'दावानल' और 'टिकटशुदा रुक्का' के बाद नवीन जोशी का तीसरा उपन्यास-'देवभूमि डेवलपर्स'। उपन्यास का नाम सहसा समझ में नहीं आता किंतु जब कथानक की एक के बाद एक परतें खुलती चली जाती हैं तो समझ में आता है कि अनेक आंदोलनों, संघर्षों को झेलते-भोगते हुए भोले और जुझारू पहाड़ियों के द्वारा देखा हुआ देवभूमि का एक सपना कैसे उनकी खुरदुरी हथेली पर आते-आते बिखर जाता है और डेवलपर्स की निष्ठुर मुट्ठी में कैद हो जाता है।
Thursday, September 29, 2022
पहाड़ों का विकास: डेवलपर्स के हाथ
Tuesday, September 27, 2022
उत्तराखण्ड के चार दशकों का मजबूत दस्तावेज- 'देवभूमि डेवलपर्स'
स्कूल में कॉलेज के लड़कों और महिलाओं के जुलूस के जत्थे आने की धुंधली तस्वीरें याद हैं. दूर से आती नारों की गूंज या जनगीतों की आवाजों का मतलब हमारे लिये स्कूल की छुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं था. 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद आवाज़ें कम होती गयी हमारे बड़े होने तक सन्नाटा था. उत्तराखंड राज्य बनाने वालों और 90 के दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी के बीच एक लम्बी दूरी महसूस होती है.
Thursday, September 15, 2022
'आ लिली बाकरी लिली छ्यू-छ्यू'- यानी हीरा सिंह राणा की याद
1970-80 के दशक की बात है। आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित होने वाले 'उत्तरायण’ कार्यक्रम में कुमाऊंनी कविता, कहानी या वार्ता पढ़ने न जाना हो तो भी हम वहां अक्सर पहुंच जाते थे। जिज्ञासु जी, जरधारी जी और दूसरे रचनाकारों के साथ बैठकी जमती। ‘उत्तरायण एकांश’ की मेजों पर श्रोताओं की फरमाइशी चिट्ठियों का ढेर लगा होता। ये चिट्ठियां सुदूर पहाड़ी शहरों-कस्बों-गांवों से आती थीं और सबसे ज्यादा सीमांतों पर तैनात पहाड़ी फौजियों की बटालियनों से। मैं अपने वरिष्ठों की बातचीत सुनने के साथ-साथ इन फरमाइशी पोस्टकार्डों को पलटता रहता था, जो गीतों-गायक-गायिकाओं के नाम से छांट कर अलग-अलग़ ढेरियों में रखे रहते थे। फरमाइशी चिट्ठियों का सबसे बड़ा ढेर ‘ओ परुआ बौज्यू, चप्पल के ल्याछा यास, फटफटै नी हुनी चप्पल के लाछा यास!’ गीत की होती थीं, जो शेरसिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का लिखा और वीना तिवारी का गाया हुआ था। उसके बाद जिन गीतों को सुनने की फरमाइश सबसे अधिक होती थी उनमें ‘आ लिली बाकरी लिली छ्यू-छ्यू’, ‘रंगीलि बिंदी घाघरि काइ, धोती लाल किनारि वाइ, हाय-हाय रे मिजाता..’, ‘बुरुशी का फूलों को कुमकुम मारो, डाना-काना छाजी गे बसंती नारंगी’, ‘आज पनी जौं-जौं, भोल पनी जौं, पोरखिन त नैही जौंला...’ जैसे लोकप्रिय गीतों का नम्बर आता था।
हीरा सिंह राणा का नाम और उनके गीत मैंने तभी सुने थे। वीना
तिवारी ‘उत्तरायण’ की बहुत मीठी, सुरीली और जानी-पहचान आवाज रही हैं। शेरदा का ‘ओ परुआ
बौज्यू...’ से लेकर राणा जी के ‘आ लिली
बाकरी..’ और ‘रंगीलि बिंदी घाघरी काइ..’
जैसे गीत उनकी सुरीली-मीठी की आवाज में बजते थे तो उत्तरायण के स्टूडियो
में या ड्यूटी रूम में जिज्ञासु जी का इंतजार करते हुए हम ही मुग्ध नहीं होते थे,
बल्कि पहाड़ी गांवों-कस्बों से लेकर सीमांतों में तैनात उत्तराखण्डी
फौजी भी कभी नराई और कभी हास्य-विनोद से तरंगित हो जाया करते थे। उत्तराखण्ड से
बहुत से गायक-कवि ‘उत्तरायण’ में अक्सर
लखनऊ बुलाए जाते थे। सो, उनसे परिचय और घनिष्ठता भी होती गई।
हीरा सिंह राणा का आना बहुत कम होता था क्योंकि दिल्ली में होने के कारण उनकी
रिकॉर्डिंग आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से मंगवा ली जाती थी। ऐसा ही नियम था। तो भी
वे कभी विशेष अवसरों पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष कविता पाठ के लिए बुलाए जाते
थे। तब हमने अपनी ‘आंखर’ संस्था के मंच
पर उनकी प्रस्तुति भी कराई थी जिसमें उन्होंने अपने कुछ लोकप्रिय गीतों के अलावा
अन्य गीत भी अपनी लोक में पगी बुलंद आवाज में सुनाए थे। ‘आंख्रर’
की कई सांस्कृतिक संध्याओं में हमने ‘आ लिलि,
बाकरी लिली छ्यू-छ्यू’ गीत की नृत्य-प्रस्तुति
की थी, जिसमें कई बालक-बालिकाओं के साथ मैंने भी कलाकार
यतींद्र जखमोला जी के बनाए बकरियों के मुखौटे पहन कर मंच पर चौपाया दौड़ते हुए
ग्वाले के सिकड़े खाए और घुटने-कुहनियां छिलवाए थे। बाद में भी राणा जी का विभिन्न
कार्यक्रमों में लखनऊ आना होता रहा था।
आज कई वर्ष बाद ‘लस्का कमर बांदा’ पुस्तक
के रूप में कवि-गिदार हीरा सिंह राणा मेरे सामने हैं तो पुरानी यादें उभरने के साथ
ही उन्हें समग्रता में जानने का अवसर मिल रहा है। राणा जी के गीतों, कविताओं और नाटकों का यह ‘समग्र’ संकलन सामने लाने का श्रम-साध्य काम चारु तिवारी ने किया है, जो न केवल राणा जी के करीबी रहे, बल्कि उत्तराखंड की
राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना के सजग-सक्रिय सेनानी भी हैं। हिमांतर प्रकाशन ने
इसे सुरुचिपूर्ण ढंग से छापा है।
‘लस्का कमर बांदा’ में राणा जी की अब तक
प्रकाशित सभी पुस्तकों की रचनाएं भूमिकाओं और आवरण-चित्र के साथ खण्डवार प्रस्तुत
की गई हैं तो अप्रकाशित कविताओं-गीतों को भी खोजकर शामिल किया गया है। यह वास्तव
में कठिन काम है। चारु तिवारी ने अपनी विस्तृत भूमिका में लिखा है- “हीरा सिंह
राणा ने अपनी पचास वर्ष से अधिक की रचना-यात्रा में जो भी लिखा-गाया, वह लोगों तक पहुंचे, इस मंशा से इस समग्र को
प्रकाशित करने का विचार किया गया। उनकी रचनाओं को संकलित करना बहुत श्रमसाध्य काम
था। उन्होंने अपनी रचनाओं को व्यवस्थित कर नहीं रखा था।” असल में किसी रचनाकार का
समग्र साहित्य उसके समय, सोच, सरोकार,
समाज, संघर्ष, भाषा,
मान्यताएं और बदलाव को समझने का महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है। इस
लिहाज से हीरा सिंह राणा का यह समग्र और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वे उस समाज
में रचनारत थे जिसकी जड़ें अपनी परम्पराओं में गहरे जमी थीं लेकिन जो कई कोणों से
निरंतर और तेजी से बदल भी रहा था। वहां अभावों, कष्टों,
विडम्बनाओं की कमी नहीं थी, जहां प्रकृति की
अकूत सम्पदा थी लेकिन उसका कोई सदुपयोग समाज के लिए नहीं हो पा रहा था, जहां पलायन माथे पर लिखा हुआ सच था, इसके बावजूद
सपनों-आशाओं का आसमान भी चमकता था। खुद उन्होंने बड़े कष्ट में जीवन जीया, खासकर बचपन। यह सब उनकी रचनाओं में तरह-तरह से अभिव्यक्त हुआ। सम्पादक के
शब्दों में कहें तो- “इनमें पहाड़ की महिलाओं के दर्द, आम जन
की तकलीफें, प्रकृति का सौंदर्य, शृंगार
की खूबसूरती, प्रेम-विछोह की व्यथा, लोक
स्वरों की सामूहिक अभिव्यक्ति, हिमालय के संकट, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिकार, संघर्ष की जिजीविषा,
सच से साक्षात्कार, जीवन की दार्शनिकता और इतिहास-संस्कृति
का बोध है।”
उनकी पहचान मूलत: गीतकार के रूप में हुई, क्योंकि
वे गाते भी बहुत अच्छा थे लेकिन उनकी कविताएं भी कथ्य और शिल्प की खूबियां लिए हुए
उनके सरोकारों को सामने रखती हैं। ‘गीद कस ल्येखूं’,
‘हम पीड़ लुकानै रया’, ‘हिरदी पीड़’, ‘गरीबै चेली ख्वट डबला’, ‘कौतिकौ थौ’, ‘मनखों पड़्यौव में’, ‘त्यर पहाड़-म्यर पहाड़’ जैसी कई कविताएं-गीतों में उनकी जन-प्रतिबद्धता, दृष्टि,
सम्वेदना और जन-समस्याओं की उनकी समझ साफ होती है। उनकी विज्ञान और
कृषि विषयक कविताएं अलग ही आस्वाद लिए हुए हैं। उनकी रचनाओं में विविधता है,
लोक-मुहावरा है, जन-मन में पैठने की ताकत है और
समय की नब्ज पर पकड़ है। ये खूबियां उन्हें जनता का कवि-गिदार बनाती हैं।
राणा जी को अपने मानिला (उनका जन्म अल्मोड़ा जिले में मानिला
क्षेत्र के ग्राम डढौली में 16 सितम्बर 1942 को हुआ था) से बहुत प्यार था। स्वाभाविक
ही मानिला पर उनके कई गीत हैं। बल्कि, उनके दूसरे प्रकाशित संग्रह (1976) का नाम
ही ‘मानिला डानि’ है। बाद में दिल्ली
