Saturday, February 27, 2021

मानसिक मंदित बच्चों के स्नेही अभिभावक सुरेश पंत नहीं रहे

 

गुरुवार, 25 फरवरी, 2021 को सुरेश चंद्र पंत के निधन के साथ मानसिक मंदित बच्चों को सम्मानजनक और आत्मनिर्भर जीवन जीने की राह दिखाने वाला एक समर्पित इनसान इस दुनिया से उठ गया। 91 वर्षीय श्री पंत पिछले कुछ समय से अस्वस्थता के कारण मुम्बई में अपने बड़े बेटे के पास रह रहे थे। देह दान के उनके संकल्प के अनुसार उनकी पार्थिव देह मुम्बई के एक अस्पताल को दे दी गई। कुछ वर्ष पहले उनके छोटे बेटे मुकेश का निधन हुआ तो उसकी देह भी लखनऊ मेडिकल कॉलेज को दान दी गई थी।

 मुकेश मानसिक मंदित बालक था। पंत दम्पति उसे बेहतर जीवन जीने लायक और यथासम्भव आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। वे देखते थे कि ऐसे बच्चों के माता-पिता अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं और हताशा में अपने बच्चों को मार-पीट व डांट-डपट से ठीक करना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने ऐसे बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए प्रशिक्षण केंद्र या स्कूल खोलने का सपना देखा। कुछ अन्य मानसिक मंदित बच्चों के अभिभावकों के साथ मिलकर एसोसिएशन का गठन किया जिसका नाम है- यू पी पेरेण्ट्स एसोसिएशन फॉर द वेलफेयर ऑफ मेण्टली हैण्डीकैप्ड सिटीजेंस

 1989 में नाबार्ड के मुख्य महाप्रबंधक पद से रिटायर होने के बाद सुरेश पंत जी ने अपनी जीवन संगिनी मोहिनी पंत के साथ लगकर 'आशा ज्योति' स्कूल शुरू किया। शुरू में सिर्फ चार बच्चे थे। इस दम्पति की लगन और समर्पण से वह शीघ्र ही मानसिक मंदित बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए एक नई रोशनी बनने लगा।

 आशा ज्योतिमें  न केवल मानसिक मंदित बच्चों को आत्म निर्भर बनाने बेहतर जीवन जीने का प्रशिक्षण दिया जाता है, बल्कि उनके अभिभावकों को प्रशिक्षित करने में और भी अधिक ध्यान दिया गया। मुख्य बात यह है कि अधिकतर अभिभावक समझ ही नहीं पाते कि ऐसे बच्चों से कैसा व्यवहार करें, उन्हें कैसे पालें। हैरान-परेशान और अपनी किस्मत को कोसते अभिभावक ऐसे बच्चों का ही नहीं अपना जीवन भी नारकीय बना लेते हैं। पंत जी ने मानसिक मंदित बच्चों के लालन-पालन शिक्षण के लिए डॉक्टरों, मनोचिकित्सकों और विशेषज्ञों की सलाह से मानवीय और वैज्ञानिक तरीका अपनाया। इस तरह ये अपना काम स्वयं करने लगे, समझदार बने और परिवार में मिल-जुल कर शांति से रहने लगे। इस पहल ने मानसिक मंदित बच्चों और अभिभावकों को नई राह मिली। उनका जीवन सहज होना शुरू हुआ।

 बच्चे बढ़े तो पंत दम्पति ने स्कूल के लिए किराए का एक मकान लिया लेकिन पड़ोसियों ने 'पागलों का स्कूल' खोलने पर आपत्ति करनी शुरू कर दी। दुखी होकर पंत जी ने अलीगंज, लखनऊ का अपना मकान बेच दिया और आवास-विकास परिषद से इंदिरा नगर में एक भूखण्ड खरीद लिया। उसमें कुछ कमरे बनवाए। इस तरह 'आशा ज्योति' इंदिरा नगर, सेक्टर-सी में शुरू हुआ और क्रमश: बढ़ता गया। सन 2006 में दिल के दौरे से मोहिनी पंत का निधन हो गया। अभिभावकों की एसोसिएशन के कुछ संवेदनशील सदस्यों के साथ पंत जी 'आशा ज्योति' को चलाते-बढ़ाते रहे। चंदा और दान के लिए दौड़ते रहे। धीरे-धीरे मानसिक मंदित बच्चों को छोटे-छोटे व्यावसायिक कामों और खेलों का प्रशिक्षण देना भी शुरू किया गया। उम्र से बड़े लेकिन मानसिक रूप से नन्हे बच्चे अंतर्राष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में हिस्स्सा लेने लगे। वहां से पदक जीतकर लाते तो उनकी खुशी देखते बनती। दीपावली और अन्य पर्व-त्योहारों पर उनकी बनाई अनगढ़ मोमबत्तियां, दीये, खिलौने, आदि बिकते तो उनका मेहनताना बच्चों में बांटा जाता। अपनी कमाई के चंद रुपए बंद मुट्टठी में घर ले जाते बच्चों का आत्मविश्वास देखकर जी जुड़ा जाता।

