Friday, April 22, 2022

अथ बुलडोजर महात्म्य

बदनाम बुलडोअर को चाहे जितना कोसिए, गाली देने के लिए उसके खोजकर्ता का नाम गूगल बाबा भी नहीं बता पाएंगे। आ बैल मुझे मारकहना चाहें तो दूसरे बाबा मिल जाएंगे। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में यूरोप में ऐसी मशीनें बननी शुरू हुईं जो बीहड़ इलाकों में न केवल चल सकें बल्कि चट्टानों, टीलों को खोद सकें, अधिकाधिक मलबा ढोकर भूमि को समतल कर सकें। दूसरे विश्वयुद्ध तक आते-आते ये डोजरमशीनें, जिन्हें आज बुलडोजर कहा जाता है, इतनी चल निकली थीं कि न केवल सड़कें बनाने, रेल पटरियां बिछाने और नींव खोदने के काम आने लगी थीं, बल्कि युद्ध क्षेत्र में आगे-आगे रास्ता बनाने, बंकर ध्वस्त करने, आदि के खूब काम आईं। मित्र देशों ने हिटलर की फौजों के  विरुद्ध इनका खूब इस्तेमाल किया था।

बुलडोजर ने निर्माणों के इतिहास में जितने अच्छे काम किए होंगे, उनकी सारी ख्याति आज डूब चुकी है। यह मशीन जनता के सीनों में धड़धड़ाने लगी है। जितने खतरनाक कानून इस देश में है, वे इसकी कार्रवाइयों के आगे फीके पड़ गए हैं। सीबीआई, एनएसए, आदि एजेंसियां उसके आगे कुछ नहीं हैं। किसी के घर या दुकान के आगे गलती से भी बुलडोजर खड़ा कर दीजिए तो वह सपरिवार भूलुण्ठित हो जाएगा और पाताल से भी पल भर में हाथ बांधे अवतरित हो जाएगा।

बुलडोजर हमारे समय का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया है। वह नेताओं को बाबा’, ‘मामाजैसी पदवियों से विभूषित कर रहा है। उसके स्मृति चिह्न नेताओं को भेंट किए जा रहे हैं। ब्रितानी प्रधानमंत्री उसके साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट उसका संज्ञान ले रहा है। वह चुनाव जिताऊ नारा बन गया है। वह अभियुक्तोंको पल भर में अपराधीसाबित कर दे रहा है। वह गरीब से गरीब को भी मलबे का मालिकबना दे रहा है। उस पर कविताएं लिखी जाने लगी हैं। कहानियां सामने आने में कुछ वक्त लगेगा। वह आज सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला शब्द है। उसका अब एक ही अर्थ है जो उसके अनाम आविष्कारक और ढेर सारे निर्माताओं ने भी कभी नहीं सोचा होगा।

जिस तरह एक खोंचे वाला भी आयकर विभाग के नोटिस पर अपनी आय का साफ-साफ हिसाब नहीं दे सकता, उसी तरह हमारे यहां कोई भी निर्माण शत-प्रतिशत वैध घोषित नहीं किया जा सकता। यदि गलती से कोई निर्माण पूरी तरह वैध निकल भी आए तो जैसा श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारीमें लिखा है- उस ट्रक को एक ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता है कि वह नियमानुसार सड़क के बाईं तरफ खड़ा है और पुलिस वाला दाईं तरफ से देखकर उसका चालान कर सकता है कि ट्रक सड़क के बीचोंबीच खड़ा है।

बुलडोजर की महिमा अपरम्पार है। वह सही को गलत और गलत को सही ठहरा सकता है। बुलडोजर जिस सफाई और कुशलता से कानून को भी ढहा सकता है, उसकी मिसाल हम आजकल खूब देख रहे हैं। नए जमाने की मॉम बच्चे को दूध की बोतल पकड़ाते हुए कहने लगीं हैं- चुपचाप पी ले, नहीं तो बुलडोजर आ जाएगा। बच्चे फौरन जवाब देते हैं- कुरकुरे दिला दो वर्ना बुलडोजर आ जाएगा! इस संवाद से मॉम सहम जाती हैं और डैड को कोविड जांच कराने की जरूरत पड़ जाती है।

विरोधियों के सपनों में दिन में भी बुलडोजर आता है। घर या दुकान के बाहर मोटरसाइकिल की आवाज भी बुलडोजर जैसी लगती है। रक्तचाप बढ़ने से लेकर पेट के शूल तक का कारण डॉक्टर बुलडोजर को मान रहे हैं। हर वक्त मुनाफे की सोचने वाले बुलडोजर में निवेश कर रहे हैं। बेरोजगारों में बुलडोजर चलाना सीखने की होड़ मची है। इति नहीं, बुलडोजर कथा अनंता!    

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 23 अप्रैल, 2022)  

             

Tuesday, April 19, 2022

राजीव मित्तल- मस्ती, मुहब्बत, आवारगी और पढ़ाई-लिखाई

1980-82 के दौरान उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा की संगत में राजीव मित्तल की खिलंदड़ हाजिर जवाबी से कुछेक बार परिचय हुआ था। 'स्वतंत्र भारत' के दिनों भी मुलाकातें होती थीं लेकिन उससे मुहब्बत हुई 1983 में नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में जहां राजेंद्र माथुर ने स्फटिक-सी भाषा लिख सकने और खबरों की सुदूर गंध से भी उत्साह व सनसनी से भर जाने वालेयुवा पत्रकारों की टीम खड़ी की थी। चंद साथी नभाटाकी मुम्बई और दिल्ली की टीम से भी भेजे गए थे। राजीव मित्तल दिल्ली से भेजा गया था। उसके निष्कपट हृदय, खुलेपन, खिलदंड़ मिजाज, बात-बात पर गीत गाने और दिलफेंक टिप्पणियों ने उसे शीघ्र ही सबका चहेता बना दिया था। वह खुले आम कहता था कि उसे माथुर जी की आनाकानी के बावजूद रमेश जैन (तब बैनेट कोलमैन के कार्यकारी निदेशक) की सिफारिश पर लखनऊ भेजा गया है। खबरों के चुस्त सम्पादन, चुटीले शीर्षक लगाने, हलकी-फुलकी टिप्पणियां और फिल्मों की रोचक समीक्षा लिखने की उसकी विशिष्ट प्रतिभा ने साबित कर दिया था कि माथुर जी की चुनी हुई प्रतिभाओं से वह इक्कीस ही ठहरता है।

वह स्वभाव से मस्तमौला और तनिक विद्रोही भी था। उसके मसखरेपन में साहित्य, इतिहास, संगीत और राजनीति की समझ झलकती थी। दोपहर की पाली में फटाफट काम निपटा देने के बाद जब वह सम्पादकीय मेज पर ताल देकर मुहम्मद रफी के चुनिंदा गीत गाने लगता तो सांध्य टाइम्सके सम्पादक घनश्याम पंकज अपने केबिन से फोन करते कि नवीन जी, राजीव से कहिए थोड़ा नीचे सुर में गाए। प्यास लगे में पानी के जग को रीता पाकर वह यह लिखकर उसे सुतली से पंखे पर लटका देता था कि मैं प्यास का मारा आत्महत्या करने को मजबूर हूं। प्रबंधन के कुछ अन्यायों के खिलाफ उसने नभाटा में गो स्लोआंदोलन की अगुवाई की और अखबार का प्रकाशन संकट में देख प्रधान सम्पादक राजेंद्र माथुर को पटना का दौरा छोड़कर लखनऊ आना पड़ा था। बाद में राजीव ने मुझसे कहा था कि उस दिन माथुर जी का चेहरा देखकर मुझे उन पर तरस और अपने निर्णय पर अफसोस हुआ था। खैर, वह पत्रकारिता का अलग ही दौर था जिसकी आज कल्पना नहीं की जा सकती।

उसके स्वभाव में मस्ती, मुहब्बत और आवारगी थी जो उसकी थोड़ी नशीली आंखों एवं चपल भंगिमाओं से टपका करती थी। क्लर्की की कैद में फंसे न रहने के लिए ही वह सरकारी नौकरी की सुरक्षाछोड़कर पत्रकारिता में आया था। तीन साल बाद वह नभाटा, लखनऊ छोड़कर जनसत्ता, चण्डीगढ़ चला गया। राजेंद्र माथुर ही की तरह वह प्रभाष जोशी का भी प्रशंसक था। बीआईटीवी, सहारा टीवी, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नई दुनिया समेत कुछ और भी अखबारों-चैनलों में उसने काम किया। बतौर सम्पादक भी। ज़्यादातर संस्थानों में उसने खूब रचनात्मक मनमानियां कीं और जब मर्जी आई या खटका लगा, चलता बना। पत्रकारिता के बदलते दौर में अपनी अलग ही कार्यशैली के लिए वह प्रबंधकों की नापसंद भी बना और किनारे किया गया। जहां भी काम किया उसने, अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी और दोस्तियां बनाईं, महफिलें जमाईं और मुहब्बतें कीं। अधिक समय तक वह कहीं नहीं टिका, विदा होते समय साथियों को उदास करता गया और हर नई जगह पुरानी नौकरी और दोस्तियों को बराबर याद करता रहा। लखनऊ, कानपुर, बीआईटीवी-दिल्ली और मुजफ्फरपुर में बिताए समय को वह खास तौर पर याद करता था। उसके विविध लेखन में इस दौर के कई प्रसंग उसके निराले अंदाज़ में मिलते हैं।

नभाटा, लखनऊ से अलग होने के बाद हम स्वतंत्र भारत, कानपुर में साथ रहे। उसके बाद हिंदुस्तान के पटना, मुजफ्फरपुर, मेरठ और कानपुर संस्करणों में। फोन पर हमारा सम्पर्क नियमित ही बना रहा। संयोग है कि जब भी मुझे अखबारों में कोई नई जिम्मेदारी मिली, राजीव मित्तल पिछली नौकरी से हाथ धोकर काम की तलाश में गुनगुनाता हुआ टकराता- प्यारे, नौकरी चाहिए।’ 1992 में मैं उसे कानपुर ले गया, स्वतंत्र भारतकी सम्पादकीय टीम में। उस दौर में राजीव ने खूब काम किया, धंधेबाज पत्रकारों की खबरें काट-छांट कर फेंकी, कानपुर की सड़कों में आवारगी की, मेस्टन रोड के एक लॉज में दोस्तों संग गाने गाते हुए रात काटी या लखनऊ-कानपुर के बीच दौड़ती ट्रेनों में ऊंघा किया। कुछ वर्ष बाद जब मैं हिंदुस्तानका स्थानीय सम्पादक बनकर पटना पहुंचा तो फिर उसका फोन आया- प्यारे, सड़क पर हूं और पूर्णिमा मेरी नौकरी के लिए पूजा-पाठ तक कर रही है। हमें मुजफ्फरपुर में समाचार सम्पादक की जरूरत थी। मृणाल जी ने उसे चुन लिया तो मुजफ्फरपुर में स्थानीय सम्पादक सुकांत समेत पूरी टीम को उसने अपना मुरीद कर लिया। वह रात में ड्यूटी करने के बाद तड़के तक घूमता और खूब लिखता। उस शहर में उसके बड़े प्यारे-प्यारे रिश्ते बने जो उसके साथ बने रहे। इनमें कुछ कुकुर और बिल्लियां भी थीं लेकिन सबसे ज़्यादा प्यार उसने शहर मुजफ्फरपुर से किया। मुजफ्फरपुर पर उसने इतना खूबसूरत वृतांत लिखा कि ज्ञानरंजन जी उसके प्रशंसक हो गए और फिर उससे पहलमें लिखवाया। और, कुछ साल बाद वह ज्ञानरंजन के शहर जबलपुर ही पहुंच गया, ‘नई दुनिया का सम्पादक बनकर।

मुजफ्फरपुर से अक्सर वह शनिवार की रात बस में बैठकर पटना मेरे डेरे में चला आता। उसके झोले में मिठाई का आधा खाली डिब्बा (आधा वह रास्ते में खा चुका होता), कुछ बीड़े पान, एक दो-किताबें और अखबार होते। हम पूरा दिन और रात साथ रहते। थोड़ी-सी रम, बेशुमार गप्पें- किताबों, पत्रकारों और शहरों की, और गाने जो वह हर उस जगह गाने लगता जहां खुश होता। रम उसे पसंद थी लेकिन वह रिश्वतकी नहीं होनी चाहिए थी। एक बार कोई उसे मुजफ्फरपुर में रम की एक बोतल दे गया जिसे पीना उसे नैतिक नहीं लगा। सो, रोज नहाने के पानी में दो पैग डालकर निपटा दिया। रम से कहीं ज्यादा उसे मिठाई, पान, पढ़ना और गाना पसंद था। अच्छा गाता था। उसके मीठे-सुरीले गले ने भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) में उसका प्रवेश करवा दिया था लेकिन आवारगी ने कहां टिकने दिया! गाना सुनकर लड़कियां उसकी दीवानी हो जाती थीं। पूर्णिमा से उसकी शादी मुहफ्फद रफी और तलत महमूद के गीतों ने ही कराई थी। दिलफेंक वह बचपन से था। अपनी मां की सहेलियों और अपनी अध्यापिकाओं से भी इश्क कर बैठने के कई किस्से उसके पास थे। बहुतेरी लड़कियों से, विशेष रूप से अपनी सहकर्मियों से उसकी अनोखी दोस्ती रही। ये दोस्तियां बिंदास, निर्विकार और लिंग-भेद से परे थीं। वह उन्हें खुलेआम खड़ूस’, ‘चुड़ैलऔर बदसूरतसम्बोधन देता। लड़कियां उसके साथ अपनी सहेलियों से भी अधिक सहजता से मिलतीं, जिनके लिए वह अक्सर सहेलाऔर खड़ूसहोता। उम्र इसमें कोई बाधा नहीं होती थी। स्त्री-पुरुष के ऐसे निर्मल रिश्ते दुर्लभ ही हैं। स्त्रियों के प्रति उसकी समादर दृष्टि के पीछे सम्भवत: मां के जीवन का प्रभाव था। माता-पिता के रिश्तों की कोई गांठ उसके भीतर टीसती थी। पिता के प्रति आदर भाव में कमी न थी लेकिन मां को वह बड़ी करुणा के साथ याद करता, जो अपने जीते जी बहुत खटती रही थीं।  

