, हालांकि बाहर की किताबें भी शक के दायरे में आती थीं। नरेंद्र देव लाइब्रेरी बिल्कुल कोने में थी। जाड़ों में उसके हरे-भरे लॉन में धूप भी सेकी जा सकती थी, हालांकि इसमें पकड़ेजाने का खतरा रहता था। मोतीमहल सोसायटी कुछ छात्र-छात्राओं को साल भर के लिए निशुल्क पाठ्य पुस्तकें भी जारी कर देती थी। विश्वविद्यालय में टैगोर लाइब्रेरी का लॉन भी अच्छी जगह था लेकिन दोस्त चैन से बैठने दें तब तो! सूचना केंद्र शहर के बीच में होने से वहां आना-जाना कतई मुश्किल नहीं था। शॉर्ट नोटिसपर मिलने के लिए वह अच्छी जगह थी।

लाइब्रेरी में मिलने का एक लाभ यह भी था कि अगर दोनों में कोई एक पहले पहुंच गया या दूसरे को देर हो जाय तो भी प्रतीक्षा असहज नहीं होती थी। तब लाइब्रेरी का वह लाभ उठाया जा सकता था जिसके लिए वे वास्तव में बनी होती हैं! सड़क पर साथ-साथ चलना अत्यंत दुस्साहस का काम था और रिक्शे पर साथ बैठना निश्चित रूप से खतरा मोल लेना होता था। तब सारा शहर घूरता था और बात कान-कान होते हुए लड़की को कटघरे में खड़ा कर देती थी। लड़की का भाई सबसे खतरनाक प्राणी हुआ करता था, भले ही वह स्वयं अपने लिए मिलने की जगह तलाशने में भटका फिरता हो। इसलिए लाइब्रेरी से कुछ समय के अंतराल पर अलग-अलग निकलना ही समझदारी होती थी।

हमारे एक मित्र और उनकी वहकुछ अधिक ही दुस्साहसी थे। वे किसी मित्र की स्कूटर दो घण्टे के लिए उधार लेकर चार घंटे से पहले न लौटते। इधर मित्र से सचमुच का झग़ड़ा होता, उधर घर पर कन्या का मुंह सूज गया रहता। ऐसा सिर्फ रोने से ही नहीं होता था, उससे पहले पिटाई की रस्म भी निभाई दी गई होती थी। सीतापुर रोड पर कोई आठ-दस किमी दूर नया-नया खुला पूरब-पश्चिमरेस्त्रां उनका पसंदीदा अड्डा हुआ करता था। कुछ ही दिन में उनका इश्क शहर भर में प्रसिद्ध हो गया। घायल खूब हुए लेकिन निकले वे प्रेमवीर चक्र विजेता ही। उनके किस्से हम बुढ़ापे में भी याद करते हैं, इस ताने के साथ कि तुम बहुत दब्बू थे! सुनना ही मजबूरी है क्योंकि अब उस मोर्चे पर कुछ किया नहीं जा सकता!   

डेटिंगशब्द हमने दूर-दूर तक सुना न था। यह जन्मा नहीं था या हमसे बहुत दूर कहीं पाया जाता था, पता नहीं। मुहब्बतों की तासीर में लेकिन कहीं कोई कमी नहीं होती थी। आज के प्रेमियों को हम चुनौती दे सकते हैं कि तुम्हारी मुहब्बतों में क्या तड़प होगी जो हमने झेली। दिल इतना उछलता था कि बस दौरा ही नहीं पड़ता था। उसांसें भरने का तो आपको अर्थ भी पता न होगा। डेटिंगवाले वह कशिश क्या जानेंगे जब मिलने का समय और स्थान एक दूसरे तक पहुंचाने के लिए भी समुद्र लंघन करना पड़ता था। ये नहीं कि फोन उठाया, कॉल किया या वहट्सैप भेजा और सज-धज के पहुंच गए। आप समझ ही नहीं सकते कि हफ्ते भर की मेहनत से एक चिट सही ठिकाने पर पहुंचा पाने की जद्दोजहद क्या होती है और जवाब का इंतज़ार तन-मन में कितनी हलचल मचाया देता था।

और, चिट लिखना क्या आसान होता था? हड़प्पा-युग की जैसी अबूझ कोड-भाषा खोजने और उसका अभ्यास कर लेने के बाद भी कभी ऐसा भ्रम हो जाता था कि आप सूचना केंद्र की लाइब्रेरी में इंतज़ार करते बेचैन हो रहे हैं और वो नरेंद्र देव लाइब्रेरी में कुछ भेदती निगाहों के बीच कसमसा रही हैं। हद यह भी हो जाती थी कि घंटे भर प्रतीक्षा के बाद आप नरेंद्र देव लाइब्रेरी का रुख करते हैं और उसी समय वही बेचैनी उन्हें सूचना केंद्र ले आती है। दोनों तरफ कहीं ऐसा तो नहीं हो गया, कहीं वैसा तो नहीं हुआ होगाके अंदेशे प्राण सोखने लगते थे। वह कशिश, वह बेचैनी, वह नाराजगी मुहब्बत का ऐसा अदृश्य फैविकॉल बन जाती थी कि पीयूष पाण्डे के उर्वर विज्ञापनी दिमाग की पहुंच भी वहां न हो सकती थी। इश्क के इस मजे से डेटिंगवाली पीढ़ी वंचित ही रहेगी।

लड़के तो लड़कों की तरह आज़ाद होते थे मगर लड़कियों के लिए हज़ार आपदाएं टूट पड़ने का इंतज़ार करती रहती थीं। आज की तरह यह नहीं कि सजे-धजे, परफ्य्यूम महकाया और मम्मी की ओर सी, यूका जुमला उछालते हुए स्कूटी की चाबी घुमा दी। मिलने वाले दिन लड़की सुबह से सारे काम जल्दी-जल्दी निपटाकर घर के कुछ अतिरिक्त काम भी उत्साह से निबटा दिया करती थी ताकि ऐन मौके पर मां कोई काम न बता दे। और, अक्सर ऐन मौके पर ओले पड़ ही जाते थे। मैं सहेली के घर से किताब लेकर आती हूंकहकर वे घर से निकलने वाली होतीं कि मां को गंदे कपड़ों के ढेर की याद आ जाती- जल्दी से कपड़े फींच दे, फिर धूप चली जाएगी।मजाल जो मना किया जा सके। कुढ़न के मारे मुंगरी से कपड़ों की ऐसी चुटाई होती कि मां को कहना पड़ जाता- कपड़े फाड़ डालेगी क्या? किस बात का गुस्सा दिखा रही है छोकरी, सहेली के यहां कल चली जाएगी तो क्या आसमान टूट पड़ेगा?’ उधर आप बेचैनी से टहल रहे हैं, बार-बार उस दिशा में देख रहे हैं, रूठने के दसियों तरीके इजाद कर रहे हैं और दो घंटे बाद युद्ध के मैदान में पराजित सिपाही की तरह लौट रहे हैं।     

