Sunday, February 28, 2016

क्या किसानों का भरोसा जीत पाएंगे मोदी?


27 फरवरी को कर्नाटक के बेलागांव में और 28 फरवरी को उत्तर प्रदेश के बरेली में प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी लगभग वही बातें करेंगे जो वे बीती 18 फरवरी को मध्य प्रदेश के सीहोर में और 21 फरवरी को ओडिशा के सूखाग्रस्त बारगढ़ में कह चुके हैं.
वे बताएंगे कि उनकी सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए क्या-क्या किया है और उसके क्या-क्या फायदे हैं.
लखनऊ में आम्बेडकर के अस्थिकलश के सामने शीश नवाने और वाराणसी में संत रविदास मंदिर में पूजा करके प्रसाद ग्रहण के बहाने दलित राजनीति के मंच पर हलचल मचाने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी किसान कल्याण मेलों में दिखाई देने लगे हैं. जब तक विरोधी दलों के नेता दलित प्रेम का दिखावा करने के लिए उन पर हमला करने को आगे आए, मोदी जी अपनी सरकार का किसान हिमायती चेहरा लेकर देश में घूमने लगे.
उनका एजेण्डा साफ है- किसानों का भरोसा जीतना. रणनीति यह कि जगह-जगह सम्मेलन कर किसानों को बताया जाए कि सरकार ने अब तक किसानों के हित में क्या-क्या फैसले किए हैं.
फिलहाल चार सम्मेलन निश्चित किए गए है, जिनका जिक्र शुरू में किया गया है. कहीं इसे किसान स्वाभिमान रैली और कहीं किसान कल्याण मेले का नाम भी दिया गया है. प्रधानमंत्री स्वयं इन्हें सम्बोधित कर रहे हैं. सम्भव है बरेली के बाद और भी कार्यक्रम हों.
जे एन यू प्रकरण के बहाने पूरे देश में देशप्रेम बनाम देशद्रोह और भगवाकरण बनाम वैचारिक स्वतंत्रता की आक्रामक बहस छिड़ी है. अदालतों, विश्वविद्यालयों और सड़कों पर देश द्रोहियों पर हमले हो रहे हैं. संसद भी इन ही मुद्दों पर गर्म है लेकिन प्रधानमंत्री इस बारे में कुछ कहने से परहेज करके किसानों के कल्याण के लिए किए जा रहे फैसलों पर बोलने में लगे हैं.
मध्य प्रदेश के सीहोर में उन्होंने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के संशोधित संस्करण से किसानों का परिचय कराया. उन्होंने किसानों को याद दिलाया कि यह योजना पहली बार अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने लागू की थी. फिर यूपीए सरकार आई तो उसने इसमें ऐसे बदलाव कर दिए कि किसान भाई फसल बीमा योजना से भागने लगे. उन्होंने बताया कि अब मेरी सरकार ने इसकी कमियां दूर कर दी हैं. इसमें किसानों की समस्याओं के हल मौजूद हैं और मुसीबत के समय यह उनके काम आएगी.
यहां यह बताना ठीक होगा कि पहले की योजना में बीमा प्रीमियम का 15 फीसदी तक हिस्सा किसान को देना होता था जो अब दो और डेढ़ फीसदी तक घटा दिया गया है. मुआवजा राशि की सीमा भी तीन गुना तक बढ़ा दी गई है. किसानों का विश्वास जीतने के लिए इसे मोदी सरकार का बड़ा नीतिगत परिवर्तन माना जा रहा है. पहले चरण में 50 लाख किसानों का फसल बीमा किया जाना है.
इसके अलावा प्रधानमंत्री किसानों को मिट्टी की सेहत दुरस्त रखने के लिए जारी किए गए सॉइल हेल्थ कार्ड के बारे में बता रहे हैं. मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनी रहेगी तो उपज अच्छी होगी. वे बता रहे हैं कि उनकी सरकार ने जो किसान सिंचाई योजना जारी की है उसके क्या-क्या लाभ हैं. वे जैविक खेती के फायदे गिना रहे हैं और बता रहे हैं कि पर्याप्त मात्रा में यूरिया की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए क्या-क्या कदम उठाए गए हैं.
जोर-शोर से शुरू किए गए डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लांच होने वाले नेशनल एग्रीकल्चर मार्केटके बारे में मोदी जी बड़े उत्साह से बताते हैं कि इससे किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकेगा.
नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट की लांचिंग के लिए 14 अप्रैल 2016 की तारीख तय की गई है. इस दिन बाबा साहेब भीम राव आम्बेडकर का जन्म दिन होता है. जाहिर है इस तारीख का चयन भी प्रधानमंत्री के दलित एवं किसान एजेण्डे के तहत ही किया गया होगा.
मोदी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि जनता को उनकी सरकार गरीब-हितकारी दिखाई दे. विरोधी दलों ने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के एनडीए के प्रस्तावों पर पिछले साल उनकी खूब घेराबंदी की थी. आरोप लगाए गए थे कि मोदी सरकार उद्योगपतियों के इशारे पर किसानों की स्वीकृति के बिना उनकी जमीन अधिग्रहीत करना चाहती है. खासकर राहुल गांधी ने उन पर तीखे हमले किए थे. बिहार विधान सभा चुनावों में जब वे विकास का एजेण्डा लेकर प्रचार कर रहे थे तब नीतीश, आदि उनकी गरीब विरोधी और अमीर हिमायती सरकार की पोल खोल रहे थे.
राज्य विधान सभाओं के चुनाव के अगले दौर से पहले मोदी दलितों-किसानों के हित में किए गए अपने फैसलों को जनता को रटा देना चाहते हैं, इससे पहले कि विरोधी दल इस मोर्चे पर सक्रिय हों.
हां, हरियाणा में भयानक रूप से हिंसक हुए जाट आरक्षण आंदोलन के परिप्रेक्ष में मोदी जी इस अभियान की समीक्षा जरूर करेंगे. हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट बहुतायत में किसान हैं. मांगें माने जाने के आश्वासन के बावजूद वे अभी भाजपा से नाराज हैं. ऐसे में कम से कम जाट बहुल इलाकों में किसान कल्याण के प्रचार से वे बचना चाहेंगे.
(बीबीसी.कॉम, 28 फरवरी 2016)


Thursday, February 25, 2016

भ्रष्टों-अपराधियों को बचाने का माध्यम बने संगठन


बहुत क्लेश होता है जब कोई संगठन अपने बीच के दोषी या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का बचाव करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं. उम्मीद यह होती है कि जिम्मेदार पदाधिकारी खुद आगे आकर संगठन या अपनी व्यावसायिक बिरादरी की नाक बचाने के लिए ऐसे लोगों को कानून के हवाले कर दें लेकिन होता उलटा है. संगठन इसे सामूहिक हित का मुद्दा बनाकर आंदोलन पर उतारू हो जाते हैं और अभियुक्त कटघरे में खड़े होने कि बजाय हीरो बन कर घूमते हैं.
लड़कियों से छेड़खानी करने वालों की पकड़-धकड़ के लिए बिना वर्दी निकली महिला पुलिस से जनपथ बाजार में छेड़खानी की गई. साथी पुलिस वालों ने जब छेड़खानी करने वालों को पकड़ने का प्रयास किया तो जनपथ के व्यापारी इकट्ठा होकर पुलिसकर्मियों पर हमलावर हो गए. अपने शर्मनाक व्यवहार को जायज ठहराने के लिए उन्होंने लड़की को चरित्रहीन ठहराया और दोषियों को भागने में मदद की. वे उनके परिचित या उन ही में कोई रहे होंगे. उन्हें शर्म तो छोड़िए तनिक संकोच तक न हुआ कि वे एक लड़की को चरित्रहीन घोषित कर रहे हैं जबकि वे उसे जानते तक नहीं. किसी लड़की को चरित्रहीन बताकर उसके साथ छेड़खानी या उससे भी आगे जाने को जायज ठहराने की यह घिनौनी मानसिकता बहुत पुरानी और खेद है कि आज भी मौजूद है.
वकीलों के एक वर्ग ने पिछले दिनों शहर में जो उपद्रव किया उसकी चौतरफा निंदा हो रही है. हाई कोर्ट ने उसका संज्ञान लिया और उसमें शामिल वकीलों की पहचान करने की पहल की ताकि उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सके. मगर वकीलों के संगठन काला कोट धारी ऐसे लोगों की पहचान में सहयोग नहीं कर रहे. उलटे उन्होंने हड़ताल कर दी और काम करना चाहने वाले वकीलों को जबरिया रोका. सब जानते हैं कि वकालत की आड़ में कुछ आपराधिक तत्व सक्रिय हैं. अक्सर वे कानून अपने हाथ में ले लेते हैं. असहाय लोगों के मकानों पर कब्जा करने से ले कर कई तरह की आपराधिक शिकायतें उनके खिलाफ हैं. उनकी हरकतों से यह प्रतिष्ठित पेशा बदनाम होता है लेकिन विभिन्न बार इस पर कोई कदम नहीं उठाते. अनौपचारिक रूप से वे इस पर चिंता व्यक्त करते हैं परंतु कोई प्रभावी कारवाई नहीं करते. इन दिनों हाई कोर्ट इस मामले में सुनवाई कर रहा है. बार की तरफ से वकीलों के निर्दोष होने की दलीलें ही पेश की जा रही हैं.
शिक्षकों-कर्मचारियों के संगठन अपनी संख्या और सरकारी काम-काज प्रभावित कर सकने के कारण बहुत ताकतवर हैं. अगर उनके किसी साथी को रिश्वत लेते गिरफ्तार किया जाता है तो भी वे हड़ताल कर देते हैं और बहाना बनाते हैं उत्पीड़न का. वे कभी सरकारी तंत्र को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने, भ्रष्टाचारियों को अपने संगठन से बाहर करने की मुहिम नहीं चलाते. अयोग्य कर्मचारियों पर नियमानुसार कार्रवाई भी उन्हें नागवार गुजरती है और वे दफ्तर के फाटक पर इंकलाब ज़िंदाबादकरने पहुंच जाते हैं. कुछ वर्ष पूर्व आईएएस अधिकारियों ने जरूर अपने ही बीच के महाभ्रष्टोंका चयन कर उल्लेखनीय उदाहरण प्रस्तुत किया था. किसी भी अन्य संगठन ने इसका अनुकरण नहीं किया. बल्कि अब तो ज्यादातर संगठन भ्रष्ट और अराजक प्रवृत्ति के लोगों के हाथ में हैं. इनमें दूसरों का भ्रष्टाचार खोलने को तत्पर पत्रकारों के संगठन भी शामिल हैं.

जनपथ के व्यापारियों के शर्मनाक आचरण से निकली बात दूर तक चली गई. संगठन की शक्ति का कैसा इस्तेमाल होने लगा है! किसी लड़की को चरित्रहीन बता कर उससे छेड़खानी को जायज ठहरा कर तो व्यापारियों मे सभी सीमाएं तोड़ दीं.
(नभाटा, 26 फरवरी, 2016)

Thursday, February 18, 2016

सिटी तमाशा / खतरनाक समय में लड़कियों के लिए जरूरी ऐहतियात


आजाद हवा में सांस लेने और अपने सपनों के आसमान में उड़ने का हौसला दिखा रही लड़कियों के लिए यह बहुत खतरनाक समय भी है. उनकी छलांग पर तरह-तरह के भेड़िए घात लगाए हुए हैं. आए दिन रौंगटे खड़े करने वाली वारदात हो रही हैं. क्या पता जानकीपुरम वाली लड़की महिला हेल्पलाइन, 1090 के दफ्तर जाना चाहती थी या किसी असमंजस में कॉलेज जाने की बजाय उसने सड़कों पर भटकने की ठानी हो  या किसी ऑनलाइन दोस्त से मिलने निकली हो. कोई 18 वर्ष की उस लड़की के दिमाग में क्या-क्या चल रहा था, कौन जाने; लेकिन वह नहीं जानती होगी कि उसकी भटकन या आजादी पर कैसे-कैसे भेड़िए घात लगाए बैठे होते हैं.
1090 की बहुप्रचारित सेवा के बावजूद पुलिस महिलाओं की शिकायत को पहले टालने की ही कोशिश करती है. इस मामले में भी ऐसा हुआ. थाने में लड़की के घरवालों से कहा गया कि किसी के साथ चली गई होगी, आ जाएगी. यह अज़ब रवैया है. मुख्यमंत्री भी मानते हैं कि पुलिस समय पर घटनास्थल पर नहीं पहुंचती. पुलिस की तत्परता कई पीड़ितों को बचा सकती है लेकिन पुलिस ऐसे मामले भी गम्भीरता से लेती नहीं.
लड़कियों के साथ हो रहे ऐसे अपराध पुलिस की अक्षमता के अलावा ऑनलाइन खतरों पर भी रोशनी डालते हैं. खेद है कि इस पर हमारे यहां जरूरी और पर्याप्त चर्चा नहीं होती. एकांतिक इस्तेमाल के कम्प्यूटर और मोबाइल या इण्टरनेट को सुरक्षित मानना बहुत बड़ी भूल है. चूंकि यह माध्यम पूरी तरह व्यक्ति संचालित है इसलिए यहां भी वे सारे खतरे मौजूद हैं जो हमारी भौतिक दुनिया में हैं. बल्कि, इंटरनेट की आभासी दुनिया में बहुत से खतरे चालाक लोमड़ी की तरह हम पर लाड़ लुटाते हुए लेकिन वास्तव में दांत गड़ाते हुए उपस्थित हैं. अनेक बार तो इनके पीड़ित को शिकार हो जाने कई दिन बाद तक पता नहीं चलता कि उसके साथ हो क्या गया.
लड़कियों के लिए यहां नए-नए जाल हैं. आए दिन खबरें आती हैं कि किसी लड़की को दोस्ती के झांसे में कैसे फंसाया गया, कि चैटिंग में प्यार और फिर भाग कर की गई शादी वास्तव में शारीरिक धंधे का कैसा दलदल साबित हुई, वगैरह-वगैरह. इसलिए जरूरी है कि सोशल साइटों और चैटिंग ऐप पर कभी भी सतर्कता न छोड़ी जाए. यहां तो पुरुष के बदनीयती भरे स्पर्श की पहचान भी काम नहीं आती. लड़कियों को दोस्ती करने, प्यार जताने और फन के प्रस्तावों को जांचना और दृढ़ता से कहना सीखना होगा. आजादी और खुलेपन का अर्थ हर प्रस्ताव को हां कहना नहीं है, जबकि हर तरफ भेड़िए मौजूद हों. बच्चों को महंगे मोबाइल और वाहन देने वाले अभिभावक और स्कूल-कॉलेज भी बच्चों, खासकर लड़कियों को बताएं कि व्यावहारिक रूप से समझदार होना क्या होता है. इण्टरनेट सुरक्षा के पाठ आज लड़के-लड़कियों के ही लिए नहीं बल्कि वयस्कों के लिए भी बहुत ज़रूरी हैं.
तुम दुनिया की सबसे सुंदर लड़की हो’, तुम बड़ी खास हो’, तुम्हारी और मेरी रुचियां बिल्कुल एक सी हैं जैसे जुमले ऑनलाइन चैटिंग में बहुप्रयुक्त हैं और अबोध लड़कियों को फुसला देने को काफी हैं. यहां बेहद खतरनाक लोग खूबसूरत शब्दों और आकर्षक तस्वीरों के साथ मौजूद हैं. इसी तरह फंस कर दैहिक और मानसिक शोषण का शिकार हुई अमेरिकी लड़की अलीशिया ने अब इस जाल से बच्चों को बचाना अपने जीवन का मकसद बना लिया है. अमेरिका में उसके नाम से कानून भी बन गया है. इण्टरनेट पर यह कहानी मौजूद है. इसे पढ़ें और बच्चों को जरूर पढ़ाएं. यह ऐहतियात बेहद जरूरी है. (नभाटा, फरवरी 19, 2016)




Tuesday, February 16, 2016

विकास की उलटबांसियां-4/ ऐसा क्यों नहीं हो सकता था

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि गांवों का चौतरफा विकास हो. वहां सारी सुविधाएं दीजिएबिजली-पानी-सड़क आदि ही नहीं अच्छे स्कूल-अस्पताल, बेहतरीन नेट-कनेक्टिविटी के साथ रोजगार के बेहतर अवसर भी. ऐसा कीजिए कि महानगर से आजिज लोग अपने गांवों-कस्बों की ओर लौटना चाहें. शहरों की बदहाली से आजिज लोग आज सुकून की तलाश में गांवों की तरफ लौटना चाहते हैं. लौट इसलिए नहीं पाते कि वहां जीवन के लिए ज़रूरी सुविधाएं नहीं हैं. गांव के साफ हवा-पानी और पौष्टिक मोटे अनाजों के लिए महानगरों के लोग तरसते हैं लेकिन वहां अच्छी चिकित्सा
शिक्षापरिवहनजैसी बेहद ज़रूरी सुविधाओं का रोना भी रोते हैं.
कोई पंद्रह-सोलह वर्ष पहले उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ शहर में तब नई-नई बनी हवाई पट्टी पर खड़ा मैं सोच रहा था कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मैं पहाड़ के अपने घर में रहूं, सुबह तैयार होकर हवाई जहाज या हेलीकॉप्टर सेवा से लखनऊ जाऊं और दिन भर वहां काम करके रात फिर अपने गांव लौट आऊं. विकास की दिशा और दृष्टि ऐसी होती कि ग्रामीण मूल के हम सभी लोग ऐसा कर पाते. गोण्डा-बस्ती या चित्रकूट-बांदा की तरफ रहने वाले अपनी निजी कार या बेहतरीन सार्वजनिक बस या टैक्सी या मेट्रो रेल सेवा से विभिन्न शहरों-कस्बों में अपने-अपने काम पर जाते और शाम को लौट आते. बिजली, पानी और बढ़िया सड़कें गांवों तक होतीं और चुस्त सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था हर जगह सुलभ होती. हम प्राकृतिक सौंदर्य और अप्रदूषित वातावरण में अपने-अपने गांवों में सुकून से रहते. बच्चों के लिए वहीं बेहतरीन स्कूल कॉलेज होते, बीमारों के लिए सभी सुविधाओं से युक्त अस्पताल होते, मनोरंजन के विविध साधन और जरूरी बाजार भी.
गांवों में पेड़ों के नीचे और पहाड़ की चोटियों पर 4-जी नेटवर्क मिलता और हम अपने देहातों में बैठे पूरी दुनिया से जुड़े होते. फिर कॉल सेण्टर नोएडा, गुड़गांव में ही नहीं हरचंदपुर और सरायमीरा में भी खोले जा सकते. हर आवश्यक जरूरत आस-पास पूरी हो जाती तो क्यों लोग गांव छोड़ते. बड़े शहर भी विकसित होते लेकिन वे इस कदर अराजक और बरबाद नहीं होते और हर आदमी की रोजी-रोटी की दौड़ वहीं जाकर खत्म न होती. तब क्यों हमसे हमारी चिड़िया, हमारा आंगन, हमारा स्वाद और गीत-संगीत छिनते. तब आज हमारा यह जीवन, जहां सांस लेने के लिए शुद्ध हवा भी अब दुर्लभ है, इस कदर भयावह हरगिज नहीं होता.
यह सब आज सपने की तरह और असम्भव-सा जान पड़ेगा लेकिन सोचिए कि विकास की नजर शुरू से ही व्यक्ति और ग्राम केंद्रित होती तो क्या यह मुश्किल था. शुरुआत ही नहीं की गई, सोचा ही इस तरह नहीं गया. अगर यह देश गांवों का था तो विकास की अवधारणा और योजनाएं गांव केंद्रित क्यों नहीं बनाई गईं? सब कुछ शहर केंद्रित, बड़ी पूंजी आधारित, और एक खास वर्ग की नजर से होता चला आया, गांवों-ग्रामीणों की घनघोर उपेक्षा की गई और 68 साल में देखिए हम कहां पहुंच गए.
पिथौरागढ़ की हवाई पट्टी का किस्सा भी बता दूं. वह पर्यटकों को उत्तराखण्ड की तरफ आकर्षित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने बनाई थी (तब उत्तराखण्ड का जन्म नहीं हुआ था) आज तक वहां कोई विमान नहीं पहुंचा. उस पट्टी पर जानवर विचरण करते रहे और अब नवम्बर 2015 में उत्तराखण्ड सरकार ने प्रयोग के तौर पर एक छोटा विमान वहां उतराने का सफल प्रयोग करके अपनी पीठ ठोकी है. इस बीच पहाड़ की असहाय-उपेक्षित आबादी मैदानों को पलायन करती रही और हजारों गांव उजाड़ होते चले गए.
दस वर्ष मानव इतिहास में कोई माने नहीं रखते लेकिन यात्रा उलटी या गलत दिशा में हो तो कहीं से कहीं पहुंचा देते हैं. हमने निश्चय ही तरक्की की है लेकिन उसके लिए अपना बहुत कुछ कीमती गंवा दिया है. अपनी जड़ों की ओर झांकते हुए लगता है कि हम एक बियबान में खड़े हैं. रजिया सुल्तान फिल्म में लता मंगेशकर के गाए एक गीत की पक्तियां बरबस याद आ जाती हैं-

हम भटकते है, क्यों भटकते हैं दश्त-ओ-सहरा में/ ऐसा लगता है, मौज प्यासी है अपने दरिया में.
(फिलहाल समाप्त)

Thursday, February 11, 2016

सिटी तमाशा/ ट्रैफिक पुलिस की बीमारी का अपराधी कौन है?


इन दिनों ट्रैफिक पुलिस शहर के कई चौराहों-सड़कों पर बहुत मेहनत कर रही है. हज़रतगंज क्षेत्र के चौराहों पर जहां सामान्यत: एक-दो सिपाही ही दिखाई देते थे, आजकल आधा दर्जन से ज्यादा जवान तैनात हैं. पुलिस और होमगार्ड के अतिरिक्त जवान भी बुलाए गए हैं. ट्रैफिक का नया प्लान बनाया गया है. कुछ सड़कों को वन-वे करके वहां सिपाही तैनात किए गए है. इस तरह की मुस्तैदी पहले नहीं देखी गई जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ने ट्रैफिक की तमीज सीखी ही नहीं. बिगड़े शहरियों को यह सलीका सिखाने में अब ट्रैफिक पुलिस के पसीने छूट रहे हैं. वैसे उनके सारे अच्छे प्रयोगों पर पानी फेरने के लिए हमारे वीवीआईपी काफी हैं जो ट्रैफिक नियम तोड़ने और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों को अपमानित करने में अपनी शान समझते हैं.
खैर, यहां हमारी चिंता का मुद्दा वह खबर है कि 60 ट्रैफिक पुलिस वालों ने एक साथ छुट्टी की अर्जी दी है और सभी ने खराब सेहत को इसका कारण बताया है. जिस मुस्तैदी से पिछले एक मास से ट्रैफिक पुलिस ड्यूटी दे रही है उसमें इतने लोगों का बीमार हो जाना आश्चर्य नहीं, जबकि उनके पास प्रदूषण से बचने के लिए मास्क हैं न ही पैरों में बांधने के लिए पट्टियां. चौराहों पर तैनात सिपाही सबसे ज्यादा प्रदूषण झेलते हैं. मुख्यमंत्री के नए सचिवालय के निर्माण के कारण हज़रतगंज, रॉयल होटल और लालबाग इलाके की हवा ज्यादा ही प्रदूषित है. सोचिए कि आठ-दस घंटे खड़े-खड़े इन इलाकों में ड्यूटी देने वाले तैनात ट्रैफिक जवानों के फेफड़ों में क्या कुछ नहीं भर रहा होगा. इससे बचने के लिए उन्हें मास्क देना अनिवार्य है लेकिन बताया गया है कि मास्क खरीदने के लिए विभाग के पास बजट नहीं है.
इस समय लखनऊ में एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर, 23 सब-इंस्पेक्टर और 156 सिपाही तैनात हैं. जरूरत के हिसाब से तीनों पदों पर अभी 718 लोगों की कमी है. जो 180 स्टाफ अभी तैनात है उसके ही लिए मास्क खरीदे जाएं तो 50 रु प्रति मास्क की दर से कुल नौ हजार रु चाहिए. हर महीने एक नया मास्क लगाना पड़े तो भी सालाना कुल एक लाख आठ हजार रु चाहिए. इतने ही होमगार्ड भी ट्रैफिक ड्यूटी पर तैनात हों तो कुल दो लाख सोलह हजार रु खर्च होंगे. लेकिन इनकी सेहत के लिए दो लाख सोलह हजार रु का सालाना बजट भी उपल्ब्ध नहीं है. क्या कहा जाए? सैफई महोत्सव से लखनऊ महोत्सव तक कितना बजट उड़ा होगा? कितनी रकम मंत्रियों के काफिलों की बेहिसाब गाड़ियों के पेट्रोल-डीजल पर उड़ती होगी? पुलिस महकमे में ही कितनी फिजूलखर्चे होती है?
खड़े-खड़े लम्बी ड्यूटी देने वालों की एक और बड़ी समस्या वेरिकोज वेन है जिसमें पैरों की नसों में गुच्छे बन जाते हैं. इससे बचने के लिए एड़ी से घुटने तक पट्टी बांधी जाती है ताकि पैरो में रक्त प्रवाह बराबर बना रहे. कैण्ट में तैनात सैनिकों को आप यह पट्टी बांधे देख सकते हैं. कोई 20-25 वर्ष पहले तक ट्रैफिक पुलिस को भी वर्दी के साथ ऐसे पट्टे मिलते थे. इनकी लागत ज्यादा नहीं होती.

वीआईपी काफिलों और लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियों के लिए रास्ता साफ रखने और उन्हें सलाम ठोकने वाले ट्रैफिक सिपाहियों की चिंता कोई नहीं करता. मीडिया भी ट्रकों से वसूली करते उनके स्टिंग दिखाता है. शासन-प्रशासन की नजर संवेदनशील हो तो बड़ा बजट देना भी मुश्किल नहीं. यहां तो महज दो लाख रु का सवाल है. यह भी जो नहीं दे रहे वे बड़ा अपराध कर रहे हैं. अगर सुन रहा हो कोई! 
(नभाटा, 12 फरवरी 2016)

Wednesday, February 10, 2016

विकास की उलटबांसियां-3/ पर कटे परिंदों की उड़ान:

ग्रामीण किशोरों-युवाओं की बेशुमार भीड़ शहरों की तरफ दौड़ी चली आ रही है. काली कमाई से चौतरफा खुले निजी कॉलेजों में किसी भी कीमत पर दाखिला लेते इन बच्चों में आधुनिक जीवन की सारी चकाचौंध जल्द से जल्द अपने जीवन में उतार लाने के सपने हैं. वे यह नहीं देख रहे कि उनमें सम्भावनाएं क्या हैं, क्या वे बेहतर कर सकते हैं और क्या उनकी विशेषताएं हैं. वे सिर्फ एक दौड़ लगा रहे हैं, इंजीनियर बनने की भेड़ चाल. बेशुमार खुलते जा रहे इंजीनियरिंग कॉलेजों में बीटेक में बहुत आसानी से दाखिला हो जाता है. पढ़ने वालों से ज्यादा सीटें हैं. बस, फीस भरने को पैसा चाहिए. सो, कर्जा लेकर, खेत बेच कर या गिरवी रख कर गांवों से बच्चे चले आ रहे हैं इंजीनियर बनने को. इनमें लड़कियों की संख्या भी बहुत है. अच्छी बात है कि मध्य और निम्न मध्य वर्ग के परिवारों में लड़कियों को पढ़ाने की चेतना फैली है. लेकिन सवाल यह कि क्या पढ़ाई और कैसी पढ़ाई? ज़्यादतर बच्चे बीटेक की जो डिग्री हासिल कर रहे हैं वह किसी काम की नहीं. बड़े-बड़े पैकेज वाले कम्प्यूटर इंजीनियर की नौकरी का गुब्बारा फूटे जमाना हो गया. जो बचा है वह आईआईटी या चंद नामी संस्थानों से निकलने वालों के हिस्से आता है. सामान्य कॉलेजों की बीटेक की डिग्री पांच हजार रु महीने की नौकरी नहीं दिला पा रही. अच्छी शिक्षा भी वह हर्गिज नहीं है. नतीजा यह कि पढ़े-लिखे कहलाने वाले बेरोजगार बढ़ रहे हैं. उसी अनुपात में कुंठा और हताशा भी. इन्हें देख कर उस परिंदे की याद आती है जिसने ऊंचे उड़ने की गफलत में अपने पंख खुद ही नोच डाले.
जो बच्चे एक अंधी दौड़ में उच्च शिक्षा के लिए शहरों की तरफ आ रहे हैं उनमें से कई एकाएक मिली आजादी में संतुलन न बना पाने के कारण मनोवैज्ञानिक दवाबों और यौनाचारों का शिकार बन रहे हैं. ग्रामीण पृष्ठभूमि और तथाकथित संस्कारी परिवारों से आने वाली लड़कियां शहरों में हॉस्टल या पीजी लाइफ में आसानी से शारीरिक और अन्य शोषणों में फंस रही हैं. जब तक वे बॉयफ्रेण्ड या प्रेम का अर्थ समझ पाती हैं तब तक उसमें गहरे धंस चुकी होती है. सिगरेट और नशे की लत के शिकार कम उम्र लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. शहरों में बढ़ते भांति-भांति के अपराधों में युवाओं की सलंप्तता इसका प्रमाण है. हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ था जब चार वर्ष पहले की एक रिपोर्ट में गर्ल्सं हॉस्टल के बाहर की गुमटी में सबसे महंगी लेडीज सिगरेट और हर तरह के नशे बिकते पाए गए थे.
खेती और अन्य परम्परागत धंधों के साथ ही अपने इलाके में नए-नए व्यवसायों को विकसित करने में युवाओं की तनिक भी दिलचस्पी न होना हमारे समय की एक और त्रासदी है. दोष युवाओं को देना ठीक नहीं होगा. शिक्षा की दिशा ही ऐसी नहीं रही. उच्च शिक्षा प्राप्त चंद युवाओं ने गांव, खेती और परम्परागत व्यवसायों को नए जमाने के अनुरूप अपना कर साबित किया है कि इस क्षेत्र में अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं. लेकिन यह धारा के विरुद्ध बहना अपवाद स्वरूप ही दिखाई दे रहा है. बदलाव की तेज रफ्तार इस दिशा में नहीं जा रही.

Monday, February 08, 2016

विकास की उलटबासियां-2/ गीत-संगीत और भाषा-बोली का गुम व्याकरण:

सुबह घूमने निकलता हूँ तो देखता हूँ कि बूढों से लेकर महिलाओं तक और खासकर युवाओं का पहनावा कितना बदल गया है. शॉर्ट्स-टी-शर्ट, वगैरह जो बच्चों-किशोरों का पहनावा था अब सभी ने मजे से अपना लिया है. कुर्ता-पाजामा-धोती या साड़ी-सलवार जैसी ड्रेस अब पिछड़ेपन की निशानी माने जाने लगे हैं. बड़े-बड़े मॉल के शोरूम देखिए, कैसी-कैसी ड्रेस सजाए बैठे हैं. फैशन और डिजायन की तरक्की से कहीं ज्यादा पश्चिम की भौण्डी नकल ज्यादा छा गई. लखनऊ का मशहूर हैण्डलूम हाउस हज़रतगंज का अपना शोरूम बंद करके पिछले साल गोरखपुर चला गया. उनके मैनेजर ने अफसोस के साथ बताया था कि हथकरघे की बनी बढ़िया काम वाली छह गजी साड़ियों की विक्री लखनऊ में कम होती चली गई थी, इसलिए.
यहां यह बात साफ कर देना जरूरी है कि खान-पान या पहनावे के परिवर्तन अत्यंत स्वाभाविक हैं. जीवन का ढर्रा बदला है. महिलाएं घर की चारदीवारी से निकल कर अब हर मुश्किल और कठिन काम बराबरी से कर रही हैं. खान-पान और पहनावे का सम्बंध दिनचर्या और सुविधा से है. इसलिए साड़ी या सलवार कुर्ते की जगह जींस-टॉप या दूसरी ड्रेस अपनाने में कतई हर्ज नहीं. बल्कि अपनाने ही चाहिए. इसी तरह खान-पान. मैगी हो पिज्जा या केएफसी या ढेरों दूसरे विदेशी व्यंजन उन्हें खाने में कोई हर्ज नहीं. बल्कि, दुनिया भर के स्वाद जरूर लेने चाहिए. आज पूरी दुनिया मुट्ठी में है तो जितनी हो सके भाषाएं सीखिए, पहनावे धारण कीजिए और खान-पान बरतिए. कोई डण्डा नहीं चला रहा कि बाटी-चोखा, आलू-पूरी-हलवा, डोसा-पोहा, वगैरह ही गले से नीचे धकेलते रहिए या धोती-कुर्ता-लुंगी-साड़ी ही धारण कीजिए. लेकिन यह जरूर देखा जाना चाहिए कि अपने स्वाद, पहनावे और भाषा-बोलियों के साथ कैसा सलूक हम कर रहे हैं. जी हां, खान-पान और भाषा-बोलियों का परस्पर अंतरंग सम्बंध है और पिछले एक दशक में यह बहुत दरका है.
जो बदलाव बिना सोचे-विचारे हम जीवन में अपनाते जा रहे हैं वे हमारी भाषाओं को भी मार रहे हैं. स्वाद छिनता है तो अपनी बोली-भाषा-लोकगीत-संगीत सब जाते रहते हैं. क्या जरूरी है कि हम पहनावा बदलने के साथ भाषा भी बदल लें, बोली छोड़ दें और लोकोक्तियों-मुहावरों को मर जाने दें? आप पश्चिमी संगीत पसंद करने को स्वतंत्र हैं, खूब रैप सुनिए और डांस करिए लेकिन अपने लोक गीत-संगीत की हत्या करना क्यों जरूरी है? अपनी जड़ों का संगीत भी क्यों नहीं अंतर्राष्ट्रीय फलक पर गूंज सकता? दिक्कत दुनिया भर की चीजें बरतने में नहीं है. दिक्कत है हमारे सोच में कि अपनी चीजों को पिछड़ेपन की निशानी मान कर उनकी घोर उपेक्षा किए जा रहे हैं और बाहरी चीजों को प्रगति और आधुनिकता का प्रतीक मान कर आंखें बंद करके अपनाए जा रहे हैं. यह नहीं देख रहे कि इससे हो क्या रहा है.
हमारी विविध लोक सांस्कृतिक विरासत का क्या से क्या हो गया. लोक गीत-संगीत और नृत्य के नाम पर जो परोसा जा रहा है वह सिर्फ फैशन में उसे फोक कहलाता है लेकिन वह ऐसा भयानक सांस्कृतिक प्रदूषण है कि अब भी बच रहे माटी से जुड़े लोग माथा पीट रहे हैं. हिंदी अखबारों की भाषा देखिए. युवा पीढ़ी से जुड़ने के नाम पर जो छप रहा है वह क्या है? उसमें हिंदी बची न उसका व्याकरण और न अंग्रेजी ही ठीक से अपनाई जा रही है. व्याकरण के बिना भी क्या कोई भाषा हो सकती है? पिछले एक दशक में हमने बहुत तेजी से अपनी भाषा खोई है.

चरमराते शहर और उजड़ते गांव: सबसे बड़ा और भयानक बदलाव जो हुआ है वह है गांवों का उजड़ना और उससे तेजी से शहरों का विकराल होना. गांवों से शहरों की ओर आबादी का पलायन नई बात नहीं है लेकिन पिछले दस वर्षों में यह इतना भयावह हो गया है कि गांवों का देश भारत वाली परिभाषा ही उलटती जा रही है. सन 2011 की जनगणना में हमारी 11 फीसदी आबादी महानगरी बताई गई थी जिसके 2031 में 40 फीसदी हो जाने का अनुमान है. इसी रफ्तार से 2051 में देश की जनसंख्या का 50 प्रतिशत बड़े शहरों में रह रहा होगा. तब हम गांवों का देश नहीं रह जाएंगे. गांवों का देश नहीं कहलाने पर स्यापा करने की जरूरत नहीं है लेकिन यह सोचिए कि इतनी विशाल आबादी शहरों में रहेगी कहां और कैसे? हमारे सारे शहर अभी ही चोक हो चुके हैं. वहां सारी नागरिक सुविधाओं का गला घुट चुका है. चेन्नै में हाल का जल-प्रलय, हर बड़े शहर में धूप को निगलता जहरीला स्मॉग और कश्मीर की बाढ़ बताती है कि शहरों में आबादी और उसके बढ़ते कचरे का बोझ उठाने की क्षमता खत्म हो चुकी है. हर शहर जाम, अतिक्रमण, जल भराव, झुग्गियों, पानी-बिजली संकट से त्रस्त है और लोग हैं कि गांव छोड—छोड़ कर शहरों में आते जाने को मजबूर हैं. दम घोटू हो चुके शहरों को रहने लायक बनाए रखने के लिए उन्हें स्मार्ट सिटी बनाने की हास्यास्पद कवायद की जा रही है. कितना ही स्मार्ट सिटी बना लीजिए, गांवों का उजड़ना नहीं थमेगा तो शहर में लोगों के लिए कही ठौर नहीं बचेगी. स्थिति भयावह होती जाएगी.

Sunday, February 07, 2016

यूपी में महागठबंधन यानी बिहारी बदले की चाल

तो, बिहार की तर्ज़ पर यू पी में भी एक महागठबंधन बनाने की शतरंजी चाल चली जा चुकी है. प्रकट रूप में यह महागठबन्धन यू पी विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करने के लिए होगा लेकिन इसका असली मकसद मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से राजनीतिक बदला लेना है. 
जनवरी के अंतिम दिन जद (यू) के राष्ट्रीय अध्य्क्ष शरद यादव ने लखनऊ में महागठबंधन की अनौपचारिक घोषणा की और उसके दो दिन बाद नीतीश कुमार ने यू पी में अपनी पहली जनसभा करके उस तरफ कदम भी बढ़ा दिए. नीतीश ने सभा के लिए जौनपुर को चुना. जौनपुर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी का ठीक पड़ोसी है. सभा में उन्होंने प्रकारान्तर से हमला भी भाजपा और मोदी पर किया और सपा को बख्श दिया. मगर नीतीश कुमार यूपी में भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं. यह कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना वाला मामला है. उनका निशाना मुलायम हैं.
इस राजनीतिक बदले की भूमिका बिहार चुनाव के दौरान ही लिखी जा चुकी थी. मुलायम सिंह यादव ने बिहार में जद (यू)-राजद-कांग्रेस महागठबंधन का साथ छोड़ कर, तीसरा मोर्चा बनाकर अलग से चुनाव लड़ने का दांव खेला था. तभी तय हो गया था कि यू पी के चुनाव में महागठबंधन भी पलटवार करेगा जरूर.
शरद यादव इसीलिए साफ कर गए थे कि यू पी के महागठबंधन समाजवादी पार्टी को शामिल नहीं किया जाएगा और विधान सभा के उपचुनावों (13 फरवरी) में अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल का समर्थन किया जाएगा. रालोद के महागठबंधन में शामिल होने की पुष्टि बीती बुधवार को नई दिल्ली में नीतीश कुमार और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी की मुलाकात में हो गई. जयंत को जिम्मेदारी दी गई है कि वे उत्तर प्रदेश में महागठबंधन को मजबूत बनाने का काम करें.
जौनपुर में सभा के दूसरे ही दिन दिल्ली जाकर नीतीश ने महागठबन्धन के सम्भावित दलों की तलाश शुरू कर दी थी. साफ है कि मामला सिर्फ जुबानी जमा खर्च तक सीमित नहीं है. वे अजित सिंह के घर पर शरद यादव के साथ जयंत से मिले. फिर अपना दल की नेता कृष्णा पटेल और पीस पार्टी के डा अयूब से भी नीतीश की भेंट हुई.
रालोद को छोड़कर बाकी से बातचीत का खास मतलब नहीं है. भाजपा से गठबन्धन कर सांसद बनी अनुप्रिया पटेल से विवाद के बाद उनकी मां कृष्णा पटेल अपना दल में हाशिए पर चली गईं हैं. कुछ वर्ष पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में लोकप्रिय रही डा अयूब की पीस पार्टी भी अब लुटी-पिटी है. पिछले विधान सभा चुनाव में उनके पांच विधायक जीते थे जिनमें से चार अब समाजवादी पार्टी के साथ हैं. कृष्णा पटेल और डा अयूब दोनों ही अपने लिए बेहतर मंच की तलाश में हैं. वे महागठबंधन को कुछ देने की स्थिति में नहीं.
जद (यू) और राजद बिहार में व्यापक जनाधार वाली पार्टियां हैं लेकिन यूपी में उनका कोई आधार ही नहीं है. जो हाल सपा का बिहार में है वहीं इनका यूपी में है. बिहार में बड़ी विजय दर्ज कर लेने के बाद नीतीश कुमार का कद राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ा जरूर लेकिन यू पी के पिछड़ों या कुर्मियों में उनकी छवि चुनाव जिताऊ नहीं है. इसलिए लालू-नीतीश से भी यू पी में महागठबंधन को कोई मजबूती नहीं मिलने वाली.
रालोद के अलावा महागठबंधन में प्राण फूकने वाली पार्टी कांग्रेस ही हो सकती है. हालांकि यूपी कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है लेकिन अपने रहे-बचे वोट प्रतिशत से भी वह महागठबंधन को एक पहचान दे सकती है. मगर यह बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा बनेगी? राहुल बिहार में भी स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना चाहते थे. वहां सोनिया और लालू की पुरानी राजनीतिक दोस्ती के कारण राहुल को झुकना पड़ा था. यूपी में ऐसी कोई मजबूरी राहुल के सामने नहीं है. यूपी के कांग्रेसी भी किसी से गठबंधन नहीं करना चाहते. फिलहाल कांग्रेस की सारी तैयारियां अकेले चुनाव लड़ने की हैं और इस बार उसने प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया साल भर पहले से शुरू कर दी है.
सपा और बसपा यूपी में दो बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं जिनके पास मजबूत जनाधार है. लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय के बाद स्वाभाविक रूप से भाजपा भी यहां बड़ी दावेदार बन गई है. तिकोने मुकाबले तय हैं. कई सीटों पर कांग्रेस चौथी ताकत बनेगी. इसके बाद महागठबंधन के लिए कितनी गुंजाइश बचेगी?
बिहार में चुनावी लड़ाई सीधे-सीधे दो गठबंधनों में सिमट गई थी. जिससे मुलायम का तीसरा मोर्चा मैदान से ही गायब हो गया. यूपी में अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय हुआ तो एक-एक वोट की बड़ी कीमत होगी. तब शायद महागठबंधन नुकसान पहुंचाने के स्थिति में होगा.
अभी तो साल भर में बहुत से समीकरण बनेंगे-बिगड़ेंगे. फिलहाल नीतीश और शरद नाम के लिए एक महागठबन्धन तो यू पी में खड़ा कर ही सकते हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने कर दी है.
मगर मुलायम सिंह यादव को इस पहल से कोई चिंता नहीं है. उन्होंने इसका नोटिस तक नहीं लिया. उनका ध्यान खींचने को मायावती और अमित शाह की चालें ही काफी हैं.
(बीबीसी.कॉम, 07 फरवरी, 2016)








Thursday, February 04, 2016

कई पीढ़ियों के दीदी-भैया और ‘बच्चों’ का मिलन


सन 1947 में ऑल इण्डिया रेडियो के रविवासरीय कार्यक्रम बच्चों का प्रोग्राम (बाद में बाल संघ नाम से लोकप्रिय) में कुसुम हरिनारायण दीदी बन कर कम्पीयरिंग करती थीं. बीते रविवार को 94 साल की अवस्था में जब वे अपना संकल्प और समस्त ऊर्जा बटोर कर कला गांव के गंवई  हॉल में बमुश्किल दाखिल हुईं तो वहां मौजूद पांच-छह पीढ़ियों के 20-25 लोग भावुक हो उठे. कुछ की आंखें छलछला आईं. करीब सत्तर साल के भैया रज्जन लाल उनके पैरों पर झुक गए. शुरू में वे बता चुके थे कि मेरी दीदी बहुत वृद्ध हो चुकी हैं और वे आ नहीं पाएंगी. लेकिन आज की परदादी और कभी की दीदी की स्मृतियों ने इतना जोर मारा कि उनके बेटे मां को वहां पहुंचाए बिना रह न सके. फिर तो 1949 में बाल संघ की कलाकार रहीं शकुंतला भी उनके ऑटोग्राफ लेने लगीं.
वहां के के सिंह थे जो 36 वर्ष मास्को रेडियो में काम करने के बाद भारत लौट आए मगर उससे भी पहले वे बाल संघ के कलाकार थे. 1952 से बाल कलाकार रहे खालिद भाई, जो बाद में टीवी और रंगमंच के बेहतर अभिनेता बने, भी लाठी के सहारे वहां मौजूद थे. धीरेंद्र वर्मा ने बूढ़े गले से वह पूरा गीत गा कर सुनाया जो कभी बाल संघ में खूब बजाया जाता था. रज्जन लाल और उनकी पत्नी शारदा लाल झोला भर फूल मालाएं लाए थे जो हर एक के गले में उम्र के वजन के हिसाब से पहनाई गईं. मुम्बई जाकर मशहूर हुए अतुल तिवारी ने जब यह कहा कि मेरे बिगड़ने की शुरुआत ही बाल संघ से हुई और इसका श्रेय रज्जन भैया को है तो सबने इस बिगड़ने के सदके किए. आकाशवाणी और दूरदर्शन की लोकप्रिय सख्शियत रमा त्रिवेदी ने जोर देकर कहा कि भाषा और सही उच्चारण का संस्कार उन्हें बाल संघ ने दिया तो तालियां बजाते सब लोग यह कहे बिना नहीं रह सके कि आज के आर जे कितनी भ्रष्ट भाषा और गलत उच्चारण करते हैं.
यह कोई एल्मनाई मीट नहीं थी. 1970-80 के दशक के बाल संघ के भैया जी रज्जन लाल और उसी दौर के बाल कलाकार प्रभाकर त्रिपाठी उर्फ आदियोग के निजी प्रयासों से बाल संघ के पुराने से बहुत पुराने कुछ कलाकार एक जगह जुटे. जब कुसुम जी दीदी बनती थी और उनके साथ यज्ञ देव पंडित भैया जी और मुश्ताक भाई चाचा तब आज के वयोवृद्ध रज्जन लाल, धीरेंद्र वर्मा, खालिद भाई, केके सिह, शकुंतला, आदि छोटे बच्चे थे. जब 20-25 वर्ष बाद रज्जन लाल भैया जी के रोल में आए और शकुंतला वर्मा दीदी बनती थीं तब रचना और अर्चना मिश्रा, अतुल तिवारी, अंजलि, विजय वीर, लता, प्रभाकर, नूतन, जैसे दर्जनों बच्चे गीत, कविता गाना, चुटकुला, वगैरह सुनाने के लिए हर रविवार आकाशवाणी स्टूडियो तक दौड़े जाते थे. स्टूडियो नम्बर एक के उस अजब-गजब जमघट ने उन बच्चों को तरह-तरह से मांजा और कला-कर्म के विविध संस्कार दिए. आज दशकों बाद उनमें से कुछ का इकट्ठा होना और बच्चा बन कर उस दौर के गीत, चुटकुले, संवाद सुनाना अपनी जड़ों का पानी पीने जैसा था, जो अमृत से कम नहीं होता. इसी अमृत पान का असर था कि आकाशवाणी के कार्यवाहक निदेशक पृथ्वीराज चौहान को कहना पड़ा कि अप्रैल मास से आज के बाल जगत कार्यक्रम का नाम फिर से बाल संघ कर दिया जाएगा. आदियोग ने इस पूरे अनौपचारिक आयोजन को सृजन पीठ से जोड़कर नया आयाम भी प्रदान कर दिया. यह पीठ आगे चल कर सृजन धर्मा व्यक्तियों का मिलन व रचना स्थल बनेगी. आमीन!
(नभाटा, 05 फरवरी, 2016)




Wednesday, February 03, 2016

विकास की उलटबासियां-1/ जो जीवन से गायब होता गया

कोई दस-बारह वर्ष पहले लखनऊ की मशहूर लाल बारादरी में स्थित ललित कला केंद्र में प्रख्यात चित्रकार जतिन दास व्याख्यान दे रहे थे. चित्रकला पर बोलते-बोलते वे जीवन में आ रहे अजूबे और विसंगत बदलावों और उनके कारण बढ़ रही कला विहीनता पर बात करने लगे थे. कहने लगे कि अब मकानों की बजाय दस गुणा दस के छोटे-छोटे दड़बेनुमा फ्लैट बन रहे हैं जिनमें घरों के परम्परागत आंगन नहीं हैं, आंगन में अचार डालती दादी नहीं है. आंगन में लम्बे-लम्बे बाल सुखाती बहू-बेटी नहीं है. जीवन ऐसे ब्लॉकों में बदल गया है कि कला और सौंदर्यप्रियता खो गई है. इसलिए आज के जीवन में कला का लोप हो गया है. यह अलग बात है कि आर्कीटेक्चर से लेकर पहनावे तक में कला और सौंदर्यप्रियता का खूब दिखावा हो रहा है. उस दिन जतिन दास की इस बात ने मुझे बहुत गहरे उद्वेलित कर दिया था. उन्होंने और भी बातें कही थीं लेकिन मेरा मन इसी में अटका रहा और हिंदुस्तान” का अपना साप्ताहिक कॉलम में मैंने इसी उद्वेलन पर लिखा था- “घरों से गायब होते आंगन का विलाप.”
दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में मकानों के ब्लॉकों और दड़बों में बदलने का क्रम काफी पहले शुरू हो चुका था. उत्तर प्रदेश के नोएडा और गाजियाबाद में भी बहुत तेजी से अपार्टमेण्ट बनने लगे थे लेकिन अपनी राजधानी लखनऊ समेत बाकी जिलों में तब भी अपने घर के सपने में एक अदद आंगन और सामने छोड़े गए दस फुटी लॉन का सपना मौजूद था. आवास विकास परिषद तथा शहरी विकास प्राधिकरणों से मकान का नक्शा पास कराने के लिए पीछे दस फुट आंगन और सामने थोड़ा लॉन दिखाना जरूरी होता था. दो मकानों के बीच छोटा-सा गलियारा भी अनिवार्य होता था. लेकिन उस दिन जतिन दास की बात से व्यथित मन ने जब लखनऊ को उस तरह देखना शुरू किया तो पाया कि ये आंगन, लॉन और गलियारा बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं. मैं याद करने लगा था कि आंगन में छोटी-छोटी क्यारियां होती थीं. उनमें फूल खिलते थे. फूलों पर तितलियां मंडराती थीं और बच्चे उन चंचल, खूबसूरत तितलियों को पकड़ने के लिए भागते थे. आंगन के नीम के पेड़ पर कोयल कूकती थी और फाख्ते का जोड़ा तिनके-तिनके बीन कर घोंसले बनाया करता था. गौरैया कमरे के रोशनदान में बसेरा करती थी. आंगन में अचार पड़ता था और पापड़ सूखते थे. आंगन में मां निश्चिंत होकर बच्चों को छाती का दूध पिलाती थी और लोरी गुनगुनाती थी. अब दो कमरों की कोठरी में धूप नहीं आती. दादी का गठिया और बहू के गीले बाल कोठरी की सीलन में टीसते-रिसते रहते हैं.
जीवन से बेदखल प्यारी चीजें: यह दस-बारह साल पुरानी बात थी. आज? पिछले एक दशक में लखनऊ ही नहीं प्रदेश के बहुत सारे छोटे-बड़े शहरों में हजारों की संख्या में ब्लॉकनुमा छोटी कोठरियों वाले अपार्टमेण्ट बन गए. आंगनों वाले मकान तोड़-तोड़ कर पांच-छह मंजिला या इससे भी ऊंचे अपार्टमेण्ट बन गए. आंगन से जुड़े दैनंदिन जीवन के तमाम कार्य-व्यापार बंद हो गए, स्पंदन थम गए और देखिए कि पिछले कुछ वर्षों से हम गौरैया बचाओ दिवस मनाने लगे हैं. इस विडम्बना पर 20 मार्च 2010 के अपने कॉलम में मैंने लिखा था- “प्रकृति से, प्रकृति की सुंदर रचनाओं से मनुष्य का साझा अब नहीं रहा. हाते पट गए, पेड़ कट गए, पुराने घर-आंगन तोड़ कर अपार्टमेण्ट बन गए. एसी, वगैरह ने रोशनदानों की जरूरत खत्म कर दी और खिड़की-दरवाजे सदा बंद रखने की अनेक मजबूरियां निकल आईं. कीटनाशकों-उर्वरकों ने कीट-पतंगों और पक्षियों पर रासायनिक हमला बोल दिया. प्रकृति से दूर जाते हमारे जीवन से बहुत कुछ बाहर चला गया. गौरैया, तितली, वगैरह भी.”
कितनी ज़रूरी और प्यारी चीजें हमारे जीवन से बहुत तेजी से गायब होती जा रही हैं, ऐसी चीजें जो जीवन को खूबसूरत बनाती थीं, उसे अर्थ देती थीं, अपने पर्यावरण के साथ तालमेल बनाए रखते हुए जीना सिखाती थीं. इन सब प्यारी चीजों में हमारी भाषा-बोली, गीत-संगीत, स्वाद और हवा-पानी जिंदा रहते थे और इनसे हमारी जड़ें हरी रहती थीं. हम, हम होते थे. सामूहिक जीवन था हमारा, पड़ोसी से प्यार और सुख-दुख का नाता. दड़बों की दीवारों में पड़ोसी खो गए. फिर रिश्ते कैसे रह जाते. अब हम क्या होते जा रहे हैं!
हमारा होना भी अब कितनी चुनौतियों से घिरा है! पेरिस में जब ग्लोबल वार्मिंग पर डेढ़ सौ से ज्यादा देश माथापच्ची कर रहे थे तब दिल्ली की हवा में इतना जहर फैला था कि मास्क पहनने की सलाह दी गई. गर्भवती महिलाओं-बच्चों को घर भीतर दुबके रहने को कहा जा रहा है. चीन की राजधानी बीजिंग में खतरनाक स्मॉग के कारण रेड अलर्ट घोषित करना पड़ा जिसमें स्कूल-कॉलेज बंद किए गए. उससे पहले सिंगापुर में भी ऐसा ही हुआ. इसके रुकने के कोई आसार नहीं हैं. जीवन की गति और तथाकथित विकास की दिशा बना ही ऐसी दी गई है. लगता है हमारी गाड़ी सर्वथा विपरीत दिशा में हाँकी जा रही है और हमारा उसकी गति और दिशा पर कोई नियंत्रण ही नहीं है.
बाजार ने हर लिए हमारे स्वाद: पिछले एक दशक पर नजर डालिए तो कितनी सारी चीजें बदल गई हैं. पूरा जीवन-व्यवहार बदल रहा है और बदलाव की गति बहुत तेज है. जॉर्ज ऑर्वेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक उन्नीस सौ चौरासी में ऐसा ही कुछ कहा भी था कि जो परिवर्तन मेरे बाबा के जीवन में साठ-सत्तर साल में हुआ उससे ज्यादा परिवर्तन मेरे पिता के जीवन में दस साल में आ गया और उससे बहुत ज़्यादा बदलाव मेरे जीवन में सिर्फ दो-तीन साल में आ गया. मेरे बेटे के जीवन में पता नहीं यह कैसी उलट-फेर करेगा और कितनी भयानक रफ्तार से. यह उलट-फेर काफी पहले शुरू हो चुकी है.
हमारे स्वाद का हाल देखिए. चंद हफ्तों के लिए मैगी क्या बंद हुई, बच्चों का मुंह लटक गया. मां का दूध सूख जाने पर भी ऐसी व्याकुलता नहीं होती. अब मैगी बाजार में वापस आ रही है तो छोटे बच्चों से लेकर युवा तक आनंदित हैं और मैगी पार्टी की तस्वीरें सोशल साइट्स पर सगर्व पोस्ट कर रहे हैं.
हमारी पीढ़ी की जमीनी, अपनी माटी की चीजें बाजार के जादूगरों ने कैसे हर लीं और हमने उन्हें खुशी-खुशी हर ले जाने दिया. नव उदारीकरण से उपजे तथाकथित विकास की चकाचौंध में हमने देखा ही नहीं कि हम क्या अपना रहे हैं और क्या हमसे छीना जा रहा है. भारतीय खाने की विविधता और पौष्टिकता की सर्वत्र चर्चा होती है लेकिन माताओं की शिकायत है कि पराठा-पूरी या दाल-भात-रोटी सामने रखो तो बच्चे कहने लगते हैं कि कुछ अच्छा खिलाओ. कुछ अच्छा माने मैगी, पास्ता, केएफसी, जने क्या-क्या. आज यह हर घर की समस्या है. क्या त्रासदी है कि स्वदेशी का राग अलापने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ झण्डा उठाने वाले बाबा रामदेव अपनी कम्पनी के नूडल्स लेकर बाजार में आ गए हैं.  मैगी पर रोक लगने के बाद उन्हें मुनाफे का अच्छा मौका दिखा होगा. मैकरोनी, स्पाघेटी और वर्मिसेली वे पहले से बेच ही रहे हैं. हमला बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हो या तथाकथित भारतीय आश्रमों का, देसी स्वाद तो धीरे-धीरे मारे जा रहे हैं.

यह सामाजिक-सांस्कृतिक हमला बड़े शहरों से सीधे गांवों तक पहुंच गया है. गांवों के मेलों-हाटों-उत्सवों-ब्याह-काजों में सबसे ज्यादा मांग चाऊमीन वगैरह की हो रही है. गांवों के साप्ताहिक हाटों में लाल-हरे और जाने कैसे-कैसे सॉस से सजे ठेले हाफ और फूल प्लेट चाऊमीन” के रेट लटकाए सबके आकर्षण का केंद्र बने दिखते हैं. सांस्कृतिक संध्याओं में लोक गीतों की बजाय फिल्मी धुनों पर लोक-नृत्य होते हैं. लोक संगीत और भाषा-बोली का हाल वैसा ही हो गया है जैसा किसी ढाबे में प्याज-लहसुन का छौंका लगाकर पकाई गई मैगी का हो सकता है. (क्रमश:)