Friday, July 30, 2021

इस साल भी भू गर्भ जल दिवस मना लिया गया!

कोई पांच-छह वर्ष पहले एक दिन हमारे घर के सामने वाले पार्क में भू गर्भ जल विभाग की टीम आ धमकी। देखते-देखते जेसीबी मशीन से पार्क के भीतर चारों तरफ खुदाई हो गई। बताया गया कि शहर के पार्कों में रेन वाटर हार्वेस्टिंगका इंतज़ाम किया जा रहा है। दो-तीन दिन में गहरी नालियां बनाकर उन्हें रि-चार्ज पिट से जोड़ दिया गया। नालियों के ऊपर सीमेंट के पत्थर ढाल दिए गए। फटाफट काम पूरा करके टीम लौट गई। इस बीच नगर निगम ने उन्हीं नालियों से चिपका कर टाइल्स बिछा दिए। पानी नीचे जाने के बचे-खुचे छिद्रों को घास और मिट्टी ने ढक दिया। रेन वाटर हार्वेस्टिंग वाले तब से आज तक झांकने नहीं आए कि वर्षा जल उन नालियों से धरती में जा रहा है या नहीं और उनकी व्यवस्था काम कर रही है या नहीं। वैसे, पार्क या खेत या मिट्टी वाली खुली जगहों से वर्षा का पानी स्वयं ही धरती में चला जाता है। पार्क में रिचार्जिंग सिस्टम बनाने की आवश्यकता ही नहीं थी।

यह याद इसलिए आया कि पिछले दिनों विभाग ने ससमारोह भू गर्भ जल दिवस मनाया। वन महोत्सवकी तरह यह भी एक सालाना उत्सव हो गया है। महोत्सव’, ‘सप्ताहऔर दिवसहर साल मनाए जा रहे हैं। धरती के भीतर पानी का स्तर हर साल कम होता जा रहा है। दस साल बाद भीषण जल संकट की चेतावनी विशेषज्ञ दे रहे हैं।

नीतियां और योजनाएं बहुत अच्छी हैं। सरकारी भवनों, बहुमंजिली आवास योजनाओं और दो सौ मीटर से बड़े निजी भूखण्डों पर बने मकानों के लिए रूफ टॉप रेन हारवेस्टिंगआवश्यक कर दी गई है। निजी मकानों का छोड़ दीजिए, बड़ी-बड़ी सरकारी इमारतों में व्यवस्था तो की गई है लेकिन वह ध्वस्त पड़ी है। शायद ही किसी सरकारी इमारत में छत का पानी धरती में पहुंचाने वाली व्यवस्था काम करती मिले। बहुमंजिली आवासीय योजनाओं की लखनऊ में अब बड़ी संख्या हो गई है। वे धरती से बेहिसाब पानी खींच रहे हैं लेकिन नियमानुसार वर्ष जल धरती में पहुंचाने की व्यवस्था उन्होंने की है या नहीं, भूगर्भ जल विभाग या किसी को भी यह देखने की फुर्सत नहीं है।

गोमती नगर हो या आशियाना या कोई भी बड़ी कॉलोनी, लगभग हर घर में गहरी बोरिंग करके जमीन से बेहिसाब पानी खींचा जा रहा है। आदेश जारी करके घरों में बिना इजाजत बोरिंग करने पर रोक लगा दी गई है लेकिन देखने-सुनने वाला कोई नहीं। हाल के वर्षों में गहरी बोरिंग करके आर ओ वाटरका धंधा करने वालों की बाढ़ आ गई है। पानी की सप्लाई करने वाली गाड़ियां शहर की सड़कों पर दिन भर दौड़ती है। नियम-कानून हैं लेकिन सिर्फ कागजों पर।

एक स्वतंत्र संगठन ‘द एनर्जी एण्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी’) द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि लखनऊ शहर के 72 फीसदी घरों में भू-जल का इस्तेमाल होता है। 90 प्रतिशत बहुमंजिली इमारतों और 70 प्रतिशत वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों (होटल, दफ्तर, स्कूल, मॉल, आदि) में भू गर्भ जल इस्तेमाल होता है। इनमें अधिकतर बोरिंग 200 फुट तक गहरी हैं। टेरीका अध्ययन बताता है कि लखनऊ की धरती में जितना वर्षा जल समाता है, उससे 17 फीसदी अधिक पानी का दोहन हो रहा है। दस साल बाद शहर के मुख्य इलाकों में भू जल का स्तर 25 मीटर तक और नीचे चला जाएगा।

टेरीका अध्ययन यह भी बताता है कि सरकारी विभाग हों, वाणिज्यिक प्रतिष्ठान या नागरिक, किसी में भी पानी बचाने की चेतना नहीं है। वे धड़ल्ले से पानी खींचते और बर्बाद भी बहुत करते हैं। पानी दुर्लभ होता जा रहा है, आने वाले समय में त्राहि-त्राहि मचेगी, इसलिए हमें पानी बचाने के हर जतन करने चाहिए, यह चेतना लखनऊ जैसे शहर में भी नहीं है।

भू गर्भ जल विभाग वालों की भी वही मानसिकता है तो किम आश्चर्यम! 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 जुलाई, 2021)         

Thursday, July 29, 2021

जमीन पर तो योगी की मुश्किलें बढ़ रही हैं

उत्तर प्रदेश के संन्यासी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जितना ही यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने प्रदेश का कायाकल्प कर दिया है तथा कोविड महामारी पर सफल नियंत्रण के अलावा किसानों, व्यापारियों, गृहिणियों, कर्मचारियों, बेरोजगारों, आदि की समस्याएं हल कर दी हैं, जमीन पर उनकी मुश्किलें उतनी ही बढ़ रही हैं। 

वास्तविकता यह है कि किसान, व्यापारी, महिलाएं और सरकारी कर्मचारी सरकार से प्रसन्न नहीं हैं। सबसे ज़्यादा खफा किसान हैं, जिनके आंदोलन को आठ महीने पूरे हो चुके हैं और मीडिया से उनकी खबरें नदारद रहने के बावजूद वे डटे हुए हैं। 26 जुलाई को ही राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव ने लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया कि वे मिशन यूपी-उत्तराखण्डशुरू करने जा रहे हैं। यानी यूपी-उत्तराखण्ड में किसान-आंदोलन तेज किया जाएगा। पांच सितम्बर को मुजफ्फरनगर में महापंचायत से इसकी शुरुआत की जाएगी। उसके बाद हर मण्डल में पंचायत होगी। सभी जगह भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं का बहिष्कार किया जाएगा और दिल्ली की तरह लखनऊ के रास्ते भी सील किए जाएंगे। योगेंद्र यादव ने आंकड़े पेश करके बताया कि यू पी में रबी में 310 लाख टन गेहूं की पैदावार हुई लेकिन सरकार ने इसकी सिर्फ एक चौथाई खरीद की। उस पर भी कई जगह किसानों को तय दर नहीं मिली।

कोविड महामारी के दूसरे दौर की कभी न भुलाई जा सकने वाली खौफनाक यादें जनता के जेहन में ताज़ा हैं। जिला प्रशासनों ने नदियों के किनारे उघड़ी पाई गई लाशों में से कई का अंतिम संस्कार भले करवा दिया हो और मोदी सरकार के मंत्री संसद में बयान देते हों कि ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई, जनता ने जो भोगा वह उसकी स्मृति से कैसे मिट सकता है? ये बयान उसके घावों पर नमक छिड़कने जैसे हैं। मध्य-निम्न मध्य वर्ग पर मंहगाई की जैसी आफत टूटी पड़ी है, वह लुभावने सरकारी वादों या आकर्षक घोषणाओं वाले बड़े-बड़े विज्ञापनों से छुपाई नहीं जा सकती। अर्थव्यवस्था की बुरी हालत और कोविड-लॉकडाउन के कारण आम जनता की रोजी-रोटी पर जैसा संकट आया है, वह कैसे छुपाया जा सकता है?    

उधर, मुख्यमंत्री योगी हैं कि सरकार की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटे जा रहे हैं। जब से उनकी कुर्सी का संकट टला है और प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय नेताओं ने उनके कसीदे काढ़े हैं, तब से वे कुछ ज़्यादा ही उत्साहित एवं सक्रिय हो गए हैं। कारण यह कि उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद चुनाव होने हैं। प्रदेश के लगभग हर जिले का उन्होंने दौरा कर लिया है। अपने मंत्रियों से भी कहा है कि वे अधिक से अधिक समय अपने क्षेत्र में दें, जनता को बताएं कि हमारी सरकार ने क्या-क्या काम कर दिए हैं, कि कोविड महामारी पर कितनी तेजी से काबू पा लिया है, कि दुनिया कोरोना नियंत्रण में यू पी मॉडल की चर्चा कर रही है, कि राम मंदिर शीघ्र बन जाने वाला है, कि प्रदेश में बेरोजगारी समाप्त हो रही है, कि अपराधी डर कर भाग गए हैं या उनका सफाया कर दिया गया है, कि विपक्षी दल चेहरा दिखाने लायक नहीं रह गए हैं, वगैरह-वगैरह। प्रदेश में हर काम चुनाव-प्रचार की तरह हो रहा है। छोटी से छोटी नौकरियों के नियुक्ति पत्र योगी जी स्वयं बांट रहे हैं। इसका खूब प्रचार किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अभी सैकड़ों-हजारों नौकरियां दी जाने वाली हैं।

