Friday, October 29, 2021

मास्टर जी क्या-क्या करें और कब पढ़ाएं?

धीरे-धीरे वह  दिन करीब आता लगता है जब सरकारी-अर्ध-सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को बच्चों को  पढ़ाने के अलावा बाकी सारे काम करने होंगे। हाल ही में बाल्मीकि जयंती के दिन प्रदेश के कासगंज में  अध्यापकों को बाल्मीकि रामायण पाठ के लिए संकट मोचन धाम में जाने को कहा गया। रामायण पढ़ने के लिए हर अध्यापक  की चार-चार घण्टे की ड्यूटी लगाई गई। आदेश जिले के मुख्य विकास अधिकारी का था। बाद में उन्होंने सफाई दी कि चूंकि अध्यापक रामायण पढ़ने में सक्षम में हैंइसलिए उन्हें भेजा गया लेकिन यह वैकल्पिक था। गोया, रामायण पाठ के लिए शिक्षकों की योग्यता उनकी नियुक्ति के मापदण्डों में शामिल रही हो!

फिरोजाबाद में और भी हास्यास्पद, बल्कि अपमानजनक आदेश जारी हुआ। वहां अध्यापकों से कहा गया कि वे स्कूल परिसरों से पॉलिथीन बीनकर न्याय पंचायत भवन में जमा करें। पॉलिथीन बीनना अच्छा कदम हो सकता है लेकिन इस काम में अध्यापक ही क्यों लगाए जाएं? विभिन्न अध्यापक संघों ने ऐसे फालतूकामों में अध्यापकों को लगाए जाने का विरोध किया और बेसिक शिक्षा मंत्री से शिकायत भी की।

वर्षों से सरकारी अध्यापक जिला प्रशासन के हाथ का खिलौना बने हुए हैं। जनगणना, मतदाता सूचियों और आपदा राहत से सम्बद्ध कई कामों में उन्हें लगाया जाता रहा है। धीरे-धीरे सरकारों की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और विविध सर्वेक्षणों में भी उन्हें लगाया जाने लगा। लाभान्वितों के सत्यापन, कागजी या कम्प्यूटरी कार्यवाही, आदि के अलावा हाल के वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों की ढेरों ‘नकद नारायण’ योजनाओं में उनकी व्यस्तता होने लगी है। ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांस्फर’ यानी लाभार्थियों के खातों में सीधे धन पहुंचाने वाली योजनाओं की डेटा-फीडिंग अध्यापकों के हिस्से आ गई। स्कूलों से जुड़े गैर-अध्यापकी काम तो उनके जिम्मे थे ही।

जिला प्रशासन के अदने अधिकारी भी छोटे-छोटे कामों के लिए अध्यापकों को तलब कर लेते हैं। बाल्मीकि रामायण पाठ या पॉलिथीन बीनने के आदेश इसी प्रवृत्ति के कारण जारी हुए। सिर्फ स्थानीय प्रशासन ही ऐसा नहीं करते, सीबीएसई से सम्बद्ध स्कूलों में भी सरकार की ओर से अध्यापकों के लिए तरह-तरह के आदेश आते रहते हैं। 2014-15 में राष्ट्रीय शैक्षणिक नियोजन एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि देश भर में 224 शैक्षिक दिवसों में से सत्रह दिन अध्यापकों को दूसरे कामों में लगाया जाता है। शिक्षक संघों का कहना है कि यह संख्या वास्तव में कहीं अधिक है।   

कुछ वर्ष पहले सीबीएसई बोर्ड ने सम्बद्ध स्कूलों को एक परिपत्र भेजकर निर्देश दिया था कि परीक्षा, मूल्यांकन, शैक्षिक प्रशिक्षण, आदि के अलावा किसी भी अध्यापक को दूसरे कामों न लगाया जाए, यह सुनिश्चित करें। इस निर्देश का पालन शायद ही हो रहा है। बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए 2009 में बने कानून की धारा 27 कहती है कि दस साल में एक बार होने वाली जनगणना, आपादा राहत और निर्वाचन से जुड़े कामों को छोड़कर अन्य कार्य अध्यापकों से न लिए जाएं। नई बात नहीं कि हमारी सरकारें अपने ही बनाए कानूनों को तोड़ा करती हैं।

बहुतेरे शिक्षक भी पढ़ाना छोड़कर दूसरे कामों में अधिक रुचि लेते हैं। प्रशासनिक कार्यों के बहाने स्कूलों से नदारद रहना या असमय आना-जाना चलता ही रहता है। बच्चों को अच्छी शिक्षा देने में समर्पित अध्यापकों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। कई अध्ययनों में अगर यह पाया जाता है कि कक्षा पांच के बच्चे कक्षा दो का गणित नहीं कर पाते या पाठ नहीं पढ़ पाते तो क्या आश्चर्य!

और, किसी सरकार या शिक्षा मंत्री के लिए यह चिंता का विषय भी नहीं।  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 30 अक्टूबर, 2021)                 

Friday, October 22, 2021

रजत जयंती से अमृत महोत्सव तक

यह उन दिनों की बात है जब आज़ादी की रजत जयंती आने में चंद वर्ष शेष थे। कभी स्कूल से आने पर हम बच्चे पाते कि मुहल्ले में टीकेलगाने वाली टीम हमारी प्रतीक्षा कर रही है। वे टीकेबहुत दर्द करते थे। हमें तरह-तरह से समझाकर टीके लगवाए जाते। कोई हाथ पकड़ता और कोई बाजू में दवा लगाकर किर्रकरने वाली बड़ी-सी सुई चुभाकर घुमा देता। उस जगह एक रक्तिम नन्हा गोला बन जाता जो कई दिन दर्द करता। बाद में हमने जाना वह लखनऊ नगर महापालिका के स्वास्थ्य कर्मियों की टीम होती थी।

उन दिनों लखनऊ छोटा-सा शहर था। नगर निगम नहीं, नगर महापालिका थी। वह भी नगर पालिका से कुछ समय पहले ही प्रोन्नत हुई थी। सामान्य से एक मुहल्ले में जहां हम रहते थे, अक्सर नगर महापालिका के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता विभागों के दल आते। कभी वह सबको टीके लगाते, कभी बुखार, रक्त, आदि की जांच करते थे। साफ-सफाई नियमित होती थी। हफ्ते-दस दिन में नालियों के किनारे, कचरा फेंकने वाली जगहों पर चूने, गैमक्सीन, आदि का छिड़काव होता था। कभी बीमारियां फैलतीं तो कर्मचारी आते और पीठ पर लदी मशीनों से जलभराव की जगहों तथा नालियों में दवा डालते। तीखी बदबू वाली तैलीय दवा होती थी और उसकी गंध कई दिन तक रहती थी।