पंत जी में अपार धैर्य था। वे कभी विचलित नहीं हुए। आशा ज्योतिकी राह में आई कई अड़चनों, बच्चों एवं अभिभावकों की विविध परेशानियों और धीरे-धीरे बढ़ गए स्टाफ और प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों को वे अत्यंत शांति, समझ और संयम से निपटाते रहे। आशा ज्योतिकी ख्याति और सफलता के पीछे उनका यही समर्पण है। पंत दम्पति आज दुनिया में नहीं हैं लेकिन 'आशा ज्योति' बहुत सारे परिवारों और जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए बच्चों के लिए सचमुच आशा का बड़ा केंद्र बना खड़ा है।

 'आशा ज्योति' की ज्योति जलती और राह दिखाती रहे, यह ज़िम्मेदारी अब असोसिएशन की है।

 

Friday, February 26, 2021

ठगी आज का सबसे बड़ा रोजगार है

शायद ही कोई दिन जाता हो जब नौकरी दिलाने के नाम पर लोगों को ठगने की खबरें न मिलती हों। रोजाना पढ़ने को मिलता है कि केंद्र सरकार की नौकरी दिलाने के नाम पर किसी युवक से दस लाख रु ठग लिए। किसी युवती को सचिवालय में नौकरी दिलाने का झांसा देकर बारह लाख रु ठग लिए। चार युवकों को रेलवे की नौकरी दिलाने का लालच देकर दस-दस लाख रु ठग लिए। कोई पुलिस सिपाही बनने के लिए तो कोई सीधे दरोगा बनने के लिए आसानी से ठग लिया जाता है।

ठगों के पास तरह-तरह के लुभावने प्रस्ताव होते हैं। कोई अपने को किसी मंत्री का रिश्तेदार बताता है। कोई मुख्य सचिव के हस्ताक्षर से नियुक्ति पत्र दिखाता है। कोई सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेता से सीधे फोन पर बात करके रुतबा झाड़ता है। कोई स्वयं ही आईएएस अधिकारी बनकर होटल के कमरे में इण्टरव्यू करता है। अभी हाल में ठगों ने चार युवकों को झारखण्ड ले जाकर एक महीने की ट्रेनिंग भी करा दी। नियुक्ति पत्र देकर कोई सचिवालय में तो कोई दूर जिलों में जॉइनिंग के लिए भेज दिया जाता है।

कुछ बातें बहुत साफ उभरती हैं। पहली यह कि बेरोजगारी रेगिस्तान की तरह फैलती जा रही है। हर तरफ बेरोजगारों की भीड़ है और वे एक अदद नौकरी के लिए मारे-मारे घूम रहे हैं। इसलिए वे बहुत आसान शिकार हैं। नौकरी पाने की लालसा इतनी तीव्र है कि पढ़े-लिखे या डिग्री धारी होने के बावजूद वे झांसे में आ जाते हैं। कई बार यह जानकर भी कि ठगे जाने की आशंका बहुत अधिक है, वे नौकरी पाने की क्षीण आशा में भरोसा कर जाते हैं। दूसरी बात यह कि सरकारी नौकरी का बहुत बड़ा आकर्षण है। बेरोजगार व्यक्ति कर्जा लेकर, खेत या गहने बेचकर या किसी भी तरीके से जुगाड़ करके दस-बीस लाख रुपए ठगके हाथ में रख देते हैं क्योंकि सरकारी नौकरी का वादा होता है। रेलवे जैसी केंद्रीय सरकार की नौकरी का लालच सबसे अधिक दिया जाता है। ठगे गए कई लोग निजी क्षेत्र में नौकरी कर रहे थे लेकिन सरकारी नौकरी के लिए लगातार प्रयास में लगे थे।  

