Sunday, December 18, 2011

अदम की कविता से अदम को श्रद्धांजलि

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी थी कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है?

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को, शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को, केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

Wednesday, August 03, 2011

रचनावली के बहाने नंद कुमार उप्रेती की याद

यह टिप्पणी नैनीताल समाचार के लिये लिखी गई थी और वहीं से साभार प्रस्तुत है- नवीन जोशी



उन्नीस जून 2011 की उमस भरी शाम लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य अकादमी के प्रेक्षागृह में ज्यादा लोग नहीं थे, लेकिन वहाँ जो भी आए वे या तो स्व. नंद कुमार उप्रेती को बहुत करीब से जानते थे या उनके बारे में सुन-सुन कर प्रभावित थे। उस शाम उप्रेती जी की कुमाउनी रचनाओं के संग्रह का विमोचन हो रहा था और उस बहाने उस विलक्षण व्यक्ति के रचना संसार के साथ-साथ उनके जीवन संघर्ष और जीवट पर भी अंतरंग-सी चर्चा की गई।

वृद्धावस्था के साथ-साथ बीमारी से भी त्रस्त और कृशकाय वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ पूरे ढाई घण्टे वहाँ बैठे रहे तो सिर्फ इसलिए कि नंद कुमार उप्रेती से 40 वर्ष उनका याराना रहा था और पहली मुलाकात में नंद कुमार को बंगाली समझने वाले जिज्ञासु ने ही उन्हें कुमाउँनी में लिखने को ‘धकियाया’ था- वर्ना तो किशोरावस्था में पहाड़ से भागकर लखनऊ में ठौर-ठिकाना खोज रहे नंद कुमार पहाड़ियों से कोई मदद न पाकर (‘ल्याखै नै लगाय’-वे कहते थे) किसी कृपालु बंगाली के यहाँ शरण और शिक्षा पाते हुए युवा होने तक स्थापित बंगाली लेखक बन ही चुके थे। जरा-सा बोलने में थक जा रहे और सुन सकने में लगभग असमर्थ हो गए जिज्ञासु जी ने उस दिन अपने उस सखा को बेतरह याद किया और उनके बारे में तब तक बोलते ही चले गए जब तक कि मैंने चिंतित होकर उन्हें रोक नहीं दिया। फिर कार्यक्रम के अंत में घर जाते हुए जिज्ञासु जी ने मुझसे कहा- ‘नब्बू, अब मुझसे किसी कार्यक्रम में आने को मत कहना।’ मैं समझ सकता हूं कि यह बीमारी और कमजोरी की लाचारी से ज्यादा उनका भावुक हो जाना ही था।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करने खुशी-खुशी चले आए वयोवृद्ध यज्ञदेव पण्डित अपने से दो-तीन वर्ष छोटे रहे नंद कुमार उप्रेती के लेखन और व्यक्तित्व से भी ज्यादा इस बात से प्रभावित थे कि उन्हें तंत्र, ज्योतिष और कुण्डलिनी जागरण जैसे गूढ़ विषयों के परेशान करने वाले सवालों का संतोषजनक उत्तर उप्रेती जी से मिल जाया करता था। 1953 में आकाशवाणी लखनऊ से प्रादेशिक समाचार बुलेटिन शुरू करने वाले पण्डित जी ने उप्रेती जी के इसी ज्ञान पर प्रकाश डाला। पहाड़ से भटकते हुए लखनऊ आने के बीच किशोर नंद कुमार जोगियों-तांत्रिकों के सान्निध्य में भी कुछ समय रहे थे और बाद में लखनऊ से भी वे द्रोणागिरि पर्वत के इर्द-गिर्द रहने वाले कुछ साधुओं के पास अक्सर जाया ही करते थे। हृदयरोगी हो चुके यज्ञदेव पण्डित को भी एक बार उन्होंने ऐसे ही अपने ‘गुरु’ से मिलाने के लिए पहाड़ की कठिन चढ़ाई चढ़वा दी थी।

‘बाबा’ की किताब छप जाने की खबर से उत्साहित उप्रेती जी की बड़ी बेटी, पार्श्व गायिका सपना अवस्थी इस कार्यक्रम के लिए मुंबई से भागी-भागी तो आई लेकिन मंच से बोलने में बहुत भावुक हो गई और इतना ही कह पाई कि जो काम मुझे करना चाहिए था वह डॉ. प्रयाग जोशी ने करके बहुत बड़ा उपकार किया है। बाबू के जिन्दा रहते किताब छपती तो वे कितना खुश होते।

रचनावली के सम्पादक डॉ. प्रयाग जोशी ने विस्तार से बताया कि किस तरह उनकी रचनाएँ एकत्र हो पाईं। पर्चियों में कविता, वगैरह लिखने वाले उप्रेती जी की रचनाओं को जैसे-तैसे उनकी पत्नी श्रीमती बसंती उप्रेती ने ही बण्डल बनाकर यहाँ-वहाँ ठूँस रखा था, यानी ठेठ पहाड़ी अंदाज में संभाल रखा था, हालाँकि उन्हें पतिदेव के रचनाकर्म से खास वास्ता न था। प्रयाग जोशी ने उप्रेती जी की कुमाउनी कविताओं, कहानियों, लेखों-संस्मरणों और नाटकों का विश्लेषण भी पेश किया कि किस खूबी से उप्रेती जी समाज पर सोद्देश्य कटाक्ष करते हैं और कुमाउनी बोली के प्रति कितने सजग हैं। उप्रेती जी के शब्द प्रयोग साबित करते हैं कि कुमाउनी बोली की विविध शैलियों में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है। उप्रेती जी की इस कुमाउनी रचनावली में 53 कविताएँ, 9 लेख-कहानी-संस्मरण और 13 नाटक संग्रहीत हैं।

बोलने की अपनी बारी आने पर मैं जब अपने किशोरावस्था के दिनों में उप्रेती जी और जिज्ञासु जी में होने वाली अंतरंग बातचीत का लगभग मूक श्रोता होने की चर्चा करने लगा तो अनायास ही वह प्रसंग याद आ गया। दुःख-तकलीफों की चर्चा ज्यादा देर चल जाने पर एक रोज उप्रेजी जी ने बड़े तेवर के साथ कहा था- ‘यार, मैंने तो तमाम दुखों की पोटली बनाकर उन्हें भेल के नीचे च्याप दिया है और कहता हूँ अब दबाओ सालो मुझे!’ मैं जब यह किस्सा सुना रहा था तो सभागार की पहली पंक्ति में बैठीं श्रीमती उप्रेती आँचल से आँखें पोछने लगी थीं। जाहिर है, वे उन कष्टों की गवाह ही नहीं भागीदार भी रही थीं। छोटी बेटी पुष्पा को उप्रेती जी बहुत प्यार करते थे। वह भी वहाँ भीगी आँखें और पसीजा मन लिए मौन बैठी थी। यूँ, ‘बाबा’ की किताब का छपना और ससमारोह विमोचित होना उनके लिए गर्व और खुशी का भी मौका था और वह पूरे परिवार के चेहरे पर तब साफ दिखाई दिया जब विमोचित पहली प्रति सबके हस्ताक्षर के बाद श्रीमती उप्रेती को ससम्मान सौंपी गई।

उप्रेती जी की युवावस्था के दौर के अंतरंग मित्र और वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण को, जो पैरों से लाचार होने के कारण घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं, हम चाह कर भी कार्यक्रम में नहीं ला सके। लेकिन उप्रेती जी की कई यादें उन्होंने लिख कर ईमेल से हमसे साझा कीं। रामकृष्ण ने अपनी एक किताब में भी विस्तार से उप्रेती जी और संगीत उस्तादों से उनके याराने पर लिखा है। उप्रेती जी के फटे पाजामे से लेकर ‘कुमाऊँ डेयरी’ के पीछे की छोटी-सी कोठरी में कुछ मशहूर सितार वादकों, तबला वादकों और कथक नर्तकों के साथ उनकी दोस्ती के साक्षी रहे हैं रामकृष्ण।

आकाशवाणी, लखनऊ और नजीबाबाद में कई वरिष्ठ पदों पर रह चुके नित्यानंद मैठाणी, महेश पाण्डे, पियूष पाण्डे, गोविन्द राजू और धन सिंह मेहता ने भी उप्रेती जी को अपने-अपने ढंग से याद किया और कौन कह सकता है कि सभागार में श्रोता रूप में चुपचाप बैठे प्रद्युम्न सिंह (जिन्होंने 1968 में पहली बार लखनऊ में कुमाउनी लोक धुनों पर आधारित नृत्य नाटिका ‘मालूशाही’ प्रस्तुत की थी), हरीश सनवाल, हरीश पंत, ज्ञान पंत, आदि, जिन्होंने उप्रेती जी को कई भूमिकाओं में देख-सुना था, के मन में भी उनकी विविध यादें उमड़-घुमड़ नहीं रही होंगी।

सन् 2005 में उप्रेती जी के निधन के समय से ही यह संकल्प जैसा था कि जब कभी उनका संग्रह छपेगा तो उसका विमोचन हम अवश्य लखनऊ में उनके मित्रों-संबंधियों के बीच कराएँगे। डा. प्रयाग जोशी ने संग्रह का सम्पादन करके, प्रकाश बुक डिपो, बरेली वालों ने उसे छापकर और रंगकर्मी ललित सिंह पोखरिया की अध्यक्षता वाली साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘निसर्ग’ ने संग्रह के लोकार्पण के आयोजन का हमारा आग्रह सहर्ष मान कर इस संकल्प को पूरा करा दिया।

