Wednesday, February 22, 2023

ताकि हम उम्र भर मनुष्य बनें और प्रेम करना सीखें

लम्बा अरसा हुआ, हिंदी कविता में स्त्री-चेतना की लगभग अनिवार्य उपस्थिति दर्ज़ हुए। शायद ही कोई समकालीन या पिछली दो-तीन पीढ़ियों का कवि हो जिसकी कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाहना न हो। आज तो बहुत सारी कवयत्रियां लिख रही हैं और सदियों से संचित अपनी पीड़ा और आक्रोश को अपने-अपने तरीके से स्वर दे रही हैं। अच्छी बात यह है कि कवि भी इस चेतना से लैस हैं और मार्मिक एवं तेवरदार कविताएं लिख रहे हैं। हालांकि अब यह एक फैशन जैसा भी बन गया है। व्यवहार में घनघोर पुरुषवादी कवि भी स्त्री-विमर्श लिखने में पीछे नहीं रहते। खैर, समाज काफी बदला है। स्त्रियों के प्रति नज़रिए और स्वयं स्त्रियों के अपने प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है। सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्तर पर स्त्रियों ने आगे बढ़कर मुकाम हासिल किए हैं लेकिन एक सम्पूर्ण और स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में स्त्री की सहज स्वीकार्यता को अब भी लम्बा सफर तय करना बाकी है। साहित्य, विशेष रूप से कविता में यह स्वागत योग्य तेवर और दृष्टि तीव्रतर होती दिखाई दे रही है। 

हाल के वर्षों में रूपम मिश्र ने हिंदी कविता की इस पृष्ठभूमि में सर्वथा नए तेवर, विषय की गहनता और कहन के साथ अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। अभी उनका पहला कविता संग्रह आया है- "एक जीवन अलग से" जिसने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान खींचा है। पिछले कुछ वर्षों से रूपम की सर्वथा भिन्न तरह की कविताएं फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं। पिछले दिनों लखनऊ में उन्हें मंच से सुनने का भी अवसर मिला था। उनकी कविताओं में बेलाग कहन की मौलिकता तो है ही, उस 'पुरबिया परिवेश' की पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक जकड़न, धड़कन और तेवरदार प्रतिरोध भी है, जहां वे पली-बढ़ीं-रहती हैं और जहां के समाज की तमाम भीतरी तहों से अच्छी तरह परिचित हैं। ये कविताएं उसी परिवेश का निर्मम, विडम्बनात्मक और आक्रोशभरा बयान हैं। नारी-मुक्ति की पुरजोर घोषित चाहना इन कविताओं का अंतर्निहित स्वर है- "लड़ाई की रात बहुत लम्बी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो/ लेकिन न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जवाबदेही होगी।" (दुख की बिरादरी)

पूर्वी उत्तर प्रदेश का क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत काफी पिछड़ा है। स्वाभाविक ही स्त्रियों की स्थिति भी वहां अत्यंत उपेक्षित-शोषित रही है। पिछड़ी और दलित बहुल जातियों वाले इस क्षेत्र में स्त्री दोहरी-तिहरी मार का शिकार रही है। सवर्ण परिवारों की स्त्रियों का भी इस मामले में बुरा हाल रहा है। कम उम्र के ब्याह और  घर की 'कैद' बरकरार हैं। रूपम मिश्र की कविताओं में यही समाज स्त्री के चौतरफा दुखोंं, विडम्बनाओं और अंतनिर्हित प्रतिरोध के साथ गूंजता है लेकिन वास्तव में ये कविताएं पूरे देश की स्त्रियों का बयान और आक्रोश बनकर सामने आती हैं। यहां जन्म से लेकर पिता के घर की बंदिशें, मर्यादाएं और फिर ससुराल एवं पति के 'प्रेम' की वे निर्मम सच्चाइयां खुलती हैं जो बहुत कम देखी और महसूस की जाती हैं। जिसे परिवार और समाज विवाह कहता है, जिसका बड़े धूमधाम से समारोह आयोजित किया जाता और माता-पिता ईश-कृपा से 'बोझ मुक्ति' और 'ऊऋण' होना कहते हैं जिसे, वह वास्तव में है ऐसा है- 

"... घूंघट में एक पंद्रह साल की बच्ची का दृश्य है/वह एक धुंधली रोशनी की छांव में थकी, अनमनी बैठी है/ जिसे अभी खाना और नींद चाहिए थी/ उसे थमा दी जाती है एक जाहिल देह /.... और भारतीय वाङ्‍मय उसे पवित्र दाम्पत्य कहता है/ ... इस तरह स्त्री को कैद करने की ज़िद घर नाम की व्यवस्था बनाता है।" (अभी हम)   

यह रूपम की कविता का तेवर है और सवाल भी है। यहां 'प्रेम' स्त्री के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है, उसे निश्शस्त्र करने का, ठगने और गुलाम बनाने का- " स्त्रियां आदिकाल से जीतने की चीज थीं/ उन्हें जीतो साम-दाम-दण्ड-भेद चाहे जैसे/ पर इतने हथियारों की जरूरत कहां पड़ती है/ प्रेम है न, वो सब पर भारी पड़ा" (देह बड़ी सुविधा की चीज है) ...  

"पिता को विभीषण बनकर बच्चियों को बताना चाहिए/ अपनी जाति का वो अभेद अचूक अहिंसावादी हथियार- 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं'/ जिससे स्त्रियां हमेशा हारती रहीं" (पिता और बच्चियां) ... 

"तुमने जब भी कहा प्रेम करता हूं तुमसे/ मन पाथर हो जाता है/ ये आखर इतना जुठारा गया है कि आत्मा चखने से करमराती है" (दुख से सगेदारी)  

"जब तुम साथ कहोगी तो वो प्रेम कहेगा/ जब तुम प्रेम कहोगी तब वह प्रणय कहेगा/ जब तुम प्रणय कहोगी तो सावधान रहना वह पाप कह सकता है/ एक दिन तुम उछाल देना उसके सारे नैतिक शब्दों को/ साहस करना और बस संंसर्ग कहना/ तब देखना वो तिलमिलाकर फेंक देगा अपने सारे चमकीले हथियार/ और अपने महाशस्त्र प्रेम के लिए बिकल हो जाएगा" (महाशस्त्र) 

प्रेम के हथियार से पुरुष ने स्त्री को हमेशा से ठगा है, दबाया है लेकिन स्त्री के भीतर प्रेम की चाह उतनी ही आदिम है। प्रेम के बिना उसका जीवन अधूरा है लेकिन जिस प्रेम की चाहना और अतृप्ति उसे सभ्यता की सदियों से रही है, वह प्रेम कैसा है? संकलन की शीर्षक कविता 'एक जीवन अलग से' में वे बताती हैं- 

