Friday, July 31, 2020

बदली हुई दुनिया में धड़कता जीवन

कोरोना बराबर हमारे बीच बराबर बना हुआ है, बल्कि अपना आतंक फैलाता जा रहा है। एक डर सतत बना हुआ है। अब हुआ कि तब हुआ! क्या खाएं-पीएं कि बचे रहें? कब आ रही वैक्सीन? कौन-सा काढ़ा और विटामिन? ये गिलोय और वह होम्योपैथी दवा। मौत कभी भी एक चीते की तरह बिना आहट दबोच सकती है और यहां कोरोना से बचने के हजार जतन!

क्या ही खूब बात है कि जीवन के राग-रंग और संघर्ष हर भय पर विजय पाते आते हैं। पिछले चार महीने से लगभग घर में कैद कोरोना के डर के सामने जीवन का खेला देख रहे हैं। आर्थिक कारोबार तो झटका खाकर जैसे-तैसे चल पड़ा लेकिन जीवन का कारोबार क्या-क्या नए रंग-रूप लेकर चलता रहा। वह बंद नहीं हुआ, यह देखना आह्लादकारी है।


सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बड़े ठाट-बाट और शान से हरियाली तीज मनी। किसी हॉल में दो-तीन घण्टे दो-चार कार्यक्रम चलते। यहां अनगिन मंचों पर दिन भर और अगले दिन चौथ को भी तीज मनती रही। कौई मनाही तो है नहीं। जब मन हुआ
, ऑनलाइन निमंत्रण भेजा और उत्सव मना लिया। और देखिए, भारतेंदु नाटक अकादमी ने तीन दिन का डिजिटल नाट्योत्सव कर डाला। छोटे-छोटे तीन नाटक तीन दिन तक अपने सोशल मीडिया मंच पर खेले। संगीत अकादमी ने नौटंकी कलाकारों और विशेषज्ञों के साथ परिचर्चा कर डाली, अपने सोशल पेज पर।

लोग कहानियां सुना रहे हैं, कहानियों का रोचक वाचन कर रहे हैं। कविता तो सोशल मीडिया पर सावन-भादौ की तरह बरस रही है। इतने कविता पाठ, इतने कवियों को, इतनी देर तक कभी नहीं सुना जितना पिछले चार महीने में सुन लिया। और, कोई बंदिश नहीं कि उसी समय सुनें जब वे लाइवहों। बाद में पेज पर जाकर सुन सकते हैं। हां, संवाद करना है तो उसी समय उपस्थित रहना होगा।

प्रेमचंद जयंती पर जितने कार्यक्रम इस बार सोशल मीडिया में हुए, उतने शायद ही कभी सार्वजनिक मंचों पर होते हों। 31 जुलाई से एक हफ्ते पहले से प्रेमचंद की कहानियां बच्चों से लेकर बड़ों तक कई-कई संस्थाओं के पेजों पर रोज पढ़ी गई। इन पाठों, चर्चाओं, वेबिनारों में साहित्यकार, आलोचक, अध्यापक से लेकर छोटे बच्चे तक शामिल रहे। वेबिनार शब्द इतना लोकप्रिय हो गया है कि सर्च इंजनों पर कोरोना शीघ्र ही पीछे छूट जाने वाला है। छूटे, बहुत हुआ!

अच्छा लिखने-पढ़ने-समझने वाले बहुत से लोग जो मंचों पर बोलने में शर्माते हैं या जिन्हें कोई बुलाता नहीं। वे डिजिटल मंच पर खूब धड़ल्ले से बोल रहे हैं और अच्छा बोल रहे हैं। किसी एक गीत या गेय कविता पर दस-पंद्रह घरों में इतनी ही महिलाओं का नृत्य एक साथ डिजिटल प्लेटफॉर्म ही दिखा सकता है। बिना प्रयास मंच, सज्जा और पात्र बदलते चले गए! ऐसा एक बहुत सुंदर कार्यक्रम महिला डॉक्टरों ने अपनी-अपनी छतों से पेश किया! संगीत की कक्षाएं चल रही हैं, नृत्य की कार्यशालाएं हो रही हैं, प्रतियोगिताएं हो रही हैं और पुरस्कार बट रहे हैं।   

