Monday, November 04, 2024

काथ/ भिसमांत

 

आज रत्तै ब्याण बुड़ियालि टोकि देयुं कूंछा- त दाड़ि क्या तैं पाइ राखी? काटण क्या नि रया?”

मि बुड़ि कैं चाय्यैं रै गयुं। बरसन है ग्यान, त म्यार मुख उज्याणि चानी न्हांति। दाड़ि काटुं भलै, पाउं भलै, थोव लै झुठ-पाट लागि रौ भलै, मूख उसै रौ भलै, तै हुं क्याप भय। जि कूंण होल, कै देलि। मुखै तरब मांतर चाण नि भय। मि कैं ले कि करण है रौ। नि चानी, झन चाओ। मि ले कां चाणयुं वीक मुख उज्याणि! रूनेर एक्कै दगाड़ भयां, एक्कै कम्र में। एक्कै दिसाण में सितण ले रयां, मांतर मूख देखां-देखी आब हुनेर नि भ्ये। नै-नै, नज़र त जानी हुन्येलि, देखण कूनान जै थैं, उ मांतर हुनेर नि भय। नज़र जाण और देखण में फरक हुनेर भय। समझणौछा म्येरि बात? 

उ दिनानै बात और छि, जब ज्वान छियां। मुखै चै रूनेर भयां एक-दुहरक।

आज त्वील ततणि चकव बिंदी कि लगै?’

आज तुमर मूख सुकि जौ क्या रौ?’

त्यार गलाड़ में क्यालै चटकाछै, ललाङ-ललाङ जै है रौ?’

त दाड़ि क्या नि काटणया, खुम जा बुड़नान!

, कत्थप गाय उं दिन! आब त भली कै बुड़ी गयां। कभै हमि ले ज्वान छियां, यो लै फाम नि रै ग्ये। आब कै कौ मूख उसै रौ भलै, कै का गलाड़ में क्यालै चटका भलै, क्याप्प भय! जब जाणै ओ इजा-ओ बबा’, नौराट-हौराट नै सुणीन, तब जाणे को चां दुहरा उज्याणि! तबै आज रत्तै ब्याण जब बुड़ियालि कौ- त दाड़ि क्या नि काटणया?’ त मि उकैं चाय्यै रै गयुं। सोच पड़ि गाय। बेई रात कैं नीन में म्यार दाड़िक खुम त नि बुड़ि गाय तै कैं! उसी, तस हुणाक क्वे आसर नि भय। रात पीठ करि बेर सितनेर भयां। रत्तै ले पीठै दिखां हुनेर भ्ये।  

खैर, बुड़ि त मुबाइल थामि पर-पर जानी रै। वीक हर्ज हुणौछि। दिन भरि मुबाइल या टी वी, इनरै मुख देखण भय वील! मि कैं मांतर हंसि जै ऐ पड़ी। कभै न कभै, आज बुड़ियालि म्यार मुख उज्याणि चाय हुन्यल! कि फाम ऐ जाणि उ कैं! मील हाथलि आपणि दाड़ि मलाशी। चार-पांच दिन है ग्या हुन्याल ब्लेड नि लगाईं। को लागि रूं रोज-रोज खरोड़ण में! नै दफ्तर जाण, न कैं ब्या-बरात में। फिर ले हफ्त में द्वि फ्यार ब्लेड लगूंनै छ्युं। आज बुड़ियालि कै हालौ त खरोड़णै भय। जाणि वीक मन में कि आछ!

बाथरूम में जै बेर आरसी सामणि ठाड़ भयुं कूंछा। आरसी भितेर क्वे औरै भैठ्युं भय। आज जाणे यै में आपणै मूख देखींछि पैं, आज क्वे दुहरै मैंस चायु भय मि कैं। यसि अणहोति! धाक्क है ग्ये कूंछा। नि होली पैं? मील आरसी लै हाथ लगा। टैण-टैण, चिफव-चिफव आरसी जसै चितै। हुणैकी आरसी भ्ये उ। कब्बै बटी वैं दिवार में द्वि कीलनलि जेड़ीण भ्ये। कां जांछि यथ-उथ, कसिक जांछि! पै, हला आज यो आरसी कैं भ्यो कि! स्कूली दिनन में मुणी साइंस ले पढ़ियै भय, विज्ञान कूंछी जैछैं। मिररमें वी देखीनेर भय जो वीक सामणि होल। पक्क सिद्दांत भय यो। क्वे नई खोज त है नि रै। पैं, म्येरि आरसी कैं कि भ्यो हुन्यल? आज बुड़िया कंय्यैलि यो आरसी ले गजबजी ग्ये भले! नन्तर विज्ञानक सिद्दांत उलटणौक क्वे सवालै नि भय। या, म्यार आंखन में के दोख है ग्यो भलै।

मील दुबर्यां चा आरसी उज्याणि। द्वि-तीन बखत आंख मिचान। बुड़्यांकाव आंखन में जाव ले लागि जानेरै भय। मोती बिंद कूनान जै थैं। उसी त, पांचेक बरस पैली आपरेशन ले करै हाछी। द्विय्यै आंखन में सुकिल जाव पड़ि ग्योछी। फिर साफ देखीण भै गय। आज जाणे क्वे दिक्कत-परीशानी नि भ्ये। कैं फिर पड़ि ग्योछै जाव? आंख पोछान। एक चाव ल्ही बेर आरसी कैं ले पोछौ। फिर ले आरसी भितेर क्वे दुहरै मैंस देखीण लाग। मि आंखन ताणि बेर चाण बैठ्युं, को हुन्यल त? जो ले छन, बुड़ै मैंस छन। मि है ले बांकि बुड़ देखीणान। ख्वारा बाव सगी रान। जुङ पट्ट सुकिल छन। गलाड़ पिचकी बेर मुख भितेर जा पैठ रान। दंतपाटि मांतर पुरि देखीणै। म्यर ले एक दांत नि टुटि रय आजि।

“को छा ला तुमि बुड़ मैंस? म्येरि आरसी भितेर कां बै आछा? कसिक आछा? म्येरि चार ख्वर ले हलकूणौछा, आंख ले मिचणौछा, कानि ले फरकूणौछा। नानतिनानक खेल है रानै? यां म्येरि गाव-गाव ऐ रै!”

चै रयुं कूंछा। धैं के बुलानानै! उं त के नि बुलाय, म्यार मन में मांतर सुगबुग जै हुणि लागि। क्याप अन्वार जै पछ्याणी मील। को हुन्यल? को हुन्यल? जो ले छन, पछ्याणैका छन। नानतिननकि जै अन्वार उणै...। उ बखतै, डिमाग में चाल जै चमकी कूंछा। मि अचकची गयुं।

ओ इजा, यो त बौज्यू छन! होय-होय, बौज्यू! बाबूकूनेर भयुं मि!

“बाबू, आज यतु बरसन बाद कि देखां भौछा? उ ले आरसी भितेर बै? कधली स्वीण्यां त उनै छिया, आज यां… ?”

