Saturday, April 30, 2016

सिटी तमाशा / पॉलिथीन पर रोक की याद है किसी को!


किसी को याद है कि दो-तीन महीने पहले ही प्रदेश सरकार ने पॉलिथीन पर रोक लगाई थी? दुकानों से पॉलिथीन के थैलों में सामान मिलना बंद हो गया था. पॉलिथीन निर्माताओं और सप्लायरों के ठिकानों पर छापे पड़ रहे थे. लोग बाजार में घर से लाए गए थैलों के साथ दिखने लगे थे. दुकानों में कागज के लिफाफों की आमद बढ़ गई थी.  प्रदेश मंत्रिमण्डल ने बाकयदा फैसला लिया था, अधिसूचना जारी की गई थी और उस पर सख्ती से अमल के लिए जिला प्रशासन, नगर निगम, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, आदि कुछ विभागों की कमेटी बना दी गई थी. तभी हमने इस स्तम्भ में लिखा था कि पर्यावरण के इस बड़े शत्रु पर अगर सचमुच रोक लग सकी तो इसका पूरा श्रेय अखिलेश सरकार को मिलेगा. अगरशब्द का इस्तेमाल हमने जान-बूझ कर किया था. पॉलिथिन-लॉबी इस फैसले को किसी भी तरह विफल करने पर उतारू थी. हमने लिखा था कि आगामी चुनाव के मद्देनजर सरकार किसी लॉबी को नाराज नहीं करना चाहेगी.
देख लीजिए, फिर से धड़ल्ले से पॉलिथीन बन रही है, बिक रही है और इस्तेमाल हो रही है. रोक पर अमल के जिम्मेदार विभाग पहले एक दूसरे पर  टालते रहे और फिर सब शांत बैठ गए, यह कह कर कि प्रतिबंध को लागू करने के लिए जरूरी नियमवाली ही नहीं बनी. जब मंत्रिमंडल ने फैसला कर लिया था और अधिसूचना भी जारी कर दी गई थी तो नियमावली क्यों नहीं बनीं? सच्चाई यही कि उसे बनने नहीं दिया गया. पॉलिथीन लॉबी को मालूम था कि सपा सरकार चुनावी मोड में आ चुकी है और इस आड़ में अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है. मीडिया धीरे-धीरे इस मुद्दे को भूल गया और सरकार ने आंखें मूंद लीं. वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि प्रदेश मंत्रिमण्डल एक बड़ा फैसला करे और सरकार ही के विभाग उसे दफ्न कर दें? जाहिर है सत्तारूढ़ पार्टी ही नहीं चाहती कि पॉलिथीन लॉबी नाराज हो. सरकार में इतना भी साहस नहीं कि वह फैसला रद्द करने की घोषणा कर दे. उसकी तरफ से आंखें मूंद लेना आसान और आजमाया हुआ उपाय है. चुनावी चंदे और वोट दोनों का महत्वपूर्ण सवाल है. जनहित और पर्यावरण के मुद्दे गौण हैं.

गुटखा पर रोक लगाने का फैसला भी इसी सरकार ने क़िया था. क्या हुआ? गुटखा लॉबी भी धंधे से मजबूत लॉबी है. पहले उसने भी विरोध का रास्ता अपनाया, बाद में उसे अक्ल आई या समझा दिया गया. गुटखा की परिभाषा पान मसाला और तम्बाकू के मिश्रण के रूप में की जाती है. सो, उन्होंने एक ही पाउच को दो हिस्सों में बांट कर मसाला अलग और तम्बाकू अलग बेचना शुरू कर दिया, बस! सरकार का फैसला रह गया और उनका धंधा भी चलता रहा. इससे कोई मतलब नहीं कि गुटखा पर रोक का मकसद जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा था. पॉलिथीन लॉबी ने भी रोक से बचने के लिए पहले ऐसी ही बहानेबाजी निकाली. उन्होंने कैरी बैग बनाने की बजाय लिफाफे जैसे थैले बनाए जिसमें पकड़ने के लिए जगह नहीं थी. कहा कि यह कैरी बैग नहीं हैं. रोक कैरी बैग पर लगी है. ये थैले खूब चलम में हैं. नियमावली बनी नहीं थी, इसलिए प्रशासन कुछ कर नहीं सका. हफ्ते-दस दिन बाद कैरी बैग वापस आ गए. जनता, जो खरीदारी के लिए घर से अपने थैले ले जाना सीख रही थी, फिर से ढेर पॉलिथीन लाने और खुले में फेंकने लगी है. और, नियमावली अब भी नहीं बनी है. वह बनेगी भी नहीं.  (नभाटा, 29 अप्रैल, 2016)

