ग्राम ढौंड
, मासों (गढ़वाल) निवासी गुणानंद थपलियाल की
पहली पत्नी सत्येश्वरी एक बेटे को जन्म देकर परलोक सिधार गई थीं। माता की स्मृति
में उस बेटे का नाम रखा गया सत्येश्वर। दूसरी पत्नी सर्वेश्वरी भी एक बेटा जनने के
बाद काल-कवलित हो गईं। उस बेटे का नाम रखा गया सर्वेश्वर। गुणानंद जी ने तीसरा
ब्याह किया राजेश्वरी से। राजेश्वरी भी पहले प्रसव के कुछ दिन बाद जाती रहीं। जो
अबोध बालक वे छोड़ गईं थीं उसका नाम तय हुआ- राजेश्वर। वह पांच या छह वर्ष का था तो
पिता गुणानंद जी भी चल बसे। अनाथ हो गए बालक राजेश्वर को उसकी विधवा बुआ ने पाला।
बुआ को ही वह मां कहता था।देहरादून में स्कूल जाने पर राजेश्वर ने स्वयं अपना नाम
लिखवाया- सोहनलाल। इस नाम का आकर्षण यह था कि उसने सोहनलाल नाम के एक व्यक्ति को
जयकारा लगाते जुलूस के बीच फूलमालाओं से लदे हुए शान से जाते देखा था। बाद में पता
चला कि वह आर्य समाज के नेता थे। तो, सोहनलाल ही उसका आधिकारिक नाम बना- सोहनलाल
थपलियाल। थोड़ा बड़ा होने पर किशोर सोहनलाल ने गांव के घर में पड़े एक पुराने बक्से
को उलटा-पुलटा तो उसमें एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें दामोदर चंदोला (जो उसके मामा
लगते थे) ने पिता गुणानंद को श्रावण संक्रांति के दिन पुत्र-जन्म की बधाई लिखी थी।
पोस्ट कार्ड सन् 1941 का था। सोहनलाल ने इसे ही अपना जन्म दिन और वर्ष मान
लिया।
सोहनलाल की स्कूली शिक्षा देहरादून में हुई- लक्ष्मण
विद्यालय, लक्खीबाग और इस्लामिया स्कूल (आज का गांधी विद्यालय) में।
1957 में हाईस्कूल पास किया। देहरादून में ही सोहन लाल में भविष्य के उर्मिल कुमार
थपलियाल बनने के बीज पड़े और अंकुर फूटे, जिसे कहानी और
कविताओं से शुरू करके नाटककार, रंग अभिनेता-निर्देशक,
लोक संगीत मर्मज्ञ और नागर नौटंकी को पुनर्स्थापित करने एवं नया रूप
देने वाला चर्चित नाम बनना था। लेकिन स्कूली दिनों तो सोहनलाल बहुत शर्मीला,
संकोची और कुण्ठाग्रस्त था। उस अनाथ बालक पर सब दिया दिखाते थे।
इससे बालक सोहनलाल में हीन भावना भर गई। वह अपने को अत्यंत दीन-हीन समझने लगा।
लोगों के सामने ठीक से बोल नहीं पाता था। नतीज़ा यह हुआ कि वह हकलाने लगा। इससे वह और
भी कुण्ठाग्रस्त और अकेला रहने लगा।
कोई भीतरी प्रेरणा ही रही होगी (उर्मिल जी बाद में इसे
ईश्वरीय शक्ति कहते थे) कि हकलाना कम करने का उपाय उसने स्वयं ही ढूंढ लिया। जहां
वह रहता था, फालतू लाइन के पास एक जंगल था। खाली समय में सब लड़के वहीं
जाकर खेलते-पढ़ते थे। सोहनलाल जंगल में अकेले दूर जाकर पेड़ों से खूब बात करता। उसे
लगता कि पेड़ भी उससे बात करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसका हकलाना कम होने
लगा। बाद में उस पर उसने इतना नियंत्रण पा लिया था कि गाना गाने लगा, रामलीला में भाग लेने लगा और कालांतर में रेडियो पर समाचार वाचन भी सहजता
से कर सका।
रामलीला में भाग लेने से सोहनलाल का व्यक्तित्व बहुत निखरा
और लोगों ने उसकी प्रतिभा पहचानी। बचपन
में बुआ का उसे खिलाते-पिलाते और काम करते-करते गुनगुनाते रहना उसके भीतर किस कदर
संगीत भर गया था, यह 1957 में चुक्खू की रामलीला में सीता की भूमिका अदा करते
हुए सामने आया। रामलीला की तालीम कराने वाले सुमाड़ी के सदानंद काला ने सोहनलाल की संगीत-प्रतिभा