डेटिंगमें जितनी आसानी से आप हगकर लेते हो, उसमें वह बात कहां जब साड़ी या दुपट्टे का पल्लू छू लेने की मासूम ख्वाहिश भी बार-बार दम तोड़ दिया करती थी। दिल गुंथे रहते थे लेकिन बीच की भौतिक दूरी कम करते-करते युग बीत जाया करते थे। यह मोर्चा किसी तरह फतह कर लिया तो अंगुलियों का स्पर्श करना ऐवरेस्ट की चढ़ाई से कम नहीं था। एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने कीजैसा गीत अब कोई क्या खाक लिख पाएगा! कशिश की हदों से गुजरना पड़ता था, बच्चो! ... और पहले स्पर्श का वह कम्पन, वह गुदगुदी, वह झुरझुरी, वह धुक-धुक ...शब्दातीत! ... आज तक उसकी महक दिल-दिमाग और सांसों में बसी हुई है! हगकरने वालों को इस अनुभव के लिए टाइम मशीन में बैठकर चालीस-पचास साल पीछे जाना होगा।

शायर को चीटी ने नहीं काटा था न कि वो कह गया- दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई।मतलब होता था इसका। ऐसी आग लगती थी कि बुझाए न बुझे। आज तक सुलग रही है। यहां सुलगनेका अर्थ-अनर्थ कर दिए जाने का खतरा है क्योंकि अब आग ठीक से लगती भी नहीं कि बारिश हो जाती है। मतलब कि किसी भी नुक्कड़ पर, फुटपाथ पर कहीं भी, किसी पार्क या मॉल में मुदहुं आख कतहुं कछु नाहीं!तब सारे जमाने की आंख आप पर हुआ करती थी। मजाल जो कोई पलक भी झपका ले। यह तो अपना ही जिगरा था कि सौ तालों के बीच से आसमान का एक टुकुड़ा चुरा लिया करते थे।   

मुहब्बत की परिभाषा ही बदल गई है ससुर। जमाने भर से जितनी शायरी कही-दोहराई जाती रही, सब बेकार हो गई हैं। डेटिंगपर मुई एक मरियल सी कविता भी आज तक किसी से लिखते न बनी। विज्ञान और टेक्नॉलजी ने कितनी ही तरक्की कर ली हो, इश्क का जमाना तो हमारा ही अव्वल था। इसे बुढ़ापे का फलसफा समझकर हंसी में न उड़ा दिया जाए।

- न जो, 17 नवम्बर, 2025 के नवभारत टाइम्स यानी कि NBT में प्रकाशित 

                         

Friday, November 14, 2025

बराबरी की भाषा लिए पितृसत्ता की जड़ पर हमला कीजिए

यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हमारी पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था में हर क्षेत्र में जबर्दस्त लैंगिंग असमानता और भेदभाव है। हमारे रीति-रिवाजों-त्योहारों, खान-पान, पहनावे, बोली-बानी और दैनंदिन आचार-व्यवहार में यह स्पष्ट दिखाई देता है।

पुराने समय में इस ओर ध्यान नहीं जाता होगा। अब प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी हुई है, शिक्षा और चेतना का विकास हुआ है और वे पुरुष-गढ़ों को ध्वस्त कर रही हैं। ऐसे में भाषाई भेदभाव चुभना स्वाभाविक है। इसीलिए स्वतंत्रचेता स्त्रियों ही में नहीं, पुरुषों में भी भाषा बरतने में सतर्कता दिखाई देने लगी है। अंग्रेजी जैसी वर्चस्व की भाषा में चेयरमैन’, ‘बैट्समैन’, आदि के स्थान पर चेयरपर्सन’, ‘बैटर’, आदि शब्दों का प्रयोग शुरू हुआ है। यह स्वागत योग्य कदम है।

कुछ समय से एनबीटीअखबार ने, जो कभी नभाटा’ (नवभारत टाइम्स) कहलाता था, हिंदी भाषा की लैंगिंग असमानता मिटाने के लिए नया प्रयोग शुरू किया है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं ने जहां लिंग निरपेक्ष शब्दों का चयन किया, वहीं एनबीटीने बहुत सारे शब्दों को पुरुष वाचक मानते हुए उनके स्थान पर स्त्री वाचक शब्द गढ़ने शुरू किए हैं। बल्लेबाजिनी’, ‘निवेशिका’, ‘सैनिका’, जैसे काफी शब्द उसमें छपने लगे हैं। जैसे, शुभमन गिल के लिए बल्लेबाज और स्मृति मंधाना के लिए बल्लेबाजिनी लिखा जाता है। शेयर बाजार में निवेश करने वाला पुरुष निवेशकहै और स्त्री निवेशिका

ये शब्द अटपटे ही नहीं, हास्यास्पद भी लगते हैं। व्याकरण सम्मत भी नहीं। मान लेते हैं कि भाषा बहता नीर है और अनेक बार वह व्याकरण के कूल-किनारों को ध्वस्त करते हुए भी बहती है। ग्रामीण-कस्बाई क्षेत्रों में महिला डॉक्टर के लिए डॉक्टरनीशब्द प्रयुक्त होते हुए सुनते हैं- “डाक्टरनी जी, मेरे बच्चे को ठीक कर दीजिए।महिला वकील के लिए कोई वकीलिनी नहीं कहता।

हिंदी का व्याकरण लैंगिंग प्रयोग के मामले में स्पष्ट है। वह अच्छा डॉक्टर हैऔर वह अच्छी डॉक्टर हैसे स्पष्ट हो जाता है कि किसके बारे में बात की जा रही है। इंदिरा गांधी के लिए कभी प्रधानमंत्राणीनहीं कहा-लिखा गया। वह सख्त प्रधानमंत्री थींसे स्पष्ट हो जाता है। राष्ट्रपतिका स्त्रीलिंग क्या बनाएंगे? इसमें पतिपुरुष के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है, जिसके कारण इसे पितृसत्तात्मक शब्द मान लिया जाए और द्रौपदी मुर्मू को सम्बोधित करने के लिए नया शब्द बनाया जाए।