इस बदली दुनिया के नए चलन के कष्ट कम नहीं. एक मित्र की पोस्ट से पता चला कि एक किसान को अपनी गाय बेचनी पड़ी क्योंकि उसके बेटे को ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्ट फोन चाहिए था. कई घरों में स्मार्ट फोन नहीं हैं, वे क्या करें? कुछ माता-पिता अपना फोन बच्चों के लिए घर छोड़कर जा रहे हैं ताकि वे ऑनलाइन पढ़ या खेल सकें। कोरोना-काल में विश्व बदल गया है लेकिन गरीबों-वंचितों की दुनिया शायद ही बदले। यह हम लॉकडाउन के दौरान कामगारों की पीड़ादायक घर-वापसी में देख ही चुके हैं।

(सिटी तमाशा, 01 अगस्त, 2020)           

Friday, July 24, 2020

महिला अपराध और पुलिस का संवेदनहीन चेहरा


आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जो पुलिस तंत्र को कटघरे में खड़ा करती हैं, दसियों सवाल उठाती हैं और पुलिस सुधारों की सिफारिशों के गड़े मुर्दे उखाड़ा करती हैं. फिर चंद रोज में मामला शांत हो जाता है या दूसरी घटना उसे छेक लेती है. किसी नई वारदात तक हम भूले रहते हैं.

विकास दुबे के प्रसंग ने हमारी पुलिस व्यवस्था को इस तरह निर्वस्त्र किया है कि शरम-लाज ढकने में अभी कुछ दिन लग जाएंगे. इस बीच गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या हो गई. जिन हालात में यह हत्या हुई है, वह अपराधियों से अधिक पुलिस को गुनहगार ठहराती है. शासन ने कुछ पुलिस कर्मियों को लाइन हाजिर करने और दिवंगत पत्रकार के परिवार को अनुग्रह राशि देने में देर नहीं लगाई. एक जांच भी बैठा दी गई है जो देखेगी कि पुलिस ने रिपोर्ट पर तुरंता कार्रवाई क्यों नहीं की.

विकास दुबे बड़ा अपराधी था. उसके सिर पर कई नेताओं का हाथ था. इसी कारण पुलिस वालों का भी उससे याराना था. सुप्रीम कोर्ट को बड़ा आश्चर्य है कि 64 संगीन आपराधिक मामले दर्ज होने के बावजूद वह आजाद कैसे घूम रहा था. किस-किस बात आश्चर्य किया जाए! सारे मामले तो सुप्रीम कोर्ट के सामने जाते नहीं. गाजियाबाद के हमलावर विकास दुबे से बहुत छोटे थे लेकिन आपराधिक मामले उनके विरुद्ध भी हैं ही.

गुंडे बिक्रम की तलाश में घूम रहे थे. वह पुलिस से गुहार लगा रहा था. रिपोर्ट लिखवा चुका था. विक्रम के परिवार को जीवन भर यह मलाल रह जाएगा कि पुलिस ने गुण्डों को पकड़ा होता तो वह जीवित होता. जिन मासूम बच्चियों ने अपने सामने पिता की हत्या होते देखी, उनके मानसिक आघात और दु:स्वप्नों की कल्पना भी की जा सकती है क्या?  

यह छोटा-मोटा झगड़ा न था. बिक्रम की भांजी को अपराधी लगातार परेशान कर रहे थे. महिलाओं की सुरक्षा पर भी पुलिस कितनी लापरवाह है, यह पहले भी कई मामलों में साबित हो चुका है. राज्य सरकार से लेकर पुलिस मुखिया तक महिलाओं से छेड़छाड़ पर 'जीरो टॉलरेंस' की बात करते हैं, लेकिन थानों में कोई सजगता या चिंता इस बारे में नहीं है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो हाल के वर्षों में अपराध के आंकड़े जारी करने में हीला-ह्वाली कर रहा है. दो साल के बाद 2019 में 2017 के अपराध आंकड़े जारी किए गए. इसके अनुसार महिला अपराधों के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर था. उसके बाद के आंकड़े जारी नहीं हुए हैं. पुलिस का रवैया कतई नहीं सुधरा है, यह साबित करने के लिए आंकड़े चाहिए क्या?

