Saturday, March 18, 2023

गांव के जमीनी हालात और पत्रकार की गिरफ्तारी

चंद रोज पहले एक खबर छपी थी कि उत्तर प्रदेश की एक मंत्री गुलाब देवी से उनके क्षेत्र की समस्याओं के बारे में सवाल पूछने के बाद एक पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया। सम्भल जिले के गांव बुधनगर में वादे के मुताबिक विकास न होने के बारे में मुरादाबाद उजाला के संवाददाता संजय राणा ने प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) गुलाब देवी से, जो स्थानीय विधायक हैं, सवाल पूछे थे। इस पर मंत्री नाराज हुई थीं। उसके तुरंत बाद स्थानीय भाजपा नेता शुभम राघव ने पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई कि संजय राणा ने उन पर हमला किया और सरकारी काम-काज में बाधा पहुंचाई। पुलिस ने संजय को गिरफ्तार कर लिया। फिलहाल पत्रकार जमानत पर रिहा है।

Indian Express अखबार ने अपने आज (रविवार, 19 मार्च, 2023) के अंक में सम्भल के उसी गांव बुधनगर से एक जमीनी रिपोर्ट प्रकाशित की है जो बहुत कुछ बता देती है। इस अखबार के संंवाददाता धीरज मिश्र ने  बहुत आवश्यक पत्रकारीय उत्तरदायित्व निभाया है जो अब विरल होता जा रहा है। इस रिपोर्ट को अधिकाधिक व्यक्तियों की नज़र में आना चाहिए, यह सोचते हुए उसके  मुख्य तथ्यों को यहां पेश कर रहा हूं।

बुधनगर गांव के अधिकसंख्य घरों में शौचालय नहीं हैं। नालियां नहीं हैं। सीवेज रास्तों पर बहता रहता है। गांव को मुख्य सड़क से जोड़ा नहीं गया है। यहां तमाम समस्याएं हैं। 80 साल की शिवदेवी बताती है कि उसे अपने जीवित रह्ते शौचालय का प्रयोग कर पाने की कोई आस नहीं है। करीब 1000 की आबादी वाले इस इस गांव में अधिकसंख्य घरों में शौचालय नहीं हैं। बुधनगर और दो अन्य गांव एक ही पंचायत के अधीन हैं। इनमें सबसे बड़ा गांव खण्डुआ है जहां घरों में शौचालय बनवाने के लिए निर्धारित अधिकांश बजट लगा दिया गया। इसलिए वहां के कुछ घरों में एक से अधिक शौचालय बन गए हैं। शिवदेवी कहती हैं कि मेरी उम्र में सुबह-शाम या रात में खुले में शौच के लिए जाना बहुत मुश्किल हो गया है।

बुधनगर के एक अन्य निवासी बीरपाल सिंह कहते हैं कि चुनाव के समय किए गए वादे शायद ही जमीन पर उतरते हों। जिन लोगों को हमने वोट दिया वे विधाय्क बने, मंत्री बने, सांसद बने लेकिन हम जैसे थे वैसे ही रहे। जो नेता खुले में शौच मुक्त गांव बना देने के दावे करते हैं उन्हें इस गांव में आना चाहिए। वे कहते हैं कि मेरे घर के सभी दस जन खेतों में शौच करने जाते हैं। दूसरी समस्याएं भी हैं। बरसात में पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। न पक्की सड़कें हैं न नालियां। सीवेज हमारे रास्तों पर बहता है। कचरा निस्तारण किसे कहते हैं, यहां कोई नहीं जानता।