Tuesday, July 05, 2011

‘दावानल’ से उठी ‘आमा’ की वेदना

(दो जून, 2011 को नैनीताल समाचार में छपी यह रपट बस यूं ही पोस्‍ट कर दे रहा हूं- न. जो. )
उत्तरांचल संस्कृति युवा मंच द्वारा 1 मई को भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनउ के बी.एम. शाह प्रेक्षागृह में नवीन जोशी के बहुचर्चित उपन्यास ‘दावानल’ पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर ‘दावानल’ की पृष्ठभूमि से प्रेरित राहुल सिंह बोरा द्वारा लिखित एवं जीवन सिंह रावत द्वारा निर्देशित लघु फिल्म ‘आमा’ का प्रदर्शन भी किया गया। प्रकाशन के पाँच वर्ष बाद ‘दावानल’ पर परिचर्चा उन युवा सृजनकर्मियों द्वारा आयोजित की गई थी, जिनका पहाड़ से नाता बचपन में ही टूट चुका है। जो लखनऊ में पले-बढ़े और आज व्यक्तिगत और सामाजिक सवालों के जवाब तलाश रहे हैं। उत्तराखण्ड जन आन्दोलनों पर आधारित ‘दावानल’ एक ओर वन सम्पदा पर ग्रामवासियों के नैसर्गिक अधिकारों और आपसी संवेदनात्मक सम्बन्धों का साक्षात्कार कराता है तो दूसरी ओर अदूरदर्शी वन नीतियों के कारण बर्बाद होते पहाड़ी जनजीवन की तस्वीर खींचता है। इस प्रकार यह क्षेत्र विशेष का उदाहरण लेकर वन और सम्पूर्ण मानव समाज के साहचर्य का दर्शन स्थापित करता हुआ एक सार्वभौमिक रूप से समसामयिक बन जाता है।

साहित्यकार धनसिंह मेहता ‘अंजान’ ने कहा कि सत्ता और शक्ति के उपभोगार्थ हमारे राजनैतिक कर्णधार प्रकृतिजनित समस्याओं और समाज की विषम परिस्थितियों को अपने हित में और अधिक बिगाड़ देते हैं। ‘दावानल’ इस कुचक्र का खुलासा करता है। ‘दावानल’ पूरे चिपको आन्दोलन की चीरफाड़ करता हुआ उसके असली दिव्य स्वरूप को सामने रखता है। ज्ञान पंत ने ‘दावानल’ को पहाड़ का सम्पूर्ण यथार्थ बताया। अन्त में नवीन जोशी ने ‘दावानल’ के माध्यम से चिपको आन्दोलन को ब्यौरेवार प्रस्तुत किया और बताया कि किस तरह भोली-भाली ग्रामीण स्त्री गौरा देवी की वनों पर नैसर्गिक अधिकारों की लड़ाई को प्रचारधर्मियों एवं प्रचारलोलुपों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की लड़ाई बना दिया गया। ब्रिटिश शासन की दमनकारी वन नीतियाँ आज़ाद भारत में और क्रूर हो गईं। ग्रामीणों के वनों पर नैसर्गिक अधिकारों को छीन लिया गया। कार्यक्रम का संचालन ललित पोखरिया द्वारा किया गया।

इस मौके पर प्रदर्शित ‘आमा’ फिल्म के लेखन, निर्देशन, सिनेमेटोग्राफी, अभिनय और सम्पादन से जुड़े लगभग सभी कलाकार ‘निसर्ग’ संस्था का नाट्य प्रशिक्षण कार्यक्रम उत्तीर्ण करने के पश्चात् अनेक रंग संस्थाओं की नाट्य प्रस्तुतियों में अपने को स्थापित कर चुके हैं। मुख्य अभिनेता अनुराग मिश्र, निर्देशक जीवन सिंह रावत, तथा लेखक राहुल सिंह बोरा ने भी ‘दावानल’ और ‘आमा’ के सन्दर्भ में अपने-अपने विचार व्यक्त किये। ‘आमा’ एक दादी और उसके पोते के बीच रिश्ते की कहानी है। शहर में रहने वाला पुष्कर अपनी आमा से नहीं मिल पाता। एक रोज उसे दादी की चिट्ठियाँ मिलती हैं, लेकिन तब तक दादी की मौत हो चुकी होती है। इन पत्रों से पुष्कर में अपनी दादी और अपनी जड़ों के बारे में जानने की ललक भी पैदा होती है और वह अपनी जड़ों की तलाश में निकल जाता है। फिल्म की शूटिंग रानीखेत के पास स्थित गटोली गाँव, रानीखेत बाजार और लखनऊ में हुई है।
-ललित पोखरिया

Friday, June 10, 2011

मुड़ कर कल के मकबूल को देखना

सन 2003 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘एम एफ हुसेन की कहानी, अपनी जुबानी’ को रिलीज करने एम एफ हुसेन पटना भी आए थे। मैं उन दिनों पटना ही था और हुसेन के साथ एक कप कॉफी पीने का मौका 'हिन्दुस्तान' के स्थानीय संपादक की हैसियत से मुझे भी मिला। हुसेन प्रशंसकों से घिरे थे, अलग से कुछ बातें करने का अवसर नहीं था। फिर भी हुसेन से मिलना रोमांचक अनुभव था। उन्होंने मुझे भी अपनी आत्म कथा की एक प्रति दी और हमारे एक साथी के आग्रह पर हिन्दुस्तान के पाठकों के लिए प्यार लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दिए थे जिसे हमने अखबार के अगले अंक में छापा भी था।

उस रात घर पहुंच कर जब ‘एम एफ हुसेन की कहानी, अपनी जुबानी’ के पन्ने पलटना शुरू किया तो फिर उसे पूरी पढ़े बिना रख देना हो ही नहीं पाया। किताब की प्रस्तुति और कहन का अंदाज तो जुदा होना ही था, क्योंकि वह मकबूल फिदा हुसेन नाम के आला दर्जे के कलाकार की आत्म कथा है, लेकिन मेरे लिए वह किताब उस आला इनसान को थोड़ा समझ सकने का बायस बनी। उनका बचपन, गरीबी और संघर्ष, वगैरह तो उसमें हैं ही, हुसेन ने उसमें अपने कलाकार के अंकुर फूटने और कला संवेदना के स्रोतों को भी बड़े तटस्थ भाव से लेकिन खूब बारीकी से शब्द-चित्रित किया है। हुसेन की पेटिंग्स में क्यों बार-बार एक साइकिल या उसका एक पहिया या हैण्डिल आते रहते हैं, या क्यों एक चेहरा विहीन स्त्री बार-बार आती दिखाई देती है जो कभी मदर टेरेसा का आभास देती है और कभी किसी सामान्य स्त्री का। क्यों एक खाली घड़ा, एक पुराना पर्दा, जैसी बहुत आम चीजें उनके चित्रों में अपनी उपस्थिति बार-बार दर्ज कराती हैं?

दरअसल, यह साइकिल हुसेन की बचपन की साइकिल है और इसके साथ किशोर मकबूल की बड़ी प्यारी यादें जुड़ी हैं। देखिए हुसेन क्या लिखते हैं- 'साइकिल की सीट इनसानी मुखड़ा, हैण्डिल दो बाहें, पैडल दो पैर, लड़का (हुसेन खुद) पीछे कैरियर पर सवार साइक्लिंग किया करता, जैसे पूरी साइकिल उसकी गोद में हो या लड़का साइकिल की गोद में। यह नहीं कह सकते कौन किसे गोद में लिए प्यार कर रहा है।'... वह बेचेहरा स्त्री हुसेन की मॉं है, बेचेहरा इसलिए क्योंकि हुसेन को अपनी मॉं का चेहरा याद नहीं। कोई डेढ़ साल के थे कि मॉं चल बसी और कलाकार हुसेन अपनी मॉं का चेहरा ढूंढता फिरता है, मदर टेरेसा में भी और माधुरी दीक्षित में भी। जी हां, माधुरी दीक्षित में भी। हुसेन के माधुरी-प्यार को लेकर खूब चर्चाएं-अफवाहें उड़ीं, लेकिन हुसेन माधुरी को 'मां-अधूरी' मानते थे।

एक लड़की थी जो एक निश्चित समय पर घड़ा लेकर पानी भरने आती थी और कैसे एक जालिम ने उसे अपनी रखैल बनाकर हुसेन के मासूम सपनों का कत्ल किया..किसी एक कोठरी में एक पर्दा था जिसके हिलने के ढंग में अलग-अलग इशारे छुपे होते थे..। हुसेन के मन में बचपन और कैशौर्य की अनेक यादें इस कदर जमी रहीं कि लगभग हर अभिव्यक्ति में, पेण्टिंग हो या कविता, उनका स्पर्श सायास-अनायास आ ही जाता रहा और खुद हुसेन ने भी उन छवियों को कभी अलग नहीं होने दिया। वास्तव में वे स्मृतियां उनकी कूची की ताकत बनीं।

आज हुसेन को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी आत्म कथा के आखिरी अध्याय का यह अंश पेश करते हुए मैं बहुत भावुक भी हूं क्योंकि अपने वतन से बहुत प्यार करने वाले इस अति संवेदनशील इनसान को कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं के सिरफिरेपन के कारण आत्म-निर्वासन झेलना पड़ा और जलावतनी में ही उनकी मृत्यु हुई-- नवीन जोशी.

"यह पंढरपुर का लड़का इन्दौर जाकर मकबूल पेन्टर बना। बम्बई ने उसे एमएफ हुसेन आर्टिस्ट का खिताब दिया। दिल्ली ने पद्मभूषण से विभूषण की शाल पहनाई, मैसूर और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ने डी. लिट की डिग्री चिपका दी। जब बर्लिन अपनी फिल्म लेकर गया तो उसके पीछे गोल्डन (बियर) भालू लगा दिया।

मकबूल बचपन ही से अपने खयाली घोड़े दौड़ाने का शौकीन। उसे बम्बई का रेसकोर्स तो नहीं मिला मगर आलीशान दीवानखानों की दीवारें बहुत मिली। बस, एम एफ हुसेन ने अपने घोड़े उन दीवारों पर बेतहाशा दौड़ा दिये। यह रेस कोई चूहों कि रेस नहीं कि बिल्ली के डर से दुम दबाकर भाग जाये। यह दौड़ शह सवारों की दौड़ है। डर किस का? गिरने का? नहीं!