अनुग्रह राशि देना और जांच बैठा देना आसान काम है. विरोधी दल भी आजकल पीड़ित परिवार को अनुग्रह राशि देने की मांग करके बैठ जाते हैं. इससे तात्कालिक आक्रोश कम हो जाता है. यह कौन देखेगा कि पुलिस महिला अपराधों पर भी इतनी लापरवाह क्यों है. पुलिस तंत्र में अधिकारियों से लेकर सिपाही तक को महिला मुद्दो के प्रति संवेदनशील बनाने की बातें कई बार हुई हैं लेकिन उस पर या तो अमल नहीं होता या बजट खर्च करने के लिए हवाई सेमिनार और कार्यशाला करा दी जाती हैं.

जब कोई युवती छेड़खानी की शिकायत लेकर थाने जाती है या पुलिस को ऐसी रिपोर्ट मिलती है तो उसे समझना होगा कि वह किस मानसिक यंत्रणा से गुजर रही है. उसका समूचा व्यक्तित्व हिल जाता है. पुलिस की तरफ से उसे यह आश्वासन मिलना ही चाहिए कि उसके साथ दोबारा वह सब नहीं होने दिया जाएगा. यहां तो पुलिस सिपाही ही नहीं, थानेदार और सीओ तक ऐसी शिकायतों पर हंस देते हैं. यही हंसी अपराध कराती और अपराधी का मनोबल बढ़ाती है.
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 जुलाई, 2020) 
      


Friday, July 17, 2020

नम्बरों की बारिश और हिमांशु की दिग्विजय


बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आ गए हैं. 90-95 प्रतिशत अंक पाने की चर्चा अब पुरानी हो चुकी. सौ में सौ नम्बर पा रहे हैं बच्चे. लखनऊ की दिव्यांशी जैन ने इण्टर में अपने छहों विषयों में सौ में सौ नम्बर पाए. कुल छह सौ में पूरे छह सौ नम्बर. वाह! कोई भी कहेगा और सुखद आश्चर्य से भर उठेगा. एकाधिक विषयों में सौ में सौ पाने वाले तो बहुत से बच्चे हैं. परीक्षा में अच्छे अंक पाना यदि प्रतिभा सम्पन्न होने की निशानी है तो कहना होगा कि पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों का मस्तिष्क विकसित हो रहा है और उसी अनुपात में उनकी प्रतिभा भी निखर रही है. क्या आने वाले वर्षों में सौ में से सौ से अधिक अंक पाना मुमकिन होगा?

अंकों की इसी बारिश का परिणाम है कि 90-95 प्रतिशत अंक पाने वाले बच्चे उदास हैं. वे अपने परिणाम से संतुष्ट नहीं है. स्वाभाविक है. अगर सौ में सौ मिल रहे हैं तो 99 अंक भी असंतुष्टि का कारण बनेंगे. मेरा एक नम्बर भी कैसे कटा! अब अगर 95 नम्बर पाने वाले उदास बैठे हैं तो क्या गलत!

खैर, यहां हम अंकों की इस अजूबी होड़ पर अधिक चर्चा नहीं करने जा रहे. नम्बरों का कीर्तिमान बनाने वाले बच्चों के बारे में पढ़ते हुए हमारी दृष्टि जिस समाचार पर देर तक टिकी रह गई, यहां उसकी चर्चा करते हुए हमारा हृदय गदगद है. सौ प्रतिशत नम्बर पाने वाली दिव्यांशी को अवश्य सराहिए लेकिन सीबीएसई की दसवीं की परीक्षा में पास होने वाले हिमांशु गुप्ता नाम के बालक को इस कोरोना काल में भी गले अवश्य लगा लेना चाहिए. यहां नम्बर का नहीं उस साहस का कमाल है जो बिरले ही बच्चों में होता है.