बौज्यून मरीं तीस बरस है बांकि है ग्यान। ज्वानी भरि यां लखनौ में नौकरी करी। इजालि घर पौर्या। बाबू हर म्हैण मनिआडर करनेर भाय। इजालि पहाड़ में खेति-पाति कमै। गोर-बाछ, नानतिन सैंत। च्येलिन कैं आपणै जस सीप सिखाइ। च्यालन कैं परदेस भ्यज। हमि द्वि भै बाबू दगाड़ लखनौ रयां। स्कूल-कालेज पढ़ौ। यैं नौकरी लागी। बाबू रिटायर है बेर घरै ग्यान। हमि द्वि भै परदेस में, बुड़ इज-बौज्यू पहाड़ में। हमार दगाड़ नि राय। वैं मरुंल, आपण देइ में कूनेर भाय। उस्सै भ्यो ले। द्विय्यै वैं मरान। बाबू पैली ग्यान। इज चारेक बरस पछा। अस्पताल-हस्पतालक झंझट नि भय। हमन तार मिलौ, तब गयां। गति-किरिया करि आयां। हमिल नौकरी करि, यैं लखनौ में कुड़ बणै ल्हे। यैं नानतिन पाव, पढ़ाइ। रूंन-रूंनै यैं रै गयां। वां पहाड़ में कुड़ खन्यार हुनै ग्यो। पैली साल-द्वि साल में पुज-पाठै तैं जानै छियां। आब यैं पाड़ि ल्हिनुं द्याप्तनौ नौं। वां ढुङ-पाथर ले नि रै ग्या हुन्याल। हमि सबै पहाड़िनकि योई काथ भ्ये। पहाड़ै फाम ऊनी छ। किलै नि आलि! खन्यार हईं आपड़ि कुड़ स्वीण्यां देखीं कभतै। कल्ज में औरि जै है जांछि। पैं कि करछा। जमानै यस ऐ ग्यो। ... खैर, पितरनक आशिरवाद छ। नानतिन भलि जाग लागि ग्यान। ब्या-काज ले भलि कै निपटि गाय। पैं, मील आज जाणे नि सुणि कि कैका बौज्यू वीक आरसी भितेर पैठान कै!

“के भूल-चूक है ग्ये बाबू, त माफ करिया। तुमरि संतान भयां। ... शिबौ, ततु कमजोर क्या है ग्योछा? आंख पट्ट छिर जै रान तुमार... गलाड़ पिचकि बेर खाप भितेर न्है ग्यान... आंखना मुणि चिमाड़ पड़ि राननहरा हाड़ देखां है ग्यान...। खाण-पिण भलि कै नि करना कि? के कमी है रै छ? सांचि मानिया बाबू, हमिल के कमी नि करि राखि। तिथिक ले सराद करनै छियां। सरदान में तो हुनेरै भय। द्विय्यै बखत बामण उंनान। भलौ कै बैकर भरि ल्हि जानान। एक थालि भरि बेर बासमती चावौमांसै दाव भलि मानछ्या पिसुं भय, हल्द-खुश्याणि-नूण, सबै चीज-बस्त दिनुं... साग-पात, फल-फराव ले भयै। ... तुमि सांचि नि मानौ बाबू, एक किलो स्यो द्वि सौ रुपैं है कम नि उणै। सराद में भलै-भलै धरण भय। बामण खुश, त पितर खुश। ... क्याव बज्यूण सत्तर रुपैं दर्जन है ग्यान... अनार बिना सराद नै हुन कूनान बामण। उ ले धरणै भय। दूद-दै... आदु किलो खोयाकि मिठै। दुसरि मिठै में जुठ-पाठ है जांछ बल। ... एक गिलास दूद बामण ले पी जानान... चहा नि पीन, छेरु लागि जांछ बल...। के कमी नि करना हमि बाबू। तुमारै परसाद कमै राखौ। तुमि खुशि हई चांछा। पैं तुमि भलि कै नि खाणया भलै? इज पकूनी हुन्येलि। वीक हाथ में औरी स्वाद छ, कूंछिया। आपणि ब्वारी हाथक भल नि लागनेर भय तुमन कैं।

“त फाटीं कुर्त क्या लगै राखौ, बाबू? योई सरादन में एक नईं धोति, एक नई कुर्त दी राखछि...। तिथि सरादन में पैंट-कमीजक कप्ड़ धरछि। नि सिणाय हुन्यल। मैंस देखला कि कौल! त बड़ि खराब सार छ तुमरि। नई-नई लुकुड़ लुकै बेर फाटीं लगूनेर भया। तुमरि ब्वारि कतु संदर कुर्त-पैजाम लूनेर भ्ये तुमनै तैं, कभतै पैंट-कमीज ले लूंछि ... पै तुमि उनन कैं अल्मारि में लुकै बेर पुराण लगै राखनेर भया। कतु वील कय, कतु इज कूनेर भ्ये। एक-द्वि फ्यार मि ले नाराज जस भयुं। पै तुमि पुराणै लगै राखनेर भया ...। घर भितेर कि लगूं नईं लुकुड़?’ यस कै दिनेर भया। ... कै दिनैं तैं धरण भाय उं नई-नई लुकुड़? … लगाई करो।

“बाबू, त चशम ढिल-ढाल जस देखीणौ तुमर? एक तरब बै तलि कै लटकि रौ। कभतै दुकान में जै बेर सुदारि मांगना। म्यर चशम ले बज्यूण यो तस्सै है रौ। बुं कानै तरब बै तलि कै लटकि रूंछ। कतुकै सिद करो, आजि उस्सै। फरेम खराब है ग्यो क्याप। है ले कि ग्यो पुराण। जै साल नातिल इंटर पास करछि, उ साल बणाछि। आब उ नौकरी में न्है ग्यो भ्यार। परारि साल दिसाण में म्यारै कयां च्यापी ग्योछि। एक कमानि ढिल है ग्ये। ढिल कि है ग्ये, टुटणियै छ। मनै-मन सोचूं, एक नई फरेम लगै ल्ह्युं कै। फिर सोचुं, कि करण है रौ। मीलै जै कि बाचण है रान म्वाट-म्वाट किताब! रत्तै मणी अखबार देखणै तैं चैं। चली रौछ। बुड़ि पैली कड़कड़ाट लगै राखंछि- नई चशम बणाओ, आंखनै जांच कराओ, भल-भल फरेम लगाओ। आब उ ले कटकी रूंछि। आपण चशम वीक ठीक हईं चैं। मणी ले ढिल-ढाल भयो त ब्वारी दगाड़ बजार न्है जांछि। ठीक करै लूंछि। म्यर चशम बिगड़ी बटी वीक द्वि नई फरेम ऐ ग्यान। म्यर आजि ड्वर बादि बेर चली रौछ। तुमिल ले त ड्वरै बादि राखौ क्याप। भल नि देखी रय बाबू। कभतै सुदारि लाया। भ्यार जाण पट्ट छाड़ि है शैत तुमुल ले! म्यर मन ले बिल्कुल नि हुन भ्यार जाणौक। औरी कलाट-भौड़ाट है रूंछ भ्यार पन। गाड़िनै औरी पूं-पूं-टीं-टीं, कान कली जानान। कां बै ऐ ग्यान यतु मैंस, बबा हो! सड़क पन खुट धरणै जाग नि भ्ये। हिटण में क्वे यै तरब बै धांक मारौं, क्वे वि तरब बै ढ्यस लगूंछ। छि, आग लागौ यो शहरना ख्वार!

“मि बुड़ि कूनेर भयुं, पैं ब्वारि तुमरि आजि टणिटणि छ। सिद कै हिटैं। रत्तै ब्याण नै-ध्वै, ख्वर कटोरि, लटि बणै, धोति लगै, फिट-फाटि है जांछि। रात सितणै तैं मांतर मैक्सी चैं। ब्वारिल सिखै राखौ यो चलन। अम्मा जी, सलवार-कुर्ता भी पहना करो, आराम रहेगा’, उ त यस ले कूंछि। पैं बुड़ियालि त फैशन नि सिख राख आजि। भोलकि को जाणौ? कधली छुट्टी दिन ब्वारि दगै सनीमा ले देखि ऊंछि। बिरादरना यां ले जै ऊंनी द्विय्यै। अड़ोस-पड़ोस ऊंण-जाण भयै। बांकि टैम मुबाइल भय या टी वी। मि कैं त टीवी-मुबाइल भल नि लागन, बाबू! जब जाणे तुमर रेड्डु छि, वी सुणनेर भयुं। ब्याव कै पहाड़ि परोगराम ऊंछि। आहा!, कास संदर गीत सुणीछि! रत्तै-ब्याव समाचार सुणनेर भयुं। जि बिगड़ हुन्यल रांडौ, पट्ट बुजी ग्यो। च्याल थैं कौछी- यार, सुदारि लै दिनै धैं। उ हंसण लागौ। म्येरि बातन सुणि सब्बै हंसनान। आब रेड्डुवक जमान न्हांति बल। मुबाइल में सब तिरब छन कूनान- रेड्डु, टीवी, फोन, क्याप-क्याप। तुमरि ब्वारि सब चीजै सीप सिखि ल्हिंछि। पैं म्यार कयां नि हुन। कभतै नाति-नातिणि फोन करनान त द्वि आंखर बात जरूर करि ल्हिनेर भयुं। मुबाइल में उनर मूख देखी गयो, निशाश फिटी जां मणी।

