Friday, April 24, 2020

बंदी की विविध कथाएं बताती हैं देश का रंग-ढंग


लखनऊ में तीन युवतियां एक कार में सवार होकर निकलती हैं,  कोरोना-बंदी के नियम तोड़ती हैं और पुलिस के रोकने-टोकने पर सड़क पर तमाशा करती हैं. उसी दिन राजधानी में ही एक महिला सिपाही अपने छोटे बच्चे को सड़क किनारे एक कुर्सी पर बैठाए सीलबंद इलाके में पहरा देती दिखाई देती है. उसी दौरान वह तस्वीर भी अखबारों में दिखती है जिसमें एक पुलिस सब-इंसपेक्टर युवती अपने एक साल के बीमार बच्चे को गोदी से चिपकाए बरेली की एक सड़क पर तैनात है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर इसलिए गिरफ्तार किए गए हैं क्योंकि उन्होंने दिल्ली के निजामुद्दीन में हुई उस तबलीगी जमात में हिस्सा लिया, जहां से कई कोरोना संक्रमित जमाती देश भर में फैले, कुछ विदेशी जमातियों को उन्होंने प्रयाग में ठहराया भी लेकिन यह जानकारी छुपाई. उस विद्वानप्रोफेसर से अपेक्षा थी कि वे सारी जानकरी स्वयं प्रशासन को देकर कोरोना संक्रमण रोकने में मदद करेंगे. उधर, चेन्नै में एक सीनियर डॉक्टर फूट-फूटकर रो रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने सहयोगी वरिष्ठ डॉक्टर के शव को अपने हाथों से कब्र खोदकर दफनाना पड़ा, जबकि एक भीड़ शव नहीं दफनाने देने के लिए उन पर हमला कर रही थी. वह डॉक्टर कोरोना संक्रमितों का इलाज करते हुए खुद भी संक्रमित होकर प्राण गंवा बैठे थे. अपना फर्ज़ निभाते हुए कई डॉक्टरों, सहायकों और सिपाहियों ने जान दी है.   

छत्तीसगढ़ से मजदूरी करने तेलंगाना गई और कोरोना-बंदी में फंसने पर भूखी-प्यासी घर लौट रही 12 साल की बच्ची के प्राण-पखेरू 100 किमी पैदल चलने के बाद उड़ गए. दिल्ली से 400 किमी दूर अपने घर को पैदल ही निकल पड़ा घर का अकेला कमाऊ श्रमिक 200 किमी चलकर गिर पड़ा और प्राण छूटने से पहले घर वालों को फोन पर इतना ही कह सका कि कोई लेने आ सकता है तो आ जाओ. ढाई हजार रु में अपना मोबाइल बेचकर, बच्चों के खाने का समान जुटाने के बाद आत्महत्या करने को मजबूर मजदूर का किस्सा कैसे भूला जा सकता है. ये किस्से अकेले नहीं हैं.

देश भर से आ रहे तमाम कोरोना-किस्से पढ़ी-लिखी जनता की जहालत और घमण्ड से लेकर उसके सामान्य जन के त्याग, शौर्य और देवता-रूप का परिचय भी देते हैं. रोग छुपाने और डॉक्टरों पर हमला करने वाले भी यहां हैं और मेडिकल स्टाफ के लिए ताली बजाने और खाने पहुंचाने वाले भी. उस सिपाही की फोटो आंसुओं के साथ अभिमान से भी भर देती है जो घर के बाहर बैठकर खाना खा रहा है और उसका नन्हा बेटा भीतर के दरवाजे की झिर्री से पिता को डबडबाई आंखों से देखे जा रहा है. 