एक बार फेसबुक में उसकी दोस्ती अनुपम वर्मा नाम की युवती से हुई। कुछ चटर-पटर के बाद तस्लीमा नसरीन के विद्रोह और मंटो की कहानियों से शुरू हुई बहस ऐसे बिंदास एवं आत्मीय आभासी रिश्ते में बदली कि दोनों ने रात-बेरात भी अपने सुख-दुख बांटे। दुख की घड़ियों में वह एक हो रहे और वह सब लिखकर कह डाला जो अक्सर अनकहा रह जाता है। रूहानी होते गए इस रिश्ते में अनुपम के पति और बच्चे तथा राजीव की पत्नी और बेटों की भी बराबर उपस्थिति बनी रही। फेसबुक में यह संवाद इतना रोचक, गम्भीर, आत्मीय और साहित्य से लेकर निजी सबंधों की भीतरी परतों तक पहुंचा कि पत्रकार मित्र अश्विनी भटनागर ने उस बातचीत को एक किताब की शक्ल दे दी। हमनवा- आभासी दुनिया का ठोस वाकयानाम से प्रकाशित यह पुस्तक (प्रकाशक- राइट कनेक्ट इण्डिया डॉट कॉम) राज (राजीव) और अनु (अनुपम) की मर्द-औरत का भेद भुलानेवाली, बराबर की दोस्ती का शानदार उदाहरण है, अनु के शब्दों में द्रौपदी की तरह कृष्ण को पाना।

राजीव बचपन से ही खूब पढ़ाकू था। हापुड़ में बिताए कैशौर्य के दिनों को वह अक्सर याद करता था जहां चाचा प्रभात मित्तल के संग्रह की किताबें चाट चुकने के बाद लेखक-प्रकाशक अशोक अग्रवाल (सम्भावना प्रकाशन) का कारू का खजानाउसके हाथ लगा। अशोक जी से बने मधुर रिश्ते इस जुनूनी लफाड़ियाको कई लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों तक ले गए। उसका निश्छल स्वभाव और सुरुचिपूर्ण लेकिन उन्मुक्त व्यवहार हर किसी को जल्दी ही अपना बना लेता था। इन्हीं रिश्तों से वह पहले सरकारी नौकरी में आया और फिर स्वतंत्र उड़ने की चाह पत्रकारिता में ले गई। पढ़ते-पढ़ते ही लिखना होने लगा तो फिर वह लिखता गया। याददाश्त अच्छी थी। सो, पढ़े गए संदर्भों से लेखन समृद्ध होता रहा। मुजफ्फरपुर हिंदुस्तान में रहते हुए उसने खूब लिखा, अखबार के लिए भी और पहल,’ ‘तद्भवजैसी पत्रिकाओं के लिए भी। बैहर में साइकिलऔर कबीरा- जो बचेगा कैसे रचेगा’ (दोनों सम्भावना प्रकाशन से प्रकाशित) संकलनों में उसकी स्मृतियां, अखबारी टिप्पणियां और विविध लेख शामिल हैं जो उसके अध्ययन की गहराई, लेखन का कौशल, संवेदनशीलता और विश्लेषण की क्षमता से परिचय कराते हैं। हाल के वर्षों में उसका अधिकतर लेखन फेसबुकपर होने लगा था जिसके ढेर सारे प्रशंसक पाठक थे और उससे खूब चुहल करते थे। आभासी मित्रों की वास्तविक बैठकों में भी वह सोत्साह भाग लेता था।

प्रस्तुत पुस्तक में आज की पत्रकारिता और पत्रकारों पर उसकी बेलाग एवं निर्मम टिप्पणियां हैं। उसने कई सम्पादकों के साथ विभिन्न अखबारों और समाचार चैनलों में काम किया, जिसके खट्टे-मीठे अनुभवों पर वह नि:संकोच चुटीली टिप्पणियां करता रहता था। जो भी लिखता, मुझे जरूर भेजता। मेरी प्रतिक्रिया न मिले तो बिगड़ता कि यार, पढ़ तो लो। मैं उससे कहता था कि वह पत्रकारिता के अपने अनुभवों पर विस्तार से लिखे। और भी साथी आग्रह करते लेकिन वह इस मामले में संजीदा नहीं था और छिट-पुट टिप्पणियां ही लिखता रहा, हालांकि वे कम मानीखेज नहीं हैं। राजेंद्र, माथुर, प्रभाष जोशी और मृणाल पाण्डे का वह प्रशंसक था हालांकि उनकी आलोचना करने से भी चूकता नहीं था। इन सम्पादकों के कार्यकाल में अखबारों में उसकी प्रतिभा का बढ़िया उपयोग भी हो सका। “सम्पादक-सम्पादक” शीर्षक टिप्पणी का प्रारम्भ वह इस तरह करता है- “कई बार इच्छा होती है अपने सम्पादकों पर लिखने की, खासकर तब जब आपके सम्पादक राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और मृणाल पाण्डे हों, तब तो लिखना बनता है न! और, दो सम्पादक वो जो यार न भी रहे हों तो बेयार भी नहीं थे। बाकी सात-आठ सम्पादक ऐसे रहे जो अपन पर सम्पादकी करने को तरसते रहे। कभी उन पर मेहरबान रहा तो कभी आईना पकड़ा देता कि अपनी सूरत तो देख लो भाई!”

इसी दौर में पत्रकारिता बहुत तेजी से मूल्यच्युत होती जा रही थी जिसका वह भी भुक्त भोगी था और यथासम्भव लड़ता रहा। वह मेरठ में हिंदुस्तान का स्थानीय सम्पादक था जब दैनिक जागरणसे लाए गए कुछ प्रबंधकों ने अपने पूर्व संस्थान की तरह चुनाव के समय पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने के काम में लगाने की कोशिश की। कुछ संवाददातों को विज्ञापन जुटाने की ऐवज में नकद कमीशन बांटा गया तो पता चलने पर राजीव ने इसके विरोध में हल्ला मचाया। उत्तर प्रदेश के संस्करणों के प्रभारी के नाते मुझे उसने मुझे फोन किया। मैं लखनऊ से मेरठ पहुंचा और प्रधान सम्पादक मृणाल जी की सलाह से पत्रकारों से कमीशन वापस करवाया। उस समय तो यह सिलसिला रुक गया लेकिन उसके बाद राजीव प्रबंधन की आंखों में अयोग्यबन गया। जबलपुर की नई दुनियामें एक मंत्री के रिश्तेदार के घर करोड़ों रु बरामद होने वाली खबर पर वह अपने प्रधान सम्पादक से टकरा गया था। जनसत्तामें काम करते हुए उसने पाया था कि “पंजाब के आतंकवाद के दिनों में इण्डियन एक्सप्रेस तक की कलई खुल गई कि किस तरह वह उस समय के हालात की खबरों के लिए सरकारी एजेंसियों पर निर्भर रहा। पंजाब केसरी या ट्रिब्यून की तो बात ही मत कीजिए। सारे अखबार मिलिटेंसी की घटनाओं में मरने वालों की भीड़ होड़ लगाकर छाप रहे थे.... बोफोर्स को लेकर ईरान-तूरान तक घोड़े दौड़ा रहे अरुण शौरी या प्रभाष जोशी ने पंजाब के आतंकवाद की सच्चाई जानने की क्या योजना बनाई, क्या नेटवर्क तैयार किया?” 

राजीव को दमे की बीमारी थी और जब दौरे पड़ते तो उसकी हालत बहुत खराब हो जाती। स्टीरॉयड वाला इनहेलर उसकी जेब में रखा रहता। इसके बावजूद रात-रात भर आवारागर्दी करने, यात्राओं में जाने और अखबार के लिए दुस्साहस की सीमा तक खबरों के पीछे पड़ने का अवसर वह नहीं छोड़ता था। पांच-छह दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर धावा बोला जा रहा था, सम्पादक को बताए बिना वह आधी रात को अखबार की जीप पर बैठकर अयोध्या पहुंच गया। वहां का हाल लेकर दूसरी रात जीप में झटके खाते हुए कानपुर लौटा। उसका लिखा आखों देखा हाल सम्पादक ने गुस्से में नहीं छापा लेकिन उसे सुकून था कि उसने अपना धर्म निभाया। इसी तरह चण्डीगढ़ में एक रात उसने जनसत्ता का पहला पेज प्रबंधक के दबाव के बावजूद सुबह चार बजे तक नहीं जारी किया क्योंकि रात में हुए एक आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों की खबर लेने उसने संवाददाता को दौड़ा रखा था। अखबार बहुत देर से छपा लेकिन खूब बिका और उसकी तारीफ की गई। स्वास्थ्य की चिंता न कर उसने अमृतलाल वेगड़ जी के साथ दो बार नर्मदा की पूरी परिक्रमा की। वेगड़ जी ने उसकी दिलेरी को इस तरह याद किया है- “हम जिस गांव में घुसते, कुत्तों का झुण्ड हम यात्रियों के पीछे पड़ जाता। उन्हें सम्भालने का काम राजीव करते। किसी को डांट रहे होते, किसी को धमका रहे होते तो किसी को पुचकार रहे होते। एक जगह तो एक बेहद खूंखार कुत्ते ने जैसे ही भौंकने को मुंह खोला, राजीव ने चुप बेकहा तो वो बेचारा खुला हुआ मुंह बंद कर किकियाने लगा। फिर हम देखते हैं कि राजीव उसके साथ बैठे बिस्कुट खा रहे हैं।”

ऐसी बेपनाह मुहब्बत के उसके किस्से मेरठ और मुजफ्फरपुर के भी हैं। मेरठ में अखबार के प्रबंधक ने और मुजफ्फरपुर में एक किराएदार ने राजीव के पीछे उसके दुलारे कुत्तों का क्या हाल किया, ये मार्मिक प्रसंग इस पुस्तक में दर्ज़ हैं। मेरठ में बिल्ली का एक परिवार भी उसके साथ पलता रहा था। खुद उसके दिल्ली और लखनऊ वाले घर में छुटकीपली थी जिससे वह मुजफ्फरपुर दफ्तर और पटना के मेरे डेरे से भी फोन पर बात करता। छुटकी की कूं-कूं सुनकर उसके चेहरे का रंग खिल जाया करता था।

बाहर से बहुत लापरवाह-सा दिखने वाला राजीव परिवार को लेकर भीतर-भीतर चिंतित रहता था। विशेष रूप से अपने बेटों के लिए अच्छे अवसर नहीं जुटा पाने का उसे मलाल था। बेटे शिवम की मौत ने उसे तोड़ कर रख दिया था। वह अपने को दोषी मानता रहा था। मां को लगे आघात की तो कल्पना करना कठिन है लेकिन पूर्णिमा ने ही राजीव को सम्भाला। अब भी वही सम्भाल रही है पूरे परिवार को।

इस किताब को और दुरस्त होना था। जब उसने बताया कि अलग-अलग लिखी गई टिप्पणियों को इकट्ठा कर उसने पाण्डुलिपि सम्भावनाको दे दी है तो मैंने कहा था कि एक बार इसे नए सिरे से देखे, सम्पादित करे और जो रह गया है, उसे जोड़े। इसका अवसर ही नहीं आया। हमारी अक्सर फोन पर बात होती थी। मुलाकात हुए काफी अरसा हो जाता तो वह घर आ जाने की धमकीदेता और ऑटो में बैठकर चला आता। कोरोना के पहले दौर का असर धीमा पड़ा तो घरबंदी से बेहद ऊबा होने का हवाला देकर उसने धमकायाकि आ रहा हूं।मैंने उसे रोका था कि ऑटो में आना संक्रमण के खतरे को देखते हुए उसके लिए कतई उचित न होगा। उस दिन वह मान गया और नहीं आया। महामारी का दूसरा दौर बहुत ही बुरा गुजरा। अप्रैल 2021 में हमारा भी घर भर कोरोना से संक्रमित पड़ा था। उखड़ती सांसों को सम्भाले मैं सड़कों पर दौड़ती एम्बुलेंस का सायरन सुन-सुनकर खौफ खाता। ऐसे में एक शाम पूर्णिमा का फोन आया कि “राजीव की हालत बहुत खराब है। डॉक्टरों ने फिफ्टी-फिफ्टी चांस बताया है। किसी अस्पताल में भर्ती करवा दीजिए, भैया! राजीव कहते हैं, जब भी कोई दिक्कत हो तो नवीन को फोन करना। मैंने सोचा उसे भी कोविड हुआ होगा। इधर-उधर फोन खटखटाए। उस दौरान कोई किसी की मदद करने की स्थिति में नहीं था। तो भी कुछ सूत्र हाथ लगे लेकिन देर रात तक भी पूर्णिमा का फोन नहीं उठा। बाद में पता चला कि राजीव को कोविड नहीं हुआ था, बल्कि दमे का बहुत बुरा दौरा पड़ा था और वह किसी नर्सिंग होम में भर्ती था। पूर्णिमा उसके लिए जाने कहां-कहां दौड़ रही होगी। फोन भी जाने कहां होगा। अगली सुबह पूर्णिमा की मिस्ड कॉल देखी। आधी रात के बाद कभी मिलाया होगा। दमे के दौरे उसे कई बार अस्पताल पहुंचा चुके थे। हर बार वह मुस्कराता हुआ लौट आता था। इस बार वह अविश्वसनीय खबर आई। राजीव के अंतिम दर्शन करने की स्थिति में भी मैं नहीं था।

