Saturday, May 28, 2022

पर्यटन और तीर्थयात्रा की जिम्मेदारी भी समझिए

इन गर्मियों में पहाड़ों पर जाने का किसका मन नहीं करता। जो सामर्थ्यवान है वह मौका मिलते ही चल देता है। गाड़ी वालों के लिए अब पहाड़ों पर पहुंचना बहुत आसान हो गया है। बिना गाड़ी वाले भी जाते ही हैं। उत्तराखण्ड में चारधाम यात्रा सत्र चल रहा है। पर्यटकों के अलावा तीर्थयात्रियों का भी रेला लगा हुआ है। केदारनाथ जैसी दुर्गम जगह भी अब सुगम हो गई है। हेलीकॉप्टर से सीधे बाबा केदार के द्वार पर उतर सकते हैं। सोशल मीडिया पर धन्य-धन्य तीर्थयात्रियों और गदगद पर्यटकों की तस्वीरों की भरमार है। कोरोना से राहत के बाद जैसे रेला टूट पड़ा है।

इन तस्वीरों के बीच कुछ सचेत-चिंतित यात्रियों ने ऐसी भी तस्वीरें डाली हैं जो दुख, क्रोध और वितृष्णा से भर देती हैं। ऐन केदारनाथ में ही नहीं, पूरे यात्रा मार्ग, खासकर पड़ावों के आस-पास कचरे के ऐसे ढेर लगे हैं, जैसे सफाई कर्मियों की हड़ताल के दौरान शहरों में लगते हैं। बेशुमार प्लास्टिक, बिस्कुट-नमकीन-चिप्स-आदि के पैकेट, गुटके-वगैरह के पाउच, बोतलें, कपड़े, नहाकर फेंके कपड़े, जूठन, और भी जाने क्या-क्या। तस्वीरों से बदबू नहीं आ सकती लेकिन जो वहां होकर आए हैं, वे बता रहे हैं कि बदबू से सांस लेना मुश्किल हो रहा। अपने तीर्थों और संवेदनशील हिमालय के साथ हमारा यह कैसा व्यवहार है?

राजधानी लखनऊ में हम जगह-जगह लिखा देखते हैं कि कृपया दीवार पर न थूकें’, ‘यहां कचरा न फेंकें’, ‘देखो गधा ... रहा है’, आदि-आदि और उन्हीं जगहों पर वह सब होता पाते हैं जिसकी मनाही की गई है। तो, कैसे उम्मीद रखें कि जब यही जन पर्यटक या तीर्थयात्री बनकर पहाड़ों पर जाते होंगे तो बदल जाते होंगे? थोड़ा पैसा आ जाने से जो मध्य वर्ग उच्छृंखलता की सीमा लांघता फिरता है, वह प्रकृति का क्या सम्मान करेगा? बाबा केदारनाथ के दरबार में मत्था टेककर अपने समस्त पापों से जो मुक्ति पा लेता है, वह हिमालय और प्रकृति की पूजा करना क्या समझेगा? और, हम कैसे उम्मीद करें कि वह उन खतरों पर तनिक भी ध्यान देगा जो हिमालय में कचरा फैलाने से सिर पर मंडरा रहे हैं। वह न धर्म समझता है, न प्रकृति। फिर वह हिमालयविदों और विज्ञानियों की चेतावनियों क्या समझेगा?

एक रिपोर्ट बता रही है चारधाम यात्रा शुरू होने के पंद्रह दिन के भीतर आठ लाख यात्री वहां पहुंच चुके हैं और दस लाख अगले पंद्रह दिन में आने वाले हैं। अकेले केदारनाथ में रोज दस हजार किलो कचरा जमा हो रहा है। सरकारी अव्यवस्थाएं भी खूब हैं लेकिन हिमालय पर सबसे बड़ा अत्याचार अराजक यात्री कर रहे हैं। भू-विज्ञानियों और पर्यावरणविदों ने यह सब देखकर चेतावनी दी है कि यही हाल रहा तो 2013 जैसी भीषण त्रासदी बार-बार दोहराई जाएगी।      

नेपाल, भूटान, सिक्किम के हिमालयी क्षेत्र से लौटे यात्री बताते हैं कि वहां आप एक टुकड़ा पॉलीथीन नहीं फेंक सकते। आम शेरपा और गाइड तक इतने प्रशिक्षित और सतर्क हैं कि पर्यटकों को सावधान करते रहते हैं। यदि कहीं रास्ते में जरा सा कचरा मिला तो बटोर कर वापस लाते हैं। इन छोटे मुल्कों/राज्यों ने पर्यटन को अपनी आर्थिकी बनाया है तो उसके खतरे भी समझे हैं। इससे भी अधिक उन्हें हिमालय और उसकी पारिस्थितिकी और उसकी संवेदनशीलता की समझ है।

हिमालय बहुत संवेदनशील क्षेत्र है। यह दुनिया का सबसे कमउम्र पहाड़ है। यहां तरह-तरह की भू-भौतिक गतिविधियां अंदर-ही अंदर चलती रहती हैं। विस्फोट करके सड़कें और बांध बनाना ही नहीं, यात्रियों की भारी भीड़ और उसकी अराजकता भी इसके लिए बड़ा खतरा है। यह समझ विकसित होनी चाहिए। प्रकृति का आनन्द उसे रौंदने में नहीं, उसकी शांति को सुनने-अनुभव करने और उसे तनिक भी न छेड़ने में है। आपकी यात्रा की तस्वीरों की पृष्ठभूमि में हिमालय, पेड़, पक्षी और फूल होने चाहिए, कचरे के ढेर नहीं।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 मई, 2022)           

Friday, May 20, 2022

कहां गए वह देसी स्वाद और खुशबू?

समझ में नहीं आता कि बूढ़े होते जाने का असर है या चीजें वास्तव में बदल गई हैं। यही देखिए कि इन दिनों खूब खरबूजा खा रहे हैं। तरबूज खा रहे हैं। खीरा और ककड़ी भी। डॉक्टर भी कहते हैं कि मौसमी चीजें अवश्य खानी चाहिए। खा रहे हैं लेकिन गर्मियों में तरावट देने वाली इन चीजों का स्वाद और खुशबू जैसे खो गई हैं। खरबूज छांटने लगते हैं तो आदतन नाक के पास ले जाकर सूंघते हैं। ठेले वाला कहता है- “बाबू जी, सूंघिए नहीं, ले जाइए। शक्कर है शक्कर!” घर लाकर काटते हैं तो लगता ही नहीं कि खरबूजा काट रहे हैं। बिना खशबू के भी कोई खरबूजा हुआ!

बूढ़ों को पुराने ही दिन याद आते हैं। खरबूजा दरवाजे के भीतर आया नहीं कि पूरे घर में उसकी अनोखी सुगंध भर जाती थी। पड़ोसी भी जान जाते कि आज जोशी जी के यहां खरबूजा आया है। मीठा ससुरा हो या नहीं, खुशबू से मन तर हो जाया करता था। आजकल के खरबूजे इतना रंग बदल चुके हैं कि अपनी खुशबू जाने किस प्रयोगशाला में खो आए! ठेले वाला बिल्कुल सही कह रहा था, जैसे शक्कर में डूबा रहा हो! मिलावटी मिठाई को भी मात कर रहा है। आंख बंद करके खरबूजा खरीद लाइए, लगता है चाशनी में डूबा हुआ है लेकिन इसकी खुशबू कहां गई?