Thursday, April 21, 2016

सिटी तमाशा / ताप का मौसम और जीवन के ताप


सुबह पौधों को पानी दे रहा था. सहमी पत्तियां पानी के स्पर्श से तरोताजा हो उठीं. थोड़ी देर में देखा कि क्रोटन की पत्तियों पर टिकी पानी की बूंदों पर एक नन्हीं चिड़िया फुदकने-चहकने लगी. हलकी पीताभ उसकी चोंच बूंदों से खेलने लगी. नन्हे पंखों की जुम्बिश से वह पानी उछालने लगी. अपनी मंद-मधुर चहचहाहट से उसने अपने संगी को भी बुला लिया. क्रोटन का पूरा पौधा जैसे जीवंत हो उठा. पानी से सराबोर पत्तों पर चिड़ियों की क्रीड़ा देख कर  सारे तनाव, चिंताएं, आशंकाएं काफूर हो गईं और मन बिल्कुल हल्का. मैंने पानी की एक बौछार चिड़ियों की ओर उछाली. वे चीं-चीं-चीं करती फुर्र हो गईं और सामने के पार्क में जामुन की घनी पत्तियों में छुप कर शिकवा-सा करने लगीं.  सुबह से ही धूप तीखी होने लगी है लेकिन रोज देखता हूं कि पड़ोस का गुलमोहर और भी ज्यादा खिलखिलाता जा रहा है. हर रोज उसकी कुछ और कलियां चिटक कर समूचे पेड़ को चटख लाल रंग में रंग जाती हैं. वहीं कहीं एक अमलतास की कलियां सूरज को चुनौती देती जान पड़ती हैं कि जरा और आग बरसाओं तो हम दिखाएं कि जेठ में वासन्ती वसन कैसे ओढ़े जाते हैं. गमले का दुपहरिया उसकी हां में हाँ मिलाता है और ढलते सूरज को चुनौती देता है- बस, थक गए!
जितनी तेज गर्मी होती है, प्रकृति हमारे लिए उतना ही शीतल रस बरसाती नजर आती है. इसे महसूस करना अद्भुत है. ककड़ी-खीरा-तरबूज-खरबूज शहर की किसी दुकान से खरीद लाना अलग बात है और नदी किनारे की झुलसाती रेत पर हरियाती बेलों में उनका फूलना-फलना देखना अलग ही सुख है. रातों को इन बेलों के बीच  होती सरसराहट और सुबह ककड़ी को एक अंगुल बढ़ा हुआ देखना बांझ रेत पर एक चमत्कार जैसा लगता है. जितनी भीषण लू, तरबूज-खरबूज का उतना ही मीठा होना प्रकृति का संदेश ही तो है हमारे लिए.
जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते गए, उसके संदेश पढ़ना-देखना भी भूलते गए. प्रकृति हमें जुझारू होना और धैर्य सिखाती है. विगत वसंत में जन्मे पल्लव देखिए, कैसे सख्त और टिकाऊ होते जा रहे हैं. उन्हें पता है कि अगले पतझड़ तक कई झंझावातों का मुकाबला करना है.  इस सब से मुंह मोड़े हम धैर्य खो कर बहुत जल्दी हार मान लेते हैं. यह क्या अकारण है कि हर समय हम शहरियों की भृकुटियां चढ़ी रहती हैं और नाना प्रकार के रोग शरीर में डेरा डालते जाते हैं. सहजता को हमने अपने से दूर जाने दिया और मान लिया कि यही विकास और आधुनिकता है. क्या अभावग्रस्तता के बावजूद आम ग्रामीण कहीं ज्यादा तनाव मुक्त, सहज तथा सहनशील नहीं है? वह बड़ी-बड़ी दिक्कतों को आसानी से  नहीं झेल जाता? और क्या इसका कारण यह नहीं है कि वह प्रकृति के बहुत करीब और अपनी जड़ों से गहरे जुड़ा है?

इस सब के बावजूद हमारे जीवन व्यवहार में प्रकृति के करीब जाने और और अपने पर्यावरण को सहेजने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई दे रही. जो कॉलोनियां कागज पर जितनी हरी-भरी और साफ-सुथरी हैं, वे वास्तव में उतनी ही रूखी और गंदी हैं. प्रकृति को हमने ठगी का सबसे बड़ा शिकार बना डाला. असल में ठगे हम खुद गए हैं. आज हमारे जीवन के अस्वाभाविक और अप्राकृतिक होने के क्या यही कारण नहीं हैं? अगली सुबह जब आप पौधों को पानी दें तो जीवंत हो उठी पत्तियों और पड़ोस में कहीं से आती मधुर चहचहाहट को इस नजर से देखें और सोचें कि हमसे यह सब कैसे छिन गया. (नभाटा, 22 अप्रैल 2016)

Friday, April 15, 2016

सिटी तमाशा / क्यों डराते हैं अच्छी बारिश के आसार?