“बाबू, ठाड़-ठाड़ै पटै ग्ये हुन्याला। त आरसी में भैटणै जाग ले कां भ्ये पैं। म्यार खुट ले पटै ग्यान। सकत नि रै ग्ये आब। नै-नै, खाण-पिण भलै छ। क्वे कमी नि भ्ये। पैं, पेटै बजी ग्यो। के नि पचन भलि कै। दूद पियो, दस्त लागि जानान। दै खायो, पेट चुकी जांछ। कधलि झुलसैन है जांछि। खाण-पिण जै नि पचौ, क्यालि ऊंछि सकत? बांकि ठाड़ नि रै सकन्युं। खुट कामण भै जानान। लूणै तैं, च्याल-ब्वारि दवै ले लूनै छन। डाकटर कैं ले देखा एक बखत। वील रंङ-रंङाक गोइ लेखि द्यान। उं ले खायै छन। क्ये फैद जस नि भय। कभतै लागौं, आब दिन पुरी ग्यान कै। को जाणौ! तुमि नि गया ठाड़-ठाड़ै! यो पराणिक कि भरोस, बाबू! ... मि दाड़ि काटुंल कै ऐ छ्युं, आरसी में तुमन दगै भेट जै है पड़ी!

“जागिया हां, द्वार लै यो खट-खट को करणौ? बुड़ियै हुन्येलि...। कि कुणै धैं।”

मील द्वार उघाड़ छिया त बुड़ियै छि ठाड़ि सामणि। कूण बैठी- “कि करणौछा यां? मि सब कम्रन में चै आयुं। बाथरूम में गोठीण भया! आओ भ्यार, फल खाला।”

मील कौ- “अरे सुण त... सुणनी कन... त्वील कौछी दाड़ि काटो कै। मि यां आयु त बौज्यू भेटी गाय आरसी में। देख धैं।”

“कि है ग्यो तुमार डिमाग कैं! कि कुणौछा तस?”

“आरसी में चा धैं। बाबू छन। पैलाग कौ।”

“आब यों भली कै पगली ग्यान रे...।” बुड़ियालि आपण कपाव लै हाथ लगा। फिर ले ऐ बेर आरसी सामणि ठाड़ि है ग्ये- “कां छन बुबोज्यू? कि है ग्यो तुमन कैं?”

मील आरसी में चाय। बुड़ियाक दगाड़ बाबू ठाड़ हई भाय- “त को छ त्यार दगाड़? बाबू न्हांतिनै पैं?”

“हे भगवान! के रथ भयो इनरि बातनौक! ... अरे, तुमि छा यो म्यार दगाड़ ठाड़! उं कां बै आल आरसी में! तुमै देखीण भै ग्योछा आपण बाबू जास! ऐन-मैन बुबोज्यू!” बुड़ी हंसण भै ग्ये। हंसन-हंसनै भ्यार जानी रै।

कि कुणै त? मि पगली रयु या त पगली रै? आरसी में बाबू नै, मि छ्युं कुणै! हद्द है ग्ये! मि ऐन-मैन बाबू जस देखीण भै गयुं बल!

हुड़भ्यासन जस ठाड़ै रै गयुं कूंछा। कम्र में बुड़ि यकलै हंसण लागि रै। हंसन-हंसनै बौई जै रै। च्याल-ब्वारि घर में हुना, उनन कैं बतूनि। सब्बै हंसन। पैं, मि कि करुं, तुमि बताओ धैं? तुमन कैं ले भ्योछै कभतै यस भिसमांत?

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- नवीन जोशी, फोन- 9793702888 (कुमगढ़', अक्तूबर-नवम्बर, 2024) में प्रकाशित)

 

  

   

 

        

  

               

 

 

Thursday, September 26, 2024

टोपी काल

 

अत्यंत सुंदर और शांत पर्वतीय प्रांत। ऊंची-ऊंची हिम ढकी चोटियां। हिमनदों से निकलकर कल-कल बहने वाली नदियां, जो सुदूर सागर में मिलने से पूर्व मैदानों को शस्य-श्यामला बनाती जाती थीं। हरे-भरे घने वन, जहां सूर्य की किरणें भी प्रवेश पाने के लिए संघर्ष करती थीं। भांति-भांति के वन्य जीव, पक्षियों की अनगिन प्रजातियां और मानव जीवन की विविध व्याधियां दूर कर सकने में सक्षम जड़ी-बूटियां एवं वनस्पतियां। पहाड़ी ढलानों और नदी-तटों की समतल भूमि में मानव बस्तियां थीं। वे खेती करते थे। पशुपालन करते थे। विविध वनोपज और नदियां उनके जीवन का अभिन्न अंग थे। ये पर्वतवासी एक प्रकार से आत्मनिर्भर थे। उनकी सीमित आवश्यकताएं थीं जो अपने श्रम, सामर्थ्य एवं प्रकृति के साहचर्य से पूरी हो जाती थीं। उनका जीवन अत्यंत श्रमसाध्य था। शारीरिक श्रम उन्हें स्वस्थ एवं बलवान बनाए रखता था। जो नहीं था उस पर विलाप नहीं करते थे और जो उपलब्ध था उसी पर प्रसन्न रहते थे।

उनके पास किस्सों, गाथाओं, गीतों का अकूत भण्डार था। कथाओं में पुरखों के शौर्य, बुद्धिमत्ता तथा बलिदान के किस्से थे। पशु-पक्षी, पेड़ और नदियों के काव्य थे। कृपालु देवताओं की गाथाएं थीं। डराने-सताने वाले भूत-प्रेतों एवं मदद करने वाली आत्माओं के रोमांचक प्रसंग थे। उनकी भाषा में अद्भुत संगीत था। वह खन-खन बजती थी। कई सुरों में गाती थी। शब्दों की सामर्थ्य में मिट्टी की सुवास थी, नदियों की आर्द्रता थी, सम्बंधों की ऊष्मा और हवाओं की शीतलता थी। वे अद्भुत रूप से मोहिले व्यक्ति थे। इस सम्पूर्ण सृष्टि से प्यार करते थे।  

वह कोई दूसरा युग था।

वर्तमान युग में वे अत्यंत व्यथित थे और विवश होकर अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए राजमार्गों पर निकल आए थे। शहर, कस्बे, गांव, सब जगह प्रतिदिन आंदोलन हो रहे थे। कभी-कभी गीत-संगीतमय शांतिपूर्ण सभाएं, कभी अनुशासित जुलूस तो कभी उग्र प्रदर्शन। सरकारी-निजी कार्यालयों में काम नहीं हो रहा था। विद्यालय खुले थे लेकिन छात्र और अध्यापक एक साथ जुलूस में चले जाते थे। न्यायालय खुले लेकिन सूने पड़े थे। वकील और अन्य कर्मचारी आन्दोलन में सक्रिय थे। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था आंदोलनकारियों के नियंत्रण में थी। पुलिस भी भावना के स्तर पर आन्दोलन के साथ थी। इसलिए मूकदर्शक बनी खड़ी रहती थी।

पर्वतवासी सहज-सरल थे और शांति से रहना चाहते थे लेकिन लड़ने के लिए विवश कर दिए गए थे। प्रश्न उनकी अस्मिता का था, इसलिए। उन्हें लगता था कि उनकी अपनी पहचान लगभग मिट गई थी और यह जान-बूझकर मिटाई गई थी। इसके पीछे गहरी चाल थी। यह सुनियोजित षड्यंत्र कई वर्षों, बल्कि दशकों से धीरे-धीरे किया जाता रहा था।

