मकान , बल्कि फ्लैट अब इस तरह ‘सुरक्षित’ बनाए जाते हैं कि कान के
पास आकर भुन-भुन करने वाला मच्छर भी धोखे से ही अंदर घुस सकता है। पशु-पक्षी-मानव
सह-अस्तित्व वाले सुनहरे दिनों की गौरैया की क्या बिसात जो चोंच में तिनके दबाए
हुए बार-बार घर में आ-जा सके। कभी कोई गौरैया भटकते हुए आ गई और धोखे से कोई खिड़की
खुली मिल भी गई तो उसे कोई कोटर मिलेगा न छत पर पंखे का खुला हुक-बॉक्स। आंगन कहते
थे जिन्हें, दादी-नानी की कथाओं में रह
गए। पूछा यह भी जा सकता है कि आजकल खिड़कियां क्यों बनाई जाती
होंगी जबकि बाहर हवा की गुणवत्ता खतरनाक सीमा में बनी रहती है और हवा को शुद्ध
करने के आविष्कार कमरे के भीतर उपस्थित हैं?
सवाल यहां यह नहीं है। मूल सवाल यह है कि वह नन्हीं दुबली-पतली
छिपकली घर में घुस कैसे आई जिसे देखते ही उमा चीखती-कांपती लगभग निर्वस्त्र बाथरूम
से निकल भागी है? तौलिया से किसी तरह बदन ढके हुए वह बेडरूम के एक कोने में इस
तरह सिमटती चली गई जैसे वहां कोई दरार होती तो उसमें जा घुसती, जैसे वह छिपकली का बच्चा बाथरूम के रोशनदान के फ्रेम और दीवार के बीच की बारीक
सेंध में जा दुबका है, जिसे छह गुणा आठ फुट के बाथरूम में
ढूंढने में महेश को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी।
‘मिला?’ बाहर से उमा का आकुल प्रश्न आता
रहा।
‘तू यहां आ कहां से गया?’ स्टूल पर चढ़े
महेश ने छिपकली को अंतत: तलाश लेने के बाद सीधे उसी से पूछा। वह भी उससे ऐसा ही
कुछ पूछ ‘रही थी’ या ‘रहा था’, यह महेश नहीं बता सकता। महेश की दृष्टि से फिलहाल
उसे ‘था’ कह लेते हैं। वैसे है वह ‘छोटा बच्चा’ ही! छिपकली की दो आंखें होती हैं,
यह महेश जानता था लेकिन वह उसे एक ही आंख से देखता दिख रहा था। जिस
बारीक सेंध में वह जा दुबका था उसमें एक लकीर की तरह दिख रहा था जिसके सिर पर उभरी
हुई एक आंख चमक रही थी। महेश को देखते ही उसने पूरी तरह ओझल हो जाने के लिए और
भीतर धंसना चाहा होगा लेकिन वहां अब उसके हिलने-डुलने की जगह नहीं रह गई थी।
‘मैं तुझे यहीं कुचल दूंगा,’ महेश ने अपना
फैसला सुनाया। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं था। बाहर गैलरी या किसी दूसरे फ्लैट की
दीवार में भी छिपकली दिख जाने पर उमा को लगता था कि वह अभी उस पर कूद पड़ेगी। वह
चीखते हुए भीतर भाग जाती। निश्चय था कि घर में छिपकली या उमा में से एक ही रह सकता