रहते हुए भी उनके हंस-प्राण मानिला में डोलते थे। अपनी माटी से गहरे जुड़ाव ने
उन्हें अपनी बोली का विपुल शब्द भण्डार और लोक की समझ ने मोहक शिल्प दिया। उनके
गीत-कविताएं और समग्र में संकलित चार नाटक भी कुमाउनी बोली की पछाईं शैली का अद्भुत
लालित्य लिए हुए हैं। सम्पादक-प्रकाशक ने यह बहुत अच्छा काम किया कि पुस्तक के अंत
में राणा जी के गीतों में आए पछाई बोली के ठेठ शब्द ही नहीं, बल्कि स्थानीय लोक-बिम्ब और मुहावरे-कहावतें भी अर्थ खोलते हुए रख दिए हैं।
यह हमारी बोली का वह खजाना है जिसका पता खो गया है या कहिए कि प्रचलन से बाहर होता
जा रहा है। लोक जीवन के रचनाकार का एक बड़ा योगदान अपनी स्थानीयता का भाषिक सौंदर्य
सहेजना भी होता है। राणा जी की रचनाएं इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
‘लस्का कमर बांदा’ एक रास्ता भी दिखाता
है। हमारी बोलियों के अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के ‘समग्र’ भी प्रकाशित होने चाहिए। ‘पहाड़’ ने ‘गिर्दा समग्र’ पहले ही
प्रकाशित कर दिया है। शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का भी समग्र कुछ वर्ष पहले निकला था सुना, हालांकि
मेरे देखने में नहीं आया। नंद कुमार उप्रेती की कुमाउनी रचनाओं का संकलन डॉ प्रयाग
जोशी ने तैयार कर प्रकाशित कराया था। झुसिया दमाई पर गिर्दा ने काम किया था। भानुराम
सुकोटी की प्रमुख रचनाएं एक तारो दूर चलक्यो नाम से अनिल कार्की ने तैयार किया और ‘पहाड़’ ने छापा। पीताम्बर पाण्डे, चंद्र सिंह राही, जीत सिंह नेगी, चारु चंद्र पाण्डे, घनश्याम सैलानी, गुणानंद पथिक, केशव अनुरागी, मथुरादत्त
मठपाल, ‘शिखरों के स्वर’ में शामिल
कवियों, और भी ज्ञात-अल्प ज्ञात रचनाकारों की समस्त रचनाओं
का संकलन-विश्लेषण आना चाहिए। अब तो उत्तराखण्डी बोलियों में नियमित पत्रिकाएं
प्रकाशित हो रही है और बहुत सी पुस्तकें भी हर साल प्रकाशित होती हैं। चारु तिवारी
की तरह किसी शोधार्थी का ध्यान अपने पुरखे रचनाकारों के समग्र तैयार करने की ओर
जाना चाहिए, जिनका लेखन व्यवस्थित नहीं है। कुमाउनी बोली की पहली पत्रिका ‘अचल’ (1938-40) के सम्पादक जीवन चंद्र जोशी और
हुक्का क्लब, अल्मोड़ा के संस्थापक चंद्र लाल चौधरी जी का
लिखा खूबसूरत कुमाउनी गद्य भी संकलित होना चाहिए। कुछ भी लिखकर किताबें छपवाने की
होड़ की तुलना में बोलियों के साहित्य के लिए यह समर्पित काम अत्यंत श्लाघनीय होगा।
कवि-गिदार हीरा सिंह राणा की रचनाओं के इस समग्र संकलन के
लिए सम्पादक और प्रकाशक को साधुवाद।
- न जो
पुस्तक- ‘लस्का कमर बांदा’, सम्पादक-चारु
तिवारी, प्रकाशक- हिमांतर प्रकाशन, पृष्ठ-
458, मूल्य- रु 550/-, सम्पर्क-
8860999449
Sunday, September 11, 2022
क्या मेधा पाटकर ने आदिवासियों को ठगा, जैसा स्वामीनाथन कहते हैं?
स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर प्रतिष्ठित पत्रकार, अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री हैं। उनके लेख और वक्तव्य अक्सर विभिन्न माध्यमों में पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं। उनका शोध-अध्ययन प्रभावित करता है। अर्थशास्त्र के कई सिद्धांत और तर्क ठीक से समझ में न आने के बावजूद उन्हें पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ समझ बढ़ती है। ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के उनके नियमित साप्ताहिक स्तम्भ में पिछले दो रविवारों के लेखों में उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन से विश्व भर में ख्यात और अत्यंत लोकप्रिय एवं सम्मानित जमीनी नेता मेधा पाटकर को आंदोलन को भटकाने-भरमाने और झूठे दावे करने वाली साबित करने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने एक शोध-अध्ययन के आंकड़े और ‘जमीनी हकीकत’ पेश किए हैं।
हमारे मन में मेधा पाटकर की छवि एक ऐसे जमीनी
नेता-कार्यकर्ता की है जिन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन के माध्यम से बड़े बांधों की
जन-उजाड़ू और घोर विकास-विरोधी असलियत तो दुनिया भर के सामने रखी ही, विस्थापित
आदिवासियों-ग्रामीणों को जागरूक कर उनके हक में ऐसी लड़ाई लड़ी, जो अब भी लड़ी जा रही है, जिसने आदिवासी समाज को सामाजिक-राजनैतिक
ताकत दी, विस्थापन के बदले नकद मुआवजे के साथ पर्याप्त जमीन
भी बसने को दी, जमीन के साथ-साथ नदी और जंगल को भी
आदिवासियों-ग्रामीणों के जीवन के लिए अनिवार्य साबित किया। मेधा पिछले तीस साल से
आदिवासियों के बीच झोपड़-पट्टी में उन्हीं की तरह रहती हैं, विस्थापितों
को साथ लेकर देस-विदेश में उनकी आवाज उठाने गई हैं, सर्वोच्च
न्यायालय में उनके साथ खड़ी रही हैं, विश्व बैंक की टीम ने भी
उनके तर्क माने थे, आदि-आदि। हाल ही में नवारुण प्रकाशन से
प्रकाशित पुस्तक ‘नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं’ पढ़कर मेधा के प्रति सम्मान और भी बढ़ा। यह किताब आम ग्रामीणों-आदिवासियों
के मुंह से आंदोलन की वह कहानी कहती है जिसमें मेधा ने अकेले अपने को आगे नहीं
किया, बल्कि पूरे डूब-प्रभावित क्षेत्र की आम जनता में से
जुझारू नेता विकसित किए। इसी कारण मेधा के बारे में स्वामीनाथन की टिप्पणी आसानी
से पचती नहीं है लेकिन उनके तर्कों-आंकड़ों को खारिज करना भी सहज नहीं है। यह जानना
भी जरूरी है कि एक दौर में स्वयं स्वामीनाथन मेधा पाटकर से प्रभावित थे और नर्मदा
परियोजना का विरोध करते थे।
चार सितम्बर को प्रकाशित पहला स्तम्भ स्वामीनाथन ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नर्मदा का पानी गुजरात के कच क्षेत्र में
पहुंचाने वाली नहर के उद्घाटन पर दिए गए भाषण के संदर्भ में लिखा है, जिसमें
उन्होंने ‘मेधा पाटकर और उनके अर्बन नक्सल दोस्तों’ की तीखी आलोचना की थी। स्वामीनाथन लिखते हैं कि वास्तव में नर्मदा
परियोजना का बहुत व्यापक विरोध हुआ था और विरोध करने वालों में विश्व बैंक का मोर्स
कमीशन भी था, जो किसी भी रूप में ‘अर्बन
नक्सल’ नहीं था। वे आगे लिखते हैं कि मेधा और उनके साथी
आलोचक पूरी तरह गलत साबित हुए हैं। वे लिखते हैं कि 1989 में मैंने मेधा पाटकर और ‘आर्क’ (एक्शन रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ एंड
डेवलपमेंट) की सरदार सरोवर बांध (नर्मदा पर पहला बांध) विरोधी बातें सुनी और सहमत
हुआ था कि सरकारें और अन्य राजनैतिक दल जो दावे कर रहे हैं, वे
सच नहीं हैं, बांधों के पानी का लाभ बड़े किसान उठाते हैं,
नर्मदा का पानी कभी भी सौराष्ट्र, कच और
राजस्थान तक नहीं पहुंच पाएगा, आदिवासी उजड़ जाएंगे और उनकी
महिलाएं वेश्यावृत्ति को मजबूर हो जाएंगी, आदि-आदि। आंदोलन
के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय दबाव में न्यायाधिकरण ने विस्थापितों को नकद मुआवजे के
अलावा प्रति वयस्क व्यक्ति पांच-पांच एकड़ जमीन दी। स्वामीनाथन लिखते हैं कि
पांच-पांच एकड़ जमीन पाने वाले विस्थापित आज करोड़पति बन गए हैं, उनके पास पक्के मकान, बिजली-पानी, स्कूल, मोटर सायकिल, बैंक खाते,
स्मार्ट फोन और अन्य सुविधाएं हैं। नर्मदा का पानी भी कबके
सौराष्ट्र, कच और राजस्थान तक पहुंच चुका है, जिससे लाखों लोगों को लाभ हुआ है।
उन्होंने लिखा है- “मेधा का समर्थन कर मैंने गलती की।
उन्होंने न केवल मुझे बल्कि, हजारों सचेत लोगों को बेवकूफ बनाया,
जिन्हें आज क्रोधित होना चाहिए। ... मैंने बांध से विस्थापित
ग्रामीणों के कष्टों-संघर्षों के बारे में पढ़ा था लेकिन कई लोग कहते थे कि
पुनर्वास बहुत सफल रहा। इसका परीक्षण करने के लिए मैंने और कोलम्बिया
विश्वविद्यालय के नीरज कौशल ने एक शोध परियोजना शुरू की, जिसका
खर्च लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स ने उठाया। हमने विस्थापित होकर पुनर्वास स्थल पर बस
गए आदिवासियों के जीवन स्तर का तुलनात्मक अध्ययन उन लोगों के जीवन स्तर से किया जो
