“....वे
ही युवा पत्रकार आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकते हों और जिन्हें खबरों की
सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.”
यह उस विज्ञापन वह वाक्य है जिसने हमें 1983 के मध्य महीनों
में सबसे ज्यादा रोमांचित एवं आकर्षित किया था, जिसे
मैं आज 34 वर्ष बाद भी भूला नहीं हूं. हम सचमुच बहुत उत्साह और सपनों से भर उठे
थे. आवेदन करने में हमने कोई देर नहीं की थी. ‘नवभारत
टाइम्स’ के लखनऊ से भी प्रकाशित होने की खबरें साल-दो साल से चर्चा
में थीं. हमें बेसब्री से इंतजार रहता था कि कब नवभारत टाइम्स लखनऊ आये और हम
उसमें काम करें. इस तमन्ना का कारण थे राजेंद्र माथुर जो 1982 में नवभारत टाइम्स
के प्रधान सम्पादक होकर नई दिल्ली आ गये थे.
राजेंद्र माथुर का हमने सिर्फ नाम सुना था.
‘नई दुनिया’ के सम्पादक और लेखक के रूप में यह नाम चर्चा में खूब आता
था. अगस्त, 1977 में जब मैंने ‘स्वतंत्र
भारत’ लखनऊ में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार काम करना शुरू किया,
तब पत्रकारिता और अखबारों से कोई खास वास्ता नहीं था. कहानी-कविता-लेख लिखने
में रुचि थी और यही रुचि एक दिन अचानक पत्रकारिता में ले आयी. ‘दिनमान’
नियमित पढ़ता था और उससे बहुत प्रभावित था.
उस समय ‘स्वतंत्र भारत’ में
आगे-पीछे कई युवा पत्रकारों की भर्ती हुई थी. जोश और जज्बे से भरे हमें अपना
सम्पादकीय विभाग, चाय के ढाबे और किताबों-पत्रिकाओं के अड्डे बहुत आत्मीय और
पवित्र लगा करते थे. सम्पादकीय विभाग में आने वाली डाक पर हम स्वत: टूट पड़ते.
चिट्ठियां, दूर-दूर से आने वाले अखबार और पत्रिकाएं, आदि
खोल डालते थे, जिन्हें तरतीब से लगा कर सम्पादक अशोक जी की मेज पर रखने की
जिम्मेदारी सहायक घसीटे जी या फूलचंद की होती थी. फूलचंद हमारी हरकतें देख कर मूंछों
में मुस्कराते थे लेकिन बुजुर्ग घसीटे जी नाराज होकर कभी डांट भी देते.
डाक के उसी ढेर में आता था इंदौर का अखबार ‘नई
दुनिया’ जो हमें अपनी साफ-सुथरी साज-सज्जा, बेहतर
छपाई के अलावा खबरों के चयन, शीर्षक और कई लेखों-टिप्पणियों के लिए भी बहुत भाता था. ‘नई
दुनिया’ को हम जरूर खोल कर देखते-पढ़ते. राहुल बारपुते इसके प्रधान
सम्पादक थे और राजेंद्र माथुर उनके सहयोगी सम्पादक. उनसे पहला लगाव इसी कारण हुआ
था. हम तभी से ‘नई दुनिया’ में काम करने का सपना देखने लगे थे. उस समय कई अखबार
सम्पादक के नाम से ही जाने जाते थे. अशोक जी का ‘स्वतंत्र
भारत’, गिरिलाल जैन का ‘टाइम्स ऑफ
इण्डिया’, राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर का ‘नई
दुनिया’, आदि.
तो, सन 1983 में ‘नवभारत
टाइम्स’ के लखनऊ संस्करण में पत्रकारों की भर्ती के लिए विज्ञापन
प्रकाशित होते ही हमारी खुशी ऐसी थी जैसे कि उसमें हमारा चयन हो गया हो. उस
विज्ञापन की भाषा-शैली अपने-आप में अनोखी थी. ‘स्फटिक-सी
भाषा लिख सकने’ और ‘खबरों की सुदूर गंध से भी उत्साह और सनसनी से भर जाने वाले
युवा पत्रकारों’ की तलाश की यह दृष्टि माथुर जी के अलावा और किसकी हो सकती
थी. छोटा-सा विज्ञापन खुद उन्होंने लिखा था, यह
बाद में स्पष्ट भी हो गया.
यह वह दौर था जब हिंदी पत्रकारिता महत्त्वपूर्ण करवट ले रही
थी. राजधानी दिल्ली के बड़े घरानों के हिन्दी अखबार प्रांतीय राजधानियों का रुख कर
रहे थे. प्रांतीय अखबार अपनी पकड़ मजबूत करने के प्रयास में नये संस्करण खोल रहे थे.
इण्डियन एक्सप्रेस समूह प्रभाष जोशी के सम्पादन में हिंदी का नया अखबार ‘जनसत्ता’
निकालने की तैयारी में था. कम्पोजिंग और छपाई की पुरानी टेक्नॉलॉजी की जगह
फोटो-कम्पोजिंग और फोटो-ऑफ़सेट मशीनें ले रही थीं. नयी नजर से लैस
पत्रकारों-सम्पादकों की नईं पीढ़ी उभर रही थीं.
बहरहाल, आवेदनों की सतर्क छंटाई के बाद ‘नवभारत
टाइम्स’ के लिए माथुर जी ने लखनऊ में लिखित परीक्षा ली. समाचार
एजेंसी ‘वार्ता’ से हिंदी समाचार की एक अनगढ़ कॉपी, एक
अंश अंग्रेजी से अनुवाद, एक स्वतंत्र टिप्पणी-लेखन और कुछ सामान्य प्रश्नों की यह
परीक्षा देना अनिवार्य था, कोई कितना ही वरिष्ठ क्यों न हो. कुछ समय बाद ऐसी ही लिखित
परीक्षा नई दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस भवन में प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’
के लिए ली. उसमें भी किसी को छूट नहीं थी. मेरे साथ ‘जनसत्ता’ की
लिखित परीक्षा देने वालों में मंगलेश डबराल जैसे कुछ वरिष्ठ लेखक-कवि-पत्रकार भी
थे. मंगलेश जी उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत
प्रभात’ का रविवारीय परिशिष्ट सम्पादित करते थे और प्रभाष जी के साथ
पहले भी काम कर चुके थे. कहने का आशय यह कि राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने
अपनी-अपनी टीमें बड़ी पारदर्शिता और समान मापदण्ड से चुनी थीं.
कुछ साथी दोनों सम्पादकों की परीक्षा में चुन लिए गये थे.
मंगलेश जी ने ‘जनसत्ता’ जाना तय किया लेकिन हमने राजेंद्र माथुर के साथ काम करने की
ललक से ‘नवभारत टाइम्स’ चुना. प्रभाष
जोशी के बारे में तब हम ज्यादा जानते न थे, हालांकि
जिस तरह उन्होंने इण्टरव्यू लिया था उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मगर जब प्रभाष
जी ने चयन की सूचना के साथ वेतन-भत्तों पर बातचीत के लिए दिल्ली आने का पत्र भेजा
तो मैंने सविनय लिख भेजा कि फिलहाल मेरी पारिवारिक स्थितियां दिल्ली रहने की
अनुमति नहीं देतीं. बड़ी वजह यह थी कि मन में राजेंद्र माथुर की टीम का हिस्सा बनने
की ललक थी.
माथुर जी लखनऊ ‘नभाटा’ के
लिए अपने टीम-चयन से खुश थे और कहते थे कि मैंने हिंदी पत्रकारिता की क्रीम चुनी
है. एक अफसोस का जिक्र वे काफी दिनों तक करते थे कि लखनऊ में जयप्रकाश शाही और
पटना में सुरेंद्र किशोर ‘नवभारत टाइम्स’ (नभाटा) में
क्यों नहीं आये. इन दोनों ने ‘जनसत्ता’ को चुना था.
