Friday, December 27, 2019

लोकतांत्रिक मर्यादा रखना भी प्रशासन का दायित्व है

भारतीय समाज कठिन दौर से गुज़र रहा है. कठिन इस मामले में कि राजनैतिक-सामाजिक विचारों का जो द्वंद्व हमेशा सतह के नीचे रहता था, वह उग्र रूप में सतह के ऊपर निकल आया है. वैचारिक आलोड़न-विलोड़न में क्या दिक्कत थी यदि वह समाज के हिंसक विभाजन तक न पहुंचा होता. विचारों की विभिन्नता व्यक्तिगत-राजनैतिक द्वेष से भी आगे निकली जा रही है. वोटों की रोटी चूंकि इसी आग में सेंकी जा रही है, इसलिए वह शांत होने की बजाय उग्रतर हो रही है.

नागरिकता संशोधन कानून और नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति हिंसक और जवाबी दमन में होने लगना बहुत चिंताजनक है. शासन का दायित्व है कि वह हिंसा को रोके और हिंसा करने-भड़काने वालों से कानूनन सख्ती से निपटे. इसी में उसका यह गुरुतर दायित्व भी निहित है कि कोई भी निर्दोष उत्पीड़ित न हो, शासन-प्रशासन की कार्रवाई में तो कतई ऐसा नहीं होना चाहिए. शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को होने देना भी उसकी ज़िम्मेदारी है.

हाल के विरोध–प्रदर्शनों, जिनमें दुर्भाग्य से बड़ी हिंसा भी हुई, के बाद शांति एवं सद्भाव के लिए सक्रिय लोगों के खिलाफ भी प्रशासनिक और पुलिसिया कार्रवाई किए जाने की खबरें मिल रही हैं. ऐसे आरोप भी बहुत लग रहे हैं कि पुलिस बदले की भावना से काम कर रही है. लखनऊ ही का उदाहरण लें तो कुछ मामले चिंता में डालने वाले हैं और पुलिस की भूमिका पर गम्भीर सवाल उठाते हैं.

पूर्व आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर को उपद्रव भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा जाना अफसोसनाक है. और भी होंगे लेकिन कम से कम ये दो नाम ऐसे हैं जिन्हें समाज में शांति, सद्भाव और रचनात्मक जागरूकता का काम करने के लिए जाना जाता है. कोई नहीं मानेगा कि वे हिंसा भड़का रहे थे. बल्कि, हर अशांति के समय ये अमन कायम करने के लिए आगे आते रहे हैं. विभिन्न क्षेत्रों से इनकी रिहाई की लगातार अपीलें भी इसीलिए हो रही हैं.

चूंकि प्रदर्शनकारियों का सबसे पहला सामना पुलिस से होता है, इसलिए वही सत्ता के प्रतीक रूप मे सामने आती है. इसी कारण कई बार वह गुस्से और हिंसा की चपेट में आती है. उपद्रवी जानबूझकर पुलिस पर हमला करके शांति भंग करते हैं. उनकी पहचान और पकड़ जरूरी है. लेकिन इसके जवाब में  पुलिस बदले की भावना से काम करेगी तो निर्दोष ही मारे जाएंगे, जैसा कि अक्सर होता है. सुरक्षा बलों को धैर्य और संयम की परीक्षा देनी ही होती है. उनका बर्बर हो जाना खतरनाक है.
ध्यान रहे कि कल का विपक्ष आज सत्ता में है तो कल फिर वह विपक्ष में होगा. तब क्या उसे लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन के अधिकार की आवश्यकता नहीं होगी? यही पुलिसिया दमन तब उसके हिस्से आएगा, तो? राजनैतिक दमन के लिए पुलिस और कानून का इस्तेमाल कितना खतरनाक होता है, हम पहले देख चुके हैं.

हिंसा फैलाने वालों से सख्ती से निपटने के निर्देशों का अर्थ यह हरगिज नहीं होना चाहिए कि पुलिस को मनमानी करने या शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त करने वालों के दमन की छूट दे दी गई है. हिंसा न हो, यह देखना उसका दायित्व अवश्य है. इसके लिए उसके पास पर्याप्त अधिकार और कानूनी आधार हैं. इसकी आड़ में शांतिपूर्ण विरोध भी व्यक्त करने न देना, महिलाओं-बच्चों तक को पीट देना, गिरफ्तार कर लेना, धमकाना और तरह-तरह से आतंकित करना जारी रहेगा तो इसके विरोध में आवाज़ें उठनी चाहिए. ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा, जबकि इसके लिए संविधान उसे संरक्षण और स्वतंत्रता देता है.


समाज को यह आश्वस्ति सरकार से मिलनी ही चाहिए कि उसके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षित एवं सम्मानित हैं. 


(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 दिसम्बर, 2019)

Thursday, December 26, 2019

एनपीआर : नीयत पर शक विरोध का बड़ा कारण है


नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी (नागरिकता रजिस्टर) पर विरोध की आक्रामता कम हुई है, उसकी व्यापकता नहीं. प्रधानमंत्री मोदी के बाद अमित शाह ने भी कह दिया कि एनसीआर के बारे में सरकार ने अभी कोई विचार नहीं किया है. कुछ और मंत्रियों ने भी जनता के बड़े वर्ग की आशंका को कम करने के लिए बयान दिए हैं लेकिन न आशंकाएं कम हो रही हैं, न विरोध.
कारण बहुत साफ है. जनता के बड़े वर्ग में मोदी सरकार के प्रति विश्वास की कमी है. मूलत: संविधान-प्रदत्त मूल्यों और भारत की बहुलतावादी परम्परा में विश्वास रखने वाले इस वर्ग के लिए भाजपा सरकार की कथनी और करनी में बड़े भेद हैं.
प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान में बहुत जोर देकर कहा कि एनआरसी शुरू करने की बात सरासर झूठ है. उसके 24 घंटे के भीतर ही केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) तैयार करने के फैसले को न केवल मंजूरी दे दी बल्कि उसके लिए 85 खरब रु का भारी भरकम बजट भी तय कर दिया. एनपीआर ने नई आशंकाओं को जन्म दे दिया. कहा जा रहा है कि एनपीआर के माध्यम से एनआरसी लागू करने की तैयारी की जा रही है.
सामान्यत: एनपीआर के फैसले पर कोई विरोध नहीं होना चाहिए था. इस देश के सभी निवासियों (तकनीकी रूप से नागरिकों का ही नहीं) का एक रजिस्टर तैयार करने का यह विचार पहली बार यूपीए सरकार लाई थी. 2009 में इसे तैयार करने का अभियान चला था. बाद में यूपीए ने इस योजना को आगे नहीं बढ़ाया. इसी की जगह फिर आधार नम्बर योजना लागू की गई. सभी सरकारी योजनाओं की पात्रता के लिए आधार आज अनिवार्य कर दिया गया है. यह अलग बात है कि आधार में दर्ज़ सूचनाओं के लीक होने से जनता की निजता के भंग होने की विवाद कायम है.   
मोदी सरकार बार-बार यही दोहरा रही है कि एनपीआर यूपीए ने शुरू किया था और इसका एनआरसी लागू करने से कोई सम्बंध नहीं है. यह भी कि यह प्रक्रिया जनगणना का हिस्सा है. लेकिन मोदी सरकार की इस सफाई पर सहसा विश्वास नहीं किया जा रहा. सीएए-एनआरसी विरोधी जनता के बड़े वर्ग को लगता है कि सरकार एनपीआर की आड़ में एनआरसी ही लागू करने की तैयारी में है. कारण वही अविश्वास, जो गहरा है और इसके पर्याप्त कारण हैं.
पहली बात तो यह कि मोदी सरकार ने सन्‍ 2020 सेजो एनपीआर तैयार करने का जो फैसला लिया है, वह यूपीए सरकार के एनपीआर से फर्क है. मोदी सरकार एनपीआर में देश के निवासियों के माता-पिता की जन्म तिथि और जन्म-स्थान, पुराने निवास का स्थान, आधार नम्बर, ड्राइविंग लाइसेंस नम्बर, मतदाता पहचान संख्या और मोबाइल नम्बर समेत 14 प्रकार की व्यक्तिगत सूचनाएं दर्ज़ करवा रही है. सीएए-एनसीआर से आशंकित जनता में इस फैसले से नया डर पैदा हुआ है. स्वाभाविक सवाल है कि इन जनसंख्या रजिस्टर के लिए इतनी निजी सूचनाओं की क्या आवश्यकता है? इसका उद्देश्य क्या है? सरकारी योजनाओं और पहचान की सामान्य जानकारी के लिए जब आधार अनिवार्य है तो उसी के नाम पर एनपीआर को क्यों जरूरी बताया जा रहा है? संदेह पुन: इस बहाने एनआरसी लागू करने के इरादे की तरफ जाता है.
यही नहीं, मोदी सरकार के दस्तावेज़ों में भी ऐसे तथ्य दर्ज़ हैं जो उसके एनपीआर को एनआरसी से सम्बद्ध बता रहे हैं. देश के महानिबंधक और जनगणना आयुक्त के प्रपत्र में साफ लिखा गया है कि नागरिकता सम्बंधी कानूनों के प्रावधानों के वास्ते एनआरसी लागू करने की दिशा में एनपीआर पहला कदम है. उधर मोदी सरकार के कई मंत्री और स्वयं गृह मंत्री कह रहे हैं कि दोनों में कोई सम्बंध नहीं है. अमित शाह कई बार सार्वजनिक रूप से भी कह चुके हैं कि उनकी सरकार देश भर में एनआरसी लागू करेगी और घुसपैठियों को बाहर करके रहेगी. कुछ समय पहले उन्होंने ट्वीट करके भी इसका ऐलान किया था. पिछले दिनों यह ट्वीट हटा दिया गया लेकिन शाह की घोषणाओं के वीडियो क्लिप सोशल साइट पर वाइरल हैं.
मोदी सरकार ने एनपीआर के बारे में आशंकाओं का निराकरण करने के मकसद से कहा है कि गणना करने वाले कर्मचारी एनपीआरके लिए किसी दस्तावेज़ की मांग नहीं करेंगे, बल्कि जो जानकारी जनता उन्हें बताएगी उसे दर्ज़ कर लेंगे. सवाल है कि यदि बहुत सारे लोग, मसलन अपने माता-पिता की जन्म-तिथि और जन्म स्थान सही नहीं बता सके तो? बाद में यह तथ्य पकड़ा गया तो उन्हें कानूनों के प्रावधान के पचड़े में फंसना पड़ जाएगा. किसी की नागरिकता का मुद्दा फंसा तो दस्तावेज़ देने ही पड़ेंगे. गलत या अप्राप्त सूचनाओं के कारण उसकी नागरिकता संदेह के घेरे में आ जाएगी.
देश में बन रहे डिटेंशन सेंटरों (बंदी गृहों) के बारे में सरकार के बयान भी विरोधाभासी हैं. मोदी और शाह कह रहे हैं कि उन्हें नहीं पता कि डिटेंशन सेण्टर कहां बन रहे हैं जबकि संसद से लेकर कोर्ट तक में सरकार की ओर से ऐसे बंदी गृह बनाने की बात मानी गई है. केंद्रीय गृह सचिव ने भी राज्यों को पत्र लिखा था कि वे डिटेंशन सेण्टर बनाने की तैयारी करें.
कुल मिलाकर बात सरकार की नीयत पर संदेह की है. नागरिकता कानून बनाकर सरकार ने जता दिया है कि वह तीन देशों के उत्पीड़ित गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देना तय करके उत्पीड़ित मुसलमानों को अलग श्रेणी में रख रही है. कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना भी मुस्लिम-विरोधी एजेण्डे के रूप में देखा गया है. इसलिए एक बड़े वर्ग को लगता है कि मोदी सरकार भारी संसदीय बहुमत का दुरुपयोग करके आरएसएस के हिंदू-राष्ट्र के एजेण्डा की तरफ बढ़ रही है.
सराकर की नीयत पर शक के यही कारण हैं. नागरिकता कानून में संशोधन और एनपीआर-एनआरसी पर संदेह और विरोध के स्वर इसीलिए शांत नहीं हो रहे.    