"प्रेम व रहन की रीति को प्रकृति से सीखना था हमें/ ... एक जीवन जिसमें मैं तुम्हें सारे बादल-झरने-नदियों और पहाड़ों के/ एक दूसरे से प्रेम करने के किस्से सुनाती/ मैं तुम्हारे पवित्र माथे को चूमकर दिसावर जाने वाली/ सारी बहकी हवाओं के प्रेमी झकोरों का नाम बताती/ ...एक ऐसा जीवन होता जिसमें हम उम्र भर मनुष्य बनना और प्रेम करना सीखते।

लेकिन यहां तो "डरती हिरनियां हैं/ जो कुलाचों के लिए तरसती हैं/ ... एक अभुआता समाज कायनात की सारी बुलबुलों की गर्दन मरोड़ रहा है" (अभुआता समाज) ... इस अभुआते समाज की सारी सड़न उघाड़ कर रख देती हैं ये कविताएं और उस दिन की अगवानी के लिए बेकरार हैं जब इसी धरती पर सब स्त्री-पुरुष उसी तरह प्यार करेंगे जैसे बादल-झरने-नदियां और पहाड़ एक-दूसरे से करते हैं,और -

"जहां प्रेम हो जाना एक फूलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता हो/ जहां नदियां पाटी न जाती हों/ जहां हरे पेड़ काटे न जाते हों? जहां पिता कहता ब्याह इतना भी जरूरी नहीं होता मेरी लाडो।" (उनके रोने से धरती भीज उठती है)

इन कविताओं में पिता, भाई, चाचा समेत घर एवं बिरादरी के पुरुष, प्रेमी और मां, चाची, भाभी, बुआ समेत सारी स्त्रियां बार-बार आते हैं।  "अपने घर-जवार की चिन्हारी में ढला हम भाई-बहनों का मन/ पिता, चाचा, आजा के जनारी भर की हमारी दुनिया/ यहां उजाला भी उनकी ही खादी की धोतियों से छनकर आता था/ संझियरई में बिहंसे हमारे गंवई चित्त/ हम मनुष्य भी उतने ही थे जितना चीन्ह में आते थे" (वे कहां हैं जो कविता लिखती हैं)  और "मेरा जन्म वहां हुआ जहां पुरुष गुस्से में बोलते तो स्त्रियां डर जातीं/ मैंने मां, चाची और भाभी को हंसकर पुरुषों से डरते देखा" (मेरा जन्म वहां हुआ) 

बृहत्तर समाज की इकाई के रूप में एक परिवार के भीतर की पुरुषवादी जकड़न और प्रकट रूप में "कहां है दुख" कहकर हंसने वाली स्त्री के आन्तरिक चीत्कार से शुरू होती ये कविताएं फिर पूरे 'पुरबिया परिवेश' की होते हुए चारों दिशाओं की हो उठती हैं। समाज का 'अभुआना' यहीं मिलेगा लेकिन सड़न वह पूरी दुनिया की है। यह कहन की खूबसूरती है,अत्यंत सादगी भरी और अंंचल विशेष की बोली-बाली से उसे धार देती हुई। स्थानीय बोली-बानी का स्वाद मोहक उतना नहीं है, जितना कि कथ्य के मारे मारक लगता है। यहां सिर्फ स्त्री का मौन चीत्कार ही नहीं है, उसकी विकसित होती चेतना और क्रमश: मुखर होता प्रतिरोध भी दर्ज़ हुआ है- 

"उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना/ कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारारेंगना/ अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो यशगान/ जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है" (दुख की बिरादरी)

रूपम की कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाह वास्तव में सहचर होने, बराबरी से , पूर्ण मनुष्य की हैसियत से, पहाड़ और झरने के जैसे प्रेम से स्वीकारे और सम्मानित होने की कामना है। वे परम्परा और मर्यादा के नाम पर स्त्रियों के साथ सामंती तथा प्रतिगामी मूल्यों वाला व्यवहार किए जाने पर तीखा प्रहार करती हैं। जैसा कि बैक कवर पर प्रकाशित टिप्पणी में हमारे समय के नितांत अलग तरह के कवि देवी प्रसाद मिश्र ने लिखा है "रूपम मिश्र उन बहुत कम स्त्री कवियों में हैं जिन्होंने नारी स्वातंत्र्य के बुनियादी प्रत्ययों पर कायम रहते हुए उसकी मुक्ति को भारतीय नागरिकता की बृहत्तर मुक्ति के कार्यभार से अलगाकर नहीं देखा है।" यह सचमुच महत्त्वपूर्ण बात है। भारतीय समाज में स्त्री की बेड़ियां तब तक नहीं कट सकतीं जब तक पूरे समाज की वास्तविक मुक्ति नहीं होती। इस पूरे समाज को ही प्रतिगामी मूल्यों, लैंगिक मानदण्डों, विविध भेदभावों, मर्यादा की जकड़नों और प्रकृति विरोधी विकास के मानकों से मुक्त होना होगा। इसीलिए इस संग्रह की अंतिम कविता "कविता की जिम्मेदारी' में रूपम लिखती हैं- 

"कैसी कालिख है जो हम/ अपने ही हाथ से अपने चेहरों पर पोत लेते हैं/कैसा बहरा शोर है गर्वीली आवाजों का जो झारखण्ड से/ भात-भात रटती बच्ची को सुनकर ठक्क नहीं हो जाता/ मौत की नींद में भात के सपने देखते ये बच्चे/ इस दुनिया पर थूक कर चले जाते हैं/ और मैं हूं कि गल्पों की कसीदाकारी उसी दुनिया पर करती जा रही हूं/ कविता यहीं खत्म करती हूं कविता बहुत जिम्मेदारी का काम है।" 

इसे पढ़ते हुए मुझे राजेश शर्मा के कविता संग्रह 'जो सुनना तो कहना जरूर' की अंतिम कविता 'अच्छी कविता' की याद आ गई जो इस तरह पूरी होती है- "अच्छी कविता किताब में नहीं होती/ अच्छी कविता किताब बंद कर देती है।" 

रूपम मिश्र का यह संग्रह पढ़ना एक मौलिक ऊर्जा से भर जाना है। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।

- न. जो, 21 फरवरी, 2023

(कविता संग्रह- एक जीवन अलग से, कवयत्री- रूपम मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, मूल्य 199/-     

       

 

 



    

Saturday, February 18, 2023

"मौसम का इस तरह बदल जाना भी एक खबर होता है"

कल दिल्ली से आलोक जोशी का फोन आया। उन्होंने Hindustan Times में मौसम के बदलने की कोई खबर पढ़ी होगी। कह रहे थे- "कभी आप मौसम पर खबरें लिखते थे। शायद आज भी लिखना चाहें क्योंकि खबर के अनुसार मार्च का तापमान फरवरी में होने लगा है।। मैंने उन्हें बताया कि मैं पहाड़ में अभी जनवरी में ही बुरांश का खिला पेड़ देख आया हूं। फेसबुक पर भी लगाया था। अब जनवरी में ही आम के बौर आने लगे हैं और सहजन के फूल भी एक-दो महीने पहले खिलने लगे हैं। 