है और ऐसा एक भी कारण नहीं था कि उमा के बारे में सोचना पड़े, वह भी एक नामुराद छिपकली के लिए! बल्कि इस समय तो अत्यंत रोमांटिक दृश्य
उपस्थित हुआ पड़ा था। नहाने के लिए तैयार उस साढ़े पांच फुटी सुंदर काया को मुश्किल
से दो इंची जीव ने बाथरूम के बाहर खदेड़ रखा था और वह तौलिया से तन ढकने की असफल
कोशिश में कुछ असहजता और बाजी भय से कांप रही थी। बिल्कुल किसी मुम्बइया हिंदी
फिल्म का दृश्य! एक बार तो नायक महेश के भीतर रोमांटिक लहर उमड़ने लगी थी लेकिन
तौलिया के पीछे इस समय एक लिजलिजा-घिनौना भय प्रकम्पित हो रहा था जिसे उमा की
आंखों और कंपकंपी में स्पष्ट देखा जा सकता था।
‘ज़ल्दी भगाओ उसे,’ उमा विनती में भी गरजी।
तभी उसका ध्यान बेडरूम के चौरस खुले द्वार की ओर गया- ‘हे
राम, दरवाजा भी पूरा खुला है!’ ड्रॉइंग
रूम में कन्नू की ऑनलाइन क्लास चल रही थी। तौलिया सम्भाले हुए वह चार लम्बे डगों
में लपकी और फटाक से द्वार बंद करके उसके पीछे पर्दे की ओट में अपेक्षाकृत आवृत
अनुभव करते हुए खड़ी हो गई।
महेश ने छिपकली के बच्चे को घेर लिया था, यह
कहना सही नहीं होगा। घिर तो वह खुद ही गया था। बस, महेश ने
उसे इस निरुपाय स्थिति में ढूंढ लिया था। उसे किसी सख्त नुकीली चीज से वहीं कुचल
देना था। अव्वल तो वह फिलहाल उस दरार की सुरक्षा से निकलेगा नहीं और किसी तरह भगाया
भी जा सके तो उसे बाहर खदेड़ना बहुत मुश्किल होगा। छोटे-से रोशनदान में बाहर से जाली
जड़ी हुई है और एक मात्र दरवाजा बेडरूम में खुलता है। उसे बेडरूम में आने देना,
मतलब बहुत बड़ी मुसीबत मोल लेना होगा। वहां उसके छिपने, बल्कि लापता हो जाने के तमाम रास्ते हैं। ‘वर्क
फ्रॉम होम’ के इस दौर में किसके पास इतना फालतू समय है!
महेश ने स्टील का स्केल पास ले जाकर छिपकली पर निशाना साधा
ताकि एक ही वार में काम तमाम हो जाए। निकल भागने का मौका मिला तो वह छका डालेगा।
सिर पर उभरी नन्हीं गोल-मटोल आंख से वह उसे देखे जा रहा था, अपलक।
क्या छिपकली की पलकें होती हैं? इस समय जिस प्रश्न का कोई
अर्थ नहीं था, वही उसे सूझ गया। कन्नू से पूछना पड़ेगा जो
फौरन गूगल बाबा के पास जाकर उत्तर खोज लाएगा। छिपकली की पलकें हों या न होती हों,
अभी तो उससे निपटना था जो दम साधे उसके उठे हाथ को या उसकी आंखों को
देखे जा रहा था। क्या वह समझ पा रहा है कि उसका अंतिम समय आ गया है? कि अगले क्षण उसका अस्तित्व समाप्त हो जाना है? उसे
कैसा लग रहा होगा?