खूब पहचानी। सीता का उसका अदा किया रोल इतना पसंद किया गया कि देहरादून की दूसरी
रामलीला में भी, जो सर्वे ऑफ इण्डिया, हाथी
बड़कला में होती थी, उसे उसी रात एक दृश्य में सीता बनने जाना
पड़ता था। सीता हरण का प्रसंग मंचित करते समय सोहनलाल को चुक्खू से हाथी बड़कला ले
जाया जाता था। रामलीला में अभिनय को उर्मिल अपना ‘कायांतरण
का प्रशिक्षण’ मानते थे, जिसने उन्हें
भविष्य में नाटकों में अभिनय और निर्देशन में बड़ी मदद की। बुआ के कण्ठ से सुनी लोक
धुनें उनके मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठी रहीं कि वर्षों बाद जब अपने चचेरे दादा
भवानी दत्त थपलियाल का सन 1911 में लिखा गढ़वाली नाटक ‘प्रहलाद’
उन्होंने मंचित किया तो वही धुनें इस्तेमाल कीं। वे बताते थे कि बुआ
को पूरा ‘प्रह्लाद’ नाटक कंठस्थ था।
भवानी दत्त जी बुआ के चाचा होते थे।
1962 में बीए करने के दौरान और उसके बाद में ‘हिमाचल
टाइम्स’ में काम करते हुए सोहनलाल ने कहानियां लिखीं तथा
‘उर्मिल’ उपनाम रखकर कविताएं लिखीं। ‘उर्मिल’ उपनाम रखने की भी एक कहानी है। इण्टर पास
किया ही था कि एक लड़की से प्रेम कर बैठे। बड़े घर की लड़की थी। नाम था उमा। एकतरफा
ही रहा उनका यह पहला प्रेम। उसी की याद में पहले अपना नाम रखा ‘उर्मिलेश’ जिसे फिर ‘उर्मिल’
बना दिया। बाद में ‘उर्मिल’ ही उनका पहला नाम बन गया। रेडियो पर जब वे कहते- ‘अब
आप सोहनलाल थपलियाल से समाचार सुनिए’ तो शुरू-शुरू में सबको आश्चर्य
होता था।
बहरहाल, देहरादून में उर्मिल की मुलाकातें
परिपूर्णानंद पैन्यूली, दीवान सिंह ‘कुमैयां’,
जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, अल्मोड़ा से अक्सर आने वाले मोहन उप्रेती और ब्रह्मदेव जी के यहां आने वाले
धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, आदि से
हुईं। शशिप्रभा शास्त्री भी वहीं थीं। ‘गढ़वाली’ पत्र के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को दूर से देखते थे ‘लेकिन उनसे मिलने और सीखने की तमीज तब नहीं आई थी।’
पढ़ने का शौक बढ़ गया था। दर्शन लाल चौराहा पर बहुत पुराना पुस्तकालय था- खुशीराम
लाइब्रेरी। वहीं बैठे पढ़ते रहते। धर्मयुग, साप्ताहिक
हिंदुस्तान, नवनीत, आदि देश भर की
पत्रिकाएं, किताबें और जासूसी उपन्यास तक। उर्दू की कुछ
रचनाएं अर्थ देख-देख कर पढ़ीं लेकिन अंग्रेजी की पुस्तकें नहीं पढ़ पाए। देहरादून में
एक कहानीकार हुए होशियार सिंह चौहान। वे एक कहानी प्रतियोगिता कराते थे। उस
प्रतियोगिता के लिए कहानी लिखी ‘और धरातल टूट गया’ नाम से और दूसरा पुरस्कार पाया।
उस दौरान टाउनहाल में खूब सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे।
वहीं उर्मिल ने पहली बार पूर्ण कालिक नाटकों के मंचन देखे। पारसी रंगमंच के प्रभाव
वाले ‘जागो हुआ सबेरा,’ ‘सिकंदर और पोरस’ जैसे उन नाट्य प्रदर्शनों का उन पर ऐसा जादू चढ़ा कि उसी तर्ज़ पर ‘अनारकली’ नाटक लिख डाला। होली की रात फालतू लाइन के सांस्कृतिक
पण्डाल में उसे स्वयं ही मोनो प्ले के रूप में मंचित कर डाला। अकबर, सलीम, अनारकली, सारी भूमिकाएं
अकेले निभाईं। उनका सिक्का जमने लगा। रोटरी क्लब, लायंस क्लब,
आदि से बुलावे आने लगे। यहां से रंग-अभिनेता, लेखक