14 नवम्बर, 1983 को ‘नभाटा’ लखनऊ का पहला अंक (कतिपय कानूनी कारणों से एक अंक 17
अक्टूबर को प्रकाशित करने की औपचारिकता निभा ली गयी थी) निकालने की रात कभी नहीं
भूलती. राजेंद्र माथुर देर रात पहला अंक छपने तक अपनी टीम के साथ दफ्तर और प्रेस
में मौजूद रहे. अद्भुत उत्साह था. उसी दिन अयोध्या में चौदह कोसी परिक्रमा करने
वाले कुछ यात्रियों को एक ट्रेन ने कुचल दिया था. वही लीड खबर थी. कम्प्यूटर पर
खबर की कम्पोजिंग होती थी. फिर डार्क रूम से फोटो ब्रोमाइड पेपर पर अखबार के
कॉलम-साइज में उसके प्रिण्ट निकलते थे. पेस्टिंग रूम में डिजायनर/पेस्टर उन्हें
हमारे बताये ले-आउट के हिसाब से पेज पर पेस्ट करते थे. खबरों-तस्वीरों की
उखाड़-पछाड़ भी करनी पड़ती थी. डिजायन के हिसाब से रूल और बॉक्स खींचने पड़ते थे. इस
सब में काफी समय लग जाता था. उस रात माथुर जी पेस्टिंग रूम में अखबार पूरा तैयार
होने तक हमारे साथ खड़े रहे थे.
उन दिनों अखबार के पेज तैयार होने के बाद छपने के लिए मशीन
में चढ़ाने तक फिर एक लम्बी तकनीकी प्रक्रिया होती थी. इसमें भी एक-डेढ़ घण्टा लग
जाता था. सम्पादकीय साथियों के लिए यह समय दफ्तर के बाहर चाय के ढाबे पर अड्डेबाजी
का होता था. उस रात माथुर जी भी हमारे साथ भार्गव के ढाबे पर बैठे. नवम्बर की
रातों की ठण्ड थी. बुझा तन्दूर तब भी ताप दे रहा था. वहां
खड़े-खड़े हम सब ने चाय पी. इस पूरे समय माथुर जी नवयुवकों के से उत्साह से बातें
करते रहे थे. वे हमें ‘नई दुनिया’ के दिनों के बारे में बताते, हिंदी
पत्रकारिता और पत्रकारों की कमियों को इंगित करते और यह भी सुझाव देते कि हिंदी का
कौन-कौन-सा शब्दकोश देखना चाहिए, कि हॉर्नबी की अंग्रेजी डिक्शनरी से हम क्या-क्या सीख सकते
हैं, कि किस अंग्रेजी अखबार में क्या जरूर देखा जाना चाहिए.
देश और प्रदेश की राजनीति पर उनकी दार्शनिक टिप्पणियां भी होती रहती थीं. सारी
बातें सीधी-सीधी कहने की बजाय वे अक्सर नये-नये रूपकों से समझाने लगते थे,
जो उनकी लेखन-शैली की विशेषता है.
......
भार्गव के ढाबे से चाय खत्म करके माथुर जी अचानक कुछ कहे बिना
दफ्तर की तरफ चल दिये. हमने समझा शायद बाथरूम जा रहे होंगे. जब वे वापस नहीं लौटे
तो हम भी भीतर गये. देखा कि दुमंजिले के सम्पादकीय कक्ष के एक कोने में पड़े
पुराने अखबारों, बाहर से आने वाली डाक, आदि
के ढेर पर झुके माथुर जी कुछ तलाश रहे हैं. तब तक लाइब्रेरी की व्यवस्था नहीं हो पायी
थी. सारे अखबार, पत्रिकाएं, आदि एक कोने में ढेर किये जा रहे थे. इसी को माथुर जी
उलट-पुलट रहे थे.
-‘अरे, आप यहां क्या ढूंढ रहे हैं?’
-‘नई दुनिया आता है?’ उन्होंने
पूछा.
हम लोग पहले दिन से ही ‘नई
दुनिया’ मंगाया करते थे. उस ढेर में से ‘नई
दुनिया’ की एक प्रति तलाश कर मैंने उन्हें दी. उन्होंने तुरन्त
उसका अंतिम पृष्ठ पलटा, जहां प्रिण्ट लाइन, फोन
नम्बर, आदि छपे रहते हैं. उसे लेकर वे टेलीप्रिण्टर रूम की ओर बढ़
गये- ‘एक टेलेक्स करना है.’
हमने फौरन टेलीप्रिण्टर ऑपरेटर को सतर्क किया,
जो तब तक काम समेटने लगा था. माथुर जी ने वहीं खड़े-खड़े टेलीप्रिण्टर ऑपरेटर से
‘नई दुनिया’ के टेलेक्स नम्बर पर बोल कर एक संदेश लिखने को कहा-
“राहुल बारपुते, नरेंद्र
तिवारी और साथियों के नाम/ इंदौर का कर्ज लखनऊ में चुकाते हुए- राजेंद्र माथुर,
नभाटा, लखनऊ के
प्रथम प्रकाशन पर”
वह क्षण मैं कभी नहीं भूल सकता. वह मेरे लिए चमत्कृत होने
के साथ बहुत भावुक हो जाने का क्षण भी था. मैं एक ऐसे सम्पादक के सामने खड़ा था जो ‘नई
दुनिया’ की टीम के साथ 27 वर्ष तक गृहीत और विकसित की गयी
पत्रकारिता को उससे लिया गया कर्ज मानता था, ‘नवभारत
टाइम्स’ का प्रधान सम्पादक बनकर दिल्ली आते हुए उस कर्ज को साथ
लाया था और लखनऊ में उसी पत्रकारिता का नया पड़ाव डालते हुए,
उसी परम्परा में एक पौधा रोपते हुए उसे ‘इंदौर
का कर्ज चुकाना’ मान रहा था.
अद्भुत ही थी आधी रात के बाद नभाटा, लखनऊ
के टेलीप्रिण्टर रूम से की जा रही यह कर्ज-अदायगी. मैं नहीं जानता कि ‘नई
दुनिया’ के दफ्तर में उस रात यह संदेश पढ़ते हुए माथुर जी के पुराने
साथियों ने कैसा अनुभव किया होगा लेकिन अगली सुबह राहुल बारपुते और नरेंद्र तिवारी
निश्चय ही विगलित-प्रफुल्लित हो उठे होंगे.
तब तक भूतल से छपाई मशीन के चालू हो जाने का कम्पन महसूस
होने लगा था.
-‘चलिए, अखबार देखा जाए!’ माथुर जी ने पुलक
कर कहा और हम फटाफट सीढ़ियां उतर गये. मशीन के अलग-अलग टावरों से छपते पन्ने
क्रमवार लग कर, फ़ोल्डर से मुड़ और कटर से कट कर तरोताजा अखबार के ढेर में
जमा हो रहे थे. सुपरवाइजर ने एक प्रति ससम्मान माथुर जी को सौंप दी और फिर एक-एक
प्रति हमें. हमारी दिलचस्पी माथुर जी की प्रतिक्रिया जानने में थी.
वे पन्ने पलटते जाते और उनके चेहरे पर चमक आती जाती. दिल्ली संस्करण उन दिनों लाइनो
कम्पोजिंग में पुरानी मशीन पर छपता था. उसकी तुलना में लखनऊ में फोटो ऑफसेट प्रिण्टिंग
का स्तर बहुत सुंदर था. उन्होंने पूरी टीम को बधाई दी, सबसे
हाथ मिला कर.
उस प्रवेशांक के सम्पादकीय पेज पर पहला लेख माथुर जी ने
स्वयं लिखा था. अपने लेख को नई टेक्नॉलॉजी में
छपा देख कर वे बच्चों की तरह खुश हुए थे. बाद तक भी कहते थे कि मैं अपने छपे
लेख लखनऊ संस्करण में ही पढ़ता हूँ. सम्पादकीय पेज पर माथुर जी के लेख के नीचे दूसरा
लेख मेरा प्रकाशित हुआ था, अमृतलाल नागर और लखनऊ के सम्बंधों पर. प्रवेशांक के लिए
उन्होंने ही लिखने को कहा था. मशीन के शोर में बात करना मुश्किल था,
इसलिए मैंने माथुर जी को इशारे से
दिखाया कि आज मैं आपके साथ छपा हूं. वे हंसे और तत्काल जेब से कलम निकाल कर
उन्होंने मेरे हाथ में खुले अखबार के उस पन्ने पर अपने और मेरे नाम को जोड़ते हुए
हाशिये तक एक रेखा खींची. वहां पर लिखा- “पड़ोस का सुख!” उसके नीचे अपने हस्ताक्षर
करके अखबार मुझे सौंप दिया. उनका वह कौतुक भरा आशीर्वाद, वह
स्नेह मेरा कीमती खजाना है.
