Friday, September 27, 2019

शरद ऋतु का यह झमाझम वर्षा-राग




ऋतु-चक्र के हिसाब से शरद ऋतु का आगमन हो चुका है लेकिन आसमान ऐसे बरस रहा है जैसे वर्षा ऋतु से मनमौजी होली खेलने को वह अचानक आतुर हुआ हो. सावन-भादौ में ऐसी झड़ी नहीं लगी जैसी पिछले छत्तीस घण्टे (इन पंक्तियों को लिखे जाते समय तक) से निरंतर लगी हुई है. जब बरसना था तब बादलों को जाने क्यों संकोच हुआ. रह-रह कर बूंदें गिराकर भूल जाते रहे. अब लगता है कि बरसना शुरू करके बंद होना भूल गए हैं.

आकाश में उमड़-घुमड़ नहीं है. बादलों के बीच गर्जन-तर्जन और कड़कती बिजली की चमकी नहीं है. बादलों के यूथ भांति-भांति के रंगों में इधर से उधर नहीं उड़ रहे. बराबर सघन और समान रूप से भूरे बादलों की एक मोटी परत आसमान में जमी हुई दिखती है. जैसे एक इकरंगी विशाल सिल्ली कहीं से आकर ऊपर टिक गई हो. बादलों की वह मोटी सिल्ली पिघल रही है. पिघलते-पिघलते और सघन होती जा रही है. इस बारिश में इसीलिए एक लय है.

लखनऊ का आसमान आम तौर पर सितम्बर में ही टूटता रहा है. अब तक यहां जितना बाढ़ें आई, इसी मास आईं. इस बार सितम्बर को भी जैसे देर से ही लगा कि अवध की धरती को तर-बतर करना था. मूसलधार नहीं है लेकिन खूब मज़े की झड़ी है. धरती की छाती खुली होती तो भीतरी परतों तक पानी समाने के लिए ऐसी वर्षा उत्तम होती है. मूसलधार तो टिकती-रिसती नहीं, सब कुछ बहा ले जाती है. मगर कंक्रीट के शहर में यह पानी धरती के भीतर जाए कैसे. सो, निचले इलाकों में पानी ही पानी दिख रहा. अखबार लिख रहे हैं कि शहर पानी-पानी हो गया. हमें लगता है कि 'पानी-पानी' तो विकास का यह पैमाना हुआ है जो इतनी शालीन बारिश को भी सम्भाल नहीं पा रहा. बरसे तो आफत, न बरसे तो हा-हाकर.

शहर वाले जल-भराव से परेशान हैं तो गांवों में किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गई हैं. खेतों में लगभग तैयार धान बारिश के बोझ से जमीन में बिछा जा रहा है. यह बालियों के भीतर दूधिया दानों के पकने और मजबूत होने का समय है. उसे धूप चाहिए थी लेकिन बादलों ने डटे रहने की कसम-सी खा रखी है. सरकार की नीतियों से परेशान किसान को मौसमों के बिगड़े तेवर भी हैरान किए रहते हैं.

शरद की वर्षा ठण्ड लाती है. दिन का तापमान एकाएक सात-आठ डिग्री कम हो गया है. इस समय भीगना आनंद नहीं, खतरा है. खतरे और भी हैं. बादलों की घनी परत के हटते ही क्वार की तीखी धूप चटखेगी तो जीवाणु-विषाणु सक्रिय हो उठेंगे. डेंगू जैसे रोगों के साथ वायरस जनित बीमारियां तेजी से फैलेंगी. क्या विडम्बना है कि मौसम अब अपनी रंगतों, स्वादों, पर्व-त्योहारों, पकवानों-पहनावों आदि से नहीं, बीमारियों के नाम से पहचाने जाने लगे हैं. बरसात में डेंगू-चिकुनगुनिया, जाड़ों में स्वाइन फ्लू, गर्मियों में वायरल बुखार आतंक मचाने लगे हैं.

बरसात की इस झड़ी के कई चेहरे हैं. एक शहरी समाज समस्याओं के बावजूद आनंद मना रहा है. कई चिह्नित ठिकानों में युवाओं की मस्त टोलियां बाहर-भीतर से भीग रही हैं. घरों की रसोई से लेकर ढाबों तक कढ़ाहियों में पकौड़ियां तली जा रही हैं. उधर, टपकती झुग्गियों में गृहस्थी बचाने की कवायद है. पेड़ों पर लटकते बोरों में बंधी दिहाड़ी मजदूरों की गृहस्थी उदास है. दिहाड़ी बंद है और चूल्हा गीला. शहर में कितनों ही की रोजी-रोटी पर संकट बन कर आई है यह झड़ी.

यह 'आवारा बादलों' का शायराना किस्सा नहीं है कि वाह-वाह ही की जाए. शिकायत करिएगा भी तो किससे! 


(सिटी तमाशा, 28 सितम्बर, 2019)

Wednesday, September 25, 2019

चुनाव में बेहिसाब खर्च और नेता-प्रतिष्ठा



बेहिसाब चुनाव खर्चों के इस दौर में एक पार्टी से दूसरी पार्टी को मिली 10-15 करोड़ रु की रकम नैतिक विवादका मुद्दा बन जाए तो घोर आश्चर्य ही कहा जाएगा. आम चुनाव में अरबों-खरबों रु व्यय करने वाले हमारे राजनैतिक दलों के लिए यह रकम कुछ भी नहीं लेकिन दो वाम दलों- माकपा और भाकपा, को पिछले आम चुनाव में अपने सहयोगी दल द्रमुक से मिली इतनी रकम पर सफाई देनी पड़ रही है. इसके अलावा उसके सामने यह समस्या भी आन खड़ी है कि वह अपने काडर यानी कार्यकर्ताओं को यह रकम स्वीकार करने का नैतिक औचित्य कैसे समझाए.