-नवीन जोशी

(राजीव की बरसी पर सम्भावना प्रकाशन से प्रकाशित उसकी पुस्तक 'पत्रकारिता के टप्पे, दादरा और ठुमरी' में शामिल सम्पादकीय टिप्पणी। इस किताब को मंगाने के लिए अभिषेक अग्रवाल से फोन नं 7017437410) से सम्पर्क किया जा सकता है।)                   


 

       

Friday, April 15, 2022

सरकारी स्कूलों का ग्वाला न गुसांई

इस समाचार पर खूब हो-हल्ला मचना चाहिए था कि राजधानी लखनऊ के 66 सरकारी स्कूलों में एक पखवाड़े से अधिक समय तक बिजली नहीं थी। मार्च के अंतिम सप्ताह में ही चालीस डिग्री से ऊपर चढ़ गए तापमान में बच्चे (और टीचर भी) बिना बिजली-पंखे बैठे रहे। कारण यह था कि इन स्कूलों पर कई साल से करोड़ों रु का बिजली बिल बकाया था। इसलिए बिजली विभाग ने उनका कनेक्शन काट दिया। काफी लिखा पढ़ी के बाद और बकाए का एक बड़ा हिस्सा चुका दिए जाने के बाद कई स्कूलों की बिजली जोड़ दी गई है। कुछ का कनेक्शन अभी जुड़ना बाकी है।

जब नई सरकार का आगाज गाजे-बाजे और बड़ी-बड़ी घोषणाओं के साथ हो रहा है, तब एक पखवाड़े तक स्कूलों का बिना बिजली रहना, बड़ी खबर नहीं बनता। यह भी पता चलता है कि सरकारी विभाग कैसे काम करते हैं। बिजली विभाग ने शिक्षा विभाग को बकाए के कई नोटिस भेजे होंगे, चेतावनी दी होगी। फाइलें इस मेज से उस मेज तक चली होंगी। अब कहा जा रहा है कि लैक ऑफ कम्युनिकेशनहो गया था। यानी सरकार का एक हाथ दूसरे हाथ से संवाद नहीं कर पाया।

ऐसा सरकारी विभागों के बीच अक्सर होता रहता है लेकिन हालात सुधरते नहीं। सरकारी स्कूल वैसे भी हमारे यहां ग्वाला न गुसांईवाली हालत में रहते हैं- लावारिस जैसे। उनकी दुर्दशा की मौसमी खबरें मीडिया में आती रहती हैं। कनेक्शन कटा न हो तो भी बिजली आती नहीं, कई की इमारत खण्डहर हो रही हैं, बारिश में छतें चूती हैं और कमरों तक लबालब पानी भरा रहता है, वगैरह-वगैरह।

आंकड़ों के अनुसार गांवों तक बिजली पहुंचाने के केंद्र सरकार के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के चलते 2021 तक 96 फीसदी गांवों में बिजली आ गई थी। तब भी देश के 37 फीसदी स्कूलों में बिजली नहीं पहुंच पाई थी। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट, इण्डिया की यह रिपोर्ट पिछले ही साल सरकार को सौंपी गई थी। सितम्बर 2020 की एक रिपोर्ट थी कि उत्तर प्रदेश के करीब 28 हजार स्कूलों में बिजली नहीं थी। इसका मुख्य कारण यह था कि स्कूल की इमारत से बिजली के खम्भे बहुत दूर थे। तब यह उपाय निकाला गया था कि 2019 के लोक सभा चुनाव में निर्वाचन आयोग ने स्कूलों को मतदान केंद्रों के वास्ते जो धन दिया था, उसमें से बची रकम से स्कूलों तक बिजली के खम्भे लगाए जाएं। पता नहीं इस दिशा में कितना काम हुआ होगा।

सरकारी स्कूलों का कोई एक रोना नहीं है। इमारत-बिजली-पानी का मामला हो या पढ़ाई-लिखाई का, प्राथमिक शिक्षा सबसे अधिक उपेक्षित है। हर सरकार सरकारी स्कूलों का कायाकल्प करने की घोषणा करती है। अदालतें सरकार को झाड़ लगाती हैं कि उन्हें ठीक कीजिए। एक बार तो यह अदालती आदेश आया था कि मंत्रियों-अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। कभी विधायकों से इन स्कूलों को गोद लेने का अनुरोध किया जाता है। फिर भी हालात सुधरते दिखाई नहीं देते। जिन 66 स्कूलों की बिजली काटी गई थी वे सभी राजधानी लखनऊ के हैं। बाकी जिलों और दूर-दराज के स्कूलों का क्या हाल होता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।         

पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी से मध्य-निम्न मध्य वर्गे के परिवारों की आर्थिक हालत खस्ता हुई तो सरकारी स्कूलों में बच्चों का प्रवेश एकाएक बढ़ गया था। निजी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या घट गई थी। बच्चों की कमी से जूझ रहे सरकारी विद्यालयों के लिए यह अच्छा अवसर था लेकिन जब इच्छा शक्ति न हो और जोर प्रचार पर अधिक हो तो क्या नतीजा निकलेगा?   

(सिटी तमाशा, नभाटा,16 अप्रैल, 2022)

Thursday, April 14, 2022

कितना कुछ देखती हैं ‘नदी की आंखें’!

यहां कई तरह की नदियां हैं। एक नदी लेखक के गांव में बहती है। एक नदी दूर वहां सीमेण्ट-कंक्रीट-मानवों के जंगल दिल्ली में गंधाती है। एक नदी उच्च हिमालय में गल के रूप में सरकती-थमती है। एक नदी स्मृतियों में महकती है। एक नदी जीवन को तरल रखती है। एक नदी कथाओं को प्रवहमान बनाती है। बहुत सारी नदियां हैं या एक ही नदी है जिसके अनन्त रूप हैं। उस नदी की आंखें हैं। वे आंखें कितना कुछ देखती हैं!

नदी की आंखेंसुभाष तराण की किताब है जिसे सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।  पुस्तक को सच्चे अनुभवों की दास्तांगोई कहा गया है। ये रूढ़ अर्थों में कहानियां नहीं हैं, हालांकि कहानियों का आस्वाद भी कराती हैं। सुभाष तराण खिलाड़ी हैं, यात्री हैं, पर्वतारोही हैं और उनके भीतर पहाड़ों की दुर्गम यात्राओं से उपजे अनभुवों की समृद्ध पोटली है। इस पोटली में नदियों, पहाड़ों, जंगलों, जानवरों और इनसानों के किस्से हैं। ये किस्से-कहानियां इनसानी फितरतों के खुरदरेपन के हैं तो मुहब्बतों की चासनी में डूबे हुए भी। घुमक्कड़, पहाड़-प्रेमी, नदी के आशिक और संवेदना के धनी सुभाष लेखक सबसे बाद में हैं। इसलिए इन्हें पढ़ने का सर्वथा नया आनन्द है, नई अनुभूति और खांटी मौलिकता से परिचित होना है।

क्या-क्या देखती हैं नदी की आंखें’? वे लोहे और पत्थरों के मंसूबों को ध्वस्त करने वाले’, नाम के सुनार लेकिन काम के लोहार को देखती हैं और उसके शिल्प एवं श्रम को गहराई से महसूस करती हैं। वे ग्वाले नूर मुहम्मद को देखती हैं जिसके बछड़े को अंधेरी-बरसती रात में तेंदुआ अधमरा कर गया था लेकिन जिसे पहाड़ी से लुढ़कते दूध के बर्तन के पीछे जान हथेली पर धर कर दौड़ना पड़ा था क्योंकि गरीब की विडम्बना यह है कि अनेकों बार उसके जीवन का मोल किसी बर्तन के समकक्ष हो जाता है। नदी की आंखें हाशिए का वह पहाड़ देखती हैं जहां सरकार की अनदेखी और प्रशासन की ढुल-मुल नीतियों के चलते स्थानीय बाशिंदों ने फतेह पर्वत की समृद्धि के प्रतीक पारम्परिक व्यवसाय पशुपालन और खेती-बाड़ी से विमुख होकर अपनी जमीनें धड़ाधड़ औने-पौने में बेचना शुरू कर दिया है।”

नदी की आंखें जितना गहरा देखती हैं उससे अधिक महसूस करती-कराती हैं। मेमनों से पहले-पहल उतारी गई, पश्मीने को भी मात करने वाली ऊन से बुनी मुलायम चादर से बच्चे के लिए कोट सिलवाकर जब एक पशुचारक पिता प्रफुल्लित होना चाहता है तब बच्चे की खुशी अपना वही कोट एक मेमने को पहना देने में व्यक्त होती है। वह नन्हा मेमना उस कोट को पहनकर प्रसन्नता या आतंक में ऐसी छलांगें लगाता है कि गहरी खाई में जा गिरता है, तब पिता-पुत्र ही नहीं पाठक भी सन्नाटे में आ जाता है। वह एक सुंदर कोट का जाना नहीं, मेमने के रूप में परिवार के एक सदस्य का जाना होता है। किसी त्योहार के दिन चरवाहे जातीराम के लिए गांव से आई रोटी की पोटली को जब बंदर उठा ले जाते हैं तो रोटियां वापस पाने के लिए नहीं, बल्कि घी का डिब्बा भी वानरों को सौंपने के लिए दौड़ लगाते जातीराम के साथ-साथ हमारा मन भी कह उठता है कि वानरो, रोटियों में चुपड़ने के लिए घी भी तो ले जाओ!

बुढ़िया की भेंटहो या तेगसिंह की दावत’, ‘साइबो को पापहो या किन्नौरी लड़कीया इंसाफ का तकाजाऔर दूसरे किस्से, उनका उत्स सुदूर, दुर्गम हिमालयी समाज के बीच विचरण के उन साक्षात अनुभवों में है जिन्हें अति-संवेदनशील दिल-दिमाग ही पकड़ सकता है। और घर बस गयामें नव-ब्याहता के कोठार से निकली वह चीख पाठक के भीतर देर तक बनी रहती है जो घर बसाने के लिए परिवार की सहमति से किसी पराए मर्द की जकड़न में “घोंसले में सांप द्वारा दबोचे गए चूजे की आखिरी कोशिश जैसी” फूटती है।

इसीलिए इन कहानियोंमें खांटी मौलिकता है जो पाठक को नए आस्वाद के साथ गहरे छू जाती है। अंतिम किस्सा प्रेम का प्रभावइस वक्तव्य के साथ पूरा होता है- “मैं बिना किसी लाग-लपेट के इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि दुनिया में ऐसी इकलौती शै प्रेम ही है जो मनुष्य के भीतर तरलता बनाए रखती है।”

नदी की आंखेंइसी तरलता से भरी हैं और पाठक के भीतर भी नमी छोड़ जाती हैं।

पुस्तक मंगाने के लिए सम्पर्क- सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, फोन- 7017437410 


-नवीन जोशी, 15 अप्रैल, 2022    

            

            

Wednesday, April 13, 2022

जीवन और जंगल से बेदखल जंगल के राजा

शोभाराम शर्मा जी का नाम मैंने प्रयाग जोशी जी से सुना था। प्रयाग जी ने 1972-73 में पिथौरागढ़ जिले के अस्कोट-जौलजीवी क्षेत्र के बीहड़ जंगलों/बस्तियों में घूम-घूम कर वनराजियों या वनरावतों (बणरौतों) के जीवन का अध्ययन किया था। उत्तराखण्ड की पांच जनजातियों में से एक और तेजी से विलुप्त होती इस जनजाति के बारे में प्रयाग जी की महत्वपूर्ण शोध रपट वनराजियों की खोज मेंशीर्षक से पहाड़ने अपने प्रवेशांक (1982) में प्रकाशित किया था। 

उसी बारे में बात हो रही थी। प्रयाग जी ने मुझे बताया था कि 1972 में जब उनकी नियुक्ति टिहरी के इण्टर कॉलेज में हुई तब वहां शोभाराम शर्मा भी तैनात थे, जिन्होंने 1960 के दशक में वनराजियों की भाषा-बोली पर शोधकार्य किया था, जो अब तक अप्रकाशित है। शर्मा जी से वनराजियों के बारे में सुनकर ही प्रयाग जी को वनराजियों की खोज-यात्रा में जाने की प्रेरणा मिली थी। 

सन 2022 में वनराजियों के जीवन और संघर्ष को आधार बनाकर लिखे गए उन्हीं शोभाराम शर्मा जी के उपन्यास काली वार-काली पारकी जानकरी मुझे फेसबुक से हुई तो उत्सुकतावश फौरन किताब मंगाकर पढ़ डाली।

घुमंतू जीवन शैली वाले राजी या वनरावत कभी जंगल के राजाकहलाते थे। जंगल उनके स्वाभाविक ठिकाने और आजीविका के साधन थे। वे इस हिमालयी भू-भाग के सबसे पुराने वाशिंदों में हैं लेकिन सभ्यता के विकास और आधुनिक प्रगतिके चलते वे धीरे-धीरे जंगलों से बेदखल किए गए। जिनके कारण जंगल, बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति सुरक्षित और वंदनीय थी, वे ही उसके विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराए और उजाड़े जाते रहे। आज तो वे चंद सैकड़ा संख्या में बचे हैं और मुख्य धाराका हिस्सा बनकर अपनी बोली-बानी, प्रकृति और संस्कृति, सब कुछ खो चुके हैं। 

काली वार-काली पारउपन्यास में वनराजियों की आदिम जीवन पद्धति एवं समाज-संस्कृति की झलक है और विस्तार से वह संघर्ष है जो उन्हें इस व्यवस्था से तरह-तरह के टकरावों, अपने बचाव की कोशिशों और अन्तत: विलोपन या पराजय में सहना पड़ा।