सर्वथा उचित कारण थे कि उन्हें कमर बांधकर लड़ना ही पड़ गया था।

उनके जंगल उनके नहीं रह गए थे। वहां अपरिचित, शक्तिशाली एवं संवेदनहीन लोगों का नियंत्रण हो गया था। जिन पेड़ों को वे अपनी संतानों जैसा मानते थे, उन पर वे आरे-कुल्हाड़े चलाने लगे थे। प्रांतवासी अपनी हरित संतानों को बचाने के लिए उनका आलिंगन करने लगे तो उन्हें विकास विरोधी और देशद्रोही कहा गया। जंगल के जानवर, जिनसे उनका कभी कोई वैर नहीं था, अब उनके शत्रु बना दिए गए थे। वे निरीह औरतों व बच्चों पर हमला कर रहे थे। उनके बाग-बगीचे और खेत उजाड़ रहे थे। पहले आमने-सामने आ जाने पर दोनों अपना रास्ता बदल लेते थे लेकिन अब मनुष्यों तथा वन्य जीवों में आए दिन टकराव होता था। क्या यह बिना किसी षडयंत्र के ही हो गया था?

नदियां उनके विरुद्ध कैसे हो गई थीं? कल-कल बहती नदियों के साथ उनका सदियों का रिश्ता था। नदियां उनका जीवन थीं। उनके आस-पास उन्होंने अपनी बस्तियां बसाई थीं। वे दूर-दूर से बहा लाकर उनके लिए लकड़ियां किनारे छोड़ जाती थीं। वे अपनी लहरों के साथ ढेर की ढेर मछलियां लाती थीं, उनके खेतों को उपजाऊ बनाती थीं, उनके बच्चों को अपनी लहरों पर खिलाती, दुलराती, लाड़ करती आगे बढ़ जाती थीं। यदा-कदा वे क्रुद्ध भी दिखाई देती थीं लेकिन वे शीघ्र ही शांत हो जाती थीं और अपने व्यवहार के लिए क्षमा-सी मांगते हुए फिर मित्रवत हो जाया करती थीं।

बारिशों की नदियों से दोस्ती हुआ करती थी। वे दोनों आपस में खूब खेला और धमाचौकड़ी मचाया करते थे। अब बारिशें नदियों पर कहर बनकर टूटती थीं और नदियां अपनी सीमाएं भूलकर बारिशों को खदेड़ने दौड़ती थीं। प्रांतवासी हैरान थे कि यह शत्रुता क्यों कर हो गई!

उनके खेतों और बीजों के रिश्ते में जाने कैसी कड़ुवाहट घोल दी गई थी कि मिट्टी के भीतर जाकर बीज अपना चरित्र बदलने लगे थे। खाद पोषण का नहीं, शोषण का काम करने लगी थी। इसे अनुसंधान एवं विकास बताया जा रहा था किंतु वे अनुभव कर रहे थे कि उनकी जिह्वा में न रस रह गए हैं, न स्वाद। गंध अगर कोई थी तो वह नासिका पुटों को अपरिचित लगने लगी थी।

प्रांतवासी लड़ने पर मजबूर हो गए थे क्योंकि उनकी भाषा से शब्दों का लालित्य, मिट्टी का सौंधापन और प्रकृति की मिठास छीन लिए गए थे। उनके बच्चे बोलने के लिए मुंह खोलते तो उनके कानों में कंकड़-पत्थर बजने लगते थे। अपने बच्चों से उनका संवाद नहीं हो पा रहा था। वे अपने ही बच्चों के लिए पराए बना दिए गए थे। उनके गीत लय भूल गए थे और संगीत कब कर्णकटु हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला। सुर और साज भी भला कानों में कोलाहल मचाते हैं!           

और, यह तो असह्य ही था कि उनके प्रिय पशुओं के चरागाह विशालकाय भवनों में बदल दिए गए थे। उनके पनघटों में कंक्रीट जम गया था। अब उनके पैरों के नीचे से भूमि भी खींची जा रही थी। वे अपनी रक्षा के लिए भागते नहीं तो क्या करते? और, षड्यंत्र करने वाले उलटे दुनिया भर में शोर मचा रहे थे कि देखो-देखो, ये प्रांतवासी अपना घर-गांव छोड़कर पलायन कर रहे हैं। वे पलायन करने वाले कभी नहीं थे। उन्होंने अत्यंत विषम परिस्थितियों में टिके रहना सीखा था और सदियों से टिके रहे थे। अब टिकते भी तो किस भूमि पर? किस भरोसे?   

इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी थी कि अब भी यदि अपनी अस्मिता बचाने के लिए, अपने पैरों तले की जमीन वापस पाने के लिए, अपनी भाषा-बोली और गीत-संगीत के लिए संघर्ष नहीं किया गया तो हमारी पहचान सदा के लिए समाप्त कर दी जाएगी। वे इस चाल को समझ गए थे। विलम्ब हुआ लेकिन सतर्क हो गए थे।

अपने भोलेपन में वे तब खुश हुआ करते थे जब उनके बुजुर्गों को पहाड़, नदियां, तराई और मैदानों के पार सुदूर पराए देशों के मोर्चों पर सबसे आगे-आगे लड़ने के लिए ले जाया गया था। वे निष्ठावान लोग थे और सहज भरोसा कर लेते रहे। वे अत्यंत प्रसन्न होते थे कि उन्हें बड़ा बहादुर, परिश्रमी और ईमानदार बताकर उनकी पीठ ठोकी जाती रही। किंतु अब वे समझ गए थे कि ये दिखावटी प्रशस्तियां थीं ताकि कोई सवाल उठाए बिना वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी सेवादारी करते रहें। और, वे करते भी रहे थे।

अब और नहीं। अब बात उनकी अस्मिता की थी। उनके अस्तित्व ही का प्रश्न खड़ा हो गया था। इसलिए वे सब कुछ छोड़-छाड़कर सड़कों पर उतर आए थे।

प्रांत परिषद की समझ में नहीं आ रहा था कि ये भोले-भाले पर्वतवासी, जो अब तक चुप रहा करते थे, अचानक लड़ने के लिए क्यों और कैसे खड़े हो गए। इनके मुंह में जिह्वा ही नहीं थी। अब क्या बात हो गई? परिषद ने गुप्तचरों का दल भेजा। उन्होंने लौटकर परिषद को बताया कि जनता अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। अस्मिता की लड़ाई? प्रांत परिषद ने यह शब्द कभी सुना न था। उन्होंने एक-एक करके अपने समस्त अधिकारियों से पूछा। कर्मचारियों से पूछा। किसी को भी अस्मिता का अर्थ पता नहीं था। उन्होंने मौन रहना ही उचित समझा।

मौन सर्वोत्तम उपाय था। कब तक लड़ेंगे? एक दिन थक जाएंगे और अस्मिता की बात भूल जाएंगे। आंदोलन की सतत उपेक्षा करते हुए परिषद प्रांत का विकास करने में जुटी रही। इस विकास का अर्थ प्रांतवासी उसी प्रकार नहीं जानते थे, जिस प्रकार अस्मिता का अर्थ प्रांत परिषद नहीं जानती थी।   

स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया को भी जानकारी नहीं थी कि अस्मिताक्या है और उसके लिए आंदोलन करने का क्या महत्व है। पत्रकार अपनी ओर से कुछ जानने का प्रयत्न नहीं करते थे। चूंकि प्रांत परिषद उसकी अनदेखी कर रही थी, इसलिए मीडिया ने भी उस ओर से आंखें मूंदे रखी थीं। उनकी प्रतिभा एवं ऊर्जा राष्ट्र के महाराजाधिराज के चरित्र-चित्रण में लगी रहती थी। जो महान व्यक्ति राष्ट्र की निस्वार्थ सेवा के लिए जीवन अर्पण कर देते हैं, ऐसे महाराजाओं का यश ज्ञान किया ही जाना चाहिए।