और निर्देशक उर्मिल थपलियाल की जो यात्रा यात्रा शुरू हुई वह अनेक पड़ाव पार करते
हुए जुलाई 2021 में उनके निधन से कुछ मास पहले तक अबाध जारी रही।
उसी बीच देहरादून से प्रकाशित अंग्रेजी पत्र ‘हिमाचल
टाइम्स’ का हिंदी संस्करण निकला तो उन्हें उसमें काम मिल गया।
एक सौ रु महीने के वेतन में से अस्सी रु बुआ को देने लगे जो गहने बेचकर कर घर
चलाती थी। बीस रु के जेब खर्च से सिगरेट पीते, कवि सम्मेलनों
में जाते और अपने को ‘कुछ खास’ समझने
लगे थे। 1962 में चीनी आक्रमण पर लिखी कविता ने उन्हें मंचीय कवि बना दिया। फिर तो
नीरज, शेरजंग गर्ग, देवराज दिनेश,
मंगला प्रसाद नौटियाल, आदि कवियों के साथ कवि
सम्मेलनों में जाने लगे। बताते थे कि उन दिनों मैं थोड़ा उद्दंड भी हो गया था। एक
बार नीरज ने मंच से जो कविता (ज़िंदगी वेद थी ज़िल्द बंधाने में कटी) सुनाई, मैंने वहीं पर उसकी पैरोडी बनाकर मंच से सुना दी थी। उसी दौरान दीवान सिंह
कुमैयां (महशूर फोटोग्राफर) जीत सिंह नेगी (गीतकार) केशव अनुरागी (गायक एवं ढोल
सागर के अध्येता) के साथ शामों को बैठकी होने लगी। कभी
अल्मोड़ा से मोहन उप्रेती आते तो वे भी शामिल होते। यह वह दौर था जब उर्मिल ने हर
विधा में हाथ आजमाया। ‘नई कहानी,’ ‘सारिका,’
और 'धर्मयुग' जैसी
पत्रिकाओं में कहानियां छपीं। ‘शंकर्स वीकली’ में व्यंग्य प्रकाशित हुए किंतु किसी एक विधा में अधिक समय टिके नहीं,
यद्यपि व्यंग्य की धार बराबर साथ बनी रही।
1964 में लखनऊ आने और अगले साल आकाशवाणी में समाचार वाचक
बनने के बाद उनकी रुचि रंगमंच की तरफ बढ़ने लगी। उन्होंने ‘हवा
महल’ के लिए नाटक लिखे और निर्देशित भी किए। गढ़वाली लोक
संगीत और लोक नृत्य-नाट्य आधारित ‘फ्यूलीं और रामी’,
‘मोती ढांगा’ और ‘संग्राम
बुढ्या रमछम’ जैसी प्रस्तुतियां लखनऊ के दर्शकों के समक्ष
दीं। 1972 उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ जब प्रो सत्यमूर्ति,
डॉ अनिल रस्तोगी, आदि के साथ लखनऊ में ‘दर्पण’ नाट्य संस्था की स्थापना की। उसके बाद वे
पूरी तरह रंगमंच को समर्पित हो गए। ‘कुत्ते’ और ‘काठ का घोड़ा’ जैसे शुरुआती
प्रायोगिक नाटकों के बाद उर्मिल थपलियाल रंगमंच में निरंतर प्रयोग करते गए। पहाड़
से जो लोक संगीत और नृत्य वे साथ लेते आए थे, उसका नाटकों
में रचनात्मक प्रयोग किया। उनके अभिनीत और निर्देशित नाटकों की सूची बहुत लम्बी
है। ‘यहूदी की लड़की’ और ‘सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अंतिम किरण तक’ जैसी
उनकी प्रस्तुतियां बहुत सराही गईं थीं। पिछले दो दशक से 'हरिश्चन्नर
की लड़ाई' उनका
बहुचर्चित-प्रशंसित नाटक रहा जिसके देश भर में सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके
हैं।
धीरे-धीरे उर्मिल लोक नाट्य विधाओं की ओर वे अधिकाधिक
आकर्षित होते गए। अपने लिखे और निर्देशित नाटकों में उन्होंने लोक शैलियों, विशेष
रूप से नौटंकी का खूब इस्तेमाल किया। अखबारों में नौटंकी कॉलम लिखते थे और नाटकों
में नौटंकी का बेहतरीन प्रयोग करते थे। नौटंकी के शास्त्र का उन्होंने विधिवत
अध्ययन भी किया। कहा जा सकता है कि उन्होंने लुप्तप्राय नौटंकी विधा को पुनर्जीवित
करने का महत्त्वपूर्ण काम किया। ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’