जन्म से ही हिमांशु के कुहनी के नीचे दोनों हाथ नहीं हैं. समाचार बताता है कि लखनऊ के एक ऑटो चालक कमलेश गुप्ता और गृहिणी सोनी गुप्ता के ऐसे बच्चे को किसी स्कूल ने भर्ती ही नहीं किया. जिसके दोनों हाथ ही नहीं वह लिखे कैसे? लेकिन हिमांशु ने पढ़ने-लिखने की अद्भुत संकल्प-शक्ति विकसित की. राजाजीपुरम के सेंट अंजनी पब्लिक स्कूल वालों ने जब देखा कि हिमांशु अपनी कुहनियों से कलम पकड़ कर आराम से लिख लेता है तो उसे उसकी क्षमतानुसार चौथी कक्षा में भर्ती कर लिया. उसके शिक्षक ही नहीं, सहपाठी भी यह देखकर चमत्कृत होते रहे कि कुहनियों से वह इतने सुंदर अक्षर लिखता है जितना पूरे हाथ वाले कोशिश करके भी नहीं लिख सकते.

खैर, गदगद होने वाली बात यह है कि इस वर्ष दसवीं की बोर्ड परीक्षा में उसे नियमानुसार एक लेखकदिया गया. हिमांशु ने विनम्रता से लेखक लेने से मना कर दिया. उसने सीबीएसई की दसवी की पूरी परीक्षा स्वयं लिखी- अपनी कुहनियों से कलम पकड़कर. 52 प्रतिशत अंक पाकर वह पास हो गया है. उसका घर खुशियों के आंसुओं से नहा गया. उसका स्कूल और अध्यापक भी अत्यंत प्रसन्न हैं. यह खबर पढ़कर हम भी हिमांशु पर न्योछावर है. माफ करना दिव्यांशी, मुझे तुम्हारे सौ फीसदी अंकों से कहीं बड़ी उपलब्धि हिमांशु की लगती है. उसके 52 प्रतिशत नम्बर वास्तव में शताधिक हैं. उन अंकों में उसका जीवट है, उसकी अदम्य संकल्प शक्ति है. उसने जग जीता है.

हर साल विभिन्न परीक्षाओं में ऐसे बहुत से बच्चे बैठते हैं जिनके साथ विभिन्न कारणों से प्रकृति या स्वास्थ्य न्याय नहीं कर पाता. कहीं से अधूरे रह गए वे बच्चे अपनी इच्छा शक्ति से इतने पूर्ण बन जाते हैं कि पूर्णता दिव्यांग लगने लगती है. इन बच्चों के नम्बर और तस्वीरें मीडिया में नहीं दिखते या कम दिखते हैं.
आइए, उन सबको सलाम भेजें.
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 जुलाई, 2020)

Friday, July 10, 2020

कारागार अधिनियम, जेल और सजा



उत्तर प्रदेश सरकार ने जेल में प्रतिबंधित वस्तुओं के उपयोग पर निर्धारित सजा बढ़ा दी है. उदाहरण के लिए, मोबाइल फोन जेल में प्रतिबंधित है. पहले उसके उपयोग पर छह महीने की सजा और दो सौ रुपए दण्ड का प्रावधान था. अब इसे बढ़ाकर तीन साल की सजा और 25 हजार रु दण्ड कर दिया गया है. अच्छी बात है. जेल में प्रतिबंधित चीजों का इस्तेमाल क्यों हो? प्रतिबंध इसलिए थोड़ी लगाया गया है कि उनका खुलेआम उपयोग हो!

वैसे, यह सूचना फिलहाल उपलब्ध नहीं है कि पिछले साल या पहले के सालों में जेल में मोबाइल का उपयोग करने के कितने मामले पकड़े गए और कितना जुर्माना वसूला गया. इसके लिए सूचना के अधिकार के अंतर्गत आवेदन करना पड़ेगा. यदि सूचना गोपनीयता कानून के तहत नहीं आई तो महीने-छह महीने में जानकारी मिल जानी चाहिए. तब तक हम इसके दूसरे पहलू पर चर्चा करते हैं.

यह तो सभी जानते हैं कि जेल में मोबाइल क्या, प्रत्येक प्रतिबंधित वस्तु का खूब इस्तेमाल होता है. चलाने वाले जेल से गिरोह चलाते हैं, धमकी देकर रंगदारी वसूलते हैं, चोरी-डकैती और हत्या की सुपारी तक लेते-देते हैं. आए दिन अपराध की खबरों में हम पढ़ते हैं कि फलाने अपराधी ने जेल से अपने दुश्मन पर हमला करवाया. फलाने ने ठेके के लिए इंजिनियर को धमकाया, आदि-आदि. हम समझते हैं कि यह सब मोबाइल के इस्तेमाल से ही होता होगा. अक्सर जेल में छापे पड़ते हैं और दर्जनों मोबाइल फोन पकड़े जाते हैं. वे फिर पैदा हो जाते हैं.