साथ में खड़े वरिष्ठ साथी प्रमोद जोशी के हाथ से भी उन्होंने
अखबार लिया और पहले पेज पर मत्थे के पास वही लाइनें लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दिये
जो थोड़ी देर पहले वे टेलेक्स से नई दुनिया की टीम के नाम भेज चुके थे- ‘इन्दौर
का कर्ज लखनऊ में चुकाते हुए.”
अखबारों की दुनिया की वह मेरे लिए अविस्मरणीय रात है. उसके
बाद से 2014 में नौकरी से रिटायर होने तक विभिन्न संस्थानों में अखबारों के दर्जन
भर नये संस्करण निकाले, दूसरे सम्पादकों के साथ और स्वयं सम्पादक की हैसियत से भी. मगर
वह रोमांच, वैसा रचनात्मक आनंद, वैसा
स्नेह और वैसा उत्साहवर्धन दुर्लभ ही रहा.
.....
राजेंद्र माथुर उस दौर में हिंदी पत्रकारिता के शिखर पर
चमकता हुआ नाम थे जो उसकी विविध ज्ञान-गरीबियों से युद्ध ठाने हुए थे,
उसे नया तेवर और कलेवर देने में लगे थे. वे हिंदी
पत्रकारिता की पुरानी धूल और चोला झाड़ कर उसे बदलते जमाने और विकसित हो रही तीसरी
दुनिया का आईना बनाना चाहते थे. हिंदी पत्रकारिता को वैश्विक न सही,
देश की भाषाई पत्रकारिता के उच्चतम स्तर तक लाना चाहते थे. वे पुरानी और
आधुनिक पत्रकारिता के सेतु भी बने हुए थे. पुराने का तिरस्कार न था लेकिन नये और
ऊंचे मानदण्डों की उत्कट अभिलाषा उनमें थी. ‘नवभारत
टाइम्स’ में आते ही उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को उसके ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में रखते हुए भविष्य के अपने नजरिये की रूप रेखा ‘टाइम्स
ऑफ इण्डिया’ में प्रकाशित अपने तीन लेखों की शृंखला में पेश कर दी थी.
यहां यह बता देना उचित होगा कि माथुर जी पत्रकारिता में पूरी
तरह आने से पहले इंदौर के एक कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे. सच तो यह है कि बी
ए के विद्यार्थी रहते ही उन्होंने नई दुनिया में वैश्विक विषयों पर ‘अनुलेख’
नाम से नियमित कॉलम लिखना शुरू कर दिया था. अंग्रेजी उन्होंने सायास सीखी थी
जबकि हिंदी उनके रग-रग में बसती थी. दोनों में उनकी कलम को महारत हासिल थी.
हिंदी-प्रेम के कारण हिंदी अखबारों की सूचना-दरिद्रता उन्हें
इतना पीड़ित करती थी कि वे बीस वर्ष की आयु में मित्र शरद जोशी की शह पर नई दुनिया
के प्रधान सम्पादक राहुल बारपुते से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखने के लिए कॉलम की
मांग कर बैठे थे. उस दिन जो रिश्ता बना वह 27 साल सांस्थानिक रूप से और उसके बाद
भी आजीवन जुड़ा रहा. इन्हीं बारपुते जी ने 1981 में एक दिन नई दुनिया के प्रधान
सम्पादक की अपनी कुर्सी पर राजेंद्र माथुर को बैठा दिया. बैनेट कोलमैन कम्पनी के
मालिकों ने जब हिंदी के अपने अखबार को प्रोफेशनली कामयाब बनाने की ठानी तो प्रधान
सम्पादक की उनकी खोज इंदौर की उसी कुर्सी पर जाकर पूरी हुई. हिंदी पत्रकारिता को
राहुल बारपुते की यह ऐतिहासिक देन साबित हुई. बारपुते जी पर माथुर जी का लम्बा
संस्मरणात्मक लेख इस प्रसंग के अलावा भी कई संदर्भों में उल्लेखनीय और पठनीय है.
बहरहाल, 1982 में जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक की कुर्सी
पर बैठे तो हिंदी पत्रकारिता का बुझा-बुझा, दयनीय
और लाचार चेहरा उन्हें परेशान करने लगा. इस बेबसी पर उन्होंने अपनी धारदार और
प्रभावशाली शैली में कई लेख लिखे और विभिन्न मंचों से व्याख्यान दिये. उनकी एक बड़ी
चिंता तब यह थी कि हिंदी के गृह प्रदेश ही में हिंदी पत्रकारिता की यह दशा क्यों
है? क्यों हिंदी के अखबार लाखों में नहीं बिकते?
हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या अंग्रेजी समाचारपत्रों से कहीं ज्यादा होने पर
भी वे कागज, पृष्ठ और विज्ञापन-सम्पन्न क्यों नहीं है?
हिंदी के पाठक को इतना सूचना-विपन्न क्यों रखा जा रहा है?
‘हिंदी अखबारों की बाजार-बाधा’ शीर्षक
लेख में उन्होंने लिखा था कि ‘हिंदुस्तान में पेट-गरीब लोगों से कई-कई गुणा ज्यादा लोग
सूचना-गरीब हैं.’ वे प्रश्न उठाते थे कि भारतेंदु हरिश्चंद्र,
प्रेमचंद, बाबूराव विष्णु पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे
सम्पादकों की धरती से एक भी राष्ट्रीय दैनिक या साप्ताहिक आज क्यों नहीं निकल रहा
है. जब वे ‘राष्ट्रीय-पत्र’ की बात कहते
थे तो उनका आशय निश्चय ही उसकी व्यापकता और अर्थवत्ता से होता था.
इसीलिए जब नवभारत टाइम्स, लखनऊ
के प्रकाशन की योजना बनी तो उनका उत्साह देखते ही बनता था. उस योजना का सम्पादकीय
हिस्सा उन्होंने प्रबंधकों पर तनिक भी नहीं छोड़ा. जिस उत्साह से उन्होंने अपनी टीम
चुनी, पत्रकारिता के जो स्वप्न उसे सौंपे और जिस तरह लखनऊ आ-आ कर
उसे प्रेरित किया, हम उसके साक्षी रहे. लखनऊ संस्करण के उद्घाटन-सम्पादकीय में
उन्होंने इसे ‘हिंदी पत्रकारिता की घर वापसी’ बताया
था. यह घर-वापसी इस मायने में थी कि बनारस भले उसका गढ़ रहा हो,
लेकिन वह जन्मी और फली-फूली कलकत्ता एवं चंद अन्य प्रदेशों के नगरों में.
प्रथम पृष्ठ के उस सम्पादकीय में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण
बात उन्होंने लिखी थी कि’नवभारत टाइम्स’ का लखनऊ आना
वहां के पुराने अखबारों का बाजार छीनना नहीं है, बल्कि
हिंदी पत्रकारिता का बाजार और स्तर बढ़ाना है. यह बात उन्होंने खूबसूरत रूपक में
कही थी. ‘आज से आपके बीच’ शीर्षक
सम्पादकीय में उन्होंने लिखा था कि पत्रकारिता का अपना कुआं हम गहरा खोदेंगे और जब
हमारे कुएं में पानी का स्तर ऊंचा उठेगा तो ऐसा हो नहीं सकता कि दूसरे कुओं का
पानी कम होने लगे. सभी कुओं में पानी का स्तर समान रूप से बढ़ेगा.’
प्रतिद्वंद्वी अखबारों के प्रति उनका इतना विराट और उदात्त दृष्टिकोण था. वे
सचमुच पूरी हिन्दी पत्रकारिता का स्तर ऊंचा उठा देखना चाहते थे.
......
हिंदी पत्रकारिता का एक विराट विजन अपने भीतर क्रमश: विकसित
करते और जतन से पालने के साथ व्यवहार में वे बहुत सरल और सहज उपलब्ध व्यक्ति थे,
विनम्र, उदार और विनोदी भी.
