Friday, May 28, 2021

कोरोना-काल में नदियों की तरफ कौन देख रहा है?

 गोमती नदी के जलकुम्भी से भर जाने की खबरें कई दिन से आ रही थीं। अब वाराणसी में गंगा नदी की सतह शैवाल से हरी हो जाने की खबर सुर्खी में हैं। गोमती में जलकुम्भी इतनी अधिक हो गई है कि काफी हो हल्ले के बाद लखनऊ नगर निगम ने पांच जेसीबी, पांच पोक्लेन मशीनें और सत्ताईस नावें उसे साफ करने के लिए मंगाई हैं। वाराणसी में गंगा का हाल देखकर उत्तर प्रदेश और केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड सक्रिय हुए हैं। विष अनुसंधान संस्थान से सहायता मांगी गई है कि गंगा के पानी की गुणवत्ता की जांच करके बताएं कि उसकी सेहत को क्या रोग लगा है।

नदियों का रोग पहचानना कठिन नहीं है। हमारी विकास योजनाएं और जीवन पद्धति नदियों के लिए जानलेवा रही है। धीरे-धीरे वे मरती आई हैं। उन्हें बचाने-निर्मल बनाने के दावे और अरबों रु जाने किस गटर में बह गए। गर्मियों के इन दिनों में नदियों में पानी वैसे ही कम हो जाता है। गोमती में तो कई बार शारदा नहर से पानी छोड़ना पड़ता है। पानी कम हो जाने से जलापूर्ति के लिए नदी का प्रवाह रोकना पड़ता है। प्रवाह लगभग समाप्त हो जाने से जलकुम्भी, शैवाल, आदि उग आते हैं। शहरी नालों का उत्प्रवाह नदियों में गिरना जारी रहता है। नदी ऑक्सीजन के लिए तरसती है। जीवन दायिनी नदियों को यह हमारी देन है।

पिछले डेढ़ साल के कोरोना काल में नदियों पर और कहर टूटा है। नदियों में लाशें बहाए जाने या उसके किनारे रेत में शव दफनाए जाने के समाचार तो हाल में मीडिया की सुर्खियां बने लेकिन दूसरे कई प्रकार के अत्याचार इस बीच नदियों पर लगातार होते रहे। अब यह भी सूचनाएं मिल रही हैं कि पीपीई किट, दस्ताने, मास्क और कोरोना से बचाव के लिए प्रयुक्त होने वाली दूसरी चीजें, जिन्हें बहुत सुरक्षित ढंग से नष्ट किया जाना चाहिए था, नदियों में बहा दिए गए। जब लाशें बहाई जा रही हों तो इन संक्रमित वस्तुओं को नदियों में फेंके जाने पर क्या आश्चर्य करना।

यह अकारण नहीं है कि नदियों के पानी में कोरोना वायरस पाए जाने की चौंकाने वाली सूचना जारी हुई जिसे तुरंत ही अभी जांच जारी हैकहकर वापस ले लिया गया। इसकी पुष्टि भले नहीं हुई हो, कई जगहों से पानी के नमूने लेकर जांच किए जाने से यह तो पता चलता ही है कि पानी के भी संक्रमित होने की आशंका बनी हुई है। प्रयागराज से भी पानी के नमूने लाकर जांचे जा रहे हैं। अभी तक हवा में और वह भी कुछ सीमा तक प्रसारित कोरोना वायरस अगर पानी में फैल गया तो क्या हाल होगा, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। क्या तीसरी-चौथी लहर पानी के रास्ते आएगी?