सच्चाई यह कि है कि जमीन पर भाजपा के पांवों के नीचे जमीन हिल रही है। पंचायत चुनावों के नतीज़ों ने ही बड़े जतन से गढ़ा गया योगी जी का प्रभा मण्डल धूमिल कर दिया। जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने भाजपा को न केवल कड़ी टक्कर दी, बल्कि उससे कहीं अधिक सीटें जीत लीं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा-रालोद ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और बुंदेलखण्ड से लेकर पूर्वांचल तक बसपा ने भी अपना दम दिखाया। भाजपा को अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयागराज जैसे जिलों में भी पराजय मिली। यह किसानों के गुस्से के अलावा जनता के सभी वर्गों के असंतोष का परिणाम था।

इस पराजय को सत्ता और धन बल से किस तरह भारी विजयमें बदला गया, वह भले ही मीडिया में ठीक से न आया हो, जनता को भली-भांति पता है। जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के निर्वाचन चूंकि सीधे जनता नहीं करती, निर्वाचित सदस्य करते हैं, इसलिए योगी सरकार और भाजपा ने उन्हें साम-दाम-दण्ड-भेद से अपने पक्ष में कर लिया। कई जिलों से हिंसा, निर्वाचित सदस्यों के अपहरण, विपक्षी प्रत्याशियों को नामांकन न भरने देने, पुलिस पर हमले, एस पी और फोटो-पत्रकार की पिटाई, जैसी खबरें मिलीं। ऐसी घटनाओं के वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुए। सपा, बसपा और कांग्रेस ने इस पर खूब हल्ला मचाया। इसे लोकतंत्र की खुलेआम हत्या बताया लेकिन योगी जी ने जिला पंचायत अध्यक्षों एवं ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में भाजपा की ज़बर्दस्त जीत को अपनी सरकार की लोकप्रियता का परिणाम कहा और खुशी मनाई। दिल्ली दरबार से उन्हें बधाइयां भी मिलीं।         

वास्तविकता यह है कि महीने भर पहले तक योगी जी की कुर्सी पर खतरा मँडरा रहा था। प्रदेश भाजपा के नेताओं में उनकी कार्यशैली को लेकर असंतोष था। सरकार के काम-काज पर सवाल उठाए जा रहे थे। सबसे अधिक सवाल कोविड महामारी से निपटने में हुई भारी लापरवाहियों एवं सरकार की अक्षमता पर  उठाए गए, जिसके कारण इतनी मौतें हुईं कि शवों को नदियों में बहाना या रेत में दफ्न करना पड़ा। जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में भाजपा का पिछड़ना इसी सब का परिणाम माना गया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने एक विश्वस्त अधिकारी ए के शर्मा को उत्तर प्रदेश भेजा। कहा गया कि शर्मा को योगी जी के काम-काज पर नज़र रखने के लिए भेजा गया है। योगी जी दिल्ली तलब भी किए गए। जो भी हुआ हो, अन्तत: प्रधानमंत्री समेत सभी नेताओं ने योगी जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तय हो गया कि यू पी अगला चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उसके बाद योगी जी के दावों, घोषणाओंं और सरकार की उपलब्धियों के प्रचार की उड़ान जोरों पर है।

जिला पंचायत चुनावों ने साबित किया कि नेताओं को खरीदा जा सकता है, जनता को नहीं। निर्वाचित नेताओं को खरीद कर या डरा-धमका कर जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के पद भले ही कब्जा लिए गए हों, जनता ने तो सीधे मतदान में बता दिया था कि वह क्या सोच रही है। योगी जी और भाजपा के लिए यही चिंता का कारण है। विधान सभा चुनाव में जनता सीधे अपनी पसंद के उम्मीदवारों को चुनेगी। पश्चिम बंगाल के हाल में हुए चुनावों के नतीजे भी भाजपा के लिए चिंता का कारण हो सकते हैं, जहां मोदी जी का जादू नहीं चला।

योगी जी के पक्ष में एक बात यह अवश्य है कि विपक्ष बिखरा और बंटा हुआ है। मुख्य विपक्षी दल, समाजवादी पार्टी अपनी अपेक्षित भूमिका में नहीं है। योगी सरकार की विफलताओं को वह आंदोलन में तब्दील नहीं कर पाई है। बसपा का जनाधार काफी खिसक चुका है। वह अब फिर से ब्राह्मणों को रिझाने में लग गई है। कांग्रेस प्रियंका गांधी के दौरों से जोर तो बांध रही है लेकिन जमीन पर उसके नेता हैं न कार्यकर्ता।     

(नवजीवन साप्ताहिक, 01 अगस्त, 2021)                 


Saturday, July 24, 2021

नट-नटी-नक्कारे की खामोशी खला करेगी

अपने किशोर-युवा दिनों में हम स्थानीय समाचार पत्रों में के पी सक्सेना को खूब पढ़ते और उस पर चर्चा करते थे। वे दशकों तक व्यंग्य लिखते रहे और लोकप्रिय हुए। शहर में उनसे कद और प्रतिष्ठा में कहीं बड़े कई साहित्यकार सक्रिय थे जिनका हिंदी साहित्य में खूब नाम-सम्मान था। तो भी वे आम पाठकों या जनता के बीच उतने लोकप्रिय नहीं थे। एक तो अखबारों में उनका लिखना नहीं के बराबर होता था और  गम्भीर साहित्य के उतने पाठक भी नहीं होते जितने दैनिक अखबारों के होते हैं। दूसरा कारण यह कि हास्य-व्यंग्य सबसे अधिक पढ़े-सराहे जाते हैं। इसलिए के पी की पहचान एक सेलिब्रिटी की तरह थी।

हास्य-व्यंग्य लेखन में शहर से जो दूसरा नाम उभरा वह उर्मिल कुमार थपलियाल का है, जिन्होंने समाज और राजनीति पर कटाक्ष के लिए सर्वथा नई विधा चुनी। सुदूर गढ़वाल के एक गांव में जन्मे उर्मिल अपने साथ वहां की समृद्ध लोक संगीत और लोक नाट्य परम्परा लेकर आए थे लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश की लुप्त प्राय नौटंकी विधा ने सबसे अधिक आकर्षित किया। उर्मिल का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से रंगमंच बना लेकिन अखबारी लेखन में भी वे बराबर लगे रहे। वे लेखन के रास्ते ही रंगमंच में गए थे। नौटंकी का फॉर्मेट लेकर पिछले चालीस वर्षों से लखनऊ और बाहर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जितना एवं जैसा लिखा उसने उन्हें लोकप्रिय लेखक भी बनाया। उनकी सप्ताह की नौटंकीऔर विविध व्यंग्य-कवित्त खूब पढ़े-सराहे जाते थे।

उर्मिल के नौटंकी आधारित नाटक हरिश्चन्नर की लड़ाई के पिछले लगभग बीस साल में देश भर में एक सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं। आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है। उसकी लोकप्रियता का कारण नौटंकी के आधुनिक मंचीय प्रयोग के अलावा यह भी है कि उसके हर प्रदर्शन में सम सामयिक घटनाओं पर तीखे तंज़ शामिल किए जाते रहे। वे राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध लेखक या रंगकर्मी नहीं थे। इसलिए उन्होंने हर तरह के नाटक किए लेकिन एक रचनाकार और कलाकार के रूप में अपने नाटकों एवं स्तम्भों में ताज़ा सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों पर तीखे कटाक्ष करते रहते थे। एक बार प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने एक दैनिक में प्रकाशित होने वाला उनका नौटंकी स्तम्भ इसी कारण बंद करवा दिया था।

रचनाधर्मियों का दायित्व है कि वे समाज की चेतना का अग्रिम दस्ता बने रहें। वे अपनी-अपनी विधाओं में अपने समय को दर्ज़ करके सार्थक भूमिका निभाते हैं और समाज को वैचारिक दिशा देने का काम करते हैं। आज के हालात हालांकि बहुत बदले हुए हैं। रचनाकार-कलाकार बिरादरी में इतना तीखा विभाजन पहले नहीं था। सामयिक मुद्दों पर समाज की राय बनाने में सहायक होने की बजाय आज यह बिरादरी अंध भक्ति की तरह राजनैतिक पाले पकड़ कर आपस में ही थुक्का-फजीहत करने में लगी है। इस बिरादरी में सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक भी होते हैं और धुर विरोधी भी लेकिन माना यही जाता है कि वे समाज के ऐसे चौकीदार हैं जो सरकार और उसकी नीतियों से असहमति के बिंदुओं को उजागर करके जागते रहोकी पुकार लगाया करेंगे। कम से कम आंख मूंद कर सत्ता या पार्टी विशेष का समर्थन नहीं करेंगे।

उर्मिल थपलियाल के निधन से शहर के रंगमंच और पत्रकारिता में एक शून्य पैदा हुआ है। उनके व्यंग्य स्तम्भों की मार्फत समाचार-पत्रों में प्रछन्न ही सही, थोड़ा पैनापन बना रहता था जो अन्यथा उनसे गायब ही हो चुका है। बीमारी के पिछले चंद महीनों को छोड़कर अस्सी वर्ष की उम्र में भी वे बहुत सजग और सक्रिय थे। जुलाई मास की कुछ पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य स्तम्भ प्रकाशित होना इसका प्रमाण है।      

उर्मिल के नट-नटी और नक्कारे को भूलना मुश्किल होगा।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 जुलाई, 2021) 

 

     