हिंदी में कई बार अध्यक्षा’, ‘सम्पादिका’, जैसे शब्द भी प्रयुक्त होते दिखते हैं और चल भी रहे हैं। कहा न कि भाषा अपने व्याकरण को भी कभी तोड़ देती है। जो चल गया, सो चल पड़ा। लेकिन भाषाई प्रकृति और व्याकरण के हिसाब से अध्यक्षअध्यक्ष है, महिला हो या पुरुष। सम्पादकसम्पादक है, महिला हो या पुरुष। सम्पादिकाकी तर्ज़ पर विधायक को विधायिकालिखेंगे तो अनर्थ हो जाएगा। पद, पद है। पुरुष या स्त्री वाचक नहीं।  

हिंदी में एकवचन के बाद बहुवचन ही होता है, द्विवचन नहीं। संस्कृत का व्याकरण अलग है। वहां एक वचन, द्विवचन और बहुवचन यानी तीन वचन होते हैं। इसलिए संस्कृत में दम्पतीशब्द बनता है। अब हिंदी के कुछ विद्वानों ने दम्पतीचला दिया। एनबीटीभी हिंदी के दम्पतिको गलत कहते हुए दम्पतीलिखता है, जो गलत है। भाषाविद सुरेश पंत ने अपनी हालिया दो चर्चित किताबों शब्दों के साथ-साथमें ऐसी कई गलतियां इंगित की हैं।

हिंदी में न्यूट्रल जेंडर नहीं होता। कुर्सी स्त्रीलिंग है, चश्मा पुल्लिंग। अंग्रेजी की तरह संस्कृत में तीसरा न्यूट्रल जेण्डर भी होता है। आपने महिला बल्लेबाज को बल्लेबाजिनी बना दिया। कल को ट्रांसजेण्डर बल्लेबाज के लिए क्या शब्द बनाएंगे, ‘बल्लेबाजा जैसा कुछ? वे भी लैंगिंग असमानता की शिकायत करते हैं।

भाषा को सहज-सरल होना चाहिए। लिंग निरपेक्ष शब्द बनाना समझ में आता है, जैसा अंग्रेजी ने किया। एक ही संज्ञा के लिए अलग-अलग लिंग वाचक शब्द भाषा को जटिल भी बनाते हैं, जैसे कवयिता’ (पु) और कवयित्री (स्त्री)। कवि पर्याप्त होना चाहिए।

बराबरी की भाषा बनाने के लिए, शब्दों से खिलवाड़ नहीं, समाज की सोच में आमूलचूल बदलाव लाने की जरूरत है। हमारी भाषा की गालियों, मुहावरों और लोकगीतों में घनघोर स्त्री-विरोध है। सारी गालियां स्त्री का अपमान करने के लिए हैं। भाषा में जबर्दस्त जातीय भेदभाव, बल्कि घृणा है। कितने ही मुहावरे जातीय द्वेष से भरे हुए हैं। दलितों के लिए और भी अपमानजनक शब्द और मुहावरे हैं। पुरुषों के लिए गालियां गढ़कर या उनके लिए मुहावरे बनाकर बराबरी की भाषा नहीं बनेगी। इसके लिए उन अंधेरे कोनों में झांकना ज़्यादा जरूरी है, जहां से स्त्री-द्वेष जन्म लेता है। पितृसत्ता की जड़ पर हमला कीजिए। स्त्री को जीवन में बराबर का सम्मान मिले, इसका अभियान चलाइए।

काफी समय से हिंदी अखबारों में अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। हिंदी में जबरिया अंग्रेजी ठूंसी जा रही है। व्याकरण भी अंग्रेजी का चलाया जा रहा है। एनबीटी इसका अगुवा बना हुआ है। राहतऔर बचाव की बजाय रेस्क्यूक्यों लिखा जाए, पहले इस पर सोचिए। 

-नवीन जोशी, नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर 14 नवम्बर 2025 को प्रकाशित 

                

Wednesday, November 12, 2025

मनोज तिवारी - याद रहोगे दोस्त

मनोज तिवारी और मैंने पत्रकारिता की दुनिया में एक साथ ही कदम रखे थे। 1977 का साल था। 'स्वतंत्र भारत' से एक बड़ी अनुभवी टीम 'अमृत प्रभात' चली गई थी, जो उसी समय इलाहाबाद से अपनी शुरूआत कर रहा था। उनकी जगह सम्पादक अशोकजी नई टीम बना रहे थे। नए लड़कों को तलाश कर उन्हें सम्पादन-लेखन में तराशने में लगे थे। उसी प्रक्रिया में मनोज और मेरा चंद दिन के फासले से चयन हुआ था। जल्दी ही नए युवकों की एक बड़ी टीम स्वतंत्र भारत में खड़ी हो गई थी। वह बड़े जोश और उत्साह वाले दिन थे। मेहनत से काम और झगड़े

मनोज से मेरा कुछ खास याराना बनता गया। दफ्तर और दफ्तर के बाद हम बहुत देर साथ रहते। अनेक बार रात को लम्बी आवारागर्दी होती और अक्सर मैं उसके घर पर ही रह जाता। उसके बाबू भुवन चंद्र तिवारी 'शूलपाणि' हिंदी के लेखक थे। उन्होंने कई उपन्यास और नाटक लिखे। उनसे भी खूब बात होती। वे अच्छा मानने लगे थे और अपने उपन्यास पढ़ने को देते थे। हमारी संस्था 'आंखर' ने उनका एक नाटक 'दिव्यचक्षु' मंचित किया था। मनोज से उनकी कई बातों पर तनातनी रहती।
 
मनोज स्वभाव में मुझसे ठीक विपरीत था, दबंग और आक्रामक। मैं उतना ही संकोची और दब्बू था। पढ़ाई के दिनों में मनोज अपने उग्र स्वभाव के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था। फिर उसने अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की थी। भीतर से वह नरम और सबकी मदद करने वाला था। पर्याप्त संवेदनशील भी। साहित्य का अच्छा पाठक था। एम एन रॉय के अनुयायी एस एन मुंशी जी के घर उसका खूब आना-जाना था। मुझे भी वही उनके पास ले गया था। उन्होंने अपने घर में थियोसॉफिकल सोसायटी का दफ्तर बना रखा था , जहां विशाल पुस्तकालय भी था। यदा-कदा मुंशी जी हम लोगों को किताबों और देश-दुनिया के बारे में बताते। मुंशी जी की पत्नी सावित्री निगम हमें बहुत स्नेह देतीं। 
 