हमें याद है, अखबार में छपी छोटी-सी शिकायत पर पूरी नगर महापालिका में हल्ला मच जाता था। सम्पादक के नाम पत्रमें भी गंदगी या जल भराव या बीमारी फैलने की शिकायत छप जाने पर तुरंत कार्रवाई होती थी। नगर महापालिका की टीम उसी सुबह साफ-सफाई में जुट जाती। अखबारों का इतना असर होता था और नगर महापालिका का प्रशासन उत्तरदाई और चुस्त लगता था। प्रकाशित शिकायतों की कतरनें सम्बद्ध मंत्री और सचिव की मेजों पर रखी जाती थीं। वे जिम्मेदार अफसरों-कर्मचारिरों से जवाब तलब करते रहते थे।

आज सन 2021 में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। मनाना अगले वर्ष चाहिए था जब स्वतंत्रता मिले 75 वर्ष होंगे। गौरवपूर्ण अवसर है इसलिए एक साल पहले से मना लेने में महोत्सव की प्रसन्नता दोगुनी ही होगी। आज़ादी मिलते समय हमारा देश कहां था और तरक्की करते-करते कहां पहुंच गया। अमृत महोत्सव का यही उद्देश्य होगा। साथ में यह भी कि क्या चुनौतियां हैं जिनसे निपटना है। अच्छा है, यह सब हिसाब-किताब करना।

दो दिन पहले ही अखबार में खबर पढ़ी कि लखनऊ नगर निगम के बाईस वार्डों में मच्छर मार दवा का छिड़काव इसलिए ठप हो गया क्योंकि दवा छिड़कने वाली गाड़ियों को पेट्रोल नहीं मिल पा रहा। पेट्रोल इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि पेट्रोल सप्लाई करने वाले को बकाया भुगतान नहीं हो पाया। राजधानी में डेंगू फैला हुआ है, फैलता जा रहा है। हालात चिंताजनक लगते हैं लेकिन मच्छर मार दवा का छिड़काव भी नगर निगम चुस्ती से नहीं कर पा रहा।  

लखनऊ नगर महापालिका से नगर निगम बने वर्षों हो गए। आज़ादी की रजत जयंती मनाए दशकों हो गए। अमृत महोत्सव के आयोजन चल रहे हैं और नगर निगम का हाल ये खबरें बता ही रही हैं। मीडिया में खबरें हैं। जनता शिकायत करते-करते थक जाती है। कोई पत्ता नहीं खड़कता। क्या कोई सचिव या मंत्री शिकायतें सुनता है? मीडिया की खबरों और जनता शिकायतों को कोई देखता है? मेयर को कभी–कभार शहर का दौरा करते और हालात पर नाराज होते देखा जाता है। मेयर के पास कितने अधिकार हैं?

आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय लखनऊ जितना बड़ा है उसकी आवश्यकता के हिसाब से नगर निगम और उसके संसाधन पर्याप्त हैं क्या? उसकी कार्य संस्कृति आगे बढ़ी है या पिछड़ी है? और, बाकी सरकारी विभाग?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 अक्टूबर, 2021)    

Thursday, October 21, 2021

बेचैन उत्तराखण्ड में फिलहाल सन्नाटा ही है

 उत्तराखंड में इन दिनों दो दृश्य बहुत आम हैं। पहला- किसी भी दिशा में चले जाइए, जगह-जगह लाल अक्षरों में बोर्ड लगे मिलते हैं- प्राइवेट लैंड, नो ट्रेसपासिंगया यह निजी सम्पत्ति है, प्रवेश निषेध।दूसरा, सुदूर पर्यटक स्थलों पर भी सीमेण्ट, सरिया, बजरी, आदि निर्माण सामग्री के ढेर और समीप ही खड़ी हो रहीं कंक्रीट की विशाल इमारतें। तैयार भवनों में लगे होम स्टेऔर रिसॉर्टके नाम पट। दोनों दृश्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

उत्तराखण्ड अकेला ऐसा राज्य है जिसके पास अपनी अत्यंत सीमित कृषि-भूमि एवं ग्रामीणों/ग्राम पंचायतों की सामूहिक भूमि को स्थानीय जनता के हित में बचाए रखने का कोई कानून नहीं है। कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने भू-कानून में ऐसे-ऐसे संशोधन कर दिए हैं कि आज कोई भी व्यक्ति कहीं भी, कितनी ही भूमि क्रय कर सकता है और उसे भू-उपयोग बदलवाने का कष्ट भी नहीं उठाना पड़ता। बाकी सभी हिमालयी राज्यों में ऐसे भू कानून हैं जो किसी बाहरी व्यक्ति को असीमित भूमि खरीदने और भू-उपयोग परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देते। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की सुरक्षित और विकसित खेती, विशेषकर प्रसिद्ध बागवानी का श्रेय उसके सख्त भू-कानून को ही जाता है।

उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद पहली निर्वाचित कांग्रेस सरकार ने नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश की तर्ज़ पर भू- कानून बनाने की पहल की थी लेकिन भू माफिया और स्वार्थी राजनैतिक नेताओं एवं दलालों के दबाव में उसे लचीला बना दिया। बाद की सरकारों ने उस कानून में इस तरह बार-बार संशोधन किए कि राज्य में भूमि की लूट शुरू हो गई। भाजपा की त्रिवेंद्र सिंह रावत वाली सरकार ने तो 2018 में कानून इतना लचीला बना दिया कि हर किसी को हर तरह की असीमित भूमि क्रय करने की छूट मिल गई। अब न केवल सरकारी और बेनाप भूमि धड़ल्ले से बिक रही है, बल्कि कृषि भूमि सहित ग्रामीणों के चरागाह, पनघट, आदि भी बेचे जा रहे हैं। यूपी, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक के उद्योग घरानों ने ही नहीं, धनाढ्य लोगों ने बड़ी-बड़ी जमीनें खरीद ली हैं। इन्हीं जमीनों पर  प्राइवेट लैंड, नो ट्रेसपासिंगके बोर्ड लगे हैं। रिसॉर्ट, होटल और होम-स्टे बन गए हैं।  अनेक जगह तार-बाड़ से घेर दी गई जमीनों के कारण ग्रामीणॉं के आवागमन के मार्ग, पनघट और मंदिर के रास्ते तक बंद हो गए हैं। 