लड़ाई अस्मिता की नहीं होती तो प्रांतवासी थक-हार कर शांत हो भी जा सकते थे। चूंकि बात उनकी अस्मिता पर आ गई थी, इसलिए लड़ते रहना ही एकमात्र मार्ग था। इस कारण उनका आंदोलन और भी व्यापक एवं आक्रामक हो गया। इसका प्रभाव यह हुआ कि उनके आंदोलन की हवाएं राष्ट्र की सीमाओं के बाहर तक पहुंच गई। उन हवाओं में सर्वथा नए आक्रोश की तरंगें थीं तो उसकी चर्चा होने लगी। शीघ्र ही विश्व भर में अस्मिता के उनके आंदोलन पर विमर्श होने लगा। यह अद्वितीय और अभूतपूर्व जनाक्रोश प्रमाणित किया जाने लगा। प्रांत परिषद ही नहीं, राष्ट्र के लोकप्रिय महाराज के माथे पर पर भी बल पड़ने स्वाभाविक थे। आज तक किसी ने महाराज के शासन पर अंगुली नहीं उठाई थी। वैश्विक स्तर पर उनकी छवि न केवल निष्कलुष थी, बल्कि अनुकरणीय भी मानी जा रही थी। उन्हें विश्व नेता का मुकुट भी पहनाए जाने की सम्भावना बन रही थी। अब कुछ शक्तियां उनके समस्त श्रेष्ठ और अभूतपूर्व विकास कार्यों को मिट्टी में मिलाए दे रही थीं। उनकी छवि कलंकित करने का षड्‍यंत्र हो रहा था। स्पष्ट था कि राष्ट्र की ही कुछ विरोधी शक्तियां षडयंत्रकारियों के साथ मिल गई थीं। यह महाराज को स्वीकार्य कैसे हो सकता था! उनके लिए तीसरा नेत्र खोलने का अवसर आ गया था।     

...

भोर होने वाली थी। एकाएक महाराज चीखते हुए अपनी शैया पर उठ बैठे- “नहीं... नहीं ... नहीं!”

राजमहल की निस्स्तब्धता में महाराज की चीख क्या गूंजी, ऊंघते हुए संतरी चौकन्ने होकर भीतर दौड़े। समस्त मंत्री, अधिकारी, आमात्य, भृत्य अपनी-अपनी शैया छोड़कर भागते हुए आए- “क्या हुआ? क्या हो गया? महाराज क्यों चीखे?”

शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए वे सब महाराज के शयन कक्ष में प्रविष्ट हो गए। महाराज दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए शैया पर बैठे चीख रहे थे- “नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। यह असत्य है। मैं अपने माता-पिता की संतान हूं।”

“क्या हुआ महाराज? कोई अप्रिय स्वप्न देखा शायद?” वरिष्ठ मंत्री ने आगे बढ़कर प्रश्न किया।

“हां, स्वप्न ही होगा। भोर के स्वप्न वास्तव में सत्य होते हैं क्या?” महाराज के स्वर में व्याकुलता थी।

“हां, महाराज। भोर के स्वप्न बहुधा सत्य होते हैं।” कई मंत्रियों ने एक स्वर में पुष्टि की।

महाराज ने अविश्वास से गर्दन हिलाई- “लेकिन मेरे सांसारिक माता-पिता थे। आप सब साक्षी हैं।”

“जी महाराज, आपके जनक-जननी अत्यंत स्नेहिल एवं उदार थे। हम सबको उनका अशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उनकी स्मृति को नमन करते हैं। लेकिन कैसा स्वप्न आया, महाराज?”

“एक दिव्य ज्योति कह रही थी कि मैं माता-पिता की संतान नहीं हूं। मुझे परमात्मा ने विश्व कल्याण हेतु भेजा है। संसार को यह सत्य बताने का समय आ गया है।”

कुछ मंत्री तत्काल महाराज के समक्ष दण्डवत हो गए। कुछ चकित से खड़े एक-दूसरे को निहारते रहे।

“यह तो अत्यंत प्रसन्नता की बात है, महाराज।” वरिष्ठतम मंत्री ने कहा और महाराज के समक्ष मस्तक झुका दिया- “हम, हमारा राष्ट्र, समस्त प्रजा धन्य हैं। आप परमात्मा के ही अवतार हैं।”

महाराज के मुखमंडल से चिंता के लक्षण जाते रहे। वहां काले मेघों के घेरे से मुक्त होते चंद्रमा की भांति प्रसन्नता छाने लगी। उनके नेत्रों की ज्योति दिप-दिप करने लगी।

“किंतु,” एक असावधान मंत्री के मुख से अनायास उच्चरित हो गया- “आप अपने जनक-जननी की संतान हैं, महाराज। पूरा राष्ट्र साक्षी है।”

वरिष्ठतम मंत्री ने क्रोध से उसे देखा, किंतु महाराज ने आश्वस्ति की मुद्रा में दाहिना हाथ उठाकर आनन्द विगलित स्वर में कहा- “मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के भी तो सांसारिक माता-पिता थे।”

वहां उपस्थित समस्त विशिष्ट व्यक्तियों ने चमत्कृत होते हुए देखा कि महाराज के मुखमण्डल से दिव्य आभा प्रकट होने लगी थी। तत्काल वह आभा घनीभूत होकर एक चक्र के रूप में उनके पार्श्व में तीव्र गति से घूमने लगी। पूरे कक्ष में एक अलौकिक प्रकाश फैल गया। महाराज शैया से उठे। उनके कदम धरती पर नहीं, हवा में पड़ रहे थे। वे चल नहीं, उड़ रहे थे। शयनकक्ष से निकल कर वे राजमहल के द्वार की ओर बढ़े। उनके पीछे-पीछे चमत्कृत-सी वह टोली भी चली। पूर्वी द्वार पर आकर महाराज ठहर गए। क्षितिज से प्रकाश फूट रहा था। सूर्योदय हुआ ही चाहता था। जैसे ही सूर्यदेव के प्रथम दर्शन हुए, महाराज ने दोनों हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में लम्बवत लेट गए। लेटे रहे। किसी को उन्हें उठाने का ध्यान नहीं आया। वे सब एक सुर में जय-जयकार कर रहे थे।   

“महाराज की जय हो। परमात्मा के अवतार की जय हो।” 

   

पूरे चौबीस घण्टों तक सम्पूर्ण राष्ट्र ने महाराज को हिमाच्छादित पर्वत शिखर की एक गुफा के निपट एकांत में ध्यानमग्न बैठे देखा। पर्वत-कंदरा में विशेष कोणों पर लगाए गए गुप्त कैमरे उनकी एकाग्रचित्त, शांत, निर्मल, निर्विकार और धवल छवि का अनवरत प्रसारण करते रहे। बाकी सब कुछ ठप हो गया था। राष्ट्र भर में यह उद्घोषणा की जा चुकी थी कि महाराज को आकाश से प्रकट हुई एक दिव्य ज्योति ने बताया है कि वे वास्तव में परमात्मा के अवतार हैं। वे जैविक प्राणी नहीं हैं, यद्यपि उनके माता-पिता थे। उसी प्रकार, जिस प्रकार भगवान श्री राम के जैविक माता-पिता थे। इस कृपा हेतु परमात्मा का आभार प्रकट करने के लिए महाराज पर्वतीय प्रांत की एक प्रतिष्ठित कंदरा में ध्यान में बैठे हैं। वे परमात्मा से संवाद करके जगत-कल्याण हेतु दिशा-निर्देश भी प्राप्त करेंगे। पूरा राष्ट्र इस रहस्योद्घाटन से विस्मित एवं उत्साहित था। पर्वतीय प्रांत की जनता अपने आंदोलन के बीच भी इसे अपना गौरव मान रही थी। सदियों के पश्चात कोई ईश्वरीय अवतार पुरुष राष्ट्र को महाराज के रूप में प्राप्त हुआ था। राम राज्य की परिकल्पना साकार होने का समय आ गया था। कतिपय अविश्वासी नागरिक भी थे, जो इसे जनता को बहकाने वाला नाटक बता रहे थे लेकिन उनकी बात सुनने वाला भी इस समय कोई नहीं था। कुटिल बुद्धि, विघ्नसंतोषी एवं राष्ट्रद्रोही कहकर उनकी भर्त्सना की जा रही थी।

