Friday, June 25, 2021

हिंसा और भ्रष्टाचार अब मनोरंजन की तरह हैं

आप बीमार हैं। डॉक्टर की बताई दवा खा रहे हैं लेकिन कोई सुधार नहीं हो रहा। डॉक्टर भी चकित हैं कि उनका निदान तो बिल्कुल सही है लेकिन दवा काम क्यों नहीं कर रही। वही दवा दूसरी कम्पनी की खाने को कहते हैं तो दो दिन में आराम आ जाता है। डॉक्टर कहते हैं, पहली वाली दवा नकली रही होगी। एक सामान्य आदमी कैसे पहचाने कि दवा असली है या नकली? अक्सर दुकानदार भी नहीं जानते कि वे नकली दवा बेच रहे हैं। धंधेबाज दवाओं की सप्लाई चेन में गहरी घुसपैठ किए हुए हैं।

ज्वर उतारने के लिए पैरासैटामॉल हो या कोविड के इलाज में प्रयुक्त होने वाला रेमडेसिविर इंजेक्शन, बाजार में नकली माल भरा पड़ा है। कानपुर पुलिस ने तीन दिन पहले अमीनाबाद में छापा मारकर नकली दवाओं का बड़ा कारोबार पकड़ा। पहले भी ऐसी पकड़-धकड़ होती रही है लेकिन यह कारोबार फिर भी फलता-फूलता आया है। कोरोना-काल में यह पूरे जोरों पर था। इस काल में सबसे अधिक मुनाफा दवा कम्पनियों ने कमाया और उनकी आड़ में नकली दवा के धंधेबाजों ने।

अधिक से अधिक कमाई की हवस ने जीवन बचाने वाली वस्तुओं को भी जहर में बदल डाला है। जिन वस्तुओं की सबसे अधिक मांग होती है, उन्हीं में सबसे अधिक नकली माल खपाया जाता है। जिन विभागों को इस पर नियंत्रण करने का उत्तरदायित्व है, वे उसी सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं जिसकी स्थाई पहचान नाकारा और भ्रष्ट की हो चुकी है। पुलिस ने जब नकली दवाओं का जखीरा पकड़ा तो खाद्य एवं औषधि सुरक्षा विभाग श्रेय लूटने तत्काल वहां पहुंच गया।

जीवन में धन को इतना महत्व दे दिया गया है कि लोग उसके लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। वही सफलता और रुतबे की असली पहचान हैं। ईमानदारी, नैतिकता और मर्यादाओं की बात हंसी में उड़ा दी जाती है। धन-सम्पत्ति है तो आप सब कुछ कर सकते हैं। ईमान और व्यवस्था सब खरीद सकते हैं। इसीलिए अपने चारों तरफ बेहिसाब धन कमाने की हवस दिखती है, चाहे प्रशासन और राजनीति का क्षेत्र हो या उद्योग-व्यापार का।

जब मेडिकल कॉलेज के कुछ कर्मचारी रेमडेसिविर के इंजेक्शन की चोर बाजारी कर रहे थे तब उतना आश्चर्य नहीं हुआ था। जब इसी काम में लिप्त लोहिया अस्पताल के एक डॉक्टर की गिरफ्तारी हुई तो सदमा-सा लगा। आखिर एक डॉक्टर को अस्पताल की दवा की चोर बाजारी में शामिल होने की ललक क्यों कर हुई होगी?

बेरोजगारी के भयानक दौर ने भी नकली कारोबार और चोर बाजार को फलने-फूलने का खूब मौका दिया है। नौकरी मिलती नहीं और मिले भी तो वहां तरक्की और कमाई के लिए कड़ी मेहनत चाहिए। काले धंधों में बहुत शीघ्र मालामाल होने की सम्भावना है। मालामाल होना ही आज जीवन की सार्थकता है। इसीलिए कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के, सरकारी अफसर, राजनेता, पुलिस, डॉक्टर, व्यापारी, आदि-आदि बेहिसाब धन कमाने के रास्ते तलाशते रहते हैं। अपवाद हैं लेकिन चारों तरफ से इतनी खबरें आती हैं कि लगता है वे कम होते जा रहे हैं।

मनोरंजन और शिक्षा के माध्यम कही जाने वाली फिल्में, टीवी और विशेष रूप से अब लोकप्रिय हो गए ओटीटीके सीजन-सीरियलक्या सिखा रहे हैं। बीमारी के दौरान मैंने पहली बार दो लोकप्रियओटीटी सीरियल देखे। इतना बड़ा झटका लगा कि मानसिक संतुलन हिल गया। भयानक हिंसा, पोर्न की हद तक सेक्स, ऐसी गालियां जो लिखी या जिह्वा पर लाई नहीं जा सकतीं, दिन-रात साजिशें, नाते-रिश्तों का खून, वगैरह देखकर रातों की नींद उड़ गई। यह सब कुछ धन-सम्पत्ति के लिए होता दिखाया गया है।