‘जल्दी करो, कपड़े अंदर हैं। कब तक ऐसे खड़ी
रहूं,’ उमा परेशान हो रही थी।
महेश ने स्केल पर मुट्ठी कसी और हाथ उठाया लेकिन वार नहीं
कर पाया। सांस रोके छिपकली के नन्हे बच्चे की आंख में उसे वे दो आंखें दिखाई दीं
जिन्हें पिछले दो दशकों के हालात ने उसे कभी भूलने नहीं दिया था। प्राण-भय से फैल
गईं, अपने अस्तित्व की सम्पूर्ण करुणा से डबडबाईं, एक-एक
मांसपेशी और तंतुओं से याचना टपकाती आंखें, खूंखार जबड़े खोले
आती मौत के सामने जुड़े कांपते हाथ और पीछे शहर जलता दिख रहा है। जो नहीं दिख रहा
है लेकिन जिसका दिखना कई रूपों में जारी है, वह हाथों में
छुरे, तलवार और त्रिशूल लिए सैकड़ों हाथ और खूंखार चेहरे हैं।
उस मौन तस्वीर से उठती चीख-पुकार और हा-हा कार महेश के दिल-दिमाग में गूंज उठे।
तत्क्षण उसका हाथ ढील होकर नीचे झूल गया।
आखिर कोई किसी जीवित प्राणी को कैसे कत्ल कर सकता है? कोई
भी मनुष्य किसी निरीह, निर्दोष, निहत्थे
जीव पर कातिलाना वार कैसे कर सकता है? किसी की गरदन या गर्भ
पर तलवार कैसे मारी या तानी भी कैसे जा सकती हैं? किसी को आग
में जीवित कैसे झोंका जा सकता है? मैं इस नन्हे बेकसूर बच्चे
को क्यों मारने जा रहा हूं? उसे झुरझुरी हुई। कांखों और माथे
से पसीना रिसता अनुभव हुआ।
‘तू आ कहां से गया दोस्त, और अब जाएगा
कहां?’ छिपकली का बच्चा उसी तरह महेश को देखे जा रहा था।
‘अच्छा, ठहरो,’ महेश
ने कमोड के पास लगे रोल से लम्बा-सा टिश्यू पेपर फाड़ा और उस संधि में भर दिया जहां
वह दुबका हुआ था- ‘फिलहाल यहीं रहो। निकलने की कोशिश भी मत
करना।’ जिस तरह कागज वहां दबा दिया गया था, उसमें इसकी सम्भावना थी भी नहीं। महेश ही डरता रहा कि कहीं उस बेचारे का
दम न घुट जाए।
उसी दोपहर बाद उसका नाम
नलिन पड़ जाना था।
‘क्योंकि हम अपने दोस्त नलिन को छिपकली कहते हैं,’ कन्नू ने ऑनलाइन क्लास की ‘सजा और बोरियत’ के बाद
मां से छुपकर उसका दीदार करते हुए सप्रसन्न घोषणा की- ‘वह भी
छोटा-सा, दुबला-पतला है लेकिन बहुत स्मार्ट।’ कन्नू को इस रहस्य ने लगातार गुदगुदाए रखा कि जिस नन्हे जीव से उसकी मां
बेतरह डरती है, उसे पापा ने बाथरूम के एक नामालूम दर्रे में
सुरक्षित जगह दे दी है।
‘लेकिन मम्मी को पता चल गया तो?’
‘कोई रास्ता निकालना पड़ेगा।‘
‘बार-बार बाथरूम क्यों जा रहे हो?’ उमा
बेटे के लिए चिंतित हुई।
‘हैंड वाश। मिस मार्ग्रेट रोज कहती हैं बार-बार हैण्ड वाश करना
है।’ मां आश्वस्त हुई और कन्नू कनखियों से पापा को देखकर
मुस्कराया। बाप-बेटे की सरगोशियां बढ़ गईं। बेटे के हाथ में पापा का स्मार्ट फोन बार-बार
और देर तक जाने लगा। गूगल बाबा की लिजर्ड-क्लास पापा को भी चाहिए थी।
‘नहीं, दम घुटने से नहीं मरेगा।’
‘खाएगा क्या?’
‘हफ्ते भर बिना खाए रह सकता है।’
‘तब तक तो कुछ उपाय हो जाएगा,’ महेश को
राहत मिली। रात में कन्नू की ज़िद पर रोशनदान से टिश्यू पेपर की जेल का द्वार
चुपचाप ढीला कर दिया गया।
‘उसने पापा को थैंक्यू कहा।’
पापा ने बेटे के गाल पर बहुत दिनों बाद प्यार की चपत लगाई।
...