फिर वही पुराना राग कि लेकिन क्या तो लखनउवा खरबूजे होते थे और क्या कनपुरिया! बाहरी छिक्कल का मिजाज, रंग और आकार-प्रकार दूर से ही बता देते थे कि गोमती की मिट्टी-पानी वाला है या गंगा किनारे वाला। लखनउवा खरबूजा बिल्कुल नवाबी मिजाज वाला होता था। बिल्कुल पतला छिक्कल, रंगत में वाज़िद वाली शाह वाली शोखी और स्वाद एवं सुगंध के क्या कहने! कनपुरिया वाला झाड़े रहो कलक्टरगंज की तरहखुरदुरा, मोटा-भोंदा छिक्कल लेकिन स्वाद और सुगंध में जैसे गंगा तट की भीनी-भीनी हवा उड़ती आई हो। अब क्या सारे खरबूजों ने रंग बदल लिया?

तरबूज ऐसे आते थे कि एक परिवार एक पूरा तरबूज नहीं खरीद पाता था। दाम के मारे नहीं, आकार के कारण। इतना बड़ा कि बाजार से हाथों में उठाकर लाना मुश्किल होता था। दो-तीन परिवार साझा करके एक तरबूज खरीदते थे और सामूहिक उत्सव रचता था। अकेले-दुकेले हों तो फिर ठेले में बिकते एक आने को लालो-लाल’ ‘दस पैसे को लालो-लालका सहारा होता था। ठेले पर हिमालयऔर उस पर हरे-हरे पत्तों में सजे लाल-लाल तिकोने टुकड़े राह चलतों के मुंह में पानी भर देते थे। ऊपर से नमक-मसाले का छिड़काव स्वाद और तरावट दोगुना कर देता था। हैजा होने के खतरे के बावजूद लोग खाते ही थे। अब तो कभी-कभी भ्रम होने लगता है कि तरबूज है या खरबूज। और, मौसम दूसरा न होता तो अमरूद भी समझा जा सकता था! आकार-प्रकार और रंगत के अंतर गायब ही हो गए!

कहां गई वे सारी फसलें? और, स्वाद और रंग और गंध? यह बुढ़ापा पूछ रहा है या जमाना सचमुच ऐसा आ गया कि हमारी थाली और रसोई और बगीचे सब हैकहो गए? ‘देसीचीजें सब गायब हो गईं। फालसे, फिरनी, बड़हल, कमरख, वगैरह प्रयोगशाला में शायद नहीं पहुंचे तो वैसे ही बने हुए हैं, अगर कहीं दिख गए तो, जैसे हमारे बचपन में होते थे। बाकी तरबूज, खरबूज, आम, अमरूद, खीरा, आदि-आदि प्रयोगशालाओं से नया जन्म ले आए। विज्ञानियों ने अपनी समझ से ठीक ही किया होगा, उगाना आसान हुआ होगा, रोग-दोष निवारण किया होगा, बीज और गुठली कम किए होंगे, मिठास और गुण भी बढ़ाए होंगे। तभी न हनी ड्यूजैसे विलायती नाम रखे हैं। मगर हमारे वाले गंगा-गोमती के तरबूज-खरबूज तो खो गए न!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 मई, 2022)         

Sunday, May 15, 2022

मुहब्बतें तो सरहदें तोड़कर रहेंगी, जनाब!


जैसे 'रेत समाधि' (बुकर पुरस्कार के लिए सूचीबद्ध गीतांजलिश्री का हिंदी उपन्यास) की 'माँ', नायिका चंद्रप्रभा देवी का उम्र के चौथे पड़ाव में बजिद पाकिस्तान जाना और अपनी किशोरावस्था के दिनों को, मुहल्ले व मकानों को और पड़ोसियों व संगी-साथियों को भेटने की काल्पनिक कहानी सच हो रही हो। 

पुणे निवासी 90 वर्षीय रीना वर्मा शीघ्र ही रावलपिण्डी जाकर 'प्रेम गली' के 'अपने घर' को देखने, अपनी किशोरावस्था के संगी साथियों, पड़ोसियों (यदि बच रहे हों) से मिलने और उन दिनों की यादों को जीने का अपना सपना सच करने वाली हैं। आज के The Times Of India में उनकी यह रोमांंचक, त्रासद और सुखद कथा छपी है। इसे पढ़ना सरहदों को बेमानी साबित करके मुहब्बत ज़िंदाबाद कहना है, जैसे 'रेत समाधि' की मां कहती और अंतत: साबित करती है। चंद्रप्रभा देवी एक उपन्यास की काल्पनिक चरित्र है। रीना वर्मा इस देश की और 'उस देश' की यानी इस पार की और उस पार की जीती जागती, बाहोशोहवास शख्सियत हैं। उक्त अखबार में अम्बिका पण्डित  का लिखा रीना वर्मा का किस्सा पढ़ने के बाद आपसे साझा किए बिना रहा न गया।


1947 में रीना वर्मा 15 साल की थीं जब देश विभाजन की मारकाट ने एक मुल्क के बीच खूनी सरहद खींच दी थी। उस सरहद के आर-पार राजनैतिक मकसद से भड़काई गई नफरत का सैलाब था। मार-काट मची थी। ज्ञात मानव इतिहास की सबसे बड़ी आबादी दर-ब-दर हो रही थी। रावलपिण्डी की 'प्रेम गली' वहां रहने वाले भाई प्रेमचंद छिब्बर के नाम से जानी जाती थी। प्रेमचंद रीना के पिता थे। विभाजन की मारकाट में उस इलाके की लड़कियों को सेना के शिविर में शरण लेनी पड़ी। इस छिब्बर परिवार को सोलन और बाद में दिल्ली विस्थापित होना पड़ा। 'प्रेम गली' में फिर इस परिवार का लौटना नहीं हुआ। सारी मुहब्बतें उसी गली में छूट गईं। ज़िंदगी ने नई करवट ली।  शादी हुई, बच्चे हुए, मां-बाप नहीं रहे, उम्र सीढ़ियां फलांगती रही लेकिन रावलपिंडी में छूट गई प्रेम गली और उसका छिब्बर-घर यादों से कतई न मिटा।। 

रीना की जो जड़ें उखड़ते वक्त वहीं दबी रह गई थीं, उनकी टीस ही थी जो दो साल पहले कोविड-दौर के अकेलेपन में उन्होंने फेसबुक पर रावलपिण्डी की प्रेम गली और 'अपने घर' की उन दिनों की कुछ यादें साझा कीं। वहां पड़ोसियों के बीच वह तोशी के नाम से दुलारी जाती थी। उन्होंने यह भी लिखा कि काश, वे एक बार रावलपिण्डी जाकर अपने उस घर को देख पातीं, उस मिट्टी को स्पर्श कर सकतीं! फेसबुक पर की गई तोशी की यह तमन्ना रावलपिण्डी के सज्जाद भाई के दिल को छू गई। उन्होंने प्रेम गली का वह घर खोज निकाला और उसके फोटो और वीडियो अपलोड कर दिए। फिर तो तोशी उर्फ रीना की यादें जोर मारने लगीं। उन्होंने अपनी ख्वाहिश अपनी बेटी सोनाली के सामने जाहिर की। सोनाली ने मां की इच्छा पूरा करनी चाही। पाकिस्तान की यात्रा के लिए आवश्यक वीजा हेतु आवेदन किया गया लेकिन आवेदन नामंजूर हो गया।

रीना ने हार नहीं मानी। पुरानी यादें अब और भी जोर मारने लगी थीं। फेसबुक पर यादों और तस्वीरों का आदान-प्रदान जारी रहा। एक पाकिस्तानी पत्रकार की सलाह पर रीना ने अपनी इच्छा के बारे में एक वीडियो और कुछ तस्वीरें साझा कीं। पाकिस्तान की विदेश राज्य मंत्री हिना रब्बानी खार की नज़र इस पर पड़ी और हाल ही में रीना को 90 दिन के लिए पाकिस्तान का वीजा जारी हो गया। सरहदें टूट गईं!

