Friday, April 30, 2021

बुरी खबरें, अच्छी दुनिया और चंद ज़रूरी सवाल

 

दुनिया में अच्छी खबरें भी हैं लेकिन यह समय बुरी खबरों के छाए रहने का है। हर तरफ से हाहाकार सुनने में आ रहा है। सोशल मीडिया, खबरिया चैनल, अखबार डरावने समाचारों से भरे हैं। नभाटाजैसे पत्र अपवाद स्वरूप उम्मीद से भरे कुछ समाचार भी दे रहे हैं। कुछ चैनलों ने तो हद कर रखी है। वे लाशों का उत्सव-सा मना रहे हैं। फेसबुक खोलिए तो मित्रों-परिचितों और इसके-उसके कोविड से हार जाने की सूचनाओं, शोक गीतों, श्रद्धाजंलियों, भावुक स्मृति-लेखों का सिलसिला दूर तक चला जाता है। कोई किसी को जन्मदिन की शुभकानाएं देने के लिए फोटो लगा रहा है तो पहली दृष्टि में दिल कांप जा रहा है। दिल-दिमाग को दुरस्त रखने की बहुत जरूरत पड़ रही है।

मन दूसरी तरफ ले जाने का जतन करता हूं। बाहर दूसरी आवाजें भी तो होंगी। हां, वह सुनिए, कोयल कूक रही है। कूकता वैसे नर कोयल है, खैर। यह उनके कूकने का ही मौसम है। वह लम्बी कूक लगाए हुए है। कोई बच्चा-बड़ा उसकी नकल नहीं कर रहा। उसकी आतुर पुकार को सिर्फ एम्बुलेंस की डरावनी टुईं-टुईंबाधित कर रही है। सुबह-दोपहर-शाम और रातों को भी सड़क से गुजरती एम्बुलेंस की चीख सुनाई देती है। कोयल कम, एम्बुलेंस अधिक बोल रहे हैं। महामारी के कहर में कोयल भी सहम गए हैं। अरे कोयल, कूके जाओ। एम्बुलेंस की चीख को दबा दो।

मोबाइल उठाता हूं। फेसबुक के लिए नहीं। वहां डर है। व्हाट्सऐप पर परिवार का ग्रुप है। उस पर रोज एक प्यारी सी फोटो आती है। एक नन्हीं परी का परिवार में आगमन हुआ है। उसे देखने हम जा नहीं पाए लेकिन वह दुनिया की सारी खुशियां हमारे लिए अपनी मासूम अदाओं में भेज देती है। उसकी बंद मुट्ठियों में एक खूबसूरत दुनिया का सपना बंद है। ये मुट्ठियां बाद में खुलेंगी, धीरे-धीरे। अभी वह अपने नन्हे-नन्हे पैरों से इस संसार की सारी अलाय-बलाय को लतियाने में लगी है। अपनी पूरी क्षमता से वह हम सबके लिए लड़ रही है। कभी-कभी गूं-गूं, आं-क्वां जैसी ध्वनियां निकालती है, रोने के अलावा। उसकी ध्वनियों में हमारे लिए कितने संदेश हैं? नरेश जी की शिशुकविता याद आती है- उसी है जो है आशा।

कई दिन से छत पर जाना नहीं हुआ। जाड़ों के फूल कबके सूख गए थे। गर्मी में खिलने वाला जीनिया इस बार लगा नहीं पाया लेकिन नौ बजियाकी सूखी जड़ों से नया जीवन पनपने लगा था। जरा-सी सहेज मिलते ही तीनों गमले हरे-भरे हो गए थे। पता चला, अब फूल आने लगे हैं। यह कितनी खुशी देने वाली सूचना है। आम के बौरों की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिलाया। मेरे पड़ोसी के आम के पेड़ में टिकोले चुपके से बड़े हो गए हैं। पार्क का गुलमोहर इस बार पेड़ों की छंटाई के नाम पर जाने क्यों बिल्कुल मुण्डा कर दिया गया। वर्ना वह फूलने की तैयारी कर होता। दूसरे तमाम गुलमोहर अब फूलने लगे होंगे। अमलतास भी अपनी सुनहरे आभा बिखेरने वाला होगा।

लाख कोशिश करता हूं लेकिन ध्यान इन सुंदर चीजों से हटकर महामारी के कहर की ओर लौट जाता है। थोड़ा भूलता हूं तो एम्बुलेंस की चीख याद दिला देती है। कौन जा रहे हैं इन एम्बुलेंस में? अस्पताल में उन्हें जगह मिलेगी? ऑक्सीजन मिलेगी? कोई उन्हें वहां देखने वाला होगा? सब कह रहे हैं, अस्पताल जाने से हर हाल में बचे रहना है लेकिन कैसे?