हर तरफ यही शोर था कि कैसा अजब-गज़ब समय आ गया है। इस पर
सोचने वाला कोई नहीं था कि ऐसा समय आया ही क्यों या इसके आने, बल्कि
लाने के लिए ज़िम्मेदार कौन है। मास्क पहने हर वह मनुष्य हैरान-परेशान और बेहद डरा
हुआ था जिसके पेट के लिए पर्याप्त रोटी और सिर पर छत सुरक्षित थी। एक अदृश्य
महामारी नाक-मुंह के रास्ते फेफड़ों में जा घुसने और प्राण हर लेने के लिए आवारा और
अदृश्य घूम रही थी। जिनके चूल्हे में जलने के लिए आग तरस रही थी और बच्चों की
अंतड़ियां ऐंठकर आंखों में उमड़ आई थीं, वे खुले मुंह सड़कों
में दोतरफा मौत का सामना कर रहे थे। कुछ ही लोग थे जो रोटी की पोटलियां, बिस्कुट के पैकेट और पानी की बोतलें लिए उनकी ओर बढ़ रहे थे। बाकी विशाल
आबादी अपनी छतों और बालकनियों में खड़े होकर तालियां और थालियां पीट रही थी,
साथ ही सड़कों पर लगी चीटियों जैसी मानव-कतार को कोस रही थी कि यही
जाहिल और गंवार लोग वायरस फैलाने में लगे हैं। पहले तबलीगियों ने जान-बूझकर वायरस
फैलाया और अब ये बेकार-फालतू लोग खुले मुंह सड़कों पर निकल पड़े हैं। इफरात फुर्सत
में बिरयानी, वेज पुलाव से लेकर जलेबी और गुलाब जामुन बना-बना
कर फोटो फेसबुक-व्हाट्सऐप पर डालने के बाद ये समझदार लोग अति गम्भीर चिंता के साथ
पूछ रहे थे कि आखिर ये मूर्ख लोग देश को महामारी के मुंह में क्यों झोंक रहे हैं,
जहां थे वहीं क्यों नहीं रोके जा रहे? किसी
जादूगर के करतबों से मोहाविष्ट-जैसे बालकनियों और छतों वाले ये लोग यह नहीं जानते
थे कि सबसे खतरनाक महामारी उन ज़ाहिल लोगों के पेटों में बसती है और यह भी कि बंद
ट्रेनों और खड़ी बसों को ताकना छोड़कर जब ये करोड़ों लोग तपती सड़कों पर नंगे पांव
चलना शुरू कर देते हैं तो आसमान में उड़ते हवाई जहाजों के पेट में फफोले पड़ जाते
हैं।
घर दफ्तर बन गए थे और स्कूल स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर सिमट
आए थे। जिनके पास ये अत्यावश्यक चीजें नहीं थीं, वे जीवन की पटरी से
अपने आप बाहर हो गए थे। पिता महेश और बेटा कन्नू भाग्यशालियों में शामिल थे। एक का
दफ्तर बेडरूम के कोने में चल रहा था और दूसरे की क्लास ड्राइंग रूम में लगी हुई
थी। उमा की यूट्यूब-व्हाट्सऐप व्यस्तता अवश्य बहुत कम हो गई थी। जिस मोबाइल फोन को
बच्चों से दूर रखने की तमाम सलाहों पर अमल करने के लिए वह स्वयं उससे चिपकी रहती
थी, वही स्मार्ट फोन कन्नू के हवाले करना पड़ा था। मोबाइल पर
दिन भर चलने की अभ्यस्त उसकी अंगुलियों से इन दिनों किचन में बर्तन अक्सर गिर पड़
रहे थे और कामवाली बाई की छुट्टी कर दी गई थी। लगभग सभी भाग्यशाली घरों की खन-खन,