‘‘गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में।
वह तिफ्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले।’’ बेशक बम्बई की पहली दौड़ में एम एफ ऐसे मुंह के बल गिरे कि अठ्ठारा साल तक अपने घोड़े पर चढ़ नहीं पाये। हार नहीं मानी। 1947 में मौका मिलते ही मकबूल छलांग मारकर घोड़े पर चढ़ बैठा और ऐसी एक एड़ लगाई कि घोड़ा कहीं रुका ही नहीं।

‘‘ने हाथ में लगाम ने पा रकाब में ’’। ठीक है हाथ में लगाम नहीं लेकिन पैरों की एड़ से घोड़े का रुख बदला जा सकता है, भले रोका न जा सके। पिछले पचास सालों में दुनिया छान मारी। लोगों की छानबीन में लगे रहे। हजारों से मिले लेकिन कुछ अच्छे इनसानों का साथ नहीं छोड़ा चाहे वह दुनिया के किसी कोने में हों।

एम एफ से किसी ने पूछा वह कौन और कहाँ-कहाँ?
जवाब दिया-अगर मैं उन शख्सीयतों के नाम गिनाना शुरू करूं तो ऐसा लगेगा कि मैं नेम ड्रापिंग या अपनी बड़ाई जता रहा हूं। आपबीती लिखने में यही एक बड़ी कमी है। अपने मुंह अपनी बातें नहीं कर सकते जो थोड़ी बहोत अच्छी हों जैसे मोहब्बत की बात—-‘‘इक लफ्जे मोहब्बत का इतना सा फसाना है। सिमटे तो दिले आशिक फैले तो जमाना है’’

एम एफ का अभी जमाना खत्म नहीं हुआ और हो यह रहा है कि वह एक साथ तीन-तीन जमानों में घिरा हुआ है। पहला हुस्न और इश्क, दूसरा आर्ट और फिल्म, तीसरा गमे रोजगार। तीनों जमानों के अलग अलग कोड हैं। यह एम एफ हुसेन की कहानी नहीं एक वक्त की जुबानी है। यहां समय बोल रहा है और इस छोटे से वक्फे के दौरान कुछ लोग मिले कुछ बातें हुईं। कोई तो हो जो लोगों से मिले। कोई तो हो जो उनकी बातें सुने। मिलने का शौक और सुनने की आदत, वह मकबूल में कूट कूट कर भरी है।

मिलने का मुआमला इतना आसान नहीं। कैसे कैसे लोग हैं। खुद अपने घरवाले, दिल वाले। पास पड़ोसी, महल्ले वाले, जानने वाले। शहर और मुल्क वाले, दूर से दखने वाले। फिर दुनिया जहान वाले। मकबूल की आवारगी ने दुनिया जहान घुमाया। शौक और बढ़ता ही गया। आज अठ्ठास्सी बरस के करीब मिलने की हवस वही बाकी।

क्या मां की गोद बचपन से छिन जाने पर पालना भी न रहा जिसे कोई यशोदा माई झुलाये।
मां की गुनगुनाती नींद को बुलाती लोरी कहां।
मकबूल के कानों में तो सिर्फ एक ही आवाज गूंजती रही ‘‘जागते रहो—जागते रहो’’।
यह जागरण जारी है। यह मैराथन मीलों का सफर जारी। केनवास पर रंगों की भरमार। आर्ट गैलरी का गरम बाजार। इंटरनेशनल आक्शन हाउस का सुपर स्टार, बॉलीवुड की अप्सराओं का परस्तार लेकिन एलोरा-अजंता की देवियों के चरन छूने के बाद।

सारी उम्र काटी हुस्न के बाजार में। वह हुस्न का सौदा करने नहीं गया, हुस्न बांटने गया। इस हुस्न के बाजार में हुसेन की आवभगत से कई नासमझ लोग हसद की आग में जलने लगे। ताने तिशने, यहां तक तीर कमान खिंच गये।

यह जलन क्यूं? आज के एम एफ हुसेन को देखकर?
मुड़ के कल के मकबूल को देखा है? जो प्ले हाउस के हुसेनी खिचड़ी वाले ढाबे में पांच पैसे की खिचड़ी पर दाल या कढ़ी मुफ्त डलवाने खड़ा रहता था। दो आने की सिनेमा टिकट के लिये दो घंटे लाइन में। कई महीनों बीस-बीस फीट लंबे फिल्मी हीरोइनों के होर्डिंग सीढ़ियों पर चढ़ के पेन्ट करना। ग्रान्ट रोड की उसी गली की एक चाल में रहती बूढ़ी बेवा की बेटी फजीला से बियाह पर पांच दस रास्ता चलते बाराती। उसी रात कल्लु मियां विक्टोरिया चलाने का गराज खाली किया और एक पोस्टमैन दोस्त ने सुहाग रात मनाने मकबूल को अपने दो कमरों में से एक कमरा भेंट में दे दिया—–यह फिल्मी स्क्रिप्ट नहीं, यह असली सीन हैं। मकबूल की जिंदगी का एक हिस्सा, जिसे लोग नहीं जानते। वह तो आज के एमएफ हुसेन को जानते हैं जिस पर भड़की लाईम लाईट है।"

Tuesday, May 24, 2011

और जो 90% से नीचे रह गए वे नाकाम हुए?

-‘बच्चे का रिजल्ट कैसा रहा?’ हमने एक साथी से फोन पर पूछा।
-‘अरे, यार..। ’ उनकी आवाज में अफसोस था- ‘89%..। थोड़ा और मेहनत करता तो..। 89 परसेण्ट पर भी एक पिता का यह निराशा भरा स्वर हमें भीतर तक हिला गया। हमने उन्हें घर जाकर बधाई दी। बच्चे को एक किताब उपहार में दी। लेकिन उस परिवार के चेहरों से मलाल नहीं गया।

तब से हम लगातार सोच रहे हैं, जो बच्चे 90 परसेण्ट से नीचे रह जाते हैं, क्या वे कमतर हैं? वे योग्य और प्रतिभाशाली नहीं हैं? 100 में 88 या 85 या 80 नंबर भी क्या कम होते हैं? नहीं, 80 नंबर भी बहुत होते हैं लेकिन हमारे चारों तरफ हो क्या रहा है?

सीआईसीएसई की 10वीं व 12वीं और सीबीएसई की 12वीं का रिजल्ट आ चुका है। यूपी बोर्ड का जल्दी ही आने वाला है। रिजल्ट आते ही स्कूल, कोचिंग और पूरा मीडिया टॉपर बच्चों को ढूंढने लगते हैं। 98%..97%..96% वालों के उल्लासित चेहरे अखबारों और टीवी स्क्रीन पर छाए रहते हैं। स्कूलों से लेकर घरों तक कैमरे और पत्रकार दौड़ते हैं। माता-पिता, भाई-बहन और टीचर तक के इण्टरव्यू छप रहे हैं- ‘वह 10-12 घण्टे पढ़ता था..हमने टीवी ही हटा दिया था..’ वगैरह। अखबारों में टॉपर बच्चों के फोटो छापने की होड़ मचती है। रिजल्ट के पहले दिन तो 94% वालों को भी अखबार में जगह नहीं मिल पाती। 90% वालों को फोटो छपवाने के लिए कई दिन इंतजार करना पड़ता है..।

ऐसे में 89 परसेण्ट नंबर लाने वाले बच्चे के माता-पिता का चेहरा लटकेगा ही। स्कूलों में और माता-पिताओं में यह कैसी अंधी दौड़ मची है? बच्चों पर इसका क्या असर पड़ रहा है? स्कूल बच्चों को पढ़ा रहे हैं या उनका दिमाग नंबरों के सांचे में ढाल रहे हैं?

सीआईसीएसई बोर्ड अपने टॉपर घोषित नहीं करता लेकिन हम मीडिया वाले उसे भी खोज लाए। सीबीएसई ने परसेण्टेज का सिस्टम ही खत्म करके ग्रेडिंग व्यवस्था शुरू कर दी। फिर भी टॉपर बच्चों की ढुँढाई मचती है। यूपी बोर्ड ने मेरिट लिस्ट जारी करना बन्द कर दिया। मगर स्कूल हैं, कोचिंग संस्थान हैं और मीडिया है कि टॉपर बच्चों की अपनी-अपनी लिस्ट जारी करते रहते हैं। 90% ऐसी सीमा रेखा बना दी गई है कि उसके पार वाले ही प्रतिभाशाली है। उनकी सफलता का सौदा करने के लिए स्कूल और कोचिंग संस्थान दुकानें खोले खड़े हैं। इसलिए 90% से नीचे मायूसी विचरती है। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।

सच यह है कि 10वीं और 12वीं कक्षाओं के नंबर जीवन की सफलता-विफलता तय नहीं करते। 95-98 परसेण्ट नंबर लाने वाले ही आगे चलकर कॅरिअर के शिखर पर नहीं चढ़ते। सच तो इसके उलट है। जीवन में बड़ी सफलताएं आम तौर पर वे ही अर्जित करते हैं जो स्कूल में 90% से नीचे नंबर पाए होते हैं। अपने चारों तरफ शीर्ष पर विराजमान लोगों को देख लीजिए, उनकी आत्मकथाएं पढ़ लीजिए। नारायणमूर्ति से अजीम प्रेमजी तक, अमिताभ बच्चन से लेकर रतन टाटा तक, वारेन बूफे से लेकर मार्क जुकरबर्ग तक, डॉ. एपीजे कलाम से लेकर खुशवंत सिंह तक..। बहुत लंबी सूची मिलेगी जो औसत विद्यार्थी रहे या कम से कम अपने समय के स्कूल टॉपर नहीं रहे, लेकिन लगन और मेहनत से सफलता ने उनके कदम चूमे।

अपवाद जरूर होंगे, लेकिन आम तौर पर पाया गया है कि 95-98% नंबर पाने वालों में ‘रट्टू’ ज्यादा होते हैं। पढ़ाई के तनाव, कोर्स ही की किताबों और ट्यूशनों में उनका बचपन और कैशोर्य बंधुआ बनकर रह जाता है। वे हमेशा परसेण्टेज मेण्टेन करने के दवाब में रहते हैं। उनके व्यक्तित्व का सहज विकास नहीं हो पाता और अक्सर वे 10वीं-12वीं के बाद जबरन बनाए गए शिखर से लुढ़कते चले जाते हैं। आईआईटी-आईआईएम से लेकर विविध शिक्षा संस्थानों के छात्रों में आत्महत्या और अवसाद के बढ़ते जा रहे किस्से खुद गवाह हैं। इसके विपरीत 75 या 80-85 प्रतिशत नंबर लाने वाले बच्चों स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ जीवन के विविध अध्याय भी पढ़ रहे होते हैं। वे अपेक्षाकृ त व्वाहारिक होते हैं ।

अपने स्कूली दौर में हम 34 फीसदी नंबर में पास हो जाते थे। 60 फीसदी में फर्स्ट डिवीजन और 75 परसेण्ट में डिस्टिंक्शन मिलते थे जो बहुत कम बच्चों के हिस्से आते थे। 50-55 फीसदी के आस-पास नंबर पाने पर खूब खुशी होती थी। तब पढ़ाई इतना बड़ा धन्धा नहीं बनी थी। उसमें सुख, संतोष और व्यावहारिक ज्ञान थे।