पत्रकार संजय राणा ने मंत्री गुलाब देवी से, जब वे 11 मार्च को एक कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं, सार्वजनिक शौचालय न होने, मैरिज हॉल की कमी और सड़क न बनने के बारे में सवाल पूछे थे। कार्यक्रम के बाद भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिला महासचिव शुभम राघव ने संजय राणा के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई कि उन्होंने सरकारी काम में बाधा डाली और उन पर हमला किया। पुलिस ने राणा को धारा 151 में गिरफ्तार कर लिया। बाद में उनकी जमानत हुई। राणा कहते हैं कि मुझे 30 घण्टे हिरासत मेंं रहना पड़ा। मुझे रिपोर्ट के बारे में कुछ पता नहीं। मैं शुभम राघव से कभी नहीं मिला। मुझे हथकड़ी लगाई गई और गांव वालों के सामने मेरी परेड कराई गई जैसे कि मैंने कोई अपराध किया हो। आप स्वयं देख लीजिए कि क्या मैंने मंत्री जी से गलत पूछा। हमने उन्हें वोट दिया है। हमें अधिकार है कि उन्हें जिम्मेदार ठहराएं। 

सफाई की गांव में बहुत बड़ी समस्या है। तीन गांवों के लिए एक सफाई कर्मचारी है। अंदर की कुछ सड़कें बनी हैं लेकिन नालियां नहीं बनी हैं। इससे गंदगी रास्तों पर बहती है और प्राथमिक विद्यालय के पास जमा हो जाती है। पिछले चुनाव में गुलाब देवी ने मुख्य सड़क से गांव को जोड़ने वाली सड़क बनाने की वादा किया था। अभी तक कुछ नहीं हुआ है। गांव के किसान खेमपाल सिंह कहते हैं कि ऐसे में अपने जन प्रतिनिधि से सवाल पूछना क्या गलत है?  

Indian Express ने मंत्री गुलाब देवी से भी इस बारे में बात की। उन्होंने कहा कि विधायक निधि से एक सड़क की मंजूरी हुई है जो शीघ्र बनेगी। नालियों की जरूरत है, उन्हें भी जिला पंचायत फण्ड से बनाया जाएगा। मुझे पता चला है कि गांव में कुछ ही शौचालय है। इस बारे में शीघ्र सर्वे करवाया जाएगा।

- न जो, 19 मार्च 2023

Monday, March 06, 2023

खूबसूरत वादियों, मोहिले जन और विचित्र कथाओं का वृतांत

करीब छह-सात वर्ष पहले जब कुमाऊं मंडल विकास निगम का बेहतरीन प्रकाशन थ्रोन ऑफ गॉड्स’ (धीरज सिंह गर्ब्याल और अशोक पाण्डे) हाथ में आया था तब उसके पाठ की बजाय उसमें प्रकाशित अत्यंत सुंदर-कलात्मक चित्रों में खोकर रह गया था। हमारे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के तिब्बत से सटीं  ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों, वहां की शौका (रङ) जनजाति और उनके बहुत कम जाने गए जीवन, संस्कृति, इतिहास और परम्परा पर यह एक कॉफी टेबल बुकसे कहीं अधिक मायने रखती है- संदर्भ ग्रंथ की तरह भी। पिछले दिनों जब अशोक पाण्डे की नई किताब जितनी मिट्टी उतना सोनापढ़ना शुरू किया तो सबसे पहले थ्रोन ऑफ गॉडकी याद आई। उसकी तस्वीरों ने मोह लिया था तो इसके शब्दों की सरलता, यात्रा वृतांत की रोचकता-गहनता और उससे मस्तिष्क में उभर आने वाले शब्द-चित्रों ने पकड़े रखा। किताब पूरी कर चुकने के बाद भी वे शब्द-चित्र और उनका अत्यंत साधारण कहन दिल-दिमाग में बने हुए हैं।

अशोक पांडे ने अपनी ऑस्ट्रियाई साथी, मानवशास्त्री सबीने लीडर के साथ 1994 से 2003 के बीच ब्यांस, चौंदास और दारमा घाटी के सुदूर अंतरे-कोनों की लम्बी-लम्बी शोध-यात्राएं की, रङ गांवों में कई-कई दिन बिताए, उनके जीवन के विविध पक्षों का अध्ययन किया और मोहिले रिश्ते बनाए। स्वयं अशोक के शब्दों में इन घाटियों के गांवों में उन्होंने कुल मिलाकर तकरीबन चार साल बिताए। 'जितनी मीटी उतना सोना' उन्हीं यात्राओं का वृतांत है। 'थ्रोन ऑफ गॉड्स' में भी उन्हीं शोध यात्राओं का निष्कर्ष बोलता है।