कुछ मास पहले ही सम्पन्न लोक सभा चुनाव में तमिलनाडु में भाकपा और माकपा का द्रमुक से चुनावी समझौता था. इस गठबंधन से दोनों ही पार्टियों को लोक सभा की दो-दो सीटें जीतने में सफलता मिली. चुनाव आयोग को दिए गए द्रमुक के चुनाव खर्च के ब्योरे से पता चला है कि उसने भाकपा को 15 करोड़ और माकपा को 10 करोड़ रु दिए थे. मूल्यविहीन राजनीति के इस दौर में दोनों वाम दलों को इस बारे में स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा है कि इस लेन-देन में कुछ भी गोपनीय और गैर-कानूनी नहीं है. यह रकम बैंक खातों में सीधे जमा की गई है, आदि.

कोई और पार्टी शायद ही ऐसे राजनैतिक चंदे पर सफाई देना आवश्यक समझती हो. भाजपा और कांग्रेस समेत कई क्षेत्रीय दल औद्योगिक घरानों से बड़ी-बड़ी रकम चंदे के रूप में पाते रहे हैं. विदेशों से चंदा लेने पर पहले कभी रोक थी लेकिन अब तो खुली छूट मिल गई है. बल्कि, इस चंदे को जग-जाहिर करना भी जरूरी नहीं रह गया है.

ऐसे में वाम दलों को द्रमुक से मिली इस रकम पर विवाद से अधिक सफाई देना चौंकाता है. इसका कारण यह है कि वाम दलों ने राजनैतिक हाशिए पर जाने के बावजूद कुछ मूल्य बचा रखे हैं. प्रकट रूप में वे आज भी अपने प्रत्याशियों का चुनाव खर्च जनता और शुभचिंतकोंके सहयोग से पूरा करते हैं. पूंजीपतियों से किसी भी तरह का चंदा लेना उनकी नीतियों के विरुद्ध है, यद्यपि कई बार वे उनके शुभचिंतकोंमें शामिल हो सकते हैं. इस पर कभी बड़ा विवाद सामने नहीं आया.

तमिलनाडु में द्रमुक से रकम लेने के बारे में दोनों दलों की सफाई यह है कि चूंकि हमारा द्रमुक से चुनावी तालमेल था, इसलिए हमारे प्रत्याशियों के प्रचार के लिए उनके बड़े नेता भी आये. उन बड़े द्रमुक नेताओं की हाई-प्रोफाइल रैलियोंके लिए ही द्रमुक ने यह धन दिया और इसे द्रमुक के स्थानीय नेताओं ने ही खर्च भी किया.

यहां हमारा मंतव्य वाम दलों के स्पष्टीकरण के विस्तार में जाने की बजाय इस बहाने चुनाव-खर्च और उसके लगातार बढ़ते दबदबे पर चर्चा करना है. मुख्य निर्वाचन आयोग के रूप में शेषन के कार्यकाल से चुनाव-प्रचार संबंधी कानूनों पर कड़ाई से अमल किए जाने के बावजूद कई अन्य माध्यमों से बेहिसाब धन खर्च करके चुनाव को प्रभावित करना जारी है. अकूत धन खर्च करके पार्टियां और प्रत्याशी ऐसा माहौल रच देते हैं जैसे कि वे ही विजयी होने वाले हैं. इस कारण कई ऐसे मतदाता प्रभावित हो जाते हैं जिनके मत पूर्व-निर्धारित नहीं होते.

अच्छे और योग्य प्रत्याशी धनाभाव के कारण चुनाव जीतना तो दूर, चुनाव मैदान में अपनी प्रभावी उपस्थिति तक दर्ज़ नहीं करा पाते. मुख्य धारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक की चर्चाओं में धन-बली प्रत्याशियों का ही दबदबा दिखाई देता है. यह तथ्य लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है. लोकतांत्रिक चुनाव का सिद्धांत यह है कि धन-बली प्रत्याशी हो या अत्यंत गरीब, जनता के समक्ष अपनी उम्मीदवारी साबित करने के लिए उसे बराबर के अवसर मिलने चाहिए. व्यवहार में ऐसा कतई नहीं होता. ऐसा हो सके, इसीलिए चुनाव खर्च की सीमाएं तय की गई हैं.

निर्वाचन आयोग ने अलग-अलग चुनावों के लिए प्रचार-व्यय की जो सीमाएं तय की हैं, अब वे भी इतनी बड़ी हो गई हैं कि आम प्रत्याशी के लिए उतनी रकम की व्यवस्था करना सम्भव नहीं हो पाता. दूसरी तरफ, बड़े दलों के अमीर प्रत्याशी निर्धारित सीमा से कई गुणा अधिक खर्च करते हैं. स्वतंत्रता के एक दशक तक के चुनावों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब अत्यल्प धन व्यय करके गरीब किंतु ईमानदार प्रत्याशियों ने चुनाव जीते. अब ये किस्से परी लोक की कहानियों जैसे लगते हैं.

वाम-दलों के स्पष्टीकरण से एक और कटु सत्य उजागर होता है. राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं की चुनावी रैलियां असाधारणबनाई जाती हैं. भाकपा-माकपा का कहना है कि उनके प्रत्याशियों के प्रचार के लिए आने वाले द्रमुक के बड़े नेताओं की हाई प्रोफाइलरैलियों के लिए ही उन्हें वह रकम दी गई थी. यानी, वाम दलों की सामान्य रैलियों में आना द्रमुक के हाई-प्रोफाइल नेताओं की शान के विरुद्ध था. यह तथ्य द्रमुक से ज़्यादा भाजपा और कांग्रेस पर लागू होता है. नरेंद्र मोदी, अमित शाह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की चुनावी रैलियां उनकी प्रतिष्ठा से जोड़ी जाती हैं. इसी कारण अकूत धन खर्च करके उनका आयोजन भव्य और विशिष्ट किया जाता है.

