प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वयं ही
अपने को ‘चौकीदार नरेंद्र मोदी’ कहने की ऐसी क्या जरूरत आन
पड़ी होगी? उनकी देखा-देखी भाजपा मंत्रियों, नेताओं, पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों
और अन्धभक्तों ने भी अपने को ‘चौकीदार’
कहना-लिखना शुरू कर दिया है. भाजपा ने अब इसे अपना अभियान ही बना लिया है- “मैं भी
हूँ चौकीदार.’
देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को ‘चौकीदार’ के रूप में नहीं चुना था. सन् 2014 के
चुनाव में भाजपा की तरफ से वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे. उनकी पार्टी को
जिता कर नरेंद्र मोदी को जनता ने प्रधानमंत्री चुना. उनकी जवाबदेही प्रधानमंत्री
के रूप में है.
तो, नरेंद्र
मोदी इस चुनाव में प्रधानमंत्री के रूप में जवाबदेह बनकर जनता के सामने क्यों नहीं
आ रहे? जबर्दस्ती ‘चौकीदार’ बनकर क्यों पेश हो रहे हैं? मान न मान, मैं चौकीदार! अरे भाई, क्यों? कैसा
चौकीदार? किसका चौकीदार?
ध्यान दीजिए कि ‘मैं चौकीदार हूँ’ और ‘मैं भी चौकीदार’
के इस शोर में हो क्या रहा है?
मोदी सरकार से कुछ सवाल पूछे जा रहे थे,
जो कि पूछे जाने चाहिए थे. मसलन, आपने इस देश
के संविधान की शपथ ली थी. आपका उत्तरदायित्त्व था कि संविधान की मूल भावना के
अनुरूप इस देश की शासन-प्रणाली चले. जब गोरक्षा के नाम निर्दोष मुसलमानों की
भीड़-ह्त्या हो रही थी, जब किसी के चूल्हे में ताक-झांक कर
उसके खाने पर शंका उठा कर घर फूंका जा रहा था, जब प्रतिरोध
में आवाज उठाने वालों को देशद्रोही बताकर मारा-पीटा जा रहा था, जब गौरी लंकेश जैसे एक्टिविस्ट पत्रकार-लेखक की हत्या हो रही थी, जब रोहित वेमुला आत्महत्या करने को मजबूर किया जा रहा था, जब कन्हैया कुमार जैसे जेएनयू के युवाओं को देशद्रोही बताकर फंसाया जा रहा
था, आदि-आदि, तब आप चुप क्यों थे?
प्रधानमंत्री के नाते आपकी कुछ जिम्मेदारी बनती थी या नहीं?
इन सबसे आपकी वैचारिक असहमति हो सकती है.
आप जिस विचारधारा की उपज हैं, वह असहमति के साहस
को स्वीकार नहीं करती, यह हम जानते हैं. उसके बावजूद आप देश
के प्रधानमंत्री पद पर सशपथ विराजमान हैं तो क्या संविधान और लोकतंत्र आपको यह
दायित्व नहीं देते कि आप शासन-प्रमुख के नाते हस्तक्षेप करते? प्रधानमंत्री पद पर बैठे हुए आप उन बहुत सारे लेखकों, पत्रकारों, विज्ञानियों, इतिहासकारों,
फिल्मकारों, कलाकारों, रंगकर्मियों, आदि के लोकतांत्रिक
विरोध को कैसे उपहास में उड़ा सकते हैं, जो अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता पर हमले के विरोध में पहले कभी मिले सम्मान लौटा रहे थे और प्रदर्शन कर
रहे थे? प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले नरेंद्र मोदी
की ऐसे में क्या जिम्मेदारी बनती थी?
प्रधानमंत्री के रूप में पाँच साल पूरे कर
रहे नरेंद्र मोदी से यह सवाल भी जनता कर ही रही थी कि आपने जो बड़े-बड़े वादे किये
थे,
वे पूरे क्यों नहीं हो पाये? भ्रष्टाचार
मिटाने, विदेशों में छुपाया हुआ चोर-धन वापस लाने, किसानों की दुर्दशा दूर करके उनकी आय दोगुनी करने, पूर्ववर्ती
सरकार के दौरान हुए घोटालों के अपराधियों को सजा देने, जैसे
आपके कई वादों का क्या हुआ?
क्या यह पूछना इस चुनाव में जरूरी नहीं है
कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी समेत कई वरिष्ठ पत्रकार-वकील,
अधिकारी, आदि राफेल विमान सौदे में आप पर
अनियमितता के जो आरोप लगा रहे हैं, सही या गलत, उसकी जेपीसी जांच कराने से आप बच क्यों रहे हैं? सुप्रीम
कोर्ट से भी क्यों कह रहे हैं कि ऐसा करना उचित नहीं होगा? हो
जाने दीजिए जाँच. इस देश के बैंकिंग सेक्टर को खोखला करने वाले कई बड़े ‘अभियुक्तों’ की जो सूची रिजर्व बैंक के तत्कालीन
गवर्नर रघुराम राजन ने कार्रवाई की अपेक्षा में आपको सौंपी थी, उनके खिलाफ आपने कोई कदम उठाया? नहीं , तो क्यों?