दुनिया के सभी आदिम या मूल निवासियों की तरह वनराजियों को भी बाहर से आए अपेक्षाकृत ताकतवर और चालाक मानव समाजों से क्रमश: दबना और सिकुड़ना पड़ा। उपन्यास का पहला खण्ड वनराजियों के अंतरंग संसार और फिर उस पर होते बाहरी हमलों की कथा कहता है कि किस तरह उनका स्वच्छंद वन-विचरण, वन-सम्पदा और ओड्यार-निवास (गुफा वास) छिनते गए, कि किस तरह उन्होंने बाहर से आए समाजों से बचते हुए भी उनका कृषि व धातु ज्ञान और स्थायी निवास अपनाने की कोशिश की और किस तरह उनके अपने समाज में सांस्कृतिक टकराव उत्पन्न हुए। 

दूसरे खण्ड में बाहरी समाजों के अलावा व्यवस्था यानी सरकारों के हस्तक्षेप उनके रहन-सहन और आचरण को कानून-विरुद्ध बताते गए और पुनर्वास की कोशिशों के नाम पर उन्हें उनके मूल से उजाड़ा और ठगा जाता रहा। उनकी यह व्यथा या तर्क किसी ने नहीं सुने-समझे कि “तुम लोग हमें राजी, वनरौत, राजकिरात या जंगली जो चाहो कहो, लेकिन यह कभी न भूलना कि खुदाई ने इन जंगलों का भार हमें सौंपा है। ये हमारी थाती हैं और जब से दुनिया बनी, हमारा कबीला ही यहां का रजवार (राज परिवार, शासक) है। फिर भी हमने इन जंगलों का दोहन कभी भी बेरहमी से नहीं किया। हम तो बस उतना ही लेते हैं जितना ज़िंदा रहने के लिए जरूरी है।”

बाहरी हमले और व्यवस्था के हस्तक्षेप जारी रहे, बल्कि बढ़ते गए। अपनी जड़ों के बचाव में इस पार के राजी उस पार यानी नेपाल की तरफ रुख करने को भी विवश हुए। वनराजियों की पूंजी’ (समाज, रिहायस) काली वार भारत और काली पार नेपाल में समान रूप से बसी हुई थी और दोनों तरफ उनके रिश्ते काली नदी की ही तरह सहज प्रवाहित रहते थे। 

आधुनिक विकास की विसंगतियों, कानून के दखल और प्राकृतिक संसाधनों की लूट मचाने वाली व्यवस्था ने उन्हें दोनों तरफ उजाड़ा। उनके जंगलों पर सरकारी कब्जे हुए। उनमें से कुछ सभ्यबनते हुए इस तंत्र में फिट होने की कोशिश करते रहे और कुछ तब भी अपनी पहचान के लिए जूझते हुए जंगलों में और भी भीतर सिमटते चले गए। दोनों ही तरह से उनकी अस्मिता पर चोटें पड़ती रहीं और वे धीरे-धीरे मिटते गए।

तीसरे और अंतिम खण्ड में उपन्यास की कथा वनराजियों के साथ-साथ शोषित-उत्पीड़ित समस्त जनता को शामिल करते हुए पूंजी आधारित शोषक व्यवस्था को ध्वस्त करके आम जनता का शासन स्थापित करने के लिए सशस्त्र संघर्ष की वकालत तक जाती है। भारत से नेपाल तक वनराजियों के उत्पीड़न की कथा कहते हुए उपन्यासकार उन्हें पूंजीपतियों, जन-सम्पदा के लुटेरे दलालों और महिलाओं के बिचौलियों के मजबूत जाल से भिड़ाते हुए नेपाल के माओवादियों के सशस्त्र विद्रोह के साथ गोलबंद करता है। 

परिवर्तन की इस प्रक्रिया यानी विद्रोह एवं खून-खराबे पर संदेह उठाने वाले कुछ वनराजियों की मार्फत संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से व्यवस्था सुधार की कोशिशों की पड़ताल भी की गई है। इसके लिए नवगठित उत्तराखण्ड में एक बनरौत के विधायक चुने जाने का प्रसंग उठाया गया है। उसके उदाहरण के जरिए बताया गया है कि इस तरीके से सुधार का सपना देखना सिर्फ एक धोखा है और इस उत्पीड़क-शोषक तंत्र को हथियार बंद लड़ाई के जरिए ही नेस्तनाबूद करके आम जनता का राज लाया जा सकता है।

तीसरे खण्ड के अपेक्षाकृत नारेबाजी वाले कथानक और तीखी राजनैतिक पक्षधरता के अलावा उपन्यास वनराजियों के जीवन संघर्ष और सांस्कृतिक पहचान के विलुप्त होते जाने की कहानी बड़े मार्मिक ढंग से कहता है। इसे पढ़ते हुए राजी बोली, रहन-सहन, खान-पान, आदि का पूरा आस्वाद मिलता है। राजी बोली की छौंक पूरे उपन्यास में महकती है और कई विलुप्त शब्दों और स्वादों से हमारा आत्मीय परिचय होता है- 

“क्या तुमने कभी वन ककड़ी का स्वाद चखा है? गुरुबंशा, सालम मिश्री, मूसली और सालम पंजा आदि का शाक खाया है? गेंठी, तरुड़, त्यगुना, वन-प्याज, काकिला और लिगुणा-कुथड़ा से तो तुम परिचित हो, लेकिन अपामार्ग और रतपतिया (नीलकंठी) तो तुमने शायद ही चखी हो। क्वेराल (कचनार), शकुना और च्यूरा के फूलों की कीमत जानते होगे लेकिन क्या पंचांक की जड़ और उसके बीजों का उपयोग भी जानते हो? अरे, पत्थर की तरह एक जगह बैठ गए तो खुदाई ने जो इतनी चीजें हमारे लिए पैदा की हैं, उनका स्वाद कहां से मिलेगा?”

1933 में जन्मे शोभाराम शर्मा अब नवासी वर्ष के हैं। इस वय में भी वे अपनी युवावस्था के अनुभवों और अध्ययनों का जिस तरह खूबसूरत उपयोग इस उपन्यास में कर पाए हैं, वह श्लाघनीय है। उन्हें सादर प्रणाम। यह उपन्यास 'New World Publication' (8750688053) से प्रकाशित हुआ है।          

-नवीन जोशी, 14 अप्रैल, 2022                       

Friday, April 08, 2022

राजेंद्र माथुर : इंदौर का कर्ज लखनऊ में चुकाते हुए

 


 “....वे ही युवा पत्रकार आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकते हों और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.”

यह उस विज्ञापन वह वाक्य है जिसने हमें 1983 के मध्य महीनों में सबसे ज्यादा रोमांचित एवं आकर्षित किया था, जिसे मैं आज 34 वर्ष बाद भी भूला नहीं हूं. हम सचमुच बहुत उत्साह और सपनों से भर उठे थे. आवेदन करने में हमने कोई देर नहीं की थी. नवभारत टाइम्सके लखनऊ से भी प्रकाशित होने की खबरें साल-दो साल से चर्चा में थीं. हमें बेसब्री से इंतजार रहता था कि कब नवभारत टाइम्स लखनऊ आये और हम उसमें काम करें. इस तमन्ना का कारण थे राजेंद्र माथुर जो 1982 में नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक होकर नई दिल्ली आ गये थे.

राजेंद्र माथुर का हमने सिर्फ नाम सुना था. ‘नई दुनिया के सम्पादक और लेखक के रूप में यह नाम चर्चा में खूब आता था. अगस्त, 1977 में जब मैंने स्वतंत्र भारतलखनऊ में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार काम करना शुरू किया, तब पत्रकारिता और अखबारों से कोई खास वास्ता नहीं था. कहानी-कविता-लेख लिखने में रुचि थी और यही रुचि एक दिन अचानक पत्रकारिता में ले आयी. दिनमाननियमित पढ़ता था और उससे बहुत प्रभावित था.  

उस समय स्वतंत्र भारत में आगे-पीछे कई युवा पत्रकारों की भर्ती हुई थी. जोश और जज्बे से भरे हमें अपना सम्पादकीय विभाग, चाय के ढाबे और किताबों-पत्रिकाओं के अड्डे बहुत आत्मीय और पवित्र लगा करते थे. सम्पादकीय विभाग में आने वाली डाक पर हम स्वत: टूट पड़ते. चिट्ठियां, दूर-दूर से आने वाले अखबार और पत्रिकाएं, आदि खोल डालते थे, जिन्हें तरतीब से लगा कर सम्पादक अशोक जी की मेज पर रखने की जिम्मेदारी सहायक घसीटे जी या फूलचंद की होती थी. फूलचंद हमारी हरकतें देख कर मूंछों में मुस्कराते थे लेकिन बुजुर्ग घसीटे जी नाराज होकर कभी डांट भी देते.

डाक के उसी ढेर में आता था इंदौर का अखबार नई दुनियाजो हमें अपनी साफ-सुथरी साज-सज्जा, बेहतर छपाई के अलावा खबरों के चयन, शीर्षक और कई लेखों-टिप्पणियों के लिए भी बहुत भाता था. नई दुनियाको हम जरूर खोल कर देखते-पढ़ते. राहुल बारपुते इसके प्रधान सम्पादक थे और राजेंद्र माथुर उनके सहयोगी सम्पादक. उनसे पहला लगाव इसी कारण हुआ था. हम तभी से नई दुनिया में काम करने का सपना देखने लगे थे. उस समय कई अखबार सम्पादक के नाम से ही जाने जाते थे. अशोक जी का स्वतंत्र भारत’, गिरिलाल जैन का टाइम्स ऑफ इण्डिया’, राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर का नई दुनिया’, आदि.

तो, सन 1983 में नवभारत टाइम्सके लखनऊ संस्करण में पत्रकारों की भर्ती के लिए विज्ञापन प्रकाशित होते ही हमारी खुशी ऐसी थी जैसे कि उसमें हमारा चयन हो गया हो. उस विज्ञापन की भाषा-शैली अपने-आप में अनोखी थी. स्फटिक-सी भाषा लिख सकनेऔर खबरों की सुदूर गंध से भी उत्साह और सनसनी से भर जाने वाले युवा पत्रकारों की तलाश की यह दृष्टि माथुर जी के अलावा और किसकी हो सकती थी. छोटा-सा विज्ञापन खुद उन्होंने लिखा था, यह बाद में स्पष्ट भी हो गया.

यह वह दौर था जब हिंदी पत्रकारिता महत्त्वपूर्ण करवट ले रही थी. राजधानी दिल्ली के बड़े घरानों के हिन्दी अखबार प्रांतीय राजधानियों का रुख कर रहे थे. प्रांतीय अखबार अपनी पकड़ मजबूत करने के प्रयास में नये संस्करण खोल रहे थे. इण्डियन एक्सप्रेस समूह प्रभाष जोशी के सम्पादन में हिंदी का नया अखबार जनसत्ता निकालने की तैयारी में था. कम्पोजिंग और छपाई की पुरानी टेक्नॉलॉजी की जगह फोटो-कम्पोजिंग और फोटो-ऑफ़सेट मशीनें ले रही थीं. नयी नजर से लैस पत्रकारों-सम्पादकों की नईं पीढ़ी उभर रही थीं.

बहरहाल, आवेदनों की सतर्क छंटाई के बाद नवभारत टाइम्स के लिए माथुर जी ने लखनऊ में लिखित परीक्षा ली. समाचार एजेंसी वार्तासे हिंदी समाचार की एक अनगढ़ कॉपी, एक अंश अंग्रेजी से अनुवाद, एक स्वतंत्र टिप्पणी-लेखन और कुछ सामान्य प्रश्नों की यह परीक्षा देना अनिवार्य था, कोई कितना ही वरिष्ठ क्यों न हो. कुछ समय बाद ऐसी ही लिखित परीक्षा नई दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस भवन में प्रभाष जोशी ने जनसत्ताके लिए ली. उसमें भी किसी को छूट नहीं थी. मेरे साथ जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने वालों में मंगलेश डबराल जैसे कुछ वरिष्ठ लेखक-कवि-पत्रकार भी थे. मंगलेश जी उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभातका रविवारीय परिशिष्ट सम्पादित करते थे और प्रभाष जी के साथ पहले भी काम कर चुके थे. कहने का आशय यह कि राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने अपनी-अपनी टीमें बड़ी पारदर्शिता और समान मापदण्ड से चुनी थीं.

कुछ साथी दोनों सम्पादकों की परीक्षा में चुन लिए गये थे. मंगलेश जी ने जनसत्ताजाना तय किया लेकिन हमने राजेंद्र माथुर के साथ काम करने की ललक से नवभारत टाइम्सचुना. प्रभाष जोशी के बारे में तब हम ज्यादा जानते न थे, हालांकि जिस तरह उन्होंने इण्टरव्यू लिया था उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मगर जब प्रभाष जी ने चयन की सूचना के साथ वेतन-भत्तों पर बातचीत के लिए दिल्ली आने का पत्र भेजा तो मैंने सविनय लिख भेजा कि फिलहाल मेरी पारिवारिक स्थितियां दिल्ली रहने की अनुमति नहीं देतीं. बड़ी वजह यह थी कि मन में राजेंद्र माथुर की टीम का हिस्सा बनने की ललक थी.

माथुर जी लखनऊ नभाटा के लिए अपने टीम-चयन से खुश थे और कहते थे कि मैंने हिंदी पत्रकारिता की क्रीम चुनी है. एक अफसोस का जिक्र वे काफी दिनों तक करते थे कि लखनऊ में जयप्रकाश शाही और पटना में सुरेंद्र किशोर नवभारत टाइम्स’ (नभाटा) में क्यों नहीं आये. इन दोनों ने जनसत्ता को चुना था.