जेल में शराब, चरस से लेकर हर नशीली वस्तु पहुंच जाती है. पहुंचने को कट्टा और चाकू भी जाते हैं क्योंकि जेल की तंग कोठरियों के भीतर भी दादागीरी चलती है. एक से अधिक दादा हो गए तो तय करना पड़ता है कि दादा कौन रहेगा. नवागंतुक को भी अपना शागिर्द बनाना होता है. जेल की दुनिया में वह सब खुल्लमखुल्ला चलता है जो बाहर की दुनिया में चोरी-छुपे होता है.

अपराध की दुनिया का सिद्ध मंत्र है कि कुछ बड़ा करना है तो पहले खुद अंदर हो जाओ. अंदर से काम बखूबी अंजाम दिया जा सकता है और बेदाग भी रहा जाता है. पहले हम अंदरको जेल ही समझते थे. बाद में समझ आई कि अंदरवास्तव में जेल होने के बावजूद जेल नहीं होता. इसमें अपराधी स्वयं अंदरजाना तय करता है. जब चीजें खुद तय की जाती हैं तो अर्थ बदल जाते हैं. खैर, अंदर इसलिए जाते हैं कि वहां सारे प्रबंध अंदर हो जाते हैं.

नई व्यवस्था में यह भी है कि यदि जेल से मोबाइल का इस्तेमाल करके अपराध किया गया तो तीन साल की सजा और पचास हजार रु का जुर्माना अलग से लगेगा. पता नहीं पुलिस अधिनियम में अपराधियों से मिली भगत और मुखबिरी की सजा निर्धारित है या नहीं, लेकिन कारागार अधिनियम में यह पुख्ता व्यवस्था है कि यदि कोई जेलकर्मी कैदियों को प्रतिबंधित चीजें उपलब्ध कराता पकड़ा गया तो सजा मिलेगी और बराबर मिलेगी. बस, वह पकड़ में आना चाहिए.
कानून की लाज इसी में होती है कि यदा-कदा लोग पकड़े भी जाएं. जैसे, कभी-कभार भ्रष्टाचारी पकड़ लिए जाते हैं, वैसे ही जेल कर्मचारी भी पकड़े जाते हैं. 

नब्बे के दशक में हमारे एक पत्रकार मित्र ने लखनऊ आदर्श जेल में जाकर एक शातिर अपराधी से पिस्तौल खरीदने का स्टिंगकिया था. बाद में एक जेल अधिकारी ने हंसते हुए कहा था कि इसमें स्टिंग करने जैसी क्या बात थी!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 जुलाई, 2020)
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Wednesday, July 08, 2020

राजनीति का ही चेहरा है विकास दुबे



सन 1989 का प्रसंग है. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. एक सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच पर उनके साथ प्रदेश के एक आपराधिक चरित्रके सरगना भी बैठे थे, जो उन दिनों अपनी नई राजनैतिक पारी शुरू करने की भूमिका तैयार कर रहे थे. उसके साथ मुख्यमंत्री का मंच साझा करना तब खबरथी. लगभग सभी समाचार पत्रों में वह तस्वीर प्रकाशित हुई, कुछ में पहले पृष्ठ पर. अगले दिन मुलायम सिंह से इस पर सवाल भी किए गए. पहले नाराजगी जताने के बाद उनका बहुत भोला-सा उत्तर था- उनके खिलाफ कुछ मुकदमे ही तो हैं. एफआईआर होने से कोई अपराधी हो जाता है क्या? मुकदमे तो मेरे भी खिलाफ हैं.