अब भी अपने जंगलों या डूब से बचे इलाकों में डटे हैं यानी जिन्होंने पुनर्वास
स्वीकार नहीं किया। यह अध्ययन आंख खोलने वाला रहा। पुनर्वास स्थल पर रह रहे
आदिवासी आज बहुत बेहतर हालात में हैं। उनके पास जमीन है, ट्रेक्टर
हैं, नलकूप हैं, टीवी, मोटर सायकल, फोन और कई अन्य सुविधाएं तथा सरकारी
दफ्तरों तक पहुंच है। उन्होंने अपनी आदिवासी संस्कृति को भी बचा रखा है। फिर भी
इनमें से 54 फीसदी आदिवासी कहते हैं कि हम अब भी जंगलों में रहना चाहेंगे। उनके
लिए भौतिक सुख-सुविधाएं ही सब कुछ नहीं हैं। जो पुनर्वास स्थल पर नहीं गए हैं,
हमने उनसे भी पूछा कि क्या आप उसी राहत पैकेज के साथ विस्थापित होना
चाहेंगे तो 51 प्रतिशत ग्रामीणों और 31 फीसदी आदिवासियों ने ‘हां’ कहा। पुनर्वास स्थलों में मिली जमीन की कीमत
2019 में तीस लाख रु प्रति एकड़ हो गई थी। पांच एकड़ वाले करोड़पति हो गए हैं।”
चार सितंबर को लिखे स्तम्भ के लिए स्वामीनाथन की काफी
आलोचना हुई। इसलिए स्वामीनाथन ने 11 सितम्बर को अपने स्तम्भ में फिर यही सब बातें कुछ और तथ्यों के साथ लिखीं। वे मानते हैं कि
मेधा पाटकर की इसलिए खूब तारीफ की जानी चाहिए कि प्रारम्भ में उन्होंने आदिवासी हितों
के लिए खूब लड़ाई लड़ी। जमीन के बदले सिर्फ नकद मुआवजा नहीं, बल्कि
जमीन भी मिले, यह आंदोलन सराहनीय था। लेकिन बाद में उन्होंने
पलटा खाया। आदिवासी हितैषी होने का दावा करते हुए वे उन्हें आधुनिक सुविधाओं से वंचित
रखना चाहती हैं। वास्तव में, उन्होंने गरीब आदिवासियों को जमीन
का करोड़पति मालिक बनने से रोका, शिक्षा से वंचित रखना चाहा। क्या
यह आदिवासी हितैषी होना था?” मेधा को कटघरे में खड़ा करते हुए
स्वामीनाथन एनजीओ ‘आर्च’ की खूब सराहना
करते हैं। उसे असली हीरो बताते हैं “जिसने आदिवासियों के सामुदायिक स्वास्थ्य,
चौतरफा विकास के लिए बिना प्रचार के लिए काम किया।”
स्वामीनाथन एस अंक्लेसरिया अय्यर जैसे अध्ययेता की कलम से यह
सब पढ़ना स्तब्धकारी है, इसलिए कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए मेधा पाटकर का संघर्ष
लगभग आदर्श माना गया है। नर्मदा घाटी के आंदोलनकारी ग्रामीण और आदिवासी उन्हें तीस
साल बाद भी बहुत आदर देते हैं। वह उनके बीच रच-बस गई हैं। उनका मुख्य उद्देश्य बड़े
बांधों का विरोध और विस्थापितों के वाजिब हकों के लिए लड़ना रहा जिनमें वे जमीन के बदले
जमीन, जंगल के बदले जंगल और नदी के लिए नदी को अत्यंत महत्त्वपूर्ण
मानती रही हैं। उन्होंने विकल्प के तौर पर छोटे बांध बनाकर दिखाए, आदिवासियों के लिए स्कूल खोले, और उनकी जीवन-संस्कृति
को बचाए रखने के जतन किए। यह आरोप गले से नीचे नहीं उतरता कि मेधा ने आदिवासियों को
‘करोड़पति जमीन मालिक’ बनने से या शिक्षा
से वंचित रखने की कोशिश की। बांध प्रभावितों के यथासम्भव बेहतर पुनर्वास की उनकी लड़ाई
काफी हद तक सफल मानी जाती है। टिहरी बांध में राहत और पुनर्वास के तमाम झगड़े आज तक
जारी हैं जिसके लिए सुंदर लाल बहुगुणा तक विवादित हुए और अकेले पड़ गए थे। मेधा के तर्कों
को विश्व बैंक के जांच दल और सर्वोच्च न्यायालय ने भी काफी हद तक माना था।
मेधा पाटकर से असहमत आदिवासी भी हो सकते हैं और दूसरे कार्यकर्ता
और संगठन भी लेकिन नर्मदा घाटी के प्रभावित अधिकसंख्य आदिवासी कहते हैं- “कई
बार लोग पूछते हैं- संघर्ष से क्या हासिल हुआ, बांध तो बन गया? हमारा विश्लेषण इतना सामान्यीकरण वाला भी नहीं होना चाहिए कि चूंकि बांध बन
गया, इसलिए आंदोलन असफल हो गया। आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया
है। अब यह सिर्फ बांध विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष
है। इसने तमाम छोटे संघर्षों जैसे महिलाओं और किसानों के मुद्दों के संघर्षों को
प्रेरणा दी है।” (रेहमत, चिखल्दा, मध्य प्रदेश)
बहरहाल, स्वामीनाथन की टिप्पणियां विकास के सरकारी मानदण्डों
पर नए सिर से बहस मागती हैं।
-न. जो, 12 सितम्बर, 2022
Friday, September 09, 2022
कहानी के उस्ताद ने 91वें वर्ष में रखा कदम, सलाम और शुभकामनाएं
बात ‘गलता लोहा’ से शुरू करते हैं, जो शेखर जोशी जी की अपेक्षाकृत कम चर्चित कहानी है। पहाड़ के एक गांव में दो सहपाठी हैं- धनराम और मोहन। धनराम लोहार का बेटा है जो कुमाऊं में शिल्पकार यानी अछूत माने जाते हैं। मास्टर त्रिलोक सिंह उसे स्वाभाविक ही हिकारत से देखते हैं और पढ़ाने की बजाय काम में लगाए रखते हैं। मोहन गांव के गरीब किंतु सम्मानित पंडित जी का बेटा है और मास्टर जी का प्रेम पात्र है। आगे की पढ़ाई के लिए पंडित जी मोहन को लखनऊ में कार्यरत एक सम्बन्धी रमेश के साथ भेज देते हैं जहां मोहन पढ़ाई की बजाय रमेश के परिवार ही नहीं, मोहल्ले भर की बेगार करने को विवश है। कहानी की शुरुआत में मोहन लखनऊ से आकर धनराम के आफर में बैठा है जहां वह हंसिए की धार तेज करवाने गया है। दोनों अपने स्कूली दिनों और मास्टर त्रिलोक सिंह की यादों के साथ अतीत में जाते हैं। कहानी और फ्लैश बैक के अंत में दोनों वहीं आफर में बैठे हैं। हंसिए की धार तेज हो चुकने के बाद भी मोहन वहीं बैठा धनराम को लोहे की एक छड़ को गरम करके पीट-पीटकर गोल छल्ले में बदलने की कोशिश करते देख रहा है। एक हाथ से पकड़ी संड़सी में दबी लोहे की छड़ पर दूसरे हाथ का हथौड़ा पड़ता है लेकिन निहाई पर ठीक घाट में सिरा न फंसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा है। फिर होता यह है कि मोहन ने “अपना संकोच त्यागकर दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारते, अभ्यस्त हाथों से धौंकनी फूंककर लोहे को दुबारा भट्ठी में गरम करते और फिर निहाई पर रखकर उसे ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे दिया।”
सामान्य रूप से देखने पर यह कहानी मोहन के पण्डित यानी
सवर्ण खानदान का होने यानी लोहे को गलाती है अर्थात वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार करती
है। यह तो सचेत कहानीकार का मंतव्य है ही लेकिन इतना ही नहीं है। इस चेतना और
प्रतिरोध की कहानियां तो वे और भी लिख चुके हैं- ‘समर्पण’ और ‘हलवाहा’। ‘गलता लोहा’ में वे इससे आगे जाते हैं। इन अंतिम
पंक्तियों को देखिए- “धनराम की संकोच, असमंजस,
और धर्मसंकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के छल्ले
की त्रुटिहीन गोलाई को जांच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति
पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आंखों में एक सर्जक की चमक थी- जिसमें न स्पर्धा थी
और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।” यह जो ‘अपने लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई’ के लिए ‘अपनी कारीगरी की स्वीकृति’ पाने की इच्छा है और जो ‘एक सर्जक की चमक’ है, वही
कहानीकार का मुख्य अभीष्ट है। और, मोहन से यह अनायास नहीं हो
गया था। उसने बकायदा कारीगरी सीखी थी। इसका संकेत कहानीकार ने बीच में एक जगह
मात्र दो पंक्तियों में दिया है। लखनऊ में रमेश के परिवार की बेगारी करते हुए उसे
एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया गया था और वहां डेढ़-दो वर्ष गुजारने के बाद
मोहन “अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्ट्रियों के चक्कर लगाने
लगा।”
इसीलिए यह कहानी कामगारों की, श्रम के सौंदर्य और शिल्प
के सम्मान की कहानी ठहरती है। अकारण नहीं है कि शेखर जी ने इस कहानी को ‘डांगरी वाले’ कथा-संग्रह में शामिल किया है, जिसमें उनकी कारखाना मजदूरों के जीवन, संघर्ष और
वर्ग चेतना की कहानियां संकलित हैं। एक बार इस कहानी की चर्चा करते हुए उन्होंने
मुझसे कहा भी था कि “इसमें मैं सर्जक और शिल्प के सम्मान की चेतना पाठकों तक
पहुंचाना चाहता हूं।”
नई कहानी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षरों में शामिल रहे शेखर
जोशी निम्न एवं मध्य वर्ग के अति संवेदनशील तथा प्रगतिशील मूल्यों के प्रभावी