14 नवम्बर, 1983 को नभाटालखनऊ का पहला अंक (कतिपय कानूनी कारणों से एक अंक 17 अक्टूबर को प्रकाशित करने की औपचारिकता निभा ली गयी थी) निकालने की रात कभी नहीं भूलती. राजेंद्र माथुर देर रात पहला अंक छपने तक अपनी टीम के साथ दफ्तर और प्रेस में मौजूद रहे. अद्भुत उत्साह था. उसी दिन अयोध्या में चौदह कोसी परिक्रमा करने वाले कुछ यात्रियों को एक ट्रेन ने कुचल दिया था. वही लीड खबर थी. कम्प्यूटर पर खबर की कम्पोजिंग होती थी. फिर डार्क रूम से फोटो ब्रोमाइड पेपर पर अखबार के कॉलम-साइज में उसके प्रिण्ट निकलते थे. पेस्टिंग रूम में डिजायनर/पेस्टर उन्हें हमारे बताये ले-आउट के हिसाब से पेज पर पेस्ट करते थे. खबरों-तस्वीरों की उखाड़-पछाड़ भी करनी प‌ड़ती थी. डिजायन के हिसाब से रूल और बॉक्स खींचने पड़ते थे. इस सब में काफी समय लग जाता था. उस रात माथुर जी पेस्टिंग रूम में अखबार पूरा तैयार होने तक हमारे साथ खड़े रहे थे.

उन दिनों अखबार के पेज तैयार होने के बाद छपने के लिए मशीन में चढ़ाने तक फिर एक लम्बी तकनीकी प्रक्रिया होती थी. इसमें भी एक-डेढ़ घण्टा लग जाता था. सम्पादकीय साथियों के लिए यह समय दफ्तर के बाहर चाय के ढाबे पर अड्डेबाजी का होता था. उस रात माथुर जी भी हमारे साथ भार्गव के ढाबे पर बैठे. नवम्बर की रातों की ठण्ड थी. बुझा तन्दूर तब भी ताप दे रहा था. वहां खड़े-खड़े हम सब ने चाय पी. इस पूरे समय माथुर जी नवयुवकों के से उत्साह से बातें करते रहे थे. वे हमें नई दुनिया के दिनों के बारे में बताते, हिंदी पत्रकारिता और पत्रकारों की कमियों को इंगित करते और यह भी सुझाव देते कि हिंदी का कौन-कौन-सा शब्दकोश देखना चाहिए, कि हॉर्नबी की अंग्रेजी डिक्शनरी से हम क्या-क्या सीख सकते हैं, कि किस अंग्रेजी अखबार में क्या जरूर देखा जाना चाहिए. देश और प्रदेश की राजनीति पर उनकी दार्शनिक टिप्पणियां भी होती रहती थीं. सारी बातें सीधी-सीधी कहने की बजाय वे अक्सर नये-नये रूपकों से समझाने लगते थे, जो उनकी लेखन-शैली की विशेषता है.

......

भार्गव के ढाबे से चाय खत्म करके माथुर जी अचानक कुछ कहे बिना दफ्तर की तरफ चल दिये. हमने समझा शायद बाथरूम जा रहे होंगे. जब वे वापस नहीं लौटे तो हम भी भीतर गये. देखा कि दुमंजिले के सम्पादकीय कक्ष के एक कोने में पड़े पुराने अखबारों, बाहर से आने वाली डाक, आदि के ढेर पर झुके माथुर जी कुछ तलाश रहे हैं. तब तक लाइब्रेरी की व्यवस्था नहीं हो पायी थी. सारे अखबार, पत्रिकाएं, आदि एक कोने में ढेर किये जा रहे थे. इसी को माथुर जी उलट-पुलट रहे थे.

-अरे, आप यहां क्या ढूंढ रहे हैं?’

-नई दुनिया आता है?’ उन्होंने पूछा.

हम लोग पहले दिन से ही नई दुनिया मंगाया करते थे. उस ढेर में से नई दुनिया की एक प्रति तलाश कर मैंने उन्हें दी. उन्होंने तुरन्त उसका अंतिम पृष्ठ पलटा, जहां प्रिण्ट लाइन, फोन नम्बर, आदि छपे रहते हैं. उसे लेकर वे टेलीप्रिण्टर रूम की ओर बढ़ गये- एक टेलेक्स करना है.’

हमने फौरन टेलीप्रिण्टर ऑपरेटर को सतर्क किया, जो तब तक काम समेटने लगा था. माथुर जी ने वहीं खड़े-खड़े टेलीप्रिण्टर ऑपरेटर से नई दुनियाके टेलेक्स नम्बर पर बोल कर एक संदेश लिखने को कहा-

राहुल बारपुते, नरेंद्र तिवारी और साथियों के नाम/ इंदौर का कर्ज लखनऊ में चुकाते हुए- राजेंद्र माथुर, नभाटा, लखनऊ के प्रथम प्रकाशन पर”

वह क्षण मैं कभी नहीं भूल सकता. वह मेरे लिए चमत्कृत होने के साथ बहुत भावुक हो जाने का क्षण भी था. मैं एक ऐसे सम्पादक के सामने खड़ा था जो नई दुनियाकी टीम के साथ 27 वर्ष तक गृहीत और विकसित की गयी पत्रकारिता को उससे लिया गया कर्ज मानता था, ‘नवभारत टाइम्स का प्रधान सम्पादक बनकर दिल्ली आते हुए उस कर्ज को साथ लाया था और लखनऊ में उसी पत्रकारिता का नया पड़ाव डालते हुए, उसी परम्परा में एक पौधा रोपते हुए उसे इंदौर का कर्ज चुकाना मान रहा था.

अद्भुत ही थी आधी रात के बाद  नभाटा, लखनऊ के टेलीप्रिण्टर रूम से की जा रही यह कर्ज-अदायगी. मैं नहीं जानता कि नई दुनिया के दफ्तर में उस रात यह संदेश पढ़ते हुए माथुर जी के पुराने साथियों ने कैसा अनुभव किया होगा लेकिन अगली सुबह राहुल बारपुते और नरेंद्र तिवारी निश्चय ही विगलित-प्रफुल्लित हो उठे होंगे.

तब तक भूतल से छपाई मशीन के चालू हो जाने का कम्पन महसूस होने लगा था.

-चलिए, अखबार देखा जाए!माथुर जी ने पुलक कर कहा और हम फटाफट सीढ़ियां उतर गये. मशीन के अलग-अलग टावरों से छपते पन्ने क्रमवार लग कर, फ़ोल्डर से मुड़ और कटर से कट कर तरोताजा अखबार के ढेर में जमा हो रहे थे. सुपरवाइजर ने एक प्रति ससम्मान माथुर जी को सौंप दी और फिर एक-एक प्रति हमें. हमारी दिलचस्पी माथुर जी की प्रतिक्रिया जानने में थी. वे पन्ने पलटते जाते और उनके चेहरे पर चमक आती जाती. दिल्ली संस्करण उन दिनों लाइनो कम्पोजिंग में पुरानी मशीन पर छपता था. उसकी तुलना में लखनऊ में फोटो ऑफसेट प्रिण्टिंग का स्तर बहुत सुंदर था. उन्होंने पूरी टीम को बधाई दी, सबसे हाथ मिला कर.

उस प्रवेशांक के सम्पादकीय पेज पर पहला लेख माथुर जी ने स्वयं लिखा था. अपने लेख को नई टेक्नॉलॉजी में  छपा देख कर वे बच्चों की तरह खुश हुए थे. बाद तक भी कहते थे कि मैं अपने छपे लेख लखनऊ संस्करण में ही पढ़ता हूँ. सम्पादकीय पेज पर माथुर जी के लेख के नीचे दूसरा लेख मेरा प्रकाशित हुआ था, अमृतलाल नागर और लखनऊ के सम्बंधों पर. प्रवेशांक के लिए उन्होंने ही लिखने को कहा था. मशीन के शोर में बात करना मुश्किल था, इसलिए मैंने माथुर जी  को इशारे से दिखाया कि आज मैं आपके साथ छपा हूं. वे हंसे और तत्काल जेब से कलम निकाल कर उन्होंने मेरे हाथ में खुले अखबार के उस पन्ने पर अपने और मेरे नाम को जोड़ते हुए हाशिये तक एक रेखा खींची. वहां पर लिखा- “पड़ोस का सुख!” उसके नीचे अपने हस्ताक्षर करके अखबार मुझे सौंप दिया. उनका वह कौतुक भरा आशीर्वाद, वह स्नेह मेरा कीमती खजाना है.

साथ में खड़े वरिष्ठ साथी प्रमोद जोशी के हाथ से भी उन्होंने अखबार लिया और पहले पेज पर मत्थे के पास वही लाइनें लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दिये जो थोड़ी देर पहले वे टेलेक्स से नई दुनिया की टीम के नाम भेज चुके थे- इन्दौर का कर्ज लखनऊ में चुकाते हुए.”

अखबारों की दुनिया की वह मेरे लिए अविस्मरणीय रात है. उसके बाद से 2014 में नौकरी से रिटायर होने तक विभिन्न संस्थानों में अखबारों के दर्जन भर नये संस्करण निकाले, दूसरे सम्पादकों के साथ और स्वयं सम्पादक की हैसियत से भी. मगर वह रोमांच, वैसा रचनात्मक आनंद, वैसा स्नेह और वैसा उत्साहवर्धन दुर्लभ ही रहा.   

.....   

राजेंद्र माथुर उस दौर में हिंदी पत्रकारिता के शिखर पर चमकता हुआ नाम थे जो उसकी विविध ज्ञान-गरीबियों से युद्ध ठाने हुए थे, उसे नया तेवर और कलेवर देने में लगे थे. वे हिंदी पत्रकारिता की पुरानी धूल और चोला झाड़ कर उसे बदलते जमाने और विकसित हो रही तीसरी दुनिया का आईना बनाना चाहते थे. हिंदी पत्रकारिता को वैश्विक न सही, देश की भाषाई पत्रकारिता के उच्चतम स्तर तक लाना चाहते थे. वे पुरानी और आधुनिक पत्रकारिता के सेतु भी बने हुए थे. पुराने का तिरस्कार न था लेकिन नये और ऊंचे मानदण्डों की उत्कट अभिलाषा उनमें थी. नवभारत टाइम्स में आते ही उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए भविष्य के अपने नजरिये की रूप रेखा टाइम्स ऑफ इण्डियामें प्रकाशित अपने तीन लेखों की शृंखला में पेश कर दी थी.

यहां यह बता देना उचित होगा कि माथुर जी पत्रकारिता में पूरी तरह आने से पहले इंदौर के एक कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे. सच तो यह है कि बी ए के विद्यार्थी रहते ही उन्होंने नई दुनिया में वैश्विक विषयों पर अनुलेखनाम से नियमित कॉलम लिखना शुरू कर दिया था. अंग्रेजी उन्होंने सायास सीखी थी जबकि हिंदी उनके रग-रग में बसती थी. दोनों में उनकी कलम को महारत हासिल थी.

हिंदी-प्रेम के कारण हिंदी अखबारों की सूचना-दरिद्रता उन्हें इतना पीड़ित करती थी कि वे बीस वर्ष की आयु में मित्र शरद जोशी की शह पर नई दुनिया के प्रधान सम्पादक राहुल बारपुते से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखने के लिए कॉलम की मांग कर बैठे थे. उस दिन जो रिश्ता बना वह 27 साल सांस्थानिक रूप से और उसके बाद भी आजीवन जुड़ा रहा. इन्हीं बारपुते जी ने 1981 में एक दिन नई दुनिया के प्रधान सम्पादक की अपनी कुर्सी पर राजेंद्र माथुर को बैठा दिया. बैनेट कोलमैन कम्पनी के मालिकों ने जब हिंदी के अपने अखबार को प्रोफेशनली कामयाब बनाने की ठानी तो प्रधान सम्पादक की उनकी खोज इंदौर की उसी कुर्सी पर जाकर पूरी हुई. हिंदी पत्रकारिता को राहुल बारपुते की यह ऐतिहासिक देन साबित हुई. बारपुते जी पर माथुर जी का लम्बा संस्मरणात्मक लेख इस प्रसंग के अलावा भी कई संदर्भों में उल्लेखनीय और पठनीय है.

बहरहाल, 1982 में जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक की कुर्सी पर बैठे तो हिंदी पत्रकारिता का बुझा-बुझा, दयनीय और लाचार चेहरा उन्हें परेशान करने लगा. इस बेबसी पर उन्होंने अपनी धारदार और प्रभावशाली शैली में कई लेख लिखे और विभिन्न मंचों से व्याख्यान दिये. उनकी एक बड़ी चिंता तब यह थी कि हिंदी के गृह प्रदेश ही में हिंदी पत्रकारिता की यह दशा क्यों है? क्यों हिंदी के अखबार लाखों में नहीं बिकते? हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या अंग्रेजी समाचारपत्रों से कहीं ज्यादा होने पर भी वे कागज, पृष्ठ और विज्ञापन-सम्पन्न क्यों नहीं है? हिंदी के पाठक को इतना सूचना-विपन्न क्यों रखा जा रहा है?

हिंदी अखबारों की बाजार-बाधाशीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था कि हिंदुस्तान में पेट-गरीब लोगों से कई-कई गुणा ज्यादा लोग सूचना-गरीब हैं.वे प्रश्न उठाते थे कि भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, बाबूराव विष्णु पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे सम्पादकों की धरती से एक भी राष्ट्रीय दैनिक या साप्ताहिक आज क्यों नहीं निकल रहा है. जब वे राष्ट्रीय-पत्र की बात कहते थे तो उनका आशय निश्चय ही उसकी व्यापकता और अर्थवत्ता से होता था.

इसीलिए जब नवभारत टाइम्स, लखनऊ के प्रकाशन की योजना बनी तो उनका उत्साह देखते ही बनता था. उस योजना का सम्पादकीय हिस्सा उन्होंने प्रबंधकों पर तनिक भी नहीं छोड़ा. जिस उत्साह से उन्होंने अपनी टीम चुनी, पत्रकारिता के जो स्वप्न उसे सौंपे और जिस तरह लखनऊ आ-आ कर उसे प्रेरित किया, हम उसके साक्षी रहे. लखनऊ संस्करण के उद्घाटन-सम्पादकीय में उन्होंने इसे हिंदी पत्रकारिता की घर वापसीबताया था. यह घर-वापसी इस मायने में थी कि बनारस भले उसका गढ़ रहा हो, लेकिन वह जन्मी और फली-फूली कलकत्ता एवं चंद अन्य प्रदेशों के नगरों में.