रीना वर्मा रावलपिण्डी की प्रेम गली में 'अपने घर' को देखने के लिए अब अत्यंत उत्सुक और अधीर हैं। उनका इरादा जुलाई में वहां जाने का है। 'टाइम्स' की अम्बिका पण्डित को उन्होंने बताया कि मैं नहीं जानती कि हमारे उस घर में अब कौन रहता है लेकिन मुझे भरोसा है कि वे मुझे घर में जाने और उसे देखने देंगे। वे उस गली के लोगों और उन सबसे मिलने को लालायित हैं जिन्होंने उनके सपने को सच करने में सरहदें तोड़ दीं।

रीना उर्फ तोशी को अपने कुछ पड़ोसियों की याद है। अपने पारिवारिक दर्जी शफी की भी याद है जिन्होंने उस मार-काट में उनकी मां को अपनी दुकान में छह घण्टे तक छुपाए रखा था। वह नफरतों का दौर था लेकिन दूसरे की मदद करने और जान बचाने वाले लोग कम न थे। रीना नफरत और हिंसा के उस क्रूर दौर की याद नहीं करना चाहतीं। किसी के प्रति कोई दुर्भावना भी नहीं। जो याद है और खूब याद है वह मुहब्बतें हैं जो आज भी जोर मारती हैं। इस दौर में हमारे समाज में बढ़ती नफरत पर भी उन्हें हैरत होती है।

विभाजन ने विशाल आबादी को जड़ से उखाड़ दिया था। रीना के परिवार को भी सब कुछ छोड़कर आना पड़ा। रावलपिण्डी वाला बड़ा-सा घर उनकी मां कभी नहीं भूली थीं। एक बटलोई और एक मर्तबान जो वे रावलपिण्डी से ला पाए थे, आज भी रीना के पुणे वाले फ्लैट में सम्भालकर रखा है जहां वे अकेली रहती हैं। उस बटलोई और मर्तबान में अब फूल सजे रहते हैं और मुहब्बत की खुशबू बिखेरते हैं। 

क्या उन्हें इस उम्र में और इस दौर में अकेले पाकिस्तान जाने में दर नहीं लग रहा? नहीं, वे कहती हैं- मेरे दिल में आज भी उस समय की रावलपिण्डी धड़क रही है।  वहां जाने में कतई कोई डर नहीं।

चंद वर्ष पूर्व google का एक विज्ञापन जारी हुआ था जिसमें विभाजन के समय बिछड़ गए दो दोस्तों को उनके बेटे-बेटी ने Google की सहायता से न केवल फोन पर मिलवाया था, बल्कि भेंट भी करा दी थी। रंगमंच एवं फिल्मों के मंझे कलाकार विश्वमोहन बडोला ने उसमें यादगार अभिनय किया था। पाकिस्तान से आकर जब उनका दोस्त अचानक फ्लैट की घण्टी बजाता है तो दरवाजा खोलकर 'यूसुफ, ओए!' चीखते हुए बचपन के बिछड़े दोस्त  को पहचानकर उसे गले लगाते बडोला जी का भाव-विह्वल चेहरा  भूलता नहीं।

मैं अपनी कल्पना में 90 वर्षीय रीना वर्मा को आने वाली जुलाई की किसी सुबह रावलपिण्डी की प्रेम गली में किसी  पुराने चेहरे को उसी तरह गले लगाकर 'जव्वाद, ओए' कहकर बिलखते देख रहा हूं। 

-नवीन जोशी, 15 मई 2022  

(चित्र और मूल सामग्री साभार The Times of India तथा ambika.pandit@timesgroup.com)



Friday, May 13, 2022

शहरी विकास की नई पहचान, इण्टरलॉकिंग टाइल्स

 

अपनी राजधानी, लखनऊ के मुहल्लों में पिछले कई साल से टाइल्स प्रतिद्वंद्विता चल रही है। पक्का विश्वास है कि प्रदेश के अन्य नगर निगमों, नगर महापालिकाओं, आदि में भी जरूर चल रही होगी। मकानों के आगे, फुटपाथ और गलियों-रास्तों-पार्कों में धड़ल्ले से इण्टरलॉकिंग टाइल्सबिछाए जा रहे हैं। कहीं मिट्टी यानी कच्ची जमीन न दिखने पाए। पाटो-पाटो! टाइल्स विकास का प्रतीक बन गए हैं। मिट्टी से बैर हो गया है। मिट्टी पिछड़ेपन की निशानी है। चमकदार टाइल्स मुहल्लों की शान बढ़ाते हैं।

जिस किसी कॉलोनी में टाइल्स नहीं बिछे होते, या कोई गली, सड़क अथवा घर की अघाड़ी-पिछाड़ी छूट गई हो, वहां के नागरिक इसके लिए सभासद और मेयर, यहां तक कि नगर विकास मंत्री के यहां भी दौड़ लगाते हैं। जिसके घर के सामने टाइल्स पुराने पड़ गए हैं, वह नए लगवाने के लिए दौड़ता है। घर के आगे चमकदार टाइल्स प्रभुत्व की निशानी बन गए हैं। लखनऊ ने इतनी तरक्की कर ली है कि सड़क के दोनों तरफ शायद ही कहीं मिट्टी और घास दिखाई दे। मिट्टी तो छी-छी है!

रास्ते और फुटपाथ छोड़िए, जनता अपने पार्कों में भी टाइल्स लगवाने के लिए जोर लगवाती है। वॉकिंग ट्रेककहते हैं उसे, जहां पार्क में चारों तरफ टहलने के लिए टाइल्स बिछे हों। कच्ची मिट्टी में कौन घूमे! ब्रांडेड जूते गंदे होते होंगे। हड्डी रोग विशेषज्ञ एक मित्र किसी रोगी को सलाह दे रहे थे कि घुटनों में दर्द से बचने के लिए कच्ची जमीन पर चलिए। सड़क या टाइल्स के ऊपर दौड़ने या तेज-तेज चलने से एक उम्र के बाद नुकसान होता है। लेकिन ना, जिनके पार्क में टाइल्स वाला वॉकिंग ट्रेकन बना हो वह अपने को दीन-हीन समझता है।

कोई डेढ़-दो दशक पहले यह विकास-रोग शुरू हुआ था। तब सुना था कि हर सरकार में मंत्रिपद सुशोभित करने वाले एक नेता ने इण्टरलॉकिंग टाइल्सकी फैक्ट्री लगाई। उसके बाद उनका और शहर का बहुत तेज विकास हुआ। यह देख कई विधायक, सभासद, अफसर आदि इस धंधे में आते गए। इस तरह शहर को चमकाने की अभूतपूर्व प्रतियोगिता चल पड़ी। जब सारे फुटपाथ, मुहल्ले वगैरह टाइल्समय हो गए तो, पुराने टाइल्स को बदलकर नए लगवाने की होड़ शुरू हुई। आज भी जगह-जगह आप अच्छे-भले लेकिन पुराने पड़ चुके टाइल्स को उखाड़कर नए बिछाए जाते देख सकते हैं। ओएफसी केबल, सीवर लाइन, पेयजल लाइन, पीएनजी लाइन, आदि-आदि बिछाने के लिए भी बार-बार खोदे जाने और फिर नए-नए लगवाने का अवसर उपस्थित हो ही जाता है।