नदियों में सीधे लाशें और मेडिकल उच्छिष्ट फेंके जाने के मामले कम हो सकते हैं या काफी हो-हल्ला मच जाने के बाद बंद करा दिए गए हों, लेकिन नदियों में गिरने वाले नालों में तो अस्पताली कचरा खुले आम फेंका जाता है। अब कोविड संक्रमित कचरा भी फेंका ही जा रहा होगा। न अस्पताल इसके खतरे की चिंता करते हैं न जिम्मेदार संस्थाएं और अधिकारी। गोमती नदी में अकेले लखनऊ शहर के अस्सी नाले गिरते हैं जिनके लिए सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाए जाने की चर्चाएं हम दशकों से सुनते आए हैं। जो संयंत्र लगे वे आधे-अधूरे उया बंद पड़े हैं। नालों के मुंह पर लगी जालियां तक साफ नहीं की जातीं। अक्सर वे फटी अथवा गायब पाई जाती हैं। ये नाले गोमती में क्या-कैसा कचरा उड़ेल रहे हैं, इसे कौन देख रहा है?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 29 मई, 2021)

   

 

 

 

 

    

Friday, May 21, 2021

घोर संकट का समय और नेताओं की भूमिका

केरल की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री के के शैलजा की इन दिनों खूब चर्चा है। पिछली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते शैलजा ने केरल में कोविड नियंत्रण, जन-जागरूकता और पीड़ितों के इलाज में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। उसी कारण वे इतनी लोकप्रिय हुईं कि हाल में सम्पन्न चुनाव में उन्होंने जीत के अंतर का नया कीर्तिमान बना डाला। शैलजा को नई सरकार में शामिल नहीं किया गया है। इसके लिए मुख्यमंत्री और वाम मोर्चे के नेतृत्व की कड़ी आलोचना हो रही है।

हम यहां शैलजा की चर्चा दूसरे कारण से करना चाहते हैं। पूरे उत्तर भारत में एक भी मंत्री ऐसा क्यों नहीं है जिसकी तुलना शैलजा के कोविड-नियंत्रण-योगदान से की जा सके?  कोविड की दूसरी लहर से देश हलकान है। जिस तरह बिना अस्पताल, बिना ऑक्सीजन और बिना जांच के लोग मरे, उसका बार-बार उल्लेख दहलाता है लेकिन यह पूछने का मन होता है कि इस पूरे दौर में एक भी सांसद, एक भी मंत्री, एक भी विधायक अपनीजनता के साथ खड़ा क्यों नहीं हुआ?

उत्तर प्रदेश के एक सांसद, एक कैबिनेट मंत्री और एक-दो विधायकों ने जांच, इलाज और अस्पतालों की व्यवस्था पर असंतोष व्यक्त किया। कुछेक ने अपनी तरफ से दवाएं वितरित कराईं लेकिन सबसे बुरी मुसीबत के इस दौर में एक भी जन-प्रतिनिधि त्राहि-त्राहि करती जनता के साथ नहीं रहा। न ही सत्ता पक्ष से और न ही विपक्ष से कोई ऐसा उदाहरण सामने आया जिसे जनता कह सके कि हां, हमारे नेता ने हमारे कष्ट कम करने में मदद की।

कुछ ग्राम प्रधानों ने अवश्य अपने क्षेत्र में मरीजों के एकांतवास और इलाज कराने में बड़ी भूमिका निभाई। जैसे, लखनऊ के समीपवर्ती गांव कबीरपुर की युवा प्रधान रीता वर्मा ने बीमारों को अलग रखकर और मरीजों की चिकित्सा व्यवस्था करके अपने इलाके में संक्रमण काफी हद तक रोक दिया। ऐसे और भी कुछ उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन हमारे माननीय मंत्री, सांसद और विधायक सरकार का गुणगान करने, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तारीफ में बयान देने के अलावा और क्या कर रहे थे?

यह सवाल विपक्षी दलों के नेताओं और विधायकों से भी है? जन-प्रतिनिधि होने के नाते उनकी भूमिका क्या रही? पंचायत चुनाव में वोट मांगने के लिए तो वे अपने क्षेत्रों में बड़े सक्रिय रहे लेकिन कोविड से त्राहिमाम कर रही जनता के प्राण बचाने के लिए उन्होंने क्या किया? कितने विधायक हैं जो अपने क्षेत्र में डटे रहे और व्यवस्था को चुस्त बनाने का दबाव बनाते रहे? क्या वे क्षेत्र की जनता को भौतिक दूरी बनाए रखने, मास्क पहनने, पीड़ितों को अलग रखने और त्योहारों-समारोहों में भीड़ न जुटाने के लिए तैयार नहीं कर सकते थे? उलटे, इन सावधानियों का उल्लंघन स्वयं उन्होंने खूब किया।