तो पूरी तरह नौटंकी पर आधारित है, जो अपनी हर
प्रस्तुति में नया होता रहता। तात्कालिक घटनाओं को नाटक में पिरो देने में वे
उस्ताद थे। सुबह के अखबारों की सुर्खियां शाम की नाट्य प्रस्तुति में बुन लेते थे।
नौटंकी की जानी-मानी अभिनेत्री एवं गायिका गुलाब बाई के जीवन पर एक नाटक भी
उन्होंने लिखा-खेला। अपने लोक-नाट्य-प्रयोगों के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे
कहा था कि “गांव का आदमी अगर मुर्गे की बांग पर जागता है तो
शहर के आदमी को ‘अलार्म’ चाहिए। मैंने
अपनी नौटंकी में अलार्म घड़ी में मुर्गे की बांग फिट करने की कोशिश की है।”
अपनी किशोरावस्था के दिनों से ही मैं उर्मिल जी को जानता
था। उनसे आकाशवाणी में अक्सर भेंट होती। मैं ‘उत्तरायण’ में वार्ता पढ़ने जाता तो वे कार्यक्रम के बीच पांच मिनट के लिए समाचार
पढ़ने आते थे। उन्हें नाटकों में अभिनय करते देखता और उनके निर्देशित नाटक भी। जब
पता चला कि उर्मिल जी एक जमाने में कहानियां लिखते थे तो मैं अपनी कहानियां उन्हें
दिखाने और उनसे सीखने उनके घर पहुंच जाता था। वे हमेशा 'ज्वेशि
ज्यू' कहकर मुस्कराते हुए स्वागत करते। स्थानीय समाचार
पत्रों में उनकी कविताएं और व्यंग्य प्रकाशित होते रहते थे। 1977 से मैं ‘स्वतंत्र भारत’ में काम करने लगा था। उसके कुछ समय
बाद ही उन्होंने उसमें ‘सप्ताह की नौटंकी’ कॉलम लिखना शुरू किया। यह कॉलम बहुत लोकप्रिय हुआ और बीस साल से अधिक चला।
बीच में कुछ वर्ष ‘आज की नौटंकी’ नाम
से दैनिक कॉलम भी लिखा। नौटंकी में वे समसामयिक राजनैतिक विषयों पर खूब चुटकी लिया
करते थे। एक बार उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर कोई तीखी चुटकी
ले ली। मुलायम नाराज हुए या उनका कोई चमचा अफसर, पता नहीं
लेकिन सम्पादक घनश्याम पंकज ने ‘नौटंकी’ कॉलम बंद करवा दिया। बाद में वह फिर शुरू हुआ। ‘हिंदुस्तान’
में हमने उनसे ‘नश्तर’ कॉलम
लिखवाना शुरू किया। अपना लिखा कॉलम देने वे स्वयं अखबारों के दफ्तर जाया करते।
हमारे कार्यालय आते तो बैठते और बतियाते थे। ‘नौटंकी’,
कविता और गद्य में उनके व्यंग्य कॉलम कई और अखबारों में छपते थे।
नट-नटी संवाद और सामयिक घटनाओं की तर्ज़ पर बजता उनका नक्कारा (नगाड़ा)
अखबारों-पत्रिकाओं में सबसे पहले पढ़ा जाता था।
एक बार ऐसा हुआ कि 'हिंदुस्तान' के दिल्ली
स्थित लेखा विभाग ने उर्मिल कुमार थपलियाल नाम से प्रकाशित होने वाले ‘नश्तर’ स्तम्भ के पारिश्रमिक का भुगतान सोहनलाल
थपालियाल के नाम से करने पर आपत्ति लगा दी। दिल्ली में सम्पादकीय पेज के प्रभारी
साथी हरजिंदर ने सुझाव दिया कि थपलियाल जी से एक पत्र लिखवा लूं कि उनका असली नाम
सोहनलाल है लेकिन वे लिखते उर्मिल के नाम से हैं। मैंने थपलियाल जी से ऐसा पत्र
लिख देने को कहा। सुनकर वे मुस्कराए और अगले दिन जवाब में लम्बा चुटीला खर्रा लिख लाए कि नाम तो
प्रेमचंद का भी प्रेमचंद नहीं था। उन तमाम साहित्यकारों के नाम उन्होंने गिना दिए
जो दूसरे नाम से लिखते थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया गया कि सिर्फ दो लाइन का
पत्र लिख दें कि भुगतान सोहनलाल थपलियाल के नाम से किया जाए।
रंगमंच के अलावा उनका दूसरा शौक लिखना-पढ़ना था। खूब पढ़ते थे