मिट्टी को दुश्मन समझने या कहिए कि टाइल्स का धंधा चमकाने का एक बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि सड़क किनारे पेड़-पौधे लगाने की जगह खत्म होती गई। पहले से लगे पेड़-पौधों का गला टाइल्स ने घोंट दिया। वे धीरे-धीरे सूखने लगे या हलकी-सी आंधी में भी गिरने लगे। एक तरफ वृक्षारोपण का विश्व कीर्तिमान बनता है, दूसरी तरफ पेड़-पौधों की जड़ों से फैलने-बढ़ने की जगह छीनी जाती है। पुराने लोगों को याद होगा कि शहर की सड़कों के किनारे कितने बड़े-बड़े और विभिन्न प्रजातियों के पेड़ होते थे। अब सजावटी पौधे भी मुश्किल से उग पाते हैं। बारिश का पानी धरती के भीतर रिसे तो कैसे! जरा-सी वर्षा में नालियां-सड़कें क्या इसीलिए उफन नहीं पड़तीं?

जो पीढ़ी मिट्टी में खेल-कूद कर बड़ी हुई, उसकी संतानें मिट्टी के स्पर्श से भी वंचित हैं। पिछले साल पीजीआई के गेस्ट्रॉलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ उदय घोषाल ने एक सेमीनार में कहा था कि बच्चों को मिट्टी में खेलने दीजिए। इससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। अब पेड़ की जड़ों को ही मिट्टी सुलभ नहीं है। बच्चों के लिए तो वह सर्वथा वर्जित बना दी गई है।  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 मई, 2022)               

Tuesday, May 10, 2022

'अपनों के बीच अजनबी‌‌' यानी इस समय में मुसलमान होना

अब मैं सिनेमा हॉल में जोर-जोर से राष्ट्रगान गाता हूं ताकि मॉब लिंचिंग की सारी आशंका निर्मूल कर दूं। .... हालांकि मुझे राष्ट्रगान पूरा कंठस्थ है लेकिन बढ़ते हुए हालात में मैंने उसका प्रदर्शन दस गुना ज़्यादा बढ़ा दिया है। वरना अगर मारा गया तो किसी भी अदालत में मुझे निर्दोष साबित नहीं किया जा सकेगा। ऐसा अब मेरा अटूट विश्वास है।”

“अब मैं ऐसे आवरण में जीने लगा हूं जिसे भक्तों की भीड़ पहचान नहीं पाती। मैंने अपने चेहरे पर उभरने वाले मौलिक भावों को तालों में बंद कर दिया है। बदले हुए हालात में अब मैं भूख से मरते हुए आदमी को देखकर भी देश की तारीफ करता हूं। मैं थाली पीट-पीट कर भारत के विश्वगुरु होने की बात करता हूं।”

“रेलगाड़ी में सफर करते हुए पहले बकरे (खस्सी) का कोफ्ता या कबाब लेकर चलना बहुत आम बात थी हमारे लिए। बीफ लेकर तो पहले भी कोई मुसलमान नहीं चलता था। बीफ को बड़ेका भी इसीलिए कहते हैं कि जिनकी भावना उससे जुड़ी है, उन्हें तकलीफ न हो। लेकिन अब जबसे मुसलमानों की लिंचिंग बीफ के नाम पर होने लगी है, तब से एक डर सा बैठ गया है। अब हर जगह जान का खतरा दिखाई देने लगा है। अब एक-एक व्यक्ति निशाने पर है। आप अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं।”

ये उद्धरण हाल ही में प्रकाशित उस किताब से हैं जिसे एक अच्छे मुसलमानने लिखा है। यह अच्छा मुसलमानहिंदी का अच्छा कवि है, नाटककार है और पिछले कई साल से मुम्बई में टीवी और फिल्मों के लिए पटकथा लिख रहा है, जिनमें दूरदर्शन पर प्रसारित उपनिषद गंगाभी शामिल है। “2014 के बाद लोग इसे सहज नहीं समझते। उनके लिए एक मुसलमान का उपनिषदों पर काम करना सुखद आश्चर्य से कम नहीं है।” इसलिए इस लेखक-कवि को अच्छे मुसलमानका प्रमाण पत्र हासिल है- “लोग अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि फरीद वैसा मुसलमान नहीं है। मुसलमान अच्छे भी होते हैं।” जी हां, इस किताबअपनों के बीच अजनबीके लेखक फरीद खां हैं।

बदले हुए भारत देश में साम्प्रदायिक बना दी गई भीड़ के बीच मुसलमान होना कितना डरावना, अपमानजनक और संदेहास्पद हो गया है, यह शायद किसी संवेदनशील गैर-मुसलमान के लिए भी ठीक से समझना मुश्किल होगा। फरीद खां की छोटी-सी यह किताब देश की एक बड़ी आबादी के सबसे बड़े संकट को रेशा-रेशा खोलती है और हर पंक्ति भीतर तक हिला देती है। अगर अभी तक आपके भीतर का नया हिंदू जाग्रत नहीं हुआ है तो यह किताब आपको बताएगी कि यह देश किस दिशा में जा रहा है- “... पहली बार अनुभव हुआ कि पाकिस्तान और हिंदुस्तान में कितनी समानता है। यह भी अनुभव हुआ कि पाकिस्तानियों की तरह यहां के लोग भी अपने देश को पाकिस्तान बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।” यह पढ़ते हुए अगर आपका भाजपाई-संघी-हिंदू भीतर कहीं कुनमुनाने लगे तो बता दूं कि फरीद खां के भीतर बैठा मुसलमान जरा भी पाकिस्तानी नहीं हुआ है- “मुसलमान कौन से दूध के धुले हैं। उनकी साम्प्रदायिकता और फासीवाद ही तो आज का पाकिस्तान भुगत रहा है। भारत में उसका कीड़ा न लगे इसीलिए तो हम इतनी बकबक कर रहे हैं और आपसे जूझ रहे हैं। अगर आप मुझे मुसलमानों का वकील समझ रहे हैं तो आप मेरी बात कभी समझ नहीं पाएंगे।