'लप्पूझन्ना' और 'बब्बन कार्बोनेट' जैसी पुस्तकों के विरल कथ्य और कहन से पिछले दिनों चर्चित रहे अशोक पांडे यहां बिल्कुल दूसरे रूप में हैं। यहां उनकी खिलदंड़ी और व्यंग्यात्मक भाषा नहीं है। इस किताब के अत्यंत सरल गद्य में उनके कवि, अनुवादक, अध्येता, घुमक्कड़ और सहज मित्र रूप के दर्शन होते हैं। अशोक और सबीने तीनों सीमांत घाटियों के पुरुषों, महिलाओं, युवाओं-बूढ़ों-बच्चोंं से बहुत आत्मीय होकर मिलते हैं, उनके घरों, गोठों या रसोइयों में रात बिताते हैं, खाना खाते हैं और बात-बात में उनके इतिहास, वर्तमान, देवी-देवता, मिथकों और परम्पराओं की पड़ताल करते जाते हैं। इसलिए इस किताब का गद्य सामान्य बातचीत वाला  है जिसमें स्थानीय मुहावरे, लोकोक्तियां और कहानियां अपना अलग आस्वाद रचती हैं। वे घोड़ों की उदासी, बकरियों की दार्शनिकता, हरियाली की सुस्ती, अंधेरे का हरापन, चमकीले दिन का आलस, नक्काशीदार दरवाजों पर लगे तालों की उदासी, वगैरह भी देख ही लेते  है और ऐसे अनिर्वचनीय मानवीय दृश्य भी "जिन्हें देखे जा सकने की कल्पना भी हमारे सभ्य संसार में नहीं की जा सकती।" तब "आप असीम कृतज्ञ होने के अलावा क्या कर सकते हैं!" 

सिन-ला जैसे बीहड़ दर्रे को खराब मौसम एवं खतरनाक स्थितियों में पार करने का रोमांच भी इसमें मिल जाता है- "बर्फ टूटने की आवाज से बड़ी, कड़कदार और डरावनी आवाज मैंने आज तक नहीं सुनी है। यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है। यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं।" यह हिमालय को बहुत करीब से देखने, अनुभव करने, बर्फ-नदियों-झरनों-पत्थरों से बतियाने और मिथकों की कल्पनाशीलता से चमत्कृत होने का वृतांत भी है। 

यह यात्रा वृतांत दारमा, ब्यांस और चौंदास घाटियों के प्राकृतिक और मानवीय सह-जीवन का अत्यंत सरल लेकिन विश्वसनीय दस्तावेज बन गया है।1962 से पहले तिब्बत से व्यापार पर लगभग एकाधिकार के कारण जो शौका खूब सम्पन्न थे, जो उतने ही विनम्र एवं शालीन थे, जिनका इलाका दुर्गम ही नहीं एक रहस्यलोक-सा था, जिनकी कई व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं सभ्य कहे जाने वाले समाजों को मात करती थीं, उन शौकाओं के बारे में आज से सवा सौ साल पहले चार्ल्स ए शेरिंग जैसे प्रशासनिक अधिकारी और गहन अध्येता ने लिखा था- "इन खूबसूरत वादियों में अब भी जीवन का रूमान और कविता बचे हुए हैं।" विकास की बहुत सारी अतियों और पलायन के बावजूद आज भी वहां बहुत कुछ बचा हुआ है, इसकी गवाही अशोक पाण्डे की यह किताब देती है। यह भी पच्चीस साल पहले की गई यात्राओं की किताब है और इस बीच वहां बहुत कुछ बदला होगा। आज वे अत्यंत सुंदर वादियां उतनी दुर्गम नहीं रहीं लेकिन जीवन और कविता वहां बची रहे, यह कामना है। 