यही सब मनोरंजन के रूप में (लेट अस हैव सम फन) जीवन में साकार हो रहा है। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 26 जून, 2021)       

       

     

   

Friday, June 18, 2021

कोविड के धीमे पड़ते दौर की सिहरनें

 

कोविड-19 महामारी का दूसरा भयावह दौर धीमा पड़ गया लगता है, हालांकि इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं हैं। तीसरा दौर आने की चेतावनी लगातार मिल रही है। वैसे भी, इस वायरस को पूरी तरह समाप्त नहीं होना है। दूसरे असंख्य वायरसों की तरह यह हमारी दुनिया में रहने वाला है। हमें इससे बचने के जतन करते रहने होंगे। पूरी आबादी के टीकाकरण के अलावा मास्क पहनना, भौतिक दूरी बनाए रखना और हाथों की निरंतर सफाई दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बनाने होंगे।

अमेरिका और यूरोप के विकसित देश अपने लगभग प्रत्येक नागरिक का टीकाकरण कर चुके हैं। कई देशों में तो बाहर निकलने पर मास्क पहनना अनिवार्य नहीं रह गया। सिर्फ किसी के घर जाने या रेस्तरां-मॉल आदि के भीतर मास्क लगाना होता है। उन देशों ने कोविड महामारी पर काफी सीमा तक नियंत्रण पा लिया है। हमारे यहां दोनों ही उपाय सुनिश्चित करना अत्यंत कठिन है। इतनी बड़ी आबादी का पूरा टीकाकरण कई वर्ष लेने वाला है, हालांकि केंद्र सरकार इस वर्षांत तक इसे पूरा करने की घोषणा कर रही है। अंधविश्वासी, कठमुल्लों के बंधक और सरकारों पर भरोसा न करने वाले समुदाय हैं जो टीका लगाने को अपने विरुद्ध साजिश मानते हैं। इसलिए अपने देश को इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकानी है।

कितनी कीमत हम चुका चुके हैं। पिछले डेढ़ साल में अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, जितनी बेरोजगारी बढ़ी है और चिकित्सा तंत्र की जैसी लाचारी सामने आई है, उसकी सबसे बुरी मार कमजोर और कामगार वर्ग ने झेली है। वे अभी झेल रहे हैं और पता नहीं कितने समय तक उन्हें ज़िंदा रहने और घर-परिवार चलाने के लिए जूझते रहना होगा।

वे कौन लोग थे जिनकी लाशें नदियों में बहाई गईं या किनारे पर रेत में दफ्न की गईं? रेत में दफ्न जिन लाशों के ऊपर से रामनामी या दुशाले हटाए जा रहे थे, उन्हें दो दिन की बारिश ने उघाड़ दिया है। अकेले प्रयागराज के दो घाटों में दो दिन में कम से कम चालीस लाशें उघड़ी पाई गईं क्योंकि बारिश ने रेत बहा दी थी। प्रशासन उन शवों का अंतिम संस्कार करवा रहा है। पिछले दिनों नदियों में बहती पाई गई लाशों से सरकारों की किरकिरी हुई थी, इसलिए अब उघड़ी लाशों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है। तथ्यों को छुपाने-दबाने की बजाय इतनी सद्बुद्धि तो आई।

मोबाइल में किसी का नम्बर खोजने लगता हूं तो कई नाम ऐसे सामने आते हैं जो महामारी में काल-कवलित हो गए। कितने ही मित्र, सम्बंधी और परिचित। अब भी लोग जा रहे हैं। उन नाम-नम्बरों को देखकर सिहरन होती है। क्या उनके नाम मिटा दूं? मोबाइल से डिलीट किया जा सकता है लेकिन अपनी स्मृति से कैसे बाहर किया जा सकेगा? अपने जीवित और स्मृति के बने रहते उनकी याद धूमिल भले हो जाए, मिटाई नहीं जा सकेगी।

रह-रहकर उन बच्चों का ध्यान आता है जिनके सिर से माता-पिता का साया अचानक उठ गया। सैकड़ों बच्चों के बारे में पढ़ने को मिल रहा हि जिनके परिवार में कोई नहीं बचा या बूढ़े दादा-दादी में कोई एक और असहाय। कई परिवारों के अकेले कमाऊ पूत चले गए। ऐसे बच्चों के आगे अनिश्चित भविष्य है। सरकार और समाज उनके लिए चिंतित हैं लेकिन हमारे यहां के बाल गृहों या अनाथालयों का हाल किसी से छुपा है क्या? बहुत कम बच्चे होंगे जिन्हें चाचा-चाची या बुआ-मौसी की स्नेहिल छांव मिलेगी। बाकी इस आघात से मानसिक रूप से आजीवन त्रस्त रहेंगे।