लखनऊ में अपना डेरा बदलने के बाद आजकल किताबों और पुरानी फाइलों की उखेला-पुखेली चल रही है। क्या संयोग है कि आज सुबह एक फाइल में उस खबर की कतरन मिल गई जो मैंने 15 मार्च 1992 को कानपुर के स्वतंत्र भारत में लिखी थी और 16 मार्च के अंक में पहले पन्ने पर छपी थी। तब में कानपुर में उप स्थानीय सम्पादक के तौर पर तैनात था। यह खबर मौसम के चुपचाप बदल जाने के बारे में थी, जिसकी ओर शहरों में हमारा ध्यान कम ही जाता है। उस खबर में जो बदलाव तीस साल पहले मार्च-मध्य में दिखे थे, वे अब जनवरी के अंत और फरवरी की शुरआत में ही दिखने लगे हैं। नीचे वह पूरी खबर हू-ब-हू दर्ज कर रहा हूँ-

"मौसम का इस तरह बदल जाना भी तो एक खबर होता है

नवीन जोशी

"कानपुर, 15 मार्च।  आज सुबह-सुबह होटल से लगे नीम के पेड़ से कोयल की कूक सुनाई दी। पहले दिन स्टेशन से आते समय ठेले पर बिकते काले-भूरे शहतूत दिखे थे। हवा के झोंके के साथ सड़क पर फड़फड़ाते सूखे पत्तों और धूल के गुबार ने फालसों की याद दिला दी। लाल-लाल लट्टुओं से  लदे सेमल के पेड़ पर कहीं एक फूल पट से चिटका। चढ़ते सूरज के साथ ही बदन के स्वेटर ने अचानक चींटियों-सी चुभन दी। भीतर से बेसाख्ता आवाज आई- लो, मौसम बदल गया।

"एक और  सुबह गंगा तट की ओर जाना हुआ। रूखी रेत की मेड़ों पर उगाई गई हरी-हरी लतरों में खिले छोटे-छोटे पीले फूलोंं ने भी बदल रहे मौसम के साथ ककड़ी की याद दिला दी। उन पीले फूलों की जड़ों में वह धीरे-धीरे आकार ले रही होगी। वहीं कहीं लगभग वैसी ही बेलों में तरबूज और खरबूज की गोलाइयों का भविष्य तय हो रहा होगा। बालू की सतहों के नीचे गंगा की आर्द्रता और उर्वरा शक्ति से ताकत पाकर अलमस्त फैली बेलों की महीन शाखाओं में गुप-चुप वानस्पतिक प्रक्रियाएं चल रही होंगी प्रकृति का कोई अनचीन्हा पर गजब का चितेरा बांझ रेत की इन मौसमी फसलों को रूप, गंध और स्वाद देने के लिए बस तैयार ही समझिए।

"अपने आसपास देखिए। गुलमोहर, अमलताश, नीम जैसे पेड़ों की शाखाएं तेज हवा के झोंकों से सूनी होती दिख रही हैं। लेकिन और भी कुछ उनमें हो रहा है जो दिखाई नहीं दे रहा। मौसम के ताप और तेवर से इशारा पाकर सूनी होती शाखों की गांठों पर जीवन की हरियाली के अंकुर फूट रहे हैं। मिट्टी से खाद-पानी लेकर शाखाओं-प्रशाखाओं में एक खामोश हलचल मची है। नव-पल्लवों और कलियों का निर्माण हो रहा है जो फूटेंगे तो मई-जून की दुपहरियों को लाल गुलमोहर और पीले अमलताश के चटक रंगों और निमकौरियों की नीम -गंध से भर देंगी। देखिए कि हर चीज कितनी तैयारी मांंगती है और अभी भी उसी तरह से हो रही है जैसी सदियों से होती आई है। 

"हौले-हौले कितना कुछ बदल जाता है आसपास लेकिन महानगरों की आपाधापी, सनसनी, आतंक और रोजी-रोटी की व्यस्तताओं के चलते इन चीजों पर नजर ही कहां जाती है। सब कुछ अचानक हुआ दिखता है। अचानक ही एक रोज धूप के दांत तीखे हो जाते हैं। बिल्कुल अचानक एक सुबह धुंध और धूल से भरी उदासी ले आती है। अचानक ही सड़कें पीले पत्तों से भर जाती हैं। मूंगफली, अमरूद और हरी सब्जियों के दिन इने-गिने रह जाते हैं। बाजारों की शक्ल एक बार फिर बदलने लगती है। 'समर वियर' से सज जाते हैं शो-केस और सिल्क के चटक रंगों पर हावी होने लगते हैं सूत के शालीन रंग। लखनवी चिकन और बंगाली तांत की मांग बढ़ने लगती है। पत्र-पत्रिकाओं के महिला पृष्ठों पर 'गर्म कपड़ों की सुरक्षित संंभाल' जैसे विषयों पर लेख छापने की तैयारी होने लगी होगी। गर्मी बस आ ही पहुंची है। सुबह-सुबह की हवा भी तुर्शी खो रही है। क्यारियों में खिले जाड़ों के मौसमी फूल आंंखिरी हंसी हंस रहे हैं। तिपतिया पैंजी नन्हीं-नन्हीं आंखों से गदराए गेंदे को घूर रही है, जिसे अभी कुछ दिन और खिलना है।

"छह महीने से कहीं दुबकी हुई थी जो छिपकलियां, वे घरों की दीवारों-छतों पर फिर रेंगने लगी हैं। हवा और पानी में कुलबुलाने लगे हैं तरह-तरह के रोगाणु। शहर के बाहर खेतों में फूली पीली-पीली सरसों अब पकने लगी है। गेहूं की खड़ी बालियों के भीतर पनपा दुधिया प्राण तत्व ठोस आकार लेने लगा है और अमराइयों की शाखाओं में उठ रहा  है बौर। अर्थात मौसम सचमुच बदल गया है।

"और मौसम का इस तरह बदल जाना भी तो एक खबर होता है हुजूर, और ऐन इसी शहर में!" 

