Saturday, December 26, 2020

बुरा साल बीतने पर खुश होने के कारण हैं क्या?

तो, सन् 2020 विदा हो रहा है। कोविड-19 महामारी ने इसे बहुत बुरा वर्ष बना दिया। कोरोना संक्रमण और उससे निपटने में हुई ज़्यादातियों की कड़वी यादों ने सब कुछ पीछे धकेल दिया। बेहिसाब लोग बेरोजगार हुए, कई जानें गईं, युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक जिन्होंने अभी समाज को काफी कुछ देना था। मृत्यु एक दिन आनी होती है और उसका एक बहाना भी होता है लेकिन कोविड-19 से मौतें इसलिए बहुत दर्दनाक हुईं कि अंतिम समय में अपना परिवार और बहुत करीबी भी पास नहीं आ सके। मरीज बिल्कुल अकेला, जिसकी न कराह कोई सुनने वाला, न ढाढ़स बंधाने के लिए कोई सिर पर हाथ रखने वाला। अंतिम दर्शन भी कोई नहीं कर सकता। मृत्यु से कहीं अधिक यह अकेलापन डराने वाला है। क्या 2020 बीतने के साथ यह खौफनाक हालात बीत जाएंगे?

जो स्थितियां हैं और जैसी खबरें आ रही हैं, उससे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। वैसे भी साल-महीने-दिन-घण्टे-मिनट-सेकेण्ड मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए बना लिए हैं। वक्त का अपना ऐसा बंटवारा नहीं है। वह नहीं पहचानता साल 2020 या 2021। वह अपनी निश्चित रफतार चलता जाता है। एक साल से दूसरे साल में अचानक एक छलांग नहीं लगाता कि पिछला कुछ वहीं भूल या छोड़ आए और बिल्कुल नया-नया हमारे सामने खड़ा हो जाए कि लो जी, मैं एक नए सिरे से कोरा-कोरा आ गया! इसलिए हम चाहे जितने अच्छे और शुभ नव वर्ष की कामना करें, 2020 साथ-साथ चला आएगा और उसके साथ कोरोना त्रासदी भी। तनिक राहत की सांस ले सकते हैं कि नए साल में इसका टीका आ जाएगा, हालांकि वह भी फिलहाल कई अनिश्चितताओं के साथ आ रहा है।

ब्रिटेन से आ रही खबरों ने नई चुनौतियां पेश कर दी हैं। वहां इसका ऐसा रूप मिला है जो बहुत तेजी से फैल रहा है। दुनिया टीका बन जाने से खुश हो रही थी लेकिन वायरस ने घोषित कर दिया है कि वह भी अपने बचाव के लिए रूप बदल हा है। वायरस के नए रूप पर टीके कितने कारगर होंगे, कुछ पता नहीं। कुल मिलाकर यह महामारी और उसकी त्रासदी 2021 में हमारे साथ रहनी है।

इस दुनिया के नियंताओं ने पूरे साल इस बारे में कितना सोचा कि कई-कई वायरस मानव के लिए बड़े से बड़ा खतरा क्यों बनते जा रहे हैं? असंख्य वायरस इस धरती पर हम से भी पहले से हैं। वह मनुष्यों के लिए ही नहीं इस धरती के तमाम जीव-जंतुओं-वंस्पतियों के लिए भी हैं। मनुष्य ही धीरे-धीरे उनकी चपेट में क्यों आता चला गया? हमने अपना जीवन ऐसा क्या बना लिया कि हम सबसे नाजुक बनते आए? ठीक है कि हमने वैज्ञानिक प्रगति से तमाम जीवाणुओं-वायरसों से बचाव के तरीके खोज लिए लेकिन क्या इसी आधार पर हमें प्रकृति से दुश्मनी मोल लेते रहना चाहिए?

सन 2020 में वायरस निरोधी टीका खोजने-बनाने में सम्पूर्ण प्रतिभा झोंक देने के अलावा जीवन शैली और विकास की अवधारणा पर कितना गौर किया गया? क्या इसमें थोड़ा भी बदलाव करने के बारे में सोचा गया? या पूरी दुनिया इसी में खुश हो जाने वाली है कि बहुत शीघ्र हमने इसका टीका खोज लिया और वायरस कितना भी बहुरूपिया बन जाए उस पर हम विजय पा ही लेंगे? सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो कई और वायरस इससे भी खतरनाक बनकर सामने आ जाएंगे।

यह धरती या सृष्टि सिर्फ मनुष्य के लिए नहीं बनी लेकिन हम इसे अपना गुलाम बनाने में लगे रहे और खुश होते रहे कि यही प्रगति है। अब उसकी कीमत चुका रहे हैं और पलट कर देखने को तैयार नहीं। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 दिसम्बर, 2020)  

      

 

  

   


Friday, December 18, 2020

कुछ भी खाने-पीने को अभिशप्त है यह जीवन


गाय के गोबर की महिमा हिंदू परम्पराओं में खूब बताई जाती है। इस दौर में तो सरकारें भी उसके महिमा मण्डन और व्यावसायिक उपयोग को बढ़ावा देने में लगी हैं लेकिन गधे की लीद का व्यावसायिक उपयोग नहीं सुनाई देता। दो दिन पहले हाथरस में एक फैक्ट्री पकड़े जाने की खबर आई। छापा डालने वालों का दावा था कि वहां गधे की लीद से मसाले बनते थे। बाद में हाथरस के जिलाधिकारी ने दावा किया कि अभी सिर्फ नमूने लिए गए हैं
, किसी जानवर की लीद मिलने की पुष्टि नहीं हुई है। बहरहाल, जांच के बाद ही पता चलेगा कि क्या मिला था। जो भी मिलाया जा रहा होगा, वह पता नहीं कितनी बड़ी मात्रा में बाजार और रसोइयों में खप गया होगा।  

बताया जाता है कि यह फैक्ट्री हिंदू वाहिनी के एक नेता की है। हो सकता है वह गाय के गोबर का उपयोग कर रहा हो। गोमाता के गोबर और गधे की लीद में स्वर्ग-नर्क का अंतर है। छापा डालने वाले खाद्य निरीक्षक नर्क में भी ठौर नहीं पाएंगे अगर उन्होंने गाय के गोबर को गधे की लीद बता दिया! खैर, यह सिर्फ चुटकी लेने के लिए था।

घोर चिंता की बात यह है कि चारों तरफ से खाद्य सामग्री में खतरनाक मिलावट की सूचनाएं आ रही हैं। गधे की लीद से मसाले बनाने की फैक्ट्री जिस दिन पकड़ी गई उसी दिन आगरा में भैंस के सींग और जानवरों की चर्बी गलाकर घी बनाने का धंधा भी पकड़ा गया। घी में जानवरों की चर्बी की मिलावट खूब होती रही है। अक्सर धंधा पकड़ में आता है लेकिन बंद नहीं होता। दूध में पानी मिलाने के दिन लद गए। अब पूरा दूध ही रसायनों से बना लिया जाता है।

दिल्ली स्थित सेण्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेण्ट (सीएसई) ने हाल ही में मिलावट का एक खतरनाक जाल खोला। शहद में चीनी की चाशनी मिलाने का बड़ा गोरख धंधा इस प्रतिष्ठित संस्था के अध्ययन और सर्वेक्षण में सामने आया। चौंकाने वाली खबर यह है कि बड़ी नामी कम्पनियां भी मिलावट के इस नापाक खेल में शामिल हैं। जो शहद अनेक बीमारियों से लड़ने और शरीर को प्राकृतिक ऊर्जा देने के लिए जाना जाता है, उसे बीमार बनाने वाला बना दिया!। सीएसई इससे पहले नामी शीतल पेयों में कीटनाशक की मौजूदगी की रिपोर्ट जारी कर चुका है। ये कीटनाशक उस पानी में मौजूद होते हैं जिससे पेय बनाए जाते हैं। अर्थात, हमारे पेयजल में ही कीटनाशक घुल गए हैं। खेतों में इस कदर रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक छिड़के जाते हैं।

इस कोरोना काल में जब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए खान-पान की शुद्धता पर जोर दिया जा रहा है, ये खबरें और भी डरा रही हैं। बाजार में खाने की प्रत्येक वस्तु का प्रचार इम्युनिटी बूस्टरके रूप में किया जा रहा है। गिलोय, आंवला, तुलसी, मुलेठी, आदि-आदि के दर्जनों पेय बाजार में आ गए हैं लेकिन उनकी शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं है। लोग खूब खरीद रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि उसमें क्या मिला है।

जीवन आधुनिक हो गया है। बाजार हावी है। शहरी मकान डिब्बे हो गए। सगवाड़े गायब हुए और चंद गमले सिर्फ सजावटी रह गए। सिल पर मसाले अब कौन पीसता होगा? गेहूं धो-सुखाकर चक्की में पिसवाना आफत लगने लगा। फुर्सत रह गई न रुचि। हल्दी, धनिया, जैसे आम मसाले चूर्ण रूप में बहुतेरी नामी कम्पनियां बेच रही हैं। उन्हीं के बीच गधे की लीद वाले मसाले भी हैं। हम अभिशप्त हैं कि उन्हीं का इस्तेमाल करें।

क्या कभी इस जीवन को प्रकृति की ओर लौटा ले जाने की प्रक्रिया शुरू होगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 19दिसम्बर, 2020) 

    

     

 

 


Thursday, December 17, 2020

यूपी में क्या गुल खिलाएंगे ओवैसी?