पूरा खतरा है कि यह किताब मुसलमानों के पक्ष में फरीद खां का वकालतनामा समझा जाए। सच यह है कि यह एक संवेदनशील भारतीय लेखक का हिंदुस्तानियत और इनसानियत के पक्ष में पेश वकालतनामा है। वकालतनामा ही नहीं, पूरी बहस है- विनम्र किंतु उचित आक्रोश से भरी, तार्किक और मार्मिक भी। इसमें उन तमाम सवालों, आशंकाओं, आरोपों और मिथ्या प्रचारों का जवाब मौजूद है, जो भारतीय मुसलमानों के प्रति आज बहुत जोर-शोर से प्रचारित किए जा रहे हैं। फरीद इन सबका तार्किक जवाब देते हैं, कहीं तथ्यों से, कहीं हास्य-व्यंग्य-चुटकी के साथ और कहीं स्वाभाविक आक्रोश से भी। जैसे, मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़े सवाल और आरोप ले लीजिए। एक मित्र ने फरीद से पूछा था, जो कि अक्सर पूछा जाता है, एक ही देश में मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों हो? समान नागरिक संहिता क्यों न हो? फरीद लिखते हैं- “... मैंने सबसे पहले पूछा कि कौन सा कानून मुसलमानों के लिए अलग से है? यह बिल्कुल मूलभूत प्रश्न है। सबसे पहले इसी का जवाब ढूंढना चाहिए। क्या मुसलमानों के लिए अलग से सड़कें बनाई गई हैं? क्या मुसलमानों के लिए अलग से ट्रैफिक नियम हैं? क्या मुसलमानों के लिए सरकार अलग से अदालत लगवाती है? या, क्या मुसलमानों की करेंसी अलग है? … मैंने मित्र से पूछा- आपने शादी की? … उन्होंने जवाब दिया- अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लिए। तो मैंने पूछा कि आपकी शादी वैध है? इस पर उन्होंने संयम खो दिया। किसी को भी इस सवाल पर संयम खो देने का हक है। सवाल ही ऐसा है। मेरा दूसरा सवाल था, मैंने निकाह किया है तो क्या मेरी शादी वैध है? उन्होंने जवाब दिया- निस्संदेह। पूरे समाज के सामने तुमने निकाह किया है। अवैध कैसे होगा? तब मैंने कहा कि हम दोनों की शादियों को कानून वैधता प्रदान करता है, समाज नहीं। उस कानून को ही पर्सनल लॉ कहते हैं जो हमें अपने रीति-रिवाज, धर्मों, परम्पराओं के अनुसार परिवार बसाने का अधिकार देता है। इसी के साथ आपको अपने धर्म, सम्प्रदाय, रीति-रिवाज, संस्कृति के अनुसार जायदाद पर निर्णय लेने का हक भी देता है। यही है पर्सनल लॉ। साथ ही हमारे संविधान में यह भी प्रावधान है कि अगर कोई इनसे अलग जाकर अपना परिवार बसाना चाहता है और अपनी जायदाद का निर्णय लेना जाहता है तो कानून उसका साथ देगा। क्या अब भी आप समान नागरिक संहिता चाहते हैं?”  

इसी तरह मुसलमानों के ज्यादा बच्चे पैदा करने, तीन तलाक, लव जेहाद, कश्मीर में और अन्यत्र आतंकवादियों को समर्थन करने जैसे कई आरोपों, सवालों और आशंकाओं का विश्लेषण करते हुए तार्किक उत्तर फरीद देने की कोशिश करते हैं। वे मुसलमानों की साम्प्रदायिकता और संकीर्णता को भी बख्शते नहीं। साम्प्रदायिकता और धार्मिकता वे बहुत स्पष्ट अंतर करते हैं, जिसकी कुछ मिसालें किताब में हैं।  

फरीद रोजमर्रा के जीवन की घटनाओं को माध्यम बनाकर मुसलमानों के खिलाफ जानबूझकर बनाए गए इस वातावरण की गहरी पड़ताल करते हैं और उसके पीछे के साम्प्रदायिक चेहरे को बेनकाब करते हैं। वे बताते हैं कि “असल में आज की साम्प्रदायिकता एक साथ इतने निशाने साधती है कि जब तक आप  उसका चरित्र निर्धारण करके समझने की कोशिश करें तब तक उसका चरित्र बदल जाता है। वह कहावत  सुनी होगी कि जब तक सच घर से निकलने की सोचता है तब तक झूठ पूरे बाजार में घूम आता है।  साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का चरित्र भी ऐसा ही है। बिना झूठ के साम्प्रदायिकता फैल नहीं  सकती और धर्मनिरपेक्षता सच के अहंकार में बेपरवाही के साथ घर में बैठी होती है। झूठ केवल  तथ्यहीनता से ही नहीं, प्रेमहीनता से भी उपजता है। यानी आप पहले तय करते हैं कि आपको किसका  शिकार करना है। फिर तय होता है कि छिपाना क्या-क्या है और बताना क्या-क्या है।”

समस्या यह है कि इन सवालों, संदेहों, आरोपों के कारण, विश्लेषण और उनके तार्किक उत्तर को सुनने के लिए भी अब जाग्रत हिंदूयानी भाजपा-संघ के अंध-समर्थक तैयार नहीं हैं, समझने की कोशिश करना तो दूर की बात है। "2014 के बाद सकीना ने पाया है कि आप भाजपा समर्थकों से तर्कपूर्ण बहस नहीं कर सकते। भाजपा समर्थक तर्कवादी होएते ही नहीं। वो सिर्फ आपको नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। न तो सझने की कोशिश करते हैं न समझाने की।" साम्प्रदायिक राजनीति ने देश का मानस ही ऐसा तैयार कर दिया है। चंद वर्ष पूर्व आमिर खान ने जब अपनी पत्नी की आशंका को उजागर किया था कि इस माहौल में उन्हें डर लगता है तो कोई भी उसे समझने को तैयार नहीं हुआ था। आमिर खान की खूब मलामत की गई, उन्हें पाक्सितान जाने की सलाह दी गई थी। तबसे नफरत और बढ़ी-फैली है। कई मुखर मुसलमानों’ (उनका कलाकार, वैज्ञानिक, समाज विज्ञानी, आदि होने का कोई अर्थ नहीं होता) के साथ कैसा-कैसा व्यवहार हो चुका है। प्रख्यात अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के साथ भी यही हो रहा है। नसीरुद्दीन शाह ने ही इस किताब की भूमिका लिखी है, जो वर्तमान हालात पर एवतंत्र रूप से भी अत्यंत तार्किक और मार्मिक वक्तव्य है।

इस किताब की बातों को जोर-शोर से खारिज किया जाएगा और तरह-तरह से पलटवार किए जाएंगे। तो भी फरीद खां ने अत्यंत आवश्यक हस्तक्षेप किया है। यह निरंतर होना चाहिए। अंत में यह कहना भी अत्यावश्यक है कि लेखक कतई निराश नहीं हैं, बल्कि उम्मीदों से भरे हैं- “इस देश की आत्मा में दो ऐसी चीजें अंतर्निहित हैं जो हमेशा मुझ में उम्मीद कायम रखती हैं। एक है इस देश का संविधान और दूसरा इस देश का बहुसंख्यक समुदाय यानी हिंदू धर्म।” फरीद जब यह कहते हैं तो वे भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को नहीं गिनते जो “हिंदू धर्म और समुदाय का उपयोग सत्ता के लोभ में करते हैं।” वे उस हिंदू धर्म से आशा रखते हैं जो “दुनिया का ऐसा अव्वल धर्म है जो इस कदर धर्मनिरपेक्ष है। यह हिंदू धर्म ही भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति के लिए चुनौती है।” किताब का समापन करते हुए वे लिखते हैं- “मैं कभी नहीं भूलता कि नाथूराम गोडसे ने विभाजन के लाभार्थी जिन्ना को नहीं, राम-राम जपने वाले गांधी को मारा था। इसी बिंदु से शुरू करनी चाहिए साम्प्रदायिकता और धार्मिकता के अंतर की बहस।”

-नवीन जोशी, 10 मई, 2022      

(अपनों के बीच अजनबी- फरीद खां। भूमिका- नसीरुद्दीन शाह। प्रकाशक- वाम प्रकाशन। मूल्य-रु 225)

Monday, May 09, 2022

'मदर्स डे' शुरू करने वाली अन्ना उसकी सबसे बड़ी विरोधी बन गई थी!

अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्त्री अन्ना जार्विस ने जब 1908 में अपनी मां के सम्मान में ‘मदर्स डेकी शुरुआत की तो कभी नहीं सोचा था कि बहुत ज़ल्दी इसे बाजार हड़प लेगा और यह दिन भारी धंधे और बेतहाशा मुनाफा कमाने का विश्वव्यापी माध्यम बन जाएगा। और, जब उसने देखा कि सच्ची, सुंदर, ईमानदार और पवित्र भावना से शुरू किया गया मदर्स डेभावना-विहीन बाजारी धंधे एवं औपचारिक तमाशे में बदल गया है तो अपना शेष जीवन एवं सारा धन उसने मदर्स डे’ के इस रूप का विरोध करने और इसे बंद कराने की कोशिशों में लगा दिया। इसके बाजारीकरण से वह इतनी घृणा करने लगी थी कि 1948 में अपनी मृत्यु तक सारी ताकत और समस्त संसाधन लगाकर वह इसका विरोध करती रही। मृत्यु के समय वह बेहद गरीब और अकेली हो चुकी थीं, जबकि मदर्स डे का बाजार हर साल भारी मुनाफा देने वाला बनता चला जा रहा था।

हर साल मई के दूसरे रविवार को जब अमीर ही नहीं, गरीब से गरीब देशों और परिवारों के पुत्र-पुत्रियां अपनी उपेक्षित और घर से खदेड़ी जा चुकी माताओं की भी तस्वीरें सोशल मीडिया में डाल-डालकर मदर्स डे’ का दिखावा करते हैं तो किसी को भी अन्ना जारविस और उसकी पवित्र भावना की याद नहीं आती। उसने क्यों मदर्स डेशुरू किया और फिर क्यों इसके तीव्र विरोध पर उतर आई, इसे जानने की न किसी को फुर्सत है, न बाजार इसका अवसर देता है। आज हालात यह हैं कि जो कोई अपनी (जीवित या दिवंगत) मां को बधाई देते और उसके चरणों में लहालोट होते हुए उसके साथ अपनी फोटो सोशल मीडिया में नहीं चिपकाते, वे अपने को विश्व के सबसे दुर्भाग्यशाली और नालायक पुत्र/पुत्री मानते/मानतीं हैं। अनेक माताओं को तो यह भी पता नहीं होता कि बेटे/बेटी ने उनकी फोटो सोशल मीडिया में चिपका कर क्या-क्या लिख मारा है।

अन्ना जार्विस की कहानी मैंने आज सुबह इण्डियन एक्सप्रेस में पढ़ी। फिर बीबीसी और दूसरी साइटों पर उसके बारे में तलाश किया। वही कथा आपसे साझा करता हूं। अन्ना की मां, ऐन रीव्स जार्विस ने अपना जीवन मातृत्व-सेवा में लगा दिया था। वह अमेरिकी गृह युद्ध का दौर था। माताएं प्रसव-सम्बद्ध समस्याओं और बच्चे बीमारियों से मर रहे थे। ऐन रीव्स ने माताओं को अपनी एवं बच्चों की साफ-सफाई, बीमारियों से उन्हें बचाने एवं जागरूक करने का अभियान शुरू किया। वह बच्चों के लालन-पालन में माताओं के समर्पण को दुनिया की सबसे बड़ी सेवा मानती थी। अन्ना ने बचपन में अपनी मां को कहते सुना था कि काश, यह दुनिया जानती और मानती कि एक मां अपने बच्चों एक लिए क्या-क्या करती और कर सकती है। कभी यह दुनिया मां को सम्मान देना सीखे!

1905 में अन्ना की मां का देहांत हो गया। तब वह अपनी मां की इच्छा पूरी करने के अभियान में जुट गई। उसने राजनेताओं, उद्योगपतियों और अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों को कई पत्र लिखे कि मई का दूसरा रविवार मदर्स डेके रूप में मनाया जाए। इस दिन सब लोग अपनी-अपनी मां का विशेष रूप से आदर करें और परिवार एवं मानवता के लिए उसकी सेवाओं को प्यार के साथ याद करें। रविवार का दिन इसलिए चुना गया कि मां को तनिक फुर्सत होगी और मई का दूसरा रविवार इसलिए कि वह नौ मई के आस-पास पड़ेगा, जिस दिन अन्ना की मां की मृत्यु हुई थी। 1908 में अन्ना का अभियान रंग लाया। उस साल दो जगहों पर मदर्स डे मनाया गया। एक, अन्ना के ग़ृहनगर ग्राफ्टन के एक चर्च में और दूसरा, फिलाडेल्फिया में। अन्ना के अभियान को कई विशिष्ट व्यक्तियों का समर्थन मिलता गया। 1914 में अभियान को बड़ी कामयाबी मिली जब अमेरिकी प्रतिनिधि सदन में अल्बामा के सांसद जेम्स हेफ्लिन ने मदर्स डे को राष्ट्रव्यापी मान्यता दिलाने के लिए विधेयक पेश किया जो पारित हो गया। अमेरिकी राष्ट्रपति टॉमस विड्रो विल्सन ने आठ मई, 1914 को इस पर हस्ताक्षर किए। अमेरिका में मदर्स डेको विधिक मान्यता मिल गई।

अन्ना जार्विस के इस अभियान से काफी पहले 1873 में लेखिका और सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्त्री जुलिया वार्ड होव ने भी माताओं के अतुलनीय योगदान का सम्मान करने के लिए मदर्स डेमनाने की अपील की थी। जुलिया और अन्ना के मदर्स डेके विचार में बुनियादी फर्क था। जुलिया अपनी-अपनी माताओं के पारिवारिक सम्मान की बजाय सभी माताओं को इसमें जोड़ती थीं, जबकि अन्ना का विचार था कि प्रत्येक संतान अपनी मां के प्रति व्यक्तिगत रूप से अपना पवित्र प्यार, आदर और श्रद्धा व्यक्त करे जिसके लालन-पालन के लिए वह अपना सर्वस्व एवं सर्वोत्तम न्योछावर करती है। अन्ना का ध्येय वाक्य कुछ इस तरह था- इस दुनिया की सबसे अच्छी मां- मेरी मां।यानी सभी को अपनी-अपनी मां को हृदय से दुनिया की सर्वोत्तम मां मानते हुए इस दिन बहुत याद, प्यार और सम्मान करना था।

परिवार के भीतर अपनी-अपनी मां के पवित्र सम्मान का अन्ना जार्विस का यह अभियान शीघ्र ही ग्रीटिंग कार्डों, फूलों, टॉफी-चॉकलेट, उपहारों के व्यापार और सार्वजनिक समारोहों में बदलने लगा। 1964 में न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मदर्स डे पर उपहार, फूल, ग्रीटिंग कार्ड, आदि बांटने का सिलसिला इतना बढ़ गया था कि तब इसका बाजार सिर्फ क्रिसमस के बाजार से ही थोड़ा पीछे था।

मदर्स डेको निरी औपचारिकता तथा बाजार और मुनाफे के धंधे में बदलते देख अन्ना जार्विस को इससे नफरत होने लगी। उसने इसके व्यापारीकरण के खिलाफ पहले चिट्ठियां लिखीं, अपीलें कीं, पोस्टर बनाए, फिर मुकदमे किए और सड़कों पर प्रदर्शन तक किए। मई का दूसरा रविवार- मदर्स डेध्येय वाक्य का उसने कॉपीराइट लिया और व्यापारिक कम्पनियों पर इसके इस्तेमाल के लिए मुकदमे किए। अन्ना की मां को कारनेशन (क्या कहेंगे, गुलनार?) के सफेद फूल बहुत पसंद थे। अन्ना ने इसीलिए सफेद कारनेशन के फूलों को मदर्स डे का प्रतीक चिह्न बनाया था लेकिन बाजार ने हर रंग के कारनेशन और दूसरे फूलों को मदर्स डे से जोड़कर धंधा चमका लिया। दिवंगत माताओं के लिए सफेद और जीवित माताओं के लिए लाल-गुलाबी कारनेशन फूल!