प्रवक्ता कथाकार तो हैं ही, उनकी कथा भूमि के दो अन्य फलक भी बहुत
स्पष्ट हैं। पहाड़ (कुमाऊं) के श्रम-साध्य, सरल, अभावग्रस्त जन-जीवन का जैसा यथार्थ चित्रण उन्होंने किया है, वह अद्वितीय है। उनकी दूसरी कथा भूमि कारखाने हैं जिसके श्रमिकों के
जीवन-संघर्ष, शोषण, वर्ग चेतना,
मानवीय रिश्तों की ऊष्मा तथा गरिमा के वे विरले कथाकार हैं। कुमाऊं
के जनजीवन के और भी कथाकार हुए, हालांकि शेखर जोशी उनमें
विशिष्ट हैं, लेकिन कारखानों और श्रमिक वर्ग की कथाएं लिखने
वाले हिंदी में लगभग नहीं हुए। किसानों को विषय बनाकर विपुल लेखन हुआ है। खूब
कहानियां और उपन्यास लिखे गए हैं लेकिन कारखानों और श्रमिक जीवन के विविध पहलुओं
को कथाओं में उतारने वाले साहित्यकार शेखर जोशी के अलावा हिंदी में लगभग नहीं हैं।
उनके बाद इस्राइल, सतीश जमाली, शकील
सिद्दीकी ने भी कुछ ऐसी कहानियां लिखीं लेकिन शेखर जोशी इस मामले में अद्वितीय ठहरते
हैं।
बचपन में मां की मृत्यु के बाद बालक शेखर जोशी अपने मामा के
पास सुदूर केकड़ी (राजस्थान) भेजे गए थे। शुरुआती पढ़ाई केकड़ी और फिर अजमेर में हुई।
कच्ची उम्र में पहाड़ से विस्थापन ने उनके मन में गांव-घर-नदी-पहाड़-पेड़ और वहां की
विविध स्मृतियां गाढ़ी बनाए रखीं। इण्टर की पढ़ाई के बाद रक्षा मंत्रालय की ‘कोर ऑफ
इलेक्ट्रिकल एण्ड मैकेनिकल इंजीनियर्स’ में प्रशिक्षण के लिए
चयन हो गया। लिखना-पढ़ना यानी साहित्यिक संस्कार स्कूली पढ़ाई के दौरान ही विकसित हो
चुके थे। दिल्ली में प्रशिक्षण (1951-54) के दौरान ‘होटल
वर्कर्स यूनियन’ से सम्पर्क हुआ जो अति संवेदनशील इस युवक
में सामाजिक-राजनैतिक और वर्ग-चेतना के विकास का आधार बना। वहीं 1954 में ‘दाज्यू’ लिखी गई। 1955 में इलाहाबाद के आयुध कारखाने
में तैनाती मिली। इलाहाबाद तब साहित्य और साहित्यकारों का भी अद्भुत संगम था। दिन
भर कारखाने में ‘डांगरीवालों’ का साथ
और छुट्टी के दिन लेखकों के बीच। भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में ‘कहानी’ पत्रिका की धूम थी। इस पत्रिका के 1956 के
वार्षिकांक के लिए हुई कहानी प्रतियोगिता में कमलेश्वर की ‘राजा
निरबंसिया’, अमरकांत की ‘डिप्टी
कलक्टरी’ और आनंद प्रकाश जैन की ‘आटे
का सिपाही’ को संयुक्त रूप से दूसरा पुरस्कार मिला था। (कहा
गया था कि प्रथम पुरस्कार लायक कोई कहानी नहीं पाई गई। भैरव जी के बारे में शेखर
जी के संस्मरण मेंइसका रोचक वर्णन है।) शेखर जोशी की कहानी ‘कविप्रिया’
भी इस विशेषांक के लिए भेजी गई थी लेकिन वह बाद के अंक में प्रकाशित
हुई। तब वे ‘चंद्रशेखर’ नाम से लिखते
थे। यही वास्तव में उनका पूरा नाम है। तो, ‘कहानी’ के 1956 के उस विशेषांक को पढ़ने के बाद शेखर जी ने सम्पादक के नाम यह चिट्ठी
लिखी थी-
“कहानी का विशेषांक देखा। बंगला तथा अन्य प्रांतीय भाषाओं
के वृहद वार्षिकांक देखकर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का पाठक जो कमी अनुभव करता है, उसे
आपके विशेषांक किसी हद तक पूरा कर देते हैं। इस वर्ष प्रतियोगिता में पुरस्कृत
कहानियों को पढ़ने का विशेष आकर्षण था। ‘राजा निरबंसिया’
और ‘डिप्टी कलक्टरी’ में
जो गहराई है, वह ‘आटे का सिपाही’
में नहीं आ पाई। प्रथम दोनों कहानियों को दुबारा पढ़ने पर भी पहले की
सी ताजगी मिलती है।
“एक साधारण पाठक की हैसियत से मुझे जो कमी इस विशेषांक को
देखकर ही नहीं, वरन् हिंदी कथा साहित्य को पढ़कर खलती है, वह यह कि जहां हमारा लेखक उच्च वर्ग के ड्राइंग रूम, मध्यम वर्ग की गृहस्थी, गांवों के खेत-खलिहान,
निम्न वर्ग की झोपड़ियों और वेश्याओं की गलियों में अपनी सूक्ष्म
दृष्टि लेकर बेझिझक चला जाता है, वहां वह लेखक एक ऐसे वर्ग
की अनायास ही उपेक्षा कर देता है, जो उसकी रचनाओं को पढ़कर
उसमें अपनी छाया भी देखना चाहता है। यह वर्ग है कारखानों, फैक्ट्रियों
और मिलों में काम करने वाली श्रमिक जनता का।” (संतोष कुमार चतुर्वेदी, ‘अनहद’, जनवरी 2014) बाद में इसे और स्पष्ट करते हुए
शेखर जी ने बताया कि “पसीने का भी अपना एक रिश्ता होता है।
मजदूर जीवन के अपने सुख—दुख होते हैं, अपनी समस्याएं होती
हैं जिस पर किसी ने कलम नहीं उठाई।’ (शेखर जोशी से मुरलीधर
सिंह की बातचीत, ‘अनहद’, जनवरी 2014)
खैर, भैरव जी ने ‘कहानी’
के अगले अंक में यह पत्र प्रकाशित ही नहीं किया बल्कि, उसी दौरान शेखर जोशी से परिचय होने पर उन पर ही यह जिम्मेदारी डाल दी कि
वे ही क्यों नहीं इस विषय पर कहानियां लिखते। यहीं से शेखर जी के कहानीकार ने अपनी
नई कथा भूमि पर पैर रखा। भैरव जी की सलाह पर ही वे शेखर जोशी नाम से लिखने लगे।
कारखानों और श्रमिकों की कथा- भूमि उनकी कितनी जानी-पहचानी
थी! कारखाने की नौकरी के शुरुआती दिनों के बारे में उन्होंने लिखा है- “कामकाजी
दुनिया से यह मेरा पहला साक्षात्कार था। बल्कि यह कहना अधिक संगत होगा कि मैं अब
इस दुनिया का एक हिस्सा बन गया था। अब तक की मेरी दुनिया बहुत सीमित रही थी। अपना
कहने को घर-परिवार और नाते-रिश्ते के ही लोग थे। शेष दुनिया मेरे लिए बाहरी थी। जो
कामकाजी लोग थे, जो हल चलाते, मकानों
की चिनाई करते, बढ़ईगीरी करते, लोहा
पीटते, बर्तन बनाते, वे हमारे लिए
अस्पर्श्य थे। यहां तक कि दैनंदिन जीवन में उनका स्पर्श हो जाने के बाद घर में
प्रवेश करने से पहले हमें पानी के छींटे देकर शुद्ध किया जाता। अब मैं स्वयं उनमें
से एक था। मोची, लोहार, बढ़ई, वैल्डर, मोल्डर, ठठेर, खरादिए, मिस्त्री, रंगसाज मेरे
गुरु थे। मैंने उनसे दीक्षा ली थी। मुझे याद आता है, अपहोल्स्टर
शॉप में जहां कैनवास और चमड़े का सामान बनता था, वहां एक
सप्ताह के प्रशिक्षण के दौरान मेरा पहला शिक्षक एक बूढ़ा मोची था जिसने चमड़े के रोल
में से एक लम्बी पट्टी काटकर उसमें रांपी से एक सीधी लकीर खींचकर सुए और तागे से
सीधी सिलाई (गंठाई) करने की जब मुझे शिक्षा दी तब मैंने कैसा थ्रिल अनुभव किया था।
उस्ताद की पैनी निगाह मेरे काम पर टिकी थी और सिलाई के एक भी टांके के लीक से बाहर
होने पर कैसी असंतुष्ट आवाज उनके गले से निकल पड़ती थी!” (‘जुनून’,
स्मृति में रहें वे, पृष्ठ 142)
क्या आपको ‘उस्ताद’ कहानी के बीज,
आस्वाद और परिवेश याद आने लगे? लेकिन ठहरिए।
कारखाने का वह जो जीवन था, वह इस कथाकार के भीतर कैसे उतर
रहा था, कैसी छवियां गढ़ रहा था, कैसे
रूपक और बिम्ब बना रहा था, कैसे हुनर और रिश्तों के पेच सीख
रहा था, श्रम के सौंदर्य की कैसी-कितनी परतें उसके सामने खुल
रही थीं, शोषण और उसके कितने रूप वह देख रहा था, उसका जायजा लेने के लिए यहां एक लम्बा उद्धरण देना चाहूंगा- “अपनी ढीली
डांगरी पहनकर हम लोग वर्कशॉप के अलग-अलग विभागों में बिखर जाते। एक अद्भुत
विस्मयकारी दुनिया हमारे चारों ओर फैली हुई थी। ... आर्मर शॉप के दूसरी ओर आरा मिल,
बढ़ई शॉप और सिलाई शॉप थी और दूसरी ओर पेण्ट शॉप। लम्बे भारी लकड़ी के
स्लीपर आरा मशीन के ऊपर मिनटों में चिरान होकर सुडौल तख्तों में बदल जाते।
दांतेदार तवों या लम्बी दांतेदार पट्टियों वाली ये दैत्याकार मशीनें पलक झपकते ही
उन भारी स्लीपरों को डबलरोटी की तरह काट देतीं और आरी के दोनों ओर लकड़ी का बुरादा
आटे के ढेर में परिवर्तित हो जाता। लकड़ी के चिरान की भी अपनी एक सौंधी गंध होती
है- तवे में सेंकी जाती रोटियों की खुशबू की तरह, और आरा
मशीन का अपना संगीत होता है- किसी पहाड़ी झरने की झिर्र-झिर्र-सा। ... पेण्ट शॉप
में स्प्रे मशीन से उठती सतरंगी फुहारों के बीच बदरंग काठ-कबाड़ को नया रूप मिलता।
जो लोहा-लंगड़ कुछ समय पहले मुरझाए, बदरंग रूप में एक कोने
में उपेक्षित-सा पड़ा रहता, वही रंगों का स्पर्श पाकर नई दुलहन-सा
खिल उठता। नाक-मुंह और सिर पर कपड़ा लपेटे आरा मिल के कारीगर और पेण्ट शॉप के
रंगसाज अपनी नकाबपोशी में रहस्यमय लगते। ... यार्ड के बाद मशीन शॉप थी जहां
बीसियों खराद, मिलिंग, होनिंग, बोरिंग, ग्राइण्डर, ड्रिलिंग