1983 में मैं नभाटा में आ गया। मनोज 'स्वतंत्र भारत' में ही बना रहा। उसने वहां तरक्की की सीढ़ियां चढ़ीं।1990 में जब स्वतंत्र भारत का मुरादाबाद संस्करण निकालने का फैसला हुआ तो मनोज को उसका स्थानीय सम्पादक बनाकर भेजा गया। उसने बहुत मेहनत से वह संस्करण निकाला और स्थापित किया। उस दौर में भी वह नियमित फोन से सम्पर्क करता और कई मुद्दों पर सलाह लेता या प्रबंधन की कंजूसी और असहयोग के किस्से बताया करता था। स्वतंत्र भारत के मालिक नए जमाने से तालमेल नहीं बैठा सके। पहले मुरादाबाद संस्करण बंद हुआ, फिर धीरे-धीरे लखनऊ संस्करण भी थापर ग्रुप के हाथ बिक गया। 
 
1991 में मैं दोबारा स्वतंत्र भारत पहुंचा तो मनोज से फिर दिन-रात का साथ रहने लगा था। 1996 में स्वतंत्र भारत को थापर समूह ने एक फाइनेंस कम्पनी के हाथ बेच दिया और उसके दुर्दिन फिर शुरू हुए। 1997 में मनोज ने अखबार छोड़ दिया और पत्रकारिता भी। 
 
व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में भी वह कभी अराजक और तनिक उद्दण्ड तक हो जाया करता था। कुछ विचलन और विवाद भी उसके हिस्से आए। ऐसे मौकों पर मेरी उससे बहस होती। हम बीयर या पव्वा लेकर देर रात गोमती किनारे या किसी सुनसान सड़क पर बातें करते। वह मान जाया करता कि वही गलत था लेकिन मूल स्वभाव उसका अंत तक बदला नहीं। मनमानियां बहुत कीं उसने।
 
2021 के अंत या 2022 के शुरू में उसका फोन आया था कि गले में कुछ अटकता सा है। अल्ट्रासाउण्ड कराना है। जांच का नतीजा अच्छा नहीं निकला। भोजन नली में कैंसर था। उसका बड़ा बेटा मुदित मुम्बई में ही अच्छा काम कर रहा है। टाटा कैंसर संस्थान में उसका इलाज शुरू हुआ। तीन-साढ़े तीन साल से ठीक ही चल रहा था। इसलिए वह काफी समय लखनऊ रहने लगा था। हमारी मुलाकात होती रहती थी। 
 
धीरे-धीरे कैंसर फेफड़े तक पहुंच गया। कई दौर इम्युनोथेरेपी के चले और ठीक ही था वह। कोई महीने भर पहले मैं उससे मिलने गया था। 'अब मैं ओला करके तेरे घर आऊंगा', उसने कहा था। मुझे पता नहीं चल पाया कि सितम्बर आखीर में अचानक तबीयत बिगड़ने लगी तो वह मुम्बई दौड़ा। इस बार डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे।
 
05 नवम्बर की दोपहर मनोज प्यारे की कहानी भर रह गई। मोबाइल पर प्रमोद जी का संदेश मैं शाम को साढ़े चार बजे देख पाया। बिना पूछे-ताछे फौरन महानगर स्थित उसके घर भागा लेकिन उसने तो मुम्बई से कूच करना चुना था।
 
आशंका तो थी ही, फिर भी उसके जाने की खबर ने सन्नाटा-सा पैदा कर दिया था। सो, यह ध्यान में ही नहीं आया कि एक छोटी-सी खबर का हकदार तो वह है ही। उसके पुराने और बहुत अच्छे दोस्त, पूर्व कांग्रेसी और अब भाजपा सांसद जगदम्बिका पाल ने फोन करके याद दिलाया तो आज एक प्रेस नोट बनाकर भेजा। तभी यार के लिए यह विदाई टिप्पणी भी बन सकी।
कभी-कभी कुछ भी लिख पाना बहुत कठिन हो जाता है। अलविदा दोस्त! अब तुम्हारा 'हुर्र' कभी सुनाई नहीं देगा।
 
- न जो, 06 नवम्बर  2025, लखनऊ

Monday, November 03, 2025

मंगलेश डबराल पर 'उद्भावना' का बेहतरीन विशेषांक

अजेय कुमार 38 वर्षों से, 'उद्भावना' पत्रिका का सम्पादन करते आए हैं। बीच-बीच में वे रचनाकर-विशेष या विषय केंद्रित विशेषांक भी निकालते रहे हैं। ताज़ा विशेषांक (सितम्बर 2025, अंक 159-60) मंगलेश डबराल पर केंद्रित है। 384 पृष्ठों का यह विशेषांक आकार में ही नहीं, अपनी सामग्री और स्तर के लिहाज से भी वृहद है। इसमें मंगलेश जी के व्यक्तित्व व कृतित्व के सभी पक्षों पर उनके करीबी रहे और उनके रचना संसार को बेहतर जानने वालों ने लिखा है।

विशेषांक को "मंगलेश : मनुष्यता पर इसरार" कहा गया है।  

मंगलेश डबराल निस्संदेह हमारे समय के बड़े कवि हैं। अजेय कुमार के शब्दों में "मंगलेश डबराल बड़े कवि इसलिए हैं कि उनकी निगाह उस यथार्थ को देख लेती है जिसमें मनुष्यता का मर्म भी शामिल है और उस पर हो रहे हमले भी, उनका पश्चाताप भी शामिल है और बहुत मद्धिम लय में वह सांस्कृतिक प्रतिरोध भी जो अपने मामूलीपन में ही भव्य हो उठता है।" 

और यह भी कि "राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, उर्दू, नस्ल-भेद, अल्पसंख्यकों के अधिकार और साम्राज्यवाद के बारे में उनके दृष्टिकोण को देखते हुए यह अंक निकालने का फैसला लिया गया। मैं समझता हूं कि फासीवाद से लड़ने के लिए मंगलेश की रचनाएं हमारी मदद करती हैं।" 