यह 31 वर्ष पुरानी बात है. तब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक-दो माफियाप्रदेश की राजनीति में सम्मानजनक स्थान हासिल कर चुके थे. कई अन्य सरगना अपने लिए भी राजनीतिक राह तलाश रहे थे.  तब तक यह आम रास्ता नहीं बना था. राजनीति की पृष्ठभूमि में अपराधियों की खूब उपयोगिता थी. हर नेता के अपने क्षेत्र में खास व्यक्तिहोते थे जो उनके लिए मतदाताओं को डराने-धमकाने, बूथ लूटने, बैलेट छापने से लेकर विरोधियों को ठिकाने लगाने में काम आते थे. नेता उन्हें संरक्षण देते थे और लाइसेंस-परमिट-ठेके से उपकृत करते थे.

मुलायम सिंह यादव का उपर्युक्त उत्तर तब नेपथ्य में सक्रिय अपराधियों के राजनैतिक मंच पर आने का रास्ता बना रहा था. आज राजनैतिक नेताओं और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के बीच कोई पर्दा या अन्तर नहीं है. कई वर्ष हो गए, प्रादेशिक सरकारों से लेकर केन्द्रीय सरकारों तक वे सम्मानित पदों पर विराजमान होते आए हैं.

कभी नेताओं के खास आदमी रहे हों या आज स्वयं नेता पद को सुशोभित करने लगे हों, अपराधियों के इस सत्तारोहण में पुलिस की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. उनके विरुद्ध संगीन आपराधिक मुकदमों को हलकी धाराओं में दर्ज करना या जांच में उन्हें बचा ले जाना या गवाहों को तोड़ना या जिस भी तरीके से चरित्र का दाग उज्ज्वल बन सके, वह सब पुलिस करती आई है. कभी आपराधिक चरित्र के या माफिया कहे जाने वाले अनेक नेता आज अदालतों से बाइज्जत बरी हैं. पुलिस के सहयोग के बिना यह सम्भव नहीं था. जिस किसी पुलिस अधिकारी ने सहयोग नहीं किया, उसका क्या हस्र हुआ, इसकी कई नजीरें चर्चित रही हैं.

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर के एक उपनगर इलाके में कुख्यात अपराधी विकास दुबे ने जो सनसनीखेज जघन्य कारनामा किया, जिसमें आठ पुलिस वालों की जान गई, उसे नेता-पुलिस-अपराधी गठजोड़ की इसी पृष्ठभूमि में देखा-समझा जाना चाहिए. इस गठजोड़ या अन्तर्सबंध को समझने में एक और प्रसंग सहायक होगा.

सन 2002 के अंतिम या 2003 के शुरुआती महीनों की बात है. बिहार-झारखण्ड के एक बड़े अखबार के छायाकार का बिहार के उसके गांव से अपहरण हो गया था. पटना के आक्रोशित पत्रकारों का बड़ा जुलूस एक, अणे मार्गपहुंचा. लालू प्रसाद यादव ने, हालांकि मुख्यमंत्री पद पर राबड़ी जी बैठती थीं, बड़े धैर्य से पत्रकारों का आक्रोश सुना और तत्काल वहीं से कुछ थानेदारों को फोन मिलवाया. उन्होंने थानेदारों से  सीधे स्वयं बात की और उनके नाम लेकर. रेखांकित यह करना है कि लालू जी ने न गृह सचिव को फोन मिलवाया, न पुलिस महानिदेशक को, जबकि किसी भी मुख्यमंत्री या मंत्री के लिए यही उपयुक्त रास्ता होना चाहिए था. संयोग से यहां दिए गए दोनों उदाहरण भारतीय मध्य जातियों के दो ताकतवर नेताओं के हैं लेकिन ऐसा नहीं कि बाकी नेता इससे अछूते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि किसी ने खुले आम यह किया तो दूसरे बड़ा आदर्शवादी मुखौटा लगाए हुए पर्दे के पीछे से यही सब करते रहे.

कुख्यात अपराधी विकास दुबे के इस कदर दुस्साहसी हो जाने के पीछे नेता-पुलिस-अपराधी अंतर्सबंधों का यही जाल है. जैसे-जैसे लोकतंत्र के बाने में जाति-आधारित वोट की राजनीति हावी होती गई, वैसे-वैसे इस गठजोड को जातीय समीकरण और मजबूत बनाते गए. कुछ अपराधी मध्य और दलित जातियों के गौरव-पुरुष बनते गए तो कुछ को उच्च जातियों के नेताओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए पाला-पोषा. आज इस बात पर क्या आश्चर्य करना कि करीब तीन दशक से अपराध की दुनिया में सनसनी मचाने वाला विकास दुबे, जिसने उन्नीस वर्ष पहले पुलिस थाने में घुसकर राज्यमंत्री स्तर के एक भाजपा नेता को भी गोलियों से भून दिया था, आजाद घूमता रहा, बेहिसाब सम्पत्ति जुटाता रहा, अपना गिरोह बढ़ाता और अपनी राजनैतिक महत्त्वाक्षाएं पूरी करता रहा.

