दुनिया में अच्छी खबरें भी हैं लेकिन यह समय बुरी खबरों के छाए रहने का है। हर तरफ से हाहाकार सुनने में आ रहा है। सोशल मीडिया, खबरिया चैनल, अखबार डरावने समाचारों से भरे हैं। ‘नभाटा’ जैसे पत्र अपवाद स्वरूप उम्मीद से भरे कुछ समाचार भी दे रहे हैं। कुछ चैनलों ने तो हद कर रखी है। वे लाशों का उत्सव-सा मना रहे हैं। फेसबुक खोलिए तो मित्रों-परिचितों और इसके-उसके कोविड से हार जाने की सूचनाओं, शोक गीतों, श्रद्धाजंलियों, भावुक स्मृति-लेखों का सिलसिला दूर तक चला जाता है। कोई किसी को जन्मदिन की शुभकानाएं देने के लिए फोटो लगा रहा है तो पहली दृष्टि में दिल कांप जा रहा है। दिल-दिमाग को दुरस्त रखने की बहुत जरूरत पड़ रही है।
मन दूसरी तरफ ले जाने का
जतन करता हूं। बाहर दूसरी आवाजें भी तो होंगी। हां, वह सुनिए, कोयल कूक रही है। कूकता वैसे नर कोयल है, खैर। यह उनके कूकने का ही मौसम
है। वह लम्बी कूक लगाए हुए है। कोई बच्चा-बड़ा उसकी नकल नहीं कर रहा। उसकी आतुर
पुकार को सिर्फ एम्बुलेंस की डरावनी ‘टुईं-टुईं’ बाधित कर रही
है। सुबह-दोपहर-शाम और रातों को भी सड़क से गुजरती एम्बुलेंस की चीख सुनाई देती है।
कोयल कम,
एम्बुलेंस अधिक बोल रहे हैं। महामारी के कहर में कोयल भी सहम गए हैं। अरे कोयल, कूके जाओ। एम्बुलेंस की चीख को दबा दो।
मोबाइल उठाता हूं। फेसबुक के लिए नहीं। वहां डर है।
व्हाट्सऐप पर परिवार का ग्रुप है। उस पर रोज एक प्यारी सी फोटो आती है। एक नन्हीं
परी का परिवार में आगमन हुआ है। उसे देखने हम जा नहीं पाए लेकिन वह दुनिया की सारी
खुशियां हमारे लिए अपनी मासूम अदाओं में भेज देती है। उसकी बंद मुट्ठियों में एक
खूबसूरत दुनिया का सपना बंद है। ये मुट्ठियां बाद में खुलेंगी, धीरे-धीरे।
अभी वह अपने नन्हे-नन्हे पैरों से इस संसार की सारी अलाय-बलाय को लतियाने में लगी
है। अपनी पूरी क्षमता से वह हम सबके लिए लड़ रही है। कभी-कभी गूं-गूं, आं-क्वां जैसी ध्वनियां निकालती है, रोने के अलावा।
उसकी ध्वनियों में हमारे लिए कितने संदेश हैं? नरेश जी की ‘शिशु’ कविता याद आती है- ‘उसी
है जो है आशा।’
कई दिन से छत पर जाना नहीं हुआ। जाड़ों के फूल कबके सूख गए
थे। गर्मी में खिलने वाला जीनिया इस बार लगा नहीं पाया लेकिन ‘नौ
बजिया’ की सूखी जड़ों से नया जीवन पनपने लगा था। जरा-सी सहेज
मिलते ही तीनों गमले हरे-भरे हो गए थे। पता चला, अब फूल आने
लगे हैं। यह कितनी खुशी देने वाली सूचना है। आम के बौरों की ओर किसी ने ध्यान ही
नहीं दिलाया। मेरे पड़ोसी के आम के पेड़ में टिकोले चुपके से बड़े हो गए हैं। पार्क
का गुलमोहर इस बार पेड़ों की छंटाई के नाम पर जाने क्यों बिल्कुल मुण्डा कर दिया
गया। वर्ना वह फूलने की तैयारी कर होता। दूसरे तमाम गुलमोहर अब फूलने लगे होंगे। अमलतास
भी अपनी सुनहरे आभा बिखेरने वाला होगा।
लाख कोशिश करता हूं लेकिन ध्यान इन सुंदर चीजों से हटकर
महामारी के कहर की ओर लौट जाता है। थोड़ा भूलता हूं तो एम्बुलेंस की चीख याद दिला
देती है। कौन जा रहे हैं इन एम्बुलेंस में? अस्पताल में उन्हें जगह मिलेगी? ऑक्सीजन मिलेगी? कोई उन्हें वहां देखने वाला होगा?
सब कह रहे हैं, अस्पताल जाने से हर हाल में
बचे रहना है लेकिन कैसे?
सोचता हूं, इस हाहाकारी समय में तो देश की बहुसंख्यक
जनता को यह पूछने की अक्ल आ रही होगी कि सरकारों की प्राथमिकता के काम क्या होने
चाहिए। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, छद्म
राष्ट्रवाद और थोथा देश-प्रेम चुनावी मुद्दे होने चाहिए या अच्छे अस्पताल, आवश्यक और पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं जिसके बिना लोग बेमौत मर रहे हैं?
क्या होने चाहिए हमारे मूल सवाल और उन्हें किससे पूछा जाना चाहिए?
क्या लोग ऐसा सोच रहे हैं?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 01 मई, 2021)