Thursday, August 03, 2023

विनाशकारी परिणामों वाला वन अधिनियम संशोधन विधेयक

(पिछली पोस्ट में Indian Express में प्रकाशित रवि चेल्लम के लेख की चर्चा की थी। इस महत्त्वपूर्ण लेख का हिंदी अनुवाद https://nainitalsamachar.org ने प्रकाशित किया है। उसे यहां साभार दिया जा रहा है। अनुवाद किया है- उमेश तिवारी 'विश्वास' ने। इस बीच वन अधिनियम (संरक्षन एवं संवर्द्धन) संशोधन विधेयक राज्य सभा में भी पारित हो गया है। दोनों सदनों में इस विवादास्पद विधेयक कोई बहस नहीं हुई। राष्ट्रपति की सहमति मिलते ही यह कानून बन जाएगा और वनों की सरकारी एवं कॉरपोरेटी लूट का रास्ता खुल जाएगा। अत्यंत चिंताजनक है यह।)

भारत की मात्र 21 प्रतिशत भूमि वन क्षेत्र है और इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि केवल 12.37 प्रतिशत भूमि ही प्राकृतिक वनों से आच्छादित है। हमें 33 प्रतिशत वन आवरण के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना होगा।

हालिया वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन से भारत के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के नष्ट होने का खतरा है।
लगभग 1970 के दशक की शुरुआत से, सामूहिक रूप से मानव जनित पर्यावरणीय क्षति और हमारे जीवन पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का एहसास बढ़ा है। उदाहरण के लिए, जंगल की आग की बढ़ती घटनाएं, तीव्र गर्मी के लंबे स्पैल, अत्यधिक वर्षा की घटनाएं, शक्तिशाली और बार- बार आते चक्रवात, जैव विविधता का बड़े पैमाने पर नुकसान, पारिस्थितिक तंत्र का विघटन और कई बार इन सब की सम्मिलित विभीषिका ने अरबों लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। असमय मृत्यु, बीमारियों की बढ़ती घटनाएं, बुनियादी ढांचे का विनाश, मिट्टी की उर्वरता में गिरावट, हवा और पानी की घटती गुणवत्ता उन प्रभावों के कुछ उदाहरण हैं जिन्हें हम आज भुगत रहे हैं। इस चुनौती का चरणबद्ध रूप से सामना करने के प्रयासों  के तहत, वैश्विक स्तर पर, दर्जनों बहुपक्षीय पर्यावरण समझौते किए गए हैं।  कई देशों, विशेषकर भारत ने पर्यावरण की रक्षा और उसकी बहाली के लिए मजबूत नीतियां और कानून बनाए हैं।
इसी संदर्भ में, मैं सरकार के वन संरक्षण संशोधन विधेयक, 2023 को लेकर बेहद चिंतित हूं, जिसे इस सप्ताह की शुरुआत में लोकसभा में पारित किया गया।  भारत की केवल 21 प्रतिशत भूमि वन क्षेत्र है और इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि केवल 12.37 प्रतिशत में ही प्राकृतिक वन बरकरार हैं। हमें 33 प्रतिशत वन आवरण के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है।  इसके अतिरिक्त, देश के सबसे अधिक जैव विविधता वाले हिस्से, पूर्वोत्तर राज्यों के वन क्षेत्र में  2009 से 2019 के बीच 3,199 वर्ग किमी की शुद्ध गिरावट देखी गई है। वन क्षेत्र में जहां मामूली  वृद्धि हुई भी है, उसका बड़ा भाग वाणिज्यिक वृक्षारोपण और शहरी पार्कों के रूप में मिलेगा जिसकी उपादेयता शेष बच गए प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के मुकाबले नगण्य ही कही जाएगी।
वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के साथ-साथ टी एन गोडावर्मन बनाम भारत संघ (1996) के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया है।  आज आवश्यकता बेहतर और अधिक प्रभावी कार्यान्वयन की है।  जो चीज़ ख़राब ही नहीं, उसे ठीक करने का प्रयास क्यों करना ?  खासकर तब, जब इस कानूनी ढांचे ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है।
मेरी बड़ी चिंताओं में: वन क्षेत्रों का पुनर्वर्गीकरण, सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा उद्देश्यों के बहाने परियोजनाओं के लिए छूट,  चिड़ियाघरों, सफ़ारी पार्कों और पारिस्थितिक पर्यटन गतिविधियों के लिए छूट और स्थानीय समुदायों को अशक्त बनाना शामिल हैं।
मैं संक्षेप में इसे यूं समझाऊंगा कि वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) केवल  25 अक्टूबर 1980 को या उसके बाद  सरकारी रिकॉर्ड में “जंगल” के रूप में दर्ज क्षेत्रों पर लागू होगा। मुझे डर है कि यह संशोधन टी एन गोडावर्मन केस में सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले को अमान्य कर देगा जिसमें न्यायालय ने जंगल की व्याख्या इसकी व्यापक शब्दकोशीय परिभाषा के आधार पर की है, सभी जंगलों को एफसीए के दायरे रखा है और इसे केवल आधिकारिक तौर पर घोषित इलाकों तक सीमित नहीं किया है।  यदि इन क्षेत्रों को अवर्गीकृत किया जाता है, तो परिणामस्वरूप हजारों वर्ग किमी जंगलों की कानूनी सुरक्षा समाप्त हो जायेगी। इससे संभावित बड़ी आपदा का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि हमारे वनों का 1,97,159 वर्ग किमी हिस्सा रिकॉर्डेड (घोषित) वन क्षेत्रों के बाहर है। जिसका अर्थ है कि हमारे 7,13,789 वर्ग किमी के कुल वन क्षेत्र का 27.62 प्रतिशत हिस्से के कानूनी संरक्षण खो बैठने का खतरा है।
पारित संशोधन में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी के भीतर सुरक्षा से जुड़े बुनियादी ढांचे के निर्माण हेतु वन संबंधी अनापत्ति की आवश्यकता को खत्म करने का प्रस्ताव है। ये क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों में से कुछ के अधिवास हैं; इनमें पूर्वोत्तर के जंगल, लद्दाख और स्पीति के उच्च स्थलीय  रेगिस्तान, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अल्पाइन वन, घास के मैदान और पश्चिम का उष्ण कटिबंधीय झाड़ियों वाला भूभाग और रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र शामिल हैं। सैन्य सुरक्षा के बरक्स पारिस्थितिक सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिससे हमारे नागरिकों की भलाई जुड़ी हुई है। अतएव, फास्ट-ट्रैकिंग की आवश्यकता के बावजूद पर्यावरणीय मूल्यांकन तथा  सुविज्ञ और संतुलित निर्णय लेने की गुंजाइश बची रहनी चाहिए।
हमारा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते अप्रत्याशित मौसम पैटर्न के खिलाफ बफरिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।  प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के नुकसान के फलस्वरूप अधिक मानव विस्थापन होगा और आंतरिक सुरक्षा के जोखिम बढ़ जाएंगे।
चिड़ियाघर या सफ़ारी पार्क को जंगल नहीं कहा जा सकता। प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र जटिल कार्यशील इकाइयाँ हैं और एक बार नष्ट हो जाने पर, उन्हें पुनर्स्थापित करना बहुत मुश्किल होता है।  विज्ञान अभी भी यह समझने की कोशिश कर रहा है कि ये कैसे कार्य करते हैं।  चिड़ियाघर और सफारी पार्क मनुष्यों द्वारा सृजित स्थिति में संरक्षण, शिक्षा और मनोरंजन के उद्देश्यों से बनाए गए हैं।  इन्हें बनाने की संस्तुति देकर प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट करना सर्वथा अनुचित है।  इसके बजाय, हमें वनाच्छादित स्थलों से दूर विज्ञान-आधारित और विश्व स्तरीय संरक्षण केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य रखना चाहिए। पर्यावरण-पर्यटन से रोजगार पैदा करना एक महत्वपूर्ण पूरक गतिविधि हो सकती है परंतु इसे संस्तुति/मंजूरी से छूट देना सही नहीं है, क्योंकि यह इंगित करता है कि पर्यटन को प्रकृति पर प्राथमिकता मिलेगी।  कई मामलों में, इकोटूरिज्म परियोजनाओं के चलते बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ है, जिसने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
केंद्र सरकार को “किसी भी अन्य उद्देश्य” के लिए मंजूरी लेने से छूट देने वाले प्रावधान के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि इससे वन भूमि पर कई अनपेक्षित गतिविधियों का द्वार खुल सकता है, जिनके लिए अब अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी।
इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाओं को मंजूरी प्रक्रिया से छूट देने का मतलब यह होगा कि अधिकांश पर वनवासियों से पूछा तक नहीं जाएगा। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण औजार था जिससे वनवासियों द्वारा अपना पक्ष रखने का अधिकार सुनिश्चित होता है। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वनाधिकार मान्यता) अधिनियम 2006 ने  ग्राम सभाओं के माध्यम से स्थानीय समुदायों की स्वतंत्र एवम सुविज्ञता से बनी सहमति और पूर्वानुमति को अनिवार्य बनाया है – एक अधिकार जिसे उन्होंने वर्षों के संघर्ष के बाद हासिल किया है।  एफसीए में प्रस्तावित यह संशोधन विधेयक संभवतः जनजातीय समूहों और अन्य वन वासियों के अधिकारों पर कुठाराघात करेगा।
अंततः, बिल की प्रस्तावना में जिन सराहनीय लक्ष्यों और उद्देश्यों की बात की गई है, प्रस्तावित संशोधन उनसे मेल नहीं खाते। इससे इस संशोधन की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। एफसीए के भौगोलिक दायरे को असामान्य रूप से घटा कर, छूट की श्रेणी में आने वाली परियोजनाओं के प्रकारों/संख्या को बढ़ाकर और स्थानीय समुदायों की भूमिका को निर्णय लेने में अत्यधिक सीमित करके, अधिनियम अपने उद्देश्यों की दिशा में आगे जाने के बजाय एक कदम पीछे जाता है, जिसे हर कीमत पर टाला जाना चाहिए।