देश भर में गुरद्वारों ने हर संकट के समय की तरह इस बार भी खूब शाबाशी का काम किया और कर रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवी संगठनों, संस्कृति कर्मियों, रचनाधर्मियों, चिकित्सकों, आदि ने ऑक्सीजन दिलाने से लेकर, दवाएं, खाना, डॉक्टरी सलाह, आदि उपलब्ध कराईं। एक अकेली लड़की लावारिश लाशें श्मशान पहुंचाने में लगी रही। चिताओं के लिए कम पड़ गई लकड़ियां जुटाने में युवाओं के दल जुटे रहे। क्या मंत्री-सांसद-विधायक यह सब आसानी से नहीं करा सकते थे? क्या किसी ने सुना कि अमुक नेता ने कुछ ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, बेड, कुछ वेंटीलेटर, आदि अपने क्षेत्र में उपलब्ध कराए?

नेता वह है जो संकट के समय अपनी जनता के साथ खड़ा रहे। उसके दुख कम करने का जतन करे। सांसदों-विधायकों-मंत्रियों की सक्रियता ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण-विस्फोट को काफी सीमा तक रोक सकती थी। अफसोस कि हमारे पास ऐसी सक्रियता का एक भी उदाहरण नहीं है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 22 मई, 2021)

Monday, May 17, 2021

महामारी के सबक और सीखने वाले समाज

 

सीखने वाले देशों और सरकारों के लिए कोविड महामारी बड़े सबक भी दे जा रही है। हमारे देश के लिए जहां स्वास्थ्य सुविधाएं अत्यंत उपेक्षित हैं  और जहां इसीलिए महामारी का प्रकोप बहुत भयानक रूप ले चुका है, ये सबक बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं। इतनी विकराल महामारी का मुकाबला करने के लिए तो बहुत सारी तैयारियां और संसाधन चाहिए लेकिन यदि ग्रामीण एवं कस्बा स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का पहले से मौजूद संजाल तनिक भी दुरुस्त होता तो गांव देहातों से आ रही रोंगटे खड़ी करने वाली खबरें काफी कम हो सकती थीं।

स्वास्थ्य सुविधाओं को ग्रामीण स्तर तक पहुंचाने के लिए इन स्वास्थ्य केंद्रों का संजाल तैयार किया गया। किसी भी जिले के कस्बों-गांवों की तरफ चले जाएं, प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के भवन मिल जाएंगे। विकास योजनाओं के नाम पर हमारा तंत्र भवन बनाकर खड़ा कर देने में अत्यंत सक्षम और चुस्त है। इमारतें फौरन खड़ी कर दी जाती है लेकिन जो सुविधाएं इनमें प्राण भ्ररती हैं, वे सर्वथा उपेक्षित रहती हैं। सामान्य दिनों में भी हम पाते हैं कि इन स्वास्थ्य केंद्रों में ताले लटके हैं, डॉक्टर नहीं हैं, स्वास्थ्यकर्मी तैनात हैं लेकिन आते नहीं, दवाओं, आदि का तो पूछना ही क्या।

यदि स्वास्थ्य क्षेत्र इतना उपेक्षित न रखा गया होता और इन स्वास्थ्य केंद्रों को न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं से लैस किया गया होता तो नदियों में बहती आती लाशों के वीभत्स दृश्य देखने को क्यों मिलते। महामारी की पहचान कर त्वरित एवं आकस्मिक चिकित्सा तो ये केंद्र शुरू कर ही सकते थे। इतने भर से मरीजों की हालत बिगड़ने से पहले सम्भाली जा सकती थी। क्या आज भी हमारी सरकारें यह तैयारी कर रही हैं कि आने वाली लहर से निपटने के लिए गांवों तक स्वास्थ्य केंद्रों को यथासम्भव सक्रिय किया जाए? वहां चिकित्साकर्मी तैनात हों और दवाएं, ऑक्सीजन सिलेण्डर, आदि भी हर समय उपलब्ध हों? गुरुद्वारे यह काम कर सकते हैं तो सरकार क्यों नहीं कर सकती?