प्रथम पृष्ठ के उस सम्पादकीय में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने लिखी थी किनवभारत टाइम्स का लखनऊ आना वहां के पुराने अखबारों का बाजार छीनना नहीं है, बल्कि हिंदी पत्रकारिता का बाजार और स्तर बढ़ाना है. यह बात उन्होंने खूबसूरत रूपक में कही थी. आज से आपके बीचशीर्षक सम्पादकीय में उन्होंने लिखा था कि पत्रकारिता का अपना कुआं हम गहरा खोदेंगे और जब हमारे कुएं में पानी का स्तर ऊंचा उठेगा तो ऐसा हो नहीं सकता कि दूसरे कुओं का पानी कम होने लगे. सभी कुओं में पानी का स्तर समान रूप से बढ़ेगा.प्रतिद्वंद्वी अखबारों के प्रति उनका इतना विराट और उदात्त दृष्टिकोण था. वे सचमुच पूरी हिन्दी पत्रकारिता का स्तर ऊंचा उठा देखना चाहते थे.  

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हिंदी पत्रकारिता का एक विराट विजन अपने भीतर क्रमश: विकसित करते और जतन से पालने के साथ व्यवहार में वे बहुत सरल और सहज उपलब्ध व्यक्ति थे, विनम्र, उदार और विनोदी भी.

नभाटा का लखनऊ में पुराना कार्यालय नवल किशोर रोड पर मल बिल्डिंग में  था और नया कार्यालय राणा प्रताप मार्ग पर लिया गया. नई टीम को मल बिल्डिंग से नये दफ्तर जाना है. माथुर जी सड़क किनारे दफ्तर की एक मात्र जीप का इंतजार कर रहे हैं जो उस वक्त कहीं गयी हुई है.  मुझे स्कूटर स्टार्ट करता देख वे आये और पीछे की सीट पर बैठ गये हैं- चलिए.एक सौ सीसी के उस नन्हे सेण्टो स्कूटर की पिछली सीट की सवारी उन्हें भा रही है. एक-दो और मौकों पर उन्होंने प्रस्ताव किया है- चलिए, आपके स्कूटर से हज़रतगंज चलते हैं, किताबों की दुकान पर.वे यूनिवर्सल बुक सेलर्स से सम्पादकीय विभाग के लिए शब्दकोश खरीद रहे हैं.

लखनऊ दौरे में होटल में कभी नहीं रुकना है. मोती नगर में उनकी ससुराल है, वहीं से आएंगे-जाएंगे. सुबह साढ़े दस के करीब जब टाइम ऑफिस उनके लिए जीप भेजने को कह रहा होता तब तक माथुर जी दफ्तर के गेट पर रिक्शे से उतरते दिखायी देते. कोई गिला नहीं. मोती नगर से सवारियां बदलते हुए राणा प्रताप मार्ग पहुंचने में शहर देख लिया और खबरों के कुछ विचार मिल गये.

ऑफिस ने अचानक उठ कर चल दिये. घण्टों पता नहीं. स्थानीय सम्पादक रामपाल सिंह हैरान हैं कि लंच के लिए कब तक रुकें. मोबाइल तब जन्मा न था और कुछ बता कर गये नहीं. शाम को अचानक डेस्क पर बैठे, कुछ लिखते दिखाई देते हैं- रवींद्रालय में एक सेमिनार था, वहीं चला गया. देखिए, रिपोर्टिंग ऐसे भी की जा सकती है.

दिल्ली दफ्तर में उनके कक्ष का द्वार खोल कर झांका. लगा कि कुछ लिख रहे हैं तो द्वार बंद करने लगा. तभी आवाज आती है-आइए, आ जाइए.पूरी मेज पर कागज-चिट्ठियां फैले हैं और एक-एक कर पढ़े जा रहे हैं. बता रहे हैं – पाठकों के पत्र हैं. कोशिश करता हूं कि अधिक से अधिक पत्र खुद देख सकूं, वर्ना पता कैसे चलेगा कि हमारे पाठक क्या सोच रहे हैं और क्या कह रहे हैं. कभी हमने सोचा कि इन पत्रों में कितनी ऐसी खबरें होती हैं जिन तक रिपोर्टर की पहुंच नहीं होती?’

-‘क्या सुबह आपके घर पर मिल सकता हूं?’ दिल्ली दफ्तर में उनकी व्यस्तता देख कर पूछा है मैंने.

 -‘नहीं, मैं आजकल पटना-टेस्ट की कॉपियां जांच रहा हूँ.फिर कुछ सोच कर कहा- अच्छा, साढ़े नौ बजे आइए, चाय पीने के लिए साथ तो चाहिए.दूसरी सुबह उनके घर पहुंचा तो पायजामा के ऊपर कमीज और उस पर कोट पहने हुए खुद गेट पर हाजिर. घर पर और कोई नहीं शायद. सीधे रसोई में ले जा रहे हैं. खुद चाय बना रहे हैं. एक कप थमाते हुए बता रहे हैं- बिहार में यूपी से ज्यादा टेलेण्ट है.

ऑफिस जाने के लिए खुद अम्बेसडर कार निकाली है. आदेश हुआ है- बैठिए.कार स्टार्ट करके आगे बढ़ाते-बढ़ाते रोक दी है. आज बस से चलते हैं’. अम्बेसडर वापस पोर्च में खड़ी की गयी है. विकास मार्ग पर स्वास्थ्य विहार के सामने से डीटीसी की बस पकड़ी है. खचाखच भरी बस में पिसते हुए झटके खा रहे हैं और व्याख्यान चल रहा है- अगर आप डीटीसी की बस में झटके नहीं खाएंगे तो झटके खा कर सम्भलने की भारतीय समाज की ताकत को नहीं समझ सकते.

-‘आज शाम को पांच बजे आइए. हंसके लोकार्पण में साथ चलेंगे.शाम को परवेज अहमद को भी बुला लिया है. खुद कार चला कर हमें मण्डी हाउस ले गये हैं. हॉल पूरा भर चुका है. कोई सीट खाली नहीं. मैं इधर-उधर देख रहा हूं कि माथुर जी के लिए कोई सीट खाली कर दे. इस बीच माथुर जी सीटों के बीच गलियारे में जमीन पर बैठ गये हैं और पूरी तन्मयता से देख रहे हैं जैनेंद्र कुमार के हाथों हंसका लोकार्पण कराते प्रमुदित राजेंद्र यादव को. गलियारा भरता जा रहा है. उसी में प्रभाष जी भी नीचे बैठे दिखाई देते हैं. 

मीटिंग में लखनऊ के सम्पादकीय साथियों ने कुछ समस्याएं उठा दी हैं- पीने के पानी का ठीक इंतजाम नहीं हैं और लिखने के लिए मिलने वाला बॉल पेन बहुत घटिया है. माथुर जी ने माथे पर बल डाल कर छत की ओर देखा है और कहा है- पानी के लिए आप मैनेजर का घेराव कर सकते हैं. जहां तक कलम का सवाल है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सोने का है या काठ का, महत्त्वपूर्ण यह है आप उससे क्या लिख रहे हैं.

समस्या के इस अद्भुत समाधान से हमें विस्मित होने का अवसर दिये बिना वे पत्रकारिता के विजन में प्रविष्ट हो गये हैं- आपको करना यह चाहिए कि उत्तर प्रदेश के गांवों, कस्बों, तहसीलों, रेलवे और बस स्टेशनों के सही नाम पुराने आधिकारिक रिकॉर्ड से पता करें और उसकी सूची बनाएं. कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज तक हमारे पास अपनी जगहों के नाम तक प्रामाणिक और सही-सही नहीं है. एक नाम कई तरह से छप रहा है. एक अच्छे अखबार के पास उसकी स्तरीय शैली पुस्तिका होनी ही चाहिए.’ (कुछ समय बाद हम सुनते हैं कि टाइम्स रिसर्च फाउण्डेशन ने हिंदी में एक फैलोशिप की घोषणा की है. 75 हज़ार रु की पहली ही फैलोशिप नभाटा की शैली पुस्तिका बनाने के लिए दिल्ली नभाटा के एक उप-सम्पादक को दी गयी.) 

अच्छा पेन नहीं मिलने की शिकायत वास्तव में ओछी थी और प्रधान सम्पादक के सामने नहीं ही कही जानी चाहिए थी. यह समझते ही मैंने उनके सामने बड़ी समस्या रख दी है- दिल्ली के अखबारों का एक ही सेट सम्पादकीय विभाग में आता है. उसे भी स्थानीय सम्पादक जी घर उठा ले जाते हैं. (दिल्ली के अंग्रेजी अखबार वायु-सेवा से दोपहर को लखनऊ पहुंचते थे. उन दिनों राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों, लेखों, संदर्भों, आदि के लिए हम उन्हीं पर निर्भर होते थे. इण्टरनेट तब था नहीं) स्थानीय सम्पादक नंदकिशोर त्रिखा ने चौंक कर देखा है कि यह क्या कह दिया गया, मगर माथुर जी के चेहरे पर हलकी मुस्कान तिर आयी है. हाथ के कलम को अपने गाल पर ठोकते हुए वे कह रहे हैं- इसमें क्या समस्या है. दिल्ली के अखबारों का एक सेट और मंगवा लिया जाए.वे तत्काल कार्यालय सहायक से आदेश टाइप करने को कहते हैं.

तभी उनके दिमाग में पत्रकारिता के अपने विजन का कोई एक कोण कौंध गया है- मैं तो चाहता हूं कि हर एडीशन में एक सब-एडिटर सिर्फ दुनिया भर के अखबार पढ़े. उसकी और कोई ड्यूटी न हो. सिर्फ पढ़े और कुछ बड़े मुद्दों पर उनके सारांश अखबार के लिए लिखे... और, एक रिपोर्टर हो, रोमिंग रिपोर्टर, वह सिर्फ घूमे. उसका एसाइनमेण्ट ही घूमना हो. उसके लिए ऑफिस आना जरूरी न हो, गांव-देहात-शहर-मेले.. घूमता रहे और लिखता रहे...

अगले हफ्ते हम पाते हैं कि दिल्ली दफ्तर की डाक में प्रधान सम्पादक के कार्यालय से प्रमोद जोशी/नवीन जोशीके नाम से मोटा लिफाफा आया है. उसके भीतर रखे हैं लण्डन टाइम्स’, ‘इण्टरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून’, ‘वाशिंगटन पोस्टके पिछले संस्करण. आपके लिए सुबह का नाश्ता’, ‘आपका दोपहर का भोजनलिखे हुए ये प्रतिष्ठित विदेशी अखबार हमारे नाम से कुछ समय तक आते रहे थे.

सम्भवत: लखनऊ की हुई इसी मीटिंग के बाद दिल्ली संस्करण में मेहरुद्दीन खां को रोमिंग रिपोर्टर बनाया गया था. दिल्ली के आस-पास के जिलों में घूम कर मेहरुद्दीन ने कई अच्छी रिपोर्ट लिखी थीं.

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माथुर जी के साथ कुछ ऐसा निस्संकोच-सा रिश्ता बन गया था कि हम उनसे कभी-कभार जिद भी कर बैठते थे. नवभारत टाइम्स का पटना संस्करण शुरू होते समय उन्होंने मुझे लखनऊ से कुछ समय के लिए वहां भेजा था. उन दिनों वे अखबार के मॉड्युलर-ले-आउट से प्रभावित थे. हमने लखनऊ नभाटा में उनकी सलाह से यही प्रयोग किया था. ऐसा ही पटना नभाटा में भी करने के लिए उन्होंने मुझे भेजा था. पटना संस्करण के शुरुआती अंकों से खुश होकर जब उन्होंने सबको दावत का देने का ऐलान किया तो हमने साथ में बीयर पिलाने की जिद कर दी. बमुश्किल वे राजी हुए लेकिन इस शर्त के साथ कि कोई भी बीयर में जिन नहीं मिलाएगा. यह जैसे इशारा हो, कुछ साथियों ने मौर्या होटल में अपनी बीयर के साथ जिन भी मिलवा ली.

पार्टी शुरू ही हुई थी कि रंग में भंग हो गया. उसी समय माथुर जी के लिए वाया दिल्ली लखनऊ से संदेश आया कि वहां सम्पादकीय विभाग में कोई बड़ी समस्या हो गयी है और अखबार निकलना मुश्किल हो गया है. उन्हें फौरन लखनऊ रवाना होना होगा.

माथुर जी जल्दी से कुछ खा कर होटल से सामान लेकर निकले. मुझे भी बीयर का गिलास छोड़ कर साथ में जाना पड़ा. मौर्या होटल से फ्रेजर रोड पर टाइम्स के कार्यालय तक की कुछ दूरी हमने लगभग दौड़ते हुए और फिर इक्के से तय की थी. दफ्तर से कार आने का इंतजार उन्होंने नहीं ही किया था. रास्ते में पूछते रहे कि लखनऊ में क्या हुआ होगा. मैं करीब एक महीने से पटना में था. कोई खबर मुझे न थी. बाद में पता चला था कि नभाटा, लखनऊ के सम्पादकीय साथियों ने कतिपय सुविधाओं की मांग की लगातार उपेक्षा से आजिज आकर असहयोग-आंदोलन चला रखा था. उस दिन कई लोगों ने एक साथ छुट्टी ले ली थी जिससे अखबार का प्रकाशन संकट में पड़ गया था.

अपनी पसंदीदा टीम और प्रिय संस्करण का यह हाल माथुर जी के लिए यह निश्चय ही बहुत पीड़ादायक रहा होगा. राजीव मित्तल ने, जो इस असहयोग-आंदोलन के एक अगुवा थे, बाद में स्वीकार किया कि उस बार माथुर जी का चेहरा देख कर उन्हें भी तकलीफ हुई थी.