तीसरा तथ्य यह है कि हर बेरोजगार नौकरी पाने के लिए किसी तगड़ी सिफारिश, किसी विश्वस्त दलाल और घूस लेकर नौकरी दिलाने वाले किसी सहीव्यक्ति की तलाश में रहता है। सीधे रास्ते पर किसी का भरोसा नहीं। बिना लाखों रु दिए नौकरी मिलेगी नहीं, यह सब मानते हैं। चौथी बात यह कि ठगने वाले खुद बेरोजगार हैं और उनमें कई स्वयं ठगे जा चुके हैं। नौकरी पाने की उन्होंने इतनी तिकड़में की, इतने रास्तों से गुजरे कि शातिर ठग बनना उनसे सध गया। आए दिन नए ठग पैदा हो रहे हैं। वे ठगी के नए-नए विश्वसनीय तरीके खोज लाते हैं।

ऑनलाइन ठगी खूब फल-फूल रही है। रोजाना लोगों को बेवकूफ बनाकर उनके बैंक खातों से बड़ी रकम उड़ाई जा रही है। जादू की तरह ठगी हो रही है। फोन मंगाइए तो अन्दर से साबुन निकलता है।ईमेल पर लॉटरी निकलने की सूचना मिलना पुरानी बात हो गई। अब हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में नौकरी मिलने की खबर पाकर बड़े-बड़े सूरमा ठग लिए जाते हैं। ठगों से बड़ा मनोविश्लेषक और कौन होगा! 

ठगीआज का सबसे बड़ा रोजगार है। हमारे चारों तरफ ठग हैं। यह बात अपराध जगत के लिए ही नहीं, बाजार, तकनीक और राजनीति के लिए भी बराबर सत्य है। बस, एक फर्क है। राजनीति में ठगे जाने की शिकायत जनता नहीं करती। वह तरह-तरह से ठगे और बरगलाए जाने के बावजूद फिर-छले जाने के लिए खुशी-खुशी प्रस्तुत हो जाती है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 फरवरी, 2021)

   

Friday, February 19, 2021

हमारे पुलिस थाने और महिला शौचालय

1970 के दशक से पुलिस में महिलाओं की भर्ती शुरू हुई थी। 1972 किरन बेदी पहली आईपीएस अधिकारी बनी थीं। एक साल बाद दूसरी आईपीएस अधिकारी कंचन चौधरी भट्टाचार्य कालांतर में उत्तराखण्ड की पहली पुलिस महानिदेशक बनीं। सिपाही से लेकर महानिरीक्षक स्तर की महिला पुलिस अधिकारी यहां आनुपातिक रूप से कम, लेकिन गिनाने को काफी हैं हालांकि उत्तर प्रदेश को अभी पहली महिला पुलिस महानिदेशक बनने की प्रतीक्षा है।

यह पृष्ठभूमि देने का संदर्भ यह है कि सन 2021 में, महिलाओं की पुलिस में भर्ती शुरू होने के कोई पचास साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि राज्य के सभी थानों में महिला शौचालय तत्काल बनवाए जाएं। इलाहाबाद के कुछ विधि छात्रों ने इसके लिए अदालत में जन हित याचिका दायर की थी।

बड़े शहरों के कुछेक थानों को छोड़कर प्रदेश के पुलिस थाने आज भी बदहाल हैं। राजधानी लखनऊ में ही कई थानों में सिपाही बरामदे या पेड़ के नीचे बसेरा करते और खुले में नहाते दिख जाते हैं। दूर-दराज के पुलिस थानों की स्थिति और भी दयनीय है। ऐसे में महिलाओं के लिए पृथक शौचालय बनवाने के बारे में कौन सोचता। अदालती आदेश के बाद अब कुछ हलचल होगी। वैसे, अदालत को आश्वासन देने या थोड़ा बहुत काम करके आदेश की खानापूर्ति कर लिए जाने की परिपाटी यहां अधिक दिखती है।