हाई-प्रोफाइल नेताओं की चुनावी रैलियां किसी कारण भव्य नहीं हो पातीं तो ऐन मौके पर उन्हें रद्द किया जाना भी यही बताता है. बड़े नेता नुक्कड़ सभाएं नहीं करते. उन्हें रैली नहीं, ‘महारैलीको ही सम्बोधित करना होता है. यानी कि चुनाव-प्रचार जनता को अपने मुद्दे समझाने का नहीं, अपनी प्रतिष्ठा, दम-खम और चकाचौंध दिखाने का होता है. इसीलिए हमारे यहां चुनाव अब प्रदर्शन बन कर रह गए हैं. प्रदर्शन के लिए धन चाहिए. जितना अधिक धन, उतना बड़ा और बढ़िया प्रदर्शन.

चुनावी चंदे  का अपना अर्थशास्त्र है. यह कोई छुपी बात नहीं रह गई है कि बड़े कॉरपोरेट या औद्योगिक घराने चुनावी चंदे के रूप में ऐसे ही दांव लगाते है जैसे रेस के घोड़ों पर. दान का प्रतिदान अपेक्षित होता है. यही बात चुनाव जीतने के लिए सब कुछ झौंक देने वाले प्रत्याशियों के लिए भी कही जा सकती है. मंत्री बनने का एक प्रस्ताव ही दल-बदल कराने का चारा और क्यों बनता है?

धन-तंत्र से प्रभावित चुनाव से बचने के लिए ही सरकारी व्यय पर चुनाव कराने का महत्त्वपूर्ण सुझाव बहुत पहले दिया गया था जिस पर आज तक गम्भीरता से विचार नहीं किया गया. क्या कारण है कि पूरे देश में एक साथ सभी चुनाव कराने पर तो खूब हल्ला किया जा रहा है लेकिन चुनाव सुधार के महत्त्वपूर्ण सुझावों पर बात नहीं हो रही?

भाकपा-माकपा को द्रमुक से मिले धन पर विवाद को इस विमर्श के लिए देखा जाए तो ठीक, वर्ना यह भी कोई मुद्दा है!

(प्रभात खबर, 26 सितम्बर, 2019)    
           


Thursday, September 19, 2019

बस के भीतर छाता और जूनियर फोरमैन


बरसात में टपकती किसी सरकारी दफ्तर या स्कूल की टपकती छत के नीचे छाता लिए बैठे कर्माचारियों या विद्यार्थियों के किस्से पहले कोई अफसर स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था. अब सोशल साइटों में वायरल होते वीडियो को झूठा साबित करना मुश्किल होता है. मिर्ज़ापुर के एक स्कूल में मिड डे मील में नमक-रोटी खाते बच्चों की फोटो को प्रशासन झुठला नहीं पाया. उसने वीडियो को सरकार के खिलाफ साजिश मानकर पत्रकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ कर दिया लेकिन दूसरे दिन से बच्चों को ठीक-ठाक खाना मिलने लगा. स्कूल की भी हालत सुधर गई.

इसी तरह पहले पुलिस अधिकारी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते थे कि उनके कर्तव्य-परायण दारोगा-सिपाही किसी नागरिक का सत्कार लात-जूतों और गालियों से करते हैं. अब नए-नए वीडियो सामने आने पर कभी उन्हें जांच बैठानी पड़ रही है, कभी सीधे निलम्बन की कार्रवाई करनी पड़ रही है.

अभी चंद दिन पहले एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की एक बस में एक यात्री छाता ओढ़े बैठा था. वह खस्ताहाल बस अम्बेडकर नगर डिपो की थी जिसकी छत छू रही थी. खिड़कियों के शीशों और सीट की गद्दियों का क्या पूछना. इसके बावज़ूद बस यात्रियों को ढो रही थी. ऐसी खबरों पर आम तौर पर अधिकारी खण्डन भेज देते हैं. चलती बस में छाता ओढ़कर बैठे यात्री का वीडियो देख कर अधिकारियों को मज़बूरन एक जूनियर फोरमैन को निलम्बित करना पड़ा और जांच भी बैठा दी.

जूनियर फोरमैन से भी जूनियर कोई कर्मचारी होगा नहीं, इसलिए उसी को निलम्बित कर दिया गया. किसी अधिकारी की इसमें कोई ज़िम्मेदारी कहां बनती है! राजधानी से जितनी दूर जाएंगे, उतनी ही ज़्यादा खटारा बसें सड़कों पर चलती दिखाई देती हैं. अक्सर होने वाली बस-दुर्घटनाओं के पीछे भी बसों का खस्ताहाल होना पाया जाता है. जूनियर फोरमैन ही गड़बड़ करते होंगे.

कुछ महीने पहले की बात है. सरकार के नोडल अधिकारी  ने फतेहगढ़ डिपो के दौरे में पाया था कि कई खटारा बसें चलाई जा रही थीं. उन्होंने वहां के ज़िम्मेदार अधिकारियों से जवाब भी तलब किया था कि ऐसी बसें मरम्मत के लिए क्यों नहीं भेजी जा रहीं जिनकी बॉडी बहुत खराब हालत में है और खिड़कियों में शीशे नहीं हैं.  पिछले साल की एक खबर अब तक याद है जो एक दुर्घटना के बाद आकस्मिक छापे में सामने आई थी. दस लाख किमी से ज़्यादा चल चुकी नौ बसें खस्ताहाल होने के बावजूद चलाई जा रही थीं. उनका हाल में कोई रख-रखाव नहीं हुआ था. यह काम किसी जूनियर फोरमैन का तो नहीं ही होगा.