 


बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन का खेल बिगाड़नेके आरोप झेल रहे तेज-तर्रार मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अब उत्तर प्रदेश और बंगाल का रुख करने का ऐलान किया है। ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने हाल में सम्पन्न बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपने बढ़ते प्रभाव की धमक दूर-दूर तक सुनाई। महागठबंधन के नेताओं से लेकर कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी ने मुस्लिम वोटों में सेंध लगाकर महागठबंधन को कमजोर और एनडीए को मजबूत किया। ओवैसी की पार्टी को बिहार में अच्छा समर्थन मिला, खासकर यूपी से लगे बिहार में। उन्होंने कुल पांच सीटें जीतीं और नीतीश की सत्ता में वापसी का एक बड़ा प्रच्छन्न कारण बने।

ओवैसी बीते बुधवार को लखनऊ में थे। उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर से मुलाकात की और ऐलान किया कि वे 2022 में सुभासपा के नेतृत्व में मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ेंगे। ओमप्रकाश राजभर कुछ समय पहले तक भाजपा के साथ थे और प्रदेश सरकार में मंत्री भी रहे। लोक सभा चुनाव में अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर वे एनडीए से अलग हो गए थे। एक तरह से वे इस समय हाशिए पर हैं और मुख्य धारा में वापसी के लिए सहयोगियों की तलाश कर रहे हैं। बिहार विधान सभा चुनाव में वे बसपा और एआईएमआईएम के साथ मोर्चा बनाकर शामिल हुए थे। उसी मित्रता को उत्तर प्रदेश में दोहराने का ऐलान ओवैसी लखनऊ में कर गए।

उत्तर प्रदेश में ओवैसी की यह धमक नई नहीं है। वे काफी पहले से उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान खींचने का प्रयास करते रहे हैं। यहां करीब साठ जिलों में उनका संगठन बना है। एआईएमआईएम ने 2017 में प्रदेश का विधान सभा चुनाव लड़ा था और 38 सीटों पर 0.25 फीसदी वोट पाए थे। उसके पहले भी वे उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के पैर जमाने का प्रयास करते रहे हैं। एक बार यहां वे पंचायत चुनाव भी लड़ चुके हैं और 2017 का चुनाव लड़ने से पहले बीकापुर (फैजाबाद) विधान सभा सीट के उपचुनाव में उन्होंने अपना प्रत्याशी उतारा था। यह रोचक बाजी थी क्योंकि बीकापुर में उन्होंने मुस्लिम प्रत्याशी की बजाय दलित उम्मीदवार उतारा था जिसे भाजपा प्रत्याशी से कुछ ही कम वोट मिले थे। तब भी उत्तर प्रदेश में ओवैसी का नोटिस लिया गया था और उन्होंने कई बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया था।

2014 के लोक सभा चुनाव के समय भी ओवैसी यूपी का दौरा कर रहे थे। तब प्रदेश में सतारूढ़ समाजवादी पार्टी के कान खड़े हो गए थे क्योंकि ओवैसी की सभाओं में मुस्लिम युवाओं की खासी भीड़ जुटती थी। ओवैसी मुसलमान वोटरों से कहते थे-पहले भाई, फिर भाजपा हराई, उसके बाद सपाई।’ अर्थात मुसलमान वोटरों के लिए सबसे पहले अपना भाई यानी मुसलमान प्रत्याशी है, फिर वह जो भाजपा को हरा सके और उसके बाद सपा प्रत्याशी। इसी करण सपा सरकार ने तब ओवैसी को आजमगढ़ में सभा करने की अनुमति नहीं दी थी क्योंकि वहां से मुलायम सिंह को चुनाव लड़ना था। कहने का आशय यह कि ओवैसी उत्तर प्रदेश के लिए नए नहीं हैं लेकिन इस बार बिहार में मिली सफलता ने उन्हें कहीं अधिक प्रासंगिक बना दिया है। उनकी ओर राजनैतिक दलों एवं विश्लेषकों का ध्यान जाना स्वाभाविक है।

उत्तर प्रदेश में फिलहाल भाजपा बहुत मजबूत पायदान पर खड़ी दिखती है। उसे चुनौती दे सकने वाले सपा और बसपा के पैर उखड़े हुए हैं। पिछले विधान सभा और लोक सभा चुनाव में इन दोनों दलों को बुरी हार देखनी पड़ी थी। लोक सभा चुनाव तो सपा-बसपा ने मिलकर लड़ा लेकिन वे भाजपा के वर्चस्व को तोड़ नहीं सके थे। इस आधार पर अभी यही लगता है कि ओवैसी सेकुलर दलों के लिए यूपी में उतना बड़ा खतरा साबित नहीं होंगे जितना वे बिहार में हुए। बिहार में दोनों गठबंधनों में कांटे की टक्कर थी। ओवैसी की मौजूदगी ने एनडीए के पक्ष में पलड़ा झुकाने में मद्द की। महागठबंधन ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि ओवैसी ने भाजपा से धन लेकर महागठबंधन को हराने का सौदा किया।

उत्तर प्रदेश में अभी भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा कोई मजबूत गठबंधन नहीं है और निकट भविष्य में बनने के आसार भी नहीं दिखाई देते। सपा ने अकेले लड़ने की घोषणा कर दी है। बसपा दूसरे राज्यों में तो कुछ दलों से सहयोग कर लेती है लेकिन उत्तर प्रदेश में वह किसी को भागीदार नहीं बनाना चाहती। बिहार में वह ओवैसी के साथ एक मोर्चे में थी लेकिन यूपी में सम्भावना नहीं है कि वह ओवैसी के साथ गठबंधन करेगी। ओवैसी ने भी लखनऊ में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया। शिवपाल की पार्टी के बारे में भी वे निश्चय से कुछ नहीं कह सके।

एक बात लेकिन नोट की जानी चाहिए और यह बिहार के नतीजों ने भी साबित किया कि तेज़-तर्रार ओवैसी के आक्रामक भाषणों ने मुसलमानों की युवा पीढ़ी को विशेष रूप से प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि मुसलमानों की अपनी पार्टी और अपने नेता ही उनका वास्तविक भला कर सकते हैं। बाकी पार्टियां मुसलमानों में भाजपा का डर पैदा कर, उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके वोट लेती हैं और खुद सत्ता का भोग करती रही हैं। इसलिए ओवैसी उन सभी पार्टियों को अपने लिए खतरा लगते हैं जिन्हें अब तक मुसलमान मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिलता रहा है। इनमें उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव (पहले मुलायम) बिहार के लालू (अब तेजस्वी) और बंगाल की ममता बनर्जी भी शामिल हैं। यह अकारण नहीं है कि ममता बनर्जी ओवैसी पर भाजपा को चुनाव जिताने की सौदेबाजी करने का आरोप बार-बार दोहरा रही हैं। ओवैसी अगले वर्ष होने वाले बंगाल चुनावों में शामिल होने का अपना इरादा जता चुके हैं। वहां भी उनको मिलने वाले वोट सेकुलर दलों, विशेषकर ममता बनर्जी के खाते से कटेंगे और भाजपा को लाभ पहुंचाएंगे।

उत्तर प्रदेश में ओवैसी और राजभर की पार्टियों का मोर्चा भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में तो क्या हो पाएगा लेकिन वह सेकुलर दलों, विशेष रूप से सपा-बसपा के वोट काटकर भाजपा की मदद ही करेगा। यह हमारी चुनावी राजनीति का एक विद्रूप ही कहा जाएगा कि ओवैसी प्रकट में जिस भाजपा को हराने का इरादा रखते हैं, प्रकारांतर से उसी की मदद कर बैठते हैं।      

(प्रभात खबर, 18 दिसम्बर, 2020)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Sunday, December 13, 2020

साहित्य की मशाल ही यह अंधेरा चीरेगी

 साथियो,

आज हम यहां बहुत असामान्य परिस्थितियों में मिल रहे हैं। एक महामारी ने पूरी दुनिया को हलकान कर रखा है। इससे बचाव के तरीके खोज लिए जाएंगे लेकिन जिन कारणों से ऐसी परिस्थितियां जन्म ले रही हैं और निरंतर विकट होती जा रही हैं,  राजनीति के धुरंधरों और अर्थनीति के नियंताओं का ध्यान उनकी ओर नहीं जाएगा। वे चालाक और धूर्त लोग इस पूरी सृष्टि को निचोड़ ले रहे हैं। प्रगति के नाम पर मानव जाति ऐसी खतरनाक सुरंग में धकेली जा रही है जहां अब हवा-पानी और धूप भी दुर्लभ होते जा रहे हैं। इस धरती पर मनुष्य के सहचर और उससे भी पुरातन अरबों-खरबों जीवों, परजीवियों और वनस्पतियों को निरंतर नष्ट करने वाली यह विकास पद्धति अंतत: मनुष्य को भी नहीं छोड़ेगी। वह कैसा जीवन होगा जब मनुष्य को जीवित रहने के लिए हर सांस के साथ एक वैक्सीन की आवश्यकता होगी! मनुष्य के साथ-साथ सम्पूर्ण जैव-विविधता की चिंता कतिपय सनकी विज्ञानियों और पर्यावरणवादियों के अलावा क्या हमारे साहित्य में भी नहीं होनी चाहिए?