Tuesday, July 20, 2021

राजेश्वर और सोहनलाल से उर्मिल थपलियाल तक

ग्राम ढौंड, मासों (गढ़वाल) निवासी गुणानंद थपलियाल की पहली पत्नी सत्येश्वरी एक बेटे को जन्म देकर परलोक सिधार गई थीं। माता की स्मृति में उस बेटे का नाम रखा गया सत्येश्वर। दूसरी पत्नी सर्वेश्वरी भी एक बेटा जनने के बाद काल-कवलित हो गईं। उस बेटे का नाम रखा गया सर्वेश्वर। गुणानंद जी ने तीसरा ब्याह किया राजेश्वरी से। राजेश्वरी भी पहले प्रसव के कुछ दिन बाद जाती रहीं। जो अबोध बालक वे छोड़ गईं थीं उसका नाम तय हुआ- राजेश्वर। वह पांच या छह वर्ष का था तो पिता गुणानंद जी भी चल बसे। अनाथ हो गए बालक राजेश्वर को उसकी विधवा बुआ ने पाला। बुआ को ही वह मां कहता था।

देहरादून में स्कूल जाने पर राजेश्वर ने स्वयं अपना नाम लिखवाया- सोहनलाल। इस नाम का आकर्षण यह था कि उसने सोहनलाल नाम के एक व्यक्ति को जयकारा लगाते जुलूस के बीच फूलमालाओं से लदे हुए शान से जाते देखा था। बाद में पता चला कि वह आर्य समाज के नेता थे। तो, सोहनलाल ही उसका आधिकारिक नाम बना- सोहनलाल थपलियाल। थोड़ा बड़ा होने पर किशोर सोहनलाल ने गांव के घर में पड़े एक पुराने बक्से को उलटा-पुलटा तो उसमें एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें दामोदर चंदोला (जो उसके मामा लगते थे) ने पिता गुणानंद को श्रावण संक्रांति के दिन पुत्र-जन्म की बधाई लिखी थी। पोस्ट कार्ड सन्‍ 1941 का था। सोहनलाल ने इसे ही अपना जन्म दिन और वर्ष मान लिया।  

सोहनलाल की स्कूली शिक्षा देहरादून में हुई- लक्ष्मण विद्यालय, लक्खीबाग और इस्लामिया स्कूल (आज का गांधी विद्यालय) में। 1957 में हाईस्कूल पास किया। देहरादून में ही सोहन लाल में भविष्य के उर्मिल कुमार थपलियाल बनने के बीज पड़े और अंकुर फूटे, जिसे कहानी और कविताओं से शुरू करके नाटककार, रंग अभिनेता-निर्देशक, लोक संगीत मर्मज्ञ और नागर नौटंकी को पुनर्स्थापित करने एवं नया रूप देने वाला चर्चित नाम बनना था। लेकिन स्कूली दिनों तो सोहनलाल बहुत शर्मीला, संकोची और कुण्ठाग्रस्त था। उस अनाथ बालक पर सब दिया दिखाते थे। इससे बालक सोहनलाल में हीन भावना भर गई। वह अपने को अत्यंत दीन-हीन समझने लगा। लोगों के सामने ठीक से बोल नहीं पाता था। नतीज़ा यह हुआ कि वह हकलाने लगा। इससे वह और भी कुण्ठाग्रस्त और अकेला रहने लगा।

कोई भीतरी प्रेरणा ही रही होगी (उर्मिल जी बाद में इसे ईश्वरीय शक्ति कहते थे) कि हकलाना कम करने का उपाय उसने स्वयं ही ढूंढ लिया। जहां वह रहता था, फालतू लाइन के पास एक जंगल था। खाली समय में सब लड़के वहीं जाकर खेलते-पढ़ते थे। सोहनलाल जंगल में अकेले दूर जाकर पेड़ों से खूब बात करता। उसे लगता कि पेड़ भी उससे बात करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसका हकलाना कम होने लगा। बाद में उस पर उसने इतना नियंत्रण पा लिया था कि गाना गाने लगा, रामलीला में भाग लेने लगा और कालांतर में रेडियो पर समाचार वाचन भी सहजता से कर सका।   

रामलीला में भाग लेने से सोहनलाल का व्यक्तित्व बहुत निखरा और लोगों ने उसकी प्रतिभा पहचानी।  बचपन में बुआ का उसे खिलाते-पिलाते और काम करते-करते गुनगुनाते रहना उसके भीतर किस कदर संगीत भर गया था, यह 1957 में चुक्खू की रामलीला में सीता की भूमिका अदा करते हुए सामने आया। रामलीला की तालीम कराने वाले सुमाड़ी के सदानंद काला ने सोहनलाल की संगीत-प्रतिभा खूब पहचानी। सीता का उसका अदा किया रोल इतना पसंद किया गया कि देहरादून की दूसरी रामलीला में भी, जो सर्वे ऑफ इण्डिया, हाथी बड़कला में होती थी, उसे उसी रात एक दृश्य में सीता बनने जाना पड़ता था। सीता हरण का प्रसंग मंचित करते समय सोहनलाल को चुक्खू से हाथी बड़कला ले जाया जाता था। रामलीला में अभिनय को उर्मिल अपना कायांतरण का प्रशिक्षण मानते थे, जिसने उन्हें भविष्य में नाटकों में अभिनय और निर्देशन में बड़ी मदद की। बुआ के कण्ठ से सुनी लोक धुनें उनके मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठी रहीं कि वर्षों बाद जब अपने चचेरे दादा भवानी दत्त थपलियाल का सन 1911 में लिखा गढ़वाली नाटक प्रहलादउन्होंने मंचित किया तो वही धुनें इस्तेमाल कीं। वे बताते थे कि बुआ को पूरा प्रह्लादनाटक कंठस्थ था। भवानी दत्त जी बुआ के चाचा होते थे।

1962 में बीए करने के दौरान और उसके बाद में हिमाचल टाइम्समें काम करते हुए सोहनलाल ने कहानियां लिखीं तथाउर्मिलउपनाम रखकर कविताएं लिखीं। उर्मिलउपनाम रखने की भी एक कहानी है। इण्टर पास किया ही था कि एक लड़की से प्रेम कर बैठे। बड़े घर की लड़की थी। नाम था उमा। एकतरफा ही रहा उनका यह पहला प्रेम। उसी की याद में पहले अपना नाम रखा उर्मिलेशजिसे फिर उर्मिलबना दिया। बाद में उर्मिल ही उनका पहला नाम बन गया। रेडियो पर जब वे कहते- अब आप सोहनलाल थपलियाल से समाचार सुनिएतो शुरू-शुरू में सबको आश्चर्य होता था।

बहरहाल, देहरादून में उर्मिल की मुलाकातें परिपूर्णानंद पैन्यूली, दीवान सिंह कुमैयां’, जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, अल्मोड़ा से अक्सर आने वाले मोहन उप्रेती और ब्रह्मदेव जी के यहां आने वाले धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, आदि से हुईं। शशिप्रभा शास्त्री भी वहीं थीं। गढ़वालीपत्र के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को दूर से देखते थे लेकिन उनसे मिलने और सीखने की तमीज तब नहीं आई थी। पढ़ने का शौक बढ़ गया था। दर्शन लाल चौराहा पर बहुत पुराना पुस्तकालय था- खुशीराम लाइब्रेरी। वहीं बैठे पढ़ते रहते। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, आदि देश भर की पत्रिकाएं, किताबें और जासूसी उपन्यास तक। उर्दू की कुछ रचनाएं अर्थ देख-देख कर पढ़ीं लेकिन अंग्रेजी की पुस्तकें नहीं पढ़ पाए। देहरादून में एक कहानीकार हुए होशियार सिंह चौहान। वे एक कहानी प्रतियोगिता कराते थे। उस प्रतियोगिता के लिए कहानी लिखी और धरातल टूट गयानाम से और दूसरा पुरस्कार पाया।

उस दौरान टाउनहाल में खूब सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। वहीं उर्मिल ने पहली बार पूर्ण कालिक नाटकों के मंचन देखे। पारसी रंगमंच के प्रभाव वाले जागो हुआ सबेरा,’ ‘सिकंदर और पोरसजैसे उन नाट्य प्रदर्शनों का उन पर ऐसा जादू चढ़ा कि उसी तर्ज़ पर अनारकलीनाटक लिख डाला। होली की रात फालतू लाइन के सांस्कृतिक पण्डाल में उसे स्वयं ही मोनो प्ले के रूप में मंचित कर डाला। अकबर, सलीम, अनारकली, सारी भूमिकाएं अकेले निभाईं। उनका सिक्का जमने लगा। रोटरी क्लब, लायंस क्लब, आदि से बुलावे आने लगे। यहां से रंग-अभिनेता, लेखक और निर्देशक उर्मिल थपलियाल की जो यात्रा यात्रा शुरू हुई वह अनेक पड़ाव पार करते हुए जुलाई 2021 में उनके निधन से कुछ मास पहले तक अबाध जारी रही।

