Wednesday, May 29, 2019

वंशवाद खत्म नहीं हुआ, बढ़ा है


एक कार्टून इन दिनों सोशल साइटों में वायरल हो रहा है. राहुल गांधी अपनी माँ सोनिया गांधी की गोद में बैठ कर अशोक गहलौत, पी चिदम्बरम और कमलनाथ की ओर अंगुली उठाकर कह रहे हैं कि इन्होंने अपने बेटों को टिकट देने की ज़िद की. इस्तीफे तक की धमकी दी. बताते हैं कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने क्षोभ के साथ यह बात कही थी. कार्टूनिस्ट का तंज स्वाभाविक ही यह है कि राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े प्रतीक तो स्वयं राहुल गांधी हैं.

बहरहाल, राहुल अमेठी की अपनी पारिवारिक सीट से चुनाव हार गये. चुनाव हारने वालों में कुछ बड़े चर्चित परिवारवादी भी हैं. अपनी पत्नी, बेटों और बेटी को राजनीति में स्थापित करने वाले लालू यादव के परिवार का इस बार एक भी सदस्य नहीं जीता. बहुचर्चित परिवारवादी मुलायम सिंह यादव और उनके बड़े बेटे अखिलेश चुनाव जीतने में कामयाब रहे लेकिन उनकी बहू और भतीजे पराजित हो गये. अजित सिंह और उनके बेटे जयंत हारे. कर्नाटक में देवेगौड़ा स्वयं और उनके परिवारीजन खेत रहे. राजनीति में स्थापित एक और बड़े परिवार के उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस बार अपनी सीट नहीं बचा पाये.

परिवारवादी राजनीति की पराजय के ऐसे कुछ अन्य उदाहरणों के आधार पर कहा जा रहा है कि इस बार की मोदी लहर ने राजनीति से वंशवाद का सफाया कर दिया. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है?

पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का और तमिलनाडु में करुणानिधि का परिवार जीत गया. मोदी लहर में भी कमलनाथ छिंदवाड़ा की अपनी पुरानी सीट से बेटे को जिता ले गये. सोनिया गांधी जीतीं और अमेठी से हारने वाले उनके बेटे राहुल वायनाड सीट से लोक सभा पहुंचने में कामयाब रहे. धमाके से जीतने वाले आंध्र के जगनमोहन रेड्डी और उड़ीसा के नवीन पटनायक लोकप्रिय नेताओं के वंशज ही हैं. एक-एक कर गिनाने से सूची लम्बी होती जाएगी.

इण्डियन एक्सप्रेसमें तीन दिन पहले प्रकाशित एक शोध-रपट के अनुसार सत्रहवीं लोक सभा में पहुँचे सांसदों में 30 प्रतिशत राजनैतिक परिवारों के हैं. यह नया कीर्तिमान है. 2004 से 2014 तक यह करीब 25 फीसदी था. राजनैतिक दलों में सर्वाधिक वंशवादी कांग्रेस ही है जिसके इस बार 31 प्रतिशत उम्मीदवार राजनैतिक परिवारों के थे. आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस पर परिवारवाद का तीखा आरोप लगाने वाली भाजपा स्वयं इस मामले में कांग्रेस का मुकाबला करने की तरफ बढ़ रही है. इस बार इसके 22 फीसदी उम्मीदवार परिवारवादी थे. उसका यह आंकड़ा हर चुनाव में बढ़ रहा है.

राजनीति में परिवारवाद पनपने के कारण हैं. आजादी के बाद राजे-रजवाड़ों ने चुनावी राजनीति में शामिल होकर अपनी सत्ता बचाने की कोशिश की. उनकी लोकप्रियता और भारतीय समाज की संरचना ने उन्हें राजनीति में स्थापित कर दिया. उनके वंश राजनीति में  फले-फूले. राजनैतिक दलों ने उनके जीतने की बेहतर सम्भावना के कारण उन्हें आगे बढ़ाया. आजादी के इतने वर्ष बाद भी रजवाड़ों की सन्ततियाँ राजनीति में सक्रिय हैं.

कांग्रेस थोड़ा अलग तरह का उदाहरण है. नेहरू पर सीधे यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने अपनी बेटी को कांग्रेस का उत्तराधिकार सौंपा. इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर ओल्ड गार्डसे लड़कर कांग्रेस पर काबिज हुईं. हाँ, खुद उन्होंने कांग्रेस को इतना बौना बना दिया कि बेटे संजय की मृत्यु के बाद अपना उत्तराधिकारी तैयार करने के लिए वे बड़े बेटे राजीव को उनकी अनिच्छा और बहू सोनिया के विरोध के बावज़ूद विमान के कॉकपिट से उठा लाईं. वह शायद सबसे बढ़िया अवसर था जब कांग्रेस अपना गैर-नेहरू-गांधी उत्तराधिकारी चुन सकती थी. लेकिन तब तक कांग्रेस में इतना ताब ही नहीं बचा था. अब तो कांग्रेस इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती, राहुल चाहे सचमुच में ही पद-त्याग क्यों न करना चाहें.

परिवारवाद का एक नया संस्करण मण्डल-राजनीति से उभरे मध्य जातियों के ताकतवर क्षेत्रीय  क्षत्रपों ने स्थापित किया. विशेष रूप से मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट कम्पनियों की तरह चलाया. कर्नाटक और तमिलनाडु में भी ऐसा ही दौर आया. उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा, यानी लगभग सभी राज्यों में बड़े नेताओं के परिवारी जन पार्टी में ऊपर से थोपे  जाते रहे. सिर्फ वाम दल इसके अपवाद हैं.

जेल में बंद सजायाफ्ता बाहुबली कनूनन  चुनाव न लड़ पाने पर अपनी पत्नियों को मैदान में उतार देते हैं. चारा घोटाले में अदालत में आरोपित किये जाने के बाद 1997 में लालू यादव ने रातोंरात मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी पर पत्नी राबड़ी देवी को बैठा दिया था.

कुछ राजनैतिक परिवारों में उत्तराधिकार को लेकर लड़ाइयाँ भी हुईं. शिव सेना, द्रमुक, सपा और राजद में ऐसे झगड़े हो चुके या हो रहे हैं जो पारिवारिक सम्पत्ति के लिए होने वालो संघर्षों की याद दिलाते हैं.

लोकतंत्र में परिवारवाद की जगह नहीं होनी चाहिए. पार्टी संगठन के चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से हों तो परिवारवाद का बोलबाला कम होगा और सक्षम व सम्भावनाशील नेतृत्व उभरेगा. पार्टियों पर परिवारवाद के कब्जे ने अनेक प्रतिभाशाली नेताओं को  दबाया और कुण्ठित किया है. ऐसी पार्टियों में कोई बाहरीसक्षम नेता संगठन के चुनाव लड़ने की कल्पना नहीं कर सकता. अगर कोई पार्टी अपने भीतर ही लोकतंत्र का सम्मान नहीं करती तो देश की लोकतानत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उसके आदर पर स्वाभाविक ही संदेह होगा.

कांग्रेस का नेतृत्व पर दशकों से नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में है. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अभी परिवारवादी नहीं हुआ है लेकिन उसके कई नेता अपने बेटे बेटियों को आगे बढ़ा रहे हैं. दोनों ही राष्ट्रीय दल परिवारवादियों को चुनाव लड़ाने में आगे हैं. ऊपर जिस शोध-रपट का उल्लेख किया गया है उसके निष्कर्