परिवहन निगम के बेड़े में  तीन हज़ार से कुछ ही कम बसें अनुबंधित श्रेणी की भी हैं. यानी निजी बसें जो परिवहन निगम अनुबंध पर चलवाता है. इन अनुबंधित बसों की अराजकता के अनगिन किस्से कबसे चले आ रहे हैं. रख-रखाव पर न्यूनतम व्यय करके अधिकाधिक कमाई करने के उद्देश्य से चलने वाली इन अनुबंधित बसों के लिए यात्रियों की सुरक्षा या सुविधा का कोई अर्थ नहीं होता. ग्रामीण-कस्बाई मार्गों पर और अनेक बार राजमार्गों पर भी इनकी मनमानी के चरचे सुनाई देते हैं. परिवहन निगम इनकी ओर शायद ही ध्यान देता हो

कुछ समय पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक और गज़ब मामला सामने आया था. उत्तर प्रदेश परिवर्तन निगमनाम से हू-ब-हू परिवहन निगम जैसी बसें चलती पाई गईं. परिवहनका यह परिवर्तनअद्भुत ही रहा. उसका क्या हुआ, पता नहीं चला. कुछ न कुछ अज़ूब चलता रहता है. वीडियो से कभी-कभार कुछ सच सामने आ जाते हैं. इसीलिए वीडियो बनाने वाले और जूनियर फोरमैन अब पकड़े जाने लगे हैं!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 सितम्बर, 2019)


Sunday, September 15, 2019

ताकि जनता अपनी सुरक्षा के लिए ट्रैफिक नियम अपनाए



हर जगह नए ट्रैफिक कानून की चर्चा है. चर्चा नहीं, आतंक कहना चाहिए. सड़क किनारे जहां-तहां  हेल्मट बिक रहे हैं. गाड़ियों का प्रदूषण जांचने वाले कई केंद्र खुल गए हैं. हर केंद्र पर लम्बी कतारें हैं. जनता डरी हुई है.
इस डर पर दो मत हैं. एक कहते हैं कि इस देश में डर के बिना कोई काम सही नहीं होता. डर के मारे ही सही, दुपहिया वाले हेल्मेट लगाने लगे हैं. चौराहे पर रुकने लगे हैं, गाड़ियों के कागज बनवा रहे हैं. प्रदूषण जंचवा रहे हैं. यह सख्ती और बड़ा ज़ुर्माना बना रहना चाहिए. दूसरे मत वाले मानते हैं कि यह भयादोहन है. सड़क सुरक्षा के लिए लिए जनता को जागरूक और प्रेरित किया जाना चाहिए. यह सख्ती भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है. वगैरह-वगैरह.

केंद्रीय परिवहन मंत्री कहते हैं कि सड़क दुर्घटना में मौतों की बड़ी संख्या कम करने के लिए सख्त कानून ज़रूरी है. दूसरी तरफ, विपक्ष ही नहीं, भाजपा शासित कुछ राज्यों ने ज़ुर्माने की रकम कम कर दी है. अपना प्रदेश भी इसी राह पर है. लगता है, भाजपा को जनता की नाराज़गी का डर सताने लगा है. अगर सख्त ट्रैफिक कानून जनता की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है तो राज्य सरकारें उसकी धार कुंद क्यों कर रही हैं?

ट्रैफिक नियम सख्ती से लागू हों, दो-पहिया वाले हेल्मेट पहनें, कार वाले सीट-बेल्ट लगाएं, गाड़ियां निर्धारित रफ्तार से सही दिशा में चलें, प्रदूषण नहीं फैलाएं, गलत जगह खड़ी न हों—यह सब बहुत आवश्यक है. हमारे देश में सबसे ज़्यादा जानें सड़क दुर्घटना में जाती हैं. इन मौतों को रोकना अत्यावश्यक है लेकिन यह बहस का विषय है कि क्या यह कानून को आतंककारी बनाकर रुकेगा?

एक पक्ष यह भी है और इसकी तरफ कम ही लोगों का ध्यान है कि जो दोपहिया चालक आनन-फानन में  हेल्मेट खरीद कर पहन रहे हैं, उनमें आधे से ज़्यादा लोग हेल्मेट का फीता नहीं बांधते. वह उनके कंधों पर झूलता रहता है. बांधे बिना हेल्मेट कोई सुरक्षा नहीं करता. सड़क किनारे बिक रहे सस्ते हेल्मेट कोई सुरक्षा नहीं देते. दुर्घटना में वे टूट जाते हैं. कानून और पुलिस दोनों का ध्यान इस ओर नहीं है. जनता का भी बहुत कम.

ट्रैफिक नियमों का पालन जनता स्वत: करे, इसके लिए जागरूकता और सख्ती दोनों आवश्यक हैं.  जनता उन्हें कैसे अपनाए जबकि जिम्मेदार लोग स्वयं निय्मों का सम्मान नहीं करते.पुलिस खुद ही नियमों का घोर उल्लंघन करती है. मंत्रियों-विधायकों और छुटभैए नेताओं के लिए नियम मखौल उड़ाने की चीज हैं. जनता किससे सीखे?
पुलिस हेल्मेट, सीट-बेल्ट और कागजात तो देख रही है लेकिन उलटी दिशा में चलने वालों पर उसकी नज़र नहीं है, जिनसे सबसे अधिक दुर्घटनाएं होती हैं. गाड़ियों में पीछे की लाल बत्ती न जलना हाई-वे में जानलेवा 

दुर्घटनाओं का बहुत बड़ा कारण है. शहरों में टेम्पो-ऑटो-डम्पर-ट्रॉली में खतरनाक ढंग से लगे नुकीले एंगल, सरिया, आदि लदे वाहन, जानलेवा डिवाइडर, स्पीड-ब्रेकर, सड़कों के गड्ढे, इन सब पर कौन ध्यान देगा? क्या जनता की सुरक्षा के लिए ये आवश्यक नहीं?