पर्यटन को उद्योग बनाने की सरकारी नीति के तहत बढ़ते होटल और होम स्टेमें स्थानीय लोगों की भागीदारी  अत्यंत कम है। खेती और फलोत्पादन सब चौपट हो गया है। जहां कहीं कुछ बाग बचे भी हैं, उन पर बंदरों, सुअरों और से ही जैसे वनचरों का हमला हो रहा है। कुछ हद तक अब भी आबाद गांवों में इसी कारण लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। वे बाजार से मोल लेकर गुजारा करते हुए गांव में किसी तरह टिके हैं। रामगढ़, हर्षिल और खिर्सू जैसी फल पट्टियों में फलोप्तादन बहुत सीमित रह गया है। किसान सम्स्याओं से इतने त्रस्त हैं कि पिछले मास देहरादून में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का हर्षिल के किसानों ने बहिष्कार किया।  पिछले कुछ वर्षों में अच्छी-भली नौकरी छोड़कर अपने गांव लौटे कुछ युवाओं ने खेती और फलोत्पादन  में नए और स्वागत योग्य प्रयोग किए हैं लेकिन उन्हें भी कई सम्स्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उत्तराखंड का अपनासेब भी बाजार में हिमाचल सेबके नाम से बिकता है। सरकार का इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं है।

पहले से ही पलायन की विकट समस्या से जूझ रहा भाजपा सरकार के भू-कानून से और तेजी से उजड़ रहा है। रहे-बचे ग्रामीण भी जमीनें बेच कर भाग रहे हैं या निकट ही बन रहे होटलों, रिसॉर्टों और होम स्टे में नौकरीकर रहे हैं। कोरोना संकट से उपजी वर्क फ्रॉम होमकी कार्य शैली में घर बैठे-बैठे ऊब गए युवाओं ने उत्तराखण्ड को वर्क डेस्टीनेशनबना लिया है। लॉकडाउनसे मुक्त हुआ शहरी मध्य वर्ग भी राहत के लिए यहां रमणीक स्थलों का रुख कर रहा है। प्रत्येक शनिवार-रविवार को नैनीताल-मसूरी ही नहीं, रामगढ़, मुक्तेशवर, कौसानी, चम्बा, धनौल्टी, चकराता जैसी जगहों तक भी पर्यटक वाहनों का लम्बा रेला लग रहा है। पर्यटन को उद्योग का दर्ज़ादेने वाली सरकारों ने राज्य की पर्यटन क्षमताओं का जनहित में उपयोग नहीं किया। न ही प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा देते हुए प्रकृति एवं स्थानीय वन्यता का सम्मान किया। उलटे, होटल, रिसॉर्ट, होम स्टे, आदि बाहरी धनाढ्यों के हाथ चले गए हैं। बढ़ते पर्यटन में स्थानीय विशेषताओं का कोई स्थान नहीं है। पर्यटन उद्योगकी जिस आर्थिकी से स्थानीय जनता को लाभ मिलना चाहिए था, वह उसे उजाड़कर अमीरों को और अमीर बना रही है। 

पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड का सचेत समाज, आंदोलनकारी संगठन और हाशिए पर पड़े स्थानीय राजनैतिक दल, सभी राज्य में सख्त भू-कानून बनाने की मांग करने लगे हैं। वैसे, यह आश्चर्य की बात है कि पृथक राज्य के लिए बड़ी लड़ाई लड़ने वाली और लम्बे जन-आंदोलनों के लिए ख्यात पहाड़ी जनता ने राज्य बनने के साथ ही जन हितैषी भू कानून के लिए राजनैतिक दलों पर पर्याप्त दवाब नहीं डाला। खैर, आजकल यह उत्तराखण्ड में सबसे गर्म मुद्दा है। भाजपा ने राज्य में अपनी सरकार का मुख्यमंत्री बदला तो नए नेता पुष्कर सिंह धामी ने जनता का मन समझते हुए भू-कानून की समीक्षा करने की बात कह डाली, यद्यपि उस दिशा में कुछ सकारात्मक होने के संकेत नहीं हैं।

हरद्वार और ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानीजिलों को छोड़ दें तो पूरे उत्तराखंड में मात्र तीन से चार फीसदी कृषि योग्य भूमि है। उसमें भी 'उपराऊं' यानी असिंचित भूमि काफी है। अधिकतर गांवों में खेती लाभकारी नहीं रही। उस भूमि का किस तरह फल, सब्जी, मोटे अनाजों, जड़ी-बूटी, आदि उत्पादन के लिए उपयोग करके लाभकारी  बनाया जाए, यह वैज्ञाबिक सोच न उत्तर प्रदेश में रहते पनपा और न ही उत्तराखण्ड की सरकारें इस दिशा में काम कर सकीं। अलाभकारी खेती के कारण ही उत्तराखंड से पलयान होता रहा। अब उत्तराखण्ड के गांव भुतहा होते जा रहे हैं। वर्तमान भाजपा सरकार एक तरफ 'रिवर्स पलायन' का शिगूफा छोड़ती रही और दूसरी तरफ जमीनें लुटाती रही।

सख्त भू-कानून की तेज होती मांग के बावजूद आसन्न चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बनेगा, इसकी सम्भावना नहीं के बराबर है। राज्य में दो ही बड़े राजनैतिक दल हैं- कांग्रेस और भाजपा, जो बारी-बारी सत्ता में आते रहे हैं। उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसी स्थानीय जड़ों वाली पार्टी कभी जनता के सपनों के अनुरूप न बन सकी, न ही कोई बेहतर स्थानीय स्वप्न बुन सकी। आंदोलनकारी सामाजिक संगठन बहुत देर से राजनैतिक दलों में बदले अवश्य लेकिन आंदोलनओं में जनता का भारी समर्थन पाने के बावजूद उसे राजनैतिक जनाधार में नहीं बदल सके। वाम दल, विशेष रूप से यहां सक्रिय माकपा, कोई विश्वसनीय विकल्प पेश नहीं कर सके। इस बार आम आदमी पार्टी ने अपनी दावेदारी ठोककर हलचल मचाई है लेकिन वह कोई विकल्प बन सकेगी, इसमें पर्याप्त संदेह बना हुआ है।