राजनीति के आपराधीकरण का यह विद्रूप चेहरा भी किसी से छुपा नहीं है कि सत्ता में पार्टी बदलने के साथ-साथ आपराधिक चरित्र के नेता और सम्बद्ध अपराधी पाला बदलते रहते हैं. यह उनके राजनैतिक और आपराधिक साम्राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक होता है तो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वे जमीनी ताकत साबित होते हैं. बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जब किसी सत्तारूढ पार्टी ने दूसरे दलों से आए आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं को अंगीकार करने से इनकार किया हो. विकास दुबे ने भी अपने आकाओं के साथ पार्टियां बदलीं. इस तरह वह आजाद, सुरक्षित और ताकतवर बना रहा. अंदरखाने खबर है कि वह एक बार फिर सत्तारूढ़ पार्टी के पाले में आना चाहता था लेकिन कुछ नेताओं के कारण इसमें अड़चन आ रही थी. उसे पकड़ने का अभियान और मुखबिरी इसी टकराहट का परिणाम थे.    

विकास दुबे के प्रकरण में एक बात अवश्य चौंकाती है. उसे पकड़ने के लिए पुलिस टीम आ रही है, यह मुखबिरी उसके पुलिस दोस्तों ने कर दी थी. आम तौर पर सूचना पाकर अपराधी ठिकाना बदल लेते हैं. वे पुलिस से सीधी भिड़ंत से बचते हैं. इसीलिए अक्सर पुलिस टीम अपना-सा मुंह लेकर लौट आती है. विकास दुबे ने भागने की बजाय पुलिस से मुकाबला करने की ठानी और उसकी अच्छी तैयारी भी कर ली. अपना गिरोह एकत्र किया और पुलिस के लिए जाल बिछाया. ऐसा पहले चम्बल के बीहड़ों के डाकू-गिरोह करते थे. यह एक दुर्दांत अपराधी के दुस्साहस की पराकष्ठा ही कही जाएगी. इसका कारण उसका अपनी उस ताकत पर भरोसा रहा होगा जिसे उसने राजनैतिक रसूख के बल पर हासिल किया है. राजनीति एवं पुलिस में लम्बे समय से उसकी ऐसी धाक रही कि एक बड़ी सशस्त्र पुलिस टीम का आना उसे कोई डर की बात नहीं लगी.

विकास दुबे की ऊंची आपराधिक उड़ान इस भयावह काण्ड के बाद शायद खत्म हो जाएगी. इस वारदात ने राजनीति-पुलिस-अपराधी नापाक दोस्ती के राज एक बार फिर सबके सामने खोल दिए हैं. फिर भी नहीं कहा जा सकता कि यह सिलसिला थमेगा. राजनीति इसी पर टिकी है.  
(प्रभात खबर, 09 जुलाई, 2020)      

                              

Thursday, July 02, 2020

‘इंग्लिश हार्टलैण्ड’ में हिंदी के लिए क्या रोना!