और दूसरी कई तरह की मशीनें कतारों में स्थापित की गई थीं। हर मशीन का अपना संगीत
चलता रहता और जब प्राय: सभी मशीनें चालू हालत में होतीं तो पूरे शेड में एक अद्भुत
आर्केस्ट्रा बज उठता। हर धातु का अपना सरगम होता है। उसी खराद पर अगर लोहा कट रहा
हो तो उसकी कर्कशता कांसे या पीतल की खनकदार आवाज से बहुत भिन्न होती है।
ग्राइण्डर पर कच्चे लोहे और ऊंचे किस्म के स्टील की रगड़ से पैदा होने वाली आवाज ही
अलग नहीं होती, बल्कि उनकी फुलझड़ियों की चमक भी अलग-अलग रंगत
की होती है। ... एसेम्बली लाइन में जहां अलग-अलग स्टेज पर विभिन्न कलपुर्जे
गाड़ियों की चेसिस में जुड़ते, वहां इलेक्ट्रिक शॉप के
अपेक्षाकृत शांत वातावरण में विभिन्न प्रकार के बिजली उपकरणों का काम होता था।
मशीनों का संगीत यहां भी था लेकिन मद्धिम सुर में। वह भले डायनामो की धूं-धूं हो
या बीच-बीच में हॉर्न की पिपहरी। ... ढलाईघर का अपना विशेष आकर्षण था। लोहे की
चौखटों में शीरे में गुंथी रेत के बीच लकड़ी के पैटर्न बिठाकर विभिन्न आकार में
सांचे बनाए जाते और उन चौखटों में धातुओं को पिघलाकर डाल देने पर उन सांचों के
आकार की वस्तुएं तैयार हो जातीं। धातुओं को पिघलते और तरल होकर पानी की तरह बहते
देखना कम रोमांचक नहीं होता। विशेष रूप से तब, जब उस पिघले
पदार्थ से सांचे के गर्भ में एक नई आकृति का जन्म हो रहा हो। धातु के ठंडा हो जाने
पर चौखटों को खोलते हुए कारीगर को वैसी ही उत्सुकता होती है जैसे प्रसूतिगृह में
किसी बच्चे के जन्म के समय मां को होती होगी क्योंकि इस प्रक्रिया में जरा सी
असावधानी आकृति को विरूपित कर सकती है, हवा का प्रवेश आकृति
के शरीर में छिद्र पैदा कर सकता है और अपर्याप्त तरल पदार्थ उसे विकलांग कर सकता
है। ... वेल्डिंग शॉप से ही सटा हुआ लोहारखाना था जहां दसियों छोटी-बड़ी भट्टियों
में आंच धधकती रहती और ठंडा काला लोहा गर्म होकर नारंगी रंग में बदल जाता। निहाई
पर संड़सी की गिरफ्त में और घनों की लगातार चोटों के बीच लोहार द्वारा इधर-उधर घुमाए
जाने के बाद वह लौह पिण्ड एक इच्छित आकार ले लेता। भारी घन चलाते हुए दो-दो
लोहारों का क्रमश: एक ही लक्ष्य पर अचूक चोट करना और उन्हीं चोटों के बीच तीसरे
व्यक्ति द्वारा लौह पिण्ड को अपनी इच्छानुसार संचालित करते देखना भी एक अनोखा
अनुभव होता। इस लय-ताल में थोड़ा भी असंतुलन बहुत महंगा पड़ सकता है लेकिन यही
कारीगरी है जो दर्शक को एक युगल-नृत्य का आभास कराती है।” (हमारा कोहिनूर, स्मृति में रहें वे, पृष्ठ 155-56)
इस ‘अद्भुत’ वातावरण में
कहानीकार रोजी-रोटी के वास्ते ही पहुंचा था। और कोई विकल्प होता तो वह साहित्य से
बहुत दूर की इस दुनिया को छोड़ने को तैयार भी था। प्रशिक्षण के लिए चयन के समय भरे
गए बॉण्ड को तोड़ने की ऐवज में चुकाने के लिए चार हजार रुपए होने का सवाल ही न था।
लिहाजा सुबह जल्दी तैयार होकर भागने, दिन भर कारखाने की
नौकरी करने और देर शाम लौटने का यह सिलसिला जारी रहा। इसी के बीच समय निकालकर लेखन
भी चलता रहा। जब भैरव जी के कहने पर कारखानों और मजदूरों के जीवन पर लिखना शुरू
किया तो यह पूरा वातावरण उनके भीतर जीवंत हो उठा। दिल्ली में होटल वर्कर्स यूनियन
के सानिध्य में जो वर्गीय चेतना प्रस्फुटित हुई थी, उसने
मशीनों के पीछे के तेल-कालिख पुते चेहरों और दफ्तरों की कुर्सियों में धंसे
गोरे-चमकदार चेहरों को पढ़ना सिखाया। यहीं उन्हें कथा-सूत्र मिलते गए और एक से एक
चरित्र भी- “... तेल और कालिख से सने कपड़ों में ऐसी विभूतियां छिपी थीं, जिन्होंने मेरी जिंदगी को नया ही अर्थ दे दिया। यह मेरा एक आत्मीय संसार बन गया। हमारी रचनात्मकता, हमारे संघर्ष, हमारी खुशी और हमारा दर्द सब साझा था।
यहीं मुझे ‘उस्ताद’
मिले जो न चाहते हुए भी अंतिम क्षणों में अपने शागिर्द को काम का
गुर सिखाने को मजबूर थे, यहीं हाथों की ‘बदबू’ में मैंने जिजीविषा की तलाश की। यहीं ईमानदार
लेकिन ‘मेंटल’ करार दिए गए लोग थे,
यहीं विरोध की चिंगारी लिए ‘जी हजूरिया;
किस्म के लोग थे, यहीं ‘नौरंगी
मिस्त्री’ था और यहीं मैंने श्यामलाल का ‘आशीर्वचन’ सुना और इन सबको अपनी कहानियों में अंकित
कर पाया।” (“डांगरीवाले’ संग्रह की
भूमिका, 1994)
कारखानों, मिलों और उद्योगों में नौकरी और भी
रचनाकारों ने की होगी। ये जीवनानुभव किसी लेखक की कीमती और विशेष पूंजी हो सकते
हैं लेकिन इन्हें यादगार, प्रभावशाली एवं कालातीत कहानियों
में ढालने के लिए जो कहानी कला, दृष्टि, शिल्प और भाषा का अनुशासन उन्होंने अपनाया, वही शेखर
जोशी को विशिष्ट बनाता है। कारखानों के संगीत, सृजन के
सौंदर्य, कामगारों के कठिन जीवन और शोषण के विरुद्ध उनके
प्रतिरोध एवं संघर्ष को मुखर बनाने या कथा को स्वयं बोलने देने के लिए वे लगभग मौन
या शांत भाषा, सहज-सरल शब्द और वैसा ही चुप्पा शिल्प चुनते
हैं ताकि शब्दों के शोर या कहन की कलाबाजी में मूल कथ्य दब न जाए। यही कारण है कि
उनकी कहानियां कोई चमत्कार पैदा नहीं करतीं, न ही चौंकाती
हैं। वे धीरे-धीरे, अत्यंत सरल-साधारण अंदाज में खुलती हैं
और पाठक के भीतर इस तरह चुपचाप पैठती जाती हैं कि उनका असर क्रमश: गहरा होता जाता
है। उनकी कहानियां पढ़ते हुए अक्सर ही लगता है कि कहानी से लेखक गायब है या कहीं
नेपथ्य से चुपचाप संचालन कर रहा है। इसीलिए संजीव कुमार ने उन्हें ‘दबे पांव चलने वाली कहानियों के सृजेता’ कहा है (‘शेखर जोशी की कहानियां’ संकलन की भूमिका, नेशनल बुक ट्रस्ट)
उनका रचना-समय स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात क्रमश: टूटते
सपनों यानि मोहभंग का समय था। वह कल-कारखानों-मिलों के खुलने का समय था और ताकतवर
मजदूर संगठनों के सक्रिय होने, आक्रामक आंदोलनों और हड़तालों का दौर भी।
वाम दलों के श्रमिक संगठन काफी उग्र और देश भर में फैले हुए थे। लेकिन हम शेखर
जोशी की कारखानों-कामगारों की कहानियों में इन संगठनों/आंदोलनों की नारेबाजी पाते
हैं न हड़तालें। वहां न तो पर्याप्त वेतन, बोनस, काम के नियत घंटों एवं अन्य सुविधाओं की मांग के लिए आक्रामक भाषण हैं,
न ट्रेड यूनियन नेताओं की राजनीति व आरोप-प्रत्यारोप, और न ही मालिकों के साथ उनकी साठगांठ या दलाली के बहु-प्रचलित किस्से। ‘क्रांति’ की बात तो छोड़िए, वे किसी
ट्रेड यूनियन या रूटीन ‘गेट मीटिंग’ का
जिक्र भी नहीं करते। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे इस सबसे आंख मूंद लेते हैं।
वास्तव में उनकी कहानियों में मालिकों-प्रबंधकों की साजिशें व चालाकियां, मजदूरों के शोषण और उनके प्रतिरोध के स्वर इस तरह अन्तर्गुम्फित हैं कि वे
बिना शोर-शराबे के, जैसा कि उनकी विशिष्ट शैली है, अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चित्रित हुए हैं। प्रतिरोध दर्ज़ करने की उनकी
शैली कहानी को न नारेबाज बनाती है, न आरोपित, बल्कि उससे कहानी के तत्व और भी प्राणवान हो उठते हैं। उदाहरण के लिए हम यहां
कुछ कहानियों की चर्चा करेंगे।
‘बदबू’ शेखर जी की बहुत प्रसिद्ध और
चर्चित कहानियों में है। दिन भर कारखाने में मशीनों के साथ काम करने वाले मजदूर छुट्टी के समय मिट्टीतेल से
हाथों में लगी चिकनाई व कालिख छुड़ाते हैं और फिर साबुन से हाथ धोते हैं। ‘वह’ (पात्र का नाम नहीं है) नया आया है और परेशान है
कि बार-बार साबुन से हाथ धोने के बाद भी मिट्टीतेल की बदबू जा नहीं रही। बाकी
श्रमिक बताते हैं कि धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी। वे इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। इसलिए
उन्हें बदबू महसूस होना बंद हो गया है। एक दिन उसको लगता है कि उसे भी बदबू लगना
बंद हो गया है। वह चिंतित हो उठता है और फिर से नाक के पास हाथ ले जाकर सूंघता है।
उसे बड़ी राहत मिलती है कि उसे भ्रम हुआ था, बदबू अब भी आ रही
है। बदबू का आते रहना मानवीय जिजीविषा का बचे रहना है। यह कहानी का प्राण है लेकिन
जिजीविषा की प्रतीक यह बदबू वास्तव में है क्या?