महंगे और बेहतरीन निजी अस्पतालों के लिए हमारा देश चर्चित है। ऐसे-ऐसे अस्पताल हैं जिनकी कल्पना करना भी सामान्य जनता के लिए मुश्किल है। इस देश के चंद प्रतिशत लोग और विदेशी भी इन अस्पतालों पर गर्व करते थे। उन्हें लगता था कि इनके रहते उन पर कोई खतरा नहीं है। कोविड महामारी ने इन विशिष्ट अस्पतालों को भी लाचार बना दिया। वे अमीर जो सरकारी अस्तपालों को घृणा की दृष्टि से देखते थे, वहीं शरण लेने को विवश हुए। एक बार फिर यह साबित हुआ कि इस देश की विशाल आबादी को समय पर आवश्यक इलाज देने में सरकारी चिकित्सा संस्थानों एवं छोटे अस्पतालों की बड़ी भूमिका है। उन्हें व्यस्थित और सुचारू बनाया जा सके तो महामारी का प्रकोप नियंत्रित किया जा सकता है।

महामारी ने हमारे तंत्र की बहुत सारी कमियों पर से पर्दा उठा दिया है। कमियों, लापरवाहियों और उपेक्षाओं का मंजर सामने है। इसे छुपाने–दबाने के प्रयास करने की बजाय उन्हें दूर करने के प्रयास युद्ध स्तर पर किए जाने चाहिए। कमियों को स्वीकार करना उन्हें दूर करने की दिशा में पहला बड़ा कदम है। छुपाने का सीधा अर्थ है कि हम उन कमियों की भरपाई करना नहीं चाहते।

शहरी निकायों और ग्रामीण पंचायतों के व्यापक संजाल को थोड़ी बहुत तैयारी और प्रशिक्षण से इतना सक्षम बनाया जा सकता है कि वे दूरस्थ इलाकों तक महामारी को नियत्रित करने के आवश्यक उपाय कर सकें। इसके लिए संसाधनों से अधिक इच्छा शक्ति चाहिए, पारदर्शिता चाहिए और वह साहस एवं दृष्टि चाहिए जो किसी विजेता फौज के सेनापति में होती है। समस्या है कि ऐसे नाजुक अवसरों पर हमारा राजनैतिक नेतृत्व इस दृष्टि से अत्यंत गरीब साबित होता है। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 17 मई 2021)           

Friday, May 07, 2021

हां, फिर भी आकाश बादलों से बड़ा है!


इन दिनों मन बहुत बुझा-बुझा और भारी रहता है। कोई बड़ा-सा बोझ बैठा हो जैसे। उदासी
, एकाकीपन, डर, अजीबोगरीब ख्याल, किया-न किया, जिया-क्या जिया, जैसे विचार उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। बीमारी के अलावा दवाओं ने भी तन-मन को चौतरफा घायल किया है। डॉक्टर कहते हैं कि आठ घण्टे की नींद लीजिए। यहां लगभग पूरी रात आंखों में कट जाती है।

प्रतिदिन मिलने वाली बुरी खबरें दिल-दिमाग को और भारी बना रही हैं। दुनिया में दुख पहले कम न था। दहला देने वाली खबरें भी आती ही थीं। व्यवस्था-जनित लापरवाहियां, उपेक्षा, निष्क्रियता, चालाकियां और झूठ इस कष्ट को कई गुणा बढ़ा रहे हैं। वे साथी भी भीतर से हिले हुए दिखते हैं जिनके होने और जीने से ताकत मिलती थी। कोई लिख रहा है कि क्या संसार में अब दुख ही बचा है? कोई निश्चित मत बना बैठा है कि जीवन में अच्छा कुछ बचा ही नहीं।