चाक्षुष मीडिया के प्रस्तोता कभी चीखकर और कभी धैर्य के साथ महाराज की ध्यान मुद्रा का वर्णन कर रहे थे। वे वेदों-पुराणों से विभिन्न ऋषियों की तपस्याओं के उदाहरण और उनके किस्से सुनाते हुए महाराज की तपश्चर्या से उनकी तुलना कर रहे थे। कुछ समाचार प्रस्तोता पंचतंत्र की कथाओं को वैदिक व पौराणिक बताते हुए अपने ज्ञान से जनता को चमत्कृत कर रहे थे। बड़ी उत्तेजना के साथ बताया जा रहा था कि यह वही पर्वत शिखर है जहां भगवान शिव का वास है, जहां माता पार्वती एवं नंदी भी रहते हैं। आदि देव गणेश आते-जाते रहते हैं। भगवान शिव के आशीर्वाद से ही महाराज को यहां ध्यानस्थ होने की प्रेरणा हुई है। एक समाचार प्रस्तुतकर्ता को उनके चतुर्भुज रूप के दर्शन होने लगे थे। वह प्रसारण कक्ष में खड़ा होकर वहीं से उनकी आरती उतारने लगा था। प्रतिद्वंद्विता में दूसरा प्रस्तुतकर्ता अपने स्थान पर दण्डवत हो गया यद्यपि इस मुद्रा में दहाड़ते रहना अत्यंत दुष्कर हो रहा था। जो सुधी दर्शक इन पत्रकारों के ज्ञान तथा बड़बोलेपन से प्रभावित नहीं हो रहे थे, उन्हें भी ध्यानमग्न मुद्रा में महाराज कोई दिव्य संत प्रतीत हो रहे थे। उनके मुख पर सम्मोहक आभा थी जो देखने वालों के मन में असंदिग्ध श्रद्धा उत्पन्न कर रही थी। लगभग सारा राष्ट्र इस सम्मोहन में था। पर्वतीय प्रांत की आंदोलनकारी जनता भी इस सम्मोहन से मुक्त नहीं रही। केवल उनके कुछ नेता थे जो इसे राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं और विशेष रूप से अस्मिता की उनकी लड़ाई से ध्यान भटकाने के लिए किया जा रहा नाटक बता रहे थे। वे उपहास के पात्र बनाए जा रहे थे।  

चौबीस घण्टे की तपस्या पूरी करके महाराज उठे तो उनका मुखमंडल अद्भुत आभा से दीप्त हो रहा था। प्रांत प्रमुख, उनकी पूरी प्रांत परिषद और अधिकारीगण आतुरता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ हाथ जोड़े हुए भावविह्वल-से उन्हें निहारते रहे तो कुछ उनके चरणों में गिर पड़े। महाराज ने दाहिना हाथ उठाकर सबको आशीर्वाद दिया।

प्रांत परिषद के प्रमुख ने विनीत भाव से निवेदन किया- “महाराजाधिराज की जय हो! महाराज, चूंकि आपने परमात्मा से संवाद के लिए इस पर्वतीय प्रांत की प्रतिष्ठित कंदरा को चुना, इसलिए प्रांत की जनता परमात्मा के अवतार, अपने महाराज का अभिनंदन करने को आतुर है।”

महाराज सहर्ष मौन सहमति देकर निकट ही सुसज्जित मंच की ओर बढ़ गए। ध्यान के पश्चात वे इतने हलके लग रहे थे कि जैसे हवा उन्हें ले चल रही हो। प्रतीक्षारत ब्राह्मण वटुकों की टोली स्वस्ति वाचन और मंगलाचरण करते हुए उनके पीछे-पीछे चली। मंच के पार्श्व में दमुआ-नगाड़ों, मशकबीनों, छोलिया नर्तकों के प्रदर्शनों के साथ लोक वेश-भूषा में सुसज्जित महिलाओं के दल ने शकुनाखर गाए। महाराज के मंच पर पहुंचते ही परमात्मा के अवतार की जय”, “महाराज की जय” के नारों और करतल ध्वनियों से वायुमण्डल प्रकम्पित हो उठा। ध्यान योग का निशि-वासर प्रसारण होने के कारण वहां उत्सुक जनता की भारी भीड़ जुट गई थी। वे अपने महाराज के दैवी-अवतार रूप का दर्शन करना चाहते थे। विशाल जन समुदाय देखकर महाराज का मुखमंडल और भी खिल उठा। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता के साथ दोनों हाथ आशीर्वाद देने की मुद्रा में उठा दिए।  

“परमात्मा के अवतार की जय हो”, “महाराज की जय हो!” के नारे निरंतर गूंजते रहे।

प्रांत परिषद के प्रमुख ने जनता को शांत होने का संकेत करते हुए सभा को सम्बोधित करना प्रारम्भ किया‌- “जन-जन के आराध्य ईश्वर के अवतार, हमारे परम आदरणीय महाराज, आज इस प्रांत की जनता और हम सब आपको एक नए रूप में अपने बीच पाकर धन्य-धन्य हैं। मानव इतिहास में ऐसा अवसर विरले ही आता है। हम सब अत्यंत भाग्यशाली हैं कि यह दुर्लभ अवसर हमारे समय में आया है। हम इस ऐतिहासिक अवसर के साक्षी हैं। महाराज, इस मानव-दुर्लभ अवसर पर आपको भेंट स्वरूप प्रदान करने के लिए जनता के पास प्यार और मान-सम्मान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। राजमुकुट आपके पास है, जनता का अभूतपूर्व सम्मान व स्नेह आपके साथ है और सर्वोपरि ईश्वर ने आपको अपने अवतार के रूप में चुना है। इनसे श्रेष्ठ कोई भेंट और क्या हो सकती है, महाराज! बहुत विचार-विमर्श के बाद प्रांत परिषद ने निश्चय किया कि इस प्रांत की संस्कृति, परम्परा और आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतीक एक टोपी आपको इस महान और पुण्य अवसर पर भेंट की जाए। महाराज, जनता और प्रांत परिषद की ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।”

प्रांत की पारम्परिक वेषभूषा में सुसज्जित एक बालिका हाथ में सुसज्जित थाल लिए आगे बढ़ी। थाल के मध्य केसर रंग की एक सुंदर टोपी रंगबिरंगे फूलों के बीच सुशोभित थी। नेपथ्य में शंख-घंट ध्वनियां गूंजने लगीं। महाराज के मस्तक पर राजमुकुट शोभायमान था। उसके ऊपर टोपी पहनाना न उचित था, न व्यावहारिक। अतएव प्रांत प्रमुख ने टोपी को महाराज के चरण कमलों में रख दिया। सभास्थल करतल ध्वनियों से इतना गूंजा कि महाराज की जय-जयकार के नारे बिला गए।