महिला सिपाही किन स्थितियों में काम करती हैं, इसकी बानगी पिछले साल दो वायरल तस्वीरों में खूब दिखती है। पहली तस्वीर नोएडा की थी, जहां मुख्यमंत्री के दौरे के समय सिपाही  प्रीति रानी अपने नन्हे बेटे में गोद में पकड़े वीआईपी ड्यूटी में तैनात थी। यह तस्वीर खूब वायरल हुई और तब सवाल उठे थे कि थानों में शिशु गृह (क्रेच) क्यों नहीं बनवाए जाते। फिर झांसी के एक थाने की सिपाही अर्चना सिंह की फोटो वायरल हुई जिसमें वह अपनी दुधमुंही बिटिया को मेज पर लिटाकर काम में व्यस्त थी। सोशल मीडिया की अति-सक्रियता के इस दौर में इन महिला सिपाहियों की कर्तव्य परायणता की प्रशंशा हुई और पुलिस प्रशासन की भर्त्सना। अर्चना की फोटो देखकर पुलिस महानिदेशक ने तत्काल उसका तबादला उसके घर के पास करवा दिया और यह भी घोषणा की थी कि वे क्रेच बनवाने की व्यवस्था कराएंगे।

सोशल मीडिया में जितनी तेजी से मुद्दे उठते हैं, उतनी ही शीघ्रता से भुला भी दिए जाते हैं। महिला सिपाहियों की सुविधा के लिए क्रेच बनवाने की बात अब तक पुलिस महकमे के ज़िम्मेदार भूल गए होंगे। अब जनहित याचिका के बहाने थानों में महिला शौचालय न होने का मुद्दा उछला है। गोद में बच्चा लेकर वीआईपी ड्यूटी करती या मेज में बिटिया को सुलाकर काम करती महिला सिपाहियों की फोटो की तरह शौचालय का मुद्दा वायरल नहीं हो सकता। इस मुद्दे में वह अपीलन मुख्य धारा के मीडिया को दिखती है न सोशल मीडिया के अति सक्रिय हरकारों को। तो भी अदालती चाबुक के कारण शायद कुछ पुलिस थानों में महिला शौचालय बन जाएं।     

पुलिस थाने ही क्यों, ऐन लखनऊ में ही कई सरकारी कार्यालयों में महिलाओं के शौचालयों का कोई पुरसा हाल नहीं है। गंदे शौचालयों से महिलाओं को संक्रमण होने शिकायतें आम हैं और डॉक्टर इसकी पुष्टि करते हैं। शौचालय जाने से बचने के लिए दिन भर पानी न पीने वाली कामकाजी महिलाएं अपना दर्द आपस में ही कह पाती हैं। जरा-जरा सी बात पर नारे लगाने वाले कर्मचारी संगठन भी इसे मुद्दा नहीं बनाते। यह समझ और सम्वेदना की बात है।

महिलाओं के लिए साफ-सुथरे, सुविधा युक्त शौचालय कितने आवश्यक हैं, यह वही व्यवस्था समझ सकती है जो अत्यंत संवेदनशील हो। पुलिस विभाग तो वैसे भी सर्वाधिक संवेदनहीन माना जाता है। (सिटी तमाशा, नभाटा, 20 फरवरी, 2021)           

 

   

Saturday, February 13, 2021

स्कूल जाते बच्चों की खुशी और हीनता ग्रंथि

कोरोना काल की लम्बी बंदी के बाद स्कूल खुले हैं। कोई ग्यारह मास बाद कक्षा छह-सात-आठ के बच्चों को स्कूल जाते देखना सुखद था। वे बड़े उत्साह सें जा रहे थे। उनके चेहरे की खुशी मास्क के छुपाए नहीं छुप रही थी। आंखों में चमक थी। स्वाभाविक ही यह उमंग पढ़ाई के लिए नहीं थी। दोस्तों, टीचरों से मिलने और एक सुपरिचित वातावरण में निश्चिंत होकर भाग-दौड़ करने की ललक सबसे अधिक रही होगी। लम्बी कैद के बाद आज़ादी की अनुभूति।