दार्शंनिकों, रचनाकारों, संतों, आदि ने जीवन में दुख और संसार की निस्सारता पर खूब विचार किया है। दुख ही जीवन की कथा रही,’ जैसे वाक्य लेखन और प्रवचन में छाए रहे हैं। बुद्ध ने शोक-विह्वल एक मां को कितनी आसानी से समझा दिया था कि यह संसार दुखों से भरा है। जे कृष्णमूर्ति मृत्यु पर इतनी शांति, गहराई और व्यापकता के साथ विचार करते हैं कि उसे जीवन का ही हिस्सा बना देते हैं, दुख का विषय नहीं।

किशोरावस्था से निकलते ही अपने से काफी बड़ी एक लड़की के आकर्षण में पड़कर उसकी दी हुई जो किताब पढ़ी थी, वह मेरे लिए पहले अंग्रेजी उपन्यास का पढ़ना भी हुआ। टॉमस हार्डी के उपन्यास मेयर ऑफ कास्टरब्रिजकी अंतिम लाइनें आज भी दिमाग में शब्दश: दर्ज हैं- हैप्पीनेस इज बट एन ऑकेजनल एपीसोड इन द जनरल ड्रामा ऑफ पेन।दुख भरे जीवन-नाटक में खुशी बस अचानक आ पड़ने वाला कोई प्रसंग है। मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा दोस्ती का वह गाना याद करिए- सुख तो एक छांव ढलती, आती है-जाती है। दुख तो अपना साथी है,’ गुनगुनाते हुए हम उस टीस को क्यों भुलाना नहीं चाहते? दुखांत क्या स्थाई भाव है?

नहीं। अमेरिकी लेखक-पत्रकार मिच अल्बॉम की अद्भुत किताब ट्यूजडेज विद मोरीअसाध्य रोग से क्रमश: मर रहे अपने पुराने अध्यापक मोरी श्वार्ज से मुलाकातों की संस्मरणात्मक कथा है। मोरी आती हुई मौत की तैयारी करते हैं और जीवन में जो कुछ अमूल्य रहा, उसका उत्सव मनाते हैं। अल्बॉम हर मंगलवार को मोरी से मिलने जाता है और उदास होने की बजाय जीवनी-शक्ति से भर कर लौटता है। मोरी मुस्कराते हुए कहते हैं- मेरे चारों तरफ ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि वे सदा जीवित रहेंगे और बीमार भी न पड़ेंगे!निकोलाई ऑस्त्रोवस्की का आत्मकथात्मक उपन्यास हाउ द स्टील वाज टेम्पर्ड’ (हिंदी में अग्नि दीक्षा) सारे जीवन के दुखों, संघर्षों और नाउम्मीदी के बाद अंतत: अंधेरा छंटने और जीवन के सम्पूर्ण सार्थक हो जाने की विश्व प्रसिद्द्ध कहानी है।

फिर ऐसे कई प्रसंग याद आने लगते हैं। 1978 के जाड़ों की भोपाल की एक शाम, जब नाट्य-प्रदर्शन के बाद अनौपचारिक कवि-गोष्ठी हुई थी। उन कवि का नाम आज तैतालीस वर्ष बाद याद नहीं आ रहा, जिन्होंने उस शाम एक-एक, दो-दो पंक्तियों की कुछ कविताएं सुनाई थीं। उनकी दो कविताएं हर कठिन मौके पर स्मरण हो आती हैं। एक है- मेरी सुंदर-सी डायरी में तीन सौ पैंसठ पृष्ठ दुख!क्या बात है! सारे के सारे पृष्ठ दुख से भरे हैं लेकिन डायरी सुंदर-सीहै! दूसरी कविता कहती है –आकाश बादलों से घिरा है। फिर भी आकाश बादलों से बड़ा है!

कोई शक? फिर दिल-दिमाग पर छाए भारीपन को लेकर इतना क्यों हाय-तौबा की जाए! तो, थोड़ा नींद आए। एक सांस सुकून की लेकर हालात से लड़ने को अपने को तैयार किया जाए क्योंकि उसके बिना तो मानव-जीवन ही नहीं। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 8 मई, 2021)