हर्ष विभोर महाराज ने अपने चरण कमलों में रखी टोपी को निहारा और विस्मय के साथ उसे करकमलों में उठा लिया। वे टोपी को देखने में इतने मग्न हुए कि साष्टांग पड़े प्रांत प्रमुख को आशीर्वाद देने अथवा उन्हें उठाने का भी उन्हें ध्यान उन्हें नहीं आया। उस विशिष्ट टोपी में दाहिनी ओर तीन तिर्यक पट्टियों में पर्वतीय प्रांत के हिम शिखरों, वनस्पतियों, नदियों और पक्षियों के संक्षिप्त किंतु आकर्षक प्रतीक चित्रित थे। कुछ पल पश्चात टोपी हाथ में लिए-लिए भाव-विह्वल कंठ से बोले- “भाइयो-बहनो, मैं यहां परमात्मा से संवाद करने आया था। आभार प्रकट करने आया था कि उन्होंने मुझे अपने अवतार के रूप में चुना है। जब मैं गहरे ध्यान में था, एक पल को मुझे ऐसी प्रतीति हुई कि आसमान से एक अद्भुत ज्योति प्रकट होकर सीधे मेरे भाल पर पड़ी और पियूष ग्रंथि को प्रदीप्त करती हुई पूरे तन-मन में छा गई। उस पल से मैं एक पारलौकिक सी अनुभूति कर रहा हूं। मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई है। उस दिव्य दृष्टि के प्रभाव से मैं जो सामने है, और जो सामने नहीं है, वह सब देख सकता हूं। यह टोपी जो आज आपने मुझे इतने प्यार और सम्मान के साथ सौंपी है, मैं देख सकता हूं कि यह साधारण टोपी नहीं है। इसमें हिमालय की ऊंचाई है। शांति है। इसमें मां गंगा का अविरल प्रवाह है, उनकी गरिमा है। सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति और संत परम्परा का अंश इसमें मैं देख रहा हूं। यह टोपी वास्तव में हमारी लुप्तप्राय प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति की प्रतीक है। बड़े आदर और विनीत भाव से इस प्यार और सम्मान को स्वीकार करते हुए मैं आज परमात्मा की प्रेरणा से ही यह टोपी अपनी जनता को, आप सबको, समर्पित करता हूं। यही आपकी अस्मिता है, यही पहचान है। जो कुछ लोग यहां अस्मिता के लिए आंदोलन छेड़े हुए हैं, मैं जानता हूं, वे कर्तव्य पथ से भटके हुए लोग हैं। वे अपनी महान परम्परा और संस्कृति को भूले हुए लोग हैं। वे राष्ट्र विरोधी शक्तियों के बहकाए हुए लोग हैं। भाइयो-बहनो, याद रखिए कि चूंकि हमने टोपी पहनना छोड़ दिया था, इसलिए जो अपनी टोपियां लेकर इस पुण्य भूमि पर आए थे, आक्रांता और विधर्मी लोग, उन्होंने हमारे धर्म और संस्कृति को पददलित किया। हमारे धर्मग्रंथों, हमारे मंदिरों और हमारी परम्पराओं का उन्होंने अपमान किया। दुर्भाग्य से अपने ही राष्ट्र के कुछ धर्म-भ्रष्ट लोगों ने उन्हें सिर में चढ़ाकर रखा। उनकी टोपी छा गई और हमारी टोपी लुप्तप्राय हो गई। इसलिए यह जो टोपी इस प्रांत के इतिहासकारों-अनुसंधानकर्ताओं ने बड़े परिश्रम से तैयार की है, यह टोपी हमारे सांस्कृतिक-धार्मिक पुनर्जागरण का नवीन प्रस्थान बिंदु है। यह संकट में पड़ गए सनातन धर्म की पुनर्स्थापना का अभियान है। मैं, परमात्मा का साक्षात अवतार, आप सभी से अपील करता हूं कि अपनी अस्मिता की प्रतीक इस टोपी को अपनाएं। इसे श्रद्धापूर्वक धारण करें। इसी में इस प्रांत का और हमारे राष्ट्र का ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण निहित है।”

सम्बोधन समाप्त करके महाराज त्वरित गति से प्रस्थान कर गए। अनेक अन्य प्राथमिकताएं उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन पर परमात्मा के सौंपे हुए कार्य पूरे करने का दायित्व था।   

“महाराज नहीं संत हैं, समस्याओं का अंत हैं” जैसे गगनभेदी नारे महाराज के चले जाने के बाद भी देर तक वायुमण्डल में गूंजते रहे। कुछ ही लोगों ने ध्यान दिया कि जाते समय महाराज वह टोपी प्रांत परिषद के प्रमुख के सिर पर रख गए थे।        

...

प्रांत में बड़े स्तर पर टोपी समारोह आयोजित किए जाने लगे। मुख्य समारोह में सबसे पहले परिषद प्रमुख ने मंत्रियों को टोपियां पहनाईं। मंत्रियों ने अपने अधिकारियों को, अधिकारियों ने अपने अधीनस्थों के सिर पर टोपियां रखीं। अधीनस्थों ने घर जाकर अपने परिवारीजनों को टोपियां पहनाईं। एकाएक प्रांत में टोपियों की मांग बढ़ गई। टोपियां प्राप्त करने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। विशिष्ट टोपी का प्रारूप प्रांत के समस्त दर्जियों को उपलब्ध कराकर मांग की पूर्ति करने का प्रयास किया जाने लगा। दर्जियों के दिन रात काम करने से भी मांग और आपूर्ति के बीच विशाल अंतर बना रहा तो घर-घर, स्वयं सहायता समूहों, जेलों, सुधार गृहों, स्वयं सेवी संगठनों और बेरोजगारों को टोपियां तैयार करने के आदेश दिए गए। पूरे प्रांत में प्रत्येक नागरिक, महिला हो अथवा पुरुष, टोपियां पहन रहा था, टोपियां सिल रहा था और टोपियां पहना रहा था। प्रांत परिषद ने कड़े निर्देश दे दिए कि कोई भी बिना टोपी के नहीं दिखाई देना चाहिए। पूरा तंत्र आदेश का पालन कराने में युद्ध स्तर पर जुट गया। पथिकों, पर्यटकों, दुकानदारों, कृषकों, श्रमिकों, यहां तक कि दर-दर भटकने वाले याचकों, वंचितों तथा यत्र-तत्र फिरने वाले पागलों को पकड़-पकड़कर टोपियां पहनाई जाने लगीं। नंग-धड़ंग लोग भी टोपियां पहने दिखाई देने लगे। वकील न्यायालयों में टोपियां पहनकर बहस करने लगे और न्यायाधीश टोपियां सिर पर धारणकर निर्णय सुनाने लगे। टोपियां पहने लोगों की छाती तन जाती और गरदन विशेष मुद्रा में अकड़ उठती। जो लोग पहले से टोपी पहना करते थे, वे इस दिव्य टोपी को देखकर डरे-सहमे दिखाई देने लगे। कुछ जोशीले-उत्साही लोग उनके सिर की टोपियां उछाल कर अपनी नई टोपियां पहनाने लगे।

आंदोलनकारी नेताओं ने जनता को समझाने का जीतोड़ प्रयास किया कि ये टोपियां केवल हमको बहलाने के लिए हैं। इनका अस्मिता से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। हमारी मूल लड़ाई अपने जंगलों, नदियों, जमीनों, फसलों, बीजों, स्वाद, गीत-संगीत और भाषा-बोली वापस पाने के लिए है। ये टोपियां कुछ नहीं दे सकतीं। वे न पेट भर सकती हैं, न सम्मान से जीने का अधिकार दे सकती हैं। यह टोपी कपड़े का छोटा-सा टुकड़ा है, झुनझुना है, छलावा है। अपने पेट की ओर देखो, टोपी पहनने के पश्चात भी वह पिचका हुआ है। अपनी संतानों को देखो, टोपियां पहनकर भी वे बेरोजगार घूम रहे हैं। विज्ञानियों को देखो, जो टोपियां पहनकर अवैज्ञानिक बातें करने लग गए हैं। कहानीकार पुरस्कार के लोभ में टोपी-गाथा लिख रहे हैं। कवि सम्मानों की अपेक्षा में सिर झुकाकर टोपी-चालिसा रच रहे हैं और गायक टोपी-महाकाव्य गा रहे हैं। यह राष्ट्र अधोगति की ओर जा रहा है। जागो, अपनी चेतना को टोपियों में कैद मत होने दो। पुन: लड़ाई के मैदान में आ जाओ। अब लड़ाई और भी कठिन हो गई है। लड़ना पहले से अधिक आवश्यक हो गया है। लेकिन जनता ने उनकी एक नहीं सुनी। उलटे वह अपने नेताओं को टोपियां पहनाने के लिए दौड़ाने लगी। नेता सिर छुपाकर भागने लगे। प्रांत परिषद के रखवालों ने कानून-व्यवस्था बिगाड़ने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया। टोपियां नहीं पहनने, टोपियों का अपमान करने और टोपियों के विरुद्ध जनता को भड़काने के लिए उन पर राष्ट्रद्रोह का अभियोग लगाया गया। बिना किसी सुनवाई के उन्हें कारागारों में ठूंस दिया गया।