खट-पट, बड़-बड़ वेब-मीटिंगों और बच्चों की ऑनलाइन
क्लासों तक गूंज जाती थी जिसे वर्चुअल दुनिया में तनी भौंहों एवं दबी हंसी के साथ स्वीकार
कर लिया गया था।
किचन में बड़ा-सा चमचा झन्न-से गिरा तो कन्नू मम्मी पर झुंझलाता
हुआ बाथरूम चला गया।
‘पापा, नलिन!’ वह
उलटे पांव लौटकर महेश के इयर फोन के पास हौले से चीखा। नाजुक हाथों के लिए
सुरक्षित, सुगंधित और मुश्चराइजर-युक्त बनाए गए स्पेशल सेनीटाइजर
की विक्री बढ़ाने के लिए चल रही मीटिंग में व्यवधान पड़ा। कन्नू के गाल पर पड़ने वाला
थप्पड़ लैपटॉप का वैब-कैम ऑन होने का ध्यान आते ही प्रश्न चिह्न में स्थिर हो गया।
‘नलिन!’ सहमे कन्नू ने बाथरूम की ओर इशारा
किया और आंखें फैलाईं।
‘एक्सक्यूज मी,’ महेश तुरंत उठा। उसके लिए
एक बड़ा और महत्वपूर्ण टारगेट बाथरूम में इंतज़ार कर रहा था। नलिन बाथरूम की छत पर चहलकदमी
कर रहा था। रोशनदान की तंग दरार से पूरी तरह स्वतंत्र, निश्चिंत
और निर्भय। महेश को देखते ही उसने अपनी पूंछ हिलानी बंद की और पूरी सतर्कता से उसे
घूरने लगा। उसकी दोनों आंखें चमक रही थीं और उनमें किसी प्रकार का भय नहीं था। जो
था उसे कौतुक ही कहा जाएगा।
‘क्या करूं तेरा? कल ही मार देना चाहिए था,’
महेश ने दांत किटकिटाए और उसकी तरफ हाथ उठाया लेकिन नलिन ने कोई
हरकत नहीं की। इस बार महेश ने थोड़ा-सा उछल कर उसे डराया। तब भी वह थोड़ा-सा पीछे खिसका
और ठहरकर महेश को देखने लगा। महेश को गुस्सा आ गया। चलती मीटिंग से जो ‘एक्सक्यूज’ वह चिरौरी करके मांग लाया था उसमें
ज़्यादा अवकाश नहीं था। महामारी जानें ही नहीं, नौकरियां भी
ले रही थी। महेश को प्रोजेक्ट को सफल बनाने में अपनी उपयोगिता साबित करनी थी और
यहां छिपकली का बच्चा उससे खेलने की मुद्रा में तैनात था। उसे सचमुच ताव आ गया।
उसने बिना सोचे-समझे कमोड साफ करने वाला ब्रश उठाया और पूरे जोर से उस पर दे मारा-
‘मर!’
लगा, वह फर्श पर गिर पड़ा है लेकिन वहां सिर्फ
उसकी नन्हीं पूंछ थी जो छटपटा रही थी। महेश के गुस्से ने चिंता का रूप ले लिया-
मैंने उसे मार डाला! वह परेशान हो गया।
‘छुप गया, पापा?’ कन्नू
अपनी क्लास से अधिक उसकी चिंता में पूछने आया।
‘नहीं, मर गया!’ महेश
का स्वर अपराध-बोध में डूबा था- ‘ये देखो!’
‘मरा नहीं, पूंछ छोड़कर आपको ठग गया!’
कन्नू हंसा। उसने गूगल बाबा से सब जानकरियां जुटा रखी थीं। शरारती नलिन
पता नहीं कब वापस उसी दरार में जा छुपा था। उसका आकार और भी छोटा हो गया था। पूंछ
हीन, सौंदर्य विहीन!
‘पूंछ फिर उग आएगी लेकिन तब तक खाना-पानी स्टोर नहीं कर पाएगा,’
कहते हुए कन्नू भागा- ‘मेरी मैथ्स क्लास!’