कई डॉक्टर और चिकित्सा कर्मचारी कई सपताह से अस्पताल के वार्ड में ही रह रहे हैं. एक युवा डॉक्टर अपनी गर्भवती पत्नी की सहायता के लिए नहीं जा सकता. एक नर्स-मां ने अपने दुधमुंहे बच्चे को गोद में लेना तो दूर, दो सप्ताह से आमने-सामने देखा तक नहीं. कई पुलिस वाले जो बुजुर्गों के लिए दवा और खाना घर-घर पहुंचा रहे हैं. बहुत सारे लोग जो सुदूर इलाकों में भूखों तक भोजन पहुंचा रहे हैं. उनकी सेवा और त्याग का क्या प्रतिदान है

वे भी इसी देश के नागरिक हैं जो थोड़ी-सी मदद की खूब सारी तस्वीरें सोशल मीडिया में दिखा रहे हैं और वे भी जो तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर उनकी फोटो अपनी पाक-कला के सबूत के तौर पर पेश कर रहे हैं. इस संकट-काल में भी साम्प्रदायिक नफरत फैलाने में जुटे लोग हैं तो इंसानियत के टीसते घावों पर मलहम लगाने वालों की भी कमी नहीं है.

जितना बड़ा और विविध देश उतनी तरह की जनता और उसके रंग.      
    
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 अप्रैल, 2020)

Friday, April 17, 2020

बंदी में खुली चोर व्यवस्थाएं और भूखे पेट


कोरोना-काल में लगभग सारा आवश्यक सामान पॉलीथीन के थैलों में मिलता देख याद आया कि इस पर तो प्रदेश में सख्त रोक लगी हुई है. छापे पड़ रहे थे. बड़ी दुकानों से लेकर  खोंचों और फुटपाथी सब्जी वालों तक से जुर्माना वसूला जा रहा था. लॉकडाउन में फिर पॉलीथीन निकल आई है. धड़ल्ले से चल रही है. स्वाभाविक ही, किसी को इस तरफ ध्यान देने की फुर्सत नहीं है. कोरोना से निपटें या पॉलीथीन पकड़ें?  

कोरोना-बंदी की सख्ती में पहले की बंदियां अपने आप खुल गई हैं. पॉलीथीन खुलेआम इस्तेमाल हो रहा है तो सिगरेट-तम्बाकू चोरी-छुपे दो गुणा दामों पर बिक रहे हैं. कोरोना-बंदी में गुटका-सिगरेट विक्री पर भी प्रतिबंध लागू है लेकिन जिन्हें उसकी लत है, उन्हें तो चाहिए ही. बेचने वालों को घर चलाना है. इसलिए, दोनों का बंदोबस्त हो जा रहा है. खतरा उठाने के दाम अलग से चुकाने पड़ रहे हैं. वैसे भी, पान-बीड़ी की गुमटियों पर आत्मीय रिश्ते पनपते रहे हैं. खास लोगों के घर तक सप्लाई हो जा रही है. कोई आश्चर्य नहीं कि मास्क के पीछे मुंह भीतर मसाला चुभलाया जा रहा हो. पुलिस वाले क्या कम खाते-पीते है! सो, इस गोपनीय खुलेको संरक्षण भी प्राप्त हो जाता है.

विदेशी मदिरा के शौकीनों के लिए भी रास्ते खुल जाते हैं, हालांकि दिक्कतें बहुत बताई जाती हैं. कुछ लोगों के पूर्व सैन्य कर्मियों से सम्पर्क काम आ रहे हैं. वैसे भी ये जाबांज अवकाश ग्रहण करने के बाद समाज के एक वर्ग की तृषा शांत करने में बड़ा योगदान देते रहे हैं. तस्करों के दिमाग का भी जवाब नहीं. दिल्ली का ताज़ा उदाहरण देख लीजिए. शव-वाहन में ताबूत के भीतर छुपाकर विदेशी मदिरा लाई जा रही थी. दूध के केन में घर तक सप्लाई का चलन पुराना है, लेकिन काम आ ही रहा है. देसी वालों के लिए ग्रामीण इलाकों में खेतों-झाड़ियों के बीच अस्थाई आसवनियों में खूब छानी जा रही है. धंधा चोखा चल रहा है. कोरोना संदिग्ध और पीड़ित आफत मचाए हुए हैं. ऐसे में पीने-पिलाने वालों पर कौन पहरा बैठाए!