 उत्तराखण्ड में सत्ता की लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है। दोनों ही दलों का दामन भू-कानून के मामले में काला है, भाजपा का कुछ अधिक ही। बाकी सभी संगठन और दल स्थानीय जनता के हित में नए और सख्त भू-कानून की मांग कर रहे हैं। जमीनों की लूट के विरुद्ध हमेशा लड़ने वाली उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी त्रिवेंद्र सरकार के 2018 के भू-कानून को रद्द करने के लिए जनजागरण में लगी है। उत्तराखण्ड लोकवाहिनी ने भी भू कानून को मुद्दा बनाया है। माकपा भी इसके खिलाफ मोर्चा बांधे हैं लेकिन इन सभी का बड़ा जनाधार नहीं बन पाया है। ये दल जनता का राजनैतिक भरोसा नहीं कमा पाए हैं। इसलिए जनता के हित में एक बेहतर भू कानून की मांग प्रमुख चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा। मुख्यमंत्री धामी भी अपनी शुरुआती घोषणा के बाद अब मौन हो गए हैं।

भाजपा का ध्यान धार्मिक ध्रुवीकरण पर ही है। जमीन के मुद्दे पर वह मौन है लेकिन यह प्रचारित अवश्य किया जा रहा है कि बाहर से मुसलमान यहां आ-आकर काबिज होते जा रहे हैं। अपने एकमात्र सशक्त प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को वह दल-बदल कराकर कमजोर करने में लगी है। जनता की असल समस्याएं हाशिए पर पड़ी हैं। जन आंदोलनों की भूमि में बेचैनी तो है लेकिन सन्नाटा गहरा है।  (फोटो नेट से साभार)            

(नवजीवन साप्ताहिक,  24 अक्टूबर, 2021)

 

Tuesday, October 19, 2021

नौटंकी का नागर रूप विकसित किया उर्मिल थपलियाल ने

 नटअरी मेरी नटखटी चटपटी नटी। क्या बात है। आज बहुत खुश हो।

नटीक्यूं, तो क्या केजरीवाल की तरह मुंह लटकाये रहूं।

नटनहीं..नहीं खुश रहो, आबाद रहो, चाहे यहां रहो या पुराने फैजाबाद रहो।
नटीपुराना फैजाबाद यानि आज की अयोध्या।
नटअरी अयोध्या तो राम की है री।
नटीराम भी तो हमारे हैं।
नटकभी लोहियावादियों के थे। रामायण मेलों की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी।
नटीऔर क्या। जय भीम का नारा भी तो महाभारत से तिड़ी किया गया है।
नटमगर हुआ क्या। रामराज तो आया नहीं।
नटीअरे जो गन्ने का बकाया न दे, चीनी मिल उसी को तो कहते हैं।
नटबिल्कुल यही। चुनाव के दौरान जो मूर्ख नहीं बनते वो समय और अवसर दोनों गवां देते हैं।
नटीहां, शुभ मुहूरत निकल जाने के बाद पंडित क्यूं नहीं बदला जा सकता।
नटवाकई सही है। जिनके घर भगवान की मूर्ति नहीं मिलती वो सिलबट्टे से काम चला लेते हैं।
नटीदारू अगर चरणामृत की तरह पियो तो सुना पुण्य मिटता है।
नटमैं तो पूरी बोतल ही मुंह से लगा लेता हूं। सीधे गोमुख गंगोत्री जाओ। हरिद्वार में वो क्या धरा है।
नटीअरे अब तो त्योहारों के दिन आ रहे हैं।
नटमगर त्योहार तो अब सिर्फ कलेन्डर पर भले लगते हैं।
नटीहां भई, दशहरे के दिन भी राम को कई गज की दूरी से रावण को मारना पड़ेगा।
नटत्योहारों के बाजार तो अभी से लगने लगे हैं।
नटीदीन ईमान की ढेरियां बिकाऊ हैं
नटबिग बाजारों का हाल ये है कि कही महंगाई मुंह नहीं दिखा पा रही है।
नटीमस्ती बड़ी सस्ती हो गयी है।
नटमंत्री पद देखकर जिस नेता की लार न टपके।
नटीसमझो लाइलाज है।
नटऔर इच्छा मृत्यु चाहने लगा है।
नटीवाह, वाह से तो वही बात हुई कि बहू की गोद भराई तो हो गयी।
नटपर प्रेगनेन्सी टेस्ट अभी बाकी है।
नटीहे नट, मैं तेरे मुंह में रखा बताशा हूं तो
नटमैं खट्टा मीठा जलजीरा हूं यार।
(नक्कारा फटे हुए दूध की तरह बजाता है।)


यह उर्मिल कुमार थपलियाल की सप्ताह की नौटंकीका एक नमूना है। जुलाई 2021 में उनके निधन के साथ ही नागर नौटंकी के इस संस्करण पर पर्दा गिर गया लेकिन वे नौटंकी में आधुनिक प्रयोगों के लिए सदा याद किए जाएंगे। हिंदी साहित्य, विशेषकर व्यंग्य लेखन और रंगमंच में अपने योगदान के लिए भी उन्हें भूला नहीं जा सकेगा लेकिन नौटंकी की जब-जब चर्चा होगी, उर्मिल थपलियाल का नाम अनिवार्य रूप से लिया जाता रहेगा।

1978 के आस-पास उन्होंने लखनऊ के स्वतंत्र भारतअखबार में सप्ताह की नौटंकीनाम से सप्ताहिक  स्तम्भ लिखना शुरू किया था जो बीस साल से अधिक समय तक प्रकाशित होता रहा। बीच में कुछ समय यह स्तम्भ आज की नौटंकीनाम से दैनिक भी प्रकाशित हुआ। बाद में उनका यह कॉलम कई नामों से कई रूपों में विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपता रहा, कहीं साप्ताहिक, कहीं पाक्षिक और कहीं मासिक। अपने अंतिम दिनों तक वे इसे लिखते रहे थे।