सोचता हूं, इस हाहाकारी समय में तो देश की बहुसंख्यक जनता को यह पूछने की अक्ल आ रही होगी कि सरकारों की प्राथमिकता के काम क्या होने चाहिए। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, छद्म राष्ट्रवाद और थोथा देश-प्रेम चुनावी मुद्दे होने चाहिए या अच्छे अस्पताल, आवश्यक और पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं जिसके बिना लोग बेमौत मर रहे हैं? क्या होने चाहिए हमारे मूल सवाल और उन्हें किससे पूछा जाना चाहिए? क्या लोग ऐसा सोच रहे हैं?   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 01 मई, 2021)  

 

Friday, April 23, 2021

जनता सरकारों पर भरोसा क्यों नहीं करती?

जैसी आपात स्थितियां चल रही हैं और चारों तरफ जैसा हाहाकार मचा हुआ है, ऐसे संकट काल में राजनैतिक नेतृत्व का दायित्व है कि वह जनता को भरोसा दिलाए कि प्राण रक्षा के लिए आवश्यक सुविधाओं, दवाओं, ऑक्सीजन आदि की कमी नहीं होगी। प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके आला अफसर तक ऐसे आश्वासन वाले बयान दे रहे हैं। जनता ही उन बयानों पर भरोसा नहीं कर रही। वह पैरासिटामॉल जैसी सामान्य दवा से लेकर ऑक्सीजन के सिलेण्डर तक घर में रख लेने के लिए पूरी जान लगा दे रही है। जिन्हें अभी आवश्यकता नहीं है या जो कोविड संक्रमण से अभी बचे हुए हैं, वे भी दवाएं और ऑक्सीजन सिलेण्डर का जुगाड़ लगाने के लिए भाग-दौड़ में लगे हैं। अगर हमें हो गया तो क्या करेंगे? उन्हें भरोसा ही नहीं है। सब इसी भय से त्रस्त हैं कि आने वाले दिनों में स्थिति और विकट हो जाएगी।

उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो यहां लोक सभा से लेकर विधान सभा चुनाव तक भाजपा को जबर्दस्त बहुमत मिला था। भाजपा ने ऐसी चुनावी सफलता पहले कभी नहीं देखी थी। यह उस पर जनता के अपार विश्वास के कारण ही सम्भव हुआ होगा। जनता ने दूसरे दलों की तुलना में भाजपा पर खूब भरोसा किया। और, भरोसा यह था कि भाजपा नेतृत्व देश और उत्तर प्रदेश को बेहतर शासन दे सकता है।

अब जबकि देश और प्रदेश कोविड संक्रमण के तूफान से बेहाल है और अस्पतालों से लेकर दवाइयों-उपकरणों और अत्यावश्यक प्राण वायु के लिए मरीज और तीमारदार त्रस्त है, तब वही जनता बड़े विश्वास से चुनी अपनी सरकार पर भरोसा क्यों नहीं कर रही कि संकट अवश्य है लेकिन हमारी सरकार इससे निपट लेगी? हमें बिना जरूरत दवा, ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन, आदि खरीदकर जमा करने की अवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमने भरोसे वाली सरकार चुनी है। यह आश्वस्ति-भाव जनता में क्यों नहीं जागता?