जेलों में केवल पागल रह गए थे, जो बार-बार टोपी पहनाए जाने के बाद भी उन्हें फाड़ फेंकते थे, या फिर राष्ट्रद्रोही, जिन्होंने टोपियां पहनना यह कहकर अस्वीकार कर दिया था कि यह प्रांत की मुख्य समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाने की सोची-समझी चाल है। सारे हत्यारे, अपहरणकर्ता, बलात्कारी एवं अन्य अपराधी स्वेच्छया टोपी पहनकर जेलों से बाहर आ चुके थे। वे टोपी पहनाओ अभियान के समर्पित कार्यकर्ता बन गए थे। उसके पक्ष में जुलूस निकाल रहे थे। कुछ नवाचारी उद्यमियों ने उत्साह में टोपी के मध्य में, जहां पहाड़, पेड़ और नदियों के प्रतीक बने थे, महाराज का विहंसता चित्र भी प्रकाशित करवा दिया था। टोपी का यह प्रारूप और भी लोकप्रिय हो गया, जिसे पाने के लिए आप्रवासी नागरिक भी सागर पार से आने लगे थे। वह टोपी पहले प्रांत की और क्रमश: सम्पूर्ण राष्ट्र की विशिष्ट और असंदिग्ध पहचान बन चुकी थी। उसे आध्यात्मिक महत्त्व प्राप्त हो गया था।                 

टोपियां सिर पर धारण करते ही जनता का मानस परिवर्तित होने लगा था। टोपी-गौरव में वह अपनी समस्याएं भूलने लगी। जनता को याद ही नहीं रहा कि कुछ समय पहले तक वह कितनी आक्रोशित एवं किस प्रकार आंदोलित थी और उसे अपनी पहचान समाप्त कर दिए जाने पर कितना आक्रोश था। उसके जो नेता यह स्मरण कराते रहे, वे कारागारों में थे। जनता अपने नेताओं को टोपी-द्रोही एवं देशद्रोही समझने लगी थी। ऐसा नहीं था कि उनकी समस्याएं समाप्त हो गई थीं। उनके जंगल, उनकी नदियां, उनकी भूमि, भाषा-गीत-संगीत, सब पहले की तरह उनसे दूर-दूर थे, बल्कि और भी दूर होते जा रहे थे, लेकिन टोपियां पहनकर वे आश्वस्त हो जाते थे कि जीवन में कुछ समस्याएं तो रहेंगी ही। राष्ट्र गौरव के लिए, धर्म की पुनर्स्थापना के लिए तथा अपनी अस्मिता के रक्षार्थ उन समस्याओं के साथ जीना होगा। टोपी उन्हें अपने धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का स्मरण कराती है, जिन्हें जानबूझकर भुला दिया गया था। वे महाराज के अत्यंत ऋणी थे कि उन्होंने उनका गौरव लौटा दिया है।

टोपियां केवल सिरों तक सीमित नहीं रहीं। वे घरों के ऊपर ध्वज की मानिंद हवा के साथ मंद-मंद फहराती हुई दिखाई देने लगीं। अब उन धर्म-द्रोही, राष्ट्रद्रोही घरों को पहचानना आसान हो गया था जिनमें पहले चिह्न लगाने पड़ते थे। टोपियां विदेशी अतिथियों को मानद उपाधियों की तरह पहनाई जाने लगीं। वे मंदिरों में देवताओं के मस्तक पर चढ़ाई जाने लगीं और प्रसाद स्वरूप वितरित की जाने लगीं। एक टोपी बाबा भी अवतरित हो गए थे। ऊंचे पहाड़ की एक चोटी पर कुटिया बनाकर रहने वाले बाबा के हाथ से आशीर्वाद स्वरूप मिली टोपी के प्रभाव से एक व्यक्ति की लम्बे समय से रुकी हुई प्रोन्नति हो गई। एक गरीब पिता की बेटी का सम्पन्न घर में विवाह सम्पन्न हो गया। एक युवक चौथे प्रयास में परीक्षा में सफल हो गया। एक विदेशी पर्यटक का खोया हुआ पारपत्र मिल गया। रातोंरात टोपी बाबा की ख्याति फैल गई। पहाड़ की चोटी पर चढ़ती-उतरती पगडंडी पर कदमों का तांता लग गया। पगडण्डी पक्की सड़क बन गई। उसके दोनों ओर विशाल अतिथिगृह और भोजनालय खुल गए। लोग बाबा के चरणों में श्रद्धा से टोपी समर्पित करते, बाबा एक टोपी उठाकर भक्त के सिर पर रखते और भक्त चमत्कार की आशा लिए हुए, सुने हुए चमत्कारों का वर्णन करते-करते पहाड़ से उतर आते। कुछ ही समय में बाबा की कुटिया आश्रम में परिवर्तित हो गई। आश्रम धामबन गया। वहां निशि-वासर मेला लगा रहने लगा। टोपी बाबा से टोपी पाने के लिए घमासान मच गया। राजनीतिक नेता, व्यवसाई, मिल मालिक, नव-उद्यमी और देश-विदेश के प्रतिष्ठित व्यक्ति टोपी बाबा के अनुयाई बन गए। टोपी प्रत्येक समस्या का समाधान थी, उन्नति का सुनिश्चित मार्ग थी।  

जनता का टोपी-प्रेम, टोपी-निष्ठा एवं टोपी-समर्पण देखकर महाराज अत्यंत प्रसन्न थे। परमात्मा के अवतार रूप में वे आह्लादित थे। आश्वस्त थे कि वे अपराजेय हैं। उन्हें अभय प्राप्त है। यह देखकर मुदित रहते थे कि पूरे राष्ट्र की जनता टोपी में मग्न है। टोपियां पहने लोग प्रफुल्लित मुखड़ा, अकड़ी गरदनें और तनी हुई छातियां लेकर घूमते हैं। उन्हें अपना पिचका हुआ पेट नहीं दिखाई देता। उनकी बेरोजगार संतानों का स्वाभिमान जाग्रत हो गया है। वे लाठियां और आग्नेयास्त्र लिए हुए टोपी की रक्षा में सन्नद्ध हैं। महाराज को मुदिन मन देखकर उनके समस्त मंत्री, दरबारी एवं अधिकारी प्रसन्नता से गदगद थे। उन्हें मात्र इतनी चिंता करनी होती थी कि असावधानीवश भी उनके सिर की टोपी गिरे नहीं।

कुछ लोग अब भी टोपी को जुमला और चेतना का आवरण बताकर उसका प्रतिरोध कर रहे थे। वे टोपी के जादू से सम्मोहित नहीं हो पाए थे। उनको कारागारों में डाला जाना जारी था। जेलों की यातनाएं उन्हें टोपी पहनने के लिए सहमत नहीं कर पा रही थीं। बल्कि, उन्हें पूर्ण आशा थी कि टोपियों के नीचे सुप्त चेतना एक दिन जाग्रत होगी। इस अटल विश्वास के साथ वे कारागार की कोठरियों में अपने पहाड़ों, जंगलों, खेतों, नदियों, भाषाओं, पशु-पक्षियों, अनाजों और स्वादों के गीत गाते रहते थे।

-नवीन जोशी

('उद्भावना' ( अंक 154-155), अगस्त 2024 में प्रकाशित

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