एक संवेदनशील पत्रकार और लेखक के रूप में मैं इस तथ्य से परिचित था कि दुनिया की सबसे तेज बढ़ती कहलाने वाली इस अर्थव्यस्था में एक बड़ी आबादी दो जून रोटी के लिए जूझती-तरसती है और चंद घरानों की आय दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ती जाती है; लेकिन इस महामारी ने जिस अदृश्य भारत के ऊपर से पर्दा उठाया वह आंखें खोलने वाला रहा। महामारी से बचाव के नाम पर बिल्कुल अचानक लागू कर दी गई देशबंदी के बाद कुपोषित बच्चों को कांधे पर उठाए तपती सड़कों पर छाले पड़े नंगे पैरों से जो भूखा-प्यासा-बेरोजगार विशाल भारत सैकड़ों-हजारों मील घिसटता देखा गया, उसका अनुमान हमारी पत्रकारिता को तो नहीं ही था, साहित्य में भी वह नहीं दिखता रहा। धूर्त राजनैतिकों, अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों ने तो बहुत पहले से इस हिंदुस्तान की तरफ से आंखें मूंद रखी थीं। कैसी विडम्बना है कि इस भारत को मूर्ख, गंवार और महामारी फैलाने वाला बताया जा रहा है। हाल के महीनों में हमारे लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने इस मुद्दे का कुछ नोटिस लिया दिखता है लेकिन जिस साहित्य को समाज का आईना कहा जाता है, उसमें इसकी आहट का भी अनुपस्थित होना हम लेखकों के बारे में चौंकाने वाली दुखदाई टिप्पणी है। क्या हमारी सजग लेखक बिरादरी अपने समाज में गहरे पैठकर उसे समझने और साहित्य का प्रमुख स्वर बनाने में चूकी नहीं है?

व्यथित और उद्वेलित करने वाली परिस्थितियां और भी कई हैं। हर चिंतनशील और संवेदनशील मनुष्य के लिए यह चुनौतियों भरा समय है। रचनाकारों के लिए और भी अधिक। असहमति की संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता खतरे में हैं। संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता छीनी जा रही है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध के स्वर सुने जाने की बजाय कुचले जा रहे हैं। सरकार से असहमति को सीधे राष्ट्रदोह ठहराया जा रहा है। कई पत्रकार, लेखक, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता और बौद्धिक इसी कारण जेल में हैं। साम्प्रदायिक राजनीति ने समाज को इस कदर विभाजित कर दिया है कि किसानों, छात्रों, अल्पसंख्यकों, दलितों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बौद्धिकों, आदि का मुद्दा-आधारित सत्ता-विरोध देश-विरोध बता दिया जाता है और जनता का विशाल वर्ग उसी भाषा में बोलने लगा है। जीवन की मूलभूत समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए इस वर्ग को धर्म की अफीम चटा दी गई है, सोचने-समझने का उसका विवेक सुला दिया गया है। यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है।

किसी भी देश-काल में किशोर और युवा वर्ग स्वाभाविक रूप से विद्रोही होता है। उसकी प्रकृति सवाल पूछने, पुरानी परम्पराओं को खारिज करने और परिवार से लेकर समाज तक में बदलाव का झण्डा उठाने की होती है। ऐसा किसी विचारधारा-विशेष के अध्ययन या प्रभाव में आए बिना भी होता रहा है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से निकले परिवर्तनकामी आंदोलनों ने पूरी दुनिया में बड़े परिवर्तनों की शुरुआत की है। दुर्भाग्य से यह ऐसा समय है जब हमारा युवा वर्ग भी प्रतिगामी शक्तियों के सम्मोहन में दिखाई देता है। हाल के वर्षों में इस आयु वर्ग में भी धर्मांधता बढ़ी है, ऐसा कुछ सर्वेक्षणों ने भी साबित किया है। कहीं से आवाज उठती भी है तो कुचल दी जाती है और उसे व्यापक समर्थन नहीं मिल पाता। कॉलेजों- विश्वविद्यालयों में छात्र-राजनीति की सम्भावनाओं के द्वार बंद कर दिए गए हैं।

अपवाद हमेशा होते हैं लेकिन पत्रकारिता में जो अपवाद होते थे, वे नियम और सिद्धांत बन गए हैं। जिस पत्रकारिता को जनता की आवाज और सरकार के नाक-कान का काम करना था, वह उसके भौंपू का काम कर रही है। साहित्य में भी क्या सत्ताश्रयी प्रवृत्तियां बहुत नहीं बढ़ गई हैं? कितने चोले बदलते और मुखौटे उतरते हम देख रहे हैं।

इसलिए यह बहुत कठिन समय है और निराशाजनक भी। अंधेरा सघन हो रहा है। ऐसे में मशाल थामने का गुरुतर दायित्व साहित्य समेत सभी रचनात्मक विधाओं को उठाना होगा। अपने समय की स्थितियों, प्रवृत्तियों और चुनौतियों को प्रभावी ढंग से दर्ज करके रचनाधर्मियों ने यह दायित्त्व पहले भी निभाया है। लेखन की मशाल ही यह अंधेरा चीरेगी, यह पक्की उम्मीद है।

कथाक्रम सम्मान, उसके आयोजन और चर्चाएं इसी उम्मीद का हिस्सा हैं। इस वर्ष के कथाक्रम सम्मान हेतु मुझे चुनने के लिए इसके संयोजक शैलेंद्र सागर जी एवं चयन समिति के सम्मानित सदस्यों का आभार व्यक्त करता हूं। इस सम्मान ने लेखक के रूप में मेरी जिम्मेदारियां बढ़ा दी हैं।  

आज इस मंच से मैं उन सब अग्रजों को आदर के साथ याद करता हूं जिन्होंने अंगुली पकड़ी, रास्ता दिखाया और प्रोत्साहित किया। राज बिसारिया जी, जिन्हें हम सब राज साहब कहते हैं, के नाटक देख-देखकर मैंने नाटकों की समीक्षा लिखना सीखा। आज उनके हाथों से यह सम्मान ग्रहण करना बड़े गौरव की बात है। नरेश सक्सेना जी को विशेष रूप से प्रणाम करता हूं जिन्होंने बिल्कुल शुरुआती दौर से मुझे राह दिखाई और जिन्हें आज इस समारोह की अध्यक्षता करनी थी लेकिन दो दिन पहले ही युवा पुत्र की आकस्मिक मृत्यु से उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि, बड़े भाई जैसे मंगलेश डबराल को चार दिन पहले यह महामारी लील गई। आप खो गए हैं मंगलेश जी लेकिन यहां आपकी जगह बची हुई है, जैसे हमारे बीच बची हुई है उन रचनाकारों की जगह जो अपने होने का मौलिक दायित्व निबाह गए।

आप सबका बहुत-बहुत आभार जो कोरोना काल के बावज़ूद यहां उपस्थित हुए और जो ऑनलाइन इसे देख रहे हैं।    

-नवीन जोशी

कैफी आज़मी सभागार, लखनऊ, 13 दिसम्बर, 2020

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Friday, December 11, 2020

फोर लेन हाई वे के चुंगी नाका और फास्टैग


सामान्य पतली सड़क थी तो लखनऊ से सीतापुर पहुंचने में औसत दो घण्टे लग जाते थे। फिर फोर-लेन हाई-वे बन गया। आना-जाना आसान
, सुविधाजनक और कम समय में होने लगा। आराम से गाड़ी चलाने पर भी सीतापुर डेढ़ घण्टे में पहुंचा जा सकता था। उसके बाद बीच सड़क दो जगह चुंगी-नाका बन गए। इन नाकों पर जाम लगने लगा। फोर-लेन हाई-वे के बावजूद दो घण्टे से कम समय में सीतापुर पहुंचना मुश्किल हो गया।

इधर कुछ समय से फास्टैगव्यवस्था शुरू हुई। चुंगी का यह डिजिटल लेन-देन जहां पारदर्शिता सुनिश्चित करता है, वहां नकद लेन-देन में लगने वाले समय की भी बचत होती है। चुंगी के हिसाब में बेईमानी की सम्भावना भी कम हो जाती है। लेकिन यह सब कहने की बातें हैं। फास्टैग व्यवस्था नकद लेन-देन से अधिक समय लेने लगी है।