एक बार लखनऊ में हम चार साथियों ने प्रबंधन की सलाह पर जल्दबाजी में लिया गया उनका एक सम्पादकीय-फैसला उन्हीं से बदलवा लिया था. हम तीन-चार वरिष्ठ साथियों ने उन्हें फोन किया और बारी-बारी कहा कि वह फैसला टीम के लिए कतई उचित नहीं होगा. वह हमारे तर्कों से सहमत हुए. बोले थे- मुझसे कहा गया था कि आग लग रही है, फायर ब्रिगेड भेजिए, तो मैं मना कैसे कर सकता था. अब आप कह रहे हैं कि आग ही नहीं लगी है तो फायर ब्रिगेड की क्या जरूरत.

इन कुछ प्रसंगों से ऐसा लग सकता है कि हम माथुर जी के बहुत खास या करीबी हो गये थे. ऐसा कतई नहीं था. वे दिल्ली, लखनऊ, पटना, जयपुर, आदि अपनी सभी टीमों के लिए उतने ही आत्मीय थे. उनसे कभी भी और किसी भी प्रसंग पर निस्संकोच बात की जा सकती थी. सबको वे अपने प्रिय और करीबी सम्पादकलगते थे लेकिन उनका कोई ग्रुप या खास लोग नहीं थे. दो ऐसे मौके आये जब उन्होंने मुझे चंद रोज के लिए निलम्बित करने का आदेश दिया. एक बार मेरी लापरवाही थी. दूसरी बार मामला कर्मचारी यूनियन से जुड़ा था.

आज  इस तथ्य की ओर भी मेरा ध्यान जाता है कि माथुर जी हमारे सरनहीं थे. मेरे पहले सम्पादक अशोक जी भी हमारे सर नहीं थे. बाद के सम्पादक पता नहीं  कैसे सरहो गये और सिर पर सवार बॉसबन गये. माथुर जी हम सब के लिए माथुरजीया सम्पादक जीथे. हममें से कोई उनके पैर नहीं छूता था, न ही वे किसी को अपने पैर छूने देते थे. उनमें प्रधान सम्पादकहोने का कोई अहं या अकड़ दूर-दूर तक नहीं थे, जैसा हमने बाद के ज्यादातर प्रधान सम्पादकों और स्थानीय सम्पादकों में देखा. स्वतंत्र भारतमें अशोक जी का आदेश था कि जब भी वे सम्पादकीय डेस्क पर आएं तो कोई भी अपनी कुर्सी से खड़ा नहीं होगा. माथुर जी के लखनऊ दफ्तर आने पर एक बार उनके सम्मान में हम खड़े भले हो जाते लेकिन फिर बातचीत और व्यवहार दोस्ताना ही होते. सहज-स्वाभाविक सम्मान का रिश्ता, जिसमें डरकहीं नहीं होता था. मुझे लगता है, बाद के सम्पादक जैसे-जैसे प्रखरता, बौद्धिकता और सम्मान खोते गये, वैसे-वैसे सरया बॉसका आतंकी आवरण ओढ़ते गये.  

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वैचारिक रूप से राजेंद्र माथुर की बनावट बहुत उदार थी. लिखते वे गाय और गोरक्षा पर भी थे लेकिन आरएसएस वाली गोरक्षा एवं देश में गायों की हालात के कटु आलोचक थे. तंज में वे लिखते थे कि आरएसएस के हर सदस्य को दो गाय पालना जरूरी कर देना चाहिए. भारतीय इतिहास और उसकी प्रवृत्तियों का उन्होंने गहरा अध्ययन किया था. अपने बहुत सारे तर्क और उदाहरण वे इतिहास से लेते थे. नेहरू-गांधी की कांग्रेस और उसकी अखिल भारतीयता से वे बहुत प्रभावित थे और इस राष्ट्र-राज्य के लिए कांग्रेसी-दृष्टि को अनिवार्य मानते थे. (नेशन-स्टेट के लिए राष्ट्र-राज्य लिखना शायद उन्होंने ही शुरू किया था) कांग्रेस के बार-बार टूटने को उसके परिष्कार के लिए जरूरी घोषित करते थे, इसीलिए जनता पार्टी और जनता दल जैसे प्रयोगों का स्वागत करते थे. इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी और अपने चंद बड़े फैसलों से कदम वापस खींच लेने वाले राजीव गांधी के वे कटु आलोचक हो गये थे. उन दिनों अपने लेखों में वे यह वकालत करते थे कि कांग्रेस में इतना विश्वास पैदा हो जाए कि वह राजीव गांधी के अलावा अपना दूसरा नेता चुन सके.

1989 के बाद देश की राजनीति में जो कुछ घटा उस पर उन्होंने देवीलाल को इस देश की महाविपदा कहने का साहस किया था. देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर उनकी आस्था अटूट थी. अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने के भाजपाई आंदोलन के वे सख्त खिलाफ थे. 1988-89 से उनके लेखन की धार साम्प्रदायिकता के खिलाफ बहुत पैनी हो गयी थी. लालकृष्ण आडवाणी की राम-रथ-यात्रा के कारण जो साम्प्रदायिक माहौल उन दिनों बन रहा था, उस पर लखनऊ में सम्पादकीय विभाग की बैठक में उन्होंने साफ निर्देश दिया था कि सर्कुलेशन 10-15 हजार गिर भी जाए तो कोई चिंता नहीं लेकिन हमें देश टूटने की कीमत पर अखबार नहीं बेचना.” 1992 में बाबरी मस्जिद-ध्वंस का धिक्कार लिखने के लिए वे जीवित नहीं थे.

कभी-कभी हमें आश्चर्य होता था कि नवभारत टाइम्स में उनके पसंदीदा पत्रकारों में ज्यादातर आरएसएस और भाजपा से घनिष्ठ रूप से जुड़े थे. नभाटा, लखनऊ में पहले दोनों स्थानीय सम्पादक रामपाल सिंह और नंदकिशोर त्रिखा एवं जयपुर तथा पटना के प्रारम्भिक स्थानीय सम्पादक दीनानाथ मिश्र संघ से घनिष्ठ रूप में  सम्बद्ध थे. सूर्यकांत बाली को नभाटा में वे ही ले कर आये थे. दूसरी तरफ, वे विष्णु खरे को भी बहुत पसंद करते थे. उन पर पूरा भरोसा करते हुए ही उन्होंने खरे जी को संकट के दिनों में लखनऊ नभाटा का स्थानीय सम्पादक बना कर भेजा था. एस पी सिंह को नभाटा में लाने और अपना नम्बर दो बनाने वाले भी वही थे. एस पी की कार्यशैली और पसंद-नापसंद माथुर जी से बहुत भिन्न थी. एस पी सिंह को कार्यकारी सम्पादक बना देने के बाद वे हंसते हुए बताते थे- कुछ लोग कहते हैं कि एस पी को लाकर मैंने अपनी कुर्सी के नीचे बम रख लिया है. मैं कहता हूं कि बम रखने वाला जानता है कि वह कब फटेगा.उनका मासूम-सा प्रश्न होता था कि एक अखबार में अच्छा सम्पादक हो सकने वाले दस-दस व्यक्ति क्यों नहीं होने चाहिए.

उनकी दृष्टि व्यापक और उदात्त थी. अपने विरोधी-विचार का वे स्वागत करते थे लेकिन सम्पादकों-पत्रकारों की भाषा-निष्ठा, बौद्धिकता व व्यावहारिकता पर बहुत ध्यान देते थे. हिन्दी में नये शब्द गढ़ने में रुचि लेते. भाषा उनकी अत्यंत प्रवहमान और चमत्कारिक है जो पाठकों को जादू की तरह बांध लेती है.

अंग्रेजी से गलत अनुवाद के कारण हिंदी अखबारों की भाषा में सर्वव्याप्त विकार उन्हें हंसाता लेकिन विचलित करता था. सामने रखे अखबार को पढ़ते हुए वे उसे कलम से रंगते चले जाते और जरूरी काम छोड़ कर खबरों की भाषा पर धुआंधार व्याख्यान देने लगते. बच्चे के रोने की तरह बीच-बीच में प्रसंग भूल कर फिर-फिर उसी पर लौट आते. किसी भी अखबार में छोटे-छोटे सरल वाक्यों में लिखी खबर पढ़ने को मिलती तो तुरंत निशान लगा कर अनुकरणीयलिख कर लखनऊ भेज देते. तो भी, अपने मित्र, जनसत्ता के सम्पादक प्रभाष जोशी की तरह समाचारों के लिए एक विशिष्ट लेखन-शैली का आग्रह उन्होंने नहीं किया. जनसत्ता ने उन्हीं दिनों छोटे-छोटे वाक्यों में खबर लिखने की बहुत सरल, बोलचाल वाली शैली विकसित की थी, जो बहुत पसंद की गयी.

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टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे व्यापारिक घराने के अखबार के प्रधान सम्पादक के रूप में उन्होंने समझौते नहीं किये होंगे, ऐसा कैसे कहा जा सकता है. टाइम्स का यह वह दौर था जब पिता अशोक जैन के हाथों से कम्पनी की बाग़डोर लेकर युवा समीर जैन पत्रकारिता को भारी मुनाफा देने वाले उद्यम में बदल रहे थे. उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हमारे अखबारों को अब मिशनरी भूमिका छोड़नी होगी. नवभारत टाइम्स का क्षेत्रीय विस्तार भी हिंदी के बढ़ते बाजार और मुनाफे की बड़ी सम्भावनाओं की दृष्टि से ही किया जा रहा था. सम्पादकीय स्वतंत्रता की पुरानी टेर लगाने और विज्ञापन अथवा मुनाफे की चर्चा को निषिद्ध मानने वाले सम्पादकों की छुट्टी की जा रही थी. उसी दौरान दिनमानसे रघुवीर सहाय और टाइम्ससे गिरिलाल जैन जैसे सम्पादकों को अपमानजनक हालात में रुखसत होना पड़ा था.

उस दौर में राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक के रूप में चमक रहे थे तो जाहिर है कि उन्होंने प्रबंधन से कोई टकराव न लेकर पत्रकारिता के बर्तन-भाण्डे चमकाने और उसे नई दृष्टि देने में ही अपनी प्रतिभा और ऊर्जा लगायी. राजनैतिक गलियारों में घूमने और सम्पर्क बनाने में उन्हें कोई दिलचस्पी थी नहीं. उनके समकालीन ज्यादातर सम्पादक-पत्रकार राजनैतिक नेताओं-मंत्रियों से सम्बंध बना कर रखते थे. यहां तक कि प्रभाष जोशी के भी कई बड़े नेताओं-मंत्रियों से करीबी रिश्ते थे और सत्ता की जोड़-तोड़ में भी वे कभी शामिल हो जाते थे, लेकिन माथुर जी ने नेताओं से रिश्ते बनाने-बढ़ाने में कोई रुचि नहीं रखी या इस मामले में वे नितांत अव्यावहारिक थे.

हमने सुना था कि बैनेट कोलमैन कम्पनी के एक कार्यक्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर के देर से पहुनचने पर माथुर जी कोई ऐसी टिप्पणी कर बैठे थे जो प्रधानमंत्री को नागवार गुजरी थी. माथुर जी खुद भी शायद उस टिप्पणी के लिए परेशान रहे थे. एक बार लखनऊ के राज्य अतिथि गृह में कांग्रेस विधायक नरेश चंद्रा की जबरिया मेजबानी में वे बहुत बोर हो रहे थे. हमें आते देख कर उन्होंने राहत की सांस ली और उस दिन के अखबार की समीक्षा शुरू करके विधायक जी से मुक्ति पायी थी.

उनकी सतत चिंता का केंद्र पत्रकारिता और उसके विविध औजार ही थे या फिर इस राष्ट्र-राज्य की सैद्धांतिक चीर-फाड़ उन्हें प्रिय थी. प्रबंधन उनकी इस नाकाबिलियत को समझता ही होगा. इसलिए नभाटा की बौद्धिक छवि निखारने में ही उनका इस्तेमाल किया गया. इस मामले में उनका कोई सानी था भी नहीं.

लखनऊ संस्करण के शुरुआती दिनों में वे उसमें धारदार राजनैतिक खबरें और विश्लेषण छपे देखना चाहते थे. कई बार उन्होंने उसकी कमी पर चिंता भी जाहिर की थी. बल्कि, उन्होंने हमारे राजनैतिक ब्यूरो की नाराजगी के बावजूद संतोष भारतीय से कुछ राजनैतिक खबरें लिखवाईं और उन्हीं के नाम से छापीं. संतोष उन दिनों कलकता से प्रकाशित रविवार के लिए लखनऊ से तेज-तर्रार  रिपोर्टिंग कर रहे थे. मगर बाद के दिनों में माथुर जी ज्यादा व्यावहारिक या अत्यंत सावधान होते गये. यहां एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा.