किसानों को जरूर यह खबर ठंढी हवा के झोंके की तरह लगी होगी कि इस बार बहुत अच्छी बारिश होगी, सामान्य से ज्यादा. पिछले दो-तीन साल से मानसून रूठा हुआ था. खेती सूख गई, किसान तबाह हुए और महंगाई बढ़ी. अच्छी बारिश की बड़ी जरूरत है.
लेकिन यह खबर पढ़ते ही बहुत डर गए हम. हमारे नगर-महानगर इस अच्छी बारिश को कैसे झेल पाएंगे? जरा सी बारिश में जलभराव से डूब जाने वाले हमारे शहरों का क्या हाल होगा? बेहिसाब बढ़ती आबादी से चरमराए शहरों के नाले-नालियों में इतनी क्षमता नहीं कि वे थोड़ी सी बारिश का पानी भी कायदे से ले जा सकें. जलग्रहण क्षेत्र और तटों पर भारी अतिक्रमण की मारी नदियां अब बारिश से डरती हैं, उनका बहाव उलटा होकर शहरों की आबादी को लीलने लगता है. पिछले साल चेन्नै में क्या हुआ था? बारिश के पानी के प्राकृतिक बहाव के लिए हमने कोई जगह ही नहीं छोड़ी. तालाब तक पाट दिए और ढाल वाले इलाकों में अपार्टमेण्ट बना दिए. सुंदर बनाने के नाम पर नदी के किनारे भारी कंक्रीट से बांध दिए. इस बार का मानसून लखनऊ में दो शानदारनिर्माणों को बहुत हैरत और सदमे से देखने वाला है. एक, गोमती नगर जैसे इलाके में बड़े-बड़े नालों के ऊपर स्लैब ढाल कर साइकिल ट्रेक बना दिए गए हैं. नालों में पानी जाने का रास्ता नहीं बचा या अतिक्रमणकारियों ने उसे कचरे से बंद कर दिया है. दो, बीच शहर में गोमती नदी का काफी लम्बा तट रिवर फ्रण्ट डेवलपमेण्ट के नाम पर कंक्रीट से पाट दिया गया है. नदी को नहर-सा बांध दिया है. अच्छी बारिश यह विचित्र नजारा देखकर हड़बड़ा जाएगी और गुस्से में पता नहीं क्या-क्या कर डाले. पानी सड़कों, मुहल्लों, घरों का रुख करेगा. साइकिल ट्रेक पर नगर निगम ने ही एलडीए से आपत्ति जता दी है.
लेकिन डरना एक बात और कमर कसना अलग बात. सो, अभी भी वक्त है कि कुछ साज-सम्भाल कर ली जाए. नालों को खूब साफ किया जाए, तालाब कहीं बचे हैं तो उन्हें गाद निकाल कर गहरा-चौड़ा किया जाए, बड़े-बड़े पार्कों में थोड़ी खुदाई कर पानी के कुछ देर ठहरने की व्यवस्था हो, इतनी देर कि बारिश का पानी मिट्टी में सीझ सके. बड़ी-बड़ी सरकारी इमारतों में बारिश के पानी को जमीन के नीचे डालने की आसान सी व्यवस्था दुरुस्त की जाए. जवाहर भवन, इंदिरा भवन और पिक-अप जैसी विशाल इमारतों में वर्षा जल संचयन प्रणाली पूरे तंत्र को मुंह चिढ़ा रही है. हुजूर, उसे ठीक करिए. और भी बड़ी इमारतों में उसे लगाइए. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ की आलीशान इमारत का हाल ही में उद्घाटन हुआ है. हमें पूरी उम्मीद है कि वर्षा जल के साथ पूरा न्याय करने की व्यवस्था इस खूबसूरत भवन में होगी ही.  यह न्याय शहर में यथासम्भव हर जगह पहुंचे. छोटे-छोटे व्यक्तिगत स्तर तक यह काम हो. अधिक से अधिक नागरिक इस पुण्य कार्य में योगदान करें.  धरती की सूखती कोख इससे हरी होगी, जल स्तर बढ़ेगा और बारिश से जल भराव एवं बाढ़ की सम्भावना बहुत कम हो जाएगी.    
बारिश जीवन दायिनी है. उसका सामान्य से कुछ अधिक होने की खबर शुभ होनी चाहिए. उससे डर लग रहा है तो कारण हम हैं. हमने ही उसका सम्मान करना और उसके लिए पर्याप्त जगह  छोड़ना बंद कर दिया. कमर कसिए, खूब बारिश के लिए तैयार रहिए और उसका स्वागत कीजिए. पानी का संकट भी टलेगा और बाढ़ व जल जमाव के नुकसान भी न होंगे. ठीक?
लेकिन मैं यह किससे कह रहा हूं?
(नभाटा, अप्रैल 15, 2016)