'जितनी मिट्टी उतना सोना' (हिंदयुग्म प्रकाशन) पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि अगर शांति काकी या सनम काकू से नहीं मिले और च्यक्ती भी नहीं पी तो जीवन क्या जिया! पिछले दिनों पिण्डर घाटी का अनिल यादव का यात्रा वृतांत 'कीड़ाजड़ी' पढ़ते हुए भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी। 

- न.जो, 6 मार्च, 2023     

     

Friday, March 03, 2023

'बढ़ते जंगल' और घटती ऑक्सीजन का क्रूर सत्य


पिछले दस सालों में देश के 1,611 वर्ग किमी जंंगल ढांचागत विकास और औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले कर दिए गए- यह नई दिल्ली के कुल क्षेत्र से कुछ बड़ा ही इलाका होगा और हमारे देश के कुल वन क्षेत्र (7.75 लाख वर्ग किमी) का 0.21 फीसदी है। और, विकास योजनाओं के लिए सौंपे गए जंगलों के बदले 'जंगल लगाने' का सच यह है कि निजी जमीनों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की हरियाली तथा सड़क के किनारे किए गए वृक्षारोपण, वगैरह को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है। अर्थात, कहानी यह है कि देश में जितना वन क्षेत्र बताया जाता है, उतना असल में है नहीं। सरकारी आंकड़े जिसे वन क्षेत्र या  'वनावरण' (फॉरेस्ट कवर) कहते हैं उसमें मंत्रियों के बंगलों की हरियाली, चाय बागान, आदि के साथ वह आंकड़े भी शामिल हैं जिनमें बताया जाता है कि हर साल कितना वृक्षारोपण किया जाता है।

प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक Indian Express आजकल एक खोज समाचार शृंखला प्रकाशित कर रहा है जो खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय समूह के साथ मिलकर तैयार की गई है। इसमें भारतीय वनक्षेत्र और अवैध एवं फर्जी तरीकों से हो रही वन-तस्करी के जो विवरण सामने आए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। हर साल वृक्षारोपण के कीर्तिमान बनाने और 'बढ़ते वनक्षेत्र' का दावा करने वाली हमारी सरकारों ने 1980 के बाद से वनक्षेत्र के आधिकारिक आंकड़े मीडिया को बताना बंद कर रखा है। Indian Express ने इस समाचार शृंखला के लिए पहली बार वह आंकड़े प्राप्त कर लिए जिसे सरकार 'वन क्षेत्र' कहती है। उसी से पता चला है कि जिस जंगल में अवैध कब्जे कर लिए गए, जहां जंगल साफ कर दिए गए, जहां वाणिज्यिक उपयोग के लिए पेड़ लगाए गए, सड़कों के किनारे जो पेड़ हैं, चाय के बागान, सुपारी के पेड़ों का झुरमुट, शहरी कॉलोनियों की हरियाली, गांवों के बगीचे, वीवीआईपी बंगलों के पेड़, आदि को भी 'वनक्षेत्र' में शामिल कर लिया जाता है।

इस खोजी रपट में पाया गया है कि औद्योगिक परियोजनाओं के लिए दिए गए जंगल जहां बहुत पुराने, महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य वन-सम्पदा होते हैं वहीं उसके 'ऐवज' में तैयार क्या जाने वाला 'वन' कागजी अधिक होता है। जिस वैकल्पिक भूमि पर यह वन लगाया जाता है वह इस लायक होती ही नहीं कि वहां वास्तव में वन विकसित हो सके। इसलिए हाल के वर्षों में वन क्षेत्र में हुई 'वृद्धि' वास्तविक वृद्धि नहीं कही जा सकती। सरकार के अनुसार 1980 के दशक में जो भारतीय वन क्षेत्र 19.53 प्रतिशत था वह 2021 में 21.71 प्रतिशत हो गया था और आज 24.62 प्रतिशत हो गया है- कागज में! वास्तव में हो यह रहा है कि बहुमूल्य प्राकृतिक जंगल नष्ट हो रहे हैं या किए जा रहे हैं और उनकी जगह कागल पर जंगल की खेती की जा रही है। जिसे वास्तविक वन-सम्पदा और जैव विविधता कहा जाता है, उसे भारी नुकसान हो रहा है।