तब तो हमें कुछ मालूम नहीं पड़ा था, लेकिन बहुत बाद में विभूति नारायण राय के लेख से पता चला कि हाशिमपुरा काण्ड में हिरासत में हत्याओं की बड़ी खबर सबसे पहले उन्होंने नवभारत टाइम्स के सम्वाददाता अरुण वर्धन के माध्यम से राजेंद्र माथुर तक पहुंचायी थी. पहले इस खबर से बहुत उत्साहित दिखे माथुर जी ने अंतत: एक-दो वरिष्ठ सहयोगियों से सलाह के बाद उसे नहीं छापने का फैसला किया था. पत्रकारिता के लिहाज से वह स्कूपथा. 1987 के साम्प्रदायिक दंगों में मेरठ के हाशिमपुरा में पुलिस-पीएसी ने 42 निर्दोष मुसलमानों को एक नहर किनारे ले जाकर गोलियों से मार डाला और लाशें बहा दीं. श्री राय तब गाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक थे. उन्हें न केवल इसकी खबर लगी बल्कि वे घटनास्थल के दिल दहलाने वाले हालात के गवाह भी बने. नवभारत टाइम्समें चार दिन तक खबर नहीं छपने पर उन्होंने इसे चौथी दुनियाको बताया, जिसने इसे बढ़िया ढंग से प्रकाशित करके निर्दोष लोगों के हत्यारे पुलिस-पीएसी वालों को कटघरे तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

राजेंद्र माथुर ने यह बड़ी और अत्यंत महत्वपूर्ण खबर क्यों नहीं छापी होगी, इसके विश्लेषण में विभूति जी लिखते हैं- “मैंने उन्हें (माथुर जी को) जानने वाले और उनके साथ काम करने वाले कई लोगों से बातें की हैं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने उन्हें सांप्रदायिक बताया हो. फिर क्यों वे इतनी बड़ी और जघन्य वारदात को पचा गये?... मेरे मन की यह जिज्ञासा आज तक अनुत्तरित ही है कि कहीं राजेन्द्र माथुर भी उस समय उठने वाली सांप्रदायिकता की उद्दाम लहरों में बह तो नहीं गये थे?अरुण वर्धन ने श्री राय को जो बताया था उसके अनुसार “माथुर जी का संकेत था कि इस तरह की खबरें छापने से पीएसी जैसी संस्थाओं का मनोबल टूटेगा और पहले से बंटा समाज और अधिक बंटेगा.”

अपने करीब नौ साल के कार्यकाल में वे नभाटा को अपने सपने के अखबार जैसा या उसके करीब नहीं बना सके थे, हालांकि उसका कायाकल्प अवश्य हो गया था. शुरू में अपने क्षेत्रीय संस्करणों, लखनऊ, जयपुर और पटना के लिए वे ज्यादा उत्साहित रहते थे. नई दुनिया और नभाटा के प्रकाशन-संस्थानों की भीतरी बुनावट के फर्क जान लेने के बाद उन्होंने धैर्य धारण कर लिया था. इसी कारण उनका कार्यकाल विवाद रहित रहा और लगता था कि वे नभाटा में लम्बी पारी खेलेंगे. कहा भी करते थे कि मैं हर तिमाही नभाटा से अपने जाने की अफवाहें सुनता हूं लेकिन यह आदमी के सिर पर कौव्वा बैठने जैसा है, जिससे कहते हैं कि उस आदमी की उम्र बढ़ जाती है.

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मैं जिक्र कर चुका हूँ कि नभाटा, लखनऊ का शुरुआती दौर रचनात्मक ऊर्जा से भरा था. पूरी टीम बहुत सक्रिय और समर्पित थी. स्थानीय सम्पादक रामपाल सिंह चेताते भी थे कि थोड़ा संतुलन बनाये रखना चाहिए. कभी-कभी हमें लगता था कि वे हमें खुलकर खबरें नहीं छापने देते. हमने कुछ तेज-तर्रार, पोल-खोलू खबरें उनके घर चले जाने के बाद उन्हें बताये बिना छापीं. 1984 के विधान सभा चुनाव का एक वाकया आज भी रोमांचित करता है. रिपोर्टर शैलेश कुमार और फोटोग्राफर संजीव प्रेमी की टीम मतदान के कवरेज के लिए अमेठी गयी थी. अमेठी के राजकुमारसंजय सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे खुल्लम-खुल्ला अपने लिए वोट छपवाते हैं, यानी कि बूथों पर कब्जा करके उनके लोग मतपत्रों पर उनके चुनाव चिह्न पर मोहर लगाते हैं.

शैलेश कुमार और संजीव प्रेमी की टीम को अमेठी में सचमुच यह दृश्य दिखा. चारपाई पर बैठ कर लूटे मतपत्रों पर मोहर लगाते लोगों के कई फोटो संजीव प्रेमी खींच लाये थे. शैलेश ने विस्तार से आंखों देखा हाल लिखा. हमें लगा कि रामपाल जी इस खबर को छापने की इजाजत शायद नहीं देंगे या कुछ दबाने को कहेंगे. उन दिनों प्रमोद जोशी, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद नकवी और मेरा एक गोल जैसा बना हुआ था. हमने तय किया कि इस खबर को स्थानीय सम्पादक को बताये बिना उनके घर जाने के बाद देर रात पेज पर लगाया जाएगा. रामपाल जी हम लोगों पर भरोसा करते थे और नौ बजे तक घर चले जाते.

अमेठी में बूथ लूटने और जबरिया मतदान की यह खबर नभाटा, लखनऊ ने पहले पेज पर बैनर में सचित्र छापी. देर रात नगर संस्करण में ही इसे लगाया और अखबार छपने तक हम प्रेस में डटे रहे. सुबह अखबार की  खूब चर्चा और विक्री हुई. प्रसार और प्रबंधन टीम ने बधाई दी. रामपाल जी सिर्फ इतना ही बोले थे- बता तो देते पण्ड्डी जी.वे हमारी चौकड़ी को इसी नाम से बुलाते थे. हमने जोश में लेकिन अच्छी नीयत से ऐसी कुछेक हरकतें और भी कीं. कहना नहीं होगा इसके पीछे माथुर जी का भरोसा ही था. कोई खबर या फोटो क्यों छापा गया, इस पर टीम से कभी पूछताछ हुई भी नहीं. बल्कि, एक बार वे कह गये थे कि सरकार की तरफ से शिकायत आती रहती है तो लगता है कि काम ठीक हो रहा है.

1987 से नभाटा के तीनों नये प्रांतीय संस्करण कई कारणों से अस्थिर होने लगे थे. समीर जैन की चतुर व्यावसायिक रणनीतियां पूरी कम्पनी में हाला-डोला, विशेष रूप से सम्पादकीय अस्थिरता मचाए हुए थीं. माथुर जी ने देश भर से प्रतिभाएं चुन कर सबको समान पद पर नियुक्त करने का प्रयोग किया था. उन सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं सिर उठाने लगीं थीं. गुटबाजी और प्रतितिद्वंद्विता बढ़ी. नभाटा, दिल्ली और मुम्बई की तुलना में अलग कम्पनी और कमतर वेतन ने लखनऊ में आक्रामक यूनियनबाजी को जन्म दिया. नभाटा, लखनऊ 1984-87 के दौर में गुणवत्ता और प्रसार में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करने के बाद ठहर-सा गया था. मार्च 1991 में लम्बी हड़ताल और तालाबंदी के बाद फिर हालात सामान्य नहीं हो सके. उसके बाद एक-एक करके लखनऊ, जयपुर और पटना संस्करण बंद कर दिये गये. माथुर जी वे दिन देखने के लिए जीवित नहीं थे.

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मई 1986 की एक दोपहर नभाटा, पटना के स्थानीय सम्पादक दीनानाथ मिश्र के कक्ष में राजेंद्र माथुर अपने प्रिय मित्र, व्यंग्यकार शरद जोशी के साथ बैठे थे. मुझे माथुर जी ने पटना संस्करण की तैयारियों, खासकर उसके मॉड्यूलर ले-आउट में सहायता के लिए पटना भेजा हुआ था. बातचीत नभाटा के प्रथम अंक के लोकार्पण कार्यक्रम के बारे में हो रही थी. माथुर जी ने शरद जोशी को उसी अवसर के लिए विशेष रूप से पटना बुलवाया था. उनकी योजना थी कि लोकार्पण कार्यक्रम में शरद जोशी का व्यंग्य-पाठ हो. शरद जी संकोच में थे और कह रहे थे कि हास्य-व्यंग्य कवि गोष्ठियां तो खूब चलती हैं लेकिन कहीं पटना में गद्य-व्यंग्य-पाठ हूट न हो जाए. माथुर जी को लगता था कि यह नया प्रयोग पटना में पसंद किया जाएगा. नभाटा में शरद जोशी का नियमित व्यंग्य कॉलम प्रतिदिनमाथुर जी ने ही  शुरू कराया था जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ था. वे कहा करते थे कि शरद जोशी जैसे व्यंग्यकार से रोजाना व्यंग्य कॉलम लिखवाने का विचार किसी और अखबार या सम्पादक को अब तक क्यों नहीं आया.

खैर, विमोचन की संध्या शरद जी के व्यंग्य-पाठ के कारण पटना में खूब पसंद की गयी और चर्चित हुई. मैं प्रेस में अंक की तैयारी में लगे होने के कारण कार्यक्रम में नहीं जा सका था लेकिन जो भी वहां गया बहुत आनंदित होकर लौटा था. खुद शरद जोशी बहुत प्रसन्न हुए थे. उसी कार्यक्रम से लौट कर उन्होंने बिहार जाकर नरभसाय गयाजैसा बहु-पठित रोचक आलेख लिखा था.

तो, उस दोपहर लोकार्पण कार्यक्रम की रूपरेखा तय हो जाने के बाद बात अचानक सुनील गावस्कर के क्रिकेट से संन्यास लेने की चर्चाओं पर टिक गयी थी. हास-परिहास के बीच शरद जोशी कह रहे थे कि गावस्कर को अपनी खूब छीछालेदर कराने के बाद रिटायरमेण्ट लेना चाहिए. फिर माथुर जी से उन्होंने पूछा था- रज्जू बाबू, आप बताओ कि रिटायरमेंट लेने का सही समय क्या होना चाहिए?’

नभाटा का तीसरा प्रांतीय संस्करण (लखनऊ, जयपुर और पटना. मुम्बई संस्करण बहुत पहले से था) शुरू कराने से प्रफुल्लित माथुर जी अचानक गम्भीर हो गये थे. कहने लगे- तीनों संस्करण जम जाएं और हरेक कम से कम 50-60 हजार बिकने लगे तो इसे मैं अपनी सफलता मानूंगा. तब मैं रिटायरमेण्ट ले सकता हूं.

फिर जैसा कि उनकी आदत थी, हर बात को दार्शनिक स्तर तक ले जाने की, बोले- एक बल्लेबाज के लिए रिटायरमेण्ट का इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है कि वह एक ओवर में छह छक्के उड़ाए और बल्ला रख दे.

नौ अप्रैल 1991 की सुबह जब वे इस दुनिया से रिटायर हुए तो पत्रकारिता की पिच पर छक्के ही उड़ा रहे थे. सिर्फ 55 वर्ष की आयु पायी उन्होंने और बिल्कुल अचानक ही चल दिये. मौत भी कैसी!  कुछ सर्दी-जुकाम-जकड़न जैसी शिकायत लेकर मुहल्ले के किसी होमियोपैथ के पास गये. वहां पहले से कुछ मरीज रहे होंगे तो बेंच पर बैठ गये. बारी आने से पहले उसी बेंच पर छटपटाये और उनके प्राण उड़ गये. दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ा था.

बैनेट-कोलमैन कम्पनी के मालिकों की तरह सभी को यह अफसोस रहा कि वे एक फोन भी कर देते तो देश-दुनिया का बेहतरीन इलाज उन्हें मिल सकता था. किंतु पत्रकारिता से अपने लिए उन्होंने कुछ भी अतिरिक्त या विशेष चाहा ही कब था. जो दे सके, पत्रकारिता को दिया, उससे लिया कुछ नहीं.

नभाटा, लखनऊ में तब लम्बी हड़ताल के कारण तालाबंदी थी. देश के तमाम हिंदी-अंग्रेजी अखबारों ने उन्हें बहुत आदर सहित श्रद्धांजलि दी. उनका प्रिय संस्करण शोक भी व्यक्त नहीं कर पाया. चार दिन बाद मित्र मनोज तिवारी के सहयोग से स्वतंत्र भारत’, लखनऊ में उन पर मेरा स्मृति-लेख प्रकाशित हो सका, जिसका शीर्षक था- “छक्के उड़ाते हुए रिटायर.”

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सत्तर के दशक से व्यावसायिकता के बढ़ते दौर में हिंदी पत्रकारिता का एक समर्पित, विवेकशील स्कूल पहले अज्ञेय और फिर रघुवीर सहाय ने दिनमानके माध्यम से बनाया था. उसके बाद क्रमश: विवेकहीन होते टीवी न्यूज चैनलों से पहले की हिंदी पत्रकारिता राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के कारण सम्मानित और गरिमामय बनी रही. प्रभाष जोशी की पत्रकारिता के कतिपय विचलनों की चर्चा होती है लेकिन राजेंद्र माथुर ने अपनी चदरिया बिल्कुल साफ-सुथरी रखी

उस दौरान नई दिल्ली के बहादुर शाह ज़फर मार्ग के दो पड़ोसी-भवनों में बैठने वाले हिंदी के दोनों सम्पादकों, राजेंद माथुर और प्रभाष जोशी के अखबारों, उनके लेखों  और उनके मार्गदर्शन पर पूरी पत्रकार बिरादरी की नजर रहती थी. संयोग से दोनों एक ही (मध्य) प्रदेश के एक ही अंचल से पत्रकारिता के राष्ट्रीय क्षितिज पर चमके थे. दोनों ने ही इंदौर के नई दुनियासे पत्रकारिता शुरू की थी और राहुल बारपुते के संसर्ग में हिंदी अखबारों के वास्ते बड़े सपने देखे थे. दोनों को राष्ट्रीय स्तर पर बड़े अवसर मिले और दोनों ने उन अवसरों का शानदार उपयोग कर पत्रकारिता को अपना सर्वोत्तम दिया. राजेंद्र माथुर शिखर पर थे जब अचानक इस दुनिया से विदा हुए. प्रभाष जोशी जनसत्तासे रिटायर होने के बाद भी अंतिम सांस तक पत्रकारिता में सक्रिय रहे.

इन सम्पादकों ने पत्रकारों की एक बड़ी पीढ़ी को तैयार और प्रभावित किया. वह पीढ़ी अब वानप्रस्थ में है. हिंदी पत्रकारिता के रेगिस्तान में अब सिर्फ कुछ नखलिस्तान बचे हैं. 

-नवीन जोशी   

('अकार', जून 2019 में प्रकाशित)