Wednesday, April 13, 2016

उत्तराखण्ड में राजनीतिक नंगनाच होता रहेगा अगर तीसरा विकल्प नहीं बना तो


नवीन जोशी
मार्च 2016 के अंतिम दिनों में उत्तराखण्ड के राजनीतिक गलियारों में जो नंगनाच हुआ (और जो लोकतंत्र की हत्या अथवा रक्षा, संविधान के अनुच्छेदों के पालन अथवा उल्लंघन, और सदन एवं न्यायालय के क्षेत्राधिकारकी अनंत बहसों के बीच अभी कई दिन तक जारी रहने वाला है) उसे देख-सुन कर अब तो उत्तराखण्ड की जनता को साफ-साफ समझ जाना चाहिए कि नेता कहलाने वाले जिन लोगों को अपने कीमती वोट से चुन कर वह विधान सभा में भेजती आई है, उनके असली इरादे क्या और कैसे हैं. कोई भ्रम नहीं रह जाना चाहिए कि इन नेताओं का मकसद येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल कर राज्य की सम्पत्ति को बेचना और बेहिसाब दौलत कमाना है, इतनी दौलत कि उनकी सात पुश्तें तो मौज करेंगी ही, जब जरूरत पड़े तब सत्ता के लिए समर्थन अथवा विरोध भी महंगे दामों खरीदा जा सके. चुनाव के वक्त राज्य के विकास के उनके नारे और वादे तथा सार्वजनिक सभाओं के भाषणों में की गई बड़ी–बड़ी बातें सिर्फ दिखावा हैं. उनकी असली बातें वे हैं जो अब निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत के एक स्टिंग में सुनाई दी हैं. स्टिंग का यह वीडियो फर्जी हो या उसमें छेड़छाड़ की गई हो, तो भी उन बातों की सच्चाई निर्विवाद है और वह हरीश रावत क्या, उन सभी नेताओं के मुंह से बंद कमरों में की जाती रही हैं, जिनकी लार सत्ता के लिए टपकती रहती है.
उत्तराखण्ड राज्य के 16 सालों में भाजपा और कांग्रेस अदल-बदल कर सत्ता में आती रही हैं. इन सोलह वर्षों में विकास के नाम पर जनता और उसके संसाधनों की लूट मची रही, नेता-अफसर-ठेकेदार-माफिया गठजोड़ हावी होता चला गया, सत्ता पोषित भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बनते रहे, राज्य का पहाड़ी हिस्सा उजड़ता रहा, गांव तेजी से खाली होते रहे, मनुष्य और पर्यावरण की घोर अनदेखी हुई, बेहतर जमीनें बाहरी लोगों के हाथों बिकती चली गईं और वे सपने दूर से दूर होते चले गए जिसके लिए उत्तराखण्ड की जनता ने राज्य की मांग की थी और बलिदान देकर उसे हासिल किया था. इस पूरे दौर में भाजपा और कांग्रेस के नेता-मंत्री-मुख्यमंत्री सिर्फ सत्ता पाने की होड़ में अपनी ही पार्टी की सरकाओं को अस्थिर करने की साजिशें रचते रहे. 16 साल में आठ मुख्यमंत्रियों के संक्षिप्त कार्यकालों का किस्सा बताता है कि हमारे नेता कुर्सी का कैसा घिनौना खेलते हैं. राज्य की जनता की दिक्कतों और सपनों की तरफ तो उनका ध्यान ही नहीं था.
यह खेल चलता रहेगा अगर उत्तराखण्ड की जनता ने अब भी आंखें नहीं खोली तो; अगर राज्य में सक्रिय विविध संगठनों, नए-पुराने आंदोलनकारियों और सजग बौद्धिक जगत ने तीसरा राजनीतिक विकल्प बनाने की पहल नहीं की तो. वह विकल्प अस्थाई और अल्पजीवी हो तो भी वह वक्त की  सख्त जरूरत है. लेकिन पहले राजनीतिक हालात पर थोड़ा विस्तार से..
हरीश रावत ने जिस तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाई थी, उसी तरह उनसे छीन भी ली गई. कानूनी दांव-पेंच और अदालती हस्तक्षेप के बाद उन हें कुर्सी वापस मिल भी गई तो जनता को क्या मिल जाने वाला है? जब कभी कांग्रेस को उत्तराखण्ड की सत्ता में आने का मौका मिला, हरीश रावत ने मुख्यमंत्री बनने के लिए चालें चलीं लेकिन कभी नारायण दत्त तिवारी से मात मिली तो कभी सोनिया के दरबार से, जो उनकी संजय गांधी-भक्त की पुरानी छवि भूल नहीं पाया था. 