नभाटा का लखनऊ में पुराना कार्यालय नवल किशोर रोड पर मल
बिल्डिंग में था और नया कार्यालय राणा
प्रताप मार्ग पर लिया गया. नई टीम को मल बिल्डिंग से नये दफ्तर जाना है. माथुर जी सड़क
किनारे दफ्तर की एक मात्र जीप का इंतजार कर रहे हैं जो उस वक्त कहीं गयी हुई है. मुझे स्कूटर स्टार्ट करता देख वे आये और पीछे की
सीट पर बैठ गये हैं- ‘चलिए.’ एक सौ सीसी के उस नन्हे सेण्टो स्कूटर की पिछली सीट की
सवारी उन्हें भा रही है. एक-दो और मौकों पर उन्होंने प्रस्ताव किया है- ‘चलिए,
आपके स्कूटर से हज़रतगंज चलते हैं, किताबों की
दुकान पर.’ वे यूनिवर्सल बुक सेलर्स से सम्पादकीय विभाग के लिए शब्दकोश
खरीद रहे हैं.
लखनऊ दौरे में होटल में कभी नहीं रुकना है. मोती नगर में
उनकी ससुराल है, वहीं से आएंगे-जाएंगे. सुबह साढ़े दस के करीब जब टाइम ऑफिस
उनके लिए जीप भेजने को कह रहा होता तब तक माथुर जी दफ्तर के गेट पर रिक्शे से
उतरते दिखायी देते. कोई गिला नहीं. मोती नगर से सवारियां बदलते हुए राणा प्रताप
मार्ग पहुंचने में शहर देख लिया और खबरों के कुछ विचार मिल गये.
ऑफिस ने अचानक उठ कर चल दिये. घण्टों पता नहीं. स्थानीय
सम्पादक रामपाल सिंह हैरान हैं कि लंच के लिए कब तक रुकें. मोबाइल तब जन्मा न था
और कुछ बता कर गये नहीं. शाम को अचानक डेस्क पर बैठे, कुछ
लिखते दिखाई देते हैं- ‘रवींद्रालय में एक सेमिनार था, वहीं
चला गया. देखिए, रिपोर्टिंग ऐसे भी की जा सकती है.’
दिल्ली दफ्तर में उनके कक्ष का द्वार खोल कर झांका. लगा कि
कुछ लिख रहे हैं तो द्वार बंद करने लगा. तभी आवाज आती है-‘आइए,
आ जाइए.’ पूरी मेज पर कागज-चिट्ठियां फैले हैं और एक-एक कर पढ़े जा
रहे हैं. बता रहे हैं – ‘पाठकों के पत्र हैं. कोशिश करता हूं कि अधिक से अधिक पत्र
खुद देख सकूं, वर्ना पता कैसे चलेगा कि हमारे पाठक क्या सोच रहे हैं और
क्या कह रहे हैं. कभी हमने सोचा कि इन पत्रों में कितनी ऐसी खबरें होती हैं जिन तक
रिपोर्टर की पहुंच नहीं होती?’
-‘क्या सुबह आपके घर पर मिल सकता हूं?’ दिल्ली
दफ्तर में उनकी व्यस्तता देख कर पूछा है मैंने.
-‘नहीं,
मैं आजकल पटना-टेस्ट की कॉपियां जांच रहा हूँ.’ फिर कुछ
सोच कर कहा- ‘अच्छा, साढ़े नौ बजे आइए, चाय पीने के
लिए साथ तो चाहिए.’ दूसरी सुबह उनके घर पहुंचा तो पायजामा के ऊपर कमीज और उस पर
कोट पहने हुए खुद गेट पर हाजिर. घर पर और कोई नहीं शायद. सीधे रसोई में ले जा रहे
हैं. खुद चाय बना रहे हैं. एक कप थमाते हुए बता रहे हैं- ‘बिहार
में यूपी से ज्यादा टेलेण्ट है.’
ऑफिस जाने के लिए खुद अम्बेसडर कार निकाली है. आदेश हुआ है-
‘बैठिए.’ कार स्टार्ट करके आगे बढ़ाते-बढ़ाते रोक दी है. ‘आज
बस से चलते हैं’. अम्बेसडर वापस पोर्च में खड़ी की गयी है. विकास मार्ग पर
स्वास्थ्य विहार के सामने से डीटीसी की बस पकड़ी है. खचाखच भरी बस में पिसते हुए झटके
खा रहे हैं और व्याख्यान चल रहा है- ‘अगर आप
डीटीसी की बस में झटके नहीं खाएंगे तो झटके खा कर सम्भलने की भारतीय समाज की ताकत
को नहीं समझ सकते.’
-‘आज शाम को पांच बजे आइए. ‘हंस’
के लोकार्पण में साथ चलेंगे.’ शाम को परवेज अहमद को भी बुला लिया है. खुद कार चला कर हमें
मण्डी हाउस ले गये हैं. हॉल पूरा भर चुका है. कोई सीट खाली नहीं. मैं इधर-उधर देख
रहा हूं कि माथुर जी के लिए कोई सीट खाली कर दे. इस बीच माथुर जी सीटों के बीच
गलियारे में जमीन पर बैठ गये हैं और पूरी तन्मयता से देख रहे हैं जैनेंद्र कुमार
के हाथों ‘हंस’ का लोकार्पण कराते प्रमुदित राजेंद्र यादव को. गलियारा भरता
जा रहा है. उसी में प्रभाष जी भी नीचे बैठे दिखाई देते हैं.
मीटिंग में लखनऊ के सम्पादकीय साथियों ने कुछ समस्याएं उठा
दी हैं- पीने के पानी का ठीक इंतजाम नहीं हैं और लिखने के लिए मिलने वाला बॉल पेन
बहुत घटिया है. माथुर जी ने माथे पर बल डाल कर छत की ओर देखा है और कहा है- ‘पानी
के लिए आप मैनेजर का घेराव कर सकते हैं. जहां तक कलम का सवाल है,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सोने का है या काठ का, महत्त्वपूर्ण
यह है आप उससे क्या लिख रहे हैं.’
समस्या के इस अद्भुत समाधान से हमें विस्मित होने का अवसर
दिये बिना वे पत्रकारिता के विजन में प्रविष्ट हो गये हैं- ‘आपको
करना यह चाहिए कि उत्तर प्रदेश के गांवों, कस्बों,
तहसीलों, रेलवे और बस स्टेशनों के सही नाम पुराने आधिकारिक रिकॉर्ड
से पता करें और उसकी सूची बनाएं. कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज तक हमारे पास अपनी
जगहों के नाम तक प्रामाणिक और सही-सही नहीं है. एक नाम कई तरह से छप रहा है. एक
अच्छे अखबार के पास उसकी स्तरीय शैली पुस्तिका होनी ही चाहिए.’
(कुछ समय बाद हम सुनते हैं कि टाइम्स रिसर्च फाउण्डेशन ने हिंदी में एक फैलोशिप
की घोषणा की है. 75 हज़ार रु की पहली ही फैलोशिप नभाटा की शैली पुस्तिका बनाने
के लिए दिल्ली नभाटा के एक उप-सम्पादक को दी गयी.)
अच्छा पेन नहीं मिलने की शिकायत वास्तव में ओछी थी और
प्रधान सम्पादक के सामने नहीं ही कही जानी चाहिए थी. यह समझते ही मैंने उनके सामने
बड़ी समस्या रख दी है- ‘दिल्ली के अखबारों का एक ही सेट सम्पादकीय विभाग में आता है.
उसे भी स्थानीय सम्पादक जी घर उठा ले जाते हैं.’
(दिल्ली के अंग्रेजी अखबार वायु-सेवा से दोपहर को लखनऊ पहुंचते थे. उन दिनों
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों, लेखों,
संदर्भों, आदि के लिए हम उन्हीं पर निर्भर होते थे. इण्टरनेट तब था
नहीं) स्थानीय सम्पादक नंदकिशोर त्रिखा ने चौंक कर देखा है कि यह क्या कह दिया गया, मगर
माथुर जी के चेहरे पर हलकी मुस्कान तिर आयी है. हाथ के कलम को अपने गाल पर ठोकते
हुए वे कह रहे हैं- ‘इसमें क्या समस्या है. दिल्ली के अखबारों का एक सेट और
मंगवा लिया जाए.’ वे तत्काल कार्यालय सहायक से आदेश टाइप करने को कहते हैं.
तभी उनके दिमाग में पत्रकारिता के अपने विजन का कोई एक कोण
कौंध गया है- ‘मैं तो चाहता हूं कि हर एडीशन में एक सब-एडिटर सिर्फ दुनिया
भर के अखबार पढ़े. उसकी और कोई ड्यूटी न हो. सिर्फ पढ़े और कुछ बड़े मुद्दों पर उनके सारांश
अखबार के लिए लिखे... और, एक रिपोर्टर हो, रोमिंग
रिपोर्टर, वह सिर्फ घूमे. उसका एसाइनमेण्ट ही घूमना हो. उसके लिए ऑफिस
आना जरूरी न हो, गांव-देहात-शहर-मेले.. घूमता रहे और लिखता रहे...’