उसी बीच देहरादून से प्रकाशित अंग्रेजी पत्र हिमाचल टाइम्सका हिंदी संस्करण निकला तो उन्हें उसमें काम मिल गया। एक सौ रु महीने के वेतन में से अस्सी रु बुआ को देने लगे जो गहने बेचकर कर घर चलाती थी। बीस रु के जेब खर्च से सिगरेट पीते, कवि सम्मेलनों में जाते और अपने को कुछ खाससमझने लगे थे। 1962 में चीनी आक्रमण पर लिखी कविता ने उन्हें मंचीय कवि बना दिया। फिर तो नीरज, शेरजंग गर्ग, देवराज दिनेश, मंगला प्रसाद नौटियाल, आदि कवियों के साथ कवि सम्मेलनों में जाने लगे। बताते थे कि उन दिनों मैं थोड़ा उद्दंड भी हो गया था। एक बार नीरज ने मंच से जो कविता (ज़िंदगी वेद थी ज़िल्द बंधाने में कटी) सुनाई, मैंने वहीं पर उसकी पैरोडी बनाकर मंच से सुना दी थी। उसी दौरान दीवान सिंह कुमैयां (महशूर फोटोग्राफर) जीत सिंह नेगी (गीतकार) केशव अनुरागी (गायक एवं ढोल सागर के अध्येता) के साथ शामों को बैठकी होने लगी। कभी अल्मोड़ा से मोहन उप्रेती आते तो वे भी शामिल होते। यह वह दौर था जब उर्मिल ने हर विधा में हाथ आजमाया। नई कहानी,’ ‘सारिका,’ और 'धर्मयुग' जैसी पत्रिकाओं में कहानियां छपीं। शंकर्स वीकलीमें व्यंग्य प्रकाशित हुए किंतु किसी एक विधा में अधिक समय टिके नहीं, यद्यपि व्यंग्य की धार बराबर साथ बनी रही। 

1964 में लखनऊ आने और अगले साल आकाशवाणी में समाचार वाचक बनने के बाद उनकी रुचि रंगमंच की तरफ बढ़ने लगी। उन्होंने हवा महलके लिए नाटक लिखे और निर्देशित भी किए। गढ़वाली लोक संगीत और लोक नृत्य-नाट्य आधारित फ्यूलीं और रामी’, ‘मोती ढांगाऔर संग्राम बुढ्या रमछमजैसी प्रस्तुतियां लखनऊ के दर्शकों के समक्ष दीं। 1972 उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ जब प्रो सत्यमूर्ति, डॉ अनिल रस्तोगी, आदि के साथ लखनऊ में दर्पणनाट्य संस्था की स्थापना की। उसके बाद वे पूरी तरह रंगमंच को समर्पित हो गए। कुत्तेऔर काठ का घोड़ाजैसे शुरुआती प्रायोगिक नाटकों के बाद उर्मिल थपलियाल रंगमंच में निरंतर प्रयोग करते गए। पहाड़ से जो लोक संगीत और नृत्य वे साथ लेते आए थे, उसका नाटकों में रचनात्मक प्रयोग किया। उनके अभिनीत और निर्देशित नाटकों की सूची बहुत लम्बी है। यहूदी की लड़कीऔर सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अंतिम किरण तकजैसी उनकी प्रस्तुतियां बहुत सराही गईं थीं। पिछले दो दशक से 'हरिश्चन्नर की लड़ाई' उनका  बहुचर्चित-प्रशंसित नाटक रहा जिसके देश भर में सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं।

धीरे-धीरे उर्मिल लोक नाट्य विधाओं की ओर वे अधिकाधिक आकर्षित होते गए। अपने लिखे और निर्देशित नाटकों में उन्होंने लोक शैलियों, विशेष रूप से नौटंकी का खूब इस्तेमाल किया। अखबारों में नौटंकी कॉलम लिखते थे और नाटकों में नौटंकी का बेहतरीन प्रयोग करते थे। नौटंकी के शास्त्र का उन्होंने विधिवत अध्ययन भी किया। कहा जा सकता है कि उन्होंने लुप्तप्राय नौटंकी विधा को पुनर्जीवित करने का महत्त्वपूर्ण काम किया। हरिश्चन्नर की लड़ाईतो पूरी तरह नौटंकी पर आधारित है, जो अपनी हर प्रस्तुति में नया होता रहता। तात्कालिक घटनाओं को नाटक में पिरो देने में वे उस्ताद थे। सुबह के अखबारों की सुर्खियां शाम की नाट्य प्रस्तुति में बुन लेते थे। नौटंकी की जानी-मानी अभिनेत्री एवं गायिका गुलाब बाई के जीवन पर एक नाटक भी उन्होंने लिखा-खेला। अपने लोक-नाट्य-प्रयोगों के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि गांव का आदमी अगर मुर्गे की बांग पर जागता है तो शहर के आदमी को अलार्मचाहिए। मैंने अपनी नौटंकी में अलार्म घड़ी में मुर्गे की बांग फिट करने की कोशिश की है।

अपनी किशोरावस्था के दिनों से ही मैं उर्मिल जी को जानता था। उनसे आकाशवाणी में अक्सर भेंट होती। मैं उत्तरायणमें वार्ता पढ़ने जाता तो वे कार्यक्रम के बीच पांच मिनट के लिए समाचार पढ़ने आते थे। उन्हें नाटकों में अभिनय करते देखता और उनके निर्देशित नाटक भी। जब पता चला कि उर्मिल जी एक जमाने में कहानियां लिखते थे तो मैं अपनी कहानियां उन्हें दिखाने और उनसे सीखने उनके घर पहुंच जाता था। वे हमेशा 'ज्वेशि ज्यू' कहकर मुस्कराते हुए स्वागत करते। स्थानीय समाचार पत्रों में उनकी कविताएं और व्यंग्य प्रकाशित होते रहते थे। 1977 से मैं स्वतंत्र भारत में काम करने लगा था। उसके कुछ समय बाद ही उन्होंने उसमें सप्ताह की नौटंकीकॉलम लिखना शुरू किया। यह कॉलम बहुत लोकप्रिय हुआ और बीस साल से अधिक चला। बीच में कुछ वर्ष आज की नौटंकीनाम से दैनिक कॉलम भी लिखा। नौटंकी में वे समसामयिक राजनैतिक विषयों पर खूब चुटकी लिया करते थे। एक बार उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर कोई तीखी चुटकी ले ली। मुलायम नाराज हुए या उनका कोई चमचा अफसर, पता नहीं लेकिन सम्पादक घनश्याम पंकज ने नौटंकीकॉलम बंद करवा दिया। बाद में वह फिर शुरू हुआ। हिंदुस्तानमें हमने उनसे नश्तरकॉलम लिखवाना शुरू किया। अपना लिखा कॉलम देने वे स्वयं अखबारों के दफ्तर जाया करते। हमारे कार्यालय आते तो बैठते और बतियाते थे। नौटंकी’, कविता और गद्य में उनके व्यंग्य कॉलम कई और अखबारों में छपते थे। नट-नटी संवाद और सामयिक घटनाओं की तर्ज़ पर बजता उनका नक्कारा (नगाड़ा) अखबारों-पत्रिकाओं में सबसे पहले पढ़ा जाता था।

एक बार ऐसा हुआ कि 'हिंदुस्तान' के दिल्ली स्थित लेखा विभाग ने उर्मिल कुमार थपलियाल नाम से प्रकाशित होने वाले नश्तरस्तम्भ के पारिश्रमिक का भुगतान सोहनलाल थपालियाल के नाम से करने पर आपत्ति लगा दी। दिल्ली में सम्पादकीय पेज के प्रभारी साथी हरजिंदर ने सुझाव दिया कि थपलियाल जी से एक पत्र लिखवा लूं कि उनका असली नाम सोहनलाल है लेकिन वे लिखते उर्मिल के नाम से हैं। मैंने थपलियाल जी से ऐसा पत्र लिख देने को कहा। सुनकर वे मुस्कराए और अगले दिन जवाब में लम्बा चुटीला खर्रा लिख लाए कि नाम तो प्रेमचंद का भी प्रेमचंद नहीं था। उन तमाम साहित्यकारों के नाम उन्होंने गिना दिए जो दूसरे नाम से लिखते थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया गया कि सिर्फ दो लाइन का पत्र लिख दें कि भुगतान सोहनलाल थपलियाल के नाम से किया जाए। 

रंगमंच के अलावा उनका दूसरा शौक लिखना-पढ़ना था। खूब पढ़ते थे और देश-दुनिया के समाचारों से अद्यतन रहते थे। विभिन्न अखबारों-पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य, नौटंकी और कवित्त ताज़ा घटनाओं और शीर्षकों पर ही आधारित होते थे। उनका हास्य-व्यंग्य बोध कई बार चकित करता था। उनकी कोई राजनैतिक या वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी। इसलिए वे किसी को भी अपने व्यंग्य-वाणों से बख्शते नहीं थे। उनकी राजनैतिक-सामाजिक चुटकियां अंतिम दिनों तक विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। किसी भी अखबार और पत्रिका में लिखने का अनुरोध वे टालते नहीं थे और कभी अपना कॉलम लिखने में विलम्ब भी नहीं किया। बाहर जाते तो अग्रिम लिखकर दे जाते। रीजनल रिपोर्टरमें भी वे बकमबम जी बकमबमनाम से कॉलम लिखते थे। खूब लिखने के बावजूद उनमें दोहराव नहीं होता था। कोरोना काल में उन्होंने फेसबुक को माध्यम बनाकर रंगमंच की बारीकियों पर व्याख्यान भी पेश किए। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय से लोक रंगमंच में गति व लयविषय पर पीएचडी पूरी की थी। नौटंकी की मूल धुनों एवं उसके वाद्यों की स्वर लिपियां बनाने में भी वे लगे रहते थे। उनकी सक्रियता सुखद और प्रेरणादायक थी।

उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी, हिंदी संस्थान और देश भर की विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित-पुरस्कृत किया। नौटंकी, नाट्य कार्यशालाओं, व्याख्यानों एवं मंचनों के लिए वे हाल-हाल तक देश भर का दौरा करते रहते थे। बड़े सरल, खुशदिल और यारबाश इनसान थे। पहाड़ीपन उनकी बोली-बानी और व्यक्तित्व में छाया रहता था।