आज का स्तम्भ कोरोना के बारे में नहीं है. यह हिंदी के बारे में है. हिंदी जो हमारी मातृ-भाषा है. मातृ-भाषा माने जो हम मां के दूध के साथ सीखना शुरू करते हैं, जो हमारे घर-परिवार और आस-पास बोली जाती है. वह भाषा जिसका व्याकरण भले हम बाद में पढ़ें, उसे बोलने-लिखने के लिए किसी पाठ की आवश्यकता नहीं होती. कम से कम ऐसा माना जाता रहा है.
उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद (यू पी बोर्ड) की 10वीं और 12वीं परीक्षा के नतीजे चंद दिन पहले आए हैं. उनके बारे में सबसे चर्चित समाचार यह है कि दोनों कक्षाओं में कुल मिलाकर सात लाख 97 हजार विद्यार्थी हिंदी में फेल हो गए. हाईस्कूल में 5.28 लाख और इण्टर में 2-70 लाख परीक्षार्थी हिंदी में पास होने लायक नम्बर नहीं पा सके. इसके अलावा दो लाख 39 हजार परीक्षार्थी हिंदी की परीक्षा देने ही नहीं गए.
वैसे इसमें चौंकने जैसी कोई बात नहीं है. यह सिलसिला पिछले कई सालों से चला आ रहा है. अपने प्रदेश में जिसे हिंदी हृदय प्रदेशकहा जाता है. दसवीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में 2018 में 11 लाख और 2019 में 10 लाख बच्चे फेल हुए थे. आप खुश होनी चाहें तो हो सकते है कि इस बार फेल होने वालों की संख्या पिछले दो सालों में फेल होने वालों से कम है और घट रही है.
हिंदी के हाल पर स्यापा करने का अब कोई अर्थ रहा नहीं, हालांकि हम हिंदी वाले रोने को हमेशा तैयार बैठे रहते हैं. इस बात पर क्यों सिर पीटा जाए कि हाईस्कूल के हिंदी विद्यार्थी आत्मविश्वासनहीं जानते. खुश होना चाहिए कि वे कांफीडेंसजानते हैं, भले ही अभी उसकी सही स्पेलिंग नहीं लिख पाते. सही स्पेलिंग का जमाना भी अब कहां रहा. अंग्रेजी के विद्वान भी पूराकांफीडेंसनहीं लिखते. ‘कांफीसे काम चल रहा है तो नए बच्चों से क्यों आशा की जाए कि वे पूरी और सही स्पेलिंग लिखें. आप यह प्रगति देखें और प्रसन्न हों कि आत्मविश्वासजा रहा है, ‘कांफीआ रहा है. फिलहाल आत्मनिर्भरकी बात मत कीजिए. उसकी शुरुआत ही हुई है.
हाईस्कूल-इण्टर बड़े दर्जे हैं. प्राइमरी-मिडिल के बच्चे हिंदी ठीक से पढ़-लिख नहीं पा रहे. असरकी सालाना रिपोर्ट इसकी गवाह हैं. प्राइवेट कॉन्वेण्ट” स्कूलों ने तो गर्भ से ही इंग्लिशपढ़ाना शुरू कर दिया था. अब सरकारी प्राथमिक विद्यालय भी इंग्लिश मीडियमबना दिए गए हैं. सरकार ही इंग्लिशपर जोर दे रही है, आप अकारण हिंदी में फेल छात्रों का कांफीडेंसबिगाड़ रहे हैं.
बच्चा तुतलाना बाद में सीखता है, ‘वॉटर’, ‘शूज’, ‘मिल्क’, ‘मम्मा’, ‘पापा’, आदि-आदि उसके भोले दिमाग में दिन-रात ठूंसना शुरू कर दिया जाता है. नो-नोसुनकर घर का पालतू कुत्ता और बच्चा दोनों एक साथ सहम जाते हैं. किसी को यह भरोसा नहीं रह गया कि ठीक से हिंदी जानने वाला बच्चा दूसरी भाषाएं भी आसानी से सीख सकता है. डर यह है कि बच्चों को अंग्रेजी नहीं आई तो वह सिर नहीं उठा पाएगा, ‘लल्लूबना रहेगा. अंग्रेजी प्रगति की भाषा है, गलत ही सही, वह आनी चाहिए.
भाषा ही नहीं मर रही, पूरा हिंदी-पर्यावरण लुप्त हो रहा है. खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, बोली-बानी, चाल-ढाल, गीत-संगीत, सब इंग्लिश हुआ जा रहा है. वही हमारी शान बन गई है. हिंदी हमारा गर्व है ही नहीं. मातृ भाषा हम उसे कब तक कहते रहेंगे
हिंदी हृदय प्रदेशको अब इमरजिंग इंग्लिश हार्टलैण्डकहा जाना चाहिए. हिंदी को लेकर फिर कोई कुंठा नहीं होगी.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 जुलाई, 2020)