(लिखा गया 15 मार्च, 1992, यहां प्रस्तुत- 19 फरवरी, 2023)

Thursday, February 16, 2023

विज्ञान और ब्रह्माण्ड- एक रोचक एवं सरल पुस्तक-शृंखला



अंतरिक्ष में स्थापित अब तक की सबसे बड़ी दूरबीन 'जेम्स वेब' से मिले ब्रह्माण्ड के पहले चित्र जब जुलाई 2022 में जारी किए गए तो, आम जनता ने ही नहीं, विज्ञानियों ने भी उन्हें एक चमत्कार की तरह देखा। अखबारों ने उन्हें पहले पेज पर प्रकाशित किया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में  उन्हें तरह-तरह से दिखाया गया। इससे पहले ब्रह्माण्ड का नजारा दिखाने वाले सबसे बड़ी दूरबीन 'हबल' थी। 'हबल' से प्राप्त चित्रों और 'जेम्स वेब' से मिले चित्रों में बहुत अंतर इस मामले में है कि नए चित्र ब्रह्माण्ड  को और करीब तथा सूक्ष्मता से दिखाते हैं। इससे ब्रह्माण्ड की संरचना और उसके बहुत से रहस्यों पर नई रोशनी पड़ने की उम्मीद है। 

ब्रह्माण्ड बहुत पहले से मनुष्य की जिज्ञासा का केंद्र रहा है। धरती से दिखने वाले तारों को पहले-पहल इनसान ने आसमान के छेदों या उसकी छत पर टंके अथवा लटके हुए समझा था। तब उन्हें नंगी आंखों से ही थोड़ा-सा देखा जा सकता था। सूर्य और चंद्रमा समेत बाकी ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं, यही माना जाता था। इन्हें देवता की तरह देखा और पूजा जाता था। उनसे मनुष्य डरते भी थे। ज्ञान के अभाव में अंधविश्वास और अप्रामाणिक बातें फैली हुई थीं। कालांतर में कोपरनिकस, गैलीलियो, केप्लर और न्यूटन जैसे विज्ञानियों ने अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के बारे में नई वैज्ञानिक  जानकारियां दुनिया को दीं। फिर आइंस्टाइन जैसे विज्ञानी ने विज्ञान को नई प्रामाणिक जमीन पर खड़ा किया। यह सप्रमाण स्थापित हो गया कि हमारे सौरमण्डल का केंद्र सूर्य है और पृथ्वी समेत बाकी ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। इस ज्ञान तक पहुंचने में सदियां लगीं। अब भी विज्ञान की यात्रा जारी है। ब्रह्माण्ड केबारे में निरंतर नई-नई और रोचक जानकारियां सामने आ रही हैं। तो  भी बहुत कुछ अनुत्तरित है। दुनिया भर में विज्ञानी ब्रह्माण्ड के रहस्यों को खोजने में लगे हैं। 'जेम्स वेब' दूरबीन से अब जो देख पाना सम्भव हुआ है, वह और नई जानकारियां देगा।

अंग्रेजी में जहां हमारे ब्रह्माण्ड के बारे में विस्तार से और रोचक तरीके से बताने वाली बहुत पुस्तकें हैं, वहीं हिंदी इस मामले में काफी गरीब रही है। हिंदी में विज्ञान या तो जटिल अनुवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया या फिर अबूझ तकनीकी शब्दावली में लिखा जाकर अल्मारियों में कैद रह गया। हमारे प्यारे सखा और दाज्यू देवेंद्र मेवाड़ी जैसे बहुत कम लेखक विज्ञान को सरस, सरल और रोचक बनाकर पेश करते हैं। उनसे पहले गुणाकर मुले और कुछ अन्य लेखकों का नाम इसी बाबत लिया जा सकता है। 

'नवारुण' प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित 'विज्ञान और ब्रह्माण्ड' शृंखला की चार पुस्तकों को देखकर अत्यंत प्रसन्नता इसलिए हुई इनके लेखक विज्ञानी गिरीश चंद्र जोशी ने बहुत सरल भाषा में हमारे ब्रह्माण्ड की वैज्ञानिक खोजों का इतिहास से लेकर वर्तमान तक और भविष्य की योजनाओं एवं सम्भावनाओं का भी रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। यह सामान्य पाठकों के लिए तो सरस एवं जानकारीप्रद है ही, किशोर एवं युवा छात्रों के लिए अत्यंत उपयोगी है। शृंंखला की पहली पुस्तक "इतिहास तथा आधुनिक अवधारणा" (कुल पृष्ठ 190, मूल्य 290/-) अंतरिक्ष के बारे में मानव की आदि-जिज्ञासा एवं प्रारम्भ से पुनर्जागरण काल तक  खगोल विज्ञान के विकास के बारे में बताती है। दूसरी पुस्तक (पृष्ठ 86, मूल्य 130/-) दूरबीन के विकास और खगोल विज्ञान में उसके योगदान की विस्तार से चर्चा करती है। यहां गैलीलियो की छोटी सी दूरबीन से लेकर नवीनतम 'जेम्स वेब' दूरबीन तक का रोचक विवरण है। भविष्य में इस क्षेत्र में और क्या होने वाला है, इसका भी वर्णन आसान भाषा में किया गया है। तीसरी किताब "पृथ्वी तथा सौरमण्डल के सदस्य" (पृष्ठ 104, मूल्य 200/-) हमारी धरती और सौरमण्डल के अब तक ज्ञात नौ ग्रहों  के साथ ही उन ग्रहों के चंद्रमाओं या उपग्रहों से सम्बद्ध जानकारियों का खजाना है। चौथी पुस्तक "तारे, नीहारिकाएं, आकाशगंगा, मंदाकिनियां तथा ब्रह्माण्डिकी" (पृष्ठ 140, मूल्य 215/-) हमें दिखने और नहीं दिखने वाले तारों, विभिन्न आकृतियों में उनके समूहों, गतियों, दूरियों, आदि को आसानी से समझाया गया है। 

अब तक की खोजों से सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति 'बिग बैंग' से हुई अर्थात अनंत घनत्व वाले एक बिंदु के महाविस्फोट से निकली असीमित ऊर्जा से ब्रह्माण्ड शुरू हुआ और तब से इसका निरंतर विस्तार होता जा रहा है। ब्रह्माण्ड कोई स्थिर इकाई नहीं है, न ही इसकी सीमा है। जिस ऊर्जा से इसका जन्म हुआ वही इसे आज तक विस्तारित करती जा रही है। विज्ञानियों के मन में ये सवाल भी हैं कि क्या किसी रोज ब्रह्माण्ड का विस्तार रुक जाएगा? क्या उसके बाद यह सिकुड़ना शुरू होगा? क्या एक दिन यह उसी तरह नष्ट हो जाएगा जैसे इसकी उत्पत्ति हुई थी? ये रोचक प्रश्न हैं और विज्ञानियों के पास भी इनका कोई उत्तर नहीं है। अध्ययन और प्रयोग जारी हैं। इसी अध्ययन को ब्रह्माण्डिकी कहा गया है। 'विज्ञान और ब्रह्मांड' शृंखला की चारों पुस्तकें हमें विस्तार और सरलता से इसी सब के बारे में समझाती हैं।