और देश-दुनिया के समाचारों से अद्यतन रहते थे। विभिन्न अखबारों-पत्रिकाओं में उनके
व्यंग्य,
नौटंकी और कवित्त ताज़ा घटनाओं और शीर्षकों पर ही आधारित होते थे।
उनका हास्य-व्यंग्य बोध कई बार चकित करता था। उनकी कोई राजनैतिक या वैचारिक
प्रतिबद्धता नहीं थी। इसलिए वे किसी को भी अपने व्यंग्य-वाणों से बख्शते नहीं थे। उनकी
राजनैतिक-सामाजिक चुटकियां अंतिम दिनों तक विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में
प्रकाशित होती रहीं। किसी भी अखबार और पत्रिका में लिखने का अनुरोध वे टालते नहीं
थे और कभी अपना कॉलम लिखने में विलम्ब भी नहीं किया। बाहर जाते तो अग्रिम लिखकर दे
जाते। ‘रीजनल रिपोर्टर’ में भी वे ‘बकमबम जी बकमबम’ नाम से कॉलम लिखते थे। खूब लिखने के
बावजूद उनमें दोहराव नहीं होता था। कोरोना काल में उन्होंने फेसबुक को माध्यम
बनाकर रंगमंच की बारीकियों पर व्याख्यान भी पेश किए। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने
गढ़वाल विश्वविद्यालय से ‘लोक रंगमंच में गति व लय’ विषय पर पीएचडी पूरी की थी। नौटंकी की मूल धुनों एवं उसके वाद्यों की स्वर
लिपियां बनाने में भी वे लगे रहते थे। उनकी सक्रियता सुखद और प्रेरणादायक थी।
उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक
अकादमी, हिंदी संस्थान और देश भर की विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित-पुरस्कृत
किया। नौटंकी, नाट्य कार्यशालाओं, व्याख्यानों
एवं मंचनों के लिए वे हाल-हाल तक देश भर का दौरा करते रहते थे। बड़े सरल, खुशदिल और यारबाश इनसान थे। पहाड़ीपन उनकी बोली-बानी और व्यक्तित्व में
छाया रहता था।
मेरी उर्मिल जी से अक्सर बातचीत होती थी। मेरे सम्पादक रहते
वे सुबह-सुबह अखबार पढ़कर मजेदार टिप्पणियां करते। कोरोना की आफत शुरू होने से पहले
तक उनसे मिलना होता रहता था। कभी मैं ही घर चला जाता। उसी दौरान मेरे बार-बार
आग्रह करने पर उनके शुरुआती जीवन की परतें खुलीं। महामारी के चरम दौर में जब उनकी बीमारी की खबर मिली तब मैं स्वयं कोविड के
हमले से जूझ रहा था। पता चला कि वे लिवर में कैंसर लिए पहले अस्पताल, फिर
घर में पड़े थे। डॉक्टरों के अनुसार रोग असाध्य हो गया था। बड़ा मलाल रहा कि तब फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी।
बीस जुलाई को लखनऊ के
भैंसाकुंड श्मशान घाट पर उर्मिल जी को राजकीय सम्मान के साथ विदा किया गया। उन्हें
चुपचाप पड़ा देखकर मैं सोच रहा था कि अभी उठकर हंसते हुए पूछने लगेंगे- ' ज्वेशि ज्यू, ये राजकीय सम्मान में क्या होने वाला ठैरा?' अपना
‘नौटंकी’ स्तम्भ भी वे इसी पर लिखते
जिसमें उनके नट-नटी सिपाहियों की झुकी बंदूकों पर चुटीली नोंक-झोंक करते और
नक्कारा ‘श्मशान में बिगुल’ की तरह
बजता। लेकिन वे तो इस जगत की सारी नौटंकी और अपना प्रिय रंगमंच छोड़ कर किसी और ही
दुनिया को कूच कर चुके थे।
हिंदी रंगमंच को उन्होंने नए प्रयोगों और लोक नाट्य शैलियों
से समृद्ध किया। लुप्त प्राय नौटंकी को रंगमंच में पुनर्स्थापित करने और मूल
स्वरूप में छेड़छाड़ किए बिना उसका नागर रूप विकसित करने के अलावा अपने धारदार
व्यंग्यों के लिए भी उर्मिल याद किए जाएंगे।
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