Thursday, March 17, 2016

सिटी तमाशा/ खुले में निपटान आखिर किसकी शर्म है?



उत्तर प्रदेश परिवहन निगम का ताजा फैसला है कि राज्य के सभी बस स्टेशनों में खुफिया कैमरे लगाए जाएंगे जो खुले में निपटने वालों की तस्वीर (पीछे से) खींच लेंगे. ये तस्वीरें सोशल साइटों पर डाली जाएंगी ताकि ऐसा करने वाले शर्मिंदा हों और दूसरों को भी सबक मिले. हम खुद घर के इर्द-गिर्द दिन-रात सू-सू करने वालों से बहुत परेशान हैं. कुछ लोग मुहल्ले के किसी पेड़ की आड़ में, पार्क के कोने में और घर के सामने की नाली में दीर्घ शंका भी निपटा जाते हैं. हमारा काम रोज सुबह उस पर मिट्टी डालना है. दिन भर के खर्चों के साथ स्वच्छ भारत अभियान के लिए सेसभी हमें ही चुकाना होता है. सोचा कि हम भी खुफिया कैमरे लगवाएंगे ताकि उन्हें शर्मिंदा कर सकें जो यह धत कर्म कर जाते हैं. यह भी लिख देंगे कि आप कैमरे की नजर में हैं.

मगर हमारा यह उत्साह ज़्यादा देर टिका नहीं रह सका. घर के चारों ओर नजर डालते ही हमारा चिंतन दूसरी तरफ चला गया. पत्रकारपुरम चौराहे और अमीनाबाद के गड़बड़झाला बाजार में ज़्यादा फर्क नहीं रहा. यहां सात बड़े कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स हैं. आधिकारिक दुकानों के अलावा उनकी पार्किंग की जगह में खुली अवैध दुकानें हैं. ज्यादातर मकानों में भी छोटी-बड़ी दुकानें खुली हुई हैं. मोबाइल बेचने, रीचार्ज करने और उसकी मरम्मत करने वालों से लेकर फास्ट फूड सेण्टर तक खूब हैं. फिर सड़क किनारे तरह-तरह के ठेले-खोंचे काबिज हैं. फल-फूल के ठेलों से लेकर रबर की मोहर बनाने वाले, पंक्चर जोड़ने वाले और मेहंदी लगाने वाले बराबर मौजूद रहते हैं. मोटा अंदाजा है कि बड़ी-छोटी, वैध-अवैध दुकानों की संख्या एक हजार कम न  होगी. इनमें काम करने वालों की संख्या चार हजार से ज्यादा ही होगी. इनमें  कम से कम तीन हजार प्राणी ऐसे होंगे जिनके लिए कॉम्पलेक्स में बने शौचालय प्रतिबंधित हैं. सभी शौचालयों में ताले लगे हैं जिनकी चाभियां  दुकान मालिकों के पास हैं. नौकरों को वहां जाने की इजाजत नहीं. तो, तीन हजार लोग हमारे चौराहे पर खुले में निपटने को आजाद हैं. इनके अलावा एक हजार दुकानों में दिन भर आने-जाने वाले बेशुमार लोगों में से बहुत सारे पुरुष इस आजादी का उपयोग करते हैं. महिलाओं की तकलीफ पर कौन सोचे!

इन दुकानों में आठ-दस घण्टे काम करने वाले तीन हजार नौकरोंमें  कभी किसी का पेट खराब होता होगा. समय-असमय हाजत भी होती होगी. इस आपातकालीन मरोड़ का वे क्या करें? जाहिर है, किसी खुली नाली या पेड़ की आड़ में  बैठेंगे ही. यह सिर्फ एक चौराहे की बात है. शहर में ऐसे जाने कितने लाख लोग होंगे जो खुले में विसर्जन करने को मजबूर हैं. चर्चित पुस्तक मैक्सिमम सिटीमें लेखक-पत्रकार सुकेतु मेहता ने मुम्बई में खुले में निपटने वाली आबादी का हिसाब लगाकर बताया है कि प्रति व्यक्ति आधा किलो विसर्जन की दर से रोज कितने टन मानव-मल खुले में या समुद्र में गिरता है. क्षमा करेंगे, यह कटु सत्य है.