हमारा आशय टॉपर बच्चों की उपलब्धियों को नकारना नहीं है। उन्हें बहुत-बहुत बधाई। लेकिन 80-85 परसेण्ट अंक लाकर भी प्रतिभाशाली नहीं माने जा रहे बच्चों और उनके अभिभावकों को हताशा और दवाब में आने की कतई जरूरत नहीं। उनके लिए सभी सुन्दर राहें खुली पड़ी हैं।

-नवीन जोशी

Tuesday, May 17, 2011

गरमी की छुट्टियां

आज रात अपनी यह कविता उसने मुझे फोन पर सुनाई जिसके लिए मैं कभी कभार, उसके बचपन में, कवितानुमा कुछ लिख दिया करता था. यूं कविताएं उसने पहले भी लिखी हैं, लेकिन मेरे ब्‍लॉग में उसकी यह पहली ही है. मजा यह कि मेरे लिए य‍ह ब्‍लाग भी उसी ने बनाया था,सन 2006 में ...नवीन जो‍शी

हर्ष जोशी

लो, एक और मई आ गई

उबलती दोपहर और उमस भरी रातें
वैसी ही हैं लेकिन
गरमी का मौसम अब बदल चुका है

अब खिडकी ही से देख सकता हूँ छुटि्टयों की कुनमुन
गली में क्रिकेट खेलते
आउट और नो बॉल का हुड्दंग मचाते बच्‍चों को
साइकिल पर रेस लगाती खिलखिलाती लड़कियों को
स्‍कूल कैम्पिंग से लौट कर आती हुई बस की खिडकी से मुँह चिढाता
बेसुरे गाने गाता हुआ बचपन
मुझे टैफिक सिगनल पर छेडता है
वापस आओगे ?

कैसे जा सकता है कोई पलट कर
अब जबकि हम ऑफिस के ए सी में कैद हैं
और उस पुराने खुर्राट कूलर का गुर्राना
और खस की खुसबू वाले पानी की छींक
बहुत पीछे छूट गए हैं
अब जब दोपहर का काटना कोई खास मायने नहीं रखता
क्‍योंकि न किसी फुटबॉल, कैरम बोर्ड
या पुरानी कॉमिक्‍स उधार पर देने वाले उस अधेड आदमी को हमारा इंतजार है
अच्‍छे आम तो दूर इस शहर में कच्‍चे आम भी मुश्किल से मिलते हैं

पसीना अब निकलता है तो खुशी नहीं होती
हर बूंद सवाल करती है मैं क्‍यों निकली
और हवा में मौजूद दहक से मैं पूछता हूँ
क्‍या तुम मुझे फिर वैसे नहीं छू सकती
हॉं, किसी दुर्लभ छुट्टी में
जो पहले सा नहीं रह गया
उस आलस के बगल में लेट कर सुनने की कोशिश करता हूँ तो
एक आवाज तरस खा लेती है मुझ पर
कबाडी वाला

वैसे, गर्मियां मुझे अब अच्‍छी नहीं लगतीं.

Monday, May 09, 2011

अण्णा हजारे को सलाम…लेकिन माजरा क्या है ?

भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा ह्ज़ारे और सिविल सोसायटी के अनशन के पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा-पढा जा चुका है.नैनीताल समाचार के संपादक और अपने मित्र राजीव लोचन साह का यह लेख पूरे मामले को समर्थन या विरोध की नज़र से देखने की बज़ाय व्यापक संदर्भों में विश्लेषित करता है और कुछ बहुत ज़रूरी सवाल भी उठाता है. यहां कटघरे में मीडिया भी है. इन सवालों पर ज़्यादा से ज़्यादा विचार-बहस हो, इसीलिये यहां साभार प्रस्तुत करता हूं- नवीन जोशी


भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का पहला चरण जीत लिया गया है…. जन लोकपाल विधेयक लाने के बारे में केन्द्र सरकार अण्णा हजारे की सारी माँगें मान चुकी है….. अब अगली लड़ाई जाने कब और कैसी होगी!

हम जनान्दोलनों से जले लोग हैं। अब जनता के उत्साह को भी फूँक-फूँक कर देखते हैं। 1994 में हमने बड़ी उम्मीद के बीच जनता के एक जबर्दस्त उभार के साथ दर्जनों लोगों के प्राणों का बलिदान दिया, मुजफ्फरनगर का अपमान झेला और एक राज्य प्राप्त किया। फिर जनता सो गई और उत्तराखंड देश के तमाम अन्य प्रदेशों जैसा ही भ्रष्ट, कुशासित और लूट-खसोट वाला राज्य बन गया।

5 अप्रेल को जब अण्णा हजारे ने अनशन शुरू किया, मैं देहरादून में था। मीडिया में अण्णा साहब के प्रस्तावित उपवास की चर्चा काफी पहले से ही शुरू हो गई थी। उस शाम देहरादून के गांधी पार्क में भी अण्णा के समर्थन में एक सभा का आयोजन था। मुझे चूँकि उसी वक्त वापस लौटना था, अतः उस सभा में शिरकत करना मेरे लिये सम्भव नहीं था। उस सभा की सूचना देने वाला जो बैनर दिखाई दिया, वह किसी ‘ओबेराय मोटर्स’ द्वारा प्रायोजित था। हमने देहरादून को सलाम किया, जहाँ सामान्यतः जनान्दोलनों से नाक भौं सिकोड़ने वाले और सामाजिक कर्म के नाम पर अपने आप को कथा-प्रवचनों तक सीमित रखने वाले व्यापारी भी भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ‘सिविल सोसाइटी’ के साथ कंधे से कंधा मिला कर डट गये थे।

अब तक टी.वी. चैनल अण्णा हजारे के बारे में लगातार खबरें देने लगे थे। जहाँ-जहाँ टी.वी. स्क्रीन पर नजर पड़ी, अण्णा साहब की ही झलक दिखाई दी। महज एक दिन पहले जो इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ‘वल्र्ड कप क्रिकेट’ में इंडिया की जीत का जयजयकार कर रहा था, वह एकाएक अण्णा पर कैसे फोकस हो गया, यह अपनी समझ में नहीं आया। हमने अण्णा हजारे के बारे में ‘नैनीताल समाचार’ के 15 से 30 सितम्बर 1998 के अंक के मुखपन्ने पर ‘अण्णा हजारे की जगह जेल में ही है’ शीर्षक से एक टिप्पणी प्रकाशित की थी। तब महाराष्ट्र में भी अण्णा के बारे में गिने-चुने लोग ही जानते थे। अण्णा द्वारा भ्रष्टाचार का आरोप लगाये जाने पर महाराष्ट्र के समाज कल्याण मंत्री बबनराव घोलप ने उन पर मानहानि का मुकदमा कर दिया था। मजिस्ट्रेट एच. के. होलंगे पाटिल ने अण्णा साहब को पाँच हजार रु. का मुचलका भरने या तीन माह के लिये जेल जाने का विकल्प दिया था। अण्णा साहब पैसा न होने की मजबूरी जताते हुए जेल चले गये थे। तब अत्यन्त क्षोभ में हमने वह टिप्पणी लिखी थी। तब से आज तक अण्णा साहब सात-आठ बार उपवास कर चुके हैं। अब तक तो मीडिया ने अण्णा को घास नहीं डाली। अब एकाएक क्या हो गया है ? क्या हाल के महीनों में एक के बाद एक सामने आये घोटालों से जनता में बढ़ते असंतोष और ट्यूनीशिया तथा मिश्र में हुए सफल जन विद्रोह के बाद मीडिया ने इस घटना में टी.आर.पी. बढ़ने की पूरी सम्भावनायें टटोलीं और फिर ‘हाईप’ बना देने का फैसला किया ?

नैनीताल वापस पहुँचने पर एक के बाद एक अनेक फोन आये। सारे देश में, सब जगह कुछ न कुछ हो रहा है। सिर्फ नैनीताल में ही हम पिछड़ रहे हैं। क्या आप इस मामले में कुछ करने जा रहे हैं….. कोई कार्यक्रम इत्यादि ? …… मगर मैं स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। इस ख्याल से कि सोचने के लिये कुछ वक्त मिल जायेगा और हो सकता है तब तक मामला सुलझ ही जाये, हमने रविवार की तिथि घोषित कर दी। हालाँकि इस बीच कुछ उत्साही युवक तल्लीताल डाँठ पर अण्णा के समर्थन में धरने पर बैठे भी। सचमुच शुक्रवार की शाम तक सुलह हो ही गई।

…..अब जबकि अण्णा हजारे जंतर मंतर से वापस अपने गाँव रालेगन सिद्धि पहुँच गये हैं, क्या यह चार-पाँच दिन का घटनाक्रम एक मीडिया प्रायोजित नाटक, जिसमें शहरी मध्य वर्ग की भावनाओं को अत्यन्त चतुरता से भुनाया गया, नहीं लग रहा है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक उत्सव, एक पिकनिक की तरह हो सकती है ? इस तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ में कितने लोगों को देश में चल रहे जमीनी संघर्ष, सरकार के दमन और जनता की अदम्य जिजीविषा के बारे में जानकारी है ?