सिर्फ इस सरकार की बात नहीं है, स्वास्थ्य सुविधाओं का संक्ट हो या दूसरी आवश्यक चीजों की कमी, जनता आम तौर पर सरकारों के आश्वासनों पर भरोसा नहीं करती। आजादी के बाद से ही उसे कटु अनुभव हुए हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि स्वतंत्रता के पश्चात शुरुआती सरकारों में शामिल लोग जनता का थोड़ा-बहुत ख्याल कर लेते थे। समय के साथ यह गुण गायब होता गया। आज का दौर इस मामले में बहुत निर्मम है।

बीते बुधवार को एक मित्र खाली ऑक्सीजन सिलेण्डर भराने के लिए एक ऑक्सीजन सयंत्र पहुंचे। भारी भीड़ थी। बेहाल लोग तड़के से लाइन लगाए खड़े थे। भीड़ को अनुशासित करने के नाम पर पुलिस बल आया। उसने आनन-फानन लाठियां चलाईं और कुछ समय बाद फैक्ट्री से अपने साहबों के लिए सिलेण्डर भरवा ले गए। यह सिर्फ एक वाकया है। जनता देखती आई है कि जब भी किसी वस्तु का संकट पैदा हो जाता है, तो सबसे पहले यह तंत्र अपने आकाओं की सेवा में जुट जाता है। पेट्रोल-डीजल की हड़ताल ही हो जाए तो रातों रात जरकिन भर-भर कर अफसरों-नेताओं के यहां पहुंचने लगते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस समय भी बड़े-बड़े प्रभावशाली लोगों के यहां हर वह चीज उपलब्ध हो, जिसके बिना जनता मर रही है। वैसे भी, यह व्यवस्था जनता के लिए कम, नेताओं-अफसरों के लिए अधिक काम करती है। जनता जानती है कि अस्पताल हो या ऑक्सीजन, नेताओं-अफसरों को हर हाल में मिल जाएंगे लेकिन उसे तरसना-मरना होगा।

जब मुद्दा धर्म, राजनीति, पाखण्ड और भावनात्मक मुद्दों पर यही जनता अपने नेताओं के पीछे लहालोट होती रहती है। इसीलिए लोकतंत्र का वर्त्मान विद्रूप हमारे यहां बना है। सरकारों का चुनावी निर्णय उनके काम-काज पर नहीं ही होता।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 अप्रैल, 2021)

 

       

Friday, April 16, 2021

याद रखा जाएगा कि इस दौर से हम कैसे निपटे

यूँ तो दैनंदिन काम-काज में सरकारों और प्रशासन की परीक्षा होती रहती है लेकिन कभी-कभी ही ऐसा वक्त आता है जब उनकी दूरदृष्टि, विवेक, जनहित में त्वरित निर्णय करने की कसौटी पर वे कसे जाते हैं। यह ऐसा ही बहुत बुरा वक्त है जब शासन-प्रशासन का असली इम्तहान होना है। कहना नहीं होगा कि पिछले चंद दिनों में ही उसके दावों, प्रचारों और व्यवस्थाओं की पोल खुल चुकी है। अब जाकर सरकार को गम्भीरता का अनुभव हुआ है। अस्थाई अस्पताल बनाने और दूसरी सुविधाएं बढ़ाने के फैसले किए जा रहे हैं। यह पहले क्यों नहीं हो सकता था?

हम चुनाव दर चुनाव सरकारें इसलिए चुनते और उन पर भरोसा भी जताते आए कि वह अपने सामान्य काम-काज में तो स्वभावत: कल्याणकारी रहेंगी ही, आपात समय में जनता के साथ खड़ी रहेंगी। हमने सरकारें इसलिए नहीं चुनीं कि जब सबसे बुरा वक्त आएगा तो आम आदमी ही नहीं, प्रभावशाली तबके वाले भी अपने मरीज को अस्पताल में भर्ती कराने में लाचार हो जाएंगे। घर पर मरीज को प्राणरक्षक ऑक्सीजन का सिलेण्डर लाख कोशिश के बाद भी नहीं मिल पाएगा। डॉक्टर और अस्पताल के कर्मचारी लाचार हो जाएंगे। ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाएंगी कि निजी लैब कोरोना जांच करने को मना करने लगेंगी या उन्हें मना कर दिया जाएगा।

कोरोना का पहला दौर चीन से शुरू होकर बरास्ता यूरोप अपने मुल्क में कुछ देर से हाहाकार मचाने आया था। तब भी हम कमर कस नहीं सके थे। देशबंदी ने हर स्तर पर तबाही ही मचाई थी। स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल वैसे भी खुलती रहती थी लेकिन कोरोना के पहले दौर ने साबित कर दिया था कि हमारा तंत्र इससे निपटने में कितना अक्षम है। महामारी का दूसरा दौर भी अपने देश में सबसे बाद में आया। पूरे एक साल बाद। क्या यह पूछना गलत होगा कि हमने दूसरे दौर से निपटने के लिए इस दौरान क्या तैयारियां कीं जबकि भुक्तभोगी देश बता रहे थे कि दूसरा दौर और भी भयावह है एवं वायरस रूप बदल चुका है?