दिसम्बर 2020 में कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया। पांच साल हो गए। मंगलेश पर यत्र-तत्र छिट-पुट लिखा जाता रहा लेकिन हिंदी की अनेकानेक पत्रिकाओं  ने उन पर "विशेषांक निकालना तो दूर, शायद एक खण्ड देना भी जरूरी नहीं समझा।" इस पीड़ा और आश्चर्य के साथ अजेय जी ने यह विशेषांक निकाला है जो मंगलेश जी और उनकी रचनाओं को समग्रता में देखने-समझने की सटीक खिड़की है।

'मंगलेश की याद', 'संस्मरण', 'मंगलेश की कविता', 'चयनित कविताएं', 'कवि का गद्य', 'अनुवाद' तथा 'संगीत, सिनेमा और कथेतर गद्य' शीर्षक खण्डों में समायोजित यह अंक संग्रहणीय है। पहले खण्ड में मंगलेश जी के निधन के बाद उनकी स्मृति में लिखी गई कविताएं हैं। दूसरे में रविभूषण, मनोहर नायक, आनंद स्वरूप वर्मा, इब्बार रब्बी, नरेश सक्सेना,  अजय सिंह, विनोद भारद्वाज, प्रमोद कौंसवाल और उनकी बेटी अलमा डबराल के संस्मरण हैं। तीसरे खण्ड में अशोक वाजपेयी से लेकर शंकरानंद तक, पुरानी-नई पीढ़ी के बीस रचनाकारों ने मंगलेश जी की कविता पर टिप्पणियां की हैं। चौथा चयनित कविताओं का खण्ड है। 

पांचवें खण्ड में मंगलेश जी के कुछ महत्वपूर्ण लेख एवं गद्यांश हैं। उनका गद्य उनकी कविताओं से कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि, कवि का गद्य एक अलग ही चमक और गहराई लिए हुए है। इस खण्ड के प्रारम्भ में दिया गया चंद्रभूषण का लेख ठीक ही मंगलेश के गद्य  को 'सोचता हुआ और जिसमें मंगलेशियत बसी है' बताते हैं। मैंने 'अमृत प्रभात' लखनऊ में मंगलेश के कार्यकाल में उन्हें बड़े ध्यान से खबरों-लेखों को सम्पादित करते देखा है। उनके सम्पादन का लोहा सभी मानते थे। इसकी चर्चा भी यहां हुई है। 

अनुवादक के रूप में भी उनकी ख्याति रही है। विश्व के अनेक प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के उन्होंने जो अनुवाद किए वे खूब चर्चित रहे। उनमें से कुछ अनुवाद खण्ड में संकलित हैं। उन्होंने चंद उपन्यासों का भी अनुवाद हिंदी में किया था। हरमेन हेस का उपन्यास 'सिद्धार्थ' मैंने उनके अनुवाद में ही पढ़ा है। 

अंतिम खण्ड सिनेमा और संगीत पर है।  दोनों विधाओं की उन्हें अच्छी समझ थी। संगीत उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था और खूब गाने के शौकीन थे, यद्यपि कभी बेसुरे भी हो जाते थे। इस खण्ड की शुरूआत में संजय जोशी का लेख उनके सिनेमा सरोकारों की चर्चा करता है।

इस तरह 'उद्भावना' का यह विशेषांक मंगलेश जी के निजी जीवन और रचना जगत का सही प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए पठनीय और संग्रहणीय है। वर्तमान दौर में जब देश की साझा विरासत को फासीवादी प्रवृत्तियां तार-तार करने पर उतारू हैं, मंगलेश जी पर, जो इन प्रवृत्तियों का सदैव विरोध करते रहे थे,  ऐसा अंक निकालना बहुत महत्वपूर्ण है। अजेय कुमार को साधुवाद। 

-न जो, 04 नवम्बर 2025   

Sunday, November 02, 2025

कविता से अपने मुल्क की ज़िंदगी के अर्थ खोजने वाले महमूद दरवेश

1977 में 'स्वतंत्र भारत' के सम्पादकीय विभाग में आ जाने पर मैं देखता था कि कई देशों के दूतावासों से तरह-तरह के प्रेस नोट डाक से आया करते थे। कभी-कभार कुछ किताबें या छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी आती थीं। पी एल ओ (इण्डिया) ऑफिस से भी सामग्री आया करती थी। फिलिस्तीन में चल रहे संघर्ष के प्रति स्वाभाविक ही अपना रुझान हुआ। यासिर अराफात हमारे हीरो बने हुए थे। 

एक बार पीएलओ (इण्डिया) ऑफिस को पत्र लिखकर कुछ फिलिस्तीनी कविताएं भेजने का आग्रह किया था। वहां की कुछ कविताएं 'दिनमान' में पढ़ने के बाद और पढ़ने की जिज्ञासा हुई थी। जवाब में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का अंग्रेजी में एक कविता संकलन मेरे नाम आया। उसमें ग्यारह फिलिस्तीनी कवियों की 'प्रतिरोधी कविताएं' थीं। संकलन का सम्पादन किन्हीं पी एस शर्मा ने किया था, जिसमें अली सरदार जाफरी, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी, कमलेश्वर, कैफी आज़मी और अमृता प्रीतम की सम्मतियां भी शामिल थीं। 

महमूद दरवेश का नाम मैंने उसी संकलन में पढ़ा था। अंग्रेजी में 'दरवेश' की स्पेलिंग 'डीएआरडब्ल्यूआईएसएच' लिखी होने से मैंने उसे दारविश पढ़ा था। सभी कविताओं में फिलिस्तीन के लिए प्रेम, उसके संघर्ष का समर्थन और विस्थापन का दर्द छाया हुआ था, जिसने भीतर तक भिगो दिया था। तब मैंने कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद करके 'नैनीताल समाचार' को भेजा था। उनमें 'महमूद दारविश' की भी दो-एक छोटी कविताओं का अनुवाद था। 

दफ्तर में साथियों से उन कविताओं की चर्चा करते हुए पता चला था कि वह 'महमूद दरवेश' हैं। 'नैनीताल समाचार' को तुरंत एक पोस्टकार्ड डाला था कि नाम सुधार लेंगे।