यह स्थापित सत्य है कि मीडिया आज बहुत बड़ी ताकत है। जब सारे चैनल और अधिकांश अखबार एक सुर में कोई बात कहने लगते हैं तो सामान्य व्यक्ति में यह विवेक ही नहीं बचा रह पाता कि वह खुले दिमाग से सोच सके। सच तो यह है कि सामान्य व्यक्ति के पास जानकारियाँ ही नहीं होतीं। सूचना क्रांति के दौर में सूचनाओं का जबर्दस्त अकाल है। टी.वी. चैनलों पर निर्भर या दो-चार अखबार पढ़ कर देश-दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने वाला व्यक्ति कैसे जाने कि मणिपुर में ईरोम शर्मिला चानू नामक एक औरत पिछले दस साल से लगातार ‘विशेष पुलिस अधिकार कानून’ के खिलाफ गांधीवादी तरीके से तरह से उपवास कर रही है? उसे क्या मालूम कि देश में माओवाद इसलिये पनप रहा है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद छोटी-बड़ी, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिये सरकार किसानों की जमीनें छीन रही है और अपनी जमीनें बचाने के लिये लड़ रहे लोगों के बीच माओवादियों को जड़ें जमाने का मौका मिलता है। फिर अपने ही नागरिकों का जनसंहार करने के लिये सरकार ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ शुरू कर सेना या अर्द्धसैनिक बल भेजती है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों में कॉरपोरेट सेक्टर द्वारा सरकारों के साथ मिल कर प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट-खसोट बहुत ज्यादा है। हमारे उत्तराखंड में 500 से अधिक जल विद्युत परियोजनायें बन रही हैं, जिनमें से अधिकांश के विरोध में स्थानीय ग्रामीण लड़ रहे हैं। इनके बारे में मीडिया नहीं बताता या बताता भी है तो बेहद चलताऊ ढंग से। मंदाकिनी नदी पर बन रही परियोजना का विरोध करने वाले दो आन्दोलनकारी, सुशीला भंडारी और जगमोहन झिंक्वाण, अण्णा हजारे के उपवास शुरू करने से महज दो दिन पहले 60 दिन की कैद काट कर जेल से रिहा हुए थे। लेकिन यहाँ कुमाऊँ में अखबार पढ़ कर जानकारी हासिल करने वाले किसी पाठक को कानोंकान खबर भी नहीं हुई। खबर होती तो क्या पता कुछ उत्साही नौजवान उनके समर्थन में भी मोमबत्तियाँ जला कर हल्द्वानी की सड़कों पर निकल आते! जापान के फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए विस्फोट के आलोक में देखें तो महाराष्ट्र, जहाँ के अण्णा हजारे रहने वाले हैं, के रत्नागिरि जिले के जैतापुर में बन रहे दुनिया के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दबाने के लिये सरकार ने अघोषित आपातकाल लगा दिया है। वहाँ किसानों ने अपनी जमीन के मुआवजे के चैक लेने से इन्कार कर दिया तो उन्हें जेलों में डालना शुरू कर दिया गया। प्रेस काउंसिल के निवर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी.वी. सावंत वहाँ जन सुनवाई के लिये जाने लगे तो जिला प्रशासन ने उन्हें तत्काल जिले से बाहर खदेड़ दिया।

क्या आपने अपने अखबार में यह खबर पढ़ी ?

ऐसी घटनाओं की मीडिया लाईव तो क्या बासी कवरेज भी नहीं करता। फिर सामान्य व्यक्ति, टी.वी. चैनल का दर्शक या अखबार का पाठक, क्या जाने कि किस तरह बारूद के ढेर पर बैठा है यह देश, इसका लोकतंत्र ? वह तो अण्णा हजारे के उपवास को ही सामाजिक क्रांति मान लेगा!

दरअसल मीडिया कमाता है विज्ञापनों से और विज्ञापन मिलते हैं कॉरपोरेट घरानों से। बहुत से अखबार तो क़ॉरपोरेट घरानों द्वारा ही निकाले जाते हैं। फिर वह कॉरपोरेट षड़यंत्रों का भंडाफोड़ कर अपनी जड़ों में मठ्ठा क्यों डाले ? खुद इस मीडिया का अपना भ्रष्टाचार क्या कम है ? दो साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ‘पेड न्यूज’ के मामले में मीडिया की इतनी थू-थू हुई कि प्रेस काउंसिल को उसकी जाँच करवानी पड़ी। साल भर से उस प्रकरण की जाँच रिपोर्ट बन कर तैयार है, लेकिन सार्वजनिक नहीं हो रही है। प्रेस काउंसिल में शामिल कॉरपोरेट अखबारों के प्रतिनिधि उसे सार्वजनिक होने ही नहीं दे रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में हुआ भ्रष्टाचार किसी अच्छी नीयत से उजागर नहीं हुआ। इसलिये उजागर हुआ कि सुरेश कलमाडी ने ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ की पेशकश को ठुकरा कर ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’ को मीडिया पार्टनर बना दिया। बौखलाये टाईम्स ने कलमाडी की बखिया उखेड़ कर रख दी। उत्तराखंड में पिछली बरसात में तबाही हुई और केन्द्र से एक भारी भरकम राहत राशि प्रदेश सरकार को मिली तो यहाँ के बड़े दैनिकों में पैकेज झपटने की होड़ लग गई। कफनफरोश! नीरा राडिया प्रकरण में इस मीडिया और इसके कॉरपोरेट घरानों से अन्तर्सम्बन्ध बहुत साफ ढंग से सामने आये हैं। यही मीडिया ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ में लोगों की अगुआई करता दिखाई दे रहा है। उसी की उछलकूद से अण्णा हजारे फरिश्ते जैसे दिखाई दे रहे हैं। अन्यथा इस देश में ऐसे लोग क्या कम हैं, जो सत्तर-अस्सी साल की उम्र में भी नौजवानों जैसे उत्साह से कॉरपोरेट गुलामी के खिलाफ लड़ रहे हैं….. रात-दिन देश के कोने-कोने में लोगों से बातचीत कर रहे हैं। उनके लिये इन अखबारों में सिंगल कॉलम की खबर छापने की जगह नहीं है। अण्णा साहब की नीयत चाहे जितनी साफ हो, संकल्प चाहे जितना बड़ा हो राजनैतिक समझ की इतनी कमी है कि नरेन्द्र मोदी के विकास के मॉडल को आदर्श बता दे रहे हैं।

भ्रष्टाचार भारतीय जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। जैसे बुग्यालों की स्वच्छ हवा में रहने के बाद किसी महानगर के प्रदूषित वातावरण में रहने पर महसूस होता है, वैसा ही किसी ईमानदार देश के नागरिक को भारत में आने पर लगता होगा। किसी चीज के लिये लाईन तोड़ने से लेकर छोटी-मोटी रिश्वत देना हमारे लिये सामान्य बात है। कई बार तो वह जरूरी भी हो जाता है। नौकरी पाने के लिये तो कितनी-कितनी घूस देनी पड़ती हैं। अब तो हम ईमानदारी पचा भी नहीं पाते। कभी कानून को सख्ती से लागू करवाने वाला कोई ईमानदार अधिकारी आ जाये तो उसका बोरिया-बिस्तर बँधवाने के लिये जरा भी देर नहीं करते। सब लोग एकजुट हो जाते हैं। हमारे लोकतंत्र की यह खामी दिनोंदिन बढ़ती रही है। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद तो इसने सारी सीमायें तोड़ दी हैं। अब तो कहीं भी देखो इतने ‘हजार करोड़’ से कम की बात ही नहीं होती। कॉरपोरेटों ने सरकारें, सांसद, विधायक सब खरीद लिये हैं। खुल कर भ्रष्टाचार फैलाने वाले ये कॉरपोरेट घराने तो लोकपाल बिल के दायरे में आ ही नहीं सकते। हम बिकने के लिये तैयार मंत्रियों और नौकरशाहों पर नकेल डालने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वालों का क्या किया जायेगा ?

फिर भी लोकपाल बिल बनना चाहिये। उसका बनना बेहद जरूरी है। लेकिन कानून बनने मात्र से क्या होता है ? हजारों तो हमारे यहाँ कानून हैं, जो या तो लागू नहीं हो रहे हैं या उनका दुरुपयोग हो रहा है। कानून को सख्ती और ईमानदारी से लागू करने के लिये जिस इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, उसका हमारे लोकतंत्र में पूरी तरह अभाव है। अभी डेढ़ महीने पहले पाउच में गुटखा बिकना प्रतिबंधित किया गया था, क्या वह सचमुच लागू हो गया? क्या सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान रुक गया है? घरेलू हिंसा बन्द हो गई? हरिजन एक्ट या दहेज कानून क्या अपराधियों को दंडित करता है या फिर निर्दोषों को परेशान करता है? 2007 में आये वनाधिकार कानून से लाखों वनवासियों का जीवन बदल सकता था, लेकिन सरकारों ने उसे लागू करने में रुचि ही नहीं दिखाई। उससे पहले 73वें तथा 74वें संशोधन कानूनों में विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू कर क्रांतिकारी परिवर्तन की तमाम संभावनायें थीं। उत्तराखंड में राज्य बनने के दस वर्ष बीत जाने पर भी पंचायती राज कानून अस्तित्व में ही नहीं आया है। वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार कानून लागू होने वक्त ‘सिविल सोसाइटी’ में अत्यन्त उत्साह था। अण्णा हजारे उस कानून को लागू करवाने में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं। लेकिन छः साल बाद उस कानून को लागू करने में अब ढीलापन आने लगा है। इस कानून को लेकर काम करने वाले सक्रिय कार्यकर्ताओं की हत्यायें शुरू हो गई हैं सो अलग। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग आदि तमाम आयोग अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। तब इस बात की क्या गारण्टी है कि लोकपाल अपना काम यहाँ मुस्तैदी से करता रहेगा? लोकपाल भी तो एक प्रक्रिया के अन्तर्गत नियुक्त किया जायेगा। वह सत्ता से अपनी नजदीकियों के आधार पर ही नियुक्त होगा। जिस देश में एक ईमानदार न्यायाधीश दुर्लभ हो गया हो, वहाँ एक सुयोग्य लोकपाल ढूँढना असम्भव नहीं होगा क्या? अपराधियों की गिरफ्तारी के लिये पुलिस को मजबूर करने के लिये जनता को जिस तरह चक्काजाम कर दबाव बनाना पड़ता है, क्या उसी तरह हर बार जनता को सड़कों पर उतरना पड़ेगा कि लोकपाल फलाँ भ्रष्ट मंत्री या नौकरशाह के खिलाफ कार्रवाही करे।

इन तमाम जटिलताओं के मद्देनजर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक पिकनिक जैसी कैसे हो सकती है? 1998 में जब बबनराव घोलप की मानहानि के सिलसिले में अण्णा साहब हजारे जेल जा रहे थे, तब घोलप के समर्थक अदालत के बाहर नारे लगा रहे थे, ‘घोलप तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ ऐसे चेहरे उस रोज जंतर-मंतर में भी दहाड़ रहे थे, ‘अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ जब वह छोटी सी बच्ची अण्णा साहब को जूस पिला रही थी। यहाँ नैनीताल-अल्मोड़ा में तो वे थे ही। जनता के हित में अराजक ढंग से लड़ी जा रही किसी लड़ाई में ऐसे लोगों को अलग-थलग करना असम्भव सा होता है। कैमरों के आगे चेहरा दिखाने में वे सबसे आगे होते हैं।

मीडिया तो अपने पैसे बटोरने के लिये अब आई.पी.एल. की राह पर चल पड़ा है, लेकिन जो लोग अण्णा हजारे के अभियान के बहाने ईमानदारी से इस देश के हालात के बारे में सोचने लगे हैं, उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी और अपने लड़ने की ताकत भी। अपने आसपास चल रहे जमीनी संघर्षों की पहचान करनी होगी और उनसे जुड़ना पड़ेगा। कोई भी ताकत जनता की ताकत से बड़ी नहीं होती। अण्णा हजारे प्रकरण में भी हमने यही देखा।
-राजीव लोचन साह,संपादक, नैनीताल समाचार.