किसी भी दिन, किसी भी समय सीतापुर की तरफ निकल जाइए, दोनों टोल प्लाज़ा पर एक-एक, दो-दो किमी तक लम्बा जाम मिलेगा। एक लाइन नकद लेन-देन के लिए रखी गई है बाकी तीन-चार लाइनें फास्टैग वाली हैं। आम तौर पर यही देखा गया है कि नकद चुंगी भुगतान वाली लाइन ज़ल्दी सरकती है, फास्टैग वाली बहुत धीरे-धीरे। नतीजा लम्बी-लम्बी लाइनें और जाम।

फास्टैग चुंगी भुगतान की डिजिटल व्यवस्था है। आप ऑनलाइन फास्टैग लेते हैं, उसे रीचार्ज करते हैं और जब भी किसी टोल-प्लाज़ा से गुजरना होता है, वहां लगे कैमरे आपकी कार के शीशे परे लगे टैग को पढ़कर टोल टैक्स काट लेते हैं। फास्टैग होने का घोषित उद्देश्य यह है कि आपको टोल प्लाज़ा पर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। कैमरा पल-झपक्ते टैग से टैक्स काट लेगा।

व्यवहार में हो यह रहा है कि फास्टैग वाली गाड़ियों को टोल प्लाज़ा पर देर तक रुकना पड़ रहा है। कभी-कभी तो वहां तैनात कर्मचारी आपकी गाड़ी को कुछ आगे-पीछे करने को कहता है ताकि कैमरा फास्टैग को पढ़ सके। उसके बाद भीतर बैठा कर्मचारी अपने कम्प्यूटर पर देखता है कि आपका टैक्स ठीक से कट गया है या नहीं। उसके बाद ही आपको आगे जाने की अनुमति मिलती है। यह व्यवस्था नकद लेन-देन से अधिक समय ले रही है। 

बहुत सारे देशों में फास्टैग व्यवस्था लागू हुए अरसा हो गया। वहां सड़कों के बीच में अब टोल-प्लाज़ा हैं ही नहीं। उनकी जगह सिर्फ कैमरे लगे हैं जो फर्राटा भरती गाड़ियों से टैक्स काट लेते हैं। गाड़ी रोकना तो दूर, चालक को पता भी नहीं चलता कि वह टोल-नाका से गुजरा है। हमने नई टेक्नॉलॉजी अपनाई लेकिन उसके अनुरूप न मानसिकता बना सके, न कार्य-संस्कृति और न ही तंत्र। फास्टैग व्यवस्था हाई-वे यातायात के लिए बड़ा सिर दर्द बन गई है। जनवरी 2021 से नकद टोल की व्यवस्था समाप्त की जाने वाली है। उसके बाद यह सिर दर्द और बढ़ जाने वाला है।

सीतापुर से आगे शाहजहांपुर होकर बरेली जाना और भी कष्टकारी है। इस सड़क को फोर लेन बनाने का काम एक दशक से अधिक समय से चल रहा है। कुछ हिस्सा बन भी चुका है लेकिन दो रेलवे क्रॉसिंग, और कुछ पुलियों पर ओवरब्रिज बनाने का काम इतनी मंथर गति से चल रहा है कि लखनऊ-बरेली पांच घण्टे का रास्ता आठ घण्टे भी ले लेता है। कटरा क्रॉसिंग पर गाड़ियों का जाम कई-कई किमी लम्बा लगता है। डाइवर्जनइतने संकरे और खतरनाक बने हैं कि कोई भी गाड़ी किसी भी समय गड्ढों में फंस सकती है।

फास्टैग और सड़क का चौड़ीकरण हमारे प्रदेश के विकास-ढांचे की कहानी बयां करते हैं।      

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 दिसम्बर, 2020)

Saturday, December 05, 2020

लव ज़िहाद के दौर में राष्ट्रीय एकीकरण

राजधानी लखनऊ की पारा कॉलोनी में पुलिस ने एक हिंदू युवती का मुस्लिम युवक से हो रहा विवाह रुकवा दिया। शादी दोनों परिवारों और समुदायों की परस्पर सहमति से हो रही थी। एक हिंदू संगठन की शिकायत पर पुलिस ने यह कदम उठाया। दोनों परिवारों से कहा गया है कि वे विवाह से पहले जिलाधिकारी की अनुमति लेकर आएं।

लव ज़िहादके विरुद्ध अध्यादेश के माध्यम से कानून बनाने (अध्यादेश में लव ज़िहादका नहीं, धर्म परिवर्तन कराने के उद्देश्य से की गई शादी का उल्लेख है लेकिन मंतव्य छुपा नहीं है) के बाद की यह नई स्थिति है। अलग-अलग धर्मों के दो वयस्क युवा अपनी सहमति से ब्याह नहीं कर सकते। उन्हें प्रशासन की अनुमति लेनी होगी और अनुमति कैसे मिलेगी, मिलेगी या नहीं यह साफ नहीं है।

ऐसे दौर में किसी को शायद यह ध्यान भी न होगा कि प्रदेश में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह करके राष्ट्रीय एकीककरण को मजबूत करने वाले नव-दम्पतियों को पुरस्कृत करने की व्यवस्था चली आई है। 1976 में तत्कालीन प्रदेश सरकार ने माना था कि दूसरी जाति और दूसरे धर्म में ब्याह करने वाले युगल वास्तव में देश की एकता और जातीय-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देते हैं। इसके लिए उन्हें प्रोत्साहन के रूप में  10 हजार रु का पुरस्कार देने का फैसला किया गया था। सन 2013 में यह राशि बढ़ाकर पचास हजार रु कर दी गई थी। पिछले ही वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने बजट में इस मद के लिए दस लाख रु आवंटित किए थे और राष्ट्रीय एकीकरण विभाग ने अठारह ऐसे नव-दम्पतियों को प्रोत्साहन राशि देने के लिए चुना था।

अब राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने वाले नव-दम्पति प्रोत्साहन राशि के नहीं, नए कानून के प्रावधानों के अन्तर्गत दण्ड और प्रताड़ना के पात्र होंगे। जिन्हें पिछले वर्षों में यह प्रोत्साहन राशि मिली होगी, वे भी कानून के दायरे में आ सकते हैं। अध्यादेश पारित होने के बाद से अंतरधार्मिक विवाह कर चुके कम से कम तीन दम्पतियों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज हो चुकी है।

समय बदल गया है। सत्ता की राजनीति पूरी तरह पलट चुकी है। जो कभी राष्ट्रीय एकीकरण कहलाता था, अब धर्म के विरुद्ध साजिश है, लव-ज़िहाद है, गैर-कानूनी है। कानून बाद में अपना काम करेगा,  धर्म रक्षक पहले से मोर्चा सम्भाले हुए हैं।

पिछले दिनों एक कम्पनी के विज्ञापन में राष्ट्रीय एकीकरण हो रहा था। एक हिंदू कन्या का मुस्लिम परिवार में बहू के रूप में आत्मीय स्वागत हो रहा था। नए जमाने में वह लव-ज़िहादनिकला। कम्पनी को न केवल विज्ञापन वापस लेना पड़ा बल्कि इस अपराध के लिए क्षमा भी मांगनी पड़ी। यह नए वक्त और नई राजनीति का संदेश है।

सैकड़ों साल के इतिहास में धर्मों के बीच की कट्टर दीवारें ढहीं, विभिन्न धर्मों ने परस्पर मिल-जुलकर  साझा समाज और संस्कृति बनाई, जीवन की जो डगर सहज-स्वाभाविक बनती चली गई, वह सब साजिशें थीं। उसका महिमामण्डन एकांगी था। उसे निरस्त करके नया इतिहास, नया विज्ञान, नए कानून लिखे जा रहे हैं।

कॉलेज के दिनों से प्यार करने वाले एक युगल ने विवाह करने का फैसला किया था। शुरुआती आपत्तियों के बाद दोनों परिवार राजी हो गए थे लेकिन नया दौर सिर पर आफत बनकर खड़ा हो गया। दोनों परिवारों ने मिलकर लड़के-लड़की को खूब समझाया। बताया कि तुम मुसलमान और वह हिंदू है। लव-ज़िहादके नाम पर हो रहे बवाल और हिंसा के उदाहरण और खतरे गिनाए। दोनों खूब रोए-धोए और अलग हो गए। यह मेरे मुहल्ले का किस्सा है और मैं जानता हूं कि अकेला नहीं होगा।

मैं यह भी जानता हूं कि कैसा भी कानून क्यों न बने, कई मुहब्बतें ज़ुदा होने से इनकार कर देंगी।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 05 दिसम्बर, 2020)             

Friday, November 27, 2020

उत्साह-उमंगों के बीच कोरोना का भय गायब

 


कोरोना के दूसरे दौर के बढ़ने के बावज़ूद ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ चुकी है। विवाह समारोहों के कुछ निमंत्रण आ गए हैं। कुछ शादियां जो मार्च-अप्रैल में होनी थीं, लॉकडाउन के कारण आगे के लिए टाल दी गई थीं, नई तिथियों में अब हो रही हैं। पुराने निमंत्रण पत्र तारीख बदल कर बांटे गए हैं। कुछ इस बीच तय हुई हैं। सतर्कता की सरकारी हिदायतों के बावज़ूद धूम-धाम की तैयारी है।