इस महामारी ने बहुत कुछ छीना और नष्ट किया है, जिसकी भरपाई सम्भव नहीं है। जो बचे रहेंगे वे भी कितना उबर पाएंगे?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 19 जून 2021)    

Sunday, June 13, 2021

कांग्रेस: कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

युवा जितिन प्रसाद ऐसे समय में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं जब न केवल उत्तर प्रदेश में, बल्कि देश भर में भी केसरिया रंग मद्धिम होता लग रहा है। कोविड महामारी के प्रबंधन में विफलता या विसंगतियों, आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और निम्न मध्य वर्ग एवं कामगार वर्ग की बेहाली के कारण मोदी सरकार की लोकप्रियता कम हुई है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के विवादास्पद काम-काज और छवि से चिंतित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उसकी समीक्षा कर रहा है। हाल में सम्पन्न पंचायत चुनावों के परिणाम  उसकी घटती लोकप्रियता के संकेत दे गए जिसमें विपक्षी समाजवादी पार्टी से भाजपा पिछड़ गई। कोविड महामारी के दूसरे दौर में अव्यवस्था, ऑक्सीजन एवं दवाओं की कमी और नदियों में लाशें बहाए जाने  की वायरल खबरों से भी योगी सरकार अंतराष्ट्रीय स्तर तक आलोचनाओं के केंद्र में रही है। ऐसे समय में कभी राहुल गांधी के करीबी रहे जितिन प्रसाद का भाजपा में जाना जहां केसरिया पार्टी के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है, वहीं विपक्ष के लिए अनुकूल होती स्थितियों का लाभ उठाने में कांग्रेस नेतृत्व की असमर्थता भी साबित करता है।

जितिन प्रसाद अचानक भाजपा में नहीं गए हैं। 2019 के चुनाव से ठीक पहले उनके भाजपा में शामिल होने की चर्चा चली थी। उस समय राहुल गांधी ने जितिन को मना लिया था। फिर प्रियंका गांधी ने यूपी में कांग्रेस को दुरस्त करने का बीड़ा उठाया। जितिन को उस प्रक्रिया में महत्व भी मिला। कांग्रेस कार्य समिति के तो वे सदस्य थे ही, हाल में सम्पन्न बंगाल विधान सभा चुनाव में उन्हें राज्य-प्रभारी बनाया गया था। इस सबके बावजूद जितिन की नाराजगी शायद दूर नहीं हुई या कहें कि लगातार निजी पराजयों (2014 से वे दो लोक सभा और एक विधान सभा चुनाव हार चुके हैं। बंगाल में भी कुछ नहीं कर सके) से अपनी जमीन खोते जाने से बेचैन जितिन ने अंतत: भाजपा का दामन थाम लिया।

जितिन प्रसाद उतने बड़े कांग्रेसी नेता थे नहीं, पार्टी को जितना बड़ा झटका लगने की बात कही जा रही है। उनकी बराबरी मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान के सचिन पायलट से की जाती रही है लेकिन इन दोनों की तरह जितिन का यूपी में कोई विशेष प्रभाव नहीं रहा। उन्हें अपने पिता जितेंद्र प्रसाद की राजनीतिक जमीन विरासत में मिली थी, जो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बड़े और प्रभावशाली नेता थे। जितिन उस विरासत को सम्भाल पाने में विफल रहे। अपने परम्परागत चुनाव क्षेत्र में वे कुछ समय प्रासंगिक भले रहे हों, कालांतर में उसे भी खो बैठे। ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट ने अपने पिताओं की राजनीतिक विरासत खूब सम्भाली है। इसके बावजूद जितिन को कांग्रेस में पर्याप्त महत्त्व मिला। उस प्रदेश में जहां कांग्रेस पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार अपना प्रभाव खोती आई और जिसे बचाने में जितिन प्रसाद का कोई योगदान नहीं रहा, आखिर वे पार्टी से क्या चाहते थे?