भागा महेश भी और ‘एक्सक्यूज’ से दोगुनी बड़ी ‘सॉरी’ बोलकर
लैपटॉप में घुस गया।
‘नलिन का काम करना है, पापा!’ स्कूल की छुट्टी होते ही कन्नू महेश के पास फुसफुसाया। महेश ने उसे हाथ के
इशारे से बरज दिया। बेमुरव्वत बॉस ने प्रतिद्वद्न्द्वी कम्पनी के जो विक्री-आंकड़े सामने
रखे थे, उसे उसका भरोसेमंद जवाब देना था। स्कूल की छुट्टी
होते ही मोबाइल पर उमा का कब्जा हो चुका था। कन्नू ने ‘दो
मिनट’ कहकर धीरे से पापा का मोबाइल उठा लिया।
‘पापा का फोन वापस रखो,’ अपने पसंदीदा वेब-सिरीज
में डूबी होने के बावजूद बेटे के प्रति वह चौकन्नी थी।
‘नलिन का काम करना है।’
‘नलिन का काम तू करेगा? झूठ नहीं! वह खुद
ही इतना होशियार है। फोन वापस, फौरन!’ कन्नू
अपना-सा मुंह लिए कमरे से बाहर चला गया।
....
‘पापा, ये देखो.’
‘क्या है?’ दफ्तर के बाद महेश का मूड अच्छा
नहीं था। उसके जूनियर चार सेल्स-एक्जीक्यूटिव की नौकरी चली गई थी। एक ई-मेल ने
उन्हें बेरोजगार कर दिया था। उसे भी चेतावनी मिली थी। वह बहुत घबराया हुआ था।
‘नलिन का पिंजड़ा।’ टूथपेस्ट के खाली पैकेट
को फाड़कर, फिर उलटा चिपकाकर उसे काला रंग दिया गया था,
जैसा रोशनदान के फ्रेम का रंग था।
‘इसमें जाएगा कैसे?’
‘चलो, कीड़े ढूंढें।’
महेश को तनाव ढीला करने और कुछ नया सोचने के लिए ‘डायवर्जन’
वाला फॉर्मूला याद आया। कुछ देर के लिए ध्यान दूसरी तरफ लगाओ,
अच्छा आयडिया आएगा, मैनेजमेण्ट-गुरु ने एक दिन
पाठ पढ़ाया था। वह कन्नू के पीछे चल दिया।
‘कहां जा रहे हो? मास्क लगाओ,’ किचन से उमा ने हिदायत दी।
सोसायटी के पार्क की दूब में कीड़े होने चाहिए थे लेकिन खोजे
से भी एक न मिला। पहले छोटे-छोटे भुनगे-पतंगे उड़ा-उछला करते थे। मिट्टी में केंचुओं
की निगली-उगली नन्हीं गोल-गोल दानों की ढेरियां दिखा करती थीं। बरसात में तो वे बिलों
से निकल कर रेंग देहरी तक आ जाया करते थे।
‘अब नहीं मिलेंगे,’ फोन वापस करते हुए
कन्नू ने निराशा के साथ घोषणा की- ‘इंसेक्टिसाइड्स ने मिट्टी
में कीट और केंचुए खत्म कर दिए। इसीलिए गौरैया भी नहीं आती। उनका भोजन छिन गया।’
महेश बेटे की प्रखरता से खुश और नई जानकारी से उदास हुआ।
‘अब?’
‘जाले ढूंढते हैं,’ उसने कहा। गैलरी और
बरामदे के ओनों-कोनों में जालों की कमी नहीं थी। जालों के साथ छोटी-छोटी मकड़ियां
थीं और सूखे मच्छर भी। बड़े यत्न से उन्हें नलिन के पिंजरे में भरा गया। रात उसे
रोशनदान के फ्रेम के पास बहुत चुपके से टिका दिया गया। काले फ्रेम में वह छुप-सा
गया। बाप-बेटे की मौन प्रार्थनाओं में शामिल रहा कि उमा की नज़र न पड़े।
...