कोरोना का प्रकोप आंकड़ों में कम होता दिखता है लेकिन निश्चिंत होने का समय नहीं है। आशंका बनी हुई है कि संक्रमण कभी भी बढ़ सकता है। केरल समेत कुछ राज्यों में बढ़ा हुआ है। यूं, सारी गतिविधियां लगभग सामान्य रूप से चलने लगी हैं। सिनेमा हॉल भी पूरी क्षमता से चल गए हैं। बाजारों में भीड़ पहले की तरह उमड़ रही है। जनता आवश्यक सावधानियों का पालन नहीं कर रही। प्रशासन ने भी जैसे हाथ-पैर छोड़ दिए हैं। ऐसे में कई अभिभावकों का संकोच या डर गलत नहीं है।

तो भी, बड़ी उमंग से स्कूल जाते बच्चों को देखना आश्वस्तिदायक है। यह स्थितियों के सामान्य होते जाने का भरोसा-सा देता है। हमने एक परिचित अध्यापक से पूछा- इतने लम्बे समय बाद बच्चों से मिलना कैसा लगा?’ उत्तर देते हुए उनकी आंखें जैसे भर आईं- ऑनलाइन क्लास होती थी लेकिन बच्चों को सामने देखने और सुनने की बात ही और होती है। हर बच्चा कुछ न कुछ अजब-गजब बताने को व्याकुल था। कोरोना ने उनके मनोविज्ञान पर असर डाला है।

मनोविज्ञान पर तो लगभग सभी के असर पड़ा है। कोई सिर्फ घर में कैद रहने के कारण मनोरोगी बना तो कोई मृत्यु कै भय से। जिनकी नौकरियां चली गईं, वेतन कटौती हो गई और ज़िंदगी की गाड़ी को किसी तरह खींचते रहने के लिए जो दिन-रात परेशान हैं, उनके मनोविज्ञान को कौन देख रहा है? यह सुनते ही टीचर जी गम्भीर हो गईं। कहने लगीं कि कुछ बच्चे जो ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्ट फोन नहीं जुटा सके या देर से इंतज़ाम कर सकें, स्कूल आने की खुशी के बावजूद उनके भीतर कुण्ठा पहले ही दिन से दिखने लगी है। एक तो पढ़ाई में पिछड़ने का बोध और दूसरे स्मार्ट फोन न होने की हीनता ग्रंथि।

याद आया कि ऑनलाइन पढ़ाई के शोर में कुछ खबरें यह भी बता रही थीं कि निजी स्कूलों के भी चौथाई से अधिक  (एनसीआरटी के सर्वे में 28 फीसदी) बच्चों को स्मार्ट फोन या लैपटॉप की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। कई घरों में सिर्फ एक मोबाइल था जिससे माता-पिता और बच्चे किसी तरह काम चला रहे थे।सरकारी स्कूलों में तो कहीं-कहीं नब्बे फीसदी बच्चे फोन, लैपटॉप, इंटरनेट या बिजली के बिना थे। फोन के लिए घरों में बच्चों ने माता-पिता से झगड़े किए। किशोर वय बच्चों के मानस पर इसका असर पड़ना अत्यंत स्वाभाविक था।

कोरोना ने सिर्फ शारीरिक एवं मानसिक रूप से ही बीमार नहीं बनाया, असमानता और उससे उपजा हीनता बोध भी बढ़ाया। पिछले महीने ही वह रिपोर्ट आई थीं की कोरोना काल में भी देश के अमीरों की सम्पत्ति कई गुणा बढ़ गई। जब बेरोजगार कामगार मीलों पैदल चलकर अपने गांव लौट रहे थे, जब नौकरियां जा रही थीं, जब बहुत सारे घरों में चूल्हे बुझ रहे थे, तब देश के अमीर और अमीर हो रहे थे। उसी दौर में कई बच्चे अपनी गणित या भौतिकी का ऑनलाइन पाठ नहीं पढ़ पा रहे थे क्योंकि वे फोन और नेट कनेक्शन से वंचित हैं।

जिस नव उदारवादी नीतियों पर देश आगे बढ़ रहा है उसमें गरीब-गुरबों के लिए जीवन निरंतर कठिन और मारक होते जाना है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 फरवरी, 2021)             

Friday, February 05, 2021

किसान बहस के केंद्र में हैं लेकिन किस लिए?



सुबह दूध की दुकान पर जबर्दस्त बहस छिड़ी हुई थी। कुछ बूढ़े
, कुछ प्रौढ़ और दो-तीन युवा पॉलीथीन के थैलों में दूध के पैकेट लिए घर जाते-जाते बहस में उलझ गए थे। जैसा कि इन दिनों हर जगह हो रहा है, वे किसानों पर बात कर रहे थे। एक धड़ा आंदोलनकारी किसानों को  सरकार विरोधी, विपक्ष का भड़काया हुआ और देशद्रोही तक बता रहा था। बाकी लोग उन्हें नए कानूनों से उत्पीड़ित देश का अन्नदाता बता रहे थे।

आज़ादी के बाद शायद ही कभी किसान इतनी व्यापक और विविध चर्चा  का कारण बने हों। अकाल, बाढ़, सूखे और दूसरी आपदाओं के दौर में किसानों पर बहुत कम बात होती रही। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डब्यूरो के अनुसार 1995 से अब तक करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह आंकड़ा वास्तविकता में कहीं अधिक है। इतनी बड़ी संख्या में किसानों के जान देने के बावजूद किसान और खेती की समस्याओं से शहरी मध्य-निम्न मध्य वर्ग का कोई वास्ता नहीं है। महंगाई पर वह अपनी जेब पर बोझ के कारण फिक्र करता है लेकिन इस पर माथा पच्ची नहीं करता कि आलू-प्याज-टमाटर के भाव कभी आसमान और कभी सड़क पर क्यों आ जाते हैं। क्यों किसान बड़ी मेहनत से उगाई अपनी फसल कभी खेत में सड़ने को क्यों छोड़ देते हैं या सड़कों पर बहाकर अपना कैसा दुख दिखाते हैं।

पिछले कुछ समय से तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन और दिल्ली की घेराबंदी के बहाने आज हर कोई किसानों के बारे में बात कर रहा है। अब भी बातचीत का केंद्र किसान और किसानी की मूल समस्याएं नहीं हैं। बात उनके समर्थन और विरोध के बहाने सरकार के समर्थन और विरोध की हो रही है। यह दौर ही ऐसा हो गया है कि प्रत्येक मुद्दा सरकार के समर्थन और विरोध पर आकर टिक जाता है। मूल  मुद्दे पर चर्चा ही नहीं होती।

आज बहुत बड़ी आबादी गांवों और खेती से विमुख होकर शहरों में बसी हुई है। उद्योग-धंधों के विकास, रोजगार के दूसरे अवसरों के विस्तार और तीव्र शहरीकरण ने कई पीढ़ियों को खेती-किसानी से दूर कर दिया। ऐसी पीढ़ियां हमारे बीच हैं जिन्हें शाक-सब्जियों और गेहूं-धान की पहचान नहीं रही। यह भी पता नहीं कि बाजार में बिकने वाला चावलकहां से आता है। शायद किसी फैक्ट्री में बनता होगा, हालांकि उनके बाबा-दादा किसान ही थे।

आज़ादी के बाद से ही खेती ऐसा निकृष्टधंधा बना दी गई कि किसान के बेटे जमीन बेचकर नौकरी ढूंढने शहरों का रुख करते रहे। आर्थिक उदारीकरण के दौर ने किसानों और भी नुकसान पहुंचाया। आत्महत्याओं का दौर उसी के बाद बहुत तेज़ हुआ। उपेक्षा, शोषण और क्रूर नीतियों की कहानी लम्बी है। कृषि इस देश की अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत आधार हो सकती थी। किसान को सर्वाधिक सम्मानित नागरिक बनना चाहिए था। विकास की वह राह हमारी राजनीति ने चुनी ही नहीं। जो राह तय की उसमें खेती मध्यस्थों के हाथों कॉरपोरेट हाथों में जानी ही है। बोने-काटने-बेचने का फैसला किसान के हाथ में नहीं रह जाना है।

शहरी मध्यवर्ग को इससे कोई सरोकार नहीं। उसके लिए खेती सुपर मार्केट और ई-कॉमर्स के रूप में उपलब्ध है। किसान का असली दर्द वह नहीं जानना चाहता। वह सरकार के समर्थन और विरोध में बंट गया है या बांट दिया गया है। जिन्हें खेती और किसान के बारे में कुछ नहीं मालूम या बहुत कम जानते हैं, वे किसानों पर सबसे अधिक जोर से बात कर रहे हैं।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 06 फरवरी, 2021)