चोर-बाजार, ब्लैक मार्केट कहते हैं जिसे, की समानांतर व्यवस्था न हो तो अर्थव्यवस्था के डूबने का खतरा रहता है. जीडीपी वाली प्रगति से ज़्यादा विकास दर ब्लैक मार्केट इकॉनॉमी की रहती है. प्रतिबंध या बंदी में यह चोर बाजारी अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करती है. कानून-व्यवस्था बनाए रखने में भी इसका बड़ा योगदान है. चोर-बाजारी न हो तो अशांति फैल जाए. डॉक्टर चेतावनी देते रहें कि सिगरेट-बीड़ी, तम्बाकू, शराब, वगैरह नशे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर करते हैं जिससे कोरोना का खतरा बढ़ जाता है, लेकिन जिनका तन-मन चैतन्य चूर्णों और पेयों के बिना जाग्रत न होता हो, वे क्या करें?

पास में धन है तो सारी व्यवस्थाएं हो जाती हैं. सारी समस्याएं उनके लिए हैं जिनके पास दमड़ी नहीं है. एक दिन की बंदी में भी जो शाम की रोटी के लिए दिहाड़ी नहीं कमा पाते उनके लिए कोई चोर-बाजार क्यों चले? चोर बाजारी होती ही इसलिए है कि कुछ लोगों के पास अपार धन है. जिनके पीएस धन ही नहीं वे खुले बाजार में भी आकाश हेरते रहते हैं. यह कोरोना-बंदी ऐसे ही करोड़ों लोगों के लिए आफत बनी हुई है. सरकारें कोशिश कर रही हैं, निजी तौर पर भी बहुत सारे प्रयास हो रहे हैं लेकिन बहुत बड़ी आबादी तक राहत पहुंच नहीं पा रही.

कोरोना से बड़ा खतरा भूख हो गई है. कोरोना के बाद यह और विकराल होने वाली है.


(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 प्रैल, 2020)

Friday, April 10, 2020

महाविपदा में समय का इफरात और उसके उपयोग


समय ही समय है लोगों के पास. घर से निकल नहीं सकते. कोई मिलने आ नहीं सकता. वर्क फ्रॉम होमवाले भी बोर ही हो रहे हैं. सुबह आठ बजे निकल कर जो काम के मारेरात नौ बजे तक मुश्किल से लौट पाते थे, अब घर की दीवारों के भीतर कैद हैं. इतनी फुर्सत पहले कभी नहीं मिली. नफरत फैलाने के धन्धे में लगे लोगों को अवश्य फुर्सत नहीं है. उनका काम बहुत बढ़ गया है.

जिनके पास खाने की चिन्ता नहीं है, उनके लिए और भी कठिन हो रहा है वक्त काटना. वे मोबाइल के स्क्रीन पर आंखें फोड़ रहे हैं, फिल्में देख रहे हैं, घण्टों गप्पें मार रहे हैं. फेसबुक लाइवपर खूब सारा ज्ञान बघारा जा रहा है. इण्टरनेट पर इतना लोड है कि भट्टा बैठा जा रहा है. फिर भी लोग बोर हो रहे हैं. लिखने-पढ़ने के शौकीन शिकवा कर रहे हैं कि कितना पढ़ें! घर में आपसी झगड़े बढ़ रहे हैं. ऐसी एक रिपोर्ट आई है कि घरेलू हिंसा की ऑनलाइन शिकायतें बढ़ गई हैं. झाड़ू-पोछा करने और बर्तन मांजने में शुरू-शुरू का आनंदअब झगड़े का कारण बन रहा है.  