भारत ने अंतराष्ट्रीय 'क्लाइमेट चेंज' सम्मीलनों के तहत यह वादा किया हुआ है कि वह 2030 तक ढाई से तीन अरब टन कार्बनडाइऑक्साइड और सोखने की क्षमता बढ़ाएगा। इस्का सीधा अर्थ यह हुआ कि जंगल बढ़ाने होंगे। इसीलिए वृक्षारोपण के कई कार्याक्रम चलाए जा रहे हैं। जिन औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगल दिए जाते हैं उनसे  प्रति हेक्टेयर की  दर से, जो जंगल के महत्त्व के हिसाब से 9.5 लाख से 16 लाख रु प्रति हेक्टेयर तक तय होती है, वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए रकम वसूली जाती है। यह रकम केंद्रीय खाते से फिर सम्बद्ध राज्यों के खाते में भेजी जाती है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों के अनुसार 2016 से अब तक करीब 66 हजार करोड़ रु केंद्रीय खातेमें जमा हुए थे जिनमें से 55 हजार करोड़ रु राज्यों के को दिए जा चुके हैं। राज्यों को इस रकम से वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए योजनाएं बनाकर केंद्र को भेजनी होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार यह रकम पूरी तरह खर्च नहीं की जा सकी है।   

वायुमण्डल में लगातार कम होती ऑक्सीजन एवं बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरे प्रदूषक तत्वों के पीछे भी लगातार नष्ट होते प्राकृतिक वन हैं। जहां पुराने प्राकृतिक वन खूब ऑक्सीजन देते और कार्बनडाइआक्साइड सोखते हैं, वही वैकल्पिक,सतही और कागजी वन न ऑक्सीजन ठीक से दे पाते हैं और न ही प्रदूषण सोख पाते हैं। फिर भला हमें 'ग्लोबल वार्मिग' पर क्यों आश्चर्य करना चाहिए और क्यों पूछना चाहिए कि आम में बौर जनवरी में ही क्यों आ गया या गर्मी इतनी जल्दी कैसे आ गई या अतिवृष्टि एवं बादल फटने की घटनाएं इतनी क्यों होने लगी हैं? 

'Indian Express' की यह समाचार शृंखला सिर्फ वनों को होने वाले नुकसान और कागजी जंगलों के बारे में नहीं है, बल्कि इसमें यह भी सामने आ रहा है कि किस तरह वन-तस्कर दुनिया भर में सक्रिय हैं। जबसे यूरोप तथा अमेरिकी देशों ने वनोपज से बना सामान तब तक खरीदने पर रोक लगा दी है जब तक कि उसे यह प्रमाणपत्र हासिल न हो कि यह सामान वनों के अवैज्ञानिक दोहन से नहीं बना है (बल्कि यह  वनों के संरक्षण की नीतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है) तबसे भारत ऐसा फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाली एजेंसियों का बड़ा केंद्र बन गया है। म्यामार (पूर्व में बर्मा) में सैन्य तानाशाही द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने के विरोध में जबसे वहां के विश्वविख्यात सागौन (बर्मा टीक) को खरीदने पर अमेरिका समेत कई देशों ने रोक लगा दी है, तबसे 'बर्मा टीक' भारत के जरिए विदेशों में इसी संदिग्ध प्रमाणपत्रों की आड़ में बेचा जा रहा है। 'बर्मा टीक' पूरे विश्व में आलीशान फर्नीचर और ऐशगाह नौकाओं के निर्माण के लिए ख्यात है और उसकी बड़ी मांग है। 

दो मार्च से प्रकाशित हो रही 'Indian Express' की यह शृंखला अवश्य पढ़नी चाहिए।

- न. जो, 04 मार्च, 2023