लॉकडाउन के दौरान कुछ जोड़े बिना धूम-धाम और अतिथियों के विवाह-बंधन में बंधे थे। एक तो कोरोना का नया-नया आतंक था, दूसरे पूर्ण देशबंदी थी। वह सादगी और मितव्ययिता मजबूरन थी। अब एक तो कोरोना पुराना हो गया और उसका भय भी सीमित, दूसरे किसी तरह की बंदी नहीं रही। इसलिए होटलों से लेकर लॉन तक बुक हैं। बैंड-बाजा और आतिशबाजी सब उपलब्ध है। जो शर्तें थीं वह भी मुख्यमंत्री ने हटा दी हैं। सबको अपना रोजगार भी चलाना है। इसलिए रुकेगा कुछ नहीं। सरकारी नियम या निर्धारित सीमाएं अपनी जगह हैं, खुशियां मनाने के हौसले अपनी जगह। जो कर सकते हैं, बड़ी मेहमानवाजी दो-तीन अलग-अलग आयोजनों में कर रहे हैं।

मैचिंग मास्क पुरानी बात हो गए और फैशन में शुमार होने लगे हैं लेकिन शादी के जोड़े में न दूल्हा-दुल्हन पहने दिख रहे हैं, न घर वाले। सेहरा स्वीकार है, मास्क नहीं। मेहमानों में कुछ अवश्य सतर्क हैं लेकिन असावधान अतिथियों की संख्या अधिक है। इन समारोहों का एक बड़ा आकर्षण फोटो-वीडियोग्राफी होता है। उसमें कोई मास्क में दिखाई देना नहीं चाहता। खुशियों और उत्साह-उमंगों के अवसर पर कोरोना का भय नहीं टिक रहा।

जीवन बचेगा और खूब चलेगा, सत्य है लेकिन महामारी के इस अद्वितीय दौर में लापरवाहियां खतरनाक साबित हो रही हैं। दीपावली और छठ पर्व अभी अभी बीते हैं। उस दौरान बाजारों-घाटों में जो भीड़ उमड़ी उसमें बहुत कम मास्क दिखे और शारीरिक दूरी तो क्या पूछना। नतीज़ा सामने है। दिल्ली में संक्रमण अनियंत्रित हो गया और अब हम आस-पास के अपने शहरों में मामले बढ़ते देख रहे हैं। रोजी-रोटी के लिए रोज जूझने वाली बड़ी आबादी तो पहले से ही कोई सतर्कता नहीं बरत रही। उसके लिए कोरोना संक्रमण से बड़ी बीमारी भूख है।

मीडिया में आए दिन वैक्सीन बनने और उसकी सफलता के प्रतिशत छाए हैं। कम्पनियां बढ़-चढ़कर दावे कर रही हैं। मध्य वर्ग में कोरोना सतर्कताओं से कहीं अधिक वैक्सीन (टीका) की चर्चा है। वैक्सीन का सफल परीक्षण ही जैसे कोरोना पर विजय हो गई! टीका बचाव करेगा लेकिन अभी भी बहुत कुछ अंधेरे में है। टीका बनने और सब तक पहुंचने में अभी बहुत लम्बा समय लगना है। उसके बाद भी सब कुछ सामान्य नहीं हो जाना है। टीके की इस ज़ल्दबाजी के पीछे दवा कम्पनियों के भारी मुनाफे और बाजार का गणित अधिक है।  

वैसे भी टीका कुछ समय के लिए बचाव कर सकता है, कोरोना को खत्म नहीं कर सकता। उसके साथ रहना है तो उसके चरित्र को समझते हुए जीवन में कुछ सावधानियां हमेशा बरतनी होंगी। अब तक जो समझ बनी है उसमें हाथों की ठीक से सफाई, मास्क और शारीरिक दूरी बरतना बचाव के लिए आवश्यक हैं। इन्हें अपनी जीवन शैली में शामिल करना होगा।

कोरोना का असली सबक लेकिन कुछ और ही है जिसके बारे में दुनिया के नियंता सोच ही नहीं रहे। प्रकृति-विरोधी जो जीवन चर्या और विकास का स्वरूप बना दिया गया है, वह मनुष्य के जीवन को कोरोना या उससे भी भयानक आपदाओं में डालता रहेगा। कोरोना के बिना भी हवा जहरीली है। महानगरों में जीवन व्याधिग्रस्त होता रहेगा। प्रकृति की इस चेतावनी को समझने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहे।   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 नवम्बर, 2020)              

     

Friday, November 20, 2020

जीवन की नींव में जिसने कुछ खास ईंट-गारा भर दिया

 


लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा है। एक सौ साल का दौर किसी भी संस्थान के लिए ऐतिहासिक एवं गौरवपूर्ण होता है। विश्वविद्यालय तो पूरी एक सदी के इतिहास के साक्षी ही नहीं, उस उथल-पुथल भरे काल में अपना विविध योगदान भी देते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से किसी भी रूप में सम्बद्ध व्यक्तियों के लिए यह निजी रूप में भी ऐतिहासिक और गौरवपूर्ण अवसर है। चंद दिनों से शोसल साइटों पर विश्वविद्यालय से जुड़ी स्मृतियों का अम्बार इसीलिए लगा हुआ है। 

युवावस्था का वह दौर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सबसे खूबसूरत समय होता है। सपनों, उम्मीदों, उमंगों और कुछ कर गुजरने की तमन्ना से भरा हुआ। 1973 में जयनारायण इण्टर कॉलेज से बारहवीं पास करने के बाद हमारे झिझके कदम भी इस विश्वविद्यालय परिसर में पड़े थे। विश्वविद्यालय में पढ़ने की ललक थी, रोमांच था लेकिन बहुत सारे संकोच भी थे। आस-पास के शहरों और कस्बों से पढ़कर आए मध्य-निम्न मध्य वर्ग के लड़के-लड़कियों की बड़ी संख्या थी जो पहली बार छात्र-छात्राओं के अलग-अलग कॉलेजों के सीमित दायरे से निकलकर विश्वविद्यालय पहुंचे थे, संकोच से भरे लेकिन चमत्कृत भी, लेकिन जिनके समूचे व्यक्तित्व को बहुत शीघ्र खिल और खुल जाना था।

पहली सनसनी एक ही कक्षा में लड़कियों के साथ बैठना था! वे सकुचाई हुई किनारे की कुछ बेंचों पर समूह में बैठी होतीं और लगभग सभी लड़कों की नज़रें सामने प्रोफेसर साहब की बजाय उसी कोने पर लगी होतीं। किसी सहपाठिनी से किसी साहसीलड़के का पहला सम्वाद होने में महीनों लग जाते और वह सबसे बड़ी उपलब्धि की तरह चाय-समोसे के साथ मनाया जाता। जो लड़के ऐसी हिम्मत नहीं कर पाते वे कागज के गोले बनाकर चुपके से उस कोने की ओर उछालने या घर जाकर डायरी में उसांसें भरते।

विश्वविद्यालय ने पढ़ाई से इतर बहुत कुछ सिखाया और जीवन में वही अधिक काम आया। टैगोर लाइब्रेरी के सामने वाले लॉन में दोपहर बाद स्टडी सर्किलकी बैठकें होतीं जहां साहित्य-संगीत-रंगमच से लेकर राजनीति और समाज पर दुनिया भर की चर्चाएं होतीं। पढ़ना, बोलना और बहस करना। छात्र संघ के चुनावों को जो लोग गंदी राजनीति मानकर बिदकते रहे हैं, वे शायद नहीं जानते या जानना नहीं चाहते कि विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति ने युवा पीढ़ी और देश की राजनीति को कैसे स्पंदित किया है। आज छात्र संघ चुनावों से वंचित विश्वविद्यालय समाज और देश के हालत में क्या कोई सार्थक और जरूरी हस्तक्षेप कर पा रहे हैं? आज की तुलना साठ-सत्तर-अस्सी के दशकों हालात से करिए तो!