सुबह जब इंसान नींद से जागता है तो उसे तरोताज़ा होना चाहिए।
शरीर में स्फूर्ति, मस्तिष्क शांत और चित्त प्रसन्न। ऐसा नींद और सेहत का विज्ञान
किताबों में कहता है जिसे डॉक्टर दोहराते रहते हैं। महेश की नींद और सुबहों से
ज़ल्दी खुली तो दिमाग की नसें धप-धप कर रही थीं। चित्त बेचैन और नौकरी के तनाव में था।
नौकरी खोने वाले उसके तीनों जूनियत फोन पर लगभग रो पड़े थे। दो बड़े पैग ह्विस्की के
चढ़ा लिए थे, तब भी नींद उचटती रही। उमा उसके पीने पर अलग
बड़-बड़ कर रही थी- ‘काढ़ा पीना चाहिए। इससे इम्युनिटी और कमजोर
होती है।’ कल शाम मीटिंग समाप्त होते-होते बॉस ने नया आयडिया
दे दिया था। वही टार्गेट बन कर नशे और नींद पर हावी रहा। बाजार से कार, कागजात, इलेक्ट्रॉनिक सामान, करंसी,
आदि के लिए स्पेशल सेनीटाइजर की मांग आने लगी थी। कई कम्पनियों ने अल्कोहल
आधारित सेनीटाइजर्स को गीले ‘स्प्रे’ की
बजाय सूखे ‘फ्यूम्स’ में बदलने वाले छोटे
उपकरण बाजार में उतार दिए थे। बाजार हर चीज को कोरोना-फ्री बना कर पेश करने में
लगा था। लॉकडाउन से खस्ता हुई कम्पनी इस नए उद्यम में जूझ रही थी। ‘सरवाइवल’ के लिए पूरी क्षमता झोंकनी होगी, बॉस रोज चीखता था।
सरवाइवल माने नौकरी। लोन वाला मकान। कार की किस्त। कन्नू का
इण्टरनेशनल स्कूल। महेश को बंद आंखों से भी सड़कों पर दिन-रात चलता कामगारों का
रेला दिखने लगता। वह कन्नू को अपने कंधे पर बैठाए, उमा का हाथ थामे नंगे
पांव तपती सड़क पर चलता देखता और सिहर उठता।
नाथरूम में नलिन का पिंजरा अपनी जगह टिका हुआ दिखा। नलिन का
पता नहीं था कि दरार में दुबका है या नए आशियाने में आ गया है। कन्नू ने कई बार
जाकर देखा। महेश का सारा ध्यान दोपहर में बॉस से होने वाली मीटिंग पर था। उसे कोई
नया आयडिया, प्रैक्टिकल प्लान, कोई इनोवेशन चाहिए था
बॉस के सामने रखने को। उसने दो-तीन उपाय सोचे और उन्हें विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत
करने का अभ्यास किया मगर उसकी नौबत ही नहीं आई। सेनीटाइजेशन-टनल लगाने का नया प्रोजेक्ट
रातों रात लांच कर दिया गया था। शहर के लिए दस मशीनें तत्काल पहुंच रही हैं। बैंक,
महत्त्वपूर्ण सरकारी कार्यालय, नगर निगम एवं
प्राधिकरण के दफ्तर, अस्पताल, आदि, जिनका खुलना बहुत आवश्यक है, उनके प्रवेश मार्ग पर
सेनीटाइजेशन टनल बनानी हैं। वहां आने-जाने वालों पर टनल से गुजरते समय सेनीटाइजर की
बौछार पड़ेगी। महेश और उसकी टीम को तुरंत निकलकर डी एम से ऑर्डर हासिल करने थे।
‘बी फास्ट एण्ड स्मार्ट, यू नो द प्रेसर!’ एक टार्गेट से गर्दन निकली तो दूसरे में फंसी।
उस दिन ‘सरवाइवल’ हो गया। कुछ