Wednesday, May 04, 2011

गोल्ड कोस्ट- धूप नहाए पुरसुकून बीच






यह सचमुच आस्ट्रेलिया का सुनहरा तट है, एक और बहुत सुन्दर शहर। कोई 70 किमी. का विशाल समुद्री तट और साल में लगभग 300 दिन धूप से नहाए पुरसुकून बीच। दूर-दूर तक प्रशान्त महासागर का विस्तार। आसमान छूती अट्टालिकाएँ, जिनमें 77वीं मंजिल तक रिहायश वाले क्यू-1 टावर की 78वीं मंजिल से जो विराट और दिव्य दर्शन होते हैं तो पता चलता है कि इस शहर का नाम ‘गोल्ड कोस्ट’ क्यों पड़ा। 78वीं मंजिल की जिस खिड़की पर हम खड़े हैं उस पर लिखा है- ‘नजर की सीध में 16,083 किमी. दूर न्यूयार्क है’। वाह, क्या बात है!

एक तरफ गगनचुम्बी इमारतें और दूसरी तरफ अथाह जलराशि। धूप में नहाया समुद्र तट, सुनहरी रेत और ‘बीच-गार्डस’की सतर्क निगाहों की सुरक्षा में लहरों से खेलते सैलानी। हर साल एक करोड़ से ज्यादा पर्यटक गोल्ड कोस्ट आते हैं और उनमें भारतीयों की भी अच्छी खासी संख्या है। गोल्ड कोस्ट की सड़कों पर घूमते हुए हमें ‘शेर-ए-पंजब’, ‘इण्डियन फैमिली रेस्त्रां’, ‘ऊँ-इण्डिया हाउस’, ‘तन्दूरी हट’, ‘तन्दूरी प्लेस’ जैसे नाम-पट दिखाई देते हैं। ‘राज पैलेस’ में व्यास (पंजाब) से आई सिमी हमें खाना परोसती हैं तो उसकी लहराती लम्बी चोटी गोल्ड-कोस्ट में भारतीय ध्वज जैसी लहराती है। होटल के बाहर दीवार पर पोस्टर लगे हैं- ‘फॉर सेल’, निजी क्रूज की बिक्री की सूचना। सबसे सस्ता क्रूज चार मिलियन आस्ट्रेलियन डालर (करीब 20 करोड़ रु.) का है। हमारे स्थानीय साथी ग्रेग हमारे चौंकने पर हँसते हैं- ‘यहाँ आस्ट्रेलिया के सबसे अमीर लोग बसते हैं। शायद यह इसलिए भी गोल्ड-कोस्ट है!’

गोल्ड कोस्ट आने से पहले हम एक दिन ब्रिसबेन रुके थे, क्वींस लैण्ड प्रान्त की राजधानी, एक और खूबसूरत शहर, जहाँ इसी नाम की नदी शहर के बीच में बहती है जिस पर सिडनी हार्बर ब्रिज जैसी ऐतिहासिकता वाला स्टोन ब्रिज तो है ही, नदी के भीतर से गुजरने वाली टनल-रोड भी है। ब्रिसबन के इर्द-गिर्द बहुत से पर्यटक स्थल हैं लेकिन हमें करीब एक सौ किमी. दूर गोल्ड कोस्ट जाते हुए सिर्फ दो जगह रुकना था।

पहले आस्ट्रेलिया जू जिसके स्वस्थ्य पशु-पक्षियों, चुस्त कर्मचारियों और सनसनीखेज प्रदर्शनों को देखकर बरबस ही अपने अव्यवस्थित चिड़ियाघरों के मरियल जनवरों और बेहाल कर्मचारियों की याद हो आती है। लेकिन आस्ट्रेलिया जू का जिक्र होते ही सबसे पहले स्टीव इरविन याद आते हैं। सन् 2008 में ग्रेट बैरियर रीफ में शूटिंग के दौरान स्टिंग-रे के जहरीले दंश से स्टीव इरविंग की दर्दनाक मृत्यु नहीं हुई होती तो मार्च 2011 में आस्ट्रेलिया जू में हम उनसे मिलकर निश्चय ही गदगद होते। डिस्कवरी चैनल के जरिए अपने दुस्साहसिक कारनामों से विश्वविख्यात हुए स्टीव की मौत भारत में भी सुर्खियां बनी थी। आस्ट्रेलिया जू में हमें मगरमच्छों के साथ खेलते-हँसते स्टीव के पोस्टर ही पोस्टर दिखाई देते हैं। स्टीव की देखरेख में ही आस्ट्रेलिया जू को विश्वख्याति मिली, जहाँ आज भी उनके सहयोगी मगरमच्छों के साथ सनसनीखेज प्रदर्शन करते-कराते हैं।

गोल्ड कोस्ट के रास्ते का दूसरा पड़ाव था -ड्रीम लैण्ड, स्वप्न लोक जैसा ही। रहस्य-रोमांच और सनसनी से भरे मनोरंजन के एक से एक साधन। हम तो सिर्फ एक ‘टॉवर ऑफ टेरर’ का आनन्द लेकर ही आतंकित हो बैठे। जानते हैं क्या? खुली कारनुमा एक डिब्बा हमें ‘एल’ आकार की पटरी पर 160 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से 115 मीटर (38 मंजिल जितना ऊँचे) ऊपर ले गया, सिर्फ सात सेकण्ड में और उतनी ही तेजी से नीचे ले आया! हमारे मुँह से तो चीख भी न निकली थी। अब तक सोचकर सिहरन हो रही है, लेकिन वहाँ ऐसी कई सनसनियां थीं और उनका लुत्फ उठाते युवाओं की लम्बी कतारें लगीं हुई थीं।

बहरहाल, गोल्ड कोस्ट से हमारी वतन वापसी होती है।

Saturday, April 16, 2011

बीहड़ वन में पूरी नदी का गहरी खाई में गिरना






हाल की भारी वर्षा से उफनाई बैरन नदी भयानक शोर के साथ सैकड़ों फुट गहरी खाई में गिर रही है और वाष्प-कणों से भरा घना सफेद कोहरा खाई से ऊपर उठकर हरे-भरे जंगल में छा रहा है। पूरी की पूरी नदी को एक गहरी खाई में गिरते देखना रोमांचक दृश्य है।

हम कैर्न्स (आस्ट्रेलिया) के विश्व-सम्पदा घोषित ट्रॉपिकल रेन फॉरेस्ट अर्थात उष्ण कटिबंधीय वर्षा-वन के ऊपर से गुजरती ‘स्काई रेल’ के बैरन-फाल्स स्टेशन पर उतरे हैं। ‘स्काई रेल’ क्यों, रोप-वे यानी रज्जु मार्ग कहना चाहिए। 7.5 किमी लम्बी इस स्काई रेल में एक सौ से ज्यादा ‘गोण्डोला’ (केबिन) सुबह से शाम तक निरन्तर दौड़ते रहते हैं। बीच-बीच में स्टेशन बने हैँ जहाँ आप ‘गोण्डोला’ से उतर कर जंगल में इधर-उधर घूम सकते हैं और फिर किसी गोण्डोला में बैठकर आगे की यात्रा जारी रख सकते हैं।

यह स्काई रेल अत्यन्त समृद्ध वर्षा-वन के ऊपर से गुजरती है और आप गोण्डोला की शीशे की खिड़कियों से दूर-दूर तक फैली हरियाली, सुदूर कोरल-समृद्ध सागर और यहाँ-वहाँ बसी बस्तियाँ देख सकते हैं। यदि आपको हर चीज की अपने मुल्क से तुलना करने की बीमारी हो तो अफसोस कर सकते हैं कि हमने अपने ऐसे ही समृद्ध वनों को कितनी निमर्मता से नष्ट कर डाला है। बहरहाल, स्काई रेल इस वर्षा-वन के ऊपर आपको कोई डेढ़ घण्टे तक घुमाती और प्रकृति की विविध छवियाँ दिखाती है। वापसी भी स्काई रेल से करनी हो तो ढाई घण्टे लगेंगे, लेकिन हमें वापसी सड़क से करनी थी जो घने जंगल के बीच से गुजरती हुई अलग ही अनुभव से भर देती है।

कुराण्डा में रेन फॉरेस्टेशन नेचर पार्क में हमें रुकना था जहाँ कोआला को गोद में लेकर प्यार करने और आस्ट्रेलियाई आदिवासियों (एब-ओरिजिनल्स) के नृत्य-गीत देखने के बाद ‘आर्मी-डक’ से जंगल के बीहड़ कोनों की रोमांचक यात्रा करनी थी। आस्ट्रेलिया में आज यूरोपीय मूल के लोगों का कब्जा है और सारी समृद्धि व सत्ता उन्हीं के पास है जबकि मूल-आस्ट्रेलियाई वंचित समुदाय हैं। उनके संगठन बने हैं और आन्दोलन होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया सरकार ‘एब-ओरिजिनल्स’ को बराबर के अधिकार और सत्ता में भागीदारी देने की बात भी करती है लेकिन उनके साथ भेदभाव साफ दिखाई देता है। बहरहाल, पर्यटकों के वास्ते ये मूल-आस्ट्रेलियाई प्रदर्शन की वस्तु भी हैं। इस नेचर पार्क में उनके नृत्य-गीत, भाले और बूमरैंग के प्रदर्शन पर्यटकों के मनोरंजन के लिए होते हैं।

बहरहाल, वर्षा-वन का असली आनन्द ‘आर्मी-डक’ से जंगल के बीहड़ की यात्रा में आता है। ‘आर्मी-डक’ ऐसा वाहन है जो ऊबड़-खाबड़ रास्ते, दलदल और पानी में भी मजे से चलता-तैरता है और हम देखते हैं ऐसा जंगल जिसमें मनुष्य का कोई दखल नहीं है। कोई फर्न सौ-डेढ़ सौ साल का पेड़ बन चुका है तो बड़े से पेड़ की शाखाओं के बीच से कोई बास्केट फर्न रोशनी और धूप पाने की लड़ाई जीतने की जद्दोजहद में व्यस्त है। हर तरफ वनस्पतियों में होड़ मची है। उनका भी अपना जीवन संग्राम होता है। विशाल भू-भाग और बहुत कम आबादी वाले आस्ट्रेलिया में प्राकृतिक संसाधनों पर कोई दबाव नहीं है। इसलिए ऐसे वन सुरक्षित हैं। हमारे यहाँ तो सुरक्षित वनों में भी माफिया की जबर्दस्त घुसपैठ है। फिर वही तुलना की बीमारी, मगर क्या कीजै!