नौटंकी उत्तर भारत की एक प्राचीन लोक नाट्य-नृत्य-गायन शैली है जिसमें अपने समय की कथाएं कभी गम्भीरता से तो कभी हास्य-व्यंग्य रूप में नक्कारे (नगाड़े) की धुन में गाई जाती रही हैं। इसे एक तरह का स्वांग भी कह सकते हैं या स्वांग से विकसित एक लोक विधा। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण समाजों में यह खूब लोकप्रिय थी। अन्य लोक विधाओं की तरह धीरे-धीरे इसका भी लोप होने लगा है। इसके निपुण कलाकार अब दुर्लभ हैं। 1974-75 में उर्मिल कुमार थपलियाल ने देहरादून से लखनऊ आकर गढ़वाल के लोक नृत्य-गीतों की प्रस्तुतियां दीं। फिर वे दर्पण संस्था से जुड़े और अभिनय एवं निर्देशन में नए प्रयोग करने लगे। तभी उनका परिचय नौटंकी से हुआ। उर्मिल मूलत:  कलाकार थे, लोक संगीत में उनकी गहरी रुचि थी और व्यंग्य उनका प्रिय माध्यम था। सो, नौटंकी शैली ने उन्हें बहुत आकर्षित किया। उन्होंने अपने निर्देशित नाटकों में नौटंकी का प्रयोग करना शुरू किया। फिर नौटंकी शैली को अपना कर सामयिक राजनैतिक-सामाजिक स्थितियों पर कटाक्ष लिखने लगे। सप्ताह की नौटंकीइसी प्रयोग का परिणाम थी, जो बहुत लोकप्रिय हुई।

नौटंकी उर्मिल थपलियाल को इतनी भाई कि उन्होंने इसके शास्त्रीय पक्ष का विधिवत अध्ययन भी किया। कहा जा सकता है कि उन्होंने लुप्तप्राय नौटंकी विधा को पुनर्जीवित करने का महत्त्वपूर्ण काम किया। उनका लिखा-निर्देशित किया बहुप्रशंसित नाटक हरिश्चन्नर की लड़ाईपूरी तरह नौटंकी पर आधारित है, जो अपनी हर प्रस्तुति में नया होता रहता। तात्कालिक घटनाओं को नाटक में पिरो देने में वे उस्ताद थे। सुबह के अखबारों की सुर्खियां शाम की नाट्य प्रस्तुति में बुन लेते थे। नौटंकी की जानी-मानी अभिनेत्री एवं गायिका गुलाब बाई के जीवन पर एक नाटक भी उन्होंने लिखा और मंचित किया। अपने लोक-नाट्य-प्रयोगों के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि गांव का आदमी अगर मुर्गे की बांग पर जागता है तो शहर के आदमी को अलार्मचाहिए। मैंने अपनी नौटंकी में अलार्म घड़ी में मुर्गे की बांग फिट करने की कोशिश की है। यही उनका नौटंकी को  नागर रूप देने का प्रयोग था।

अपने नौटंकी स्तम्भ में वे समसामयिक राजनैतिक विषयों पर खूब चुटकी लिया करते थे। एक बार उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर कोई तीखी चुटकी ले ली। मुलायम नाराज हुए या उनका कोई चमचा अफसर, पता नहीं लेकिन स्वतंत्र भारतके तत्कालीन प्रधान सम्पादक घनश्याम पंकज ने नौटंकीकॉलम बंद करवा दिया। बाद में  हमने उसे फिर शुरू कराया। हिंदुस्तानमें भी हमने उनसे नश्तरकॉलम लिखवाना शुरू किया था। नट-नटी संवाद और सामयिक घटनाओं की तर्ज़ पर बजता उनका नक्कारा (नगाड़ा) अखबारों-पत्रिकाओं में सबसे पहले पढ़ा जाता था।

राजेश्वर से सोहन लाल और उर्मिल थपलियाल तक

ग्राम ढौंड, मासों (गढ़वाल) निवासी गुणानंद थपलियाल पहली पत्नी सत्येश्वरी एक बेटे को जन्म देकर परलोक सिधार गई थीं। माता की स्मृति में उस बेटे का नाम रखा गया सत्येश्वर। दूसरी पत्नी सर्वेश्वरी भी एक बेटा जनने के बाद काल-कवलित हो गईं। उस बेटे का नाम रखा गया सर्वेश्वर। गुणानंद जी ने तीसरा ब्याह किया राजेश्वरी से। राजेश्वरी भी पहले प्रसव के कुछ दिन बाद जाती रहीं। जो अबोध बालक वे छोड़ गईं थीं उसका नाम तय हुआ- राजेश्वर। वह पांच या छह वर्ष का था तो पिता गुणानंद जी भी चल बसे। अनाथ हो गए बालक राजेश्वर को उसकी विधवा बुआ ने पाला। बुआ को ही वह मां कहता था।

देहरादून में स्कूल जाने पर राजेश्वर ने स्वयं अपना नाम लिखवाया- सोहनलाल। इस नाम का आकर्षण यह था कि उसने सोहनलाल नाम के एक व्यक्ति को जयकारा लगाते जुलूस के बीच फूलमालाओं से लदे हुए शान से जाते देखा था। बाद में पता चला कि वह आर्य समाज के नेता थे। तो, सोहनलाल ही उसका आधिकारिक नाम बना- सोहनलाल थपलियाल। थोड़ा बड़ा होने पर किशोर सोहनलाल ने गांव के घर में पड़े एक पुराने बक्से को उलटा-पुलटा तो उसमें एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें दामोदर चंदोला (जो उसके मामा लगते थे) ने पिता गुणानंद को श्रावण संक्रांति के दिन पुत्र-जन्म की बधाई लिखी थी। पोस्ट कार्ड सन्‍ 1941 का था। सोहनलाल ने इसे ही अपना जन्म दिन और वर्ष मान लिया।  