अगले हफ्ते हम पाते हैं कि दिल्ली दफ्तर की डाक में प्रधान
सम्पादक के कार्यालय से ‘प्रमोद जोशी/नवीन जोशी’ के
नाम से मोटा लिफाफा आया है. उसके भीतर रखे हैं ‘लण्डन
टाइम्स’, ‘इण्टरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून’, ‘वाशिंगटन
पोस्ट’ के पिछले संस्करण. ‘आपके
लिए सुबह का नाश्ता’, ‘आपका दोपहर का भोजन’ लिखे
हुए ये प्रतिष्ठित विदेशी अखबार हमारे नाम से कुछ समय तक आते रहे थे.
सम्भवत: लखनऊ की हुई इसी मीटिंग के बाद दिल्ली संस्करण में
मेहरुद्दीन खां को रोमिंग रिपोर्टर बनाया गया था. दिल्ली के आस-पास के जिलों में
घूम कर मेहरुद्दीन ने कई अच्छी रिपोर्ट लिखी थीं.
......
माथुर जी के साथ कुछ ऐसा निस्संकोच-सा रिश्ता बन गया था कि
हम उनसे कभी-कभार जिद भी कर बैठते थे. ‘नवभारत
टाइम्स’ का पटना संस्करण शुरू होते समय उन्होंने मुझे लखनऊ से कुछ
समय के लिए वहां भेजा था. उन दिनों वे अखबार के मॉड्युलर-ले-आउट से प्रभावित थे.
हमने लखनऊ नभाटा में उनकी सलाह से यही प्रयोग किया था. ऐसा ही पटना नभाटा में भी
करने के लिए उन्होंने मुझे भेजा था. पटना संस्करण के शुरुआती अंकों से खुश होकर जब
उन्होंने सबको दावत का देने का ऐलान किया तो हमने साथ में बीयर पिलाने की जिद कर
दी. बमुश्किल वे राजी हुए लेकिन इस शर्त के साथ कि कोई भी बीयर में जिन नहीं
मिलाएगा. यह जैसे इशारा हो, कुछ साथियों ने मौर्या होटल में अपनी बीयर के साथ जिन भी
मिलवा ली.
पार्टी शुरू ही हुई थी कि रंग में भंग हो गया. उसी समय माथुर
जी के लिए वाया दिल्ली लखनऊ से संदेश आया कि वहां सम्पादकीय विभाग में कोई बड़ी
समस्या हो गयी है और अखबार निकलना मुश्किल हो गया है. उन्हें फौरन लखनऊ रवाना होना
होगा.
माथुर जी जल्दी से कुछ खा कर होटल से सामान लेकर निकले.
मुझे भी बीयर का गिलास छोड़ कर साथ में जाना पड़ा. मौर्या होटल से फ्रेजर रोड पर
टाइम्स के कार्यालय तक की कुछ दूरी हमने लगभग दौड़ते हुए और फिर इक्के से तय की थी.
दफ्तर से कार आने का इंतजार उन्होंने नहीं ही किया था. रास्ते में पूछते रहे कि
लखनऊ में क्या हुआ होगा. मैं करीब एक महीने से पटना में था. कोई खबर मुझे न थी.
बाद में पता चला था कि नभाटा, लखनऊ के सम्पादकीय साथियों ने कतिपय सुविधाओं की मांग की
लगातार उपेक्षा से आजिज आकर असहयोग-आंदोलन चला रखा था. उस दिन कई लोगों ने एक साथ
छुट्टी ले ली थी जिससे अखबार का प्रकाशन संकट में पड़ गया था.
अपनी पसंदीदा टीम और प्रिय संस्करण का यह हाल माथुर जी के
लिए यह निश्चय ही बहुत पीड़ादायक रहा होगा. राजीव मित्तल ने,
जो इस असहयोग-आंदोलन के एक अगुवा थे, बाद में
स्वीकार किया कि उस बार माथुर जी का चेहरा देख कर उन्हें भी तकलीफ हुई थी.
एक बार लखनऊ में हम चार साथियों ने प्रबंधन की सलाह पर
जल्दबाजी में लिया गया उनका एक सम्पादकीय-फैसला उन्हीं से बदलवा लिया था. हम
तीन-चार वरिष्ठ साथियों ने उन्हें फोन किया और बारी-बारी कहा कि वह फैसला टीम के
लिए कतई उचित नहीं होगा. वह हमारे तर्कों से सहमत हुए. बोले थे- ‘मुझसे
कहा गया था कि आग लग रही है, फायर ब्रिगेड भेजिए, तो
मैं मना कैसे कर सकता था. अब आप कह रहे हैं कि आग ही नहीं लगी है तो फायर ब्रिगेड
की क्या जरूरत.’
इन कुछ प्रसंगों से ऐसा लग सकता है कि हम माथुर जी के बहुत
खास या करीबी हो गये थे. ऐसा कतई नहीं था. वे दिल्ली, लखनऊ,
पटना, जयपुर, आदि अपनी सभी टीमों के लिए उतने ही आत्मीय थे. उनसे कभी भी
और किसी भी प्रसंग पर निस्संकोच बात की जा सकती थी. सबको वे ‘अपने
प्रिय और करीबी सम्पादक’ लगते थे लेकिन उनका कोई ग्रुप या खास लोग नहीं थे. दो ऐसे
मौके आये जब उन्होंने मुझे चंद रोज के लिए निलम्बित करने का आदेश दिया. एक बार
मेरी लापरवाही थी. दूसरी बार मामला कर्मचारी यूनियन से जुड़ा था.
आज इस तथ्य की ओर
भी मेरा ध्यान जाता है कि माथुर जी हमारे ‘सर’
नहीं थे. मेरे पहले सम्पादक अशोक जी भी हमारे ‘सर’
नहीं थे. बाद के सम्पादक पता नहीं कैसे ‘सर’
हो गये और सिर पर सवार ‘बॉस’ बन गये. माथुर जी हम सब के लिए ‘माथुरजी’
या ‘सम्पादक जी’ थे. हममें से
कोई उनके पैर नहीं छूता था, न ही वे किसी को अपने पैर छूने देते थे. उनमें ‘प्रधान
सम्पादक’ होने का कोई अहं या अकड़ दूर-दूर तक नहीं थे,
जैसा हमने बाद के ज्यादातर प्रधान सम्पादकों और स्थानीय सम्पादकों में देखा. ‘स्वतंत्र
भारत’ में अशोक जी का आदेश था कि जब भी वे सम्पादकीय डेस्क पर आएं
तो कोई भी अपनी कुर्सी से खड़ा नहीं होगा. माथुर जी के लखनऊ दफ्तर आने पर एक बार
उनके सम्मान में हम खड़े भले हो जाते लेकिन फिर बातचीत और व्यवहार दोस्ताना ही
होते. सहज-स्वाभाविक सम्मान का रिश्ता, जिसमें ‘डर’
कहीं नहीं होता था. मुझे लगता है, बाद के
सम्पादक जैसे-जैसे प्रखरता, बौद्धिकता और सम्मान खोते गये, वैसे-वैसे
‘सर’ या ‘बॉस’ का आतंकी आवरण ओढ़ते गये.
.......
वैचारिक रूप से राजेंद्र माथुर की बनावट बहुत उदार थी.
लिखते वे गाय और गोरक्षा पर भी थे लेकिन आरएसएस वाली गोरक्षा एवं देश में गायों की
हालात के कटु आलोचक थे. तंज में वे लिखते थे कि आरएसएस के हर सदस्य को दो गाय
पालना जरूरी कर देना चाहिए. भारतीय इतिहास और उसकी प्रवृत्तियों का उन्होंने गहरा
अध्ययन किया था. अपने बहुत सारे तर्क और उदाहरण वे इतिहास से लेते थे. नेहरू-गांधी
की कांग्रेस और उसकी अखिल भारतीयता से वे बहुत प्रभावित थे और इस राष्ट्र-राज्य के
लिए कांग्रेसी-दृष्टि को अनिवार्य मानते थे. (नेशन-स्टेट के लिए ‘राष्ट्र-राज्य’
लिखना शायद उन्होंने ही शुरू किया था) कांग्रेस के बार-बार टूटने को उसके परिष्कार
के लिए जरूरी घोषित करते थे, इसीलिए जनता पार्टी और जनता दल जैसे प्रयोगों का स्वागत
करते थे. इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी और अपने चंद बड़े फैसलों से कदम वापस
खींच लेने वाले राजीव गांधी के वे कटु आलोचक हो गये थे. उन दिनों अपने लेखों में
वे यह वकालत करते थे कि कांग्रेस में इतना विश्वास पैदा हो जाए कि वह राजीव गांधी
के अलावा अपना दूसरा नेता चुन सके.