ट्रैफिक कानूनों पर सख्ती आवश्यक है लेकिन यह वीआईपी के लिए भी बराबर होनी चाहिए. इसे एकदम से लागू करने से पहले जनता को हफ्ते-दस दिन बिना ज़ुर्माना जांच करके सचेत किया जाना चाहिए था. सबसे ज़रूरी है जांच-पड़ताल करने वाली पुलिस का प्रशिक्षण ताकि वह जनता को दोस्ताना तरीके से समझाए कि यह उन्हीं की सुरक्षा के लिए है. अभी हो यह रहा है कि जनता इसे पुलिस का वसूली अभियान समझ रही है और उससे बचने के लिए नियम पालन का दिखावा कर रही है. कानून इस तरह लागू हो कि जनता आवश्यक सुरक्षा उपाय स्वत: अपना ले.

(सिटी तमाशा, 14 सितम्बर, 2019)


Tuesday, September 10, 2019

वंशवाद- क्षेत्रीय दलों की कैसी मज़बूरी?



बीते रविवार को तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने अपने मंत्रिमण्डल में जिन छह नए मंत्रियों को शामिल किया उनमें उनका बेटा के टी रामाराव और भतीजा टी हरीश राव भी शामिल हैं. 2014 में बने तेलंगाना की पहली सरकार में राजनैतिक वंशवाद का यह नया रूप उसी साल सामने आ गया था. लेकिन 2018 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद चंद्रशेखर राव ने बेटे और भतीजे दोनों को मंत्रिमण्डल से बाहर रखने का साहस दिखाया था. भाजपा की बढ़ती चुनौती का मुकाबला करने के लिए उन्हें यही राह सूझी कि बेटे-भतीजे को फिर से मंत्री बना दें.

भारतीय राजनीति के लिए परिवारवाद अब कोई चौंकाने वाली बात नहीं रही. लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां  पारिवारिक दल का रूप लेती जा रही हैं, हालांकि मुख्यमंत्री पिता की सरकार में बेटे-भतीजे के मंत्री बनने का संयोग इससे पहले नहीं बना. हां, 2009 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने अपने तेज-तर्रार और महत्वाकांक्षी बेटे स्टालिन को उप-मुख्यमंत्री बनाया था.

मुख्य बात यह है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते कदमों से हैरान-परेशान हैं. वे किसी भी कीमत पर भाजपा को राज्य में पांव जमाने देना नहीं चाहते जबकि वह बहुत सघन तरीके से वहां अपनी पैठ बनाने में लगी है. उनका नया कदम इसी रणनीति का हिस्सा है.

भाजपा की अब जिन राज्यों पर निगाह है उनमें पश्चिम बंगाल और तेलंगाना प्रमुख हैं. बंगाल में वह किस कदर आक्रामक ढंग से अपने पैर जमा रही है, उसका नज़ारा लोक सभा में दिख चुका. भाजपा ने बंगाल ही नहीं तृणमूल कांग्रेस में भी बड़ी सेंध लगा दी है. ममता बनर्जी अपना किला बचाए रखने की कोशिश में जुटी हैं. उड़ीसा भी भाजपा के राडार पर  है लेकिन लोक सभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बावज़ूद वह विधान सभा चुनाव में नवीन पटनायक के किले में दरार नहीं डाल सकी थी.

तेलंगाना में भाजपा दो कारणों से अपने लिए बेहतर सम्भावना देख रही है. एक तो वहां कांग्रेस और तेलुगु देशम दोनों ही बिल्कुल हाशिए पर चले गए हैं. सफाया तो इनका पड़ोसी आंध्र प्रदेश में भी हो गया लेकिन वहां वाईएसआर कांग्रेस के रूप में बहुत तगड़ा प्रतिद्वंद्वी मौज़ूद है. तेलंगाना में कांग्रेस और तेलुगु देशम की जमीन छिन जाने के बाद टीएसआर के मुकाबले भाजपा ही बचती है. लोक सभा चुनाव में भाजपा ने वहां चार सीटें जीतीं जिनमें से तीन टीएसआर से छीनी थीं.

टीआरएस को घेरने के लिए भाजपा कई मोर्चों पर काम कर रही है. पिछले विधान सभा चुनाव में टीआरएस का कुछ सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इण्डिया मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) से समझौता था. भाजपा इसे मुद्दा बनाकर तेलंगाना में हिंदू ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है. टीआरएस को मुसलमान समर्थक पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है. भाजपा की इस चाल को नाकामयाब करने के लिए टीआरएस ने तीन तलाक विधेयक पर राज्य सभा से बहिर्गमन करके उसे पास होने देने में मदद की और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने वाले विधेयक का समर्थन किया. उसका सहयोगी दल एआईएमआईएम इस कारण उससे बहुत खफा हुआ. उसने टीआरएस को सबक सिखाने की चेतावनी तक दी लेकिन चंद्रशेखर राव भाजपा को यह अवसर कतई नहीं देना चाहते कि वह उनकी पार्टी को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करे.

इस बीच भाजपा ने नया दांव चला. चन्द्रशेखर राव ने दूसरी बार विधान सभा चुनाव जीतने के बाद अपने बेटे और महत्त्वाकांक्षी भतीजे हरीश राव को पहली बार की तरह मंत्री नहीं बनाया. बेटे को उन्होंने पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट कर दिया था लेकिन भतीजा हरीश राव उपेक्षित ही रहा. प्रकट रूप में उसने विरोध नहीं जताया लेकिन पार्टी में इसकी सुन-गुन थी. उसकी नाराज़गी को भाजपा ने सार्वजनिक करना शुरू किया. यह प्रचार भी शुरू कर दिया कि टीआरएस के कई नेता भाजपा के सम्पर्क में हैं. यह भाजपा की पुरानी रणनीति है. बंगाल, कर्नाटक समेत कई राज्यों में वह इसे आज़मा चुकी है. पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यह कहने के बाद कि तृणमूल के चालीस विधायक हमारे सम्पर्क में हैं, ममता बनर्जी की पार्टी से भाजपा की ओर दल-बदल का सिलसिला शुरू हुआ था. भाजपा नेताओं के इस बयान के बाद चंद्रशेखर राव के कान खड़े होना स्वाभाविक था.