ऑर्डर हाथ लग गए थे। डी एम स्वयं भी दबाव में था। कोरोना का संक्रमण नियंत्रित करते
और होते हुए दिखाना था। उमा ने महेश के लौटते समय हाथ में सेनीटाइजर लेकर गेट से
लेकर बाथरूम तक सब खोल रखा था। वह बिना कुछ छुए सीधा नहाने गया। कन्नू अपने कमरे
में किताबों पर झुका होम वर्क में डूबा था। क्लास में डांट पड़ी या उमा ने टाइट
किया होगा।
नमक-पानी के गर्म गरारे के कड़े अनुशासन के बाद की बेस्वाद
चाय से तनिक खिन्न वह बिस्तर पर लधर गया। झपकी ही आई होगी। वेब-सीरीज में खोई उमा
की हंसी से उसकी भारी पलकें खुलीं। जिस करवट वह लेटा था, उसी
तरफ बाथरूम का दरवाजा था। उसके बाहर कोने में रखे डस्टबिन पर उसकी खोई-खोई दृष्टि
टिकी हुई थी। डस्टबिन से झांक रही कोई काली-सी चीज नज़र के दायरे में थी लेकिन
दिमाग में कल का ‘सरवाइवल’ हलचल मचाए
था। ऑर्डर पाने के लिए सुबह से ही दौड़ लगानी होगी। अचानक उसके दिमाग में दर्ज़ हुआ
कि डस्टबिन में पड़े काले डिब्बे के खुले सिर से दो छोटी-छोटी गोलियां चमक रही हैं।
नलिन महेश को ही देख रहा था।
‘ये क्या फेंका है?’ महेश चीखते हुए उछला
और डस्टबिन से डिब्बा उठा लिया। स्मार्ट नलिन पलक झपकते भीतर दुबक गया था।
‘बाथरूम की फर्श पर पड़ा था। ये कन्नू भी क्या-क्या कचरा फैलाया
करता है,’ उमा की आंखें वापस मोबाइल पर केंद्रित हो गई थीं।
‘कन्नू!’ डिब्बा हाथ में लिए हुए महेश
बाहर दौड़ा। कन्नू ठीक महेश के पीछे था।
‘कहां जा रहे हो? मास्क लगाओ दोनों,’
उमा की सख्त हिदायत ने पीछा किया।
महेश ने बाहर निकल कर नलिन का पिंजरा धीरे से बरामदे में रख
दिया- ‘जा, निकल भाग!’
वह नहीं निकला। कन्नू ने डिब्बा उठाया और खुला मुंह नीचे
करके धीरे से दो झटके दिए। पूंछ विहीन नन्हा नलिन पट्ट-से फर्श पर आ गिरा और
भौंचक-सा एक जगह सुन्न पड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे उसमें हरकत हुई। दो गोल-गोल बूंदें
चमकीं। दीवार में ट्यूब लाइट की रोशनी में कुछ मच्छर और पतंगे उड़ रहे थे। दूसरे एक
कोने में बड़ी छिपकली उनकी ताक में थी। नलिन दीवार की ओर सरका और रुक-रुक कर ऊपर
चढ़ने लगा। उसकी दुनिया में कोई हा-हाकार नहीं था। बस, उसकी
पूंछ को उगने में कुछ समय लगने वाला था।
महेश को वह क्षण याद आया जब वह इसे मारने ही जा रहा था। उसका
चेहरा मन्द स्मित में खिल उठा। तभी जेब में रखे मोबाइल पर ई-मेल आने आने की ट्यून
बजी। वह चिहुंक गया। ई-मेल डराने लगे हैं।
‘डीएम को सुबह ही पकड़ लेना। कल कम से कम चार ऑर्डर और चाहिए।’
महेश का चेहरा इस तरह निचुड़ गया कि कन्नू को पूछना पड़ा- ‘क्या
हुआ, पापा?’
.....
(कथाक्रम, जुलाई-सितम्बर, 2021 में प्रकाशित)