सोहनलाल की स्कूली शिक्षा देहरादून में हुई- लक्ष्मण विद्यालय, लक्खीबाग और इस्लामिया स्कूल (आज का गांधी विद्यालय) में। 1957 में हाईस्कूल पास किया। देहरादून में ही सोहन लाल में भविष्य के उर्मिल कुमार थपलियाल बनने के बीज पड़े और अंकुर फूटे, जिसे कहानी और कविताओं से शुरू करके नाटककार, रंग अभिनेता-निर्देशक, लोक संगीत मर्मज्ञ और नागर नौटंकी को पुनर्स्थापित करने एवं नया रूप देने वाला चर्चित नाम बनना था। लेकिन स्कूली दिनों तो सोहनलाल बहुत शर्मीला, संकोची और कुण्ठाग्रस्त था। उस अनाथ बालक पर सब दया दिखाते थे। इससे बालक सोहनलाल में हीन भावना भर गई। वह अपने को अत्यंत दीन-हीन समझने लगा। लोगों के सामने ठीक से बोल नहीं पाता था। नतीज़ा यह हुआ कि वह हकलाने लगा। इससे वह और भी कुण्ठाग्रस्त और अकेला रहने लगा।

कोई भीतरी प्रेरणा ही रही होगी (उर्मिल जी बाद में इसे ईश्वरीय शक्ति कहते थे) कि हकलाना कम करने का उपाय उसने स्वयं ही ढूंढ लिया। जहां वह रहता था, फालतू लाइन के पास एक जंगल था। खाली समय में सब लड़के वहीं जाकर खेलते-पढ़ते थे। सोहनलाल जंगल में अकेले दूर जाकर पेड़ों से खूब बात करता। उसे लगता कि पेड़ भी उससे बात करते हैं। इससे उसका हकलाना कम होने लगा। बाद में उस पर उसने इतना नियंत्रण पा लिया था कि गाना गाने लगा, रामलीला में भाग लेने लगा और कालांतर में रेडियो पर समाचार वाचन भी सहजता से कर सका।    

रामलीला में अभिनय से सीखा कायांतरण

रामलीला में भाग लेने से सोहनलाल का व्यक्तित्व बहुत निखरा और लोगों ने उसकी प्रतिभा पहचानी।  बचपन में बुआ का उसे खिलाते-पिलाते और काम करते-करते गुनगुनाते रहना उसके भीतर किस कदर संगीत भर गया था, यह 1957 में चुक्खू की रामलीला में सीता की भूमिका अदा करते हुए सामने आया। रामलीला की तालीम कराने वाले सुमाड़ी के सदानंद काला ने सोहनलाल की संगीत-प्रतिभा खूब पहचानी। सीता का उसका अदा किया रोल इतना पसंद किया गया कि देहरादून की दूसरी रामलीला में भी, जो सर्वे ऑफ इण्डिया, हाथी बड़कला में होती थी, उसे उसी रात एक दृश्य में सीता बनने जाना पड़ता था। सीता हरण का प्रसंग मंचित करते समय सोहनलाल को चुक्खू से हाथी बड़कला ले जाया जाता था। रामलीला में अभिनय को उर्मिल अपना कायांतरण का प्रशिक्षण मानते थे, जिसने उन्हें भविष्य में नाटकों में अभिनय और निर्देशन में बड़ी मदद की। बुआ के कण्ठ से सुनी लोक धुनें उनके मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठी रहीं कि वर्षों बाद जब अपने चचेरे दादा भवानी दत्त थपलियाल का सन 1911 में लिखा गढ़वाली नाटक प्रहलादउन्होंने मंचित किया तो वही धुनें इस्तेमाल कीं। वे बताते थे कि बुआ को पूरा प्रह्लादनाटक कंठस्थ था। भवानी दत्त जी बुआ के चाचा होते थे।

1962 में बीए करने के दौरान और उसके बाद में हिमाचल टाइम्समें काम करते हुए सोहनलाल ने कहानियां लिखीं तथाउर्मिलउपनाम रखकर कविताएं लिखीं। उर्मिलउपनाम रखने की भी एक कहानी है। इण्टर पास किया ही था कि एक लड़की से प्रेम कर बैठे। बड़े घर की लड़की थी। नाम था उमा। एकतरफा ही रहा उनका यह पहला प्रेम। उसी की याद में पहले अपना नाम रखा उर्मिलेशजिसे फिर उर्मिलबना दिया। बाद में उर्मिल ही उनका पहला नाम बन गया। रेडियो पर जब वे कहते- अब आप सोहनलाल थपलियाल से समाचार सुनिएतो शुरू-शुरू में सबको आश्चर्य होता था।

बहरहाल, देहरादून में उर्मिल की मुलाकातें परिपूर्णानंद पैन्यूली, दीवान सिंह कुमैयां’, जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, अल्मोड़ा से अक्सर आने वाले मोहन उप्रेती और ब्रह्मदेव जी के यहां आने वाले धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, शशिप्रभा, आदि से हुईं। गढ़वालीपत्र के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को दूर से देखते थे लेकिन उनसे मिलने और सीखने की तमीज तब नहीं आई थी। पढ़ने का शौक बढ़ गया था। दर्शन लाल चौराहा पर बहुत पुराना पुस्तकालय था- खुशीराम लाइब्रेरी। वहीं बैठे पढ़ते रहते। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, आदि देश भर की पत्रिकाएं, किताबें और जासूसी उपन्यास तक। उर्दू की कुछ रचनाएं अर्थ देख-देख कर पढ़ीं लेकिन अंग्रेजी की पुस्तकें नहीं पढ़ पाए। देहरादून में एक कहानीकार हुए होशियार सिंह चौहान। वे एक कहानी प्रतियोगिता कराते थे। उस प्रतियोगिता के लिए कहानी लिखी और धरातल टूट गयानाम से और दूसरा पुरस्कार पाया।

उस दौरान टाउन हाल में खूब सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। वहीं उर्मिल ने पहली बार पूर्ण कालिक नाटकों के मंचन देखे। पारसी रंगमंच के प्रभाव वाले जागो हुआ सबेरा,’ ‘सिकंदर और पोरसजैसे उन नाट्य प्रदर्शनों का उन पर ऐसा जादू चढ़ा कि उसी तर्ज़ पर अनारकलीनाटक लिख डाला। होली की रात फालतू लाइन के सांस्कृतिक पण्डाल में उसे स्वयं ही मोनो प्ले के रूप में मंचित कर डाला। अकबर, सलीम, अनारकली, सारी भूमिकाएं अकेले निभाईं। उनका सिक्का जमने लगा। रोटरी क्लब, लायंस क्लब, आदि से बुलावे आने लगे। यहां से रंग-अभिनेता, लेखक और निर्देशक उर्मिल थपलियाल की जो यात्रा यात्रा शुरू हुई वह अनेक पड़ाव पार करते हुए जुलाई 2021 में उनके निधन से कुछ मास पहले तक अबाध जारी रही।