समृद्ध वर्षा-वन की सुखद यात्रा का सुकून मन में भरे हम होटल लौट आए हैं। हाल के समुद्री चक्रवात की तबाही से उबरता कैर्न्स बहुत शांत है। यहाँ मानसून पूरी तरह आ चुका है। हल्की वर्षा में समुद्र में लंगर डाले क्रूज और जेट बोट का विशाल बेड़ा होटल की खिड़की से दिखाई दे रहा है। इन्ही से पर्यटक विश्वविख्यात ग्रेट बैरियर रीफ की रोमांचक यात्रा पर जाते हैं।

Thursday, April 07, 2011

रत्याली [रतजगा]

हिंदी के अत्यत संवेदनशील कवि हरीश चंद्र पाडे की "उत्तरा" में छपी यह कविता पढ कर हम पति-पत्नी कल से बहुत द्रवित और उद्वेलित हैं और बार बार इसे पढ रहे है. आप भी ज़रूर पढें--



इस घर से वधू को लेने गई है बारात

इस घर में रतजगा है आज



इस समय जब वहां बाराती थिरक-थिरक कर साक्ष्य बन रहे होंगे

जीवन के एक मोड का

यहां औरतें गा कर नाच कर स्वांग रच -रच कर

लंबी रात के अंतराल को पाट रही हैं



वहां जब पढे जा रहे हैं झंझावातों में भी साथ रहने के मंत्र

और सात जन्मों के साथ की आकांक्षा की जा रही है

यहां जीवन भर साथ चलते-चलते थकी औरतें

मर्दों का स्वांग रच रही हैं



इनके पास विषय ही विषय हैं

स्वांग ही स्वांग



प्रताडनाएं, जिन्होंने उनका जीना हराम कर रखा था

अभी प्रहसनों में ढल रही हैं

डंडे कोमल-कोमल प्रतीकों में बदल रहे हैं

वर्जनाएं अधिकारों में ढल रही हैं



ये मर्द बन कर प्रेम कर रही हैं बुरी तरह

अपनी औरत को बुरी तरह फटकार रही हैं

जूतों की नोकों को चमका रही हैं बार-बार

मूछों में ताव दे रही हैं



जो आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिये सुरक्षित है

उस लोक में विचर रही हैं

पिंजरे से निकल कर कितना ऊंचा उडा जा सकता है

परों को फैला कर देख रही हैं



वह टुकडा

जो द्वीप है उनके लिये

उसे महाद्वीप बना रही हैं



अपने वास्तविक संसार में लौटने के पहले

कल सुबह एक और औरत के आने के पहले

Wednesday, April 06, 2011

सिडनी ओपेरा हाउस : हार्बर पर उगा अद्वितीय फूल





आस्ट्रेलिया के चार शहरों की यात्रा में हमारा पहला पड़ाव सिडनी था और वहां पहला ही साक्षात्कार सिडनी ओपेरा हाउस की सम्मोहित कर देने वाली डिजाइन से होता है। क्या ही खूबसूरत इमारत है। जितनी बार जितने कोणों से देखिए इसका नया ही आकर्षक रूप सामने आता है और यह तो हमें दूसरी शाम पता चला कि सिडनी ओपेरा हाउस का असली, भव्य दर्शन तो समुद्र में थोड़ा दूर जाकर होता है। जब हमने क्रूज की ढा़ई घण्टे की यात्रा में समुद्र में दूर से ओपेरा हाउस को देखा तो अहसास हुआ कि ढ़लती शाम की सुनहरी धूप और रात की जगमग रोशनी में ओपेरा हाउस का सौन्दर्य कई गुणा बढ़ गया है। हार्बर पर उगे किसी अद्वितीय फूल की तरह। समुद्र की लहरें निरन्तर जिसके चरण पखारती हों और सुबह से रात तक की विविध रोशनियाँ जिसका पल-पल नया ‍‌श्रंगार करती हों, ऐसे ओपेरा हाउस की छवि बस मन में टंकी रह जाती है।

और जब ओपेरा हाउस का वाक्पटु गाइड उसके निर्माण के इतिहास के रोचक और उदास प्रसंगों का बखान करता है तो उस दिव्य छवि में एक कसक भी समा जाती है। विश्वव्यापी डिजायन प्रतियोगिता के बाद चयनित जिस डच आर्कीटेक्ट उटजन ने 1959 में इसे अथक परिश्रम और लगन से बनवाना शुरू किया, वही इसका तैयार भव्य रूप कभी नहीं देख पाया। निर्माण के दौरान इतनी मुश्किलें आईं और अप्रिय विवाद उठे कि उटजन को इसके निर्माण से अलग कर दिया गया। बाद में उटजन सही साबित हुआ और उसी के मूल डिजायन और निर्देशों के तहत ओपेरा हाउस पूरा हुआ मगर 1973 में इसके उद्घाटन के समय उटजन का नाम तक नहीं लिया गया था। हालाँकि बाद में सिडनी ओपेरा हाउस ट्रस्ट ने उटजन को पूरा श्रेय दिया और उसे ससम्मान सिडनी आमंत्रित भी किया लेकिन उटजन अपनी इस अद्वितीय कृति को देखने फिर कभी सिडनी नहीं आया। हाँ, नवंबर 2008 में अपनी मृत्यु से पहले उसने ओपेरा हाउस के रखरखाव और भविष्य के लिए कुछ नई परिकल्पनाएँ जरूर भेजीं। आज सिडनी में उटजन को बड़े सम्मान के साथ याद किया जाता है और उसकी स्मृति में ओपेरा हाउस में बाकयदा ‘उटजन रूम’ भी बनाया गया है। उसे इस डिजायन के लिए आर्कीटेक्चर का सर्वोच्च सम्मान मिला और सिडनी ओपेरा हाउस को वर्ल्ड हेरिटेज सूची में जगह। इस इमारत में पाँच अलग-अलग आकार-प्रकार के थिएटर हैं जहाँ जाज, बैले, शास्त्रीय संगीत, नाटक, नृत्य सभी तरह के कार्यक्रम निरंतर होते रहते हैं-एक वर्ष में करीब 2500 प्रदर्शन!

सिडनी ओपेरा हाउस से नजर घूमी नहीं कि हमें ऐतिहासिक और आलीशान सिडनी हार्बर ब्रिज के दर्शन होते हैं। छह वर्ष के परिश्रम से बना और मार्च 1932 में पूरा हुआ यह पुल दुनिया का सबसे बड़ा (लम्बा नहीं) इस्पात चाप वाला पुल है। इसमें इतना लोहा लगा है कि उसे रंगने में 60 बड़े खेल मैदानों को रंगने के बराबर पेंट खर्च होता है और बड़े-बड़े जहाज इसके नीचे से आते-जाते हैं। इसके उद्घाटन का एक रोमांचक किस्सा भी है। 19 मार्च 1932 को भव्य समारोह में न्यू साउथ वेल्स के प्रीमियर जैक लांग इसका फीता काटते कि उससे पहले ही फौजी वेश में दौड़ते आए एक घुड़सवार ने अपनी तलवार से वह फीता काटकर जनता की ओर से पुल का उद्घाटन कर दिया था। उसे गिरफ्तार करके और दोबारा रिबन बाँधकर पुल का औपचारिक उद्घाटन किया गया। खैर, ओपेरा हाउस बनने से पहले यह पुल आस्ट्रेलिया, विशेषकर सिडनी का अन्तर्राष्ट्रीय पहचान प्रतीक था। अब ओपेरा हाउस इस पर भारी पड़ रहा है, हालाँकि सिडनी हार्बर ब्रिज आज भी उतना ही दर्शनीय और लोकप्रिय है और साहसी पर्यटक चार सौ सीढ़ियाँ चढ़-उतरकर सिडनी हार्बर ब्रिज के चाप (आर्क) की रोमांचक यात्रा करने से नहीं चूकते ।

सिडनी का तीन-चौथाई आकर्षण हार्बर के इर्द-गिर्द ही फैला है-ओपेरा हाउस और हार्बर ब्रिज के अलावा कोआला और कंगारू के स्नेहिल सानिध्य वाला टरोंगा जू, हजारों समुद्री प्राणियों का रोचक संसार दिखाने वाला सिडनी एक्वेरियम और वाइल्ड लाइफ वर्ल्ड, कैप्टन कुक की आस्ट्रेलिया की खोज और बाद की कई प्राचीन समुद्री यात्राओं का इतिहास संजोए आस्ट्रेलियन नेशनल मेरीटाइम म्यूजियम, नेशनल बाटेनिक गार्डन, आदि आकर्षण हार्बर पर ही हैं। हार्बर किनारे के बेहतरीन रेस्त्रां सुबह से रात तक खान-पान के शौकीनों से गुलजार रहते हैं। ‘एब-ओरिजनल्स’ अर्थात आस्ट्रेलियाई मूल के आदिवासी अपने लोक-करतब दिखाने हार्बर पर ही जुटते हैं तो हिन्दुस्तानी कस्बों की तरह सड़क छाप सर्कस या करतब दिखाकर पैसा मांगने (कमाने) वाले फुटपाथिए-करामाती भी हमें सिडनी हार्बर पर ही मिले। हार्बर पर आप घण्टों बैठे रह सकते हैं, आस्ट्रेलिया की बीयर अथवा वाइन का निर्मल आनन्द ले सकते हैं और मन करे तो स्पीड बोट का रोमांच उठा सकते हैं, जो समुद्र में 80 किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से दौड़ते हुए सहसा पूरा ब्रेक लगाकर आपको लहरों पर चकरघिन्नी खिलाती और दाँएं-बाएं उछालती है। हमारे मुँह से तो चीख ही निकल गई थी और तीखा खारा पानी खुले मुँह में भर गया था। यह दुस्साहिक रोमांच पसंद न हो तो, आलीशान क्रूज भी हार्बर पर ही मौजूद हैं जो ढाई-तीन घण्टे की मादक यात्रा में बेहतरीन खान-पान, डांस और विविध मनोरंजन पेश करते हैं।