कुछ आंकड़े जुटा कर लखनऊ का भी ऐसा हिसाब लगाया जा सकता है लेकिन उससे क्या होगा?  क्या कैमरा लगा कर हम इन शौचालय वंचित लोगों को शर्मिंदा कर सकते हैं? यह शर्म उनकी है या हमारे प्रशासन और सरकारों की? मानव की इस अत्यावश्यक प्राकृतिक जरूरत का सम्मानजनक हल निकालने की बजाय कैमरा लगाने का ख्याल भी भयानक अत्याचार होगा. हां, परिवहन निगम के कर्ता-धर्ता खुफिया कैमरे लगाने की बजाय बस स्टेशनों में पर्याप्त शौचालय बनवाने और उन्हें इस्तेमाल लायक साफ-सुथरा बनाए रखने पर ध्यान देंगे तो बड़ी सेवा होगी.   

Sunday, March 13, 2016

किताबें कोई भी बेच लेगा लेकिन राम आडवाणी अब कहां मिलेंगे !

हम उन्हें राम भाई कहते थे.
“राम भाई,’ मई 2011 में एक दिन मैंने उन्हें फोन किया था- “साबरी ब्रदर्स की कव्वाली करा रहे हैं, आप जरूर आएं.
“माई प्लेजर उन्होंने कहा था. वे आए. उस कार्यक्रम में हमने राम आडवाणी समेत लखनऊ की दस सख्शियतों को सम्मानित भी किया था. राम भाई ने पूरे समय बैठ कर कव्वाली सुनी और बहुत खुश हुए थे.
दूसरे दिन उन्होंने मेरे पास एक लिफाफा भिजवाया. अंग्रेजी में लिखी छोटी-सी चिट-“ प्रिय नवीन जी, दिलकुशा की बैठकी हमेशा याद रहेगी. कृपा के लिए शुक्रिया. एक हजार रु भेज रहा हू. इन्हें साबरी बंधुओं तक पहुंचा दीजिएगा. मेरे पास उनका पता नहीं है.” पांच सौ के दो नोट लिफाफे में रखे थे.
उस कार्यक्रम में बहुत सारे लोग थे लेकिन सिर्फ राम भाई को याद रहा कि कव्वालों को कुछ नज़राना पेश करना लखनऊ की पुरानी रवायत है.

राम आडवाणी के निधन के साथ ही लखनऊ की पहचान का एक विशिष्ट प्रतीक ढह गया है. लखनऊ आने के बाद से ही वे इसकी धड़कन का हिस्सा थे. गोल्फ क्लब की शुरुआत करने वालों में वह भी शामिल थे. यहां के खास आयोजनों में उन्हें बराबर शरीक देखा जा सकता था.

लखनऊ की पुरानी जानी-पहचानी दुकान यूनिवर्सल बुक सेलर्स के चंदर प्रकाश कहते हैं- राम भाई लखनऊ की अहम सख्शियत थे, लखनऊ के लिए एक विशाल आयना. पूरी दुनिया में उनका और उनकी दुकान की इज्जत थी और इस वजह से लखनऊ का भी बहुत सम्मान होता था.
हज़रतगंज बाजार की ऐतिहासिक मेफेयर इमारत के एक कोने में 1951 (1948 में खुली यह दुकान तीन साल गांधी आश्रम वाली इमारत में थी) से चली आ रही राम आडवाणी बुकसेलर्स सिर्फ किताबों की एक दुकान नहीं थी. वह एक पुस्तक प्रेमी की इबादतगाह, साहित्य-संस्कृति-राजनीति के विशेषज्ञों-शोध छात्रों का अड्डा और लखनऊ के इतिहास और उसकी संस्कृति का जीवंत कोश थी.
अनेक बार तो वहां किताबों से कहीं ज्यादा जानकारियां खुद राम आडवाणी से मिल जाया करती थीं.
वहां घण्टों बैठ कर किताबें देखी जा सकती थीं, राम भाई से किताबों के बारे में लम्बी पूछ-ताछ की जा सकती थी और बिना कोई किताब खरीदे निस्संकोच वापस जाया जा सकता था. आपकी रुचि हो तो राम भाई बता सकते थे कि किस विषय पर कौन सी बेहतर पुस्तक आई हैं और दुनिया के किस कोने से किस पुस्तक की मांग उनके पास पहुंची है.