1989 के बाद देश की राजनीति में जो कुछ घटा उस पर उन्होंने
देवीलाल को इस देश की ‘महाविपदा’ कहने का साहस किया था. देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर उनकी
आस्था अटूट थी. अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने के भाजपाई आंदोलन
के वे सख्त खिलाफ थे. 1988-89 से उनके लेखन की धार साम्प्रदायिकता के खिलाफ बहुत
पैनी हो गयी थी. लालकृष्ण आडवाणी की राम-रथ-यात्रा के कारण जो साम्प्रदायिक माहौल
उन दिनों बन रहा था, उस पर लखनऊ में सम्पादकीय
विभाग की बैठक में उन्होंने साफ निर्देश दिया था कि “सर्कुलेशन
10-15 हजार गिर भी जाए तो कोई चिंता नहीं लेकिन हमें देश टूटने की कीमत पर अखबार
नहीं बेचना.” 1992 में बाबरी मस्जिद-ध्वंस का धिक्कार लिखने के लिए वे जीवित
नहीं थे.
कभी-कभी हमें आश्चर्य होता था कि नवभारत टाइम्स में उनके
पसंदीदा पत्रकारों में ज्यादातर आरएसएस और भाजपा से घनिष्ठ रूप से जुड़े थे. नभाटा,
लखनऊ में पहले दोनों स्थानीय सम्पादक रामपाल सिंह और नंदकिशोर त्रिखा एवं जयपुर
तथा पटना के प्रारम्भिक स्थानीय सम्पादक दीनानाथ मिश्र ‘संघ’ से घनिष्ठ
रूप में सम्बद्ध थे. सूर्यकांत बाली को
नभाटा में वे ही ले कर आये थे. दूसरी तरफ, वे
विष्णु खरे को भी बहुत पसंद करते थे. उन पर पूरा भरोसा करते हुए ही उन्होंने खरे
जी को संकट के दिनों में लखनऊ नभाटा का स्थानीय सम्पादक बना कर भेजा था. एस पी
सिंह को नभाटा में लाने और अपना नम्बर दो बनाने वाले भी वही थे. एस पी की
कार्यशैली और पसंद-नापसंद माथुर जी से बहुत भिन्न थी. एस पी सिंह को कार्यकारी
सम्पादक बना देने के बाद वे हंसते हुए बताते थे- ‘कुछ
लोग कहते हैं कि एस पी को लाकर मैंने अपनी कुर्सी के नीचे बम रख लिया है. मैं कहता
हूं कि बम रखने वाला जानता है कि वह कब फटेगा.’ उनका
मासूम-सा प्रश्न होता था कि एक अखबार में अच्छा सम्पादक हो सकने वाले दस-दस
व्यक्ति क्यों नहीं होने चाहिए.
उनकी दृष्टि व्यापक और उदात्त थी. अपने विरोधी-विचार का वे स्वागत
करते थे लेकिन सम्पादकों-पत्रकारों की भाषा-निष्ठा,
बौद्धिकता व व्यावहारिकता पर बहुत ध्यान देते थे. हिन्दी में नये शब्द गढ़ने में
रुचि लेते. भाषा उनकी अत्यंत प्रवहमान और चमत्कारिक है जो पाठकों को जादू की तरह बांध
लेती है.
अंग्रेजी से गलत अनुवाद के कारण हिंदी अखबारों की भाषा में
सर्वव्याप्त विकार उन्हें हंसाता लेकिन विचलित करता था. सामने रखे अखबार को पढ़ते
हुए वे उसे कलम से रंगते चले जाते और जरूरी काम छोड़ कर खबरों की भाषा पर धुआंधार
व्याख्यान देने लगते. बच्चे के रोने की तरह बीच-बीच में प्रसंग भूल कर फिर-फिर उसी
पर लौट आते. किसी भी अखबार में छोटे-छोटे सरल वाक्यों में लिखी खबर पढ़ने को मिलती
तो तुरंत निशान लगा कर ‘अनुकरणीय’ लिख कर लखनऊ भेज देते. तो भी, अपने
मित्र, जनसत्ता के सम्पादक प्रभाष जोशी की तरह समाचारों के लिए एक
विशिष्ट लेखन-शैली का आग्रह उन्होंने नहीं किया. ‘जनसत्ता’ ने
उन्हीं दिनों छोटे-छोटे वाक्यों में खबर लिखने की बहुत सरल,
बोलचाल वाली शैली विकसित की थी, जो बहुत पसंद
की गयी.
.......
टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे व्यापारिक घराने के अखबार के प्रधान
सम्पादक के रूप में उन्होंने समझौते नहीं किये होंगे, ऐसा
कैसे कहा जा सकता है. टाइम्स का यह वह दौर था जब पिता अशोक जैन के हाथों से कम्पनी
की बाग़डोर लेकर युवा समीर जैन पत्रकारिता को भारी मुनाफा देने वाले उद्यम में बदल
रहे थे. उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हमारे अखबारों को अब मिशनरी भूमिका छोड़नी
होगी. नवभारत टाइम्स का क्षेत्रीय विस्तार भी हिंदी के बढ़ते बाजार और मुनाफे की
बड़ी सम्भावनाओं की दृष्टि से ही किया जा रहा था. सम्पादकीय स्वतंत्रता की पुरानी
टेर लगाने और विज्ञापन अथवा मुनाफे की चर्चा को निषिद्ध मानने वाले सम्पादकों की
छुट्टी की जा रही थी. उसी दौरान ‘दिनमान’ से रघुवीर सहाय और ‘टाइम्स’
से गिरिलाल जैन जैसे सम्पादकों को अपमानजनक हालात में रुखसत होना पड़ा था.
उस दौर में राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक
के रूप में चमक रहे थे तो जाहिर है कि उन्होंने प्रबंधन से कोई टकराव न लेकर
पत्रकारिता के बर्तन-भाण्डे चमकाने और उसे नई दृष्टि देने में ही अपनी प्रतिभा और
ऊर्जा लगायी. राजनैतिक गलियारों में घूमने और सम्पर्क बनाने में उन्हें कोई
दिलचस्पी थी नहीं. उनके समकालीन ज्यादातर सम्पादक-पत्रकार राजनैतिक
नेताओं-मंत्रियों से सम्बंध बना कर रखते थे. यहां तक कि प्रभाष जोशी के भी कई बड़े
नेताओं-मंत्रियों से करीबी रिश्ते थे और सत्ता की जोड़-तोड़ में भी वे कभी शामिल हो
जाते थे, लेकिन माथुर जी ने नेताओं से रिश्ते बनाने-बढ़ाने में कोई
रुचि नहीं रखी या इस मामले में वे नितांत अव्यावहारिक थे.
हमने सुना था कि बैनेट कोलमैन कम्पनी के एक कार्यक्रम में
तत्कालीन प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर के देर से पहुनचने पर माथुर जी कोई ऐसी टिप्पणी
कर बैठे थे जो प्रधानमंत्री को नागवार गुजरी थी. माथुर जी खुद भी शायद उस टिप्पणी
के लिए परेशान रहे थे. एक बार लखनऊ के राज्य अतिथि गृह में कांग्रेस विधायक नरेश
चंद्रा की जबरिया मेजबानी में वे बहुत बोर हो रहे थे. हमें आते देख कर उन्होंने
राहत की सांस ली और उस दिन के अखबार की समीक्षा शुरू करके विधायक जी से मुक्ति
पायी थी.
उनकी सतत चिंता का केंद्र पत्रकारिता और उसके विविध औजार ही
थे या फिर इस राष्ट्र-राज्य की सैद्धांतिक चीर-फाड़ उन्हें प्रिय थी. प्रबंधन उनकी
इस ‘नाकाबिलियत’ को समझता ही
होगा. इसलिए नभाटा की बौद्धिक छवि निखारने में ही उनका इस्तेमाल किया गया. इस मामले
में उनका कोई सानी था भी नहीं.
लखनऊ संस्करण के शुरुआती दिनों में वे उसमें धारदार
राजनैतिक खबरें और विश्लेषण छपे देखना चाहते थे. कई बार उन्होंने उसकी कमी पर
चिंता भी जाहिर की थी. बल्कि, उन्होंने हमारे राजनैतिक ब्यूरो की नाराजगी के बावजूद संतोष
भारतीय से कुछ राजनैतिक खबरें लिखवाईं और उन्हीं के नाम से छापीं. संतोष उन दिनों
कलकता से प्रकाशित ‘रविवार’ के लिए लखनऊ से तेज-तर्रार रिपोर्टिंग कर रहे थे. मगर बाद के दिनों में माथुर
जी ज्यादा व्यावहारिक या अत्यंत सावधान होते गये. यहां एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक
होगा.
तब तो हमें कुछ मालूम नहीं पड़ा था, लेकिन
बहुत बाद में विभूति नारायण राय के लेख से पता चला कि हाशिमपुरा काण्ड में हिरासत
में हत्याओं की बड़ी खबर सबसे पहले उन्होंने ‘नवभारत
टाइम्स’ के सम्वाददाता अरुण वर्धन के माध्यम से राजेंद्र माथुर तक
पहुंचायी थी. पहले इस खबर से बहुत उत्साहित दिखे माथुर जी ने अंतत: एक-दो वरिष्ठ
सहयोगियों से सलाह के बाद उसे नहीं छापने का फैसला किया था. पत्रकारिता के लिहाज
से वह ‘स्कूप’ था. 1987 के साम्प्रदायिक दंगों में मेरठ के हाशिमपुरा में
पुलिस-पीएसी ने 42 निर्दोष मुसलमानों को एक नहर किनारे ले जाकर गोलियों से मार
डाला और लाशें बहा दीं. श्री राय तब गाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक थे. उन्हें न केवल
इसकी खबर लगी बल्कि वे घटनास्थल के दिल दहलाने वाले हालात के गवाह भी बने. ‘नवभारत
टाइम्स’ में चार दिन तक खबर नहीं छपने पर उन्होंने इसे ‘चौथी
दुनिया’ को बताया, जिसने इसे बढ़िया ढंग से प्रकाशित करके निर्दोष लोगों के
हत्यारे पुलिस-पीएसी वालों को कटघरे तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.
राजेंद्र माथुर ने यह बड़ी और अत्यंत महत्वपूर्ण खबर क्यों
नहीं छापी होगी, इसके विश्लेषण में विभूति जी लिखते हैं- “मैंने उन्हें (माथुर जी को) जानने वाले
और उनके साथ काम करने वाले कई लोगों से बातें की हैं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा
नहीं मिला जिसने उन्हें सांप्रदायिक बताया हो. फिर क्यों वे इतनी बड़ी और जघन्य
वारदात को पचा गये?... मेरे मन की यह जिज्ञासा आज तक अनुत्तरित ही है कि कहीं राजेन्द्र माथुर भी उस
समय उठने वाली सांप्रदायिकता की उद्दाम लहरों में बह तो नहीं गये थे?” अरुण वर्धन ने श्री राय को जो बताया था उसके अनुसार “माथुर
जी का संकेत था कि इस तरह की
खबरें छापने से पीएसी जैसी संस्थाओं का मनोबल टूटेगा और पहले से बंटा समाज और अधिक
बंटेगा.”
अपने करीब नौ साल के कार्यकाल में वे नभाटा को अपने सपने के
अखबार जैसा या उसके करीब नहीं बना सके थे,
हालांकि उसका कायाकल्प अवश्य हो गया था. शुरू में अपने क्षेत्रीय संस्करणों,
लखनऊ, जयपुर और पटना के लिए वे ज्यादा उत्साहित रहते थे. नई
दुनिया और नभाटा के प्रकाशन-संस्थानों की भीतरी बुनावट के फर्क जान लेने के बाद
उन्होंने धैर्य धारण कर लिया था. इसी कारण उनका कार्यकाल विवाद रहित रहा और लगता
था कि वे नभाटा में लम्बी पारी खेलेंगे. कहा भी करते थे कि ‘मैं
हर तिमाही नभाटा से अपने जाने की अफवाहें सुनता हूं लेकिन यह आदमी के सिर पर
कौव्वा बैठने जैसा है, जिससे कहते हैं कि उस आदमी की उम्र बढ़ जाती है.’
......
मैं जिक्र कर चुका हूँ कि नभाटा, लखनऊ
का शुरुआती दौर रचनात्मक ऊर्जा से भरा था. पूरी टीम बहुत सक्रिय और समर्पित थी.
स्थानीय सम्पादक रामपाल सिंह चेताते भी थे कि थोड़ा संतुलन बनाये रखना चाहिए.
कभी-कभी हमें लगता था कि वे हमें खुलकर खबरें नहीं छापने देते. हमने कुछ
तेज-तर्रार, पोल-खोलू खबरें उनके घर चले जाने के बाद उन्हें बताये बिना
छापीं. 1984 के विधान सभा चुनाव का एक वाकया आज भी रोमांचित करता है. रिपोर्टर शैलेश
कुमार और फोटोग्राफर संजीव प्रेमी की टीम मतदान के कवरेज के लिए अमेठी गयी थी.
अमेठी के ‘राजकुमार’ संजय सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे खुल्लम-खुल्ला अपने
लिए वोट छपवाते हैं, यानी कि बूथों पर कब्जा करके उनके लोग मतपत्रों पर उनके
चुनाव चिह्न पर मोहर लगाते हैं.
शैलेश कुमार और संजीव प्रेमी की टीम को अमेठी में सचमुच यह
दृश्य दिखा. चारपाई पर बैठ कर लूटे मतपत्रों पर मोहर लगाते लोगों के कई फोटो संजीव
प्रेमी खींच लाये थे. शैलेश ने विस्तार से आंखों देखा हाल लिखा. हमें लगा कि
रामपाल जी इस खबर को छापने की इजाजत शायद नहीं देंगे या कुछ दबाने को कहेंगे. उन
दिनों प्रमोद जोशी, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद
नकवी और मेरा एक गोल जैसा बना हुआ था. हमने तय किया कि इस खबर को स्थानीय सम्पादक को
बताये बिना उनके घर जाने के बाद देर रात पेज पर लगाया जाएगा. रामपाल जी हम लोगों
पर भरोसा करते थे और नौ बजे तक घर चले जाते.
अमेठी में बूथ लूटने और जबरिया मतदान की यह खबर नभाटा,
लखनऊ ने पहले पेज पर बैनर में सचित्र छापी. देर रात नगर संस्करण में ही इसे लगाया
और अखबार छपने तक हम प्रेस में डटे रहे. सुबह अखबार की खूब चर्चा और विक्री हुई. प्रसार और प्रबंधन
टीम ने बधाई दी. रामपाल जी सिर्फ इतना ही बोले थे- ‘बता
तो देते पण्ड्डी जी.’ वे हमारी चौकड़ी को इसी नाम से बुलाते थे. हमने जोश में
लेकिन अच्छी नीयत से ऐसी कुछेक हरकतें और भी कीं. कहना
नहीं होगा इसके पीछे माथुर जी का भरोसा ही था. कोई खबर या फोटो क्यों छापा गया,
इस पर टीम से कभी पूछताछ हुई भी नहीं. बल्कि, एक
बार वे कह गये थे कि सरकार की तरफ से शिकायत आती रहती है तो लगता है कि काम ठीक हो
रहा है.
1987 से नभाटा के तीनों नये प्रांतीय संस्करण कई कारणों से
अस्थिर होने लगे थे. समीर जैन की चतुर व्यावसायिक रणनीतियां पूरी कम्पनी में हाला-डोला,
विशेष रूप से सम्पादकीय अस्थिरता मचाए हुए थीं. माथुर जी ने देश भर से प्रतिभाएं
चुन कर सबको समान पद पर नियुक्त करने का प्रयोग किया था. उन सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं
सिर उठाने लगीं थीं. गुटबाजी और प्रतितिद्वंद्विता बढ़ी. नभाटा,
दिल्ली और मुम्बई की तुलना में अलग कम्पनी और कमतर वेतन ने लखनऊ में आक्रामक
यूनियनबाजी को जन्म दिया. नभाटा, लखनऊ 1984-87 के दौर में गुणवत्ता और प्रसार में अपना
सर्वोत्तम प्रदर्शन करने के बाद ठहर-सा गया था. मार्च 1991 में लम्बी हड़ताल और
तालाबंदी के बाद फिर हालात सामान्य नहीं हो सके. उसके बाद एक-एक करके लखनऊ,
जयपुर और पटना संस्करण बंद कर दिये गये. माथुर जी वे दिन देखने के लिए जीवित
नहीं थे.
.......
मई 1986 की एक दोपहर नभाटा, पटना
के स्थानीय सम्पादक दीनानाथ मिश्र के कक्ष में राजेंद्र माथुर अपने प्रिय मित्र,
व्यंग्यकार शरद जोशी के साथ बैठे थे. मुझे माथुर जी ने पटना संस्करण की
तैयारियों, खासकर उसके मॉड्यूलर ले-आउट में सहायता के लिए पटना भेजा
हुआ था. बातचीत नभाटा के प्रथम अंक के लोकार्पण कार्यक्रम के बारे में हो रही थी.
माथुर जी ने शरद जोशी को उसी अवसर के लिए विशेष रूप से पटना बुलवाया था. उनकी
योजना थी कि लोकार्पण कार्यक्रम में शरद जोशी का व्यंग्य-पाठ हो. शरद जी संकोच में
थे और कह रहे थे कि हास्य-व्यंग्य कवि गोष्ठियां तो खूब चलती हैं लेकिन कहीं पटना
में गद्य-व्यंग्य-पाठ हूट न हो जाए. माथुर जी को लगता था कि यह नया प्रयोग पटना
में पसंद किया जाएगा. नभाटा में शरद जोशी का नियमित व्यंग्य कॉलम ‘प्रतिदिन’
माथुर जी ने ही शुरू कराया था जो
अत्यंत लोकप्रिय हुआ था. वे कहा करते थे कि शरद जोशी जैसे व्यंग्यकार से रोजाना
व्यंग्य कॉलम लिखवाने का विचार किसी और अखबार या सम्पादक को अब तक क्यों नहीं आया.
खैर, विमोचन की संध्या शरद जी के व्यंग्य-पाठ के कारण पटना में खूब
पसंद की गयी और चर्चित हुई. मैं प्रेस में अंक की तैयारी में लगे होने के कारण
कार्यक्रम में नहीं जा सका था लेकिन जो भी वहां गया बहुत आनंदित होकर लौटा था. खुद
शरद जोशी बहुत प्रसन्न हुए थे. उसी कार्यक्रम से लौट कर उन्होंने ‘बिहार
जाकर नरभसाय गया’ जैसा बहु-पठित रोचक आलेख लिखा था.
तो, उस दोपहर लोकार्पण कार्यक्रम की रूपरेखा तय हो जाने के बाद
बात अचानक सुनील गावस्कर के क्रिकेट से संन्यास लेने की चर्चाओं पर टिक गयी थी.
हास-परिहास के बीच शरद जोशी कह रहे थे कि गावस्कर को अपनी खूब छीछालेदर कराने के
बाद रिटायरमेण्ट लेना चाहिए. फिर माथुर जी से उन्होंने पूछा था- ‘रज्जू
बाबू, आप बताओ कि रिटायरमेंट लेने का सही समय क्या होना चाहिए?’
नभाटा का तीसरा प्रांतीय संस्करण (लखनऊ,
जयपुर और पटना. मुम्बई संस्करण बहुत पहले से था) शुरू कराने से प्रफुल्लित माथुर
जी अचानक गम्भीर हो गये थे. कहने लगे- ‘तीनों
संस्करण जम जाएं और हरेक कम से कम 50-60 हजार बिकने लगे तो इसे मैं अपनी सफलता
मानूंगा. तब मैं रिटायरमेण्ट ले सकता हूं.’
फिर जैसा कि उनकी आदत थी, हर
बात को दार्शनिक स्तर तक ले जाने की, बोले- ‘एक
बल्लेबाज के लिए रिटायरमेण्ट का इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है कि वह एक ओवर में
छह छक्के उड़ाए और बल्ला रख दे.’
नौ अप्रैल 1991 की सुबह जब वे इस दुनिया से रिटायर हुए तो
पत्रकारिता की पिच पर छक्के ही उड़ा रहे थे. सिर्फ 55 वर्ष की आयु पायी उन्होंने और
बिल्कुल अचानक ही चल दिये. मौत भी कैसी!
कुछ सर्दी-जुकाम-जकड़न जैसी शिकायत लेकर मुहल्ले के किसी होमियोपैथ के पास गये.
वहां पहले से कुछ मरीज रहे होंगे तो बेंच पर बैठ गये. बारी आने से पहले उसी बेंच
पर छटपटाये और उनके प्राण उड़ गये. दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ा था.
बैनेट-कोलमैन कम्पनी के मालिकों की तरह सभी को यह अफसोस रहा
कि वे एक फोन भी कर देते तो देश-दुनिया का बेहतरीन इलाज उन्हें मिल सकता था. किंतु
पत्रकारिता से अपने लिए उन्होंने कुछ भी अतिरिक्त या विशेष चाहा ही कब था. जो दे
सके, पत्रकारिता को दिया, उससे
लिया कुछ नहीं.
नभाटा, लखनऊ में तब लम्बी हड़ताल के कारण तालाबंदी थी. देश के तमाम
हिंदी-अंग्रेजी अखबारों ने उन्हें बहुत आदर सहित श्रद्धांजलि दी. उनका प्रिय
संस्करण शोक भी व्यक्त नहीं कर पाया. चार दिन बाद मित्र मनोज तिवारी के सहयोग से ‘स्वतंत्र
भारत’, लखनऊ में उन पर मेरा स्मृति-लेख प्रकाशित हो सका,
जिसका शीर्षक था- “छक्के उड़ाते हुए रिटायर.”
.......
सत्तर के दशक से व्यावसायिकता के बढ़ते दौर में हिंदी
पत्रकारिता का एक समर्पित, विवेकशील स्कूल पहले अज्ञेय और फिर रघुवीर सहाय ने ‘दिनमान’
के माध्यम से बनाया था. उसके बाद क्रमश: विवेकहीन होते टीवी न्यूज चैनलों से
पहले की हिंदी पत्रकारिता राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के कारण सम्मानित और
गरिमामय बनी रही. प्रभाष जोशी की पत्रकारिता के कतिपय विचलनों की चर्चा होती है
लेकिन राजेंद्र माथुर ने अपनी चदरिया बिल्कुल साफ-सुथरी रखी
उस दौरान नई दिल्ली के बहादुर शाह ज़फर मार्ग के दो
पड़ोसी-भवनों में बैठने वाले हिंदी के दोनों सम्पादकों, राजेंद
माथुर और प्रभाष जोशी के अखबारों, उनके लेखों और उनके
मार्गदर्शन पर पूरी पत्रकार बिरादरी की नजर रहती थी. संयोग से दोनों एक ही (मध्य)
प्रदेश के एक ही अंचल से पत्रकारिता के राष्ट्रीय क्षितिज पर चमके थे. दोनों ने ही
इंदौर के ‘नई दुनिया’ से पत्रकारिता शुरू की थी और राहुल बारपुते के संसर्ग में
हिंदी अखबारों के वास्ते बड़े सपने देखे थे. दोनों को राष्ट्रीय स्तर पर बड़े अवसर
मिले और दोनों ने उन अवसरों का शानदार उपयोग कर पत्रकारिता को अपना सर्वोत्तम
दिया. राजेंद्र माथुर शिखर पर थे जब अचानक इस दुनिया से विदा हुए. प्रभाष जोशी ‘जनसत्ता’
से रिटायर होने के बाद भी अंतिम सांस तक पत्रकारिता में सक्रिय रहे.
इन सम्पादकों ने पत्रकारों की एक बड़ी पीढ़ी को तैयार और
प्रभावित किया. वह पीढ़ी अब वानप्रस्थ में है. हिंदी पत्रकारिता के रेगिस्तान में अब सिर्फ
कुछ नखलिस्तान बचे हैं.
-नवीन जोशी
('अकार', जून 2019 में प्रकाशित)