आज यह सब याद आया चहेते लेखक-अनुवादक मित्र अशोक पांडे के अनुवाद में महमूद दरवेश की कविताओं का संकलन 'लौटूंगा उसी गुलाब तक' को हाथ में लेते हुए, जिसे हाल ही में सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह ने मुझे मजबूर किया कि मैं कागजों-किताबों के ढेर में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का वह संकलन तलाश करूं, जो 1977 में पढ़ा था और याद था कि सम्भाल लिया था। वह मिल भी गया। खुशी हुई कि उसमें दरवेश की 'इनवेस्टीगेशन' शीर्षक वह कविता भी शामिल है, जिसे अशोक ने 'पहचान-पत्र' नाम से अपने संकलन में रखा है। 

1977 में, जब मैंने दरवेश का नाम सुना था,  वे 36 साल के युवा और चर्चित कवि थे। 1970 में उन्हें दिल्ली में एफ्रो-एशियाई लेखक सम्मेलन का 'लोटस पुरस्कार' मिल चुका था। 1976 में प्रकाशित संग्रह 'फॉरएवर पैलेस्टाइन'  में दरवेश सबसे अंत में, ग्यारहवें नम्बर पर शामिल थे, हालांकि सम्पादकीय टिप्पणी में उन्हें फिलिस्तीनी प्रतिरोधी साहित्य का प्रमुख स्वर बताया गया था। 

कालांतर में दरवेश के कवि-कद, संघर्ष के उनके संकल्प और उनकी भूमिकाओं  ने नई ऊंचाइयां छुईं। उन्हें फिलिस्तीन के राष्ट्रकवि जैसा दर्ज़ा मिला। पीएलओ यानी फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के महत्त्वपूर्ण पदों पर वे रहे। कई देशों में निर्वासित जीवन बिताते हुए फिलिस्तीनी संघर्ष को तेज करने में जुटे रहे। 

इस्राइल के खिलाफ उनके तेवर हमेशा बहुत तीखे रहे। यहां तक कि 1994 में अरब-इस्राइल संधि के कारण वे यासिर अराफात के भी विरुद्ध हो गए थे। रोमांचक किस्सा यह भी है कि 1998 में उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था लेकिन वे किसी चमत्कार की तरह जीवित हो गए थे। इसके दस वर्ष बाद 2008 में अमेरिका के एक अस्पताल में दिल के ऑपरेशन के बाद उनका देहांत हुआ।  

महमूद दरवेश के परिवार को 1948 के अरब-इसराइल युद्ध के समय ही विस्थापित हो जाना पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा निर्वासन में बिताया। इसीलिए उनकी कविताओं में फिलिस्तीन प्रेम, विस्थापन की पीड़ा और अपनी मिट्टी के लिए निरंतर संघर्ष के स्वर बहुत मुखर हैं। प्रेम भी एक प्रमुख स्वर है और अक्सर प्रेमिका के प्रति प्यार मातृभूमि के लिए प्यार में प्रकट होता है। 

'लौटूंगा उसी गुलाब तक' संग्रह की 'फिलिस्तीन की एक प्रेमिका' शीर्षक यह कविता देखिए- "

फिलिस्तीन हैं उसकी आंखें

फिलिस्तीन है उसका नाम  

फिलिस्तीन है उसकी पोशाक और उसका दुख

उसकी रूमाल, उसके पैर और उसकी देह फिलिस्तीन

फिलिस्तीन है उसकी आवाज

उसका जन्म और उसकी मृत्यु फिलिस्तीन  

प्रेम के अलावा उनकी कविताओं में स्वाभाविक ही धरती, युद्ध, घाव, रक्त, मृत्यु, पत्थर, तोपें, बम, मां और फूल व तितलियां भी खूब मिलती हैं-

मैं कामना करता हूं कि हम गेहूं होते

ताकि हम मरते और दोबारा जीवित हो जाते

मैं कामना करता हूं कि धरती हमारी मां होती

ताकि हम पर रहम करती (धरती नजदीक आ रही है हमारे)

दरवेश की कविताओं में पराजय और हताशा नहीं, उम्मीद, संघर्ष, संकल्प, स्मृति और फसलों, रोटी की खुशबू मिलते हैं-

इस धरती पर वह सब है

जो जीवन को जीने लायक बनाता है-

अप्रैल की झिझक, अलस्सुबह रोटी की खुशबू

पुरुषों के बारे में औरतों का नजरिया

ऐस्किलस का लेखन, मोहब्बत की शुरुआत

एक पत्थर पर घास

बांसुरी की फूक पर अटकी हुई माँएँ

आक्रान्ताओं के भीतर स्मृति का भय  (फिलिस्तीनी शिअली में थैंक्सगिविंग)  

इस संग्रह में अशोक ने 96 कविताओं का अनुवाद शामिल किया है। इनमें कुछ लम्बी और कुछ बहुत छोटी कविताएं हैं। इन्हें पढ़ना फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष, सपनों, संकल्पों एवं जिजीविषा से रूबरू होना है। 

ऐसे समय में आज जबकि इस्राइल ने फिलिस्तीन में भीषण तबाही और नरसंहार मचा रखा है, 60 हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके है, जिनमें अबोध शिशुओं की संख्या पंद्रह हजार से अधिक है, अधिकसंख्य इमारतें जमीदोज़ कर दी गई हैं, अस्पताल-स्कूल-राहत शिविर तक रॉकेट बमों से उड़ा दिए जा रहे हैं, अमेरिका उसका साथ दे रहा है और विश्व भर में प्रतिरोध के स्वर लगभग नदारद हैं,  दरवेश की कविताओं का यह संग्रह सशक्त प्रतिरोधी गूंज-अनुगूंज  जैसा है। 

काश, इस दुनिया में कविताएं मिसायलों पर भारी पड़ रही होतीं!

संग्रह के अंत में परिशिष्ट में डालिया कार्पेल (इस्राइली पत्रकार-लेखिका) से महमूद दरवेश की बातचीत  (सन नहीं दिया गया है लेकिन सम्भवत: 2006 में  यह इण्टरव्यू हुआ, जब उन्हें दो दिन के वीजा पर इस्राइल आने की अनुमति दी गई थी और वे हाइफा व रामल्ला गए थे)  शामिल की गई है। यह बातचीत फिलिस्तीनी संघर्ष, प्रतिरोधी साहित्य और महमूद दरवेश की साहित्यिक-वैचारिक दृष्टि को समझने में सहायक है। 

एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं- "मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं। मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता। यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉजिटिव भ्रम। मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िंदगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं। यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुंदरता प्रदान कर सकूं और एक सुंदर संसार का चित्र खींचूं और उसकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं। मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था।"   

उनसे पूछा गया था- "क्या आप अपने जीवन में दोनों देशों के बीच किसी तरह का समझौता देख सकेंगे?"