क्या सोचा था कि यह वायरस भारत पर मेहरबान रहेगा, कि यज्ञ-हवन, विशालकाय मूर्तियों, चुनाव रैलियों और कुम्भ में डुबकियों से वह डर जाएगा? अगर एक कैबिनेट मंत्री और सत्तारूढ़ दल के ही कुछ विधायक लाचारी और असंतोष जता रहे हैं तो स्पष्ट है कि दावों के अनुरूप तैयारियां नहीं की गईं। अस्थाई ही सही, कितने अतिरिक्त अस्पताल, कितने बेड, कितने वेण्टीलेटर, कितने ऑक्सीजन प्लाण्ट और सिलेण्डरों की व्यवस्था इस बीच की गई? अगर छोटे घरेलू ऑक्सीजन सिलेण्डर पर्याप्त संख्या में इस समय उपलब्ध होते तो अस्पतालों में भर्ती होने की ऐसी मारामारी नहीं मचती। अगर हर वार्ड में सौ-डेढ़ेक स्वयंसेवकों को भी सामान्य नर्सिंग प्रशिक्षण दे दिया होता और ऑक्सीजन सुलभ होती तो क्या ऐसा चौतरफा रुदन मचा होता?

श्मशान में लकड़ी कम पड़ सकती है लेकिन हमें सैकड़ों शव रोज जलाने-दफनाने की व्यवस्था नहीं चाहिए। हमें ऐसी व्यवस्था चाहिए कि जीवित इंसानों को शव में बदलने से रोका जा सके। जीना-मरना अपने हाथ में नहीं, लेकिन मरीज की जांच तो समय पर हो, उसे बचाने की कोशिश तो हो। इतने इंतजाम हमने समय रहते क्यों नहीं किए? हम टीका बनाने वाले देशों में अग्रणी होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं, लेकिन कोविड की जांच करा पाने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। निजी लैब तीन-तीन, चार-चार दिन में नमूना ले पा रहे हैं या साफ मना कर दे रहे हैं। इतने ही दिन रिपोर्ट आने में लग रहे हैं। आखिर क्यों? सरकारी अस्पतालों में जांच के लिए लम्बी कतारें संक्रमण बढ़ाने का काम कर रही हैं। टीकाकरण और कोविड जांच की कतारें अगल-बगल क्यों हैं? इसके लिए कौन सी विशेषज्ञता चाहिए?

देर से ही सही, सरकार में हलचल है। कुछ सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं। आशा है स्थिति में सुधार दिखाई देगा। जनता से भी अपील है कि वे पूरी गम्भीरता से सभी सुरक्षात्मक कदम उठाएं।

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Friday, April 09, 2021

फिर वह दारुण दौर

हम फिर उसी दारुण दौर में बहुत तेजी से लौट आए हैं जब बीमारों के इलाज और उन्हें बचाने की सुविधाओं की कौन कहे, श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार की भी व्यवस्था नहीं हो पा रही। यह देखना-सुनना हृदय विदारक है कि लाशें खड़ी हैं और उनके परिवारीजनों को टोकन बांटे जा रहे हैं। पंद्रह घण्टे तक प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। और, इस पूरे दौर में वह जो प्लास्टिक में लिपटा बण्डल पड़ा है, उसके भीतर अपने किसी प्रियजन के होने की प्रतीति भर है। छूने का तो सवाल ही नहीं, उसे दूर से देखा तक नहीं जा सकता।

बार-बार चेतावनियां दी जा रही थीं, टीके लगाने वालों को भी पूरी-पूरी सावधानी बरतने को कहा जा रहा था लेकिन अधिसंख्य जनता ने मान लिया था कि कुछ नहीं है कोरोना या वह उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा। यहां नहीं है कोरोना,’ कई लोगों ने साफ-साफ कहना शुरू कर दिया था। इसमें दिहाड़ी के लिए मजबूर आबादी ही नहीं, अघाए-खाए-मुटाए लोगों की भी खूब संख्या है जिन्हें पार्टी और हंगामा किए बिना नींद ही नहीं आती। नतीजा सामने है। इस बार कोरोना का जो विस्फोट हुआ है, वह पहले से कहीं अधिक रफ्तार से बेकाबू दौड़ने लगा है।