स्पष्ट है कि जितिन की महत्वाकांक्षा ही उन्हें भाजपा में ले गई, जिसके लिए वे तीन साल से छटपटा रहे थे। उनके अनुसार कांग्रेस में रहते हुए जनता की सेवा करने का अवसरनहीं मिल रहा था, लेकिन भाजपा में ही उन्हें यह अवसर कितना और कब मिल पाएगा, जहां जनता की सेवाकरने के लिए लालायित नेताओं की लम्बी कतार प्रतीक्षारत है? ज्योतिरादित्य भी राज्य सभा सीट के अलावा और कुछ अब तक हासिल नहीं कर पाए हैं। भाजपा को अवश्य एक युवा ब्राह्मण चेहरा मिल गया है, जिसकी उपेक्षा के आरोप योगी सरकार पर लगते रहे हैं।

जितिन का जाना कांग्रेस के लिए दो मायनों में बड़ी हानि है। वे स्वयं कांग्रेस के लिए कुछ न कर पाए हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में वे पार्टी का नाम लेवा एक युवा और चमकदार चेहरा तो थे ही जिनकी तीन पीढ़ियां कांग्रेस का झण्डा उठाए रहीं। दूसरा बड़ा नुकसान पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के बारे में इस धारणा का निरंतर पुष्ट होना है कि वह कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए बड़े कदम उठाना तो दूर, रही-सही पार्टी को भी बचा पाने के लिए कुछ नहीं कर पा रहा। जितिन के पार्टी छोड़ने को कांग्रेसी प्रवक्ता चाहे जितना महत्त्वहीन बताएं, यह सीधे-सीधे सोनिया गांधी और राहुल के नेतृत्व पर सवाल उठाता है और उन तेईस कांग्रेसी नेताओं की सतत चिंता को रेखांकित करता है जो चिट्ठी लिखकर और बार-बार दोहरा कर मांग कर रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष का चुनाव कराया जाए ताकि देश की सबसे पुरानी यह पार्टी जड़ता से बाहर निकल सके। जितिन प्रसाद भी उन नेताओं में शामिल थे।

यह सचमुच हैरत की बात है कि मोदी सरकार की घटती लोकप्रियता और हाल के संकटों का मुकाबला कर पाने में उसकी असफलता को अपने लिए अवसर में बदलने का जतन करने की बजाय कांग्रेस नेतृत्व हाथ पर हाथ धरे बैठा है। यह भी बड़ा सवाल है कि कांग्रेस नेतृत्वहै कौन? सोनिया गांधी कार्यवाहक अध्यक्ष होने के बावजूद सर्वोच्च नेता की तरह सक्रिय नहीं हैं और राहुल अध्यक्ष पद छोड़ चुकने के बावजूद उसके प्रभामण्डल से बाहर नहीं निकल पा रहे। दो साल से पार्टी नेतृत्वविहीन है। पुराने कांग्रेसी नेताओं की बेचैनी अकारण नहीं है। सोनिया को लिखे उनके पत्र पर मौन लम्बा होता जा रहा है। ऐसे में कांग्रेसी नेताओं की बेचैनी स्वाभाविक है। जितिन के जाने के बाद वफादार कांग्रेसियों की यह चिंता अकारण नहीं कि कुछ और भी नेता पार्टी छोड़ सकते हैं।

राजस्थान में सचिन पायलट कब से बेकरार हैं। उनकी कुछ शिकायतें हैं जिनसे सोनिया और राहुल भली-भांति परिचित हैं लेकिन उसके समाधान के लिए आज तक कुछ नहीं किया गया। यह कैसा नेतृत्व है जो अपनी पार्टी की समस्याओं का सामना करके उनका समाधान करने की बजाय आंखें मूंद लेता है? सचिन पायलट ने इधर फिर अपना गुस्सा व्यक्त किया है। सचिन पायलट, जितिन प्रसाद की तरह प्रभावहीन नेता नहीं हैं। राजस्थान में उनका अच्छा असर है। एक दर्जन से अधिक विधायक उनके साथ हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी मध्य प्रदेश में प्रभावशाली कांग्रेसी नेता थे। नेतृत्व की निष्क्रियता के कारण ही वे भाजपा में चले गए। क्या नेतृत्वअब सचिन के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है?

एक बात बहुत साफ है कि भाजपा भले सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रही हो लेकिन कांग्रेस किसी भी तरह उसका लाभ लेने की स्थिति में नहीं दिखती।                 

(प्रभात खबर, 14 जून, 2021)               

Friday, June 11, 2021

नेताओं के गोद लेने से सीएचसी सुधर जाएंगे?