मेरी उर्मिल जी से अक्सर बातचीत होती थी। मेरे सम्पादक रहते वे सुबह-सुबह अखबार पढ़कर मजेदार टिप्पणियां करते। कोरोना की आफत शुरू होने से पहले तक उनसे मिलना होता रहता था। कभी मैं ही घर चला जाता। उसी दौरान मेरे बार-बार आग्रह करने पर उनके शुरुआती जीवन की परतें खुलीं। महामारी के चरम दौर में जब उनकी बीमारी की खबर मिली तब मैं स्वयं कोविड के हमले से जूझ रहा था। पता चला कि वे लिवर में कैंसर लिए पहले अस्पताल, फिर घर में पड़े थे। डॉक्टरों के अनुसार रोग असाध्य हो गया था। बड़ा मलाल रहा कि तब फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी।  

बीस जुलाई को लखनऊ के भैंसाकुंड श्मशान घाट पर उर्मिल जी को राजकीय सम्मान के साथ विदा किया गया। उन्हें चुपचाप पड़ा देखकर मैं सोच रहा था  कि अभी उठकर हंसते हुए पूछने लगेंगे- ' ज्वेशि ज्यू, ये राजकीय सम्मान में क्या होने वाला ठैरा?' अपना नौटंकीस्तम्भ भी वे इसी पर लिखते जिसमें उनके नट-नटी सिपाहियों की झुकी बंदूकों पर चुटीली नोंक-झोंक करते और नक्कारा श्मशान में बिगुल की तरह बजता। लेकिन वे तो इस जगत की सारी नौटंकी और अपना प्रिय रंगमंच छोड़ कर किसी और ही दुनिया को कूच कर चुके थे।

हिंदी रंगमंच को उन्होंने नए प्रयोगों और लोक नाट्य शैलियों से समृद्ध किया। लुप्त प्राय नौटंकी को रंगमंच में पुनर्स्थापित करने और मूल स्वरूप में छेड़छाड़ किए बिना उसका नागर रूप विकसित करने के अलावा अपने धारदार व्यंग्यों के लिए भी उर्मिल याद किए जाएंगे।

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यूपी चुनाव के लिए जातीय रस्साकशी


चुनाव जीतने की जातीय फॉर्मूला कितनी तेजी से बदलता रहता है
, यह आजकल उत्तर प्रदेश में खूब देखा जा सकता है। वहां अगले साल की शुरुआत में यानी कुछ ही महीनों बाद विधान सभा चुनाव होने हैं। दलितों-अति पिछड़ों की राजनैतिक गोलबंदी से राज्य की बड़ी ताकत बनी और चार बार सत्ता में आ चुकी मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों को खुश करने की कोशिश में जुट गई हैं। उधर, सवर्णों की पार्टी के रूप में जानी जाने वाली भाजपा दलितों-पिछड़ों के लिए लाल कालीन बिछाए बैठी है। तीस साल से सत्ता से बाहर और हाशिए पर पहुंच चुकी कांग्रेस प्रियंका गांधी के सहारे ब्राह्मणों-दलितों-मुसलमानों के परम्परागत वोट बैंक को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने मजबूत यादव-मुस्लिम आधार में भाजपा से खिन्न चल रही जातियों को खींचने की रणनीति बना रहे हैं।

कांशीराम ने जिस दलित-अति पिछड़ा-मुस्लिम जातीय समीकरण से बहुजन समाज पार्टी को मजबूती से खड़ा किया था, उस आधार को बहुमत के लिए अपर्याप्त मानकर मायावती ने 2007 में उसमें ब्राह्मणों को बड़ी चतुराई से जोड़ा और पहली बार पूर्ण बहुमत पाया था। मनुवादियों को गले लगाने की इस चुनावी रणनीति को उनकी सोशल इंजीनियरिंगकहा गया था। 2012 के चुनावों में यही सोशल इंजीनियरिंग अपने तीखे अंतर्विरोधों के कारण उन्हें महंगी पड़ी। फिर 2014 आते-आते भाजपा ने अपने नए अवतार में इसी सोशल इंजीनियरिंग को सबका साथ, सबका विकासनारे के तहत बड़ी चतुराई से अपनाया। उसने अपने को गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों की उद्धारक के रूप में पेश किया। इससे दलित एवं पिछड़ी जातियों-उपजातियों के अंतर्विरोध गहरे हुए और वे बड़े वोट बैंक से छिटक गए।

भाजपा ने इन अंतर्विरोधों को खूब हवा दी। परिणामस्वरूप दलित और पिछड़ी जातियों में वर्चस्व वाली जाटव और यादव जातियों को चुनौती देते हुए अति पिछड़ी जातियों का नेतृत्व उभरा जिसे भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया। इससे बसपा और सपा दोनों का जनाधार कमजोर हो गया। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की भारी जीत मुख्यत: इसी दलित-पिछड़ा जोड़-तोड़ के कारण सम्भव हुई।

अति-दलितों को बसपा और अति-पिछड़ों को सपा के पाले से खींच लाने की इस सफल रणनीति को भाजपा 2022 के लिए न केवल कायम रखने में लगी है, बल्कि उस पर और मजबूती से अमल करने का जतन कर रही है। हाल में केंद्रीय मंत्रिमण्डल का विस्तार साफ बताता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के लिए इस रणनीति को कितना महत्त्व दे रही है। जो सात नए मंत्री उत्तर प्रदेश से मोदी सरकार में शामिल किए गए उनमें छह पिछड़ा या दलित हैं, सवर्ण (ब्राह्मण) सिर्फ एक है। मोदी सरकार में उत्तर प्रदेश से अब 16 मंत्री हो गए हैं, यह न केवल अब तक की सबसे बड़ी संख्या है, बल्कि इसी जातीय समीकरण को पुष्ट करती है। उदाहरण के लिए, अपना दल (एनडीए का हिस्सा) की जो अनुप्रिया पटेल पहली मोदी सरकार में शामिल रहने के बाद 2019 में बाहर कर दी गई थीं, इस बार के विस्तार में उन्हें न केवल शामिल कर लिया गया, बल्कि बेहतर मंत्रालय भी दिया गया है। अपना दल यादवों के बाद सबसे ताकतवर कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है।

क्या भाजपा के इस दलित-पिछड़ा प्रेमालाप से सवर्ण जातियां, विशेष रूप से ब्राह्मण खिन्न हैं? भाजपा को तो ऐसा नहीं लगता (यूपी में मुख्यमंत्री, एक उप-मुख्यमंत्री और कई मंत्री उच्च जातियों के हैं) लेकिन विपक्ष, खासकर मायावती ऐसा मानकर इसे खूब प्रचारित कर रही हैं ताकि ब्राह्मण एक बार फिर उन्हें समर्थन दे दें। बीते रविवार को मायावती ने ऐलान किया कि मुझे पूरा भरोसा है कि अब ब्राह्मण समाज बहकावे में आकर भाजपा को वोट नहीं देगा। उनके अनुसार ब्राह्मण अब पछता रहे हैं। बसपा के शासन में ही उनका हित सुरक्षित है,’ ब्राह्मणों को यह भरोसा दिलाने के लिए बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या से एक अभियान भी शुरू किया जा रहा है। सतीश चंद्र मिश्र  मायावती के विश्वस्त और बसपा का बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं। 2007 में उन्होंने ही बसपा के ब्राह्मण भाईचारा अभियान का नेतृत्व किया था।

मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं लेकिन जो दलित जातियां उनके पाले से छिटक चुकी हैं, उन्हें वापस लाने के लिए उनकी क्या योजना है, इसका संकेत नहीं मिलता। हाल के वर्षों में उनके जाटव जनाधार में भी भीम आर्मी ने कुछ सेंध लगाई है। दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके।

अखिलेश यादव भी सपा से दूर हो गए पिछड़े नेताओं को साधने में सक्रिय हो गए हैं। उन्होंने किसी बड़े दल से चुनावी गठबंधन की सम्भावना से इनकार किया है लेकिन छोटे दलों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं। ये छोटे दलवास्तव में विभिन्न पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं के हैं जो सत्ता की वर्तमान जोड़-तोड़ में अपना महत्त्व समझकर बड़े दलों से समर्थन की अधिकाधिक कीमत वसूलने की फिराक में रहते हैं।

कुर्मियों के अपना दल का एक हिस्सा भाजपा के साथ है तो दूसरे को सपा और कांग्रेस रिझाने में लगे हैं। निषाद पार्टीजिसका मल्लाह, केवट, निषाद और बिंद जातियों में प्रभाव है, फिलहाल भाजपा के साथ होने के बावजूद अपनी नाराजगी व्यक्त करता रहता है जिस पर अखिलेश यादव की निगाह लगी है। मौर्यों, कुशवाहों और सैनियों के महान दल को समाजवादी पार्टी ने फिलहाल अपने साथ कर लिया है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों में लोकप्रिय राष्ट्रीय लोक दल सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना तय कर चुका है। आपके कुछ नेताओं से भी अखिलेश की बातचीत चर्चा में रही।

बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर महागठबंधन का खेल बिगाड़ने वाले ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी यूपी में दांव आजमाएंगे। उन्होंने भाजपा से नाराज होकर एनडीए से अलग हुए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया है जिसमें बाबू सिंह कुशवाहा (कभी मायावती के विश्वस्त) की जन अधिकार पार्टी, प्रजापतियों की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी और जनता क्रांति पार्टी भी शामिल होंगी, ऐसे बयान आए हैं। आपऔर भीम आर्मी को भी इसमें शामिल होने की दावत दी गई है। ये छोटे-छोटे दल स्वयं चुनाव नहीं जीत सकते लेकिन उनका समर्थन बड़े दलों के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ये दल कब किसके साथ हो जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। सपा के अलावा कांग्रेस भी इन दलों को अपने साथ लेने के लिए बातचीत कर रही है।

विभिन्न दलित एवं पिछड़ी जातियों के भीतर इस राजनैतिक जोड़-तोड़ ने छोटी या कम संख्या वाली जातियों में भी सामाजिक-राजनैतिक सशक्तीकरण का काम किया है। वे भी सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए संगठित हुए हैं। वे किसी भी तरफ जा सकते हैं, जहां अधिक से अधिक भागीदारी का आश्वासन मिले। इससे यू पी का जातीय चुनावी रण बहुत रोचक हो गया है।

(प्रभात खबर, 21 जुलाई, 2021)                       

        

 

  

Sunday, July 18, 2021

हिमाचल की तर्ज़ पर भू कानून की मांग और जमीनी हकीकत

सोशल मीडिया में पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड के लिए भू-कानून की मांग करने वाली कई पोस्ट दिखाई दे रही हैं। कुछ ही पोस्टों में बात अधिक स्पष्ट है- उत्तराखण्ड में हिमाचल प्रदेश के भू-कानून जैसे जैसे सख्त और स्पष्ट कानून की मांग। यह बात समझ में आती है क्योंकि उत्तराखण्ड की अब तक की कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने ऐसा भू-कानून बनाया और उसमें लगातार इस तरह के संशोधन किए जिससे पहाड़ की जमीनों की खुली लूट होने लगी। कोई भी, कहीं भी, कितनी भी जमीन खरीद सकता है और उसे भू उपयोग बदलवाने का भी कष्ट करना नहीं पड़ता। इसी भू-लुटाऊ कानून का परिणाम है कि उत्तराखण्ड में दूर-दराज के इलाकों में भी बड़ी-बड़ी जमीनें तार-बाड़ से घेर कर वहां बोर्ड टांग दिए गए हैं कि “प्रवेश वर्जित। यह निजी भूमि है।”

नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में अवश्य हिमाचल की तर्ज़ पर भू-कानून बनाने की पहल हुई थी जिसे पक्ष-विपक्ष के विधायकों और दलालों ने दबाव डलवा कर शीघ्र ही लचीला बनवा लिया था ताकि वे उसकी आड़ में जमीनों की लूट करते रह सकें। बाद की भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने उस कानून में बार-बार ऐसे बदलाव किए जो साफ-साफ बड़े कॉरपोरेट घरानों, दलालों और भू-माफिया के हित में हैं। आज उत्तराखण्ड अकेला ऐसा पहाड़ी राज्य है जहां स्थानीय काश्तकारों, कृषि और बागवानी के पक्ष में कोई भू-कानून नहीं है। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार ने जनता के हित में जो भू-कानून बनाया था, वह आज भी कायम है। इसीलिए हिमाचल के किसानों की जमीनें लूट से बची हुई हैं और वहां का फलोत्पादन पूरे देश में प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड के लिए हिमाचल जैसे भू-कानून की मांग करना इसीलिए समझ में आता है।

सवाल यह है कि पृथक राज्य बनने के बीस बरस बाद अचानक जन-हितैषी भू-कानून की मांग, सोशल मीडिया में ही सही, जोर-शोर से क्यों उठने लगी है? इतने वर्षों तक इस बारे में लगभग मौन की स्थिति क्यों रही? यदि आम जनता यानी काश्तकार के हक में जमीन का संरक्षण महत्त्वपूर्ण मुद्दा है तो राज्य बनने के बीस वर्षों में भी वह जन संगठनों और परिवर्तनकामी राजनैतिक ताकतों का सबसे बड़ा मुद्दा क्यों नहीं बन सका? यह मांग जन आंदोलनों का प्रमुख स्वर क्यों नहीं बनी? 

तराई में वाम दलों, विशेषकर भाकपा-माले ने भूमि की लूट के खिलाफ लम्बे समय से मोर्चा बांध रखा है जिसमें कभी उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी की आवाज भी शामिल रहती थी। इन दलों ने हाल के वर्षों में पहाड़ी जिलों में सरकारी संरक्षण में जमीनों की लूट के विरुद्ध भी आवाज उठाई है। जमीनों को लेकर अगर किसी ने सरकार और भू-माफिया से सीधा मोर्चा लिया है तो वह पी सी तिवारी हैं, जो पहले उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, फिर उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और अब उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी की ओर से लगातार इस लड़ाई को जारी रखे हैं। भू-माफिया और प्रशासन से उनकी लड़ाइयां लगभग अकेले लड़ी गई हैं। समानधर्मा संगठनों ने कभी–कभार समर्थन में बयान जारी करने के अलावा आगे आकर उनका साथ नहीं दिया और न स्वयं उस तरह का आंदोलन खड़ा किया। सन 2010 में अल्मोड़ा के डांडा कांडा से लेकर द्वारसौं-नानीसार तक पी सी ने कागजी हेराफेरी से जमीनों पर अवैध कब्जों और निर्माणों के विरुद्ध आंदोलन किए। 2016 में द्वारसौं-नानीसार में हरियाणा के जिंदल ग्रुप द्वारा तत्कालीन कांग्रेस सरकार के संरक्षण में अवैध कब्जे और निर्माण के विरुद्ध जोरदार आंदोलन और उसके दमन का किस्सा सभी को स्मरण होगा। ग्रामीणों को एकजुट कर नानीसार में बड़ा आंदोलन चलाने के बाद पी सी ने अदालती स्थगनादेश हासिल किया। उन पर जानलेवा हमला भी वहां हुआ, जिसके खिलाफ व्यापक आक्रोश फैला अवश्य लेकिन जमीन की लड़ाई फिर भी सबका मुद्दा नहीं बनी। नानीसार बचाओ आंदोलन जन हितैषी भू-कानून के लिए बड़ा संघर्ष छेड़ने का बेहतरीन अवसर था।

राज्य निर्माण की पूर्व संध्या पर कई संगठनों से बनी समन्वय समिति ने मसूरी से जो अपील अंतरिम विधान सभा के सदस्यों के नाम जारी की थी उसमें जमीनों का भी मुद्दा शामिल था लेकिन बाद में लोक वाहिनी (जो समन्वय समिति से ही जन्मी) उस मांग को लेकर सक्रिय नहीं रही। तिवारी सरकार के प्रारम्भिक भू-कानून को बदले जाने के समय भी आंदोलन नहीं हुआ। फिर खंडूरी, हरीश रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकारों ने भू-कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा। तब भी लेखों, बयानों, आदि से आगे कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं हुआ। ग्रामीणों, पंचायतों और जंगलात की जमीनें कहीं फर्जी अभिलेखों से तो कहीं सरकारी संरक्षण में बिकती आईं हैं। ऐसी लूट किसी अन्य पर्वतीय राज्य में नहीं हुई, जबकि सजग और जुझारू जन संगठनों एवं जन आंदोलनों के लिए उत्तराखंड सबसे अधिक चर्चा में रहा। यह कैसी विडम्बना है?

वनों की अंधाधुंध लूट के खिलाफ और अपने जंगल पर जनता के हक के लिए 1972-73 से 1980 तक पूरे उत्तराखण्ड में चिपको आंदोलन चला जिसकी धमक देश-विदेश तक सुनी गई। 1984 में कुमाऊं में नशे के षडयंत्र के विरुद्ध जोरदार नशा नहीं, रोजगार दोआन्दोलन हुआ जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा था। पृथक राज्य बनने से पहले और बाद में भी गैरसैण को राजधानी बनाने के लिए सभी संगठनों-दलों ने जबर्दस्त आंदोलन किए और शहादतें भी दीं। इतने आक्रामक तेवरों वाले उत्तराखण्ड में भू-कानून को लेकर उदासीनता आश्चर्यजनक है, जबकि वनों के बाद सबसे बड़ी लूट सम्भवत: जमीनों की ही होती आई है।

इसी उदासीनता, संगठनों-नेताओं के निजी मतभेद या व्यक्तिगत द्वेष या नायकत्व की ख्वाहिश के चलते आंदोलन कमजोर होते आए हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों दल इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं और आश्वस्त हैं कि राज्य की सत्ता उन्हीं दोनों के पास आनी है। इसीलिए उत्तराखण्ड की जनता के कीमती संसाधनों की लूट जारी है।

सोशल मीडिया में हिमाचल की तर्ज़ पर भू-कानून बनाने की मांग से भला कौन-सा पत्ता हिल जाने वाला है?     