वह 1974 के अंतिम या 1975 के शुरुआती महीने थे जब कला संकाय के सामने वाले मैदान में जे पी यानी जयप्रकाश नारायण की सभा हुई थी। गुजरात और बिहार में छात्र-आंदोलन उग्र हो रहा था। ठसाठस भरे मैदान में उमड़ते युवाओं के सैलाब को देखकर जे पी ने कहा था- यह अधजल गगरी है जो छलक रही है या पूरी भर गई है?’ सभा से हजारों हाथ उठे थे इस उद्घोष के साथ कि पूरी भर चुकी है!उस सभा का रोमांच आज भी अनुभव होता है। कैण्टीन और मिल्क बार में कई दिनों तक उस सभा की चर्चा होती रही थी और कई लड़के जेपी की छात्र संघर्ष वाहिनी से जुड़ने बिहार भी गए थे।

विश्वविद्यालय अपने छात्रों को और उनके माध्यम से देश को क्या-क्या देते हैं, इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। वह समाज के भविष्य की नींव भरने का काम करते हैं। किताबी पढ़ाई उस नींव में एक छोटी-सी ईंट भर है। लखनऊ विश्वविद्यालय के इस शताब्दी वर्ष में पूर्व छात्र और अध्यापक भी अनुभव कर रहे होंगे कि उनके जीवन की मजबूत नींव में उस दौर ने कैसा-कैसा गारा भरा था।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 नवम्बर, 2020)              

Saturday, November 14, 2020

हवा-पानी की चिंता, पटाखे, व्यवसाई और सरकार


नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देशों के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उन बारह जिलों में पटाखे बनाने
, बेचने और चलाने पर रोक लगा दी है, जहां वायु प्रदूषण खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है। यह प्रतिबंध ऐन दीवाली के पहले लगा है। पटाखे ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाते हैं, यह स्थापित सत्य है। हर साल दीवाली के बाद हवा इतनी खराब हो जाती है कि सांस लेना मुश्किल हो जाता है। सांस सम्बंधी रोग वालों के लिए भारी समस्या खड़ी हो जाती है।

पहले से ही आर्थिक बदहाली से त्रस्त छोटे-मंझोले व्यापारियों के लिए यह प्रतिबंध जले में नमक की तरह है। अकेले लखनऊ में 20 करोड़ रु का नुकसान होने की बात कही जा रही है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने पटाखे फोड़े जाते हैं और कितना बड़ा उसका धंधा है। साल-दर-साल यह धंधा बढ़ता गया है। वर्षों हो गए पटाखों के खिलाफ जनमत बनाने के अभियानों को लेकिन कमाऊ-खाऊ-उड़ाऊ मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा है जो प्रदूषण के खतरे की अनदेखी करते हुए मौज-मस्ती में मगन रहता है। उसी के दम पर पटाखों का धंधा फलता-फूलता आया है।

जिन व्यापारियों और छोटे-दुकानदारों ने पटाखों में अपनी रकम फंसा रखी है और अब बड़े नुकसान से हताश हैं, उनका तर्क उचित ही है कि प्रतिबंध लगाना ही था तो पहले क्यों नहीं लगाया गया? कम से कम वे अपनी पूंजी इसमें नहीं फंसाते। उस रकम से दूसरा कोई व्यवसाय बढ़ाते। छोटे-छोटे दुकानदार भी पटाखे बेचकर कमाई किया करते हैं। इन सबकी चिंता करना सरकार का ही काम है।

अधिकारी कह रहे हैं कि उन्होंने तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की सिफारिश मानी है। बड़ा भोला तर्क है। सरकार और प्रशासन दूरदर्शी होते, जैसा कि उन्हें होना ही चाहिए, तो उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी कि कई साल से इस मौसम में प्रमुख शहरों में हवा की गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती है और पटाखे कम से कम जलाने की अपील करनी पड़ाती है। ग्रीन ट्रिब्युनल और सुप्रीम कोर्ट बराबर निर्देश जारी करते रहते हैं। दिल्ली-एनसीआर में पिछले कुछ साल से पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना पड़ रहा है। यह सब देखते हुए उन्हें पहले ही सलाह या निर्देश जारी कर देने चाहिए थे। एयर क्वालिटी इण्डेक्सके अति-हानिकारक होने का इंतजार क्यों करना था?

अब वह समय आ गया है कि हवा-पानी या इस धरती के लिए नुकसानदायक व्यवसायों को क्रमश: बंद करते हुए छोटे व्यापारियों-दुकानदारों के लिए वैकल्पिक व्यवसाय खोजे-बताए जाने चाहिए। पटाखे ही क्यों, पॉलिथीन पर प्रतिबंध भी इसीलिए नहीं कारगर हो पाता कि उससे कई परिवारों का पेट जुड़ा है। और भी व्यवसाय हैं, जिन्हें अब इस धरती के हालात देखते हुए, बदल दिया जाना चाहिए। दूरदर्शी सरकार और प्रशासन का दायित्व है कि वह ग्रीन ट्रिब्युनल का मुंह देखे बिना, वैकल्पिक और पर्यावरण के लिए हितकर या न्यूनतम हानिकारक व्यवसाय विकसित करे और समय रहते व्यापारियों को सचेत करे। समस्या यह है कि सरकारों में ऐसी चिंता सिरे से नदारद है।

जिन लोगों ने पटाखों में रकम फंसा रखी है वे उसे निकालने के जतन करेंगे। चोरी-छुपे बेचेंगे या उन जिलों का रुख करेंगे जहां प्रतिबंध नहीं लगा है। लखनऊ में पटाखे नहीं दगेंगे लेकिन सीतापुर में बेहिसाब बजेंगे तो प्रतिबंध का लाभ क्या है? ग्रीन ट्रिब्युनल के निर्देश मानने की औपचारिकता निभानी है या हवा-पानी की सेहत की वास्तव में चिंता करनी है? यह चिंता भी छोटे-मंझोले व्यवसाइयों का हित देखे बिना नहीं की जानी चाहिए।

दीपावली की शुभकामनाओं के साथ क्या उम्मीद करें कि सरकार इस दिशा में सचेत और सक्रिय होगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 नवम्बर, 2020)

      

 

 

Friday, November 06, 2020

साझा विरासत के तार उधेड़ती नई समझ


एक वायरल वीडियो देखा। पटाखों की दुकान में कुछ युवा हंगामा कर रहे हैं। दुकानदार से
, जो कुर्ता-पाजामा-गोल टोपी पहने है, बहस कर रहे हैं कि वह ऐसे पटाखे क्यों बेच रहा है जिनमें लक्ष्मी जी और दूसरे देवी-देवताओं के फोटो चिपके हैं? ‘पटाखे फटने के बाद ये तस्वीरें सड़कों पर पड़ी रहती हैं और पैरों के नीचे आती हैं। लक्ष्मी का अपमान होता है,’ वे तर्क दे रहे हैं। दुकानदार हतप्रभ है और बड़ी मुश्किल से कह पाता है कि यह बात आपको आज पता चली?’ उसकी कोई नहीं सुनता।

यह नए भारत की तस्वीरें हैं और नित नए-नए रूप में सामने आ रही हैं। देखते-देखते दिल-दिमाग सुन्न होने लगा है। पता नहीं कब से पटाखों पर ऐसी तस्वीरें छपती रही हैं। इन पर हंगामा-मारपीट करना चाहिए, यह समझदारी नए भारत में बन रही है। सम्मान-अपमान और राष्ट्रप्रेम की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है।

बढ़ते प्रदूषण के कारण पिछले कई वर्षों से पटाखों के विरुद्ध जनमत बनाया जा रहा है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पटाखे बेचने पर रोक लगा दी थी। तब कई हिंदू-संगठनों को यह निर्णय धर्म-विरुद्ध लगा था। उसका उल्लंघन करते हुए पटाखे फोड़े गए थे। उनकी निगाह पटाखों पर छपी तस्वीरों पर नहीं गई होगी या गई भी होगी तो समझदारी इतनी विकसित नहीं हुई होगी। अब अक्ल थोड़ी और आगे बढ़ी है।

कुछ दिन पहले का यह समाचार भी इसी नई समझदारी का हिस्सा है कि एक मंदिर में नमाज़ पढ़ने वाले कुछ युवकों को आपत्ति के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। जवाब में वहीं एक ईदगाह में गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा पढ़ी गई। उस मामले में भी कुछ युवक पकड़े गए। पहले यह सामाजिक सदभाव के रूप में अक्सर होता था। बारिश में या और किसी संकट के समय मंदिर या गुरद्वारा परिसर नमाजियों के लिए और मस्जिदें दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए खोली जाती रही हैं। इसे हिंदुस्तान की खूबसूरत साझा पहचान के रूप में पेश किया जाता था।

देश, धर्म और संस्कृतियों की पहचान बदल गई है। धार्मिक सद्भाव और सह-अस्तित्व के ये उदाहरण अब चुनौती और जवाबी चुनौतियां हैं, अखाड़ेबाजी और विवाद का मुद्दा हैं। क्या कभी कोई यह सोच सकता है कि किसी दिन लखनऊ में अलीगंज के पुराने हनुमान मंदिर के शिखर पर लगे चांद-तारे पर बवाल मच जाएगा? यहां तो पड़ाइन की मस्जिदभी है। नई अक्ल वालों को यह कैसे समझ में आए कि किसी पण्डिताइन का मस्जिद से भी एक आत्मीय रिश्ता हुआ करता है और हनुमान जी को अपने मंदिर के चांद-तारे पर अनोखा गर्व होता है।

एक प्राचीन उदार समाज के उदात्त मूल्य चौराहों पर कुचले जा रहे हैं। बहुलतावादी समाज का बहुलमिटाकर एकलबनाया जा रहा है। नाम बदलो, पहचान बदलो, तस्वीरें और मूर्तियां ध्वस्त करो, पुराने पाठ फाड़ो और मनचाहे पाठ लिखो, ज्ञात इतिहास को दफ्न करो और हवाई महानताओं को विज्ञान बनाकर किताबों में दर्ज़ करो। कहां-कहां क्या-क्या मिटाया जाएगा? किसी कम्पनी के विज्ञापन में एक मुस्लिम परिवार की हिंदू बहू को लव-जिहादका नाम देकर हंगामा किया जा सकता है लेकिन साझी विरासत में क्या-क्या बंद कराया जा सकता है? यहां राम की पूजा होती है तो रावण का मंदिर भी बना है। शक्ति की प्रतीक दुर्गा की आराधना के साथ-साथ कहीं महिषासुर की पूजा भी होती है। जो समझ यह स्वीकार नहीं करती वह इस देश को क्या समझे, क्या बनाए!