कहानी पढ़ते हुए हमें पता चलता है कि मशीनों के साथ काम करते
समय बीड़ी-सिगरेट पीना मना है। एक श्रमिक बुद्धन को साहब बीड़ी पीते देख लेते हैं। बचने
के लिए वह जलती बीड़ी मुंह के अंदर धर लेता है। उसके साथी उसके करतब पर अचम्भित हैं
और चुहल करते हैं। उधर चीफ साहब सभी मजदूरों को एक स्थान पर एकत्र कर बुद्धन की
पोल खोलते हैं।
“साहब बोले, ‘कारखाने में इतनी कीमती चीजें पड़ी रहती
हैं, किसी भी वक्त आग लग सकती है। एक आदमी की वजह से लाखों
का नुकसान हो सकता है। हम ऐसी गलतियों पर कड़ी से कड़ी सजा दे सकते हैं।’ बुद्धन को कड़ी चेतावनी के साथ एक रुपए का दण्ड देने की साहब ने घोषणा कर
दी। तभी भीड़ में से किसी ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘साहब,
आग तो सभी की बीड़ी-सिगरेट से लग सकती है।’
“सैकड़ों विस्मित आंखें उस ओर उठ गईं जिधर से आवाज आई थी।
साहब कुछ कहें, इससे पहले वही व्यक्ति बोला, ‘अफसर साहबान तो सारे कारखाने में मुंह में सिगरेट दाबे घूमते रहते हैं।’
“भीड़ में एक भयानक खामोशी छा गई। इस मुंहजोर नए आदमी की
उद्दण्डता देखकर साहब का मुंह तमतमा उठा। बड़ी कठिनाई से उनके मुंह से निकला, ‘ठीक
है, हम देखेंगे’ और जाते-जाते उन्होंने
तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा जैसे उसकी मुखाकृति को अच्छी तरह पहचान लेने का
प्रयत्न कर रहे हों।”
यह ‘मुंहजोरी’ नहीं,
प्रतिरोध था और ठीक निशाने पर लगा था। फिर होता यह है कि “उस दिन
छुट्टी के बाद लौटते हुए दो-तीन नौजवान उसके साथ हो लिए। प्रत्यक्ष रूप से किसी ने
बीड़ी वाली घटना को लेकर उसकी सराहना नहीं की, यद्यपि
उनके व्यवहार और उनकी बातों से उसे लगा जैसे उन्हें यह अच्छा लगा हो और वे उसके
अधिक निकट आना चाहते हों। कटघरे से निकलकर एक नौजवान बुदबुदाया, ‘सालों को शक रहता है कि हम टांगों के साथ कुछ बांधे ले जा रहे हों,
इसीलिए अब यह उछल-कूद का खेल कराने लगे हैं|’ (छुट्टी के समय मजदूरों को कूदते हुए गेट के बाहर जाना होता था।)
‘इनका बस चले तो ये गेट तक हमारी नगा साधुओं की-सी बारात बनाकर
भेजा करें’, दूसरे ने उसकी बात का समर्थन किया।
‘खीर खाए बामणी, फांसी चढ़े शेख, नहीं देखा तो यहां आकर देख! छोटे साहब की गाड़ी के पिस्टन अंदर बदले गए हैं,
खुद मैंने अपनी आंखों से देखा’, पहले वाले ने
आवेश में आकर कहा।”
यह असर हुआ उस ‘सीनाजोरी’ का। मजदूरों
में अपने हालात की चर्चा होने लगी और बात फैलती गई। स्वाभाविक ही उसकी शिकायत हुई
और वह चीफ साहब के सामने पेश किया गया। साहब उसे बाल-बच्चों का हवाला देकर समझाते
हैं कि ऐसी बातों में नहीं पड़ना चाहिए। वह जवाब देता है कि उसने ऐसा कोई खतरनाक
काम नहीं किया। साहब उसे घेरते हैं कि कल रात उसके घर मीटिंग हुई थी या नहीं। वह
कहता है, मीटिंग नहीं, दो-चार दोस्त
मिलने आए थे। वह अब भी शांत बने रहने की कोशिश में है।
‘सुनो जवान! यार दोस्तों की महफिल में गप्पें होती हैं, ताश खेले जाते हैं, शराब पी जाती है लेकिन स्कीमें
नहीं बनतीं।’ इस बार स्वर कुछ अधिक सधा हुआ था।
‘साहब, लोगों को मकान की परेशानी होती है,
छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं, छोटी-छोटी बातों
पर जुर्माना हो जाता है। यही बातें आपसे अर्ज़ करनी थीं। यही वहां भी सोच रहे थे।’
साहब घाघ हैं। वे आजमाया हुआ दांव चलते हैं-
“मैं कौन होता हूं, जो तुम लोग मुझसे यह कहने
के लिए आते हो? मैं
भी तो भाई, तुम्हीं लोगों की तरह छोटा-मोटा नौकर हूं।” इस पर
वह दृढ़ स्वर में कहता है- “तो जो हमारी बात सुनेगा उसी से
कहेंगे साहब।”
एकाएक साहब बौखला कर कुर्सी पर उछल पड़े- ‘तुम बाहरी
पार्टियों के एजेंट हो, ऐसे लोग ही हड़ताल करवाते हैं। मैं
एक-एक को सीधा करबा दूंगा। मैं जानता हूं तुम्हारे गुट में कौन-कौन है। आइंदा ऐसी
बातें मैं सुनना नहीं चाहता।”
मजदूरों के परस्पर मेल-जोल, समस्याओं पर बातचीत और
सवाल उठाने से प्रबंधक बहुत डरते हैं। उनकी नीतियों और चतुराई से मजदूर दबे रहते
हैं। वे चुपचाप अपना काम करते हैं। वे अपनी स्थितियों के इतने आदी हो गए हैं कि
उन्हें मिट्टीतेल से हाथ के बाद उसकी बदबू नहीं आती। लेकिन यह जो नया ‘वह’ आया है, जिसने साहब लोगों
के कारखाने में खुलेआम सिगरेट पीने पर सवाल उठाया है, जिसने
छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं रखने, जरा-जरा सी बात पर
जुर्माना लगाने, वेतन से अकारण कटौती हो जाने, छुट्टी के समय उछल-उछलकर गेट से बाहर की अमानवीयता, आदि
पर सवाल उठाया है, वह इस बदबू का अभ्यस्त नहीं होना चाहता।
वह कहानी के अंत में डरता है कि कहीं वह भी इसका आदी तो नहीं हो गया! लेकिन नहीं,
उसके हाथों से अब भी कैरोसीन की बदबू आ रही है।
यह बदबू नहीं, वास्तव में खुशबू है। वर्ग चेतना, शोषण के विरुद्ध सचेत-सतर्क होने की चेतना की खुशबू। यह बनी रही तो दूर तक
जाएगी। तो, नारेबाजी, शोर-शराबे,
गेट मीटिंग और ट्रेड यूनियन गतिविधियों का क्रांतिकारी शब्दों में
बखान किए बिना कहानीकार मजदूरों के शोषण के विरुद्ध उनके साथ खड़ा नज़र आता है। कहानी
मजदूरों में उस जागृति का विस्तार करती चलती है जो अंतत: उनके एक होने, आवाज उठाने और संघर्ष करने की ओर जाएगी। यह चेतना पाठक के मन में भी अमिट
छाप छोड़ती है। यह शेखर जोशी का नायाब कौशल है कहानी कहने का कि अपनी बात भी पूरे
प्रभाव से कह दी गई और कहानी के तत्व भी खिल-खिल उठे। कुछ भी आरोपित नहीं। बहुत
सहज, याद रह जाने वाली कहानी। इसीलिए 60-65 साल बाद भी बहुत
याद की जाती है।
‘सीढ़ियां’ कहानी में ‘टी ब्रेक’ के दौरान मजदूरों का एक जगह एकत्र होकर
चाय पीते हुए बातचीत करना प्रबंधन को डराता रहता है। मैनेजमेण्ट की बैठक में इस पर
चिंता व्यक्त की जा चुकी है कि एक साथ बैठकर वे कोई योजना न बनाने लगें। कहीं वे
कोई यूनियन न बना लें और प्रबंधन के खिलाफ सक्रिय हो जाएं। मध्यम स्तर के अधिकारी
की मार्फत उन्हें चाय के समय इकट्ठा न होने देने के लिए तरह-तरह के उपाय करवाए
जाते हैं। हालांकि मजदूर कोई साजिश नहीं कर रहे, किसी आंदोलन
की तैयारी नहीं कर रहे, लेकिन चूंकि प्रबंधन को पता है कि
उनका शोषण हो रहा है और वे इसके खिलाफ उठ खड़े हो सकते हैं, इसलिए
वह डरता रहता है।
“वे लोग बाहर चाय पी रहे हैं, किसी
ऊंचे पत्थर या लकड़ी पर टिके हुए, जमीन पर पैर फैलाकर बैठे
हुए, एक-दूसरे के कंधे पर टिके हुए। कोई बीड़ी या सिगरेट फूंक