न.जो, 18 जुलाई, 2021                       

Friday, July 16, 2021

आस्था, धार्मिक आयोजन, विज्ञान और महामारी

क्या आस्था, भक्ति, यज्ञ-हवन, तीर्थ यात्राएं, वगैरह बीमारी और वह भी महामारी को रोक सकते हैं? कोविड महामारी के कारण हुए लॉकडाउन में छोटे-बड़े सभी धर्मस्थल क्यों बंद रहे? साधु-संत-पुजारी, आदि भी कोविड से ग्रस्त क्यों हुए? भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा लगातार दूसरे साल बंद रही। लखनऊ के लोग ज्येष्ठ के मंगलवारों को हनुमान जी को भोग नहीं लगा सके। प्रशासन ने ही इसकी अनुमति नहीं दी थी। कोविड के डर से और भी कई महत्त्वपूर्ण धार्मिक आयोजन नहीं हुए या मात्र प्रतीकात्मक हुए। इससे क्या निष्कर्ष निकलते हैं

खतरे सामने हैं और उनके उदाहरण भी। लाख चेतावनियों के बावजूद पिछले साल उत्तराखण्ड सरकार ने हरिद्वार में कुम्भ की अनुमति दे दी थी। परिणाम यह हुआ कि उत्तराखण्ड से लेकर देश भर के सुदूर इलाकों तक कोविड की दूसरी लहर ने कहर बरपाया। कुम्भ की पवित्र डुबकी विभिन्न अखाड़ों के साधु- संतों को भी कोविड से नहीं बचा सकी। अब धीरे-धीरे इस तथ्य पर से पर्दा उठ रहा है कि कुम्भ में कोविड जांच के झूठे आंकड़े दर्ज किए गए ताकि यह साबित किया जा सके कि कुम्भ से कोविड नहीं फैला। कम दर्ज़ किए जाने के बावजूद मौतों के जो भयावह आंकड़े सामने आए उसने कोई भ्रम नहीं छोड़ा।       

इसीलिए उत्तराखण्ड  राज्य ने इस बार कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी है। इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन लगातार चेता रहा है कि महामारी की तीसरी लहर को भड़काने में ऐसी जुटानों का बड़ा हाथ हो सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने न केवल कांवड़ यात्रा को अनुमति दी है बल्कि उसकी तैयारी भी शुरू करा दी है। सर्वोच्च न्यायालय इस समाचार पर स्वयं संज्ञान लेकर चिंता व्यक्त कर चुका है।

विश्व के प्रसिद्ध नास्तिक विचारकों में शुमार रहे क्रिस्टोफर हिचेंस ने अपनी चर्चित किताब गॉड इज नॉट ग्रेटमें इतिहास से बहुत सारे उदाहरण देकर साबित किया है कि पिछले पांच हजार साल में मानव जाति पर आई बड़ी विपत्तियों में ईश्वर के किसी भी रूप ने कोई सहायता नहीं की। जो कुछ भी मदद सम्भव हुई वह मनुष्य-अर्जित ज्ञान-विज्ञान के कारण हुई जिसमें दुनिया भर के विद्वानों-विज्ञानियों का योगदान रहा। खैर, पूरी दुनिया हिचेंस की तरह नास्तिक नहीं हो सकती। आस्थावान जनता हर संकट में अपने इष्ट को याद करती है लेकिन सिर्फ उसी के सहारे नहीं बैठी रहती। ईश्वर के सामने गिड़गिड़ाने के साथ ही वह इलाज के लिए चिकित्सकों के पास दौड़ती है और टीके लगवाती है।

मानव जाति की तमाम तरक्कियां विज्ञान से ही सम्भव हुई हैं। इसलिए जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अत्यावश्यक है। कोविड से बचने की पूरी गारण्टी नहीं होने के बाद भी अगर टीकाकरण पर बहुत जोर दिया जा रहा है तो वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही है। कोविड महामारी से निपटने के लिए इतनी शीघ्र जो टीके बने हैं वे किसी धार्मिक आयोजन का परिणाम नहीं हैं। भौतिक दूरी, मास्क और बार-बार हाथ धोने के निर्देशों के पीछे विज्ञान ही है। परम आस्थावान सरकारें भी यह नहीं कह रहीं कि धर्मस्थलों की शरण आओ और कोरोना वायरस से मत डरो। सरकारें ही हैं जो जोर-शोर से टीकाकरण अभियान चला रही हैं।

उत्तराखण्ड के नए मुख्यमंत्री ने यह बात बहुत अच्छी कही है कि अगर कांवड़ यात्रा की जुटान से महामारी भड़की और जानें गईं तो ईश्वर कतई प्रसन्न नहीं होगा। बात जिस तरह भी कही जाए, उद्देश्य यही होना चाहिए कि इस घातक वायरस को हवा देने वाले आयोजनों से बचा जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी चंद रोज पहले यही बात कही थी। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 17 जुलाई, 2021)         

 

Wednesday, July 14, 2021

हाशिए का समाज और सम्वेदनशील दृष्टि

हमारे देश में बहुत बड़ी आबादी है जो रोज कुआं खोदती और पानी पीती है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इसे विकास की मुख्य धारा का समाज बनना चाहिए था लेकिन आज भी यह हाशिए का ही समाज बना हुआ है। देश ने हर क्षेत्र में बहुत तरक्की की लेकिन हाशिए का समाज, जिसे निम्न वर्ग कहा जाता है, दो जून रोटी के लिए जूझता रहा है।

कोविड महामारी के पहले दौर में अचानक थोप दिए गए लॉकडाउनके दौरान हमने हाशिए के इस समाज को नंगे पैर तपती सड़कों पर बच्चों को कंधे पर बैठाए और साइकिल में गृहस्थी की गठरी लटकाए, अपने गांव की ओर मीलों पैदल चलते और यहां-वहां दम तोड़ते देखा। इस विशाल कामगार भारत को तब सरकार और राजनैतिक दलों एवं शहरी मध्य एवं उच्च वर्ग ने तनिक चकित होकर देखा। उनके लिए यह दृश्य कमोबेश अजूबा था क्योंकि विकास की जो राह उसने चुनी उसमें यह भारत कहीं पीछे छूट गया और बाकी देश इस समाज को भूल ही गया था। लॉकडाउन ने अचानक इस दृश्य से पर्दा उठा दिया।

गांवों से लेकर महानगरों तक यह विशाल भारत फैला हुआ है। दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता हो या लखनऊ-पटना-जयपुर जैसे शहर, शहरी मध्य एवं उच्च वर्ग का जीवन इस कामगार भारत के बिना नहीं चलता। काम वाली बाई एक दिन नहीं आए तो देखिए बहुमंजिला अपार्टमएण्ट के फ्लैटों में कैसी हाय-तौबा मचती है। एक दिन कचरा न उठे, बाबू जी की कार साफ न हो पाए, ड्राइवर छुट्टी ले ले तो साहब-मेमसाहबों को रोना आ जाता है। कारखाने उनके बिना नहीं चलते। उद्योग-धंधे उनकी अनुपस्थिति से ठप पड़ जाते हैं। इसके बावजूद यह समाज अदृश्य रहता है। विकास की जो धारा स्वीकार कर ली गई, उसमें इस भारत की जैसे कोई जगह ही नहीं, जबकि पूरा देश इन्हीं की बदौलत धड़कता है।

यह समाज समाचारों में नहीं होता। उसके लिए कोई सरकार आर्थिक पैकेज जारी नहीं करती। उसकी दिहाड़ी कतई असुरक्षित है। उसके लिए कोई यूनियन नहीं है। उसकी कोई बारगेनिंग पावर नहीं है। इसके बावजूद वहां जीवन धड़कता है। वे सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए जूझते हैं। वे कोई प्रोजेक्ट नहीं बनाते और उन्हें किसी बैंक से ऋण नहीं मिलता। उनके संकल्प ही उनकी पूंजी होते हैं। वहां सिर्फ दु:ख और संताप नहीं होता, आगे बढ़ने का संकल्प और संघर्ष भी खूब होता है। बस, इसे देखने-समझने की दृष्टि चाहिए होती है।

वैज्ञानिक नजरिया रखने वाले संवेदनशील पत्रकार और हमारे पुराने मित्र संजय मोहन जौहरी ने यह दृष्टि पाई है। ज़िम्मेदार पत्रकार के रूप में उन्होंने लम्बी और सराहनीय पारी खेली और अब शिक्षक-निर्देशक के रूप में पत्रकारिता के विद्यार्थियों को उसी दृष्टिकोण से प्रशिक्षित करने का दायित्व निभा रहे हैं। दैनंदिन जीवन में उन्होंने अपने आस-पास जो हाशिए का समाज देखा, उसे अनदेखा नहीं किया। उनकी पैनी नज़र वहां गहरे पैठी और तरह-तरह की मार्मिक कथाएं खोज लाई। यह किताब उसी दृष्टि और सम्वेदनशील मन का परिणाम है।

दानिश, बुधई, दामिनी, मानसी, मनु, बादल और इन जैसे कई चरित्रों के जीवन, सपनों और संघषों की ये कथाएं जब आप पढ़ेंगे तो जानेंगे कि टर्निग पॉइण्टसेलेब्रिटीज के जीवन में ही नहीं आता। अपने आस-पास बिखरे उपेक्षित-वंचित समाज की ये कथाएं हम सबके सामने लाकर संजय मोहन जौहरी ने बड़ा काम किया है।

साधुवाद और शुभकामनाएं।

(संजय मोहन जौहरी की किताब 'टर्निंग पॉइण्ट' की भूमिका)

                 

Friday, July 09, 2021

जन स्वास्थ्य ढांचे को सुदृढ़ किए बिना चारा नहीं

कोविड महामारी के इस दौर ने हमारी व्यवस्था के कुछ कमजोर पक्षों को पूरी तरह उघाड़ कर रख दिया है। कमजोर पक्ष और भी हैं लेकिन स्वास्थ्य और शिक्षा की उपलब्धियां ढोल का पोल ही साबित हुई हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति से लेकर वर्तमान सरकार के समय तक इन क्षेत्रों में भी प्रगति अवश्य हुई लेकिन महामारी ने यह साबित कर दिया यह प्रगति ऊंट के मुंह में जीरा जितनी भी नहीं है। वैसे भी यह जानकारी नई नहीं है कि स्वास्थ्य पर हमारी सरकारें अपने गरीब पड़ोसी देशों से भी कम खर्च करती आई हैं। इसीलिए महामारी ने विकराल रूप लिया और बेशुमार जानें गईं।