अपेक्षाकृत सावधान रहे लोगों ने भी कम लापरवाहियां नहीं कीं। ये मेरे पक्के दोस्त हैं या ये मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार हैं, इनसे मिलने में कुछ नहीं होगा, ऐसा भाव भी खूब रहा। होली खेली और मिली गई। इस सबके पीछे सबसे बड़ा योगदान सत्तारूढ पार्टी समेत उन दलीय नेताओं का रहा जो चुनाव जीतने के लिए रैली पर रैली और विशाल सभाएं करते रहे। दो गज की दूरी है जरूरीकहने के बाद इस नारे का सबसे अधिक मखौल नेताओं ने ही उड़ाया। चुनाव जीतने के लिए सारे घोड़े खोल देने वाले जिम्मेदार नेताओं ने भी चुनावी रैलियां, सभाएं, पदयात्राएं करके यही संदेश दिया कि कोरोना का कोई डर नहीं है। उनकी बातों और करनी में जमीन-आसमान का असर यहां भी खूब दिखा।

कोरोना अमीर-गरीब में अंतर नहीं करता लेकिन जितनी त्वरित जांच और चिकित्सा सुविधा नेताओं को मिल जाती है उसकी कल्पना भी सामान्य जन नहीं कर सकते। वे जांच कराने के लिए भटक रहे हैं, रोगी पाए जाने पर अस्पताल, डॉक्टर और दवा के लिए दर-दर मारे फिर रहे हैं। उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। थोड़ा-सा बोझ बढ़ते ही स्वास्थ्य तंत्र चरमरा उठता है। नेताओं, आदि के लिए कोई कमी नहीं होती। यह पूरी व्यवस्था उन ही के लिए काम करती है।

पिछले साल कोरोना फैलाने के लिए कभी तब्लीगियों को जी भर कोसा-गरियाया गया, कभी दिहाड़ी कामगारों की झुण्ड के झुण्ड गांव वापसी को और कभी रोजी-रोटी के लिए जूझते गरीबों-लाचारों को। क्या आज कोई अंगुली इन नेताओं की ओर भी उठेगी जो कोरोना नियंत्रण के लिए आवश्यक सभी निर्देशों की धज्जियां उड़ाते फिर रहे हैं?

अब आश्चर्य नहीं होता कि कोरोना की भयावहता के बाद दूसरी सबसे बड़ी खबर अपराध सरगना मुख्तार अंसारी बना हुआ है। वह किस गाड़ी से कैसे आया, कैसी ह्वील चेयर थी और बांदा जेल में आते ही वह कैसे व्हील चेयर छोड़कर आराम से चलने लगा। उसके साथ कौन-कौन आया और किस जेल अधिकारी ने कैसे आंखों-आंखों में रात काटी। उसकी बैरक में क्या-क्या है और कौन उसे कैसे देख रहा है। आने वाले दिनों में हम मुख्तार की जेल कोठरी की और भी कई खबरें पढ़ेंगे। पिछले किस्से भी दोहराए जाएंगे।

कोरोना अपनी निर्मम, दारुण कथाएं कहता रहेगा। एक अदृश्य सूक्ष्म वायरस गर्वीले, हठी, पथभ्रष्ट और सृष्टि-विरोधी मानव को उसकी औकात बताने निकल पड़ा है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 10 अप्रैल, 2021)          

Friday, April 02, 2021

हमारे बुजुर्ग, पुरानी कारें और अर्थव्यव्स्था

तीन-चार दिन पहले वर्मा जी बहुत परेशान मिले। घर के पोर्टिको में खड़ी अपनी पुरानी मारुति कार को उदासी से सहला रहे थे। यह कार उन्होंने कोई पच्चीस वर्ष पहले बड़े शौक से खरीदी थी। जब उनके किसी रिश्तेदार के पास कार नहीं थी तब वे सपत्नीक कार से उनके घर जाते थे। गाहे-बगाहे किसी को अस्पताल ले जाना हो या और कोई आपात आवश्यकता आ पड़े तो कार लेकर उपस्थित हो जाते थे। फिर वे रिटायर हो गए। बेटा नौकरी में चला गया। बेटी की शादी कर दी। पति-पत्नी अकेले रहते हैं लेकिन इस उम्र में पुरानी कार का बड़ा सहारा है। बाजार आना-जाना, डॉक्टर के यहां या किसी जरूरत के समय ही निकलना होता है। वे रोज सुबह उसे झाड़ते-पोछते–धोते हैं, साल में समय पर सर्विस कराते हैं और अपने से अधिक उसका ध्यान रखते हैं।