डॉ जोशी प्रसिद्ध विज्ञानी डॉ डी डी पंत के शिष्य रहे हैं। लम्बे समय तक वे प्राध्यापक रहे और कई शोधों में उन्होंने हिस्सेदारी की। अवकाश ग्रहण के बाद विभिन्न देशों के पुस्तकालयों में उन्होंने ब्रह्माण्ड संंबंधी पुस्तकें देखने -पढ़ने के बाद सरल हिंदी में इन्हें लिखना तय किया। उनका यह काम हिंदी में सरस विज्ञान के प्रसार में महत्त्वपूर्ण होगा। 'नवारुण' पुस्तक प्रकाशन में नए मानक स्थापित कर रहा है- विषयवस्तु से लेकर डिजायन और प्रस्तुति में भी। युवा डिजायनर अर्पिता राठौर ने खूबसूरत आवरण के अलावा भीतर के पृष्ठों को भी अपने चित्रों-रेखांकनों से सजाया है। 

पुस्तक प्राप्त करने के लिए 9811577426, 9990234750 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

पुनश्च- उपर्युक्त पुस्तकें किशोर छात्रों के लिए बहुत रूप से उपयोगी हैं, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, लेकिन बालोपयोगी सरस विज्ञान पुस्तकों की भी हिंदी में बहुत जरूरत है। मुझे याद आता है कि 1980 के दशक में मैंने अपने बेटे के लिए "पृथ्वी के रूप का कैसे पता चला", "आओ, दूरबीन देखें" जैसी पुस्तकें खरीदी थीं, जो अत्यंत रोचक एवं सरल हिंदी में लिखी गई थीं और जिन्हें आकर्षक चित्रों से सजाया गया था। ऐसी पुस्तकें तब 'रादुगा प्रकाशन', मास्को से आती थीं और बहुत सस्ती मिलती थीं। वह सिलसिला कबके बंद हो गया। हिंदी में आज ऐसी पुस्तकें  तैयार किए जाने की बहुत जरूरत है ताकि अफवाहों और अंधविश्वासों के अंधेरे में धकेले जा रहे समाज की नई पीढ़ी में बचपन से ही वैज्ञानिक चेतना विकसित हो सके। यह जिम्मेदारी हिंदी के विज्ञान लेखकों और नवारुण जैसे प्रकाशनों को उठानी चाहिए।  

- न. जो. 17 फरवरी, 2023 

       

Wednesday, February 15, 2023

कीड़ाजड़ी - पिण्डर घाटी के जीवन का जादुई आईना

अनिल यादव  की कीड़ाजड़ीमें कीड़ाजड़ी उतनी ही है जितनी कीड़े में जड़ी या जड़ी में कीड़ा होता है। नाम अवश्य एक सनसनी पैदा करता है। कीड़ाजड़ी अब अपने नाम, काम और दाम से एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सनसनी है। इसे यह भी कोई देश है महाराजकी तरह अनिल यादव का ट्रैवलॉगयानी यात्रा वृतांत कहा गया है। उत्तर-पूर्वी भारत में अनिल की आवारगी का वृतांत सचमुच बहुत रोचक और खूबसूरत है लेकिन कीड़ाजड़ीमें कहीं से कहीं होते हुए कहीं आने-जाने की यात्रा नहीं है। वह पिण्डर घाटी के सुदूर क्षेत्र के एक लॉज और आसपास अनिल के अच्छा खासा समय जीने और वहां के जन-जीवन, प्रकृति, पशु-पक्षी, नदी-गाड़-गधेरे, बर्फ, पर्यटकों चाय-पानी और पदार्थको जीने और उस सब में अदृश्य को देख लेने एवं अश्रव्य को सुन लेने की विरल क्षमता का भेदक गद्य है। इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है लेकिन जो यथार्थ है उसे देख लेने, सुन सकने और लिख पाने की लेखक की क्षमता ने इस पुस्तक को उल्लेखनीय बना दिया है। यह दृष्टि और क्षमता पहाड़ को गहराई से देखने वाले यात्री-लेखकों के यहां भी दुर्लभ है। यह वास्तव में पिण्डर घाटी के बर्फीले शिखरों के निकटवर्ती इलाके का वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक एवं प्राकृतिक आईना है जो अपनी भेदक किरणों से तस्वीर के भीतर की तस्वीर भी दिखा देता है।

शायद तीन या चार साल पुरानी बात होगी। शायद कुछ और पुरानी। अल्मोड़ा से माफ करना हे पितावाले अनोखे लेखक और बहुत प्यारे साथी शम्भू राणा का कुछ इस तरह का संदेश आया था कि अनिल यादव काफी समय से लापता हैं। उनका कुछ पता नहीं चल पा रहा है। क्या आपके पास कोई सूचना है? मेरे पास कोई सूचना नहीं थी लेकिन जो जवाब दिया जा सकता था वही दिया कि अनिल बीच-बीच में लापता होता रहता है। कहीं भटक रहा होगा, आ जाएगा। मुझे यह भी नहीं पता था कि उन दिनों अनिल एक एनजीओ की योजना के तहत उत्तराखण्ड की पिण्डर घाटी के किसी सुदूर इलाके के स्कूल में बच्चों को कुछ समय के लिए पढ़ाने गया है। शम्भू से ही जानकारी मिली थी। अनिल की उसी भटकन और लापताई का परिणाम है पुस्तक कीड़ाजड़ी

उत्तराखण्ड के सुदूर एवं दुर्गम इलाकों की तरह पिण्डर घाटी के ऊपरी गांव भी गरीबी, उपेक्षा, लाचारी और पलायन झेलते आए हैं। पिण्डारी और सुंदरढूंगा ग्लेशियर के मार्ग के पड़ने के कारण 1970-80 के दशक से यहां पथारोहियों-पर्वतारोहियों का आना-जाना बढ़ा तो यहां के निवासियों के जीवन में गाइड और कुली के रूप में तदजनित ट्रिकल डाउन इकॉनॉमीके कुछ छींटे पड़ने शुरू हुए। चीन और तिब्बत होते हुए कीड़ाजड़ी (यार्सा गुन्बु) का अता-पता और ख्याति इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में यहां पहुंचे तो देसी-विदेशी दलालों-तस्करों के जरिए गरीब पहाड़ियों की हथेलियों में नोटों की कुछ गर्मी आनी शुरू हुई। सरकार जो विकासचुनाव-दर-चुनाव नहीं ला पाई वह कीड़ाजड़ी अपने आप ले आई।

साढ़े तीन हजार से पांच हजार फुट के ऊंचे शिखरों पर मिट्टी-पत्थरों के नीचे एक विशेष प्रजाति के कैटरपिलर लार्वा और एक फफूंद के अद्भुत संयोग से कीड़ाजड़ी बनती है। इन शिखरों पर जब सर्दियों में पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है तो कीड़े के खोल के भीतर से फफूंद का डंठल बाहर फूट पड़ता है। यही कीड़ाजड़ी है जिसे तलाशने और साबुत खोद निकालने के लिए इलाके के स्त्री-पुरुष-बच्चे बड़ी कठिन स्थितियों में गलती बर्फ के बीच दिन भर कुहनियों के बल रेंगते हैं। कई गम्भीर रोगों की दवा बताई जाने वाली कीड़ाजड़ी की सर्वाधिक उपयोगिता यौनशक्तिवर्धक के रूप में प्रचारित हुई। अंतराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत दस लाख से बीस लाख रु प्रति किलो और कहीं इससे भी अधिक है। पिण्डर और सुंदरढूंगा ग्लेशियरों के आस-पास भी सीमित मात्रा में कीड़ाजड़ी मिलती है। इसने यहां के लोगों का जीवन अजब-गजब ढंग से विकसित एवं विकृत कर दिया है।