रहा है- उन्मुक्त, जमीन पर लेटकर। उन्हें लगा कि वे उनके
चैम्बर की ओर ही घूर रहे हैं या कि उनकी चर्चा का केंद्र वही हैं। चाय का समय समाप्त
हो जाने पर अलसाकर वे लोग उठेंगे और झुण्ड बनाकर धीरे-धीरे अपने काम पर लौटेंगे।
उन्हें आशंका लगी रहती थी कि न जाने वे लोग ऐसे ही समय कोई नई योजना बना लें और
एक-एक कर वह भीड़ उनके चैम्बर के गिर्द जमा हो जाए।”
ऐसी ही मौकों पर उस अधिकारी को वर्षों पहले देखी हिचकॉक की
फिल्म ‘बर्ड्स’ याद आती है-
“किसी निर्जन टापू पर एक मकान में घिरे हुए कुछ लोग और मकान
के बाहर रेलिंग पर असंख्य- असंख्य निरीह-सी दिखाई देने वाली
चिड़ियां। फिर वे फुदक-फुदक कर मकान के निकट आने लगती हैं और अचानक ही वे आक्रामक
हो उठती हैं और उन्होंने मकान को घेर लिया है। वे चिड़ियां कार की छत पर, हुड पर और खिड़कियों पर जमा हो गई हैं। इतना ही नहीं, बंद दरवाजों, खिड़कियों और रोशनदानों के शीशों पर अपनी
चोंचों से बार-बार प्रहार कर रही हैं। कुछ चिड़ियां चिमनी की राह मकान में घुसने का
प्रयत्न कर रही हैं। बार-बार चोंच की ठोकर खाकर कुछ शीशे टूट गए हैं और चिड़ियों का
एक रेला क्षत-विक्षत होकर कमरों में घुस गया है। हजारों-हजार चिड़ियां घर के अंदर
फड़फड़ा रही हैं और लोग अपनी सुरक्षा के लिए बेतहाशा भाग रहे हैं...।”
इस कथा में जो मध्यम श्रेणी का मैनेजर है, उसकी
जड़ें मजदूरों में ही हैं। उसका बाप गांव-जवार का माना हुआ तरखान था लेकिन अब उसका
वर्ग बदल गया है। इसीलिए जब उसने मजदूरों से अपनी काम की जगह पर ही चाय पीने को
कहा और मजदूरों ने भोलेपन से जवाब दिया कि- ‘यहां खुले में
चाय पीना अच्छा लगता है, साहब!’ तो
उसके मुंह से निकला था- ‘मुझे मालूम नहीं था कि तुम्हें नाली
में रहना ही अच्छा लगता है।’ इस अपमानजनक बात से मजदूरों में
असंतोष फैलाना स्वाभाविक था, हालांकि वह चुपके और धीमे-धीमे
ही व्यक्त होता रहा। उसे लगता है कि उससे गलती हो गई है। इसलिए वह अपने केबिन की
सीढ़ियां उतरकर मजदूरों के बीच जाकर अपने कहे की सफाई देने की सोचता रहता है,
उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता है। लेकिन यह जो वर्ग चरित्र है,
उसी की प्रतीक वे सीढ़ियां हैं, जो उसे और
मजदूरों को अलग करती हैं। वह सीढ़ियां नहीं उतर पाता।
‘मेण्टल’ एक ऐसे पुराने सीधे, सरल, समर्पित और हुनरमंद कारीगर की कथा है जो
निर्देश मिलने पर अपने निर्धारित काम के अलावा कारखाने के ही सामान से साहबों के
घरेलू इस्तेमाल के लिए तरह-तरह की खूबसूरत चीजें बनाकर देता है। कारीगर जानते हैं
कि साहब लोग यह चोरी से करते हैं लेकिन कुछ कहते न थे। बल्कि, उस बेगार के काम की तारीफ अफसर और उनके घरवाले करते तो उन्हें अपने हुनर
पर गर्व ही होता था। उनमें अपने अधिकारों की या संघर्ष के लिए कोई चेतना नहीं है
लेकिन अपने काम के प्रति गौरव-बोध और आत्मसम्मान तो है ही। एक दिन छोटे साहब के
साथ कारखाने का दौरा करने आए बी ओ साहब उस हुनरमंद भोले कारीगर को छेड़ बैठे-
‘यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो?’ उन्होंने
उसे टोका।
‘साहब एक औजार की जरूरत पड़ गई थी, वही लेने
आया था।’ वह बोला।
‘नहीं-नहीं, मुझे देखकर तुम औजार का बहाना
बना रहे हो। तुम जरूर रोटी खाने आए थे। वह डिब्बा यहां क्यों रखा है?’ उन्होंने अपने मजाकिया मूड में रौब दिखाया होगा।
‘साहब मैं तो रोज ही घर से खाना खाकर आता हूं। इतने साल हो गए
कभी यहां खाना लेकर नहीं आया। यह किसी दूसरे का डिब्बा है।’ उसने
सफाई दी।
‘तो इसका मतलब है कि डिब्बा ही नहीं, यह
टूलकिट भी किसी और का है। तुम उसका औज़ार चुरा रहे थे।’ साहब
ने अपनी तबदीली की खुशी में एक और रद्दा जमाया। उसे मालूम होना चाहिए था कि साहब
अपनी खुशी जाहिर करने के लिए यह मजाक कर रहे हैं लेकिन न मालूम छोटे अफसर की हंसी
देखकर उसे गलतफहमी हुई या क्या हुआ कि हमेशा का चुप्पा, सीधा-साधा
हमारा साथी जवाबदेही पर उतारू हो गया।
‘आपने मुझे चोर कैसे कहा साहब?’ वह हकलाने
लगा।
‘आपने मुझे चोर कहा?’
‘मैं चोर हूं?’
हम लोग गुल-गपाड़ा सुनकर बीच-बचाव करने की सोच ही रहे थे कि
वह भागा-भागा मोचीखाने से एक थैला उठा लाया। यह बी ओ साहब के स्कूटर के लिए बन रहा
रैक्सीन का थैला था। उसे हवा में नचाता, वह बी ओ साहब के
पीछे-पीछे दौड़ता हुआ चिल्लाने लगा-
‘चोर मैं हूं कि आप हैं? यह थैला मेरा बन
रहा है कि आपका?’
कहानी की शुरुआत इस हुनरमंद साथी के ‘मेण्टल’
हो जाने से होती है जिसका कारण यही घटना है जो कहानी के अंतिम दृश्य
में खुलती है। इस कहानी में शेखर जोशी जी की बहुत जानी-पहचानी कथा-प्रविधि
प्रयुक्त हुई है यानी व्यंग्य। हलके व्यंगात्मक पुट लिए कहानी अफसरों के
भ्रष्टाचार और श्रमिकों के भीतर पलता चुप्पा आक्रोश बहुत प्रभावी ढंग से चित्रित
करती है। पाठक यह भी जान जाते हैं कि श्रमिक अपने उस साथी की चीख को उसके आक्रोश
का विस्फोट न समझकर उसका पागल हो जाना मानते हैं (या ऐसा दिखाते हैं) किंतु इस
सम्बोधन को तनिक शालीन बनाने के लिए उसे ‘मेंटल’ कहते हैं। और, जब डॉक्टर उस साथी की जांच के बाद उसे
स्वस्थ घोषित करते हैं, तो कहानी इस तरह खत्म होती है कि “ऐसे
मरीज को डाक्टर ड्यूटी के लिए फिट कर दे, क्या यह
चौंकाने वाली बात नहीं है?”
यह व्यंग्य है, मजदूरों का अपने पर भी और व्यवस्था पर भी।
पाठक के भीतर तो वह चुभता ही है।
‘जी हजूरिया’ बहुत चापलूस एक श्रमिक की कहानी
है। प्रबंधकों को खुश रखने का कोई अवसर वह नहीं छोड़ता। चापलूसी की अति के कारण ही
उसका नाम ‘जी हजूरिया’ पड़ गया है।
कारखाने के रोजमर्रा काम-काज, उत्पीड़न के किस्सों और हंसी-मजाक
के बीच कहानी चलती है। तभी अत्यंत गरीब एक कारीगर की मौत हो जाती है। उसके परिवार
के पास अंतिम संस्कार के लिए भी कुछ नहीं है। श्रमिक प्रबंधक से निवेदन करते हैं
कि वेलफेयर फण्ड या कैंटीन फण्ड से ही कुछ रकम दे दी जाए। साहब टालते हैं, असमर्थता जताते हैं। श्रमिकों में आक्रोश है लेकिन कुछ कह नहीं पाते। उनके
बीच जी हजूरिया भी खड़ा सब सुन रहा है।
“जाते-जाते साहब फिर बोले- ‘हमें
तो जैसे नियम-कानून हैं, वैसे ही चलना पड़ेगा। आप लोग चंदा कर
लीजिए, चार-आठ आना भी एक आदमी दे तो बहुत हो जाएगा। बल्कि
मैं तो कहूंगा, आप लोगों को हर महीने कुछ न कुछ चंदा करके
जोड़ रखना चाहिए। कब किसके लिए जरूरत पड़ जाए, क्यों गलत कह
रहा हूं?’