किताबें तो कोई भी बेच सकता है वे कहते थे, जो कभी उनके दादा ने रावलपिण्डी में किताबों की अपनी दुकान में दीक्षा के तौर पर उन्हें बताया था- मगर किताब को, उसके विषय को और उसके लेखक को जानना बिल्कुल अलग बात है. तभी तो आप जानेंगे कि कौन सी किताब दुकान में रखनी है.राम भाई के दादा जी की लाहौर और रावलपिण्डी में रेज बुक स्टोर नाम से किताबों की दुकानें थीं. किताबों से राम भाई की मुहब्बत वहीं शुरू हुई थी.

राम भाई किताबों को बहुत बेहतर ढंग से जानते थे. लेखकों और पाठकों को भी.

लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे डा रमेश दीक्षित कहते हैं कि किताबों के बारे में जानने वाला ऐसा दुकानदार कहीं नहीं होगा. वे बता देते थे कि किस विषय पर कौन सी पुस्तक आई है और वह किसलिए महत्वपूर्ण है.
कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, डा सम्पूर्णानंद उनकी दुकान में आया करते थे तो जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने भी उनकी दुकान से किताबें मंगावाई थीं. हाल के वर्षों में लेखक और पुराने दोस्त रस्किन बॉण्ड, उपन्यासकार अमिताव घोष, इतिहासकार रोजी लवलिन जोंस, विलियम डेलरिम्पल जैसी हस्तियां लखनऊ आतीं तो राम भाई की दुकान में मत्था टेके बिना न रहतीं.

सामान्य से कुर्ते पाजामे और हलकी बढ़ी दाढ़ी वाले राम भाई सबसे वहुत अपनेपन से बतियाते थे. वे बहुत ही सरल और अच्छे इनसान थे. बहुत सादगी से जिंदगी जीते थे.

मेरी उनसे आखिरी मुलाकात कोई आठ महीने पहले उनकी दुकान में ही हुई थी. उन दिनों में पटना में तैनात था. यह जानकर वे बताने लगे थे कि बिहार के मुख्यमंत्री रहे सत्येंद्र नारायण सिंह ने मुझसे पटना में दुकान खोलने को कहा था लेकिन मैं लखनऊ नहीं छोड़ना चाहता था.
राजनीति के धुरंधरों से लेकर लगभग हर क्षेत्र के लोगों से उनका परिचय था और परिचय का जरिया किताबें ही बनी थीं.

सितम्बर 2015 में प्रख्यात इतिहासकार राम चंद्र गुहा ने देश में किताबों की चार विशेष दुकानों के बारे में एक लेख लिखा था. राम आडवाणी की दुकान का उसमें बड़े फख्र से जिक्र हुआ था.
उन्होंने लिखा था कि किताबों के व्यवसाय में राम आडवाणी से ज्यादा अनुभवी भारत में क्या, कहीं भी नहीं होगा. कुछ समय पहले दिल्ली एयरपोर्ट पर मैं लखनऊ के एक वकील से मिला. मैंने उनसे पूछा कि क्या वे अपने शहर में किताबों की मेरी पसंदीदा दुकान के बारे में जानते हैं. उनका जवाब था कि राम आडवाणी लखनऊ के लिए वैसे ही हैं जैसा वहां का बड़ा इमामबाड़ा.

इस पर राम गुहा की टिप्पणी थी कि इमामबाड़ा कहीं नहीं जाएगा लेकिन राम आडवाणी और उनकी दुकान जल्दी ही एक दिन सिर्फ दोस्तों और उनके ग्राहकों की यादों में ही रह जाएगी. राम भाई ने हाल ही में अपना 95वां जन्म दिन मनाया था.

सचमुच, अब राम भाई सिर्फ यादों में हैं. यही हाल किताबों की उनकी दुकान का भी होना है.



Friday, March 11, 2016

सिटी तमाशा / मरता जा रहा हमारे भीतर का मनुष्य


गोमती नदी में उतराती एक लाश का बवालदूसरे पर टालने के लिए  महानगर और हज़रतगंज थानों  की पुलिस ने  बेरहमी से उसे इधर–उधर घसीटा. झगड़ा न सुलझने पर लाश को फिर नदी में फिंकवा दिया. एसएसपी को हस्तक्षेप करना पड़ा. ऐसा अक्सर होता है जब पुलिस वाले थानों के सीमा विवाद में लाश की छीछालेदर करते हैं, लात मार कर दूसरे के इलाके में धकेल देते हैं. मानवाधिकारों की प्रशिक्षण कार्याशालाओं और सम्वेदनशील होने के बहुतेरे उपदेशों के बावजूद  डीआईजी जैसा जिम्मेदार अधिकारी जरा-सी बात पर एक बुजुर्ग दुकानदार को थप्पड मार देता है. एक दरोगा जीपीओ के बाहर बैठे एक बूढ़े व्यक्ति का टाइपराइटर लात मारकर तोड़ देता है जबकि वह पुराना टाइपराइटर उसकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया था. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि डीआईजी को मुख्यमंत्री निलम्बित कर देते हैं, बूढ़े टाइपिस्ट को एक नया टाइपराइटर दिला देते हैं और शव से बदसलूकी करने वाले सिपाही भी निलम्बित कर दिए जाते हैं. साबित सिर्फ इतना होता है कि युवा मुख्यमंत्री संवेदनशील हैं और नजर पड़ जाने पर ऐसी खबरों का संज्ञान लेते हैं. लेकिन उनका तंत्र इससे कोई सबक नहीं लेता और वे अपनी व्यवस्था को मानवीय नहीं बना पाते.

पुलिस की सम्वेदनहीनता जगजाहिर है. लाशों के साथ ही नहीं, वे जिंदा या अधमरे मनुष्यों के साथ भी अमानुषिक व्यवहार करते हैं. पुलिस का यह अमानवीय रूप ब्रिटिश काल में बनाया गया था ताकि गुलाम भारतीयों पर जुल्म ढाए जा सकें. आजादी के 68 वर्ष बाद भी उसका यह चेहरा बदला नहीं है.  इस बीच पुलिस सुधार, उसके मानवीकरण और मित्र-पुलिस जैसे जुमलों  पर बेशुमार बातें हो गईं. लगता नहीं कि उसकी छवि और व्यवहार कभी सुधरेंगे.

सम्वेदनहीनता का अफसोसनाक नजारा हमारे अस्पतालों के कर्मचारी भी पेश करते हैं. बीमार मरीज और तीमारदारों के साथ नर्स, वार्ड बॉय, सफाई कर्मचारी आदि का व्यवहार ऐसा होता है जैसे उन्हें अपने शत्रुओं की देखभाल में जबरन लगा दिया गया हो, हालांकि  बीमार का इलाज शत्रु या मित्र देखकर नहीं किया जाता. अस्पतालों के कर्मचारी मरीजों के हर अनुरोध पर उन्हें झिड़कने और सामान्य सेवा के लिए भी रकम वसूलने की फिराक में रहते हैं. चंद रोज पहले राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के कर्मचारियों ने  सम्वेदनहीनता की हदें पार कर दीं. हड़ताल  तो डॉक्टर-कर्मचारी सभी करते रहते हैं लेकिन लोहिया संस्थान के कर्मचारियों ने तेज आवाज वाला साउण्ड सिस्टम लगा लिया और जोर-शोर से भाषणबाजी ही नहीं की, गाने भी फुल वॉल्यूम में बजाए. लोहिया संस्थान विशिष्ट चिकित्सा के लिए जाना जाता है और वहां ज्यादातर गम्भीर मरीज भर्ती रहते हैं. कानफाड़ू  शोर से उन्हें कितनी यंत्रणा पहुंची होगी, यह सोचने की सम्वेदनशीलता वहां किसी में नहीं थी. संस्थान प्रशासन ने भी तब जांच बैठाने की औपचारिकता निभाई जब मामला मीडिया में उछला. अस्पतालों के भीतर ही नहीं, आस-पास भी शोर करना सख्त मना होता है. पुराने अस्पतालों के करीब वाहन चालकों के लिए निर्देश लिखे मिलेंगे कि यहां हॉर्न न बजाएं. अब अस्पतालों में डीजे बजने लगे हैं तो नए अस्पतालों के आस-पास ऐसे संकेत पट लगाने का ख्याल भी कौन करे.  


सम्वेदनहीनता हमारे समय के बड़े संकटों में एक है. जरा सी बात पर पिस्तौल निकाल कर किसी की जान ले लेना हो या सड़क पर छटपटाले घायल को तमाशबीन होकर देखना, इसी महामारी का किस्सा है. दरअसल, हमारी दुनिया और जीवन के बेरहम अंदाज हमारे भीतर के मनुष्य की हत्या कर रहे हैं. धीरे-धीरे हम मशीन में तब्दील हो रहे हैं और मशीन सम्वेदनशील नहीं हुआ करती.
(नभाटा, 11 मार्च, 2016) 

Saturday, March 05, 2016

नेताजी की डांट असली या बाप-बेटे का ड्रामा ?


-“सुनिए, मुख्यमंत्री जी, मैं दिल्ली में आडवाणी जी से मिला तो उन्होंने कहा कि यूपी में कानून व्यवस्था की हालत खराब है, भ्रष्टाचार का बोलबाला है... आडवाणी जी बड़े नेता हैं और झूठ नहीं बोलते.... सख्त हो जाइए, अपराधियों में डर पैदा होना चाहिए.” 23 मार्च 2013 को लखनऊ में राम मनोहर लोहिया जयंती समारोह में समाजवाद पर बोलते-बोलते मुलायम सिंह अपने बेटे और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार पर हमलावर हो गए थे- “आपके मंत्री कुछ नहीं कर रहे, मुझसे कुछ छुपा नहीं है.”
तब अखिलेश सरकार को साल भर ही हुआ था. मुलायम के इस तेवर पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं हुई थीं. मुख्यमंत्री ने बाद में शांत भाव से यह कह कर चर्चाओं को खत्म कर दिया था कि नेता जी बड़े हैं, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और मेरे पिता हैं. उन्हें हमें डांटने का पूरा हक है.
तब से पिता बेटे को डांटते ही आ रहे हैं लेकिन अकेले में पिता की तरह डांटने और सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित करने में बहुत फर्क है. यह एक-दो बार का किस्सा भी नहीं है. हर दूसरे-तीसरे महीने किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में, जहां मंच पर मुख्यमंत्री भी होते हैं, मुलायम अपने बेटे की सरकार को कटघरे में खड़ा कर देते हैं. कभी-कभी तो ऐसी तीखी बातें कह जाते हैं, जैसी अखिलेश के विरोधी भी कहने से बचते हैं. तारीफ के शब्द उनके मुंह से कम ही निकलते हैं.
-“आपकी सरकार को चापलूस चला रहे हैं.” चार मार्च 2014 को आगरा में मुलायम जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे कि अचानक मंच पर मौजूद अखिलेश से मुखातिब हो गए- “सुन लीजिए, मुख्यमंत्री जी, अपनी सरकार के बारे में. चापलूसी से काम हो रहा है. चापलूसी से खुश होने वाले धोखा खाते हैं.” उस दौरान कानपुर में सपा विधायक और पुलिस द्वारा जूनियर डॉक्टरों की बेरहम पिटाई से पूरे प्रदेश के डॉक्टर हड़ताल पर थे. गम्भीर मरीज इलाज के अभाव में मौत के मुंह में जा रहे थे जिसके लिए सपा सरकार की चौतरफा आलोचना हो रही थी.
-“ये तो बहुत बिजी सी एम हैं.” पांच अगस्त 2015 को लखनऊ में एक कार्यक्रम में मुलायम मंचासीन अखिलेश पर तंज किया. हुआ यह कि मुलायम प्रदेश में राहत कार्यों के लिए केंद्र से पर्याप्त धन नहीं मिलने की चर्चा कर रहे थे कि अखिलेश बगलगीर मंत्री से कुछ बतियाने लगे. यह देख मुलायम बोले– “मैंने मुख्यमंत्री से कहा था कि राहत कार्यों के लिए धन की मांग पर एक नोट बनाकर मुझे दीजिए. लेकिन ये किसी की सुनते ही नहीं.” फिर अखिलेश से उन्होंने सीधे पूछ लिया था- “बताइए तो अभी मैं क्या कह रहा था?”
लोक सभा चुनाव 2014 में बुरी पराजय के बाद उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कहा था- “मैंने सी एम से कहा था कि लैपटॉप मत बांटिए. देखिए क्या हुआ, हमारे दिए गए लैपटॉप पर मोदी के भाषण सुने गए!” मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने चुनाव घोषणा पत्र के मुताबिक इण्टर पास छात्रों को फ्री लैपटॉप बांटे थे. इसके लिए हुए पहले भव्य कार्यक्रम में खुद मुलायम भी खुशी-खुशी मौजूद थे.
पिछले करीब चार साल में ऐसे कई वाकये हुए जब मुलायम ने अखिलेश को सबके सामने खरी-खरी सुनाई और सरकार की तीखी आलोचना की. एक बार उन्होंने किसी योजना में विलम्ब का जिक्र करते हुए अखिलेश से कहा था- “मैं मुख्यमंत्री होता तो काम छह महीने में हो जाता.”
ताजा मामला बीते सोमवार, आठ फरवरी 2016 का है. पार्टी मुख्यालय में अगला विधान सभा चुनाव जीतने के लिए मंत्रियों, विधायकों और कार्यकर्ताओं को जनता के बीच जाने की हिदायतें देते-देते वे मुख्यमंत्री की आलोचना करने लगे- “ये तो लोगों से मिलते ही नहीं. लखनऊ में ही छोटे-छोटे कार्यक्रमों में बिजी रहते हैं. जब भी मैं पूछता हूं, कहां हो, तो कहते हैं कि लखनऊ में एक प्रोग्राम में हूं.”
अखिलेश यादव हर बार इसे एक पिता की अपने बेटे को डांट कहकर टाल देते हैं लेकिन साफ है कि यह इतना ही मामला नहीं है. इसके एकाधिक कारण हैं.
पहला कारण यह कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध मुलायम के परिवार में ही काफी हुआ था. उन्हें मनाने में मुलायम को दो दिन लगे थे, वह भी यह कह कर कि सरकार की बागडोर तो मेरे ही हाथ रहेगी. सो, अखिलेश सरकार को बार-बार डांट कर वह उन लोगों को यह संदेश देते रहते हैं कि सरकार पर उनकी पूरी नज़र है. मुख्यमंत्री एक मात्र प्रमुख सचिव की मार्फत वे सरकार पर पकड़ बनाए भी हुए हैं.
दूसरा कारण यह कि सरकार बनने के छह महीने के भीतर ही कानून-व्यवस्था बिगड़ने के कारण अखिलेश सरकार की तीखी आलोचना होने लगी. यह अखिलेश सरकार की कमजोर नस है भी. अखिलेश को सबके सामने डांट लगा कर मुलायम पार्टी के भीतर और बाहर हो रही इन आलोचनाओं की धार कुंद करने का प्रयास करते हैं. मुलायम के दांव-पेच अच्छी तरह समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शर्मा भी मानते हैं कि सरकार के प्रति विपक्ष और जनता का गुस्सा शांत करने की यह मुलायम की चाल ही हो सकती है.
वे पार्टी कार्यकर्ता जो अखिलेश सरकार में महत्व नहीं पा पाए या जो और किन्हीं कारणों से असंतुष्ट हैं, वे अखिलेश की तरफ छोड़े गए मुलायम के इन शब्द बाणों से राहत पाते हैं और जोश में आ जाते हैं. अकारण नहीं है कि मुलायम ऐसी ज्यादातर बातें तब कहते हैं जब पार्टी कार्यकर्ता, विधायक और मंत्री सुन रहे होते हैं. मुख्यमंत्री को डांटने का अर्थ उनके मंत्रियों और विधायकों को प्रताड़ित करना भी जरूर होता है. अखिलेश के लिए कई मंत्री व विधायक काफी वरिष्ठ हैं, जिनके पेच वे खुद नहीं कस पाते. ऐसे मंत्रियों को अखिलेश की तरफ से डांटने का यह मुलायम का एक तरीका भी हो सकता है. मंत्रियों को वे भ्रष्ट और जनता के बीच न जा कर लखनऊ में ऐश करने वाला तक कह चुके हैं.
पार्टी के भीतर कुछ नेता, खासकर अखिलेश समर्थक, दबी जुबान में इसे मुलायम पर बुढ़ापे का असर भी मानते हैं तो विपक्ष, खासकर भाजपा के नेता इसे बाप-बेटे का ड्रामा बताते हैं.
मुलायम का असली मकसद तो वे ही जानें लेकिन एक बात साफ है कि युवा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश की छवि पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. सपा अगला विधान सभा चुनाव अखिलेश सरकार की उपलब्धियों को सामने रखते हुए उन्हें ही फिर मुख्यमंत्री का उम्मीदवार पेश करके लड़ना चाहती है. ऐसे में खुद मुलायम द्वारा प्रदेश सरकार की आलोचना न केवल अखिलेश को असफल बताती है बल्कि विपक्ष के हाथ में बड़ा हथियार भी सौंपती है.
(बीबीसी.कॉम. 06 मार्च, 2016)





Friday, March 04, 2016

सिटी तमाशा/ तो अब कोयल की कूक सुनने को भी तरसेंगे?


मार्च का महीना लग गया और कोयल अब तक नहीं कूकी. आपने सुनी? अखबार हत्याओं और तथाकथित देशद्रोह की खबरों से भरे पड़े हैं. तब भी वसंत ने आने का साहस किया. आम के पेड़ बौर से लद गए हैं, हमारे मुहल्ले का इकलौता कचनार सचमुच फूला नहीं समा रहा, सेमल के वृक्षों में लाल-नारंगी अनार फूट रहे हैं और कहीं-कहीं बचा टेसू भी गमक रहा है लेकिन कोयल को चिढ़ाने के लिए हम तरस गए. बर्डवाचर बताते हैं कि अमूमन मध्य फरवरी से कोयल कूकने लगती है. इस बार जाड़ा कम पड़ा इसलिए उसे कुछ पहले ही घने पेड़ों की पतली टहनियों में छुपकर अपने साथी को पुकारना शुरू कर देना चाहिए था. अब तो अच्छी खासी गर्मी होने लगी है और वसंत का जल्द ही ग्रीष्म हो जाना दिखाई देने लगा है लेकिन कोयल नदारद है. यह रोमानी नहीं चिंताजनक यथार्थ है. जिस खतरनाक दिशा में हम जा रहे हैं, उसका संकेत.

गौरैया बचाने का दिन, 20 मार्च नजदीक है. उस प्यारी-सी दोस्त चिड़िया को बचाने के लिए देश-दुनिया में कई जतन किए जा रहे हैं. चंद वर्ष पहले लोगों का ध्यान गया था कि घरों के आस-पास फुदकने और रसोई तक साधिकार चली आने वाली गौरैया दिखना बंद हो गई है. कहीं से गौरैया बचाओ दिवस का आह्वान हुआ और हम छोटे-छोटे घरौंदे बना कर टांगने लगे, दाना-पानी रखने लगे और गिनने लगे कि हमारे आस-पास कितनी गौरैया बची हैं. अब क्या कोयल के लिए भी यही सब करना पड़ेगा? और बात सिर्फ गौरैया या कोयल तक सीमित नहीं है, हमारे पर्यावरण से कितने प्राणी गायब हो गए और कम होते जा रहे हैं. घौंसले बना कर, दाना-पानी रख कर किस-किस को बचाया जा सकेगा?

और क्या हम यानी इनसान, जो अपने को बहुत विद्वान समझते आए हैं, धीरे-धीरे खत्म नहीं हो रहे? जो अन्न, फल-सब्जियां हम खा रहे हैं, जो दूध-पानी पी रहे हैं और जिस हवा में सांस ले रहे हैं, कितने जहरीले हो गए हैं? चिकित्सा विज्ञानी कब से चेता रहे हैं कि हमारी दुनिया कितनी विषैली होती जा रही है और इस विष के मानव तन-मन पर क्या-क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं. कितनी लाइलाज व्याधियां मनुष्य को खा रही हैं. मां के दूध से भी शिशु के तन में कीटनाशक प्रविष्ट हो रहे हों तो क्या अब हमें गौरैया के साथ मानव बचाओ दिवस भी नहीं मनाना चाहिए?

यह हालात किसने पैदा किए हैं? गौरैया, कोयल आदि प्राणी तो निरीह हैं लेकिन हमने अपने लिए जान-बूझ कर कैसी दुनिया बना ली है? कैसा कर लिया है हमने अपना रहन-सहन और कार्य-व्यवहार? मिट्टी का कोना-कोना कंक्रीट से पाटा जा रहा है. नदियां सीवर ढोने के नालों में तब्दील की जा रही हैं. खेत कीटनाशकों-उर्वरकों से बंजर बनाए जा रहे हैं. प्रकृति की हर सुंदर और मौलिक चीज विकृत की जा रही है तो जीवन कैसे सुंदर बना रह सकता है! कोशिश हो तो प्रकृति की मौलिकता को बचाए रखने की हो. लेकिन कैसे? हम तो आधुनिकता और विकास की अपनी जिद छोड़ने ही को तैयार नहीं. पॉलीथिन का इस्तेमाल न करने जैसा छोटा त्याग भी हम कर नहीं पा रहे. फिर कैसे उम्मीद की जाए कि हरियाली, पानी और हवा बचाने के कुछ कठिन जतन हमसे हो पाएंगे? गौरैया का प्राकृतिक संसार नष्ट करके उसके लिए कुछ घौंसले बनाना नाटक ही होगा. कोयल भी समय से तभी कूकेगी जब इस सृष्टि में उसकी स्वाभाविक जगह हम रहने देंगे. हमारे कानों से दूर कहीं वह कूक भी रही होगी तो कब तक? 
(नभाटा, 04 फरवरी, 2016)