दरवेश का उत्तर था- "मैं उदास नहीं होता। मैं धैर्यवान हूं और इजरायलियों की चेतना में एक सघन क्रांति का इंतज़ार कर रहा हूं।"

दरवेश आज नहीं हैं लेकिन उनका इंतज़ार चला आ रहा है। 

(इस किताब के लिए सम्भावना प्रकाशन से 7017437410 पर सम्पर्क किया जा सकता है) 

- न जो, लखनऊ, 03 नवम्बर 2025  

Thursday, October 30, 2025

ऐसे ही लड़े और जीते जाएंगे समर

समकालीन जनमत के पोर्टल पर 2020-21 में मीना राय की जीवन-संघर्ष कथा- 'समर न जीते कोय'- के कई हिस्से पढ़ते हुए उनके लेखन की सादगी, निर्लिप्तता, जीवन-दृष्टि और अत्यंत सरल लेकिन प्रभावशाली गद्य ने ध्यान खींचा था। इस वर्ष इसे 'नवारुण प्रकाशन' ने इसी शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। एक शिक्षक व बाद में प्राचार्य के रूप में उनके अनुभवों की कुछ किस्तें भी इसमें शामिल हैं। नवम्बर 2023 में उनके देहांत के कारण दोनों ही गहन जीवनानुभवों का सिलसिला अधूरा रह गया। तो भी वह जितना लिखा जा सका, उसमें वाम विचार को समर्पित, आम जन के सुख-दुख में भागीदार, बिना शिकायती, बेहतर जीवन के सपनों से सजी एक ईमानदार आपबीती है। इसीलिए वह बार-बार पढ़ने पर भी ताज़ी लगती है और पाठक के भीतर श्रद्धा व गर्व भरती है।  

यह किसी चर्चित महिला या लेखक की जीवनी नहीं है। मीना राय कोई लेखिका नहीं थीं। एक सामान्य स्त्री थीं जिन्होंने अपने जीवन में बड़े मानी भर दिए थे। उन्होंने एक कम्युनिस्ट होल टाइमर, रामजी राय से ब्याह करके गरीबी और वंचनाओं का जीवन खुशी-खुशी अपनाया, जिसमें किराए के एक कमरे, दो जून की सूखी रोटी, दवा और बच्चों की जरूरतों के लिए भी खूब संघर्ष शामिल रहा। यह जीवन रोते-बिसूरते नहीं काटा गया, बल्कि पार्टी के कामों के  लिए रामजी राय को पूरा समर्थन व सहयोग देते हुए, एक स्त्री की भीतरी जीवनी शक्ति से तमाम अभावों में भी आलोकित किया गया। उसमें बहुत सारे और परिवारों के सुख-दुख-संघर्ष भी शामिल हैं, जो इस यात्रा पथ के साझीदार बने-बनाए गए।

इस प्रकार का दुष्कर जीवन जीते हुए, संघर्ष में सपनों को जीवित रखते हुए, दूसरों के जीवन में मकसद भरते हुए जो समाज, गांव, कस्बे, पर्व-त्योहार,जातिगत भेदभाव, महिलाओं का दमन, दुर्व्यवहार, स्वार्थी व आत्मलिप्त लोग, वगैरह-वगैरह से सामना हुआ, वह अत्यंत सहज-सरल गद्य में लिखा गया है। यहां कोई लेखन का अतिरिक्त साहित्यिक प्रयास नहीं है। वह इतना सहज है जैसे कि सामने जिया जा रहा, लड़ा जा रहा जीवन देखा जा रहा हो। वह पाठक को इसमें अपने आप शामिल कर लेता है। वह मात्र आपबीती नहीं रह जाता। आम ग्रामीण-कस्बाई जीवन का साझा बन जाता है। भोजपुरी लटक के साथ होना अलग ही भाषा-सौंदर्य रचता है।

मीना राय ने जूझते हुए केवल अपने पारिवारिक दायित्व ही नहीं निभाए, उन्होंने पार्टी व संगठन के लिए भी बहुत कुछ किया। किताब की भूमिका में प्रणय कृष्ण ने लिखा है- "मीना भाभी एक साथ कितने परिवारों की सदस्यता निभाती थीं-- एक वो संयुक्त परिवार जहां से ब्याह कर वे आई थीं, एक वह परिवार जिसमें वे ब्याह कर गईं, एक वह जो उन्होंने अपने पति व बच्चों का खुद बनाया, एक प्रगतिशील छात्र संगठन का परिवार, एक पार्टी (सीपीआई-एमएल) परिवार, एक उस स्कूल की शिक्षिकाओं और विद्यार्थियों से मिल्कर बना परिवार जहां व पढ़ाने गईं, एक अपने मोहल्ले और पड़ोसियों का परिवार, एक 'समकालीन जनमत' का परिवार-- ये परिवार कई-कई अंशों में मीना राय के व्यक्तित्व के सूत्र से एक दूसरे में घुलते-से जाते थे।"

इस आपबीती की एक बड़ी खूबी इसकी निस्संगता-निर्लिप्तता है, जो चौंकाती भी है। एक स्त्री, जिसने कितना कुछ झेला और लड़ा, लिखते समय जैसे अपने से बाहर जाकर कहीं दूर खड़ी होकर देखती हो। यह विरल है।

'नवारुण' प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) ने 'समर न जीते कोय' का प्रकाशन जिस लगाव, नए डिजायन-आकार और कलात्मकता के साथ किया है, वह उल्लेखनीय है और इस पुस्तक को मानीखेज बनाने में सहायक हुआ है।   

-न जो, 31 अक्टूबर 2025  

        

Wednesday, October 08, 2025

कर्बला दर कर्बला - ताकि अंतत: मुहब्बत लिखी जाए

गौरीनाथ का उपन्यास 'कर्बला दर कर्बला' (अंतिका प्रकाशन, 2022) पूरा करते-करते पाठक गहरे सदमे और आक्रोश से भर उठता है। कबूतर के बच्चों को बिल्ली ने मुंह में नहीं दबोचा, पाठक की गर्दन ही नफरतियों ने चबा डाली! 