एक और रोमांचक आकर्षण सिडनी टावर है जो जमीन से 268 मीटर (879 फुट) ऊपर ले जाकर सिडनी का चौतरफा विहंगम दृश्य दिखाता है। अंतरिक्ष यात्री की सी पोशाक पहनाकर और कमर से बंधी जंजीरों को ‘स्काई वाक’ की रेलिंग से सुरक्षित कर आपको टावर के चारों ओर जैसे आकाश-मार्ग पर ही घुमाया जाता है। पैरों के नीचे शीशे की फर्श होती है जो हवा में खड़े होने की प्रतीति कराती है और ऊँचाई से डरने वालों की सांसें थाम देने को काफी है। हवा के तेज थपेड़ों के बीच टावर के चारों ओर घूमते हुए आप सिडनी के हर कोण से दर्शन करते हैं। प्रशान्त महासागर का नीला विस्तार अनन्त की ओर ले जाता है और हम दार्शनिक होने लगते हैं लेकिन फिर टावर की तेज रफ्तार लिफ्ट हमें 40 सेकेण्ड में 268 मीटर से जमीन पर उतार लाती है।

बोण्डाई से बोंटी बीच की कोई 4 किमी की पैदल यात्रा से हमारे सिडनी दर्शन का समापन होता है। सिडनी शहर से 8 किमी दूर आस्ट्रेलिया के सबसे सुन्दर समुद्र तटों में शुमार बोण्डाई से बोंटी तक का यह छोर सुनहरी रेत पर छोटी-बड़ी लहरों की अठखेलियों से लेकर चट्टानों पर उनके आक्रामक प्रहार तक का विविध नजरा पेश करता है। प्रशान्त महासागर के नीले विस्तार से उठती धवल-उच्छृंखल लहरों में तैरते, भीगते, बैठे-लेटे, नंगे-अधनंगे सैलानियों से पूरा तट भरा पड़ा है। भारी भीड़ के बावजूद समुद्र तट की स्वच्छता ध्यान खींचती है। स्वर्णिम रेत वाले इस बेहद खूबसूरत समुद्र तट पर तरह-तरह से अपनी ही मस्ती में डूबे लोगों को देखकर लगता है संसार में कहीं कोई कष्ट और अभाव नहीं है, आनन्द ही आनन्द है!

यहाँ यह सोचना भी जैसे इस आनन्द लोक में खलल डालना है। एक बड़ी शैतान लहर मुझे पूरा भिगोकर जैसे सचेत कर जाती है।

Sunday, March 27, 2011

समृद्धि लोक में जीवन संग्राम


विशाल समृद्ध भू-भाग और सीमित आबादी, अच्छी कमाई, घर-घर में न्यूनतम दो महँगी कारें और ऐशो-आराम का पूरा लुत्फ उठाते लोग। यूं देखने पर आस्ट्रेलिया खाये-अघाये लोगों लोगों का मुल्क लगता है। है भी, लेकिन इस समृद्धि-लोक में जीवन की जंग लड़ रहे लोग भी हैं। यह अलग बात है कि उनका चेहरा दयनीय या रुलंटा नहीं बल्कि तमाशे या मनोरंजन की वस्तु के रूप में हँसता-खिलखिलाता ही सामने आता है।

सबसे पहले मूल आस्ट्रेलियाई आदिवासी हैं, जिन्हें यहां ‘एबोरिजनल्स’ के नाम से जानते-पुकारते हैं। आज के आस्ट्रेलिया में सत्ता और समृद्धि के समस्त संसाधनों पर यूरोपीय मूल के लोगों का कब्जा है और ‘एबोरिजनल्स’ वंचित समुदा्य हैं। सन् 1770 में कैप्टन कुक की आस्ट्रेलिया की खोज के बाद से आस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश बना और कम से कम 40 हजार साल से वहाँ रह रहे मूल आस्ट्रेलियावासियों को मारा-खदेड़ा जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होने तक मूल आस्ट्रेलियाई निवासियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। आज भी मूल आस्ट्रेलियाईयों की आबादी आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या की दो-ढाई प्रतिशत ही है। आज भी वे उपेक्षित-वंचित हैं, उनके संगठन बने हैं और यदा-कदा आंदोलन-प्रदर्शन-सेमिनार भी वे अपने हक के लिए करते रहते हैं।

तो, आज के समृद्ध आस्ट्रेलिया में एक सतत संघर्ष इन मूल निवासियों का है जो मुख्य धारा से दूर धकेल दिए गए थे. आज उनमें से कई अच्छी निजी व सरकारी सेवाओं में भी हैं, मगर ‘वन ऑफ देम’ (उनमें से एक) कह कर इंगित किए जाते हैं। कई मूल निवासी परिवार जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए हैं, अपनी पुरातन कला-संस्कृति का जगह-जगह प्रदर्शन करके रोजी-रोटी कमाते हैं। हमने उन्हें सिडनी हार्बर जैसी लोकप्रिय और व्यस्त जगह पर खुले में बैठे ‘डिजेरिडू’ (लकड़ी का भ्वांकरा जैसा) बजाते, बूमरैंग और लकड़ी के भाले फेंकने का प्रदर्शन और अन्य करतब करते देखा। लोग उनके सामने रखे बक्से में डॉलर डाल रहे थे। ज़्यादातर पर्यटन स्थलों पर इस तरह के प्रदर्शन खुद सरकारी स्तर पर भी कराए जाते हैं। सिडनी के म्यूज़ियम में ‘एबोरिजनल्स’ की समृद्ध लोक कला-संस्कृति की बड़ी दीर्घा है। हमने कैर्न्स के ‘रेनफॉरस्टेशन नेचर पार्क’ में भी उनके ऐसे ही कला-प्रदर्शन देखे जहॉ पर्यटक बाकायदा टिकट लेकर जाते हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार के तमाम दावों के बावजूद आस्ट्रेलिया के मूल निवासी अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए एक कमजोर सी लड़ाई लड़े जा रहे हैं। सिडनी के रॉयल बॉटेनिक गार्डन में हमें उनका एक बड़ा-सा पोस्टर दिखाई दिया, जिसमें लिखा था- ‘‘आप नए आस्ट्रेलियाई हैं, लेकिन हम पुराने आस्ट्रेलियाई हैं। हम सिर्फ न्याय, शालीन व्यवहार और निष्पक्षता की माँग कर रहे हैं। क्या यह माँग बहुत ज़्यादा है?’’

सिडनी हार्बर पर ही हम शनिवार-रविवार को, जब वहाँ खूब भीड़ जुटती है, तरह-तरह के शारीरिक करतब करती टीमों को देखते हैं। उन्हें देखकर भारतीय सड़कों के किनारे रस्सी पर चलते युवक या लोहे के नन्हे छल्ले से अपना शरीर पार करती लड़की, जैसे विविध करतब दिखाकर रोजी-रोटी कमाते लोगों की याद आती है। यानी वंचितों का रोटी का संघर्ष सब जगह एक जैसा है। एक युवक को तो हमने पूरे साढ़े पाँच फुट की लचीली, खूबसूरत गुड़िया के साथ बॉल-डांस करते देखा। वह डांस का पद-संचालन ही नहीं सिखा रहा था, बल्कि भड़काऊ संगीत पर कुशल नर्तक जोड़ी के ताली-पीटू कौशल भी दिखा रहा था। उस पर भी डॉलर और सीलिंग न्यौछावर हो रहे थे।

और सिडनी हार्बर के पीछे की एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर अपनी टोपी धरे, सिर झुकाए एक व्यक्ति को दो-दिन लगातार देखने के बाद हमने जिज्ञासा की तो पता चला कि वह भीख मांगता है और अक्सर इसी तरह बैठा मिलता है। हमने सोचा था, आस्ट्रेलिया जैसे समृद्ध देश में कोई भीख नहीं मांगता होगा!

रात को थके-मांदे जब हम होटल लौटे तो लेटते-लेटते सुबह के ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड’ पर नजर डाली। उस दिन की लीड थी - ‘सिडनी के अस्पतालों में ऑपरशन टलने से सैकड़ों मरीज परेशान।’ दूसरी लीड थी-‘सिडनी पुलिस नशीले पदार्थों का व्यापार करने वाले बड़े लोगों पर तो हाथ डाल नहीं पाती, शरीफ नागरिकों को जरूर खूब तंग करती है।’

आस्ट्रेलिया की समृद्धि और मस्ती का आतंक हमारे दिल-दिमाग से उतरने लगा और फिर हम सुकून से सो पाए।

Tuesday, February 08, 2011

खिलने को है व्याकुल होता इन प्राणों में कोई.

चन्द्र कुंवर बर्त्वाल(१९१९-१९४७) प्रक्रिति के अद्भुत चितेरे कवि थे.बहुत कम उम्र में उनका निधन हो गया था. उनका रचना काल १० साल से भी कम रहा. वसन्त पंचमी पर आपको पढाता हूं चन्द्र कुंवर की यह अद्भुत कविता--
"अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे/
दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे.
अब रसाल की मंजरियों पर पिक के गीत झरेंगे/
अब नवीन किसलय मारुत में मर्मर मधुर करेंगे.
जीवित होंगे वन निद्रा से, निद्रित शैल जगेंगे/
अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगे.
पद-पद पर फैली दूर्वा पर हरियाली जागेगी/
बीती हिम रितु अब जीवन में प्रिय मधु रितु आयेगी.
रोयेगी रवि के चुम्बन से अब सानंद हिमानी/
फूट उठेगी अब गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.
हिम का हास उडेगा धूमिल सुरसरि की लहरों पर/
लहरें घूम-घूम नाचेंगी सागर के द्वारों पर.
तुम आओगी इस जीवन में कहता मुझसे कोई/
खिलने को है व्याकुल होता इन प्राणों में कोई."