जी हजूरिया इस बार अपना आक्रोश नहीं सम्हाल पाया। खंखार कर
बोला, ‘आप जानकार आदमी हैं हुजूर, आप कुछ गलत थोड़े न कहेंगे। भला
किताबी कानून के आगे हम मनई की जान की क्या औकात।’
कहानी का जो मर्म है, वह यहां नहीं है। असल कथा यह है कि चापलूसी
के लिए कुख्यात जी हजूरिया की बात बाकी
श्रमिक ठीक से सुन नहीं पाए। वे यही समझे कि इस बार भी उसने चापलूसी की कोई गहरी बात ही कही होगी और उसे घृणा से देखते रहे।
ऐसा ही मासूम प्रतिरोध ‘हेड मासिंजर मंटू’ में भी है। मंटू बहुत चुस्त, मेहनती लेकिन खुद्दार
चपरासी है। उसके सेवा भाव और स्मार्टनेस के किस्से मशहूर हैं। उसकी खुद्दारी यह है
कि “दूसरे चपरासियों की तरह हाथ का कौर हाथ में और मुंह का कौर मुंह में छोड़कर
लंच टाइम में मंटू बड़े बाबू की पुकार पर हाजिर नहीं हो जाता।” उसका प्रसिद्ध डायलॉग है- “ब्लडी मंटू मासिंजर- लंच टाइम,
प्राइबिट टाइम। सरकारी टाइम, सरकारी काम। मंटू
बोलेगा- यस सर, अटींसन मंटू हाजिर।” एक दिन साहब की मेज से उनका कलम गायब हो गया। इस बारे में मण्टू से
एकाधिक बार पूछताछ हो गई तो उसका अहम आहत हो गया- “दस साल की नौकरी में हमने
कभी एक पाई इधर-उधर नहीं किया। चटर्जी साहब, जेम्स
साहब का कीमती चीज दफ्तर में पड़ा रहता था लेकिन हमने कभी कोई चीज नहीं छुआ। ब्लडी
चार पैसे की कलम के लिए साला हमारा बदनामी होता है।” और,
मंटू ने अपना विरोध कैसे व्यक्त किया? उसने
अगली सुबह मैनेजर साहब का अपमान करने के लिए उन्हें सलाम नहीं किया, जिसे साहब ने नोटिस भी नहीं किया होगा। साहब को रोज की तरह सलाम न करके
मंटू की खुद्दारी और प्रतिरोधी चेतना कितनी खूसूरती से बयान हो गई! तंत्र में
व्याप्त भ्रष्टाचार संक्रमण की तरह रिस-रिस कर कैसे नीचे तक पहुंचता है, यह बताने के लिए ‘नौरंगी बीमार है’ कहानी का रोचक वितान ताना गया है। कारखाने में वेतन वितरण के दिन साहब की
गलती से दो सौ रु किसी को अधिक दे दिए गए। शक ही है कि वे नौरंगी को मिले और वह
छुपा गया। वैसे, नौरंगी की ईमानदारी असंदिग्ध है। उससे
तरह-तरह से पूछताछ होती है। सुराग लेने के लिए उसके साथियों को उसके घर भी भेजा
जाता है। नौरंगी के व्यवहार से भी उस पर शक गहराता जाता है। उसका बीमार होना और
छुट्टी पर जाना सन्देह को और गहरा कर देता है। नौरंगी अपनी ओर उठती निगाहों से
परेशान भी है। पूछताछ और साथियों के छेद-भेद लेने के क्रम में वह कारखाने के
अफसरों के भ्रष्टाचार के इतने किस्से सुनता है कि उसे दो सौ रु हड़प जाना बहुत
सामान्य लगने लगता है। यह अहसास होते ही वह एक सुबह काम पर हाजिर हो जाता है- “चुस्त-दुरस्त!
जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो। वह सीना ताने शॉप में घुसा और अपने ठीये पर पहुंच
गया।” कहानीकार अपनी तरफ से कुछ नहीं बताता कि वे दौ सौ रु नौरंगी को ही मिले
या नहीं लेकिन स्थितियां और शीर्षक यही संकेत करते हैं। शेखर जी अक्सर अपनी
कहानियों में निष्कर्ष पाठकों के विवेक पर भी छोड़ देते हैं।
शेखर जोशी जी की कथाओं के मजदूर क्रांतिकारी नहीं है, ‘जो
हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा’ जैसे
नारे वे नहीं लगाते, भाषण नहीं देते, फैक्ट्री
बंद नहीं कराते, तीखी बहस नहीं करते, सैद्धांतिक
वाम वैचारिकता उनमें नहीं दिखती। वे सीधे-सरल, आम
देहाती-शहरी, ईमानदार मेहनतकश हैं। उन्हें शोषण-उत्पीड़न का विस्तृत
जाल नहीं पता लेकिन वे जानते हैं कि उनके साथ अन्याय होता है और प्रबंधक लोग
भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं। वे यदा-कदा या किसी घटना के समय अपने साथ होने
वाले अन्याय और साहबों की ज्यादती की बातें करते हैं, कभी
नाराजगी भी दिखाते हैं लेकिन कोई संगठन नहीं बनाते। इसे आश्चर्य की तरह कहा या
पूछा जा सकता है कि जिस दौरान वे लिख रहे थे तब देश भर में उग्र ट्रेड यूनियनों और
हड़तालों का दौर था, तो भी उनकी कहानियों में ट्रेड यूनियन,
हड़ताल या गेट मीटिंगों का जिक्र भी नहीं मिलता। इसका एक ही उत्तर हो
सकता है कि वाम विचार, प्रगतिशील मूल्यों और वर्ग चेतना के
प्रति सजग कथाकार होने के बावजूद वे ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ जैसे आंदोलन या क्रांति जैसा कुछ भी आरोपित नहीं करते। उनके यहां वर्ग
चेतना और प्रतिरोध की लहर कथा प्रसंगों में अंतर्धारा की तरह चुपचाप बहती है। एक
बार उनसे यह सवाल पूछा भी गया था, जिसके जवाब में उन्होंने
कहा था- “मैं स्वीकार करता हूं कि उद्योग जगत में ट्रेड यूनियनों की बहुत
महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है और एक जमाने में मजदूर संगठनों में बहुत मिलिटेंसी थी।
अगर आपने मेरी आशीर्वचन, सीढ़ियां, बदबू, आदि कहानियां पढ़ी हों तो उन संघर्षों की थोड़ी
झलक आपको मिल जाएगी। ये जरूर है कि फार्मूले के तौर पर लिखी गई कहानियां मेरे यहां
नहीं हैं।” (शेखर जोशी से मुरलीधर सिंह की बातचीत,
अनहद, जनवरी 2014)
फॉर्मूले के तौर पर नहीं लिखना ही शेखर जोशी की ताकत है। कई
बार उनके मजदूर क्रांति विरोधी ठहरते हैं। निम्न और निम्न-मध्य वर्गीय इन श्रमिकों
में वे सारी मानवीय कमजोरियां हैं जो वास्तव में होती हैं लेकिन वे अपने काम को और
हुनर को प्यार करते हैं, उनमें आत्मसम्मान कूट-कूटकर भरा है। वे
अपनी डांगरी से बहुत प्यार करते हैं। डांगरी का जिक्र कई कहानियों में बड़े लाड़ एवं
गर्व के साथ आता है- “कपड़ों की बचत के लिए मोटे-झोटे वस्त्रों के ऊपर ड्यूटी
जाते हुए डांगरी डाल लेते जो उनके अनुसार सरकारी वर्दी थी। जैसे पुलिस की होती है,
मिलिट्री के सिपाही की होती है, जिससे उसकी
पहचान बनती है।” इसीलिए जब परमेश्वर के बेटे ने ‘बाबू के डांगरी वाले साथियों’ पर कुछ तंज कर दिया तो
बात उसके मन में गहरे गड़ जाती है (‘डांगरीवाले’)
शेखर जोशी ने अपने कामगार साथियों से प्यार किया, उन्हें
सम्मान दिया और सम्मान पाया। इसीलिए वे उनके जीवन में बहुत गहराई से झांक सके और
उसे कहानियों में उकेर सके। ‘उस्ताद’ कहानी
लिखना क्या इस आत्मीय रिश्ते के बिना सम्भव होता? 1988 में
जब उन्होंने समय से पहले अवकाश ग्रहण कर लिया तो भी अपना कारखाना और साथ के लोग
बहुत याद आते रहे। इसी स्मृति से जन्मी ‘आशीर्वचन’ कहानी जो बहुत खूबसूरती और सादगी से कारखाने के बदलते जीवन, श्रम और शिल्प की कद्र, आत्मसंतोष, कारखाने के बदलते माहौल और संघर्ष की परम्परा को रेखांकित करती है। वे
स्मृतियां आज भी उनमें गहरे बसी हैं और अक्सर उन दिनों का और उन लोगों का जिक्र
करते हैं। ‘आशीर्वचन’ की रचना
प्रक्रिया के बारे में उन्होंने लिखा है- “अवकाश ग्रहण करने
के बाद लगा कि मैं औद्योगिक परिवेश को कितना मिस कर रहा हूं। वहां जो आत्मीत
सम्बंध थे, वे रक्त सम्बंध से अधिक थे। वहां काम करने वालों
के सम्बंध पारिवारिक संबंधों जैसे हो गए थे।...मेरी पीढ़ी का हर आदमी जो कारखाने
में काम करता था, श्यामलाल है। ... कारीगर एक तरह का रचनाकार
होता है। नौकरी से विदा का दिन है। एक तरह से उसके सृजनात्मक जीवन में विराम है।
मशीनी माहौल में भी रचनात्मकता है। वहां से हटना सृजनात्मकता से हटना है।” अभी चंद
वर्ष पहले कारखाने की गहन स्मृतियों ने उनसे ‘विश्वकर्मा
पूजा’ शीर्षक से एक काव्य-रिपोर्ताज लिखवा लिया (2017 में ‘पहल’
में प्रकाशित) जिसमें सभी धर्मों-जातियों के श्रमिकों द्वारा विश्वकर्मा पूजा मनाए
जाने का रोचक-मार्मिक विवरण दर्ज हुआ है।
पचास-साठ साल पहले लिखी गई कहानियों के लिए शेखर जोशी आज भी
ससम्मान याद किए जाते हैं। उनकी अंतिम कहानी ‘छोटे शहर के बड़े लोग’
को लिखे हुए करीब तीस वर्ष हो गए। इतनी अवधि में अधिकतर
कथाकार भुला दिए जाते हैं लेकिन शेखर जी की कहानियां आज भी बहुत उद्धृत की जाती
हैं। श्रमिकों, कारखानों और औद्योगिक स्थितियों में तबसे
बहुत उलटफेर हो गया है। तो भी उनकी कहानियां प्रासंगिक बनी हुई हैं। यह बहुत बड़ी
उपलब्धि है। हिंदी में ऐसा बहुत कम लेखकों के साथ हुआ है।
शेखर जी ने 10 सितंबर 2022 को 91वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। एक लाइलाज बीमारी से आंखों की रोशनी क्षीण हो जाने के बावजूद वे अंगुलियों के सहारे से कलम चलाकर छोटे-छोटे किस्से और कविताएं लिख लेते हैं। आकारवर्धक शीशे की सहायता से थोड़ा-थोड़ा पढ़ते भी हैं। ‘आकाशवाणी’ सुनकर समाचारों से भी अद्यतन रहते हैं। इस कामना के साथ कि वे रचनारत रहते हुए अपनी जन्म शताब्दी मनाएं, उनकी लेखकीय जिजीविषा को सलाम।
-नवीन जोशी
(‘आजकल’ पत्रिका के
सितम्बर, 2022 अंक में प्रकाशित लेख का तनिक सम्पादित रूप)