हैरान-परेशान और क्रोध से फनफनाती अन्ना जार्विस ने विज्ञप्तियां जारी कीं- एक पवित्र, सात्विक, ईमानदार और सर्वोत्तम सम्मान दिवस को अपनी लिप्सा से अपवित्र कर देने वाले पाखण्डियों, चोरों, लुटेरों, उचक्कों और अपहर्ताओं के साथ आप क्या सलूक करेंगे?” उसने जनता से अपील की कि इस दिन फूल देना बंद कर दीजिए। अपनी मां को छपा हुआ ग्रीटिंग कार्ड देने का अर्थ है कि आप इतने आलसी हैं कि उस स्त्री के लिए दो शब्द लिख या बोल भी नहीं सकते जिसने आपके लिए इतना किया है, जितना दुनिया में और कोई कर नहीं सकता। और कैण्डी-चॉकलेट? आप उसके लिए डिब्बा ले जाते हो सारा खुद चट कर जाते हो! वाह, क्या भावना है!

पवित्र भावना वाले मदर्स डेको निरंतर बढ़ते मुनाफे वाले व्यापार में बदलने के लिए अन्ना जार्विस का विरोध-प्रदर्शन बढ़ता गया। उसने विरोध प्रदर्शन और बहिष्कार के आह्वान किए। एक मदर्स डे पर युद्ध-माताओं’ (जिनके बेटे शहीद हुए) के लिए धन एकत्र करने के लिए आयोजित समारोह में घुसकर उसने तत्कालीन राष्ट्रपति की पत्नी श्रीमती एलेनॉर रूजवेल्ट के सामने प्रदर्शन किया। एक और आयोजन में जब मदर्स डे पर फूल बेचकर युद्ध माताओंके नाम पर धन जमा किया जा रहा था, उसने जबर्दस्त हंगामा किया। तब उसे शांति भंग में गिरफ्तार कर लिया गया। अन्ना के विरोध प्रदर्शन को व्यापार के लिए नुकसानदेह मानते हुए उसे मनाने के वास्ते फूल-उद्योग ने उसे मुनाफे में हिस्सा बांट करने का भी प्रस्ताव दिया पर वह इस लालच में कहां आने वाली थी।

एक पवित्र भावना से मदर्स डे का आयोजन शुरू करने वाली अन्ना जार्विस ने अब इसके विरोध में अपना सब कुछ झोंक दिया था। वह लगभग अकेली थी और बाजार बहुत बड़ा हो गया था। उसकी सारी जमा पूंजी इसी में खर्च हो गई। बीमार, बूढ़ी, छदाम-विहीन और अकेली अन्ना को एक सेनीटोरियम में भर्ती किया गया। वहीं 1948 में उसकी मृत्यु हो गई। बीबीसी के अनुसार सेनीटोरियम में भर्ती किए जाने से ठीक पहले वह घर-घर घूमकर पर्चे बांट रही थी जिनमें अपील की गई थी कि ऐसा मदर्स डेमनाना बंद कर दें।

अन्ना जार्विस की कोई औलाद नहीं थी। उसकी भावनाओं को देखते हुए उसके भाई-बहनों के परिवारों ने उसकी मृत्यु के लम्बे समय तक मदर्स डेनहीं मनाया था।  

अन्ना जार्विस का नाम आज कोई नहीं जानता लेकिन मदर्स डेघर-घर मानाया जाता है। उसके बाजार के विशाल आकार का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। अमेरिका-यूरोप में ही नहीं, बेरोजगारी और भुखमरी से ग्रस्त अपने देश में भी।

'मदर्स डे' मना चुकने के बाद तनिक इस पर भी गौर कीजिएगा कि क्या बाजार ने हमारे सभी आत्मीय पर्वों, दिवसों, त्योहारों को भावना-विहीन औपचारिकता और बड़ी धन्धे में नहीं बदल दिया है और क्या हम आंख मूंदकर पूरे उत्साह से बाजार के बैण्ड के साथ डांस करके गदगद नहीं हो रहे? 

-नवीन जोशी, 09 मई, 2022                       

Friday, May 06, 2022

शहरों से सहजन भी नदारद हो रहा?

इस साल अभी तक सहजन चखने को नहीं मिला। उसके अत्यंत गुणकारी फूल ही नहीं, कोमल-स्वादिष्ट फलियां भी कबके खत्म हो चुकी होंगी। बढ़ता बहुत तेजी से है, इसलिए। अब मिलेंगी तो उसकी मोटी हो चुकी फलियां ही मिलेंगी। इसकी भी रसदार सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है और दाल में या सांभर में उसके पके टुकड़े बड़ा स्वाद देते हैं। पिछले साल यह मौसम कोरोना के हाहाकार में निकल रहा था। उससे पहले साल सहजन की सब्जी भी खाई थी और दाल में डालने को मोटी फलियां भी मिल गई थीं। इस बार कहने के बावजूद सब्जी वाला भी नहीं ला पाया है। मण्डी में तो आ रहा होगा।

इसी शहर में सहजन हम तब से खा रहे है जब उसके गुणों के खान की चर्चा नहीं हुआ करती थी। कैनाल कॉलोनी में, जहां हम रहते थे, घरों के बाहर सहजन के पेड़ खूब थे जो फरवरी-मार्च से फूलना शुरू करते तो फूल की सब्जी लगभग हर घर में बनती। फिर मुलायम फलियों का नम्बर आता और बाद में मोटी-सख्त फलियां खाई-चूसी जातीं। हर फसल पर पेड़ की डालें काटीं जाती थीं ताकि अगले साल और मीठी सहजन फले। डाल न काटो तो अगली फसल कड़वी होना तय था। एक तरफ के कटे हिस्से पर गोबर और मिटी का लेप लगाकर कटी डालें पास ही में मिट्टी में रोप दी जातीं। बरसात आते-आते उनमें कल्ले फूट आते। सहजन की बहार रहती।

गोमती नगर आने पर बाबूजी ने घर के बाहर सहजन की एक डाल रोपी। वह भी खूब फला। आस-पास घरों में बांटा जाता। कुछ परिवार अनुरोध करके उसके फूल ले जाते। फिर कॉलोनी में विकास आया। नगर निगम ने सड़क के किनारे-किनारे इण्टरलॉकिंग टाइल्सबिछा दिए। हमारा सहजन सूख गया। नई डालें रोपने की जगह भी न बची। फिर नवाब पुरवा मोहल्ले के मित्रों से मिलने लगा। वहां घरों-सड़कों के आगे सहजन के कई पेड़ थे। कुछ वर्ष बाद वहां भी विकास आया। साइकल पथने सहजन के पेड़ों की बलि ले ली। अब सब्जी मण्डी का सहारा रह गया। कभी-कभी फलियां कड़वी निकलतीं लेकिन मौसम में कुछ दिन खा ही लिया जाता था।