भाजपा टीआरएस को घेरने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती. इस बार वह 17 सितम्बर को हैदराबाद मुक्ति दिवस बड़े पैमाने पर मनाने जा रही है. यह भी प्रचारित कर रही है कि टीआरएस एआईएमआईएम की नाराजगी के डर से हैदराबाद दिवस नहीं मनाती. उल्लेखनीय है कि भारतीय फौज के हस्तक्षेप के बाद 17 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय हो पाया था. हैदराबाद का निज़ाम पाकिस्तान में विलय चाहता था. आज तक किसी पार्टी ने हैदराबाद मुक्ति दिवस नहीं मनाया. भाजपा ने इसे बड़ा आयोजन बनाने के लिए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को हैदराबाद आमंत्रित किया है.

अमित शाह स्वयं तेलंगाना में बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं. उन्होंने हाल में पार्टी का सदस्यता अभियान वहीं से शुरू किया और खुद भी हैदराबाद से सदस्यता ली. पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष जे पी नड्डा भी 18 सितम्बर को हैदराबाद जाने वाले हैं. पार्टी के राज्य नेता दावा कर रहे हैं कि उस दिन कई टीआरएसनेता भाजपा में शामिल हो जाएंगे.

इस तरह घेराबंदी देखकर चंद्रशेखर राव ने मंत्रिमण्डल विस्तार करके उन सबको संतुष्ट करना चाहा है जिन्हें भाजपा अपनी तरफ खींच सकती थी. मंत्रिपरिषद का आकार जितना बड़ा हो सकता था, उन्होंने कर दिया है. भतीजे हरीश राव को खुश करना सबसे ज़्यादा जरूरी था. इस कोशिश में राजनैतिक वंशवाद का वह  कीर्तिमान फिर बन गया जिसे उन्होंने इस बार नहीं दोहराने का साहस दिखाया था.

भाजपा के लगभग वर्चस्व और कांग्रेसी पराभव के इस दौर में क्षेत्रीय दलों का यह परिवारवाद भी विकल्पहीनता के लिए ज़िम्मेदार है. अधिकाधिक पारिवारिक होते हुए वे बिल्कुल बंदऔर अलोकतांत्रिक दल होते जा रहे हैं. कैसी विडम्बना है कि इन दलों के सबसे बड़े संकट भी परिवार के भीतर से ही पैदा होते हैं. करुणानिधि, बाल ठाकरे, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, आदि-आदि के कभी ताकतवर रहे दल पारिवारिक लड़ाइयों से ही कमजोर हुए.

राजनीति की नई प्रतिभाओं के विकास के लिए भी क्षेत्रीय दलों का परिवारवाद कोई सम्भावना नहीं छोड़ता. अब कोई लालू, कोई मुलायम या कोई चंद्रशेखर राव पैदा हो तो कैसे? उनके अस्तित्व को खतरा भीतर से हो या बाहर से, तारणहार परिवार में ही तलाशा जाता है. तेलंगाना में भी यही हुआ है.

(प्रभात खबर, 11 सितम्बर, 2019)  







   

   

Friday, September 06, 2019

‘ऐप’ में ऐब देख रहे शिक्षक



शिक्षक दिवस से सरकारी प्राथमिक शिक्षक गुस्से में हैं. सरकार ने प्रेरणा ऐपनाम का जासूस उनके पीछे लगा दिया है. यही ऐप अब उनकी हाज़िरी भी लगाएगा. दिन में तीन बार उन्हें स्कूल के बच्चों के साथ सेल्फी भेजनी है ताकि साबित हो कि वे स्कूल में हैं और पूरे समय हैं. छुट्टी लेने के लिए भी इसी ऐप में आवेदन डालना होगा. ऐसी कड़ी निगरानी भला आज के सरकारी कर्माचारियों को क्यों मंज़ूर होने लगी!

प्राथमिक शिक्षक संघ ने अपने सभी सदस्यों से कहा है कि वे प्रेरणाऐप डाउनलोड नहीं करें और काला फीता बांध कर विरोध दर्ज़ करें. माध्यमिक शिक्षक संघ ने भी उनको समर्थन दिया है. पता नहीं कब ऐप की पहुंच उन तक भी हो जाए. संघ ने विरोध का मुख्य कारण यह बताया है कि इससे महिला शिक्षकों की प्राइवेसीखतरे में हैं. कैसी प्राइवेसी खतरे में है, इसका संकेत मुख्यमंत्री योगी ने ऐप जारी करते समय कर दिया था. उन्होंने कहा था- महिलाएं बेहतर शिक्षक साबित हो सकती हैं बशर्ते कि वे नियमित स्कूल जाएं.ऐप से सेल्फी भेजने के लिए तो नियमित स्कूल जाना पड़ेगा न !

सिर्फ महिला शिक्षकों को निशाने पर रखना गलत है. ऐवजी शिक्षकों की तैनाती में पुरुष शिक्षक बहुत आगे हैं. हजार-दो हजार रुपल्ली में किसी बेरोजगार को अपनी जगह स्कूल भेजकर राजनीति या धंधे में लिप्त शिक्षक हमारी शिक्षा व्यवस्था के बहुपरिचित अंग हैं. मुख्यमंत्री शायद इसका ज़िक्र करना भूल गए. खैर, बात परिहास की नहीं है. शिक्षक चाहें तो इस ऐप का लाभ उठाकर शिक्षा और स्कूलों की बदहाली पर सरकार के कान भी पकड़ सकते हैं. स्कूल की ढही या टपकती छत, उखड़े दरवाज़े, परिसर में बंधे जानवरों, आदि के साथ भी सेल्फी भेज सकते हैं- हर घण्टे पर एक. हाज़िरी के साथ हालात भी दर्ज़.