हजारों साल में बनी इस साझा विरासत के तार उधेड़ते-उधेड़ते महाबलियों का बाहुबल भी चुक ही जाना है लेकिन इसकी जो कीमत चुकाई जानी है, उसका भुगतान आने वाली पीढ़ियां कैसे करेंगी, सोचकर मन कांपता है।

(सिटी तमाशा, 07 नवम्बर, 2020)

          

 

Friday, October 30, 2020

पुलिस की दाढ़ी में तिनका, तोंद पर फूल!


हमारे एक मित्र सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए अक्सर गम्भीर टिप्पणी या कभी-कभार चुहल कर दिया करते हैं। चंद रोज पहले उन्होंने फोन किया-
ये बताओ भाई, क्या पुलिस मैनुअल में तोंद रखने की अनुमति है?’ हमने पूछा- क्यों?’ बोले- दाढ़ी रखने में एक सब-इंस्पेक्टर निलम्बित हो गया। बड़ी-बड़ी तोंद वाले हाँफते पुलिस वाले अपराधियों को पकड़ने में तैनात हैं, इसलिए पूछा।फिर वे ठहाका लगाकर हंसे। हंसते हुए हमें बागपत का किस्सा याद आ गया। 

बागपत थाने के सब-इंस्पेक्टर इम्तियाज अली ने दाढ़ी कटाने के बाद सावधान की मुद्रा में सलूट मारा तो पुलिस अधीक्षक ने उनको ड्यूटी में बहाल कर दिया है। बिना अनुमति दाढ़ी रखने की अनुशासनहीनता में उन्हें कुछ दिन पहले निलम्बित कर दिया गया था। पुलिस सेवा आचार संहिता में मूंछें रखने की अनुमति है लेकिन सिखों को छोड़कर और कोई धर्मावलम्बी दाढ़ी नहीं रख सकता। मूंछें कड़कदार और रोबीली हों तो उनके रख-रखाव का भत्ता भी मिल सकता है। नाम तो अब याद नहीं रहा लेकिन लखनऊ में ही एक सिपाही की दोनों गालों को ढंकती डिजायनर मूंछों की तस्वीर पिछले दशक तक अक्सर छपा करती थी।

खैर, मित्र की चुहल सिर्फ हंसी के लिए नहीं थी। मामला विचारणीय है। यूं तो तोंद  सार्वकालिक और अंतराष्ट्रीय समस्या है लेकिन पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के लिए वह सर्वथा अस्वीकार्य है। वह उनकी चुस्ती-फुर्ती पर बड़ा प्रश्न उठाती है। किसी अपराधी का पीछा करना हो तो तोंद वाले पुलिस कर्मी कैसे  दौड़ें? कभी-कभार जिले के चुस्त एसएसपी सिपाहियों-थानेदारों को पुलिस लाइन में दौड़ लगवा देते हैं। तब कई तोंद वाले हाँफने लगते हैं या गिर पड़ते हैं।

सिर्फ तोंदियल सिपाहियों-थानेदारों की बात नहीं है। कोई तीन साल पहले भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सुरक्षा बलों की तोंद-समस्या पर गम्भीरता से विचार किया था। तब जो सुझाव आया था कि आईपीएस हों या छोटे पुलिस अधिकारी उनकी प्रोन्नति से पहले उनकी तोंद देखी जाए यानी फिटनेस। पता नहीं सुझाव कहां अटक गया। हाल ही में भारत-चीन सीमा पर तैनात आईटीबीपी जवानों-अफसरों के लिए उनके एक महानिदेशक ने बाकायदा तोंद-मुक्त 2020अभियान शुरू किया। इसमें अफसरों की सख्त ट्रेनिंग के साथ उनकी पत्नियों को भी हलकी-फुलकी कसरत कराना शामिल है क्योंकि फिटनेस पूरे परिवार की अच्छी होती है। बीएसएफ के महानिदेशक को यह अभियान पसंद आया तो उन्होंने भी इसे लागू करवाया है।

सीमा पर तैनात जवान और अफसर तो खैर कठिन ड्यूटी करते हैं, लेकिन शहरों में जगह-जगह ऐसे सिपाही-दरोगा-अफसर दिख जाते हैं जिन्हें हर तीन-चार मिनट में तोंद से नीचे सरक गई पतलून ऊपर समेटनी पड़ती है। बहुत समय नहीं हुआ जब मध्य प्रदेश के ऐसे ही एक बेहद बेडौल सिपाही को देखकर चर्चित लेखिका शोभा डे ने व्यंगात्मक ट्वीट कर दिया था। यह पता चलने पर कि उसे कोई असाध्य बीमारी है, शोभा डे की लानत-अलामत हुई और मुम्बई के नामी डॉक्टरों ने उस सिपाही का नि:शुल्क इलाज किया था। आशय यह कि पुलिस वालों की तोंद अपवाद स्वरूप ही बीमारी हो सकती है, सामान्यतया वह शिथिल तन-मन की निशानी ही है। तोंदियल अपराधी नहीं दिखते लेकिन पुलिस वाले खूब दिखते हैं।

अपने यू पी में मुंह से ठांय-ठांयबोलकर अपराधियों को खदेड़ने वाले प्रत्युत्पन्नमति पुलिसकर्मी हंसी का पात्र बन जाते हैं लेकिन तोंदियल थानेदारों पर कोई अंगुली नहीं उठाता। छप्पन इंचकी छाती हिंदी का नया मुहावरा बन गई लेकिन थानेदारों की तोंद कितने इंच की हो कि चर्चा में आए?

थाईलैंड में पुलिस वालों के लिए साल में कम से कम एक बार फैट बेली डिस्ट्रक्शन प्रोग्रामयानी तोंद ध्वंस कार्यक्रमचलाता है जिसमें कड़ी मशक्कत कराई जाती है। अपने यहां साल में एक बार रैतिक पुलिस परेड के अलावा कुछ नहीं होता। कौन करे? चूंकि तोंद के मामले में नेता सबसे आगे हैं, इसलिए यह मुद्दा दबा ही रहने के आसार हैं।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 अक्टूबर 2020)              

 

 

Friday, October 23, 2020

नई तकनीक से वंचित वर्ग की नई समस्याएं

 


कोरोना ने किस-किस तरह और कैसी-कैसी मार मारी है! किसी को संक्रमण हो जाने पर तो अस्पताल जाने और भर्ती होने की सुविधा मिल सकती है लेकिन दूसरे किसी भी गम्भीर रोग में इलाज मिलना बहुत मुश्किल हो गया। जिनके ऑपरेशन तय थे या डायलिसिस हो रही थी या दिल की बीमारी नियमित जांच और डॉक्टरी सलाह मांगती थी, उन्हें बहुत परेशान होना पड़ा। दिल का दौरा पड़ने की स्थिति में जब तत्काल इलाज की जरूरत होती है, किसी भी अस्पताल में कोई डॉक्टर बिना कोरोना जांच कराए हाथ लगाने को तैयार नहीं। कोविड से मरने वालों के सही-गलत जैसे भी हैं, आंकड़े मिल जाएंगे लेकिन पिछले करीब नौ महीनों में इलाज नहीं मिल पाने के कारण कितनी मौतें हुईं, इसकी कोई गिनती नहीं मिलेगी।

बहरहाल, महीनों बाद पीजीआई और केजीएमयू की ओपीडी खुली है। यह राहत की सूचना है हालांकि इस राहत की भी टेढ़ी-मेढ़ी गलियां हैं जिनमें एक बड़ी आबादी को भटकना पड़ रहा है। बिना ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के ओपीडी में जाना समय बर्बाद करना और संक्रमण का खतरा मोल लेना होगा। दोनों ही संस्थानों ने सतर्कता वश यह व्यवस्था की है कि ओपीडी में आने से पहले ऑनलाइन समय लें या फोन करके नाम दर्ज कराएं। इस डिजिटल दौर में बड़े संस्थानों के लिए यह व्यवस्था बना देना आसान है लेकिन उस जनता का क्या करें जो अभी डिजिटल युग के दरवाजे तक भी नहीं पहुंची है?