शिक्षा क्षेत्र की गरीबी भी पूरी तरह सामने आई है। स्कूल-कॉलेज बंद रहे और ऑनलाइन पढ़ाई का गुब्बारा इस सत्य के उदघाटन के साथ फुस्स हो गया कि सरकारी ही नहीं, निजी विद्यालयों में भी इण्टरनेट सुविधा बहुत कम है। यह तथ्य सभी जानते हैं कि ऑनलाइन पढ़ाई के लिए आवश्यक लैपटॉप या स्मार्ट फोन और इण्टरनेट कनेक्शन भी बहुत कम विद्यार्थियों को उपलब्ध हैं। स्मार्ट फोन के लिए फुटपाथ पर आम बेच रही जमशेदपुर की बच्ची तुलसी की तरह सभी गरीब बच्चे भाग्यशाली नहीं हो सकते।

कोविड के कारण स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में जो सबसे अधिक पिटी वह निम्न मध्य और निम्न वर्ग की आबादी है। उसे न अस्पताल मिले, न ऑक्सीजन और न दिवंगतों का अंतिम संस्कार कर पाने की सुविधा। इसी वर्ग के बच्चे शिक्षा से सर्वाधिक वंचित रहे। कोविड के पहले दौर के कुछ शांत होने पर जब कुछ समय के लिए स्कूल खुले थे तो इसी वर्ग के बच्चे पढ़ाई में पिछड़े पाए गए थे। महामारी के दूसरे दौर के बाद स्कूल फिर बंद चल रहे हैं। इस साल सभी बच्चे अगले दर्जे में भेज दिए जाएंगे लेकिन इससे उस पढ़ाई की, जैसी भी वह होती है, भरपाई नहीं हो सकती।

महामारी के दूसरे दौर में मचे हाहाकार को देखते हुए केन्द्र और राज्य सरकारें तीसरे दौर से निपटने के लिए आर्थिक पैकेज से लेकर अस्पतालों में बेड, ऑक्सीजन, दवाओं, आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कई घोषणाएं कर रही हैं। इन कदमों का उद्देश्य आपातकालीन आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह व्यवस्था भी ठीक-ठाक हो जाए तो त्राहि-त्राहि कम मचेगी लेकिन मूल आवश्यकता स्वास्थ्य ढांचे को स्थाई तौर पर सुदृढ़ करना है। उस पर उतना ध्यान नहीं है।

नए मेडिकल कॉलेज खोलने से लेकर वर्तमान अस्पतालों में सुविधाएं बढ़ाने के ऐलान हो रहे हैं। इनमें निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ती जा रही है। जो निजी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खुल रहे हैं, वे समाज की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा करने की बजाय बड़े लाभकारी उद्योग के रूप में सामने आते हैं। निजी मेडिकल कॉलेज और कॉरपोरेट अस्पताल, जहां बड़े होटलों की तरह सुविधाएं हैं, बहुत महंगे हैं। वे उच्च मध्य वर्ग से ऊपर के धनी लोगों के लिए हैं। उनसे देश की आम जनता की स्वास्थ्य जरूरतें पूरी नहीं होतीं।

आवश्यकता सरकारी अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को बढ़ाने, उन्हें सुविधा सम्पन्न और सर्व सुलभ बनाने की है। वर्तमान सरकारी अस्पतालों की भीड़ बताती है कि बहुत बड़ी आबादी उन्हीं पर निर्भर है। इस वर्ग के लिए बड़ी संख्या में नए अस्पताल और सुदृढ़ स्वास्थ्य केंद्र खोलने की जरूरत है। इसके साथ ही यह भरोसा पैदा करने की आवश्यकता है कि वहां गरीब से गरीब व्यक्ति को भी इलाज मिलेगा। गरीब-गुरबों की यह धारणा कि सरकारी अस्पतालों में भी उनकी पूछ नहीं होती, झोला छाप डॉक्टरों के तंत्र को बनाए रखती है।

इस भयावह दौर के बाद भी सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा नहीं सुधरा तो आने वाली महामारियां और भी भयानक मंजर पेश करेंगी।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 10 जुलाई, 2021)     

     

  

Friday, July 02, 2021

एक जुलाई, वन महोत्सव और नई व्यवस्था

सरकारी कैलेण्डर में एक जुलाई का बड़ा महत्त्व है। वैसे, सभी सरकारी कैलेण्डर विशेष ही होते हैं। उसमें तय रहता है कि किस दिन से मलेरिया की दवा का छिड़काव करना है, भले ही मलेरिया अपना प्रकोप दिखाकर विदा हो चुका हो। जैसे सड़कों और पार्कों की बत्तियों के जलने का एक समय निश्चित है- पांच बजे, तो वे ठीक पांच बजे ही जलेंगी भले ही सात बजे तक खूब उजाला रहता हो।

खैर, एक जुलाई से सरकारी वन महोत्सव शुरू होता है। अब सूखा पड़ा हो या जुलाई में शहर का तापमान चालीस डिग्री से ऊपर पहुंच रहा हो, तब भी वन महोत्सव तो मनाया ही जाएगा। वृक्षारोपण सप्ताह अब पखवाड़े में बदल चुके हैं, क्योंकि करोड़ों पेड़ लगानेहोते हैं। वृक्षारोपण के लिए हर सरकार पिछली सरकार से बड़े लक्ष्य निर्धारित करती है और उसे पूरे जोर-शोर से पूरा करती है।

पिछले चार-पांच साल में इतने वृक्ष रोपेजा चुके हैं कि न इमारतों की जगह बचनी चाहिए न मकान-दुकान-बाजारों की। फिर भी नए-नए लक्ष्य हासिल करने का चमत्कार हर साल किया जा रहा है और आने वाले वर्षों में भी किया जाता रहेगा। अब और भी जोर-शोर से इसलिए कि कोविड महामारी ने ऑक्सीजन का महत्त्व भली-भांति समझा दिया है। तीसरी लहर आए या चौथी, ऑक्सीजन के लिए कोई हाहाकार नहीं मचेगा। सब जान गए हैं कि ऑक्सीजन का सबसे अच्छा स्रोत वृक्ष ही हैं।

पिछले कई सालों में देश के विभिन्न भागों में ऐसे वृक्ष मानवहुए हैं जिन्होंने एक धुन की तरह अकेले दम बड़े-बड़े वन विकसित कर लिए। उत्तराखण्ड के सुदूर क्षेत्रों से लेकर दक्षिण और पश्चिम भारत में भी ऐसे विलक्षण धुनी व्यक्ति ऐसा करिश्मा दिखा चुके हैं और अब भी लगे हुए हैं। उनके लगाए-पाले-बचाए वन देखे जा सकते हैं। सरकारी वृक्षारोपण की विशेषता है कि उनसे तैयार हुए वन कहीं दिखाई नहीं देते। आंकड़े और बजट अवश्य फाइलों में देखा जा सकता है।

इस एक जुलाई से लखनऊ में एक नई व्यवस्था शुरू हुई है। यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों का स्वचालित चालान शुरू हुआ है। इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। शायद इसी से यहां के अराजक यातायात में कुछ सुधार आए। इसका सीधा सम्बंध चौराहों पर लगी स्वचालित बत्तियों और कैमरों से है जो कप्यूटर सर्वर से सीधे जुड़े हैं। मतलब यह कि यह स्वचालित व्यवस्था तभी चालितरहेगी जब चराहों की लाल-हरी बत्तियां और कैमरे काम करते रहें।

हमने अपने किशोर दिनों से लेकर इस बुढ़ापे तक लखनऊ के चौराहों पर इतनी बार ट्रैफिक लाइट लगते और बिगड़ते देखी हैं कि भरोसा ही नहीं होता कि यह व्यवस्था कभी एक साल तक भी सुचारू चल सकेगी। कभी विश्व बैंक के अनुदान से ये लाइटें लगीं, कभी किसी केंद्रीय योजना के तहत। साल भर में लाइट तो छोड़िए, उसका खम्भा भी गायब हो जाता रहा है। लखनऊ अब स्मार्ट सिटी बन गया है। इस बार उन उन चौराहों पर भी लाइटें लग गई हैं जहां कोई आवश्यकता नहीं है। बहरहाल, यह देखना अच्छा लगता है कि काफी लोग लाल बत्ती पर रुकने लगे हैं। चालान का ही डर होगा। जिन्हें चालान का डर नहीं वे फर्राटा भरते चले जाते हैं, जैसे नेता गण, पुलिस वाले, सरकारी कारें और नगर निगम की कचरा गाड़ियां। स्वचालित चालान व्यवस्था करती रहे सरकारी गाड़ियों का चालान!

इस व्यवस्था को सचमुच चलाना है और यातायात नियमों के प्रति सम्मान पैदा करना है तो सबसे पहले वीआईपीको लाल बत्ती पर अपनी गाड़ी रोकनी होगी। अन्यथा वह भी सरकारी वृक्षारोपण की तरह कागजों में दर्ज़ एक व्यवस्था बनकर रह जाएगी।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 3 जुलाई, 2021)