2002 में राज्य विधान सभा का पहला चुनाव कांग्रेस ने जीता और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दिल्ली दरबार ने नारायण दत्त तिवारी को बिठा दिया. 2012 में 32 (भाजपा से एक ज्यादा) सीटें पाकर कांग्रेस को फिर सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी विजय बहुगुणा के हिस्से में जा पड़ी. हरीश रावत तब केंद्र सरकार में राज्य मंत्री थे और उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्होंने दिल्ली में बगावत का अच्छा-खासा ड्रामा किया लेकिन सोनिया ने उन्हें नजर अंदाज़ किए रखा. उस समय ऊपर से शांत हो गए हरीश रावत ने लगातार विजय बहुगुणा को अस्थिर करना जारी रखा. जनवरी 2014 में वे अपने विधायक-गिरोह से विजय बहुगुणा के खिलाफ बगावत करा कर उन्हें अपदस्थ कराने और खुद मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए.
उन्हें इस कुर्सी पर दो ही साल हुए थे कि उन्हें हटाने की पटकथा लिख दी हई. हरीश रावत की सरकार गिराने के लिए विजय बहुगुणा खेमे ने भाजपा की मदद ली. उनके नौ विधायक बगावत कर भाजपा की शरण में चले गए. भाजपा ने खुद सत्ता हासिल न कर पाने की स्थितियां देख कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया. इसकी भी चिंता नहीं की कि विधान सभाध्यक्ष ने सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया था. आप देखिए कि विरोधी दलों की सरकारें गिराने का जो घिनौना खेल कांग्रेस खेलती थी, अब ठीक वैसा ही भाजपा कर रही है. तर्क और शब्दावली भी बिल्कुल एक ही हैं. खैर.
भाजपा के नेता भी उत्तराखंड की सत्ता हथियाने के लिए साजिशों का ऐसा ही नाटक रचते रहे हैं. नौ नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य का जन्म हुआ और उ प्र विधान परिषद के नित्यांनद स्वामी वरिष्ठता के आधार पर राज्य के मुख्यमंत्री बने. उन्हें मात्र 11 महीने 20 दिन बाद भगत सिंह कोश्यारी के लिए कुर्सी खाली करनी पड़ी जो उस पर सिर्फ तीन महीने 29 दिन बैठ पाए. खैर, वे राज्य बनने का संक्रांति काल था. विधान सभा गठन के बाद 2002 के पहले चुनाव में कांग्रेस जीती और अनुभवी तथा विकास पुरुष कहाने वाले तिवारी जो को यह कुर्सी दी गई. तिवारी जी चाहते तो वे इस मौके का उपयोग कम से कम हिमाचल प्रदेश जैसा बनाने में तो कर ही सकते थे जिससे राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट काफी कम हो जाती. लेकिन तिवारी जी पूरे पांच साल पांच दिन इसी संताप में रहे कि कहां तो मुझे देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए था और कहां इस छोटे से राज्य में पटक दिया गया! शुरू में उन्होंने कुछ बेहतर करने की कोशिश भी की थी लेकिन बाद में ऐसे-ऐसे कारनामे करने पर उतारू हो गए कि नौछमी नरैणा जैसी रचना के जन्म का कारण बने. विकास पुरुष आगे आने वालों के लिए भी राज्य की लूट का रास्ता प्रशस्त कर गए.
सन 2007 का चुनाव भाजपा ने जीता और भुवन चंद्र खण्डूड़ी मुख्यमंत्री बने. सेना से राजनीति में आया यह पूर्व जनरल कड़क और ईमानदार तो शायद साबित हुआ लेकिन राजनीति के दांव-पेचों का खिलाड़ी बन नहीं पाया. उनके ही मंत्री उनका कहा नहीं मानते थे और अफसरों की मनमानी छिन गई थी. लिहाजा दो साल तीन महीने पंद्रह दिन के बाद उनके ही उनके वरिष्ठ मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने उनका तख्ता पलट दिया. अपने को उत्तराखण्ड का योग्यतम मुख्यमंत्री मानने वाले निशंक ने ऐसा लूट तंत्र चलाया कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें दो साल, दो महीने और सत्रह दिन में हटा दिया. उसे डर था कि निशंक सरकार की व्यापक बदनामी के कारण भाजपा अगला चुनाव हार जाएगी. सो, खण्डूड़ी जी को वापस लाया गया. चुनाव सिर्फ छह महीने दूर थे. इतने कम समय में वे भाजपा सरकार की साख लौटा नहीं सकते थे. सो, 2012 के चुनाव में भाजपा कांग्रेस से एक सीट कम पा कर कुर्सी की दौड़ में पिछड़ गई.