अनिल यादव कीड़ाजड़ी के इतिहास-भूगोल-बाजार के बारे में थोड़ा-सा जाते हैं। बाकी वे पिण्डर घाटी के जीवन में गोते लगाते हैं। स्कूली बच्चे, मास्टर, चाय उबालते दुकानदार, जंगल-खेत आती-जाती औरतें, लड़कियां, नशा करते पुरुष, पर्यटकों-पथारोहियों को ताकते कुली-गाइड, स्थानीय देवी-देवता, मान्यताएं, कुत्ते, भेड़-बकरियां, गाय-भैंस, नदी-पेड़-पहाड़, बर्फीले शिखर, विविध रूपों-रंगों वाला आकाश, रातें, अंधेरे और हवाएं। ये सब यहां पात्रों की तरह हैं और अनिल सबसे मिलते-देखते-सुनते-बतियाते हैं। जो कहा गया उसके आगे-पीछे का अनकहा भी सुन लेते हैं। जो दिखता है, उसके नीचे-ऊपर का अनदिखा भी उनकी नजर में आ जाता है। वे नदी की आवाज में कोई नई आवाज मिली हुई सुन पाते हैं “जैसे पानी को लकड़ी की तरह चीरा जा रहा हो” और चांदनी में इस सृष्टि का हर रंग-शेड, जो जीवन के ही रंग हैं, अलग-अलग छान पाते हैं-

“मैंने आधी नींद में सुना, कुहासे में छनकर आती, ओस से भीगकर भारी हुई एक उदास लम्बी तान जिसमें मिट्टी और घास की पत्तियां चिपकी हुई थीं। मैं खिड़की खोलकर देखने लगा, देर तक धुंध में कुछ नहीं दिखाई दिया। तब मेरे भीतर एक तस्वीर बनने लगी। ज़िंदगी सूखे, कठोर पहाड़ की तरह अंतहीन फैली हुई है जिसकी दरारों में बहुत दूर कहीं-कहीं छोटे गुमनाम फूल पड़े हुए है, चिड़ियों की फड़फड़ाहट है, जलती हुई आग है, किसी जानवर के सांस की आवाज है, बच्चे की हंसी है, एक औरत की सिसकी है। वह तान इन सबको आपस में जोड़ने के लिए पानी की एक लम्बी डोर की तरह उड़ती हुई, इनमें से हर एक को एक फंदे में फंसाकर आगे बढ़ती जा रही है।”

समय के साथ पिण्डर घाटी का जीवन बदलता रहा और नहीं भी- “पिण्डर घाटी में कोई नाई नहीं है, न कोई हेयर कटिंग सैलून। पड़ोस के दो-तीन घरों के बीच एक पुराना डिब्बा घूमता है जिसमें उस्तरा, कैंची, कंघी, फिटकरी के गोले और एक नेलकटर रहते हैं। ग्रामीण एक-दूसरे के बाल काटते हैं। महीन बालों को साफ करने के लिए ब्रश और पाउडर नहीं होता, एक चुटकी आटे और कपड़़े से काम चला लिया जाता है। लौंडे-मौंडे किसी काम से जीप पर लदकर भराड़ी जाते हैं तो जेब में पैसों की उपलब्धता के आधार पर क्रमानुसार मोबाइल में गाना भराना, पसंद के बाल कटाना और बीयर पीना, तीन काम जरूर करते हैं। ....नए लड़के-लड़कियां हर मामले में उन चिकने शहरियों के जैसे होना चाहते हैं जो मोबाइल और टीवी में दिखाई देते हैं क्योंकि वे सभी उनकी जानकारी के मुताबिक श्रेष्ठ, खुश और मां कस्सम-खत्तरनाक हैं।”

जैसा कि होता है, वहां विविध और विचित्र चरित्र हैं जिनसे वह समाज व्याख्यायित होता है। अनिल उनसे आत्मीय हो उठते हैं और उनकी मार्फत दनपुरियों के जीवन के सूत्र पकड़ पाते हैं। इनमें मातृविहीन, अल्हड़ नन्हीं जोतीहै, जिसका कुली और गाइड बाप खूब पीता है (जो चंद वर्ष बाद किताब लिखे जाते वक्त बंगाल के पथारोहियों के साथ सुंदरढूंगा ग्लेशियर के एवलांच में मारा जाता है।) एक बाबा रामदेव है और यह नाम इसलिए पड़ा है कि उसे रामजी ने दर्शन देकर अपना मोबाइल नम्बर दिया था जिसे पुलिस ने जब्त कर लिया है। एक अनुपस्थित रमेश है जो वास्तव में असाधारण रूप से कठिन जीवन जीने वाले यहां के निवासियों की जिजीविषा का रूपक भर है। स्कूल के प्रिंसिपल कांडपाल हैं जो बच्चों को पीटते हुए उनका भविष्य बांचते है- अपने बाप की तरह दारू पीकर शहर की नाली में पड़े मिलेंगे, पत्ते में सब कुछ गंवा देंगे, भीख मांगेंगे, चोरी करेंगे...।” शांत स्वभाव का भोटिया कुत्ता गब्बर है जो “गरारा करते समय गले से उठने वाली आवाज में बातचीत की शुरुआत करता है।” पुराना गाइड और “पर्वतारोहण के इतिहास में न चाहकर भी याद किए जाने वाले कई अभियानों में ज़िंदा बच आया है।” पशु-पक्षी, गाड़-गधेरे, पिण्डर नदी, हवाएं, अंधेरा, बारिश, बर्फ, देवता और उनके जगरिया-डंगरिया, पेड़-जंगल, कीड़ाजड़ी, उसे टोहने-खोदने वाले ग्रामीण, दलाल-तस्कर, पुलिस-पटवारी, सब इस वृतांत में पिण्डर घाटी में मिट्टी-पत्थर की तरह छितराया जीवन उकेरते हैं। अनिल की ही तरह बच्चों को कुछ दिन के लिए पढ़ाने यहां आए दिल्ली-मुम्बई के अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ कुछ स्त्री-पुरुष भी हैं जो पहाड़ और पहाड़ियों को अपनी ही विशेषज्ञ-दृष्टि से देखते एवं परिभाषित करते हैं। कुछ दिन बाद वे लौट जाते हैं लेकिन अनिल रह जाते हैं उस जीवन में गहराई से पैठते हुए। पांच साल में वे इस इलाके में वे बार-बार आते हैं। हर बार जीवन और प्रकृति के रहस्य उनके और भी सामने खुलते हैं- “हर भौगोलिक स्थिति में फलने-फूलने वाली ज़िंदगी का वहां के अपने खतरों के साथ सचेत तादात्म्य होता है। यह जितना गहरा होता है, प्रकृति के नियमों की समझ बनती है, दक्षताएं आती हैं, जीने में सहायक विशिष्ट गुणों वाले लोग बनते हैं। ... सबसे अधिक घाटे में वे हैं जिनका प्रकृति से सबंध टूट चुका है। वे कुछ महसूस नहीं कर सकते।”

