Friday, March 27, 2020

कोविड-19: सुरक्षित छत और भरे पेट का वैराग्य


तीन दिन हो गए, घर का कूड़ेदान नहीं भरा. दूध के खाली पैकेटों के अलावा उसमें कोई पॉलीथीन नहीं. (सब्जियों-फलों के छिक्कल खाद बनाने के काम आते हैं) इन दिनों घर से बहुत कम कचरा निकल रहा है. पहले हर रोज कूड़ेदान भर जाता था. कई दिन दो भी. आजकल कोई फालतूसामान खरीदा नहीं जा रहा. सिर्फ अत्यंत आवश्यक वस्तुएं. इसलिए कूड़ा भी कम.

कोविड-19 ने पूरा जीवन-दर्शन बदल दिया है. जीवित रहने के लिए कितनी कम आवश्यकताएं हैं हमारी! दो वक्त का खाना और थोड़ा चाय-पानी. और, सोचिए तो कितनी शॉपिंगकरते हैं हम! थैले भर-भर सामान लाए जा रहे हैं. आवश्यकता हो, न हो, खरीदारी होती रहती है. घर के सारे कमरे सामान से भरे हैं. घर में क्या-क्या है, अक्सर याद ही नहीं रहता. बेज़रूरत तमाम चीजें. हर चीज अपने साथ कचरा भी लाती है. हर सामान प्लास्टिक में पैक. कई बार सामान से बड़ी पैकिंग. घर के ही नहीं, नगर निगम के कूड़ेदान भी छोटे पड़ जाते थे. उपभोक्तावादी अर्थव्यस्था ने हमें कितना जकड़ रखा है, यह आज समझ में आ रहा है.

इतनी साफ हवा है इन दिनों कि फेफड़े परेशान होंगे कि कहां आ गए! हवा में खुशबू है. प्रदूषण न्यूनतम स्तर पर है. चिड़ियों का चहकना दिन में भी साफ सुनाई दे रहा है. सुबह-शाम तो घर के भीतर तक बुलबुल का गाना और फाख्ते की घुग्घू-घू खूब सुनाई दे रही है. आसमान का नीलापन धुल गया है. तारे जो दिखते हैं, उनकी चमक लौट आई है. सूनी सड़कें अपनी चौड़ाई देख अचम्भित हैं.

बहुत सारी चीजें हैं जिनके पीछे हम भागते रहे, जो आज की मजबूरन बंदी में अनावश्यक लग रही हैं. बहुत सारी ऐसी चीजें ऐसी भी हैं जिनकी तरफ हम देखते नहीं थे, आज वे खूबसूरत लग रही हैं. इसलिए सवाल उठ रहा है कि हम कैसी दौड़ में शामिल हैं? कौन हमें दौड़ा रहा है, किस तरफ और क्यों? हमारा दैनंदिन जीवन और सोच-विचार कौन निर्धारित कर रहा है?

एक मित्र ने कहा कि यह वैरागी भाव, श्मशानी वैराग्य जैसा है. घाट पर किसी को अंतिम विदा देते हुए हम सब सोचते हैं कि इस जीवन का कोई भरोसा नहीं. आखिर क्यों हम तमाम आपा-धापी, झगड़े-झंझट और राग-द्वेष में डूबे रहते हैं. यह संसार उस समय असार लगता है लेकिन घाट से लौटने के बाद हर कोई उसी भागमभाग और प्रतिद्वंद्विता में जुट जाता है. वही राग-द्वेष और लिप्साएं. कोरोना का डर और अत्यधिक सतर्कताएं भी ऐसा ही बोध करा रही हैं. क्या गारण्टी है कि इससे उबर जाने के बाद इंसान फिर सारी सम्पत्ति अपनी मुट्ठी में करने के लिए लालायित नहीं हो जाएगा?

अन्यथा, सोचिए कि अगर दिनचर्या न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति तक टिकी रही तो इस पूरी नव-उदारवादी व्यवस्था का, तमाम चकाचौंध और असीमित बाजार का, कॉरपोरेट दुनिया, हथियारों के विशाल बाज़ार और महाशक्तियों का क्या होगा? चंद कारखानों के बंद हो जाने से जन्मी बेरोजगारी युवाओं को त्रस्त किए हुए हैं. सारी अर्थव्यवस्थाएं इस कोशिश में हैं कि जनता अधिक से अधिक खरीदारी और उपभोग करे. हमारा कोरोना-वैराग्य जारी रहा तो दुनिया में दूसरी ही आफत आ जाएगी. हमारे कूड़ेदान रोज ठसाठस नहीं भरे तो दुनिया उलट-पुलट हो जाएगी. इसलिए, अगर आप नीले आसमान से और चिड़ियों की चहचहाहट से, साफ हवा से और शहरों की शांति से खु़श हो रहे हैं तो भूल जाइए. लौटना वहीं है, उसी दुनिया में. हमारी नियति कोई और ही लोग तय करते हैं.

और, क्षमा चाहूंगा, यह सारा चिंतन एक सुरक्षित छत के नीचे बैठे भरे पेट का है. उनका कैसा वैराग्य,  जिनके चूल्हे नहीं जल पा रहे. जिनके पीछे कोरोना है और सामने भूख?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 मार्च, 2020)     
 
    

 

   

Friday, March 20, 2020

डरना नहीं, संकट को समझना और सतर्क रहना है


अपनी खाई थाली खुद धोनेअपना कपड़ा स्वयं फींचने और घर की साफ-सफाई अपने आप करने जैसी  आदतें जिनकी वर्षों पहले छूट गई थी या जिहोंने बचपन से ही ऐसे काम कभी किए ही नहीं थे, वे आज कोरोना (कोविड-19) से बचने के लिए यह सब करने को मज़बूर हो रहे हैं. बहुत सारे परिवार कामवालियों की अस्थाई लेकिन सवेतन छुट्टी कर रहे हैं क्योंकि विशेषज्ञों की सलाह है कि कम से कम लोगों से सम्पर्क करें. यथासम्भव एकांतवास इससे बचने का सबसे कारगर तरीका है.
प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यूकी घोषणा इसीलिए की है. इसे गम्भीरता से लिया जाना चाहिए. आगे ऐसा कर्फ्यूबढ़ाने की जरूरत पड़ सकती है. जिन घरों में बुज़ुर्ग और बीमार हैं उनकी सुरक्षा बहुत ज़रूरी है. उन्हें घर के एकान्त में रखने की सलाह दी गई है. दिलों की नहीं, शरीरों की दूरी अवश्य रखी जाए. सघन आबादी वाले अपने देश में यही बड़ी समस्या है और चिंता का कारण भी.     
इस नामुराद वायरस ने दुनिया में हाला-डोला ला दिया है. जिन देशों को हम बहुत विकसित और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में आदर्श मानते थे, कोरोना  के सामने उनकी लाचारी दिख रही है तो हमारे लिए इसका मुकाबला करना निश्चय ही बड़ी चुनौती है. भय नहीं, जागरूकता और सतर्कता ही एकमात्र उपाय हैं. कोशिश यही हो संक्रमण एक से दूसरे में न फैले. ऐसी किसी भी सम्भावना को दूर रखना होगा. लोग डर रहे हैं या इसकी उपेक्षा कर रहे हैं. दोनों ही खतरनाक हैं.  
हमारे यहां जनता को वास्तविकता समझाना कठिन होता है. इस नासमझीके कारण भी कम नहीं. बहुत बड़ी आबादी है जो रोज कुआं खोदकर पानी पीने को मजबूर है. वह बाहर नहीं निकलेगी तो एक जून की रोटी भी कैसे खाएगी? ऐसे लोग स्वयं खतरे में हैं और खतरा बढ़ाने वाले भी. इसका क्या उपाय हो? मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने दिहाड़ी श्रमिकों के लिए एक निश्चित राशि उनके बैंक खातों में डालने की बात कही है. यह बड़ी सहायता साबित हो सकती है लेकिन इसके कार्यांन्वयन में बहुत-सी व्यावहारिक समस्याएं हैं.
एक तरफ ऐसी जरूरी चिंताएं हैं तो दूसरी तरफ इस महामारी का फायदा उठाने वाले लोलुप लोगों की करतूतें भी सामने आ रही हैं. बिना लाइसेंस तुरत-फुरत सेनेटाइजर बनाकर बेचने वाले पकड़े गए हैं तो दाम से कई गुणा धन लेकर मास्क बेचने के बहुत सारे प्रकरण खुल रहे हैं. इस संकटपूर्ण समय को भुनाकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की यह लोलुपता देख-सुनकर हैरत होती है. खुद अपनी जान का भरोसा नहीं लेकिन जनता को लूटने का कोई मौका नहीं छोड़ने वालों को क्या कहा जाए!
यह महामारी अंतत: क्या और कितना नुकसान करेगी, यह तो पता नहीं लेकिन कुछ सीख अभी से दे रही है. अपवादों की बात अलग है लेकिन सरकारी अस्पतालों के उन डॉक्टरों और अन्य स्टाफ की सराहना करना सीखिए जिनको अनेक बार बेवजह गरियाया और पीटा जाता है लेकिन जो इस संकट की घड़ी में जान जोखिम में डालकर जुटे हैं. उन समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी तालियां बजाइए जो आम जनता को इस वायरस के प्रति सचेत करने के लिए बस्ती-बस्ती घूम रहे हैं, साबुन, सेनेटाइजर और मास्क बांट रहे हैं. यह संकट हमें अपना घरेलू काम स्वयं करने की पुरानी आदत वापस लाना भी सिखा रहा है. मध्य वर्ग की नई पीढ़ी को विशेष रूप से यह अवश्य सीखना चाहिए कि अपने घरेलू काम खुद करने से तौहीन नहीं होती और न यह सिर्फ महिलाओं की ज़िम्मेदारी है.
तो, डरिए नहीं, पूरी सावधानी बरतिए. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 मार्च, 2020)  
 




Friday, March 13, 2020

एक वायरस से भयभीत विश्व की कैसी नियति?

क्या यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं लगता कि चमत्कार तक सम्भव कर देने वाले इस वैज्ञानिक युग में हम एक वायरस से इस कदर भयभीत हो रहे हैं? यह कोई नया वायरस नहीं है जिसने अचानक इस दुनिया पर हमला कर दिया हो. मानव जीवन से भी पुराने करोड़ों-अरबों जीवाणुओं और वायरसों की इस सृष्टि में किसी एक वायरस ने ही रूप बदल कर अपने को इतना खतरनाक बना लिया है कि उसके सामने आदमी की समस्त वैज्ञानिक प्रगति पानी भरने लगी है.

कोरोना की सही-सही पहचान और बचाव का टीका खोजने में वक्त लगेगा. अरबों-खरबों डॉलर के व्यवसाय वाले दवा उद्योग के लिए यह अपार मुनाफे की नई सम्भावना बनेगा, जैसा कि हमेशा से होता आया है. जो नई दवाएं आएंगी वह प्रकृति का संतुलन और बिगाड़ेंगी. जीवाणुओं और वायरसों को मारने-दबाने की दवाएं खोजते-बनाते और उनका अंधाधुंध उपयोग करते हुए ही हम आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं कि ज़्यादातर एंटीबायोटिक और वैक्सीन अपना असर खो रहे हैं. जीवाणु उनसे बचने का रास्ता खोज चुके हैं और वायरस बार-बार रूप बदल कर सामने आ रहे हैं.

विकास के आधुनिक स्वरूप में मनुष्य ने इस सृष्टि को सिर्फ अपनी बपौती माना है और बेशुमार जीवाणुओं, परजीवियों और वायरसों को शत्रु मानकर उनका संहार करना जारी रखा है, जो कि इस सम्पूर्ण प्रकृति के अस्तित्त्व का अनिवार्य अंग रहे हैं और कई रूपों में मानव के सहायक भी हैं. जैसे-जैसे मानव प्रकृति से अपना तादात्म्य खत्म करता गया, वैसे-वैसे उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती गई और वह नए-नए रोगों से ग्रसित होता गया. विकासके हमारे ढांचे ने और विकसितजीवन पद्धति ने प्रकृति के सूक्ष्म संसार को नष्ट क़िया है. उसी का नतीजा हम भुगत रहे हैं.

अत्यधिक स्वच्छता का व्यापारिक आग्रह किस तरह मनुष्य के शरीर और आस-पास व्याप्त हितकारी जीवाणुओं को नष्ट करता आया है उसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा-यमुना का पानी है. यह विज्ञान-सिद्ध तथ्य है कि इन नदियों का पानी कभी हैजे के जीवाणुओं तक को निष्प्रभावी करने की क्षमता रखता था. आज वह यह गुण खो चुका है क्योंकि हमने उसमें बेहिसाब मैला और जीवाणु नाशक घोल दिए हैं.
(
आज कोरोना वायरस से पूरा विश्व त्रस्त है तो उसमें हमारी ही हाथ है. कई देशों ने अपने को बाहरी दुनिया के लिए बंदकर दिया है. कुछ अपने में ही कैद हो गए हैं. ज़्यादातर कार्य-व्यापार बंद हो रहे हैं. आर्थिक मंदी से परेशान कई देश अब कोरोना-जनित मंदी झेलने को अभिशप्त हैं. बचाव का एक ही तरीका बताया जा रहा है कि अधिक से अधिक समय घर के भीतर रहिए, भीड़-भाड़ से बचिए, हाथ से मुंह मत छुएं और घड़ी-घड़ी हाथ धोएं.

जैसा बताया जा रहा है, वैसी सावधानियां बरतिए लेकिन यह भी गौर कीजिए कि सैनीटाइजर और कीटनाशक साबुनों के अत्यधिक प्रयोग से हम अपनी त्वचा के रक्षक जीवाणुओं को भी नष्ट कर रहे हैं और उसे नदियों तक पहुंचा कर पानी का प्राकृतिक गुण भी मार रहे हैं. बेहिसाब मुनाफा कमाती दवा, सौंदर्य-प्रसाधन और साबुन-सैनीटाइजर कम्पनियों के चकाचौंधी एवं डरावने प्रचार के हम गुलाम बने हुए हैं. 

कोरोना से यह दुनिया नष्ट नहीं होने वाली. मनुष्य इससे बचने की राह भी खोज लेगा या वायरस ही अपना नया रूप धरकर कुछ समय के लिए शांत हो जाएगा. जीवन की यह जो रीत हमें सिखा दे गई है और जिससे छुटकारा दिखता नहीं, उसमें तय है कि कोरोना जैसा कुछ न कुछ हमें सताने आता रहेगा. प्रकृति की ओर नहीं लौटेंगे तो और भी डरावने हालात झेलने होंगे.  

(सिटी तमाशा, 14 मार्च, 2020)

Sunday, March 08, 2020

‘नमस्ते’ माने पुलिस पीड़ित जनता के साथ है?


नमस्ते’- लोहिया पार्क के बाहर चार-पांच पुलिस वालों ने एक बुज़ुर्ग के सामने हाथ जोड़े. बुज़ुर्ग चौंकने से ज़्यादा डर गए. पुलिस की वर्दी भय पैदा करती है. मां-बाप बच्चों को पुलिस का नाम लेकर डराते हैं. बचपन में एक रिश्तेदार ने मंदिर के सामने सिखाया था- बेटा, भगवान से और चाहे कुछ मांगो या न मांगो, इतना ज़रूर मांगना कि पुलिस और वकील का सामना कभी न करना पड़े.बहरहाल, बुज़ुर्गवार का डर जाता रहा जब पुलिस वालों ने हाथ जोड़कर कहा कि कोई भी परेशानी हो तो बताएं, लखनऊ पुलिस आपकी हिफाजत के लिए है.

लखनऊ पुलिस ने जनता का भरोसा जीतने और अपनी छवि सुधारने के लिए नमस्ते, लखनऊअभियान शुरू किया है. कुछ खास जगहों पर सुबह–शाम खड़े होकर पुलिस वाले नागरिकों को नमस्ते कर रहे हैं और उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सुरक्षा एवं सहायता का आश्वासन दे रहे हैं. पुलिस पेट्रोल टीम से ऐसा करने के लिए ऊपर से कहा गया है. कुछ स्थानों पर वे ईमानदारी से आदेश का पालन कर रहे हैं. कहीं उसका मजाक बना रहे हैं और किसी चिह्नित जगह पर नमस्तेकहने जा ही नहीं रहे.

जब से लखनऊ जिले में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू हुई है, पुलिस की छवि की धुलाई-पुताई की कोशिश चल रही है. नमस्ते लखनऊ उसी अभियान का हिस्सा है. प्रयास की सराहना की जानी चाहिए. कम से कम सोचा तो गया कि पुलिस जनता का भरोसा जीते. जिस दिन पुलिस पर जनता मन से भरोसा करने लगेगी, कानून-व्यवस्था और अपराध-नियंत्रण की बहुत सी समस्याएं हल हो जाएंगी.

वैसे, यह कोई नई पहल नहीं है. प्रत्येक नया पुलिस मुखिया अपने कार्यकाल की शुरुआत किसी न किसी प्रयोग से करता है. मित्र पुलिसका नारा ऐसा ही अभियान था लेकिन जनता पुलिस को अपना मित्र मान पाई क्या? उसके तमाम काम ऐसे होते हैं जो मित्रका अर्थ ही उलट देते हैं.  
नमस्तेसे गदगद हुए बुजुर्ग की गाड़ी का थोड़ी देर बाद इसलिए चालान कर दिया जाए कि वे सड़क किनारे ठेले वाले से फल खरीदने रुक गए थे या पंक्चर बनवाने लगे थे तो? यह छुपी बात नहीं है कि फल और पंक्चर वाले से पुलिस हर महीने कम से कम दो-दो हजार रू वसूलती है. यह तो खैर बड़ी मामूलीबात हुई, वही बुज़ुर्ग जब अपने या बेटे के पासपोर्ट वास्ते अटके पुलिस सत्यापन के बारे में तहकीकात करने थाने जाते हैं तो उनसे कैसा सलूक किया जाता है? सत्यापन के लिए क्या-क्या करना पड़ता है? किसी अपराध की सही-सही एफआईआर लिखवाना और उस पर कार्रवाई सुनिश्चित कराना आम जनता के लिए कैसा अनुभव होता है?

नमस्तेकरना जितना आसान और खेल सरीखा है, क्या पुलिस के लिए उतना ही आसान दबंगों और राजनैतिक प्रभाव वालों का दबाव झटक कर आम जनता की मदद कर पाना है? अगर पुलिस राजनैतिक रसूख वाले किसी अपराधी के सताए सीधे-सरल इनसान के साथ खड़ी नहीं हो सकती तो नमस्तेकरने से कैसे जनता का विश्वास जीत लेगी? हाथ जोड़ने और साथ देने में बड़ा फर्क है. जनता में आम धारणा यही है कि पुलिस राजनेताओं के इशारे पर चलती है और अपराधियों से मिली रहती है. यह धारणा ऐसे ही नहीं बनी. बहुत सारे मामले इसकी पुष्टि करते हैं.

पुलिस को निश्चय ही जनता का भरोसा जीतना चाहिए. इसके लिए उसे अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना होगा और राजनैतिक दबाव से मुक्त होना होगा. ऐसा हो सके तो जनता खुद उसे नमस्तेकहने आगे आएगी. 

(सिटी तमाशा, 07 मार्च, 2020)