कांग्रेस ने हरीश रावत के तमाम दावों और दवाबों के बावजूद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया. विजय के पास अपने पिता का नाम भर है, बेहतरीन प्रशासक और नेतृत्व क्षमता के उनके गुण का अंश भर भी उन्हें नहीं मिला. ऊपर से पुत्र-मोह. प्रशासन और सहयोगियों पर पकड़ थी नहीं, सो उनकी ढेरों कमजोरियां-खामियां उजागर होती चली गईं. हरीश रावत ताक में थे ही, उन्होंने पाशा फेंका और वर्षों पुराना सपना साकार कर लिया.
हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर मैं ही नहीं, उत्तराखण्ड की चिंता में शामिल बहुत सारे लोग खुश हुए थे. 2012 में जब उन्हें सोनिया ने उत्तराखण्ड की कुर्सी नहीं सौंपी तो भी हम दुखी हुए थे. इसलिए कि हरीश रावत उत्तराखण्ड को बेहतर समझते रहे हैं, उसके कुछ जनांदोलनों के साथ रहे हैं और जनता की अपेक्षाओं तथा अब तक की निराशाओं का उन्हें खूब पता है. उनमें नेतृत्व क्षमता और प्रशासनिक पकड़‌ के भी दर्शन होते रहे थे. इसलिए हमने माना था कि राज्य को अब ऐसा मुख्यमंत्री मिला है जो कुछ जरूरी जमीनी काम करेगा लेकिन हम सब बेहद निराश हुए जब उन्होंने उत्तराखण्ड के जल-जंगल-जमीन और दूसरे संसाधनों को बड़े उद्योपतियों को कौड़ी के भाव सौंपना शुरू किया, अतिशय परिवार मोह दिखाया और जनता एवं आंदोलनकारियों के प्रतिरोधी स्वरों को सुनने से इनकार करते हुए उनका क्रूर दमन कराया. रावत ने सचमुच बहुत निराश किया.
इस सारे विवरण को यहां याद करने का आशय यह रेखांकित करना है कि उत्तराखण्ड को लूटने में कांग्रेस या भाजपा सरकारों-नेताओं में कोई फर्क नहीं है. इन्होंने मिलकर सिर्फ 16 वर्ष में उत्तराखण्ड समूर्ण हिमालयी क्षेत्र का सबसे उजड़ा राज्य बना डाला है. यह ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां अच्छी तरह जानती हैं कि राज्य की जनता के पास उनके अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसलिए तय है कि मौका मिलने पर वे फिर यही सब करेंगे. इसलिए उनसे तत्कालिक मुक्ति आवश्यक है.
लेकिन विकल्प क्या है? उत्तराखण्ड की बेहतरी के लिए अलग-अलग लड़ रही प्रगतिकामी ताकतों की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता को बेहतर और भरोसे लायक विकल्प दे. समय कम है लेकिन इतना कम भी नहीं कि तीसरी राजनीतिक ताकत खड़ी न की जा सके. भाजपा और कांग्रेस से बुरी तरह ऊबी दिल्ली की जनता को केजरीवाल भरोसा दिला सकते हैं कि आप इन दोनों का बेहतर विकल्प होगी तो उत्तराखण्ड की संघर्षशील ताकतों के लिए यह क्यों नहीं सम्भव हो सकता? कुछ मूल मुद्दों पर जल्दी एक होने की जरूरत है. जल्दबाजी में बना ऐसा विकल्प दीर्घजीवी न हो, स्थिर सरकार न दे पाए तो भी उसका कामचलाऊ रूप स्वीकार्य होना चाहिए क्योंकि उसकी ऐतिहासिक भूमिका भाजपा और कांग्रेस दोनों को उत्तराखण्ड की सत्ता से बाहर करने की होगी. उसके जल्दी बिखर जाने से फिर और बेहतर विकल्प पैदा होने की सम्भावनाएं बनेंगी. जनता को भी भरोसा होगा कि उसके पास दूसरे विकल्प भी हैं. उत्तराखण्ड के लिए वैकल्पिक और स्थानीय राजनीतिक विकल्प का रास्ता इस तरह निकल सकता है.
((नैनीताल समाचार, अप्रैल 2016) 