वह नरसंहार का साक्षी बनकर जड़-सा रह जाता है। यह लेखक की कल्पना नहीं है। यहां भागलपुर दंगों के काले इतिहास को कथा में पिरोया हुआ है। 1980 के दशक के सच्चे किस्से। 1989 का नरसंहार।    

उपन्यास की कथा 1980 के दशक के बिहार से शुरू होती है। भागलपुर इसके केंद्र में है। 1980 का कुख्यात अंखफोड़वा कांड हो चुका है। पुलिस किस सीमा तक बर्बर हो सकती है, देश जान चुका है। फिर शुरू होती हैं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की साजिशें। उसका चारा बनाई जाती भोली-भाली जनता। इसी बीच अयोध्या से उठा 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का नारा। नगर-नगर राम शिला पूजन से उठता हुआ नफरती गुबार। पुलिस का साम्प्रदायीकरण। 

1989 में भागलपुर के भीषण साम्प्रदायिक दंगे इसी बिसात पर कराए गए। कांग्रेस का राज था। दक्षिणपंथी ताकतें सिर उठाने लगी थीं। पर्दे के पीछे दोनों की मिलीभगत भी रही। इस षडयंत्र को पूरी तरह खोलकर रख देने के लिए लेखक ने बहुत सारे तथ्यों, जांच रिपोर्टों, प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों एवं अन्य दस्तावेजों का सहारा लिया है। उस सबको कुशलता से कथा में गूंथा है। भागलपुरी सिल्क और बुनकरों की व्यथा-कथा सुनाना भी वह नहीं भूला है।  

इस उपन्यास को पढ़ना एक कथानक के सुख-दुख से गुजरना ही नहीं है। भागलपुर दंगों के कई गोपनीय रखे गए दस्तावेजों से गुजरने की मर्मांतक पीड़ा से भी दो-चार होना है।  इन दस्तावेजों को हासिल करने के लिए बहुत श्रम और शोध किया गया दिखाई देता है। हिंदी उपन्यासों में ऐसा कम ही दिखता है।

कहानी 1978 में बिहार के एक गांव से शुरू होती है। तब तक 'ताजिए को देखने के लिए अलग-अलग रंग के चश्मे नहीं आए थे'। गांव के प्रभावशाली एक परिवार का युवक मुदित जब नजरुल बुढ़वा की नातिन को ब्याह लाता है तो  नज़र बदलने का खेला शुरू हो जाता है। उसी रात नव-दम्पति की कोठरी को घेरकर आग के हवाले कर दिया जाता है। 

उस जोड़ी का क्या हुआ कोई नहीं जानता (पाठक आगे जान जाएगा)  मगर इसी किस्से से  उपन्यास के नायक शिव की गढ़न शुरू होती है। वह मेधावी होने के बावजूद सबकी तरह इंजीनियर बनने की राह नहीं पकड़ता। खूब पढ़-लिखकर, समाज व इतिहास दृष्टि से सम्पन्न होना चाहता है। प्रोफेसरी की कठिन राह चुनकर उच्च शिक्षा के लिए भागलपुर पहुंचता है। 

भागलपुर में एक नई और बड़ी दुनिया है। वहां कॉलेज है। सतवीर, रितेश, मधु, प्रीति, सरफराज, सुशील, जरीना, जैसे कई दोस्त हैं। एक समृद्ध पुस्तकालय है। प्रो कर्ण और प्रो मित्रा जैसे शिक्षक हैं। पठन-पाठन से विकसित होती हुई इनसानी समझ है। नफरत से लड़ने का विवेक जाग्रत होता है। 

उसी के समानांतर भागलपुर का काला इतिहास और विद्रूप वर्तमान शिव और साथियों के सामने आता है। दिन दहाड़े हत्या, भरी अदालत में हत्या, लड़कियों का अपहरण, वगैरह-वगैरह। राजनैतिक शरण में पनप रहे बाहुबली। अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को पटकनी देने के लिए रचे जाते षड्यंत्र। 

अपराधियों के राज और बढ़ती साम्प्रदायिक नफरत  के बीच मुहब्बतों के अंकुर भी फूटते हैं। शिव की जरीना से और सतवीर की मधु से मुहब्बत इस नफरत को सीधे चुनौती है। वह युवाओं की ताकत  है। इस मुहब्बत को वे समाज में फैलाना चाहते हैं। जूझते हैं, पिटते हैं लेकिन हार नहीं मानते। उनका जीतना अभी होना बाकी है। 

धीरे-धीरे भागलपुर नफरत और हिंसा की आग में झोंका जाता है। एक के बाद एक भयावह कांड। कांड नहीं, नरसंहार। पुलिस के संरक्षण में। घरों में लाशें पड़ी हैं। गलियों में लाशें पड़ी हैं। लड़कियों के चीत्कार उठ रहे हैं। आग की लपटें हैं। खेतों में लाशें दफनाकर बोई गोभियां हैं। हालात से लाभ उठाते नेता और प्रोन्नतियां पाते दोषी पुलिस अफसर हैं। कल्पना नहीं, यथार्थ से सदमे में जाता पाठक है। 

गौरीनाथ ने बहुत विचलित होकर यह उपन्यास लिखा होगा पर भाषा में उनका संयम और संतुलन दिखाई देता है। अंतिम अध्याय 'नरसंहार- खेल या कारोबार' को छोड़कर बाकी जगह वे तथ्यों को अखबारी विवरण बना देने से बचे रह सके हैं। 

ये तथ्य अत्यंत विचलित करने वाले हैं लेकिन गौरीनाथ का उद्देश्य पाठक को दहशत से नहीं, मुहब्बत से भर देने का है। उन्होंने कहा भी है- "यह अफसाना उस भीषण नरसंहार की वीभत्सता के ऊपर मुहब्बत लिखने की छोटी सी कोशिश है।" 

यह मुहब्बत का लिखा जाना जारी रहना चाहिए। कामयाब होना चाहिए। 2014 के बाद का समय 1980 के दशक की तुलना में और भी भयानक है। नफरत का गुबार कहीं ज़्यादा जोरों से उठाया जा रहा है। 'कर्बला दर कर्बला' का सिलसिला रुकना चाहिए। मगर कैसे? 

इसी बेचैनी में इस उपन्यास की सार्थकता है। 

- न जो, 09 अक्टूबर 2025