उसी बीच देहरादून से प्रकाशित अंग्रेजी पत्र हिमाचल टाइम्सका हिंदी संस्करण निकला तो उन्हें उसमें काम मिल गया। एक सौ रु महीने के वेतन में से अस्सी रु बुआ को देने लगे जो गहने बेचकर कर घर चलाती थी। बीस रु के जेब खर्च से सिगरेट पीते, कवि सम्मेलनों में जाते और अपने को कुछ खाससमझने लगे थे। 1962 में चीनी आक्रमण पर लिखी कविता ने उन्हें मंचीय कवि बना दिया। फिर तो नीरज, शेरजंग गर्ग, देवराज दिनेश, मंगला प्रसाद नौटियाल, आदि कवियों के साथ कवि सम्मेलनों में जाने लगे। बताते थे कि उन दिनों मैं थोड़ा उद्दंड भी हो गया था। एक बार नीरज ने मंच से जो कविता (ज़िंदगी वेद थी ज़िल्द बंधाने में कटी) सुनाई, मैंने वहीं पर उसकी पैरोडी बनाकर मंच से सुना दी थी। उसी दौरान दीवान सिंह कुमैयां (महशूर फोटोग्राफर) जीत सिंह नेगी (गीतकार) केशव अनुरागी (गायक एवं ढोल सागर के अध्येता) के साथ शामों को बैठकी होने लगी। कभी अल्मोड़ा से मोहन उप्रेती आते तो वे भी शामिल होते। यह वह दौर था जब उर्मिल ने हर विधा में हाथ आजमाया। नई कहानी,’ ‘सारिका,’ और 'धर्मयुग' जैसी पत्रिकाओं में कहानियां छपीं। शंकर्स वीकलीमें व्यंग्य प्रकाशित हुए किंतु किसी एक विधा में अधिक समय टिके नहीं, यद्यपि व्यंग्य की धार बराबर साथ बनी रही। 

देहरादून से लखनऊ 

1964 में लखनऊ आने और अगले साल आकाशवाणी में समाचार वाचक बनने के बाद उनकी रुचि रंगमंच की तरफ बढ़ने लगी। उन्होंने हवा महलके लिए नाटक लिखे और निर्देशित भी किए। गढ़वाली लोक संगीत और लोक नृत्य-नाट्य आधारित फ्यूलीं और रामी’, ‘मोती ढांगाऔर संग्राम बुढ्या रमछमजैसी प्रस्तुतियां लखनऊ के दर्शकों के समक्ष दीं। 1972 उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ जब प्रो सत्यमूर्ति, डॉ अनिल रस्तोगी, आदि के साथ लखनऊ में दर्पणनाट्य संस्था की स्थापना की। उसके बाद वे पूरी तरह रंगमंच को समर्पित हो गए। उनके नाटकों की संख्या नब्बे के करीब है।  'हरिश्चन्नर की लड़ाई' के देश भर में सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं।

अपनी किशोरावस्था के दिनों से ही मैं उर्मिल जी को जानता था। उनसे आकाशवाणी में अक्सर भेंट होती। मैं उत्तरायणमें वार्ता पढ़ने जाता तो वे कार्यक्रम के बीच पांच मिनट के लिए समाचार पढ़ने आते थे। उन्हें नाटकों में अभिनय करते देखता और उनके निर्देशित नाटक भी। जब पता चला कि उर्मिल जी एक जमाने में कहानियां लिखते थे तो मैं अपनी कहानियां उन्हें दिखाने और उनसे सीखने उनके घर पहुंच जाता था। वे हमेशा 'ज्वेशि ज्यू' कहकर मुस्कराते हुए स्वागत करते।

रंगमंच के अलावा उनका दूसरा शौक लिखना-पढ़ना था। खूब पढ़ते थे और देश-दुनिया के समाचारों से अद्यतन रहते थे। विभिन्न अखबारों-पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य, नौटंकी और कवित्त ताज़ा घटनाओं और शीर्षकों पर ही आधारित होते थे। उनका हास्य-व्यंग्य बोध कई बार चकित करता था। उनकी कोई राजनैतिक या वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी। इसलिए वे किसी को भी अपने व्यंग्य-वाणों से बख्शते नहीं थे। उनकी राजनैतिक-सामाजिक चुटकियां अंतिम दिनों तक विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। किसी भी अखबार और पत्रिका में लिखने का अनुरोध वे टालते नहीं थे और कभी अपना कॉलम लिखने में विलम्ब भी नहीं किया। बाहर जाते तो अग्रिम लिखकर दे जाते। खूब लिखने के बावजूद उनमें दोहराव नहीं होता था। कोरोना काल में उन्होंने फेसबुक को माध्यम बनाकर रंगमंच की बारीकियों पर व्याख्यान भी पेश किए। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय से लोक रंगमंच में गति व लयविषय पर पीएचडी पूरी की थी। नौटंकी की मूल धुनों एवं उसके वाद्यों की स्वर लिपियां बनाने में भी वे लगे रहते थे। उनकी सक्रियता सुखद और प्रेरणादायक थी।

उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी, हिंदी संस्थान और देश भर की विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित-पुरस्कृत किया। नौटंकी, नाट्य कार्यशालाओं, व्याख्यानों एवं मंचनों के लिए वे हाल-हाल तक देश भर का दौरा करते रहते थे। बड़े सरल, खुशदिल और यारबाश इनसान थे। पहाड़ीपन उनकी बोली-बानी और व्यक्तित्व में छाया रहता था।

मेरी उर्मिल जी से अक्सर बातचीत होती थी। मेरे सम्पादक रहते वे सुबह-सुबह अखबार पढ़कर मजेदार टिप्पणियां करते। कोरोना की आफत शुरू होने से पहले तक उनसे मिलना होता रहता था। कभी मैं ही घर चला जाता। उसी दौरान मेरे बार-बार आग्रह करने पर उनके शुरुआती जीवन की परतें खुलीं। महामारी के चरम दौर में जब उनकी बीमारी की खबर मिली तब मैं स्वयं कोविड के हमले से जूझ रहा था। पता चला कि वे लिवर में कैंसर लिए पहले अस्पताल, फिर घर में पड़े थे। डॉक्टरों के अनुसार रोग असाध्य हो गया था। बड-आ मलाल रहा कि तब फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी। 