इधर जाने-अनजाने अच्छी बात यह हुई मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने अपने मंत्रियों-विधायकों से कहा है कि वे अपने-अपने इलाकों में सीएचसी (सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र) को गोद लें। उन्होंने स्वयं भी गोरखपुर के चार सीएचसी को गोद ले लिया है। आशा है कि इससे इन स्वास्थ्य केंद्रों की हालत कुछ सुधरेगी। स्वास्थ्य विभाग पर दबाव पड़ा है कि वह सीएचसी में डॉक्टरों की तैनाती सुनिश्चित करे। जिलों के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक सक्रिय हुए हैं।

प्रदेश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की हालत किसी से छुपी नहीं है। कहीं इन केंद्रों पर ताला लटका रहता है  और  कहीं डॉक्टर या अन्य चिकित्सा कर्मी नहीं मिलते। बहुत दूर से चारपाई पर लादकर लाई गई महिला ताला बंद सीएचसी के बाहर प्रसव को विवश होती है या कोई बीमार बुजुर्ग इलाज के इंतज़ार में दम तोड़ देता है। कोविड महामारी ने इन स्वाथ्य केंद्रों की बदहाली और भी उजागर की। अगर वे प्राथमिक चिकित्सा दे पाने में भी सक्षम होते तो गांवों-कस्बों में कोविड मरीजों की मौतों का सिलसिला भयावह नहीं होता। बड़े शहरों के अस्पतालों में बेड और ऑक्सीजन के लिए मारामारी इसलिए भी मची कि आसपास के ग्रामीण इलाकों से मरीज निरंतर लाए जा रहे थे।

वैसे, यह गोद लेनाजनप्रतिनिधियों से अक्सर सुनाई देता है। कभी कोई किसी गांव को गोद लेता है कोई किसी संस्थान को और कोई किसी गरीब-लाचार बच्चे को। शुरुआती प्रचार और कुछ औपचारिकताओं के बाद धीरे-धीरे गोद लिए गए गांवों/संस्थानों/बच्चों को भुला दिया जाता है। हमारे जनप्रतिनिधियों की व्यस्ततारचनात्मक कामों में कम, अन्यत्र अधिक होती है। यह अन्यत्रही उनकी राजनीति का आधार होता है। रचनात्मक काम थोड़ी प्रशंशा तो दिलाते है, चुनाव नहीं जिता पाते।

खैर, जिलों के सीएमओ पर स्वास्थ्य केद्रों में डॉक्टरों की तैनाती करने का दबाव बना है। प्रदेश में डॉक्टरों की वैसे ही बहुत कमी है और जो किसी स्वास्थ्य केंद्र में भेजे जाते हैं तो वे भी वहां से शहरों की ओर वापसी का राजनैतिक जुगाड़ भिड़ा लेते हैं। मानक तो यह है कि एक लाख की आबादी पर एक सीएचसी और तीस हजार की आबादी पर एक पीएचसी होने चाहिए लेकिन कई सीएचसी पर तीन से चार लाख तक की आबादी का दबाव है। यही हाल पीएचसी का है। एक सीएचसी में महिला रोग विशेषज्ञ और एक शल्य चिकित्सक समेत कम से कम पांच डॉक्टर होने चाहिए। उसमें तीस बेड और सभी उपकरणों से युक्त एक-दो ऑपरेशन कक्ष होने चाहिए। इमारतें तो यह तंत्र फटाफट खड़ी कर देता है लेकिन बाकी सुविधाएं देने में फिसड्डी साबित होता है।

गोद लेने का वास्तविक अर्थ क्या होगा? क्या सिर्फ उनकी निगरानी? कुछ जनप्रतिनिधियों ने सीएचसी गोद लेकर उनकी मॉनीटरिंग के लिए समिति बना दी हैं, जिनमें सीएमओ, एसडीएम से लेकर पार्टी के लोग भी शामिल हैं। यह समिति क्या कर पाएगी? प्रदेश में सबसे बड़ी कमी डॉक्टरों की है। सर्वोच्च प्राथमिकता यह देखने की होनी चाहिए कि प्रादेशिक चिकित्सा सेवा (पीएमएस) में डॉक्टर खुशी-खुशी आते क्यों नहीं और आ गए तो उससे निकलने का प्रयास क्यों करते रहते हैं। जिलों में तैनात सरकारी डॉक्टरों को एक एसडीएम भी जब चाहे तलब कर लेता है। उनका सम्मान और प्रतिष्ठा धीरे-धीरे मिटा दिए गए। बहरहाल, इस पर फिर कभी।

अभी तो यह पूछना है कि क्या गोद लेने से सीएचसी की ये समस्याएं दूर हो जाएंगी? स्वास्थ्य सेवाओं को दुरस्त करने के लिए समग्र स्वास्थ्य नीति और अच्छे बजट की आवश्यकता तो है ही, निजी क्षेत्र को सिर पर बैठाना भी बंद करना होगा। निजीकरण ने अत्यावश्यक सार्वजनिक सेवाओं को क्रमश: मारा है।        

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 जून, 2021)      