पांच साल के आपके कार्यकाल में आपसे पूछने
के लिए इस देश की जनता के पास बहुत सवाल हैं. ऊपर तो चंद उदाहरण भर गिनाये गये
हैं. एक बड़ा सवाल तो यही है कि जिस मीडिया की जिम्मेदारी जनता की ओर से आपसे सवाल
करने की थी, उसके सामने आप एक बार भी पेश क्यों
नहीं हुए? अपने नाम यह दुर्भाग्यपूर्ण कीर्तिमान आपने क्यों
दर्ज कराया कि पूरे कार्यकाल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित न करने वाले
आप पहले प्रधानमंत्री हैं? आपको सवालों से इतना डर क्यों
लगता है? और, मीडिया के जिस धड़े ने
सवाल पूछने का दायित्व निभाया, उसकी आवाज दबाने का, उसका गला घोटने या स्वर्ण पात्र से मुँह ढकने का अलोकतांत्रिक काम आपने
क्यों किया? जनता की तरफ से मीडिया के सवालों का जवाब देश का
प्रधानमंत्री नहीं देगा तो कौन देगा?
और,अब जबकि
चुनाव का समय आया है, जब प्रधानमंत्री के रूप में आपका
कार्यकाल कसौटी पर है तो आप अचानक कहने लगे कि ‘मैं चौकीदार
हूँ’ . भला क्यों?
नरेंद्र मोदी ‘इस भला क्यों?’ का जवाब नहीं देंगे. जवाब देने से
बचने के लिए ही तो वे प्रधानमंत्री की बजाय अपने को ‘चौकीदार’ कहने लगे हैं.
यह जनता को सोचना-समझना है कि जनता के
सवालों को, रोजमर्रा की जिन्दगी के मुद्दों को,
वादाखिलाफी के आरोपों को, प्रधानमंत्री के रूप
में संविधान के मूल्यों की रक्षा में विफलता, आदि-आदि को
दबाने के लिए ही तो ‘चौकीदार-चौकीदार’
का शोर मचाया जा रहा है.
सोचिए कि क्या इस शोर में सारे सवाल और
मुद्दे दब गये हैं या नहीं? अब सारी बहस ‘चौकीदार’
के इर्द-गिर्द घूम रही है कि नहीं? राहुल और प्रियंका भी अपने भाषणों में कहने लगे
हैं कि ‘चौकीदार तो अमीरों के होते हैं.’ यानी विपक्षी नेता भी ‘चौकीदार’ के खेल में उलझा दिये गये हैं. मीडिया तो खैर ‘मैं
चौकीदार हूँ’ खेल से चमत्कृत है ही.
क्या खूब खेल है और कैसे चतुर खिलाड़ी!
2019 के आम चुनाव में हमें ‘चौकीदार’ चुनना है या ऐसी सरकार जो देश को संविधान
की भावना के अनुरूप चलाते हुए जनता की भलाई के लिए काम कर सके?
2014 में हमने ‘चाय
वाला’ चुना था क्या? राष्ट्रपति ने नरेंद्र
मोदी को देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी, चाय बेचने
वाले आदमी के रूप में नहीं.
याद ही होगा कि 2014
के चुनाव में मोदी जी अपने को ‘चाय वाला’
बताते हुए घूम रहे थे. बेची होगी उन्होंने कभी चाय, या नहीं बेची होगी. उस समय यूपी शासन से ऊबे देश को चाय बेचने वाले की
नहीं, ईमानदारी और समर्पण से इस बहुतावादी देश को संविधान की
मूल भावना के अनुरूप सरकार चला सकने वाले नेता की आवश्यकता थी. जनता को नरेंद्र
मोदी में एक नया, ऊर्जावान, बड़े-बड़े
वादों से उम्मीदें जगाने वाला प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार दिखा था. इसीलिए
उन्हें जनता ने भारी बहुमत से सत्ता में पहुँचाया. अब समय है कि उनसे प्रधानमंत्री
के रूप में सवाल किये जाए, जवाब मांगे जाएं.
विमर्श बदल देने,
मुद्दों से ध्यान भटका देने, जवाबदेही टालने
में हमारे नेताओं का जवाब नहीं. मोदी जी की टीम तो इस खेल की चैम्पियन साबित हो
रही.
इसलिए, आवश्यक
है कि यह समझना कि ऐन चुनावों के वक्त ‘मैं चौकीदार हूँ’
का अभियान क्यों चलाया जा रहा है. इसीलिए जरूरी है कि इस नये जुमले
में उलझ कर मूल मुद्दों से ध्यान नहीं हटा देना चाहिए.
(नैनीताल सामाचार की वेबसाइट samachar-org.in के लिए 21 मार्च, 2019)