बीस जुलाई को लखनऊ के भैंसाकुंड श्मशान घाट पर उर्मिल जी को राजकीय सम्मान के साथ विदा किया गया। उन्हें चुपचाप पड़ा देखकर मैं सोच रहा था  कि अभी उठकर हंसते हुए पूछने लगेंगे- ' ज्वेशि ज्यू, ये राजकीय सम्मान में क्या होने वाला ठैरा?' अपना नौटंकीस्तम्भ भी वे इसी पर लिखते जिसमें उनके नट-नटी सिपाहियों की झुकी बंदूकों पर चुटीली नोंक-झोंक करते और नक्कारा श्मशान में बिगुल की तरह बजता। लेकिन वे तो इस जगत की सारी नौटंकी और अपना प्रिय रंगमंच छोड़ कर किसी और ही दुनिया को कूच कर चुके थे।

(उत्तराखंड महापरिषद की स्मारिका-2021 के लिए)


 

 

   

      

 

       

Friday, October 01, 2021

ए मछलियो, जाओ, गंगा को प्रदूषण मुक्त करो!

 

बच्चो, क्या तुम्हें पता है कि गंगा नदी में मछलियां घटते-घटते बहुत कम रह गई हैं।

बाकी मछलियां कहां गई, सर?’

बढ़ते प्रदूषण ने उन्हें मार डाला।

अब क्या करेंगे, सर?’

गंगा में खूब सारी मछलियां डाल देंगे।

सर, वे भी प्रदूषण से मर गईं तो?’

बच्चों के इस अत्यंत स्वाभाविक सवाल पर सरचुप हो गए लेकिन सरकारी योजना तो बन चुकी है। बल्कि, शीघ्र अमल में आने वाली है। उत्तर प्रदेश सरकार ने तय किया है कि गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए उसमें पंद्रह लाख मछलियां डाली जाएंगी। ये मछलियां पानी में बढ़ी नाइट्रोजन और दूसरे प्रदूषण को खत्म कर देंगी। गंगा साफ हो जाएगी!

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के अभियान चलते हुए बीसियों साल हो गए। अरबों रु की योजनाएं गंगा में बह गईं। गंगा दिन पर दिन और भी प्रदूषित होती जा रही है। कुम्भ जैसे महत्वपूर्ण स्नान पर्वों के अवसर पर गंगा में साफ पानी छोड़ना पड़ता है ताकि वह डुबकी लगाने लायक हो सके। पानी में अक्सर इतना प्रदूषण हो जाता है कि मछलियों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती। लाखों की संख्या में वे मरकर पानी पर उतराने लगती हैं। सरकार का ही आंकड़ा है कि पिछले बीस साल से लगातार मछलियां मर रही हैं और अब सिर्फ बीस प्रतिशत बची हैं।

तो, क्या लाखों मछलियां गंगा में छोड़ने से वह प्रदूषण मुक्त हो जाएगी? क्या इस पर विचार किया गया कि आखिर मछलियां कम क्यों होती गईं? मछली पकड़ने से तो इतनी कम नहीं हो सकतीं! और, मछलियां ही सारा प्रदूषण दूर कर देतीं तो वे मरती ही क्यों?

स्पष्ट है कि गंगा (बाकी नदियां भी) के प्रदूषण के प्रमुख कारणों से आंखें मूंदी जा रही हैं। पिछली तमाम योजनाओं की तरह एक और खानापूरी की जा रही है। कभी कछुए छोड़ेंगे, कभी मछलियां और कभी उनकी सतह की काई व खर-पतवार हटाने का अभियान चलाएंगे लेकिन उन कारणों को दूर करने का प्रयास नहीं करेंगे जिनसे नदियों में इतना जहर जा रहा है कि मछलियां ही नहीं, नदी एवं उसकी पूरी पारिस्थितिकी मर रही है।

क्या यह तथ्य सरकारों से छुपा है कि कितने कारखाने अपना जहरीला उत्सर्जन गंगा नदी में डाल रहे हैं? कितने शहरों के नाले और सीवर नदी में जहर घोल रहे हैं? कितने शहरों-कस्बों में भारी अतिक्रमण से नदियों का जल-ग्रहण क्षेत्र कंक्रीट से पाट दिया गया है? हिमालय से जो गंगा निकलती है, उसमें कितने बांध अवैज्ञानिक तरीके से बना दिए गए हैं? साल-दर-साल कितना मलबा नदियों में डाला जा रहा है? सबको सब पता है। सीवर, नाले और कारखानों के गंदे पानी को साफ करके नदी में डालने के कड़े निर्देश सरकार की नाक के नीचे हवा में उड़ाए जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पालन करने का स्वांग किया जाता है।

और, अब जिम्मेदारी मछलियों को दी जा रही है कि जाओ और गंगा को साफ करो। मछलियों, कछुओं, आदि जल-जंतुओं ने जब तक सम्भव था नदियों को साफ रखा। मनुष्य के विकासने नहीं माना लेकिन  जल-जंतु मानते रहे कि स्वच्छ नदी उनके अस्तित्व का सवाल है। मनुष्य की अमानवीय और अवैज्ञानिक व्यवस्था ने इतनी अति कर दी के ये प्राणी लड़ते-लड़ते मरने लगे। ये अतियां न होतीं तो नदियों की पारिस्थितिकी उसे स्वयं ही साफ करती चलती। हमने नदी का समूचा पर्यावरण नष्ट कर दिया।

मछलियां डालने की नहीं, नदी को उसका स्वाभाविक जीवन लौटाने की आवश्यकता है। मछलियां और अन्य जल-जीवन उसमें अपने आप पनपने लगेगा। अन्यथा, पंद्रह लाख नहीं, पंद्रह करोड़ मछलियां डाल दीजिए, वे कितना नाइट्रोजन साफ करेंगी कब तक अपनी मनाएंगी खैर मनाएंगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 अक्टूबर, 2021)