Saturday, June 05, 2021

शासकीय निर्देश और जमीनी हकीकत

एक मास के भीतर दूसरी बार एम्बुलेंस की मनमानीदरों पर शासन-प्रशासन ने रोष प्रकट किया है। दरें भी निर्धारित की गई हैं। पिछले दिनों लखनऊ के जिलाधिकारी ने कोविड मरीजों को लाने-ले जाने के लिए एम्बुलेंस की दरें तय की थीं। अब शासन स्तर पर पूरे प्रदेश में ये दरें निश्चित की गई हैं। महामारी की दूसरी लहर के चरम दौर में चौतरफा शिकायतें मिलीं कि अस्पताल और निजी एम्बुलेंस वाले मरीजों से मनमानी रकम वसूल रहे हैं। मरीजों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि एम्बुलेंस के लिए मारामारी मची थी। निजी एम्बुलेंस वालों ने इसका फायदा उठाकर मनमाना किराया वसूला। फायदा लूटने में सभी आगे थे।

शासन-प्रशासन की इस औपचारिक-सी शैली पर कभी-कभी आश्चर्य होता है। ऐसा नहीं है कि एम्बुलेंस की दरें निर्धारित न हों लेकिन शायद ही किसी को याद हो। जैसे, शहर में चलने वाले ऑटो-टेम्पो-टैक्सी आदि की दरें निर्धारित होती हैं। यह कागजी औपचारिकता ही होती है क्योंकि ऑटो-टेम्पो-टैक्सी वाले किराया अपनी ही दरों पर लेते हैं। शासन द्वारा तय दरें उनके वाहन में लिखी अवश्य होती हैं लेकिन वसूली उससे कहीं अधिक होती है। यह सबको पता होता है लेकिन चलता रहता है।

अत्यावश्यक सेवा मानी जाने के कारण एम्बुलेंस को परमिट नहीं लेना पड़ता लेकिन दरें उनकी भी तय रहती हैं। यह अलग बात है कि ये दरें मात्र दिखावे के लिए होती हैं। एम्बुलेंस ही क्यों, कोविड मरीजों-तीमारदारों से सभी ने मनमानी वसूली की। ऑक्सीजन और कुछ विशेष दवाओं के लिए कैसी भगदड़ मची थी! तीमारदार खाली सिलेण्डर लिए दौड़ रहे थे और कहीं मिल गई तो कई-कई गुना रकम चुकानी पड़ी। दवाओं की चोरबाजारी हुई।

निजी अस्पतालों की शिकायतें हो रही है कि उन्होंने इलाज और ऑक्सीजन आदि के नाम पर लाखों रु वसूले। जांच में ये शिकायतें सही भी पाई जा रही हैं लेकिन कार्रवाई के नाम कुछ अस्पतालों को नोटिस थमा दी जाती है। ऐसी शिकायतें सामान्य दिनों में भी आती थीं मगर कोविड-काल में ये बहुत बढ़ गईं, हालांकि हमारे यहां शिकायतें करने का चलन लगभग नहीं है। मरीज की जान बचाएं या शिकायत करते फिरें? फिर भी खूब शिकायतें आईं लेकिन कोई दंडात्मक कार्रवाई होती नहीं सुनाई दी जिससे कि वे आइंदा ऐसा नहीं करें।

मुख्यमंत्री से लेकर आला अधिकारी तक चेतावनी देते रहते हैं। इन चेतावनियों का कितना प्रभाव पड़ता है? शिकायत करने का कष्ट बहुत कम लोग उठाते हैं क्योंकि जनता की शिकायतें सहानुभूति से सुनना अपने यहां होता नहीं। शिकायतकर्ता को हतोत्साहित ही किया जाता है। फिर भी कुछ शिकायतें आती है तो इसका मतलब है कि मनमानी वसूली बहुत बड़े पैमाने पर हो रही है।

इसकी सबसे बुरी मार गरीब, सीधे-सरल लोगों पर पड़ती है। उनके मुंह में जैसे जुबान ही नहीं होती कि निर्धारित दर पूछ सकें या सवाल-जवाब कर सकें। वे हर जगह ठगे-लूटे जाते हैं। अस्पतालों के बाहर उन्हें दलाल लूटते हैं और भीतर अस्पताल वाले। और तो और, श्मशान घाट पर भी वे लूटे गए। यह अकारण नहीं है कि कई जगह गरीब-गुरबों ने लाशें नदियों में बहा दीं या रेत में दफ्न कर दीं। कोई अपनों को इस तरह विदा नहीं करता लेकिन जब विधिवत दाह-कर्म या दफनाने के लिए इतनी रकम मांगी जाए कि वे दे न सकें तो क्या चारा रह जाता है?