सन 2020 में कोरोना का हमला हुआ तो सरकारी बयानों-निर्देशों में अधिक से अधिक सहजन खाने की सलाह दी गई। उसके गुण गिनाए गए। बताया गया कि सहजन के पत्ते, टहनियां, फूल, फलियां सब अत्यंत गुणकारी होते हैं। सहजन खाइए-इम्युनिटी बढ़ाइए के नारे सरकारी विज्ञापनों में दिखाई देने लगे। प्रदेश सरकार की पिछले दो साल की घोषणाओं में गांव-गांव सहजन के पौधे लगाने के वादे और दावे छाए हुए हैं। 2020 के वृक्षारोपण पखवड़े में 25 करोड़ पौधे लगाने का जो ऐलान हुआ था, उसमें दो करोड़ पौधे सहजन के लगाए जाने थे। वन विभाग और पंचायती राज विभाग को मिलकर यह काम करना था। सन 2021 के लिए भी काफी बड़ा लक्ष्य था। यह भी कहा गया था कि गांव-गांव सहजन के पौधे लगाकर लोग कोरोना से बचाव के अलावा अतिरिक्त कमाई भी कर सकेंगे।

हमारे पास यह जांचने का फिलहाल कोई तरीका नहीं है कि दो करोड़ सहजन के पौधे लगे या नहीं। सरकार का दावा है, बल्कि गिनीज बुक में पौधारोपण का विश्व कीर्तिमान दर्ज हुआ है, तो पौधे लगे होंगे। उनमें दो करोड़ पौधे सहजन के भी होंगे ही। हम तो इतना जानते हैं कि सन 2022 में हमने अब तक सहजन नहीं खाया। कमी हमारी होगी। आप में बहुत से लोगों ने इस बार भी खाया होगा और अब भी खा रहे होंगे। इम्युनिटी बढ़ाने के लिए सहजन अवश्य खाना चाहिए। सहजन नहीं समझे? अरे, ‘मोरिंगा’!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 07 मई, 2022)            

Sunday, May 01, 2022

नैतिकता के पाठ और जमीनी सच्चाई

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने सभी मंत्रियों को निर्देश दिया है कि वे अपनी और अपने परिवार की सम्पतियों का ब्योरा प्रस्तुत करें। ऐसा निर्देश सरकार के आला अफसरों के लिए पहले से ही होता है। पता नहीं कितने अधिकारी यह विवरण प्रस्तुत करते रहे हैं। योगी जी ने अपने पिछले कार्यकाल में भी मंत्रियों को यह निर्देश दिया था। पता नहीं कि सभी मंत्रियों ने इस निर्देश का पालन किया या नहीं। यह जानकारी पारदर्शिता के लिए सार्वजनिक होनी आवश्यक है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में भी यह मददगार है। वैसे, जिन मंत्रियों ने चुनाव लड़ा था उन्होंने नामांकन दाखिल करते समय अपनी और परिवारजनों की चल-अचल सम्पत्ति का विवरण शपथ-पत्र के रूप में दिया ही होगा। दोनों चुनावों के बीच किसकी सम्पत्तियों में कितना अन्तर आया, यह शपथपत्रों के तुलनात्मक अध्ययन से देखा जा सकता है। चुनाव के समय मीडिया ने ऐसा अध्ययन किया भी था।

वैसे, चल-अचल सम्पत्ति और शपथ पत्रों का रिश्ता कम रोचक नहीं होता। रोचक क्या, पहेली समझिए। जो वास्तव में होता है, वह शपथ पत्र में नहीं होता। जो शपथ पत्र में होता है वह असत्य नहीं होता लेकिन पूर्ण सत्य भी उसे कैसे कहा जा सकता है! मेरा कुछ नहीं है लेकिन सब मेरा है। मेरे नाम से नहीं है लेकिन मेरा है। नाम में क्या रखा है! नाम से अच्छा बेनाम है। बेनाम इस देश में अद्भुत तकनीक है और गजब की हैसियत रखता है। बेनाम का कोई हिसाब नहीं। वह शपथ पत्र क्या, हर पकड़-धकड़ से परे है। इस किस्से को क्या खींचें। पहेली आप बूझते ही हैं। खैर, बात मंशा की है जो अच्छी है।   

मुख्यमंत्री ने एक और स्वागत योग्य निर्देश जारी किया है। सोने-चांदी के मुकुट मंत्रियों को स्वागत या  सम्मान स्वरूप स्वीकार नहीं करने चाहिए। मुख्यमंत्री स्वयं किताबों और पुष्प-गुच्छों के अलावा कोई  उपहार नहीं लेते। मुकुट-सुकुट तो राजशाही-सामंतशाही के प्रतीक हैं। हमारा तो लोकतंत्र है। इसमें मुकुट-सुकुट पहनना शोभा नहीं देता। ऐसे सभी प्रतीकों से मंत्रियों को दूर रहना चाहिए जो बीते बदनाम युग के प्रतीक हैं। तलवार, गदा, त्रिशूल, वगैरह दिखवा लीजिए कि किस श्रेणी में आते हैं। बुलडोजर का प्रतीक नया है। वह चलेगा। हां, उसकी कीमत पांच हजार रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए।

कीमत के बारे में कॉर्पोरेट जगत की मार्केटिंग रणनीति बड़ी रोचक है। पांच हजार रु कहने-सुनने में अधिक लगता है। इसलिए मूल्य रखा जाता है- 4999 रु। इससे उपभोक्ता को लगता है कि चार हजार ही का तो है! इसीलिए आप पाएंगे कि दो सौ रु की वस्तु पर चिप्पी लगी होती है 199 रु की। दो सौ अधिक लगता है। 199 उससे काफी कम होता है! इसलिए उपहार देने वाले उसकी कीमत पांच हजार रु की बजाय 4999 रु बता सक्ते हैं। वैसे, भारतीय परम्परा में उपहार का मूल्य बताना अपमानजनक माना जाता है। उपहार अमूल्य होता है, एक सौ रु का हो या पांच लाख का। यह उपहार पाने वाले की श्रद्धा पर है कि वह उसे अमूल्य मानकर सरकारी कोषागार में जमा करवाए या 4999 रु का मानकर घर ले जाए!

ज्ञानी जन बता गए हैं कि नैतिकता, पारदर्शिता, ईमानदारी, आदि निर्देशों से माने जाने वाले गुण नहीं होते। वे मनुष्य की अपनी भीतरी शक्ति से उत्पन्न होते हैं। बच्चों को प्राथमिक कक्षाओं से ही नैतिक शिक्षा के पाठ पढ़ाए जाते हैं। न कोई ईश्वरचंद विद्यासागर बनता है न लालबहादुर शास्त्री। देश का नाम भ्रष्ट देशों की सूची में ऊपर ही ऊपर चढ़ता जाता है। तो भी पाठ्य पुस्तकें छपना बंद थोड़ी न करते हैं। शंका मंशा पर नहीं की जाती। बीज ही खराब हो तो फसल कहां से अच्छी पैदा हो!

(सिटी तमाशा, 30 अप्रैल, 2022)