अब यह कार भी हम नहीं रख सकते,’ वर्मा जी सचमुच उदास थे- सरकार ने बीस साल से अधिक पुरानी गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन समाप्त करने का फैसला किया है। हम बूढ़े-बुढ़िया क्या करेंगे?’

सरकार चाहती है कि पुराना सब खारिज कर दिया जाए और आप नई कार खरीदें,’ हमने उन्हें हलका करने की कोशिश की।

नई कार का हम बूड्ढे-बुढ़िया क्या करेंगे? और, क्यों खरीदें? कहां से पैसे लाएं? छोटी-मोटी जरूरत इससे पूरी हो जाती है।

वर्मा जी अकेले इस तकलीफ में नहीं हैं। अकेले लखनऊ में कोई सवा तीन लाख निजी कारें बीस साल से पुरानी चिह्नित की जा चुकी हैं। निर्णय हुआ है कि इन कारों का निबंधन स्वत: समाप्त कर दिया जाएगा। यानी इन्हें चलाने की अनुमति रद्द। इन्हें कबाड़ करार दिया जा चुका है किंतु वर्मा जी जैसे बहुत सारे लोगों के लिए ऐसी पुरानी गाड़ियां कबाड़ नहीं, बहुत उपयोगी और सहारा बनी हुई हैं। वे क्या करें?

इन गाड़ियों से प्रदूषण फैलने का तरक बचकाना है। इनसे कहीं अधिक प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियां और दूसरी चीजें धड़ल्ले से चल रही हैं। वास्तव में यह नव उदार व्यवस्था का जबड़ा है जिसमें हर पुरानी चीज स्क्रेपकहकर डाल दी जाएगी ताकि जनता नित नया सामान खरीदती रहे और इस उपभोक्ता-अर्थव्यवस्था को धक्का देती रहे। जनता नई-नई कारें नहीं खरीदएगी तो वाहन उद्योग को गति कैसे मिलेगी? इस निर्मम व्यवस्था को वर्मा जी जैसे बुजुर्गों या गरीबों से कोई वास्ता नहीं रह गया है।

हमने रिटायर होने से पहले नई कार खरीदी थी। एजेंसी मालिक ने पूछा था- सिर, कितने साल तक रखने का इरादा है?’ हमने कहा था- जब तक चल जाए।उन्होंने हंसते हुए बताया था- अब तीन साल में गाड़ी बदल देने का चलन है।हमारी कार सात साल बाद आज भी नई-नवेली-सी चल रही है। वाहन उद्योग को तेजी दिलाने के लिए मुझे अब तक कम से कम दो नई कारें खरीद लेनी चाहिए थी। कार की बात जाने दीजिए, बाइक, टीवी, मिक्सी, घरेलू आवश्यकता के बहुत सारे उपकरण ज़ल्दी-ज़ल्दी बदलने का दबाव तरह-तरह से बाजार बनाता है। एक्सचेंज स्कीमसाल भर चालू इसीलिए रहती है कि आप पुराना खारिज कर नया-नया सामान घर लाते रहें। दो खरीदिए तो एक मुफ्त! जरूरत एक भी नहीं लेकिन लालच में खरीदिए। हम कबाड़ और कचरा पैदा करने वाले नागरिक बना दिए गए हैं। यहां उपयोगिता की कोई बात नहीं करता।

नौकरियां जाने और वेतन कटौती के इस दौर में नई पीढ़ी भी इतना खर्च कर पाने की सामर्थ्य नहीं रखती लेकिन सरकार है कि उद्योगों को इंसेण्टिव पैकेजऔर कर्मचारियों को नकद अग्रिम देकर अधिक से अधिक खरीदारी के लिए उकसा रही है। ऐसे में वर्मा जी जैसों की पीड़ा कौन सुने?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 3 अप्रैल, 2021)