इसीलिए कीड़ाजड़ीसिर्फ यात्रा-वृतांत नहीं है। वह एक पहाड़ी इलाके के जीवन और प्रकृति में गहरे झांकने वाली खिड़की भी है। अनिल का अनूठा गद्य अतिरिक्त उपलब्धि की तरह है।

- न जो, 15 फरवरी, 2023

(कीड़ाजड़ी- अनिल यादव, हिंद पॉकेट बुक्स (पेंग्विन), 2022, पृष्ठ- 190, मूल्य रु 250/-)                                           

Sunday, February 05, 2023

गंगा 2

बहुत दुष्कर लगता है हमें 

एक छोटी-सी ज़िंदगी जीना

अनेक बार हारते हैं हम जीतते-जीतते

पड़ोस की नदी लौटाती है बार-बार

लहरों की तरह ज़िंदगी की ओर

सोचो तो कितना कठिन है एक नदी की तरह जीना

बहते रहना और शिकायत न करना

पीना कितने ही दर्द 

और उछालना छोटी-बड़ी खुशियां


कमर पर पत्थर बांध डूबने आती है गांव की दुखी लड़की

अंजुली में जल उठाकर शाप देती है परास्त मां

युगों की थकान मिटाता है यायावर

घुटनों तक पांव डाल

पूरे जीवन की करनी-न करनी का

प्रायश्चित करता बूढ़ा

नदी को ही हेरता-टेरता है बार-बार

नदी को ही होना है गवाह

परलोक की महायात्रा का

घाटों पर ही जुटेगा

स्वर्गलोकी पुरखों का भण्डारा

इदं नीरं इदं पिब


नदी तीरे ही आएगा संन्यासी

माया-मोह की माला जपने

नदी को ही ढोना है लावारिश की लाश

जंगल कटेंगे तो भी पीठ पर लाद लाना होगा नदी को

नदी ही झेलेगी चुनौती

करके दिखाएगी पहाड़ों को रेत

वही लगाएगी रेत का पहाड़ भी

करवट बदलकर नदी ही देगी जवाब

मनुष्य को प्रकृति से अनाचार का

मां भी बनेगी वही और बच्चे का खिलौना भी

सपने दिखाएगी नई युग-संधि के

नदी होना सचमुच युगों की कथा होना है


जिसकी लहरों में धड़कती है

एक पूरी सभ्यता

हजारों-हजार बरस से 

हम उसे गंगा कहते हैं

- न. जो. हरद्वार कुम्भ, 1997


गंगा 1

बड़ी-सी परात में पोते को नहलाती दादी

निहाल हो कहती है- हर गंगे-हर गंगे!

गंगे-गंगे तुतलाता है बच्चा

यहां-वहां से पिचका वह खानदानी लोटा

समाए होता है पूरी गंगा

ब्रह्मा के कमण्डल की तरह


तीज-त्योहार, संक्रांतियों पर 

पास की छोटी नदी में नहा आता है पूरा गांव

छितराए गंगलोड़ों पर यहां-वहां सूखते हैं मटमैले कपड़े

धूप में भाप बनकर उड़ते हैं पाप

बेटे की पीठ चढ़

गंगा नहाने का पूण्य पाता है बूढ़ा-लाचार बाप

ऊपर घने बांज-वन की जड़ों से फूटती है सीर

सोती-दर-सोता नदी बनते हुए

शिव की जटा से छूटी गंगा की धारा की तरह


गोमुख से गंगासागर तक

बहती है जो बहुविध

सिर्फ वही नहीं है गंगा

पर्वत से पीड़ा की तरह पिघलती

हर धारा में एक गंगा है

सगर के सौ पुत्रों की नहीं

भारत के करोड़ों वंशजों की तारणहार है गंगा


एक आचमनी भर

एक शीशी भर

एक लोटा भर

हर गंगा में मौजूद है गंगा

एक आश्वस्ति की तरह

(हरद्वार कुम्भ, 1997 में कवि सम्मेलन के मंच से पढ़ी गई कविता जो अचानक पुरानी फाइल में मिल पड़ी। एक और कविता जो वहां पढ़ी थी, कल पोस्ट की जाएगी- न. जो) 

Friday, February 03, 2023

दून लाइब्रेरी - परेड ग्राउण्ड से लैंसडाउन चौक तक

जून 2014 में जब मैं देहरादून गया था तो ‘दून लाइब्रेरीभी जाना हुआ था। पुस्तकालय के संस्थापक-निदेशक बी के जोशी से पुराना परिचय है। वे लखनऊ में गिरि विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक थे, तबसे। उनके अलावा पुराने मित्र चंद्रशेखर तिवारी से भी मिलना था जो दून लाइब्रेरी में शोध सहायक हैं। मित्र-मिलन से भी अधिक सुखद था यह देखना कि पूरा पुस्तकालय पाठकों से भरा था। जिन्हें भीतर बैठकर पढ़ने की जगह नहीं मिली थी, वे बाहर परेड ग्राउण्ड, जिसके एक कोने में लाइब्रेरी का अस्थाई भवन था, के किनारे बैठकर पढ़ने या चर्चा करने में व्यस्त थे। जब देश भर में सार्वजनिक पुस्तकालय बंद हो रहे हों या पाठकों से लगभग सूने हों, तब दून लाइब्रेरी की यह जीवतंता आह्लाद से भर गई थी। जोशी जी ने बताया था कि किताबों, सदस्यों और पाठकों के हिसाब से लाइब्रेरी की जगह बहुत कम पड़ गई है। अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए तब मैंने फेसबुक पर छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी थी। आज 2023 में यह जानना प्रफुल्लित कर देने वाला है कि दून लाइब्रेरी एण्ड रिसर्च सेण्टर’ (यही पूरा नाम है) अब अपने नए और बड़े भवन में चला गया है, जहां किताबों, सदस्यों, पाठकों और स्टाफ के लिए पर्याप्त स्थान है।

यह सचमुच बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह कैसे सम्भव हुआ, इसकी पूरी कहानी जोशी जी ने हाल ही में एक पुस्तिका लिखकर प्रकाशित की है- परेड ग्राऊण्ड टु लैंसडाउन चौक।लैंसडाउन चौक वह जगह है जहां आज दून लाइब्रेरी का नया भवन खड़ा है, जहाँ कभी धरना स्थलहुआ करता था। धरना स्थलकी जगह पुस्तकालय भवन का बनना भी एक प्रतीकात्मक परिणति है। किताबों से समाज में जो जागृति आती है, वह लोकतांत्रिक प्रतिरोध के नए द्वार खोलती है।

कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति पद से मुक्त होकर जब प्रो बी के जोशी 1998 में देहरादून जा बसे तो उनके भीतर वर्षों से बैठा बेहतर पुस्तकालय खोलने का सपना कुनमुनाने लगा। अमेरिका में अपने शोध-अध्ययन के दौरान वहां के विश्वविद्यालयों और विभिन्न शहरों के समृद्ध पुस्तकालयों को देखकर उनके मन में यह सपना बीज रूप में आ बैठा था। इस सपने की चर्चा 2005 में उन्होंने अपने लेखक मित्र एलन सेली और कवि-प्राध्यापक अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा से की। दोनों ने उत्साहित होकर सवाल किया- तो शुरू क्यों नहीं हो जाते?’ यह इतना आसान नहीं था। कोई भी अच्छा पुस्तकालय भारत में बिना सरकारी या सांस्थानिक सहायता के नहीं खोला जा सकता। शुरू भी कर दिया जाए तो चल नहीं सकता। तो, मित्रों के कहने पर जोशी जी ने पुस्तकालय खोलने के लिए एक प्रपत्र तैयार किया और तीनों मित्र उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव एम रामचंद्रन से मिले। वहां से न केवल प्रोत्साहन मिला बल्कि एक विस्तृत योजना-पत्र बनाने को कहा गया। रामचंद्रन के समर्थन और सहयोग से योजना-पत्र आगे बढ़ा। सुरजित दास, डी के कोटिया, अमरेंद्र सिंहा, इंदु कुमार पाण्डे, जैसे अफसरों का सक्रिय समर्थन मिलता गया और बहुत शीघ्र पुस्तकालय के लिए सरकार की तरफ से करीब सवा तीन करोड़ रु की व्यवस्था हो गई। एक गवर्निंग बॉडी बनी और सभी ने एकराय से जोशी जी को ही निदेशक (अवैतनिक) के रूप में पुस्तकालय को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी सम्भालने को कहा। धनराशि जरूरी थी लेकिन और भी बहुत कुछ चाहिए था, मुख्य रू से स्थान और भवन। काफी मशक्कतों के बाद कामचलाऊ व्यवस्था हो गई। रुकावटें भी कम नहीं आईं। अंतत: जब आठ दिसम्बर 2006 को तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने पुस्तकालय का शुभारम्भ किया तो प्रसन्न होकर उन्होंने पुस्तकालय के लिए पांच करोड़ रु की एक निधि (कोष) बनाने का ऐलान कर दिया, जबकि जोशी जी ने सहयोगी अफसरों की सलाह पर अपने स्वागत भाषण में मुख्यमंत्री से एक करोड़ रु की निधि का आग्रह किया था! तिवारी जी ने यह भी कहा कि इस पुस्तकालय को देश के श्रेष्ठ पुस्तकालयों के स्तर का बनाया जाना चाहिए।

तिवारी जी जैसे मुख्यमंत्री और चंद अफसरों के इस उत्साहजनक सहयोग के बाद दून लाइब्रेरी और रिसर्च सेण्टरने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। परेड ग्राउंड के एक कोने में ब्रिटिशकालीन सैनिक बैरकों के जिन तीन पुराने कमरों से पुस्तकालय शुरू हुआ था, वह शीघ्र ही देहरादून की सांस्कृतिक धड़कन बन गया। वह पठन-पाठन एवं पुस्तक-चर्चाओं का अड्डा बना, शोध-अध्ययन में बहुत सहायक हुआ और नौकरियों की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के सपनों को साकार करने वाला आवश्यक साधन भी। समाज विज्ञान, विशेष रूप से इतिहास, उत्तराखण्ड और हिमालय सबंधी शोध-अध्ययनों को उसने खूब बढ़ावा दिया और तत्संबंधी हर तरह की पुस्तकें/संदर्भ ग्रंथ उपलब्ध कराए। वर्षों से जगह की कमी झेल रहे इस पुस्तकालय को 2022 में देहरादून स्मार्ट सिटी प्रोजेक्टका बड़ा सहारा मिला। इसके तहत उसे लैंसडाउन चौक में नई जगह और नया भवन मिल गया है।

आज अराजक हो गई उत्तराखण्ड की राजधानी के हृदय-स्थल में दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेण्टरपठन-पाठन, सुकून, अध्ययन, लेखन, शोध और युवाओं के सपनों की परवाज का महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थल बन गया है। अक्टूबर 2022 में यहां 32,031 किताबें और 4829 सक्रिय सदस्य थे। पुस्तकालय की मदद से नौकरियां पाने में सफल युवाओं की बड़ी संख्या है। दून लाइब्रेरी से अब तक 21 पुस्तकें और पत्रक प्रकाशित हो चुके हैं। महत्त्वपूर्ण पुस्तकों पर चर्चाएं होती हैं और कभी-कभार सेमीनार भी।

देहरादून और उत्तराखण्ड को मूलत: प्रो बी के जोशी की यह देन अत्यन्त मूल्यवान है, जिसका प्रभाव समाज में दूर तक और गहरे जाना है। स्वास्थ्य और उम्र के कारणों से अब जोशी जी ने इसका निदेशक पद छोड़ दिया है लेकिन सलाहकार के रूप में पुस्तकालय को उनका दिशा-निर्देश मिलना जारी है। दून लाइब्रेरी के निदेशक अब एन रविशंकर हैं, जो जोशी जी के अभियान को आगे ले जाने के लिए कृत संकल्प हैं।                     

पुनश्च: परेड ग्राउण्ड टु लैंसडाउन चौकपुस्तिका के अंत में जोशी जी ने सुरजित के दास, जो 1983 में देहरादून के डीएम थे और बाद में भी विभिन्न पदों पर वहां रहे, का एक संदेश प्रकाशित किया है जिसमें वे बताते हैं कि देहरादून में एक पदम कुमार जैन थे, जिनके निजी पुस्तकालय में करीब अस्सी हजार पुस्तकें थीं। इसके लिए उन्होंने राजपुर रोड पर एक इमारत किराए पर ले रखी थी। ज्ञानलोकनाम का उनका यह पुस्तकालय जनता के लिए निश्शुल्क खुला रहता था। जैन साहब के निधन के बाद यह विशाल पुस्तक संग्रह लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की लाइब्रेरी को सात लाख रु में सौंपा गया लेकिन बाद में आग में भस्म हो गया।

पदम कुमार जैन साहब की स्मृति को सलाम करना भी यहां जरूरी है। बल्कि उनके बारे में और अधिक जानकारी सामने लानी चाहिए।   

- न जो, 4 फरवरी, 2023