Thursday, April 07, 2016

सिटी तमाशा / चुल्लू भर पानी भी जब नहीं बचेगा, जनाब!


गर्मी बस शुरू ही हुई है और पानी के लिए हो-हल्ला मचने लगा है. ऐसा नहीं कि जाड़ों में पानी की इफरात रहती है, बस जरूरत कम हो जाती है, अन्यथा पानी का संकट अब बारहों मास रहता है. जब भी पानी के लिए त्राहि-त्राहि, झगड़े-फसाद और धरना-प्रदर्शन की खबरें पढ़ता हूं तो बहुत अफसोस होता है और बचपन के दिन याद आने लगते हैं. कोई 40-45 साल पहले इसी लखनऊ में पानी कितना सुलभ था! इस मौसम में जब स्कूल से लौटते थे तो फुटपाथ पर जगह-जगह म्युनिसिपलिटी के नल लगे होते थे. बम्बा कहते थे हम उन्हें. बम्बा खोला और चुल्लू लगा कर पानी पी लिया, मुंह-हाथ धो लिया. केकेसी तिराहे से खटिकाना, नई बस्ती और उदयगंज होकर हम लौटते थे तो डेढ़-दो किमी में कम से कम चार जगह के बम्बे मुझे अब भी याद हैं. तीन तरफ से ईटों की छोटी दीवार उन्हें ढके रहती थी और सामने की तरफ से कोई भी बम्बा खोल कर पानी पी ले, भर ले, नहा-धो ले. तब न कोई टोटी चुराता था, न बम्बा खुला छोड़ता था. पानी की इज्जत करते थे लोग.

उदयगंज तिराहे पर एक किनारे बम्बे के नीचे बड़ी-सी नाद थी, आज के बाथरूम वाले टब की तरह, सीमेण्ट से बनी. उसमें पानी भरता रहता था. सदर से केसरबाग चौराहे तक खूब इक्के-तांगे चलते थे. प्यासा घोड़ा अपने आप नाद की तरफ मुड़ जाता तो तांगे वाला प्यार से कहता- चल प्यारे, पी ले, पी ले. चैत-वैशाख में ही जेठ-सा तप रहा है, पी ले. रास छोड़ कर वह वह नाद का पानी चुल्लू से उछाल-उछाल कर घोड़े की अयाल तर कर देता, उसकी पीठ पोछ देता. सवारियां भी उतर कर पानी भी लेतीं. छुट्टा जानवर पानी पीने वहां आते रहते. नाद से पानी बाहर बहने लगता तो पड़ोसी हलवाई अपने नौकर से टोटी बंद करवा देता. 1975 तक भी यह नाद और कुछ बम्बे देखने की याद है. बाद-बाद में पानी हर वक्त नहीं आता था. दोपहर में जब कभी बम्बा खोलते तो उसके मुंह से निकलती तेज हवा सीटी बजाने लगती. फिर कुछ साल बाद पानी आना बिल्कुल बंद हो गया. फिर देखते-देखते बम्बे गायब हो गए. इक्के-तांगे आज होते तो कहां पानी पीते? बची-खुची चिड़ियों को भी अब चोंच भर पानी नसीब नहीं.     


पिछले चालीस-पचास वर्षों में क्या हो गया? शहरों की आबादी तेजी से बढ़ी क्योंकि हमारी सरकारों ने गांवों के विकास की घोर उपेक्षा की. तो भी, पानी क्या, अपने किसी भी प्राकृतिक संसाधन का सम्मान किया न बेहतर प्रबंधन. मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर हर वस्तु का आकर्षक व्यापार होने लगा. बड़ा अचम्भा होता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हमारा हवा-पानी हमें ही बेच कर भारी मुनाफा कमा रही हैं. अब इस व्यापार ने मनुष्य-भाव खत्म कर दिया. पानी का जतन करने वाला समाज दो हिस्सों में बांट दिया गया. एक, लूटने की हद तक पानी की बर्बादी करने लगा. दूसरा पानी के लिए तरसने लगा. देखिए कि कुछ लोगों के विशाल हरे-भरे लॉन बेहिसाब पानी से सींचे जा रहे हैं. उधर, आम जनता खाली घड़े-बाल्टियां लिए सड़क पर है. अगले दस वर्षों में और स्थिति भयावह होगी. बदलाव या बिगड़ने की रफ्तार बहुत तेज है. मुक्त अर्थव्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति ने जो नव-धनिक वर्ग पैदा किया है वह संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहा है. उन्हें पता नहीं कि चुल्लू भर पानी भी उनकी अगली पीढ़ियों के लिए नहीं बचेगा.