जनता को, खासकर गरीब-गुरबों को क्या-कैसी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं या विभिन्न सेवाएं निर्धारित दरों पर चल रही हैं, इसे देखने की कोई चिंता शासन-प्रशासन नहीं करता। सिर्फ कड़े निर्देशों से व्यवस्था नहीं सुधरती।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 05 जून, 2021)       

          

Friday, June 04, 2021

शैलेश मटियानी को भुलाया नहीं जा सकता

 

                                                            17 फरवरी, 2021

प्रिय भाई प्रियंवद जी,

आज दोपहर को अकार-56’ मिला। पहले तो अकथपढ़कर आपको फोन करने जा रहा था कि गिरिराज जी एवं अन्य लेखकों (फिलहाल ज्ञानरंजन) के पत्रों के बहाने हिंदी लेखकों के निजी और सार्वजनिक संसार पर नई और जरूरी रोशनी डालने का बड़ा काम उठाकर आपने बहुत सराहनीय काम किया है। फिर शैलेश मटियानी के पत्र और पूरा हिस्सा पढ़कर लगा कि आपको पत्र ही लिखूं। किसी को चिट्ठी लिखे अरसा भी हुआ। चाहता था कि कलम पकड़कर कागज पर लिखूं और लिफाफे पर टिकट लगाकर डाक-डिब्बे में डालूं लेकिन फिर लैपटॉप पर ही बैठ गया।

शैलेश मटियानी को याद करना, उनके रचे विपुल साहित्य के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्षों, लेखकीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ी गई लम्बी लड़ाइयों, उनके साथ हुई साजिशों, उपेक्षाओं, आदि को सामने लाना और नई पीढ़ी तक पहुंचाना बहुत आवश्यक है। उनके जैसे जीवनानुभवों और वंचितों पर अत्यंत मार्मिक एवं बेहतरीन कहानियां-उपन्यास लिखने वाले साहित्यकार को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह तो नहीं ही मिला, उलटे उनकी जिस तरह उपेक्षा की गई, एक तरह से साहित्यिक हत्या, उस पर कोई बात भी नहीं करता। अमेठी के दिन बहुरेऔर धर्मयुग प्रकरण पर मटियानी जी ने लेखकीय स्वाभिमान की जो लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक अकेले लड़ी, उस प्रसंग पर जितने पत्र एवं लेख लिखे और स्वयं कोर्ट में जो बहसें की, उस पर हिंदी की पूरी लेखकीय जमात को गर्व करना चाहिए था, उसे पुस्तकाकार प्रकाशित कराकर सहेजना चाहिए था, बार-बार और जगह-जगह एक नज़ीर की तरह प्रस्तुत करना चाहिए था। लेकिन देखिए कि उनका मजाक उड़ाया गया, उनका अपमान किया गया और एक संघी लेखक की सनक कहकर उसे खारिज किया गया। कैसे-कैसे बड़ेलेखक इस साजिश में शामिल थे! आज उनका बड़ा नाम लिया जाता है लेकिन कौन मटियानी जी को याद करता है?

घोर गरीबी एवं एकाकीपन में जीने और दर-दर की ठोकरें खाकर भी लेखक बने रहने की ज़िद ठानने और उसे सही साबित कर दिखाने वाला मटियानी जी जैसा और कौन लेखक हिंदी में हुआ? अग्रिम पारिश्रमिक लेकर और इसीलिए हड़बड़ी में लिखा गया उनका काफी कुछ खारिज करने लायक भी होगा लेकिन जो कुछ श्रेष्ठ कहानियां-उपन्यास उन्होंने हिंदी को दिए, उनकी बराबरी में कितनी रचनाएं हमारे बड़े-बड़े लेखकों ने दीं? मटियानी जी की दो दुखों का एक सुख,’ ‘मैमूद,’ ‘अर्द्धांगिनीजैसी कई कहानियों और कुछ उपन्यासों की क्या सिर्फ इसलिए उपेक्षा की जा सकती है कि विचारों से वे हिंदुत्ववादी थे और संघ व भाजपा के पाले में खड़े हो जाते थे? प्रगतिशील या जनवादी झण्डा उठाने के कारण ही बड़े लेखक कहाने वाले कितने लेखकों की रचनाएं उस टक्कर की हैं? यह क्यों नहीं देखा जाता कि अपनी रचनाओं में वे किसके साथ खड़े थे, किसके बारे में लिख रहे थे, संघ एवं भाजपा के बारे में या दीन-हीन, दलित, वंचित, शोषित जन के बारे में? हिंदू राष्ट्र की वकालत करने के लिए उनकी आलोचना कीजिए लेकिन उनके साहित्य के मूल्य, जनपक्षधरता, भाषा और लेखन कौशल को तो चर्चा कीजिए। उसे कैसे कूड़ेदान में डाला जा सकता है?