रोजाना कई मरीज और तीमारदार वहां ऐसे पहुंच रहे हैं जिन्हें यह सब मालूम नहीं या ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना उनके बस की बात नहीं। उनके लिए इतना काफी है कि अस्पताल खुल गया है। पीजीआई की प्रक्रिया और भी जटिल है। इस संकट काल में ये सतर्कताएं आवश्यक होंगी लेकिन जो इस डिजिटल भारत से बाहर हैं और उनकी संख्या बहुत बड़ी है, उनके लिए कोई क्या कोई रास्ता है?

केवल अस्पतालों की बात नहीं है, सरकार गरीब कल्याण के बहुतेरे कार्यक्रम चलाती है। इनमें बहुत घपले होते हैं, जिन्हें दूर करने और पारदर्शिता लाने के लिए ऑनलाइन व्यवस्था लागू की गई। उज्जवला योजना हो या प्रधानमंत्री आवास योजना या शौचालय निर्माण अनुदान, रजिस्ट्रेशन और बैंक खाते अनिवार्य हैं। आम ग्रामीण और कामगार वर्ग के लिए बैंक से लेन-देन भी आसान नहीं है। पिछले छह सालों में बेहिसाब खाते खोले गए। उनमें से कितने खाते चालू हालत में हैं, यह किसी भी बैंक से पता किया जा सकता है।

बैंक हों या जिला-तहसील के कार्यालय, जनता के एक बड़े वर्ग के लिए आज भी बिना किसी की मदद के उन तक पहुंच मुश्किल है। जनता में आर्थिक खाई ही बड़ी नहीं है, सामाजिक हैसियत, शिक्षा और आत्मविश्वास के बीच भी भारी अंतर है। इसीलिए आधार कार्ड बनवाने से लेकर सरकारी कार्यक्रमों का लाभ दिलाने वाला दलाल वर्ग उभर आया है। ऑनलाइन व्य्वस्था में किसी बिचौलिए की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन वह और भी अधिक हो गई है क्योंकि जनता के बहुत बड़े वर्ग की न उस तक पहुंच है न समझ।

विडम्बना यह है कि जो वर्ग सबसे ज़्यादा जरूरतमंद है, उसी की पहुंच इस तंत्र के विविध माध्यमों तक नहीं है। सरकारी अस्पताल में पर्चा बनवाना भी जिसके लिए सबसे कठिन काम हो वह कैसे नहीं दलालों के चंगुल में आ जाया? पीजीआई, मेडिकल कॉलेज से लेकर सरकारी अस्पतालों तक गरीब मरीजों और तीमारदारों को बहकाकर निजी अस्पतालों में ले जाने वाले बिचौलिए इसीलिए फल-फूल रहे हैं।

भारत के इस विशाल वर्ग को सामाजिक-शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के ईमानदार प्रयास इसीलिए सर्वोच्च प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 अक्टूबर, 2020)                        

Saturday, October 17, 2020

लॉकडाउन, अदृश्य भारत और कृष्णजित के रेखांकन



दो-तीन दिन से सोशल मीडिया में कोलकाता की एक पूजा समिति (बारिशा क्लब, बेहला) की दुर्गा-मूर्ति की फोटो वायरल हो रही है। मूर्तिकार पल्लव भौमिक की बनाई यह मूर्ति अद्भुत और बंगाल की राजनैतिक-सामाजिक चेतना की गवाह है। मई-जून के देशव्यापी लॉकडाउन में करोड़ों कामगार भूखे और नंंगे पांव सैकड़ों-हजारों मील दूर अपने घरों को जिन हालात में लौटने को मजबूर हुए थे, उसने सम्वेदनशील वर्ग को गहरे प्रभावित किया। उन श्रमिकों के चित्र अब भी दिल-दिमाग में ताज़ा हैं और मन में कसक पैदा करते हैं। पल्लव भौमिक ने कामगार मजदूरिन को, जिसकी गोद में एक नन्हा नंग-धड़ंग शिशु है, दुर्गा बना दिया है। एक बेहाल मजदूरिन में दुर्गा का रूप देखना बंगाल की धड़कती सामाजिक -राजनैतिक चेतना और कलात्मक अभिव्यक्ति का शानदार प्रतीक है। सत्यानंद निरुपम ने फेसबुक पर इस तस्वीर को साझा करते हुए टिप्पणी की- 'कोलकाता, ओह कोलकाता/ रचनात्मकता की धरती कोलकाता..।'

जब मैं इस तस्वीर को देखकर अभिभूत हो रहा था, तभी मेरे हाथ में 'नवारुण प्रकाशन' से सद्य: प्रकाशित एक छोटी-सी पुस्तिका पहुंची और उसके पन्ने पलटते हुए मुझे बंगाल की रचनात्मकता और सम्वेदनशीलता को सलाम कहने का मन हो आया। बरहमपुर, मुर्शिदाबाद के कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता के बनाए करीब चालीस रेखांंकनों की यह किताब देशव्यापी बंदी से बेहाल, भुखमरी की कगार पर पहुंचे उस भारत का चेहरा है जिस पर सरकारों, राजनैतिक दलों, योजनाकारोंं, प्रशासकों से लेकर उच्च और मध्य वर्ग की दृष्टि नहीं जाती। इसी गणतंत्र में वह भारत है और विशाल रूप में है, जिसकी एक झलक भर शेष भारत ने मई-जून की तपती दोपहरियों में सड़कों पर या थोड़ा-बहुत मीडिया में देखी। 

'प्रवासी मजदूर' कहे गए इस भारत पर काफी कुछ लिखा गया, सोशल मीडिया की टिप्पणियों से लेकर लेख, कविताएं, कहानियां और विरोधी दलों की टीका टिप्पणियां भी, लेकिन कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता ने अभिनव काम किया है। इस सचेत कलाकार ने कागज पर कलम से सिर्फ रेखाओं के माध्यम से पत्थर तराशने वालोंं, रिक्शा चालकों, सायकिल-ठेले वालों, नाई, बढ़ई, घरेलू कामगारों, फेरी वालों, आदि-आदि का  वह भारत रचा है जो आज के भारत में लगभग अदृश्य रहता है। इन चेहरों में सैकड़ों मील पैदल चल चुकने की टूटन है, भूख से पिचके गाल और उभरी हड्डियां हैंं, टकटकी लगाए गड्ढे में धंसी आंखें हैं, जिजीविषा है, संघर्ष है और हताशा भी। कृष्णजित की रेखाएं वह सब कह देती हैं जो शब्दों से नहीं कहा जा पाता, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 

कृष्णजित की रेखाएं बहुत सम्वेदनशीलता से सब कुछ सम्प्रेषित कर देती हैं। छोटी-सी भूमिका में वे पूछते हैं- 'बीमारी के संक्रमण से डरकर सरकार ने सबके मुंह में चीथड़े (मास्क) बांध दिए हैं। अनगिनत लोगों के मुंह और नाक अब निगाहों से ओझल हो गए हैं। पर क्या कपड़ों के इन चीथड़ों से अनगिनत लोगों के बेकाम और बिन पैसे के जीवन की अनिश्चितताओं को ढका जा सकता है?' यही चुभता सवाल उनके बिना चीथड़े वाले इन रखांकनों से चीत्कार की तरह उछलता है। प्रत्येक रेखा चित्र में एक चेहरा है, एक नाम है और उसके नीचे एक-दो लाइनें। जैसे, मिंटू शेख के चेहरे के नीचे दर्ज है- 'ईंट भट्टे में करते थे मजूरी/ मालिक ने कहा- आओ मत/ नहीं आई मजूरी भी इसलिए।'  

यह वास्तव मेंं मिंटू शेख का चेहरा नहीं है। कृष्णजित लिखते हैं - 'एक भी चेहरा वैसा नहीं उकेरा गया है जैसा वह है। मैंने  'क' की आंखें 'ख' के ललाट के नीचे लगा दी हैं। 'ग' के होठों' के दोनों तरफ बना दिए हैं 'घ' के गाल..।' ऐसा क्यों किया? 'क्योंकि इन भूखे और बेरोजगार लोगों का अपमान न हो। इसीलिए नाम भी बदल दिए हैं। हालांकि जांता हूं, ज्यों ही आप इन चेहरों को देखेंगे, इनमें देखेंगे आपके पहचाने हुए चेहरे।'

हिंदी में इस तरह का काम नहीं दिखाई देता लेकिन सुना है बंगाल में होता रहता है। यह पुस्तिका बांग्ला में छपी तो 'ऑल इण्डिया पीपुल्स फोरम' और 'ऐक्टू' ने इसे हिंदी में लाने की पहल की और 'नवारुण प्रकाशन' ने बहुत अच्छे तरीके से प्रकाशित किया है। पुस्तिका का शीर्षक है- 'लॉकडाउन में मज़दूर, भूखा, बेरोजगार।' हिंदी में अनुवाद मृत्युंजय ने किया है। छप्पन पेज की पुस्तिका एक सौ रु में नवारुण प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) से मंगाई जा सकती है। शायद flipkart पर भी उपलब्ध है।