Friday, April 01, 2016

सिटी तमाशा / पेड़ों पर लटकी गृहस्थियां

साथ में छपी फोटो देखिए. पेड़ के तने पर ऊपर-नीचे बंधी ये गठरियां क्या हैं? कई दिन से ऐसी ग़ठरियां दिखाई दे रही थीं. एक दिन ठहर कर, करीब से देखा तो समझ में आया. ये वास्तव में सीमेण्ट की खाली बोरियां हैं, जिनमें बंधे सामान का आकार सभी में लगभग एक जैसा है. एक बड़ी थाली का आकार स्पष्ट दिखाई देगा, एक डेग या बटुली का भी. पेड़ के तने की परिक्रमा करिए तो किसी-किसी गठरी में लोटे या मग का आकार नजर में आएगा. हर गठरी पूरी एक गृहस्थी है, दिहाड़ी मजदूरों की, जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं. जहां ये गठरियां बंधी हैं वहीं पेड़ों के नीचे लाइन से ईंटों के चूल्हे दिखाई देंगे और मामला साफ होता जाएगा. शाम को ये गठरियां एक-एक कर उतारी जाती हैं, थाली में आटा गूंथा जाता है, बटुली में चावल-दाल या सब्जी पकाई जाती है और खा-पी कर सड़क किनारे ही निश्चिंत नींद निकाली जाती है. सुबह छह बजे फिर चूल्हे जलते हैं, सात बजे भोजन हो जाता है और बाकी चावल या रोटी की पोटली लिए लोग चौराहों की मजदूर मण्डी में दिहाड़ी की तलाश में जा बैठते हैं. हां, जाने से पहले बोरी में सारी गृहस्थी समेट कर, उसका मुंह कस कर बांध देने के बाद उसे पेड़ के तने में कुछ ऊपर सुरक्षित बांध दिया जाता है. दिन भर यह गृहस्थी पेड़ों पर सुरक्षित रहती है जब तक कि इनके मालिक लौट नहीं आते.
यह राजधानी है, एक महानगर, जहां दूर गांव-देहातों से तरह-तरह के लोग रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं. दिहाड़ी मजदूरों की बहुत बड़ी संख्या है जिनकी कमाई इतनी नहीं होती कि सिर छुपाने के लिए किसी कोठरी का इंतजाम किया जा सके. हाड-तोड़ मेहनत से जो कुछ मिलता है उसका बहुत छोटा हिस्सा पेट भरने में जाता है और बाकी घर-परिवार के लिए बचाया जाता है. ऐसे लोगों के लिए फुटपाथ (जो अब गायब हो रहे हैं) या कोई खाली प्लॉट या कोई उजड़ा पार्क खाना पकाने और रात गुजारने के काम आते हैं. गोमती नगर के मनोज पाण्डे चौराहे के आस-पास, जहां पेड़ों पर ये गृहस्थियां पहले-पहल दिखीं, मजदूर बंद नाले के ऊपर पकाते-सोते थे. अब नाले पर खूबसूरत साइकिल पथ बन गया है. साइकिल पथ पर बहुत सारे अवैध कब्जे हैं लेकिन मजदूरों की हिम्मत न तो वहां खाना पकाने की होती है, न सोने की. वे पथ से हटकर सड़क किनारे सोते हैं. इनके लिए कोई शौचालय नहीं है, जाड़ों में वे कथरी या बोरों की गठरी बने सड़क किनारे, किसी दुकान के बरामदे या किसी उजाड़ बस स्टॉप के नीचे पड़े रहते हैं. बरसात में इनकी रातें कैसे गुजरती हैं, हम क्या जानें!

आए दिन निर्माणाधीन इमारतों से मजदूरों के गिरने-मरने की खबरें हम पढ़ते हैं. कई मजदूर खुदाई में मिट्टी ढहने से मर जाते हैं. कुछ सोते समय सड़क पर कुचल कर भी मारे जाते हैं. उनकी मौत चंद लाइनों की खबर बन कर रह जाती है. उनके लिए सुरक्षा के मानक हैं न न्यूनतम मजदूरी की दरें. घायल होने पर इलाज को कौन पूछे. ये सबसे बड़े मेहनतकश हैं और सबसे निरीह एवं असुरक्षित, इसी राजधानी में. ये वोट बैंक भी नहीं कि कोई इनके लिए कुछ करे. मजदूर संगठनों के लिए भी इनका कोई अस्तित्व नहीं. ये सिर्फ पेड़ों पर लटकी गठरियां भर हैं. जाने किस शाम उसे उतारने वाला लौटे ही नहीं!   (नभाटा, 01 अप्रैल 2016)