प्रेरणा ऐप से शिक्षक इसलिए बचना चाहते हैं कि वह उनकी प्राइवेसी पर तो नहीं, हां  आज़ादी पर अंकुश अवश्य लगाता है. सरकार से उनकी चुगली करता है. ऐसी व्यवस्था किसी सरकारी कर्मचारी को स्वीकार नहीं होती. नगर निगम की गाड़ियों से पेट्रोल चुराने वालों ने गाड़ियों में जीपीएस नहीं लगाने दिए या नोच कर फेंक दिए. सफाई कर्मचारियों ने वह घड़ी पहनने से इनकार कर दिया जो बता देती थी कि वे साइट पर हैं या दिल्ली-मुम्बई की तरफ. टेक्नॉलजी आज हर किसी की जासूसी कर सकती है. काश, विधायकों-मंत्रियों की कलाई में भी कोई ऐसी घड़ी बांध देता कि वे क्या करते-बोलते हैं!

प्रेरणा ऐप का उद्देश्य, जैसा कि सरकार का दावा है, प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरस्त बनाना है. उद्देश्य अच्छा है. इस काम पर लगना ही चाहिए लेकिन क्या सरकार यह समझती है कि शिक्षकों की स्कूलों में नियमित उपस्थिति से ही शिक्षा की गुणवता सुधर जाएगी? उपस्थित होने वाला शिक्षक पढ़ाने के लिए समर्पित है ही, यह कैसे सुनिश्चित होगा?

हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था अव्वल तो सरकारी और सामाजिक सोच की मारी है. मामला नीतिगत और नाजुक है. प्राथमिक स्तर पर बच्चों को क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, स्कूल कैसे होने चाहिए और शिक्षकों की क्या योग्यता और भूमिका होनी चाहिए, पहले तो इस पर विचार की ज़रूरत है. इस मूल मुद्दे को फिलहाल छोड़ भी दें तो यह विश्लेषण करना आवश्यक है कि यही प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था कोई पचास वर्ष पहले क्यों बेहतर थी. इस बीच क्या बिगड़ गया?

इसी शिक्षा प्रणाली में आज भी समर्पित शिक्षक मिल रहे हैं तो यह भी देखना होगा कि वे किसी ऐपके कारण नज़ीर बन रहे हैं या समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करके? क्या कोई ऐप सभी शिक्षकों में यह बोध करा सकता है?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 07 सितम्बर, 2019) 



Sunday, September 01, 2019

कांग्रेस में अब मोदी पर कलह



सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस का नेतृत्त्व संकट फिलहाल के लिए टला ही था कि कुछ बड़े मुद्दों पर वैचारिक हंगामा खड़ा हो गया है. पहले उसके कई नए-पुराने प्रमुख नेताओं ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के फैसले का विरोध करने की पार्टी लाइन से हटकर बयान दिए यानी सरकार के इस कदम का समर्थन किया. यहां तक कह दिया कि कांग्रेस जन भावनाओं को समझ नहीं पा रही और अपने रास्ते से भटक गई है.

बिल्कुल ताज़ा संकट चंद वरिष्ठ नेताओं के इस बयान से पैदा हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हमेशा खलनायक की तरह देखने की बजाय उनकी सरकार के अच्छे कामों की प्रशंसा भी की जानी चाहिए. शुरुआत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश के बयान से हुई. पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी का शासन-मॉडल पूरी तरह नकारात्मक गाथा नहीं है. उनके काम के महत्त्व को स्वीकार न करके और हर समय उनको खलनायक की तरह पेश करके पार्टी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है.

जयराम रमेश का बयान आते ही दो अन्य जाने-माने कांग्रेस नेताओं, अभिषेक मनु सिंघवी और शशि थरूर ने उनके बयान का समर्थन कर दिया और कहा कि व्यक्ति की नहीं, उसकी सरकार की नीतियों की आलोचना होनी चाहिए. अक्सर विवादों में रहने वाले शशि थरूर पर कांग्रेस की केरल इकाई, जहां से वह सांसद हैं, नाराज हो गई. उसने थरूर की टिप्पणियों पर उनसे स्पष्टीकरण मांगने का फैसला किया. यह जानकारी मिलने पर शशि थरूर चुप नहीं हुए. बल्कि, बोले कि मैं मोदी सरकार का कटु आलोचक रहा हूं और मानता हूं कि यह रचनात्मक आलोचना रही है. मैं कांग्रेस के साथियों से उम्मीद करता हूं कि वे मुझसे असहमत होते हुए भी मेरे रुख का सम्मान करेंगे.

उसके बाद एक और वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली जयराम रमेश और शशि थरूर के खिलाफ मैदान में कूद पड़े. उन्होंने आला कमान से दोनों नेताओं पर अनुशासनहीनता के लिए कार्रवाई करने की मांग कर डाली. मोइली ने जयराम रमेश को यूपीए सरकार के दौरान नीतिगत गलतियों के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराया है.

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक थरूर, सिंघवी और जयराम रमेश के बयानों के बारे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्त्व के रुख का कोई संकेत नहीं मिला है. इन मामलों से दो बातें साफ होती हैं. एक तो यही कि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस के भीतर स्पष्टता नहीं है. विचार-विमर्श भी नहीं हो रहा. अनुच्छेद 370 हटाने पर पार्टी की वैचारिक लाइन तय करनी हो या मोदी सरकार के अच्छे कामों पर प्रतिक्रिया देना, इस बारे में कांग्रेस कार्य समिति या शीर्ष नेतृत्त्व कोई दिशा-निर्देश नहीं दे पा रहे. इससे कांग्रेस की समझ और नीति पर भ्रम उत्पन्न हो रहा हैं.

अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के निर्णय का विरोध करना है या इसे अमल में लाने के तौर-तरीकों का, कांग्रेस आज तक यह तय ही नहीं कर सकी है. संसद में उसने इस बारे में लाए गए विधेयकों का यथासम्भव विरोध किया.  जब कई नेताओं ने सरकार के फैसले के पक्ष में बयान देने शुरू किए तो यह जताने की कोशिश की गई कि मुख्य विरोध तो इसे लागू करने के दमनात्मक तौर-तरीकों का है. यानी, गोलमोल रवैया. यदि कांग्रेसी जनता के बीच जाकर सरकार के खिलाफ राय बनाने की कोशिश करें भी तो किस बिना पर?

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह उभर कर आई है कि कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमला करने की पार्टी की नीति से सहमत नहीं हैं. यहां गौर करने वाली बात यह है कि मोदी पर सबसे अधिक निजी हमले राहुल गांधी करते आ रहे हैं. 2019 का पूरा चुनाव राहुल गांधी ने 'चौकीदार चोर है' नारे पर लड़ा. राफेल विमान सौदे में घपले के लिए उन्होंने सीधे-सीधे मोदी को जिम्मेदार बताया. वे पूरे विश्वास से चुनाव सभाओं में कहते थे कि मोदी जी ने जनता का तीस हज़ार करोड़ रु अनिल अम्बानी की जेब में डाल दिया. जनता ने राहुल की बातों पर भरोसा नहीं किया. राहुल का धुर मोदी-विरोध कतई काम न आया.

आम चुनाव के समय राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थे. आज शीर्ष पद से इस्तीफा दिए बैठे हैं. क्या जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी और शशि थरूर जैसे बड़े नेता आज राहुल को यह जताने के लिए ही यह बयान दे रहे हैं कि मोदी को हमेशा खलनायक बनाने से पार्टी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है? यह बात आम चुनाव के दौरान सामने नहीं आई लेकिन तब भी कुछ कांग्रेसी खेमों में गुप-चुप यह चर्चा चलती थी कि जनता में अत्यंत लोकप्रिय नरेंद्र मोदी पर सीधे कीचड़ उछलना कहीं उलटा न पड़ जाए.

राहुल और कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के रुख में इस विरोधाभास के संकेत तब भी मिले थे जब चुनाव में बुरी पराजय मिलने के बाद कांग्रेस की शीर्ष स्तरीय बैठक में राहुल ने यह कहा था कि मोदी के विरुद्ध वे अकेले ही मोर्चा सम्भाले थे. उन्हें पार्टी के बड़े नेताओं का समर्थन नहीं मिला. प्रियंका ने भी ऐसी ही बातें कही थीं.
बहरहाल, कांग्रेस का यह संकट बना ही हुआ है कि आखिर वह शक्तिशाली नरेंद्र मोदी का मुकाबला कैसे करे. पिछले पांच वर्षों में नोटबंदी जैसे कुछ अलोकप्रिय फैसलों, बेरोजगारी की बढ़ती समस्या, आर्थिक मोर्चे पर कठिन हालात, किसानों के भारी असंतोष और कुछ वादाखिलाफियों के बावज़ूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बनी हुई है.

इसके दो प्रमुख कारण नज़र आते हैं. एक तो यही कि मुख्य विरोधी दल के रूप में कांग्रेस इन बड़े मुद्दों को मोदी सरकार के खिलाफ धारदार हथियारों में नहीं बदल सकी. दूसरे यह कि जनता में मोदी की ऐसी साफ-सुथरी, कर्मठ नेता की छवि बनी या जतन से बनाई गई है कि जनता देश की इन समस्याओं के लिए उनको उत्तरदाई नहीं मानती. आम चुनाव में यह खूब दिखाई दिया था कि मतदाता कई भाजपा उम्मीदवारों से तो नाराज़ थे लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें चाहिए मोदी ही थे.

सम्भवत: इसीलिए राहुल गांधी के मोदी पर सीधे और व्यक्तिगत हमलों का जनता पर कोई असर नहीं हुआ या उलटा हुआ. आज कई कांग्रेसी अच्छे कामोंके लिए मोदी सरकार की तारीफ करना चाहते हैं तो उसके पीछे यही विचार लगता है. सवाल है कि क्या कांग्रेस नेतृत्त्व इन कांग्रेसियों की सुन रहा है? इस बारे में विचार करने को तैयार है? या उनकी व्यक्तिगत रायकहकर चुप ही रहना चाहता है या फिर, उन्हें अनुशासनहीन मानेगा, जैसा कि मोइली और केरल इकाई कह रहे हैं?

कांग्रेस नेतृत्त्व मौन है. कोई संकेत नहीं मिल रहा कि नरेंद्र मोदी के मुकाबिल खड़ा होने के लिए वह क्या रास्ता अपनाना चाहता है? उसका मौन पार्टी के नेताओं को आपस ही में लड़ा रहा है. यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या राहुल ने मोदी के खिलाफ राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का अपना सबसे बड़ा मुद्दा छोड़ दिया है? चुनावों के बाद उन्होंने इसकी कोई चर्चा ही नहीं की, हालांकि रिजर्व बैंक से भारी भरकम रकम सरकार को दिए जाने पर राहुल ने सरकार पर तीखा हमला बोला है.

मोदी सरकार के विरुद्ध मुद्दों की कमी न चुनावों से पहले थी न आज है. कमी कांग्रेस में ही दिखती है. मुख्य विरोधी दल के रूप में मोदी सरकार से दो-दो हाथ करने और आवश्यक मुद्दों की लड़ाई जनता के बीच ले जाने को वह तैयार ही नहीं दिखती. आखिर वह खड़ी कैसे होगी?   

(नभाटा, मुम्बई, 1 सितम्बर, 2019)