शायद 1997 या 1998 की बात है। मटियानी जी लखनऊ मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग में भर्ती थे और पागलपन के दौरे से जूझ रहे थे। हमने स्वतंत्र भारतमें उनकी एक-दो पुरानी रचनाएं छापीं और पारिश्रमिक लेकर अस्पताल पहुंचे। एक रसीद बनाकर ले गए थे कि अगर वे कर सके हस्ताक्षर करा लेंगे। मटियानी जी ने पहचाना, अपनी मानसिक व्याधि की चर्चा की और कांपते हाथों से यह कहते हुए पावती पर हस्ताक्षर किए कि अब तो कलम का पकड़ना स्वप्न हो गया। फिर अपने हस्ताक्षर देखकर खुश हुए थे। अगली सुबह मेरे दफ्तर पहुंचने तक एक लड़का मटियानी जी का भेजा लिफाफा लिए खड़ा था। उसमें अखबार के लिए दो पेज का एक राजनैतिक लेख था और एक नोट कि प्रिय नवीन, कल तुम्हारे सामने रसीद पर हस्ताक्षर बन पड़े तो लगा शायद फिर लिख सकता हूं। देखो, कोशिश की है...।कांपते हाथों की वह टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट हमें उनकी लेखकीय जीजीविषा से अचम्भित और प्रसन्न भी कर गई थी। और किस लेखक में रही ऐसी घनीभूत लेखकीय शक्ति? अस्पताल के मानसिक रोगी वार्ड में पागलपन के दौरे से तनिक राहत पाने पर भी लिखने बैठ जाना। ऐसी ही अवस्था में ही उन्होंने नदी किनारे का गांव और उपरांतजैसी कहानियां लिखी होंगी। ऐसे जीवट के लेखक को हिंदी जगत कैसे बिसार सकता है?

अपने अंतिम वर्षों में सत्ता-प्रतिष्ठान से याचनाकरने वाले मटियानी जी पर हंसने वाली लेखक बिरादरी यह याद नहीं करती कि उन्होंने कैसे-कैसे दिन देखे और परिवार ने क्या-क्या भुगता। घर आए मेहमान के लिए चाय-पानी का जुगाड़ करने के लिए रद्दी बेचने भागने वाले मटियानी जी एक समय में सरकारी अनुदान ठुकरा देते थे। ठाकुर प्रसाद सिंह बताते थे कि हिंदी संस्थान का निदेशक रहते उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी से मटियानी जी को किसी बहाने पच्चीस हजार रु का चेक दिलवाया तो कैसे उन्होंने लेने से इनकार कर दिया था। कितने लेखक या लेखक संगठन उनकी सहायता को आगे आए? जब उनके मकान पर गुण्डे कब्जा कर रहे थे और वे अकेले लड़ रहे थे, कितने लेखकों-पत्रकारों ने उनका साथ दिया? संघ और भाजपा वालों ने ही उन्हें क्या दे दिया? बेटे की हत्या, बड़ी बेटी के अविवाहित रह जाने और परिवार की दुर्दशा ने अंतत: उन्हें तोड़ दिया, अत्यंत दयनीय और याचक बना दिया। यह उनकी कमजोरी थी कि वे टूट कर बुरी तरह बिखर गए। लेखक के रूप में उपेक्षा और अपमान ने उन्हें इस बिखराव की तरफ कम नहीं धकेला होगा।

हिंदुत्त्व की उनकी वकालत से किसी तरह की सहमति नहीं है, लेकिन उनके लेखकीय योगदान का मूल्यांकन होना चाहिए, विशेष रूप से इसलिए कि अपनी विचारधारा के बावजूद वे कहानी-उपन्यासों में समाज के सबसे उपेक्षित, दीन-हीन मानवों के साथ पूरी सम्वेदना और जुझारूपन के साथ खड़े दिखते हैं। उनके विचलनों और लेखन की भी खूब तीखी आलोचना हो लेकिन उनके लिखे को पूरी तरह भुला देना हिंदी साहित्य को गरीब बनाना ही है। वैसे, पाठकों में शैलेश मटियानी जितने लोकप्रिय रहे, उन्हें भुला पाना आसान नहीं होगा। घनघोर असहमतियों के बावजूद राजेंद्र यादव ने उन पर जिस दृष्टि से लिखा है, वह संतोष देता है।

आपने अकारके इस अंक में गिरिराज किशोर जी से उनके पत्र-व्यवहार के बहाने यह विमर्श शुरू करके बहुत अच्छी पहल की है।   

-नवीन जोशी, लखनऊ

(अकार-57 में प्रकाशित सम्पादक प्रियंवद के नाम एक चिट्ठी)