छोटे बच्चों को घर में बहलाए रखना बड़ी समस्या हो गया है. स्कूल बंद हैं. ऑनलाइन क्लास दिन भर के स्कूल का विकल्प हो नहीं सकते. हर तरह के मीडिया पर बच्चों को बहलाने, पढ़ाने –सिखाने के गुर बताए जा रहे हैं. घरेलू काम-काज में हाथ बंटाना भी उन्हें सिखाया जा रहा है. कहा जा रहा है कि हर स्थिति के मुकाबले के लिए तैयार रहना चाहिए. अब लोगों को यह लगने लगा है कि ऐसा भी समय आ सकता है.

जिनके पास दो जून की रोटी का संकट है, वे सारा समय इसी चिन्ता में हैं. अच्छा है कि बहुत सारे लोग, सरकार और संगठन उनकी मदद कर रहे हैं. राशन या खाना बांट रहे हैं. विपदा के इस दौर में जरूरतमंदों की मदद करने की मनुष्य की प्रवृत्ति भी खूब खिल रही है. बुजुर्ग सबसे ज्यादा परेशान हैं. उन्हें डर सता रहा है कि कोई इमरजेंसी पड़ गई तो इलाज कहां और कैसे मिलेगा. एक बुजुर्ग ने तो अत्यंत दयनी स्वर में फोन करके पूछा कि कुछ हो गया तो इस देह की कूकुर गति तो नहीं हो जाएगी?          

मौत को कोई लॉकडाउन नहीं रोक सकता. एक करीबी रिश्तेदार के निधन की सूचना मिली. अच्छे-भले थे और उम्र ज्यादा नहीं थी. सीने में दर्द हुआ और थोड़ी देर में देह निष्प्राण हो गई. बच्चे बाहर हैं. आ नहीं सकते थे. चार लोग किसी तरह जुटे और विद्युत शवदाह गृह में अंत्येष्टि कर आए. घर में उनकी अकेली पत्नी को सांत्वना देने नहीं जाया जा सका. फोन पर ही रोना-धोना हुआ.

ऐसे त्रासद अवसर पर किसी के अकेलेपन के बारे में सोचिए. आपात समय में कोई नियम-धरम नहीं चलता. बल्कि, नई व्यवस्थाएं चल पड़ती हैं. इसी दौरान वह खबर आई थी कि लॉकडाउन के कारण एक पत्नी को ही पति को मुखाग्नि देनी पड़ी. कौन मुखाग्नि दे, इस सवाल के आज क्या मायने हैं.   
इस महाविपदा काल में जीवन के कैसे-कैसे रंग सामने आ रहे हैं, अजब-गजब भी और त्रासद भी. कैसे-कैसे चुटकुले और व्यंग्य निकल रहे हैं! रामायणऔर महाभारतधारावाहिकों का पुनर्प्रसारण देखते हुए पुरुषों को अपने ऋषि-मुनि अवतार में पहुंच जाने की सम्भावना गुदगुदा रही है. किसी ने लिखा है कि  लॉकडाउन खत्म होने तक हम जामवंत ही न बन जाएं! मानव की विनोदप्रियता भी चरम पर है.            

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 अप्रैल, 2020) 
          

Friday, April 03, 2020

इस महामारी में हमारी चुनौतियों की विकरालता


हमने अपने डॉक्टर मित्रों को संदेश भेजा था कि वे इस भयानक विपदा के समय अपने को खतरे में डालकर मरीजों की सेवा कर रहे हैं.  उनकी सेवाओं की देश को बहुत ज़रूरत है. इसलिए वे अपना विशेष रूप से ध्यान रखें. लखनऊ और कानपुर के दो मित्रों ने धन्यवाद के साथ यह भी लिखा कि डॉक्टरों के पास आवश्यक सुरक्षा उपकरण नहीं हैं लेकिन वीआईपी एन-95 मास्क लगाए घूम रहे हैं. कई जगह तो सामान्य मास्क भी नहीं मिल रहे. उसी दौरान राज्य में कई जगह नर्सों और अन्य कर्मचारियों ने सुरक्षा उपकरणों के अभाव में काम नहीं करने की चेतावनी दी थी.

जैसे-जैसे देश में कोविड-19 मरीजों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे हमारी चुनौतियां भी सामने आ रही हैं. उन्नत देश अगर इस महामारी के सामने लाचार नज़र आ रहे हैं तो हमारी चुनौतियां समझी जा सकती हैं. यह हमारा ही देश है जहां जांच के लिए नमूना लेने गए डॉक्टरों पर एक जगह नहीं, कई शहरों में हमले होते हैं. कुछ लोग पाखण्ड में और कुछ फनके लिए जान-बूझकर लॉकडाउन का उल्लंघन करते हैं.  

यहां गरीबी है, अभाव हैं लेकिन जाहिली भी कम नहीं, जिसका शिक्षा और गरीबी से कोई नाता नहीं. पढ़े-लिखे लोग भी पूरी आबादी को खतरे में डालने वाला आचरण कर रहे हैं. धार्मिक आयोजनों के नाम पर लॉकडाउन के दौरान भी जमावड़े हो रहे हैं. कई शहरों से ऐसी चिंताजनक रिपोर्ट आ रही हैं. मास्क, वेण्टीलेटर, डॉक्टर और दवा की कमी से कहीं बड़ी चुनौती धार्मिक कट्टरता से उपजी यह जहालत है जिसमें सभी पंथ शामिल हैं.

अब इसका क्या किया जाए कि कुछ लोग इसी में खुश हैं कि वे पुलिस को गच्चा देकर शहर का एक चक्कर लगा आए. कोई इसका आसान उपाय भी बताता फिर रहा है कि भाई साहब, डॉक्टर का कोई भी पुराना पर्चा लेकर निकल जाइए. पुलिस रोकेगी तो पर्चा दिखा दीजिए कि दवा लेने जा रहे हैं. एक सज्जन दूसरा तरीका निकालकर घूमते देखे गए. उन्होंने अपनी कार पर राहत सामग्री वितरण हेतुकी तख्ती लगा रखी है. युवकों की टोलियां भी सुबह-शाम मुहल्लों में ओने-कोने जमा होकर हो-हल्ला कर रही हैं.

आखिर हम किसे ठग रहे हैं? क्यों नहीं चेत रहे? क्या अपार शक्तिशाली देश अमेरिका का हाल नहीं देख रहे? यूरोप के कुछ देश इसी का खामियाजा भुगत रहे हैं कि वहां प्रशासन ही नहीं, जनता ने और विशेष रूप से युवा वर्ग ने कोविड-19 महामारी को हलके में लिया और चेतावनियों के बावजूद अपने रोजमर्रा फ़नमें मशगूल रहे. क्या वे अपने वैभव के वीभत्स प्रदर्शन की कीमत भी नहीं चुका रहे?

हमारे देश में एक कमरे में दस-दस लोग गुजारा करने वाले हैं तो दस कमरों में एक-एक, दो-दो प्राणी भी. कई तो ऐसे भी हैं जिनके पास छत ही नहीं है. इसलिए कोविड-19 महामारी के सामने इतनी ही विविध और विकराल हमारी चुनौतियां भी हैं. लॉकडाउन की खिल्ली उड़ाने वाले भी हैं और अल्लाह या ईश्वर की शरण को सबसे बड़ी दवा बताने वाले पाखण्डी भी.

वीवीआईपी वर्ग कम बड़ी चुनौती नहीं है जो हर संकट के समय सारी सुविधाएं पहले अपने लिए बटोर लेता है. अच्छे मास्क से लेकर खान-पान की सभी चीजें उन्होंने अपने लिए जुटा रखी हैं, भले ही डॉक्टरों-नर्सों को वह नहीं मिलें. सुना है कुछ लोगों ने अपने लिए वेण्टीलेटर की अग्रिम व्यवस्था भी करवा ली है.

इन्हीं कठिन चुनौतियों के बीच रहना, लड़ना और जीतना है. हार अभावों से नहीं, बुद्धि के दीवालिएपन से होती है.    
     
(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 अप्रैल, 2020)