https://www.yoyocial.news/yoyo-in-depth/taja-tareen/doubt-or-intension-is-also-a-major-reason-for-protest

Wednesday, December 25, 2019

छोटा सहयोगी ही रहेगी कांग्रेस?



कांग्रेस खुश हो सकती है कि एक और राज्य,  झारखण्ड की सत्ता से भाजपा अपदस्थ हो गई और इसमें उसका भी हाथ रहा. इससे पहले महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की महायुतिको पूर्ण बहुमत मिलने के बावज़ूद यह गठबंधन टूटा और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. वहां भी कांग्रेस सरकार में भागीदार बनी है. पिछले डेढ़-पौने दो साल में मध्य भारत के पांच राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथ से निकल गई है. जम्मू-कश्मीर छठा राज्य मान सकते हैं, जहां सत्ता में उसकी भागीदारी जाती रही हालांकि वहां की स्थितियां अब बिल्कुल फर्क हैं. हरियाणा भी कांग्रेस के लिए थोड़ी खुशी लाया था, जहां उसने काफी अच्छा प्रदर्शन किया, हालांकि भाजपा सत्ता पर काबिज़ होने में कामयाब रही.


झारखण्ड में भाजपा को हराने का जश्न कांग्रेसियों ने इस तरह मनाया जैसे इस विजय के मुख्य नायक वे ही हों, जबकि सच यह है कि झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन में वह दूसरे नम्बर की अपेक्षाकृत छोटी हिस्सेदार है. महाराष्ट्र में वह शिव सेना और एनसीपी के बाद तीसरे नम्बर की सहयोगी है. कर्नाटक में वह बड़ा दल होने के बावज़ूद जनता दल (एस) के साथ छोटे पार्टनर की भूमिका में आई लेकिन अंतत: भाजपा ने उसकी यह खुशी ज़्यादा दिन नहीं रहने दी थी.

तो, क्या दशकों तक केंद्र और राज्यों में एकछत्र राज करने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी अब अपने अस्तित्व के लिए क्षेत्रीय दलों की आड़ लेने को विवश है? यह आज के राजनैतिक हालात का उसका स्वीकार या भविष्य की राह तलाशने की रणनीति?

यह निश्चित है कि कांग्रेस को अपनी सम्मानजनक जगह पाने के लिए सीधे भाजपा से टकराना और उसे पराजित करना होगा. सन 2014 के बाद से वह भाजपा के हाथों चुनाव मैदान ही में नहीं, राजनैतिक दाँव-पेचों में भी पिटती रही है. कुछ राज्यों में सबसे बड़ा विधायक दल होने के बावज़ूद भाजपा उसके मुंह से सत्ता का निवाला छीन ले गई. कहीं भाजपा ने सीधे उसके विधायकों को अपने पाले में करके मैदान मारा. पिछले छह साल का अनुभव बताता है कि कांग्रेस न मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला चुनाव मैदान में कर पा रही है, न ही जोड़-तोड़ और सांगठनिक रणनीति में.
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की विजय अवश्य एक अपवाद की तरह रही. इनमें भी पहले दो राज्यों में भाजपा से वह बमुश्किल जीत पाई थी और अब तक भाजपा की जोड़-तोड़ वाली राजनीति से आशंकित रहती है. अरुणाचल और उत्तराखण्ड में भाजपा रचित भितरघाती चालें उसकी आशंकाओं का कारण बनी रहीं.

राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना हमारी चुनावी राजनीति में नई बात नहीं. स्वयं कांग्रेस ने कई बार कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों से तालमेल कर सरकारें चलाई हैं. हाल के वर्षों में भाजपा ने क्षेत्रीय दलों से मेल-बेमेल तालमेल किए. बिहार में जद (यू) से लेकर कश्मीर में पीडीपी जैसे कट्टर विरोधी दलों तक से उसने गलबहियां कीं. बिहार में वह अब तक दूसरे नम्बर की सहयोगी के रूप में गठबंधन निभा रही है. अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए भाजपा को पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी ऐसा करना पड़ा है लेकिन उसके पास केंद्र की सत्ता में होने की बड़ी ताकत है.

कांग्रेस के सामने अपनी पहचान बनाने का कोई संकट नहीं रहा. आज बड़े भू-भाग में सत्ताच्युत होने के बाद भी वह सब जगह सुपरिचित है. तब भी आज उसे अपने अस्तित्व के लिए छोटे क्षेत्रीय दलों या अपने से ही छिटक कर अलग हुए क्षत्रपों का जूनियर पार्टनर बनना पड़ रहा है. शायद यह नई रणनीति है.

महाराष्ट्र में शिव सेना-एनसीपी के साथ सरकार बनाने के प्रस्ताव पर उसका असमंजस स्पष्ट रूप से सामने आया था. सोनिया गांधी को यह फैसला करने में बहुत वक्त लगा. शरद पवार के कई प्रयास के बाद ही वे राजी हुईं. कांग्रेस के लिए दो कारणों से यह कड़वा घूंट था. एक तो भाजपा से भी कट्टर हिंदू पार्टी शिव सेना का साथ देना और दूसरे उस राज्य में तीसरे नम्बर का जूनियर बनना जहां कभी उसका एकछत्र राज था. अंतत: कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने शिव सेना नीत गठबंधन और सरकार में शामिल होने का फैसला किया.

उसके बाद झारखण्ड में झामुमो का जूनियर पार्टनर बनने में उसे ज़्यादा हिचकिचाहट नहीं हुई. इससे तो यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व अपनी इस विवशता को नई रणनीति में बदलना चाहता है. छोटे सहयोगी के रूप में ही सही, सरकार में शामिल होना पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और उन्हें जमीनी ताकत देने का काम करता है. अगर इससे मुख्य प्रतिद्वन्द्वी सत्ता से बाहर होता है तो दोहरा फायदा है.

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस तीन दशक से सत्ता से बाहर है. इसका परिणाम यह है कि उसके पास इन राज्यों में जमीनी कार्यकर्ता ही नहीं रह गए. राजनीति आज विचार-निष्ठा और सामाजिक सेवा नहीं रह गई है. नेताओं-कार्यकर्ताओं को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी चाहिए होती है या अपना अवैध-अनैतिक साम्राज्य बचाने के लिए सरकार का संरक्षण. इसीलिए सत्तारूढ़ दल की तरफ उनकी भगदड़ मची रहती है. पुराने कांग्रेसी भी धीरे-धीरे दूसरे दलों में चले गए.

कांग्रेस ने धुर विरोधी शिव सेना के साथ जाना बेहतर समझा तो अब कम से कम वह अपने कई कार्यकर्ताओं-नेताओं को सत्ता-सुख दिला सकती है. और भाजपा को भी सत्ता से बाहर रखे है. यही झारखण्ड में भी होगा. इससे कांग्रेस को अपना संगठन खड़ा करने में मदद मिल सकती है.

इस रणनीति के खतरे कम नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को इसके कटु अनुभव हो चुके हैं. बिहार में वह वर्षों से राजद की बहुत छोटी सहयोगी से ऊपर नहीं उठ सकी. उत्तर प्रदेश में उसने एक बार बसपा से और दो बार सपा से गठबंधन किया. हर बार क्षेत्रीय दल लाभ में रहे. कांग्रेस का प्रभाव क्षेत्र और सीमित हो गया. आज तक दोनों राज्यों में कांग्रेस अपने खड़े होने लायक जमीन नहीं तलाश पाई है. बीते लोक सभा चुनाव में तो सपा-बसपा ने कांग्रेस को अपने गठबंधन में शामिल करने से ही इनकार कर दिया था.

छोटा सहयोगी बनने की रणनीति कांग्रेस के लिए तात्कालिक ही हो सकती है. भाजपा को टक्कर देने के लिए उसे किसी क्षेत्रीय दल की आड़ से बाहर निकला होगा. क्षेत्रीय दलों का बड़ा सहयोग भाजपा को कुछ राज्यों में अपदस्थ तो कर सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर का मोर्चा कांग्रेस को ही लड़ना होगा. इसके लिए जिस मजबूत पार्टी संगठन, जनता के बीच सतत सक्रियता और जन-मुद्दों को धार देने का कौशल चाहिए, उसकी तैयारियां भी कहीं हैं?   
            
(प्रभात खबर, 26 दिसम्बर, 2019)   
     


Saturday, December 21, 2019

देश को प्रधानमंत्री से आश्वस्ति चाहिए



शनिवार, 21 दिसम्बर की सुबह मीडिया की खबरें देखिए. एनआरसी और एसीसी का विरोध और फैला है. कई राज्यों में विरोध-प्रदर्शन हुए हैं. उत्तर प्रदेश के कई जिलों में विरोध फैला है. हिंसा बढ़ी है. उत्तर प्रदेश में आठ से लेकर 13 लोगों तक के मरने की खबरें हैं. करीब दो दर्ज़न जिलों में मोबाइल-इण्टरनेट सेवाएं बंद हैं. विश्वविद्यालय, स्कूल-कॉलेज बंद करने पड़े हैं और परीक्षाएं स्थगित.

नागरिकता संशोधन कानून बन जाने के बाद देश भर में एनआरसी लागू करने की भाजपा नेताओं की घोषणाओं का विरोध भाजपा के सहयोगी दल भी करने लगे हैं. नवीन पटनायक के बाद नीतीश कुमार ने भी साफ कह दिया है कि वे अपने राज्य में एनआरसी लागू नहीं करेंगे. रामविलास पासवान की पार्टी ने भी एनआरसी के विरोध में बयान दिया है.

अमेरिका से खबर है कि भारत की हाल की घटनाओं पर सरकार विरोधी राय बनने के कारण विदेश मंत्री जयशंकर को अमेरिकी संसदीय (कांग्रेस) समिति के साथ बैठक रद्द करनी पड़ी. विदेशी मामलों की इस उच्च स्तरीय प्रभावशाली समिति के साथ बातचीत महत्त्वपूर्ण थी. हुआ यह कि इस समिति की भारतीय-अमेरिकी मूल की एक सदस्य प्रमिला जयपाल ने बैठक के लिए प्रस्ताव रखा है कि भारत को कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से लागू सभी संचार-प्रतिबंध और राजनैतिक नेताओं की बंदी समाप्त करनी चाहिए. जाहिर है कि जयशंकर इस प्रस्ताव पर चर्चा से बचना चाहते थे. इस प्रस्ताव के समर्थन में 19 और सांसद थे.

बैठक रद्द करने के बाद भारत के लिए और भी विपरीत स्थितियां पैदा हो गई हैं. जयशंकर के कदम को सांसद प्रमिला जयपाल की आवाज दबाने वाला माना गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति पद की एक उम्मीदवार, महत्त्वपूर्ण डेमोक्रेट नेता एलिजाबेथ वारेन ने इस आशय की कड़ी टिप्पणी की है.  इसके बाद रातोंरात 10 और डेमोक्रेट सांसद प्रमिला के प्रस्ताव के समर्थन में आ गए हैं. अब तक कुल 29 अमेरिकी सांसदों का यह रुख भारत के लिए कूटनीतिक मुश्किलें बढ़ाने वाला है.

कश्मीर पर भारत सरकार के फैसले को अमेरिका समेत कई देशों में अलोकतांत्रिक और अल्पसंख्यक विरोधी कदम माना गया था. वहां के कई प्रमुखअखबारों ने मोदी सरकार के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां लिखीं. नागरिकता संशोधन कानून बनाने और पूरे देश में एनआरसी लागू करने के भाजपा नेताओं के बयानों के बाद बहुत से देशों में मोदी सरकार के बारे में यह नकारात्मक राय बढ़ी है कि वह हिंदू राष्ट्र के एजेंडे की तरफ बढ़ रही है. इसे अल्पसंख्यक विरोधी और धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ माना गया है. पिछले कुछ दिनों में ऐसे कड़े आलोचनात्मक लेख विदेशी मीडिया में आए हैं.

जिस विविधता में एकता और बहुलतावाद के सम्मान की अद्वितीय विशेषता के लिए विश्व भर में भारत की सराहना होती रही है, उसके विपरीत विश्व जनमत बनने से मोदी सरकार भी निश्चय ही चिंतित होगी. देश में उसका जो भी एजेण्डा हो, विदेश में वह भारत की छवि बेहतर ही बनाए रखना चाहती है. कश्मीर पर फैसले के बाद इसके लिए उसने काफी लॉबीइंग भी की. कई देशों के दूतों को कश्मीर का दौरा यही दिखाने के वास्ते कराया गया था कि वहां सब कुछ सामान्य है.  

स्वाभाविक है कि घरेलू और विदेशी धरती पर उपजे ताज़ा हालात से मोदी सरकार पर दबाव बना है. इसी दबाव का परिणाम है कि केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने शुक्रवार को कहा कि देश भर में एनआरसी लागू करने की अभी कोई योजना नहीं है. सरकार के किसी भी स्तर पर अभी इस बारे में कोई विचार नहीं हुआ है. भाजपा के महासचिव राम माधव ने भी इण्डियन एक्सप्रेससे कहा है कि एनआरसी पर बात करना अभी ज़ल्दबाज़ी होगी. गृह मंत्री ने 2021 से इसे लागू करने की बात कही है. अभी इसके बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं हैं.

दबाव दिखता है लेकिन सरकार का रुख कतई साफ नहीं है. सरकार में किसी ने निर्णयात्मक रूप से यह नहीं कहा है कि एनआरसी लागू नहीं किया जाएगा. जिन्हें यह आश्वासन देश को देना चाहिए वे प्रधानमंत्री मौन हैं. बल्कि, उन्होंने विरोध करने वालों को उनकी वेशभूषा से पहचाननेकी बात कह दी. यही नहीं, कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने राज्यों को डिटेनशन सेण्टर’ (बंदी गृह) बनाने के लिए पत्र लिखा था. ऐसे ही सेण्टर असम में बनाए गए हैं, जहां नागरिकता रजिस्टर से बाहर होने वालों को रखा जाना है. इससे आशंका बढ़ती है कि मोदी सरकार देश भर में एनआरसी लागू करने की तैयारी कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी कई बार कह चुके हैं कि एनआरसीलागू करके रहेंगे.

इसलिए देश भर में आशंकाएं हैं और अशांति है. हिंसा बिल्कुल न हो, यह ज़िम्मेदारी सिर्फ विरोध-प्रदर्शनकारियों की नहीं है. सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की है. प्रधानमंत्री मोदी लोकप्रिय नेता हैं. जनता उनकी बात ध्यान से सुनती है और काफी बड़ा वर्ग उनका पक्का समर्थक है. इसलिए यह दायित्व प्रधानमंत्री का बनता है कि वे देश को एनआरसी के बारे में आश्वस्त करें. यह कहना पर्याप्त नहीं है कि नागरिकता कानून और एनआरसी से किसी भी भारतीय नागरिक को डरने की आवश्यकता नहीं है.   

यही सही समय है. मोदी को अपनी सरकार का रुख बिल्कुल साफ करना चाहिए ताकि जनता की आशंकाओं का समाधान हो. एनआरसी लागू नहीं करने की उनकी घोषणा से हिंसा रोकने में बड़ी मदद मिलेगी. कई सचेत वर्गों, विद्वतजनों और टिप्पणीकारों ने उनसे ऐसी अपील की है.


Friday, December 20, 2019

हिंसा बड़ी साजिश है, मूल मुद्दा ही बदल देती है


सबसे पहले हिंसा की कठोर निन्दा. किसी भी तरह के विरोध-प्रदर्शन में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. हिंसा से विरोध-प्रदर्शन का उद्देश्य ही विफल हो जाता है. मुद्दा बदल जाता है. अगर आप नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का विरोध कर रहे हैं तो हिंसा होने से मूल मुद्दे की बजाय हिंसा और हिंसा फैलाने वाले चर्चा में आ जाते हैं. विरोध जितना शांतिपूर्ण होगा, उसकी ताकत उतनी बड़ी होगी और आवाज़ दूर तक जाएगी. गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत में यही भाव है.

लेकिन गुरुवार को हिंसा हुई और कम नहीं हुई. जिस तरह की हिंसा हुई और कई जगह हुई, उससे लगता है कि उसकी तैयारी थी. वे कौन थे? सामाजिक संगठन हमेशा से शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करते रहे हैं. गुरुवार को भी वे पुलिस बैरिकेडिंग पर शांतिपूर्ण जमा होकर नारे लगा रहे थे. पुलिस ने ज़ल्दी ही उन्हें तितर-बितर कर दिया था. क्या हिंसा में कुछ राजनैतिक दलों का हाथ था? या, क्या सरकार को बदनाम करने के लिए हिंसा की गई? या, इस हिंसा का मकसद सरकार-विरोधी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध जनमत बनाना था? मीडिया रिपोर्ट कह रही हैं कि इसमें नकब पहने कुछ बाहरी लोगों का हाथ था. ये बाहरी लोग कौन थे? प्रशासन उनसे सतर्क क्यों नहीं था? उनकी पहचान क्यों नहीं की गई? इन सवालों सही का ज़वाब मिलना आसान नहीं है.

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि लोकतंत्र में असहमति या विरोध प्रदर्शन की न केवल अनुमति दी जानी चाहिए, बल्कि विरोध करने वालों का पक्ष धैर्यपूर्वक सुना भी जाना चाहिए. इतनी जगह और इज़ाज़त मिलनी चाहिए कि राजनैतिक दल हों या सामाजिक संगठन, वे किसी मुद्दे पर अपना अहिंसक विरोध दर्ज़ कर सकें. जहां विरोध-प्रदर्शन करने दिए गए, विरोधियों के ज्ञापन लिए गए या उनके प्रतिनिधिमण्डल की बात सुनी गई, वहां हिंसा की सम्भावना ही नहीं रही. मुम्बई सबसे अच्छा उदाहरण रहा, जहां प्रदर्शनकारियों को अगस्त क्रांति मैदान में जमा होने और अपनी आवाज़ उठाने की अनुमति दी गई थी. हिंसा वहीं फैली जहां विरोध-प्रदर्शन करने ही नहीं दिए गए. इसी से हिंसा फैलाने वालों को अवसर मिला.

इन पंक्तियों के लेखक को प्रशासन की अनावश्यक सतर्कता का अनुभव हुआ. 19 दिसम्बर काकोरी काण्ड के शहीदों का शहादत दिवस होता है. फैज़ाबाद का अशफाकुल्ला खान मेमोरियल शहीद शोध संस्थान इस मौके पर  प्रतिवर्ष फैज़ाबाद जेल में एक समारोह करता है, जैस जगह शफाकुल्ला को फांसी दी गई थी. इसमे निबंध-प्रतियोगिता के विजेता स्कूली बच्चों और कुछ व्यक्तियों को पुरस्कृत-सम्मानित करके देश के लिए बलिदान देने वालों की याद की जाती है. इस लेखक को उस कार्यक्रम में शामिल होना था. ऐन मौके पर जेल एवं जिला प्रशासन ने कार्यक्रम की अनुमति रद्द कर दी. किसी तरह यह कार्यक्रम दूसरी ज्गह सम्पन्न कराया गया. परिणाम यह हुआ कि कार्यक्रम में शहीदों के बलिदान की गाथा से कहीं अधिक प्रशासन के रवैए की तीखी निंदा की गई.

शहीद अशफाकुल्ला खान की याद में आयोजित कार्यक्रम से भला प्रशासन को क्या आपत्ति हो सकती थी? लेकिन चूंकि उस दिन देश भर में नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन होने थे, सम्भवत: इस कारण उसकी अनुमति वापस ले ली गई, जबकि वहां बच्चों और अभिभावकों के बीच देश-प्रेम और त्याग के बारे में बताया जाना था. प्रशासन के रवैए ने ही इस आयोजन को एकाएक सरकार-विरोधी आयोजन में बदल दिया.

सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि विरोधी-विचार का आदर लोकतंत्र की आत्मा है. बहुमत का अर्थ अल्पमत वालों की अनसुनी करना नहीं होना चाहिए. विरोध अवश्य सुना जाए और हिंसा फैलाने वालों की निष्पक्षता से पहचान कर उन्हें दण्डित किया जाए.  

  (सिटी तमाशा, नभाटा, 21 दिसम्बर, 2019)

    


  

कई संचित आक्रोश हैं इन विरोध-प्रदर्शनों के पीछे


उन्नीस दिसम्बर को देश भर में हुए उग्र विरोध-प्रदर्शनों से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं- एक बड़ी आबादी नागरिकता कानून और एनआरसी को देश के मूल चरित्र और संविधान के विरुद्ध मानती है. हिंदू-राष्ट्र के एजेण्डे की तरफ बढ़ते मोदी सरकार के कदमों से मुस्लिम आबादी की आशंकाएं बढ़ी हैं लेकिन देश का काफी बड़ा धर्मनिरपेक्ष  हिस्सा उनके साथ खड़ा है. ये विरोध-प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध तक सीमित नहीं हैं. कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने जैसे फैसलों के विरुद्ध संचित आक्रोश के अलावा आर्थिक क्षेत्र की विफलताओं से उपजा गुस्सा भी इनमें देखा जा सकता है.

सबसे पहले तो यह कि हम किसी भी तरह की हिंसा का पुरजोर विरोध करते हैं. फिर, उतनी ही जोर से यह कहेंगे कि लोकतांत्रिक सभ्य समाज में असहमति और विरोध दर्ज़ करने का आदर होना चाहिए, उसका दमन नहीं. मोदी सरकार ने संसद में नागरिकता विधेयक तो पास करा लिया लेकिन उसके व्यापक विरोध को देखते हुए उसके सहयोगी कुछ दलों का मन बदलने लगा है. असम गण परिषद और बीजू जनता दल जैसे उसके सहयोगी, जिन्होंने संसद में विधेयक को कानून बनाने में सरकार का साथ दिया, अब विरोध में खड़े हो गए हैं. जनता दल-यू में भी ऐसी सुगबुगाहट है. यह अकारण नहीं है.

लोकतांत्रिक विरोध का दमन

जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों के बर्बर दमन ने जनाक्रोश की आग में घी डालने का काम किया है. पहले भी यह साबित हो चुका है कि वर्तमान सरकार असहमति का आदर करने की बजाय उसके दमन में विश्वास करती है. जामिया में दमन का नतीजा यह हुआ कि आक्रोश विश्वविद्यालयों के बाहर नागरिक समाज तक फैल गया. उन्नीस दिसम्बर को कई जगह शांतिपूर्वक प्रदर्शन करते लोगों से पुलिस ने बदसलूकी की. बंगलूर में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा को जिस तरह घसीट कर पकड़ा गया उससे गुस्सा और बढ़ा है. गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा शासित राज्यों में ही हिंसा हुई. यह हिंसा दमन के लिए हुई हो सकती है और प्रदर्शनकारियों को दंगाई साबित करने के लिए भी. मुम्बई में हजारों की भीड़ ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया क्योंकि वहां की सरकार ने उन्हें इसकी अनुमति दी.

जहां-जहां से भी विरोध-प्रदर्शन की खबरें आ रही हैं, यह साफ हो रहा है कि प्रदर्शनकारी सिर्फ मुसलमान नहीं हैं, जैसी कि सरकार धारणा बनाने की कोशिश कर रही है. जामिया से लेकर मुम्बई तक हर जगह प्रदर्शन में सभी धर्मों के वे नागरिक बड़ी संख्या में शामिल हैं  जो इस देश के संविधान और इसकी बहुलतावादी संस्कृति में भरोसा रखते हैं और उस पर हमले से चिंतित हैं.

भारत धर्म के आधार पर नहीं बना

संसद में नागरिकता विधेयक पर हुई चर्चा में गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार यह कहा कि इस देश का विभाजन धर्म केआधार पर हुआ. ऐसा नहीं हुआ होता तो यह कानून बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. यह गलत बयानी है. पाकिस्तान की मांग धर्म के आधार हुई, जिसको महात्मा गांधी ने तो खैर अंतिम समय तक रोकने की कोशिश की ही, कांग्रेसी नेताओं ने भी उसका पूरा विरोध किया था. अंतत: पाकिस्तान बना लेकिन जो भारत बचा रहा वह कहीं से भी धर्म के आधार पर नहीं है. मुसलमानों की बड़ी आबादी ने फिर भी इसे अपना देश माना और पाकिस्तान जाने से इनकार किया. गांधी, नेहरू, आम्बेडकर, राजेंद्र प्रसाद और अन्य नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष और सभी नागरिकों को हर स्तर पर समानता देने वाला संविधान दिया. पाकिस्तान में यदि धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है तो भारत में वैसा ही क्यों होना चाहिए? मुसलमानों से भेदभाव वाला कानून बनाना उनके साथ उत्पीड़न नहीं है?

अमित शाह समेत सभी भाजपा नेता और उनके समर्थक यह तर्क देते हैं कि एनआरसी किसी भी भारतीय नागरिक के विरुद्ध नहीं है. उससे किसी को भी डरना नहीं चाहिए. पूछा जाना चाहिए कि तब आप इसे देश भर में लागू करने की बात कह ही क्यों रहे हैं.  एनआरसी से जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं वह है भारत की बहुलता और संविधान की मूल भावना. भाजपा और संघ के नेता डंके की चोट पर कह रहे हैं कि एनआरसी  पूरे देश में लागू होगा. इसकी तैयारियां भी होने लगी हैं. देश की बड़ी मुसलमान आबादी भय और संशय में अकारण नहीं जी रही है.

एनआरसी से डर  के कारण

इण्डियन एक्सप्रेसमें हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कई राज्यों में मुसलमान अपनी भारतीय विरासत के प्रमाण जुटाने में लगे हैं. कई संगठन इसमें उनकी सहायता कर रहे कि दस्तावेज पुख्ता हों, जन्म-तिथि, नाम और वल्दियत सही दर्ज़ हो, हिज़्ज़ों की भी गलतियां न हों. महाराष्ट्र, कोलकाता, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सहित कई राज्यों में शिविर लगाकर मुसलमानों को आवश्यक दस्तावेजों के बारे में बताया जा रहा है, उन्हें जांचा जा रहा है ताकि एनआरसी  के वक्त किसी कमी या विसंगति के कारण उन्हें घुसपैठिया घोषित न कर दिया जाए. औरंगावाद के डॉ भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय के शोध-छात्र अता-उर-रहमान नूरी ने इस बारे में एक किताब ही लिख डाली है. एनआरसी-अंदेशे, मसले और हलनाम की इस पुस्तक के अब तक दो संस्करण बिक चुके हैं. तीसरा संस्करण छप रहा है. इससे साबित होता है कि मुसलमानों में कितनी चिंता है और वे किस कदर परेशान हैं. उन्हें दस्तावेजों के साथ साबित करना होगा कि वे पीढ़ियों से भारत के नागरिक हैं. अन्यथा उन्हें घुसपैठिया घोषित किया जा सकता है.

अपने को भारतीय नागरिक साबित करने का दायित्व सिर्फ मुसलमानों का नहीं होगा. गौर कीजिए कि असम में 19 लाख से अधिक जो लोग एनआरसी से बाहर हो गए थे, उनमें करीब 14 लाख लोग गैर-मुस्लिम हैं, जिनमें हिंदुओं की बहुत बड़ी संख्या है. हिंदू अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सके तो घुसपैठिया घोषित नहीं होंगे, बल्कि वे नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे. मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसलिए एनआरसी से डर के पर्याप्त कारण हैं, जिसकी चर्चा भाजपा नेता नहीं करते.

हिंदू राष्ट्र का एजेण्डा

जिस तरह कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर देश के एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य की पहचान खत्म करना भाजपा का चुनावी एजेण्डा था, उसी तरह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना आरएसएस का महान उद्देश्य है. भारी बहुमत पाने के बाद मोदी सरकार संघ के एजेण्डे पर ही काम कर रही है. नागरिकता कानून में संशोधन हो या एनआरसी, उसी एजेण्डे की तरफ बढ़ने वाले कदम हैं जो भारत के संविधान की मूल मंशा के ठीक विपरीत हैं लेकिन उसी की शपथ लेकर किए जा रहे हैं.

संघ और भाजपा ने बड़ी चतुराई से ये कदम बढ़ाए हैं. पहले उसने आक्रामक हिंदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के जरिए आम हिंदू मानस को यह समझाया कि अस्सी प्रतिशत होकर भी इस देश में हिंदू दबे हुए हैं, हिंदुत्व  खतरे में हैं, मुस्लिम आबादी तेज़ी से बढ़ रही है जो यहां रहकर भी पाकिस्तान के साथ है, बाकी सभी पार्टियां मुस्लिम तुष्टीकरण में लगी हैं, आदि-आदि. इस हिंदू लहर पर सवार  होकर सत्ता में पहुंचने के बाद उसने नए एजेण्डों पर काम शुरू किया है. आश्चर्य नहीं कि बड़ी हिंदू आबादी उसके साथ खड़ी दिखती है.

इस एजेण्डे के चक्कर में सरकार आर्थिक और दूसरे मोर्चों पर पिछड़ती गई. आज देश बड़े आर्थिक संकट में है. कल-कारखाने बंद हो रहे हैं. पहले से जारी बेरोजगारी अनियंत्रित हो गई है. महंगाई शिखर पर है. आखिर इन आवश्यक मुद्दों को भावनात्मक एजेण्डा कब तक दबा सकता है. एनआरसी के उग्र विरोध में यह आक्रोश भी देखा जाना चाहिए.  दमन से वह और बढ़ेगा.   
  

https://www.yoyocial.news/yoyo-in-depth/taja-tareen/so-many-aspects-of-caa-protests

बहुमत की दबंगई से संविधान के साथ खिलवाड़



सुदूर उत्तर पूर्व भारत की शांति जैसे एक धमाके से भंग हो गई है. असम जल रहा है. त्रिपुरा उबल रहा है. इनर-लाइन-परमिट की आड़ में वहां के जो राज्य फिलहाल नागरिकता संशोधन कानून से बचते दिख रहे हैं वे भी सशंक हैं. नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की तलवार तो लटक ही रही है. बंगाल में विरोध बढ़ता जा रहा है. दिल्ली में उग्र प्रदर्शनकारियों के निर्मम दमन के प्रति आक्रोश व्यापक हो रहा है. उत्तर प्रदेश, बिहार समेत लगभग सभी राज्यों में गुस्सा सुलग रहा है. छिट-पुट प्रदर्शन भी कुचले जा रहे हैं जो प्रतिरोध को और हवा दे रहे हैं.

केंद्र की मोदी सरकार जनता के आक्रोश को सुनने-समझने की बजाय उसके पीछे कांग्रेस और मुसलमान गुण्डोंका हाथ बता रही है. प्रदर्शनकारियों का बर्बर दमन किया जा रहा है. अमित शाह से लेकर आदित्यनाथ योगी तक बढ़-चढ़ कर घोषणा कर रहे हैं कि एनआरसी देश भर में लागू किया जाएगा. योगी ने तो एनआरसी को सरदार पटेल की कल्पना के एक भारत-मजबूत भारत से जोड़ दिया है.

दूसरी तरफ, देश भर के मुसलमानों में आशंकाएं और भय व्याप्त हो रहे हैं. विभिन्न राज्यों से खबरें मिल रही हैं कि मुसलमान अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए दस्तावेज जुटाने में लगे हैं, जिनके अभाव में उन्हें घुसपैठिया बताकर देश से खदेड़े जाने का खतरा पैदा हो गया है. 

संसदीय बहुमत के गुमान में चूर मोदी सरकार विवादित मुद्दों पर जनमत जानने या उस पर बहस आमंत्रित करने की बजाय अपने फैसले एकाएक और जबरिया थोप रही है. नोटबंदी का फैसला हो या कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर एनआरसी या नागरिकता संशोधन कानून, सभी फैसले बहुमत के जोर से थोपे गए हैं. सरकार ने आज तक नोटबन्दी के भारी नुकसान कुबूल नहीं किए, न ही वह एनआरसी और नागरिकता कानून की असंवैधानिकता की कोई चिंता कर रही है. संविधान की प्रति के सामने शीश नवाने और संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकने वालों की सरकार वस्तुत: लोकतंत्र के नाम पर बहुमत की दबंगई चला रही है.

असम में एनआरसी लागू करने की कोशिश में जो उतावली की गई, उसके नतीजे में नागरिकता संशोधन कानून लाया गया. वहां जो 19 लाख से ज़्यादा लोग एनआरसी से बाहर रह गए थे, उनमें अधिसंख्य गैर-मुस्लिम निकले. नागरिकता संशोधन कानून उसी गलतीकी भरपाई के लिए लाया गया लेकिन यह चिंता भाजपा को है ही नहीं इस कानून के प्रावधान स्पष्टत: संविधान की मूल भावना और भारतीय समाज की विशिष्ट पहचान पर चोट करते हैं.

संयुक्त राष्ट्र से लेकर विभिन्न देशों में मोदी सरकार के इन फैसलों पर न केवल आश्चर्य, बल्कि विरोध भी व्यक्त किया जा रहा है तो उसके पर्याप्त कारण हैं. जिस धार्मिक-जातीय-सांस्कृतिक अनेकता में एकता के लिए भारत की पहचान रही है और जिस देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उसमें किसी धार्मिक समुदाय के प्रति भेदभाव का कानून कैसे बनाया जा सकता है. नागरिकता कानून में किया गया संशोधन यह कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से उत्पीड़ितहोकर भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, पारसियों को देश की नागरिकता दी जासकती है. इसमें मुसलमानों को जानबूझकर छोड़ दिया गया है. तर्क यह दिया गया है कि ये देश इस्लामिकहैं इसलिए वहां मुसलमान उत्पीड़ित नहीं हो सकते.

इस तर्क में अनेक कुतर्क हैं. अगर दूसरे देशों के गैर-मुस्लिम उत्पीड़ितों की चिन्ता है तो नेपाल, म्यांमार, जैसे प‌ड़ोसी देशों को क्यों छोड़ दिया गया? फिर, इस्लामिक देशों में भी कोई मुस्लिम उत्पीड़ित क्यों नहीं हो सकता? विभाजन के समय पाकिस्तान गए बहुतेरे मुस्लिम आज भी वहां उत्पीड़ित हैं. कई वापस भी लौटे क्योंकि उन्हें वह पाकिस्तान नहीं मिला, जिसकी उम्मीद में वे वहां गए थे. अपना मूल मुल्क अगर उन्हें आज बेहतर लगता है तो वे यहां ससम्मान क्यों नहीं रह सकते? ऐसे मुसलमान यहां घुसपैठिए कहलाएं और बाकी सब नागरिकता दिए जाने योग्य शरणार्थी, कानून में संशोधन करके इस भेदभाव को संवैधानिक स्वीकृति कैसे दी जा सकती है?

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में  बार-बार यह कहा कि इस देश का विभाजन धर्म केआधार पर हुआ. ऐसा नहीं हुआ होता तो यह कानून बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. यह अमित शाह की गलत बयानी है. पाकिस्तान की मांग धर्म के आधार पर थी, जिसका महात्मा गांधी ने तो खैर अंतिम समय तक रोकने की कोशिश की ही, कांग्रेसी नेताओं ने भी पूरा विरोध किया. अंतत: पाकिस्तान बना लेकिन जो भारत बचा रहा वह कहीं से भी धर्म के आधार पर नहीं है. मुसलमानों की बड़ी आबादी ने फिर भी इसे अपना देश माना और पाकिस्तान जाने से इनकार किया. गांधी, नेहरू, आम्बेडकर, राजेंद्र प्रसाद और अन्य महान नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष और सभी नागरिकों को हर स्तर पर समानता देने वाला  संविधान दिया. आज तक यहां किसी के साथ इस तरह का भेदभाव नहीं हुआ. भारत की बहुलता की प्राचीन परम्परा है. पाकिस्तान में यदि धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है तो भारत में भी क्यों होना चाहिए? मुसलमानों से भेदभाव वाला कानून बनाकर उनके साथ उत्पीड़न ही तो किया जा रहा है.

नागरिकता कानून में संशोधन से बहुत बड़ी आबादी प्रभावित नहीं होती लेकिन जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं वह है भारत की बहुलता और संविधान की मूल भावना जिसे सबसे बड़ा खतरा एनआरसी से है. भाजपा और संघ के नेता डंके की चोट पर कह रहे हैं कि एनआरसी  पूरे देश में लागू होगा. इसकी तैयारियां भी होने लगी हैं. देश की बड़ी मुसलमान आबादी भय और संशय में जी रही है. इण्डियन एक्सप्रेसमें हाल ही में प्रकाशित एक समाचार बताता है कि देश के कई राज्यों में मुसलमान अपनी भारतीय विरासत के प्रमाण जुटाने में लगे हैं. कई संगठन इसमें उनकी सहायता कर रहे कि दस्तावेज पुख्ता हों, जन्म-तिथि, नाम और वल्दियत सही दर्ज़ हो, हिज़्ज़ों की भी गलतियां न हों. महाराष्ट्र, कोलकाता, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सहित कई राज्यों में शिविर लगाकर मुसलमानों को आवश्यक दस्तावेजों के बारे में बताया जा रहा है, उन्हें जांचा जा रहा है ताकि एनआरसी  के वक्त किसी कमी या विसंगति के कारण उन्हें घुसपैठिया घोषित न कर दिया जाए. औरंगावाद के डॉ भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय के शोध-छात्र अता-उर-रहमान नूरी ने इस बारे में एक किताब ही लिख डाली है. एनआरसी - अंदेशे, मसले और हल नाम की इस पुस्तक के अब तक दो संस्करण बिक चुके हैं. हर संस्करण 1100 प्रतियों का है. तीसरा संस्करण छप रहा है. इससे साबित होता है कि मुसलमानों में कितनी चिंता है और वे किस कदर परेशान हैं.

भारत में जन्म होने का प्रमाण ही मुसलमानों के लिए नागरिकता के लिए पर्याप्त नहीं है. उन्हें बाप-दादों के और जमीन, आदि के मालिकाना हक के पुख्ता प्रमाण पेश करने होंगे. अन्यथा वे घुसपैठियाकरार दिए जाएंगे. अगर कोई गैर-मुसलमान अपने दस्तावेज नहीं दे पाता तो वह घुसपैठियानहीं, शरणार्थी माना जाएगा और नागरिकता का हकदार होगा.

इसमें शक नहीं कि यह मुसलमान-विरोधी अभियान है. एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य की पहचान खत्म की ही जा चुकी की है. यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होगा. समान नागरिक संहिता की चर्चा भी शुरू हो चुकी है. हिंदू-राष्ट्रके एजेण्डे पर जोर-शोर से काम चल रहा है, जिसमें मुसलमानों के लिए सम्मान की कोई जगह नहीं होगी.
देश में बढ़ता विरोध और उसकी आक्रामकता बताती है कि इन मंसूबों का सशक्त और व्यापक प्रतिकार होगा. 

(नवजीवन, दिसम्बर, 2019)    

        

Thursday, December 19, 2019

आरएसएस के चेहरे से मुखौटा हटाने वाली किताब



आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजकल भारतीय राजनीति और सत्ता के केंद्र में है. उसकी राजनैतिक इकाई, भारतीय जनता पार्टी सन 2014 के बाद से केंद्र और कई प्रांतों में सत्तारूढ़ है. भाजपा चाहे जितना इनकार करे, सत्य यही है कि उसकी लगाम संघ के हाथों में रहती है. अब यह छुपी बात नहीं कि भाजपा उसी का एजेण्डा लागू करने में लगी हुई है.

आज जनता का एक बड़ा वर्ग संघ का समर्थक-प्रशंसक है तो बहुत सारे लोग उससे आशंकित रहते हैं. आज़ादी के संग्राम में उसकी नकारात्मक भूमिका, गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हाथ, तिरंगे की बजाय भगवा ध्वज के सम्मान, हिंदू-राष्ट्र की स्थापना का उसका लक्ष्य, आदि पर खूब वाद-विवाद होता है. हाल के वर्षों में गांधी ही नहीं आम्बेडकर को भी अपनाने और सत्ता की राजनीति के लिए दलितों-पिछड़ों का परम हितैषी बनने की उसकी रणनीति पर भी चर्चा होती है. सच यह है संघ के अधिसंख्य समर्थक उसके बारे में बहुत कम जानते हैं.

संघ का असली चेहरा क्या है? क्या उसने हाल के वर्षों में अपने को सचमुच बदला है? आम्बेडकर और बहुजन समाज को लेकर उसका मूल सोच क्या है? ऐसे और भी कई सवाल हैं जिनके बारे में संघ के बड़े समर्थक-प्रशंसक समूह को नहीं पता. जो उसे बताया गया है, वह कितना सत्य है, यह जानना हो तो भंवर मेघवंशी की किताब मैं एक कारसेवक थापढ़नी चाहिए, क्योंकि यह एक इनसाइडरका अपना देखा-समझा अनुभव है, जिसकी कड़वी सच्चाई ने मेघवंशी को संघ के शिकंजे से बाहर निकलकर शेष जीवन के लिए संघ से दो-दो हाथ करने का संकल्प दिलवाया.

भंवर मेघवंशी आज एक चर्चित नाम है. वे प्रमुख दलित विचारक, लेखक-पत्रकार-एक्टिविस्ट हैं जिन्होंने राजस्थान और उसके बाहर भी दलितों में सामाजिक-राजनैतिक चेतना जगाने से लेकर सामाजिक समानता, अस्मिता और गरिमा का मोर्चा सम्भाल रखा है. जैसा कि भूमिका में हिमांशु पण्ड्या ने लिखा है- “मैं एक कारसेवक थादलित चेतना को समझने और अंगीकार करने की गाथा है.

कक्षा छह का विद्यार्थी 13 वर्ष का भंवर आरएसएस की शाखा में भर्ती होता है. नमस्ते सदावत्सले...प्रार्थना दोहराते हुए वह व्यक्ति-निर्माणकी कार्यशाला में ढलने लगता है. विश्व के सबसे महान धर्मका गौरव-गान उसे इतना प्रभावित करता है कि वह हिंदुओं के सैन्यकरण और सैनिकों के हिंदूकरणको तत्पर हो उठता है. वह भाईसाहब लोगों द्वारा बताए गए हिंदू समाज के खिलाफ रचे जा रहे षड्यंत्रसे उत्तेजित होकर उनसे नफरत करने लगा जो अनाज भारत का खाते हैं और गीत मक्का-मदीना और येरुशलम के गाते हैं’ . उन मलेच्छोंमें बालक भंवर को देशद्रोही और आतंकवादी नज़र आने लगे. एक दिन वह सिर पर गेरुआ पट्टी बांधकर सौगंधराम की खाते हुए कारसेवक के रूप में अयोध्या रवाना हो गया जहां मलेच्छ विधर्मियों के चंगुलसे रामजी को मुक्त करवाने के लिए उसके जैसे फड़कती बांहों वाले तमाम युवाओं की भीड़ बढ़ रही थी.
संघ का समर्पित स्वयंसेवक भंवर इतनी निष्ठा और सक्रियता से हिंदू-राष्ट्रबनाने के संकल्प में शरीक होता है कि शीघ्र ही वह गणनायक से मुख्य शिक्षक और फिर कार्यवाह बनकर जिला कार्यालय का प्रमुख हो जाता है. संघ में भली-भांति दीक्षित होते हुए भंवर का सवाल पूछने वाला मनअक्सर सिर उठाता रहता है हालांकि संघ के सब लोगों के पास प्राचीन समय के उदाहरण और तैयार जवाब होते हैं.लेकिन एक वाकया ऐसा होता है कि भंवर को काटो तो खून नहीं.

अयोध्या और भीलवाड़ा में शहीदहिंदू-युवाओं की अस्थि-कलश यात्रा भंवर के गांव पहुंची तो उसने यात्रा में शामिल लोगों से अपने घर भोजन करने का आग्रह किया. उनके लिए खीर-पूरी पकवाए गए थे. पहले तो संघ के पदाधिकारियों ने टाल-मटोल की, फिर एक ने हिंदू समाज की सामाजिक विषमता के बारे में प्यार से समझाते हुए भोजन पैक करके देने की सलाह दी, बाद में भंवर को पता चला कि उसके घर का भोजन संघ के पदाधिकारियों ने रास्ते में फेंक दिया. भंवर लिखते हैं मेरे मन में सवाल उठा कि मैं एक अनुशासित स्वयंसेवक, जुनूनी कारसेवक, जिला कार्यालय प्रमुख. अगर मेरे साथ ही ऐसा छुआछूत तो मेरे अन्य समाज-बंधुओं के साथ कैसा दुर्व्यहार हो रहा होगा. उस दिन मैने पहली बार एक हिंदू से परे हटकर निम्न जति के व्यक्ति के नजरिए से सोचना शुरू किया... वह रात मेरे जीवन की सबसे लम्बी रात थी.इस प्रकरण पर भंवर ने जिस भी पदाधिकारी से सवाल किया किसी के पास अंतोषजनक उत्तर नहीं था, बल्कि वे इसे छोटी सी बातकहकर कर टाल देते. तब भंवर को ने महसूस किया कि संघ के लोगों ने सिर्फ मेरे घर का खाना ही नहीं फेंका, मुझे भी उठाकर दूर फेंक दिया है.

इस अपमान से भंवर इतने हताश-निराश हो उठे कि मैंने खुदकुशी के बारे में सोचा. मरने की कई तरकीबें सोची. एक रात घर में रखी चूहामार दवा खाने के साथ खा ली और सो गया.यह देश का सौभाग्य है कि भंवर बचा लिए गए और फिर खुद से ही पूछने लगे कि मैं क्यों मर रहा था और किनके लिए मर रहा था? मेरे मर जाने से किसको फर्क पड़ने वाला था?’   

यहां से भंवर के वैचारिक बदलाव की शुरुआत होती है. संघ के भीतर की अनेक सच्चाइयां अब उनके सामने खुलने लगीं. कार सेवा के लिए अयोध्या रवाना होते वक्त का वह सच कि सारे बड़े लोग, उद्योगपति, संघ प्रचारक, विहिप नेता और भाजपाई लीडरान ट्रेन से उतर गए. रह गए हम जैसे जुनूनी दलित, आदिवासी तथा पिछड़े व गरीब वर्ग के युवा.... वे समझदार लोग सदैव हम जैसे जुनूनी लोगों को लड़ाई में आगे धकेलकर अपने-अपने दड़बों में लौट जाते हैं.यह भी कि संघ से न केवल औरतें अलग रखी गईं, बल्किश्रमिक, दलित, आदिवासी, किसान लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, चित्रकार, इन सबको भी अलग-अलग संगठन बनाकर खपाया गया ताकि संघ का मूल स्वरूप इनसे प्रभावित न हो.एक बार भंवर ने प्रचारकबनने की ठानी तो टरका दिया गया. तब वे गौर करते हैं कि अब तक ज़्यादातर ब्राह्मण ही सरसंघचालक हुए हैं. संघ के उच्च स्तर पर दलित, आदिवासियों और पिछड़ों की उपस्थिति नगण्य है.

तब भंवर तय करते हैं कि मैं संघ को न केवल नकार दूंगा, बल्कि उनके द्वारा मेरे साथ किए गए जातिगत भेदभाव को भी सबके सामने उजागर करूंगा. इस दोगले हिंदुत्त्व और पाखण्डी हिंदू राष्ट्र कीअसलियत से सबको वाकिफ़ करवाना मेरा आगे का काम होगा..... मैंने अपनी व्यक्तिगत पीड़ाऔर अपमान को निजी दुश्मनी बनाने की बजाय सामाजिक समानता, अस्मिता एवं गरिमा की सामूहिक लड़ाई बनाना तय किया और एक प्रतिज्ञा की कि मैं हर प्रकार से संघ और संघ परिवार के समूहों तथा उनके दोगले विचारों को बोलकर, लिखकर और अपने क्रियाकलापों के जरिए मुखालफ़त करूंगा. यह जंग जारी रहेगी, आजीवन, अनवरत, मरते दम तक.

तबसे आज तक भंवर मेघवंशी इस प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं. उन्होंने अखबार निकाले, दलित-उत्पीड़न और साम्प्रदायिक दंगों के घटनास्थल का दौरा करके रिपोर्ट लिखी, जगह-जगह भाषण दिए, किताबें लिखीं और संघ परिवार की साजिशों की पोल खोलते हुए उसका का पुरजोर विरोध किया. आज भी उनकी लड़ाई जारी है. इस दौरान उन्हें दमन, दुष्प्रचार, आदि का सामना करना पड़ा. परिवार पर भी मुसीबतें आईं मगर परिवार उनके साथ खड़ा है, बल्कि उनकी अगली पीढ़ी उन्हीं बराबर उनके रास्ते पर चल रही है. पिता तो हर समय भरी बंदूक साथ रखते हैं.

मैं एक कारसेवक थाको पढ़ना संघ की साम्प्रदायिक, फासीवादी गलियों से होते हुए आम्बेडकरवाद की ओर सचेत यात्रा से गुजरना है. यह यात्रा सिद्धांत बघारकर नहीं, गैर-बराबरी का दंश भोगते-जीते हुई है. इसलिए इसमें समाज का असली चेहरा विश्वसनीयता के साथ बेपर्दा हुआ है. सन 2000 के गुजरात नरसंहार का यह सच कितने लोग जानते-समझते हैं, जो भंवर ने अपने दौरे और बातचीत में देखा-महसूसा- गुजरात नरसंहार में दलित एवं आदवासियों का बड़े पैमाने परदुरुपयोग किया गया. लूटपाट और मारपीट के दौरान मची अफरातफरी के दरमियान पुलिस की गोली का शिकार होने वाले इन्हीं वर्गों के लोग थे. मतलब उन ताकतों का खेल सफल रहा जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम को आपस में लड़ मरते हुए देखना चाहती थीं. जिन्होंने लड़ाया वे सुरक्षित बने रहे…. आजकल दलित अपने आपको कट्टर हिंदू साबित करने के लिए दंगे-फसाद में सबसे आगे रहते हैं. इन्हें कौन समझाए कि ये जो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, उनका 80 फीसदी तुम्हारे ही वर्ग से गया है... आज तक हुए फसादात में विहिप, बजरंग दल और संघ के बड़े नेता क्यों शहीद नहीं हुए?’ छोटे-छोटे अध्यायों में लेकिन स्पष्ट्ता से भंवर बताते हैं कि संघ के पदाधिकारी किस तरह युवाओं का ब्रेन वॉश करते और उन्हें दंगा करने तथा शस्त्र प्रशिक्षण देते हैं.   

दंगाग्रस्त इलाकों और दलित-उत्पीड़न स्थलों का गहन दौरा करने बाद भंवर फासीवाद की स्पष्ट आहट सुनते हैं और उसके खिलाफ डटकर खड़े होते हैं. निष्कर्षत: वे कहते हैं- वक्त निर्मम है लेकिन चुपचाप प्रतीक्षा करने या तटस्थ रहने से काम चलने वाला नहीं है. यही तो वक्त है हमारे विचार और व्यवहार की परीक्षा का जिसमें हमें खरा उतरना होगा अन्यथा इतिहास हमें और हमारी बौद्धिकता को भी अपराध की श्रेणी में डालेगा.

भंवर मेघवंशी की 170 पेज की यह किताब अवश्य ही खूब पढ़ी-पढ़ाई जानी चाहिए. नवारुण प्रकाशन को धन्यवाद कि उन्होंने इस किताब को प्रकाशित कर संघ परिवार का मुखौटा उतारने में सहायता की है. पुस्तक मंगाने के लिए 9811577426 पर फोन या navarun.publication@gmail.com ईमेल करें. 

    
      

Saturday, December 14, 2019

शर्म उन्हें है जो अब भी ईमानदार और समर्पित हैं



दो ढाई वर्ष पहले जब बिहार राज्य कर्मचारी चयन आयोग के अध्यक्ष, आईएस अधिकारी सुधीर कुमार  प्रश्न पत्र लीक करने के मामले में गिरफ्तार किए गए थे तो बड़ा धक्का नहीं लगा था. कुछ आईएएस अधिकारियों की धन-लिप्सा और भ्रष्टाचार के और भी बड़े-बड़े किस्से सामने आते रहे हैं. बीते मई मास में उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा-नियंत्रक अंजुलता कटियार को पर्चा लीक कराने में भागीदार होने के आरोप में जेल भेजा गया था. बड़े से लेकर छोटे अधिकारियों, कर्मचारियों, स्कूल-कॉलेजों के कतिपय अध्यापकों के भी इस मामले में पकड़े जाने के मामले सामने आते रहे हैं. किसी बड़ी परीक्षा का पर्चा लीक हुए बिना सम्पन्न हो जाना अब कम ही होता है.

पर्चा लीक कराने में लखनऊ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और एक असोसिएट प्रोफेसर का निलम्बन बहुत चौंकाता है. जिस तरह यह मामला खुला और कार्यवाहक कुलपति ने तात्कालिक जांच के बाद उन्हें निलम्बित किया, उससे यह अत्यंत कष्टकारी सच्चाई सामने आती है कि विश्वविद्यालय स्तर पर भी कितनी गिरावट आ गई है. जिस महिला परीक्षार्थी को ये प्रोफेसर फोन पर परीक्षा में पूछे गए सवाल बताते सुने गए, वह शहर के एक चिकित्सा संस्थान की प्रमुख बताई गई हैं. यह और भी दुखदाई है.

लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का सौवां वर्ष मना रहा है. मुख्य धारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास की चर्चाएं हैं. ऐसे समय में दो प्रोफेसरों को पर्चा लीक करने में निलम्बित होना और उनके विरुद्ध पुलिस में  रिपोर्ट दर्ज किया जाना उस उजले इतिहास पर कालिख पोतने जैसा है. विश्वविद्यालय के शिक्षकों से सम्बद्ध कतिपय विवाद होते रहे हैं. कभी किसी के विरुद्ध यौन दुर्व्यवहार की शिकायत दर्ज़ होती है तो कोई अपने शोध-पत्र या पुस्तक में किसी किताब के अंश चोरी करने के मामले में फंसता है.

इस तरह फोन पर परीक्षा के प्रश्न किसी अभ्यर्थी-विशेष को बताए जाने का यह मामला अनूठा ही है. छह दौर की वह बातचीत जो कि बकौल कार्यवाहक कुलपति प्रथम दृष्टया सही पाई गई है, तो दोनों पक्षों के लिए बेहद शर्मनाक है. जो लोग ऐसा करते हैं, उनके लिए शर्म शब्द अर्थहीन है. इस पर शर्म तो समर्पित शिक्षकों को आ रही होगी.

प्रोफेसरों की इस हरकत पर धक्का लगने का कारण यह है कि हर क्षेत्र में नैतिक पतन और भ्रष्टाचार का बोलबाला होने के इस दौर में भी हम शिक्षा जगत को पवित्र और आदर्श मानते हैं. प्राथमिक शिक्षक की छोटी-छोटी बेईमानियां, बल्कि प्राइवेट ट्यूशन करने को भी हम अपराध की तरह देखते हैं. हमारा दिल कहता है कि और लोग चाहे जो करें, शिक्षक को तो परम ईमानदार, समर्पित और निष्ठावान होना चाहिए. आखिर वह नई पीढ़ी को गढ़ने का काम करते हैं. आज के शिक्षकों के बारे में ऐसा सोचना उनके साथ अन्याय करना नहीं होगा?

किसी दौर में पत्रकारों के बारे में भी यही छवि समाज में थी कि वह हर हालत में सच को उजागर करने का काम करता है. अब मीडिया की बेईमानियों और पतन के बहुतेरे किस्से चौंकाते नहीं. बल्कि, हो यह गया है कि पत्रकार को संदेह की नज़रों से देखा जाने लगा है. नैतिकता और निष्ठा के लगभग सभी क्षेत्र काजल की कोठरी बन गए हैं. राजनीति में नैतिकता और जन-समर्पण आज़ादी के बाद से ही तिरोहित होने लगे थे. आज कोई नहीं मानता कि राजनीति में अच्छे लोग भी होंगे. बल्कि वह पंककही जाती है.

विश्वविद्यालयों में अब भी समर्पित शिक्षक की अच्छी संख्या है, उनके लिए यह प्रकरण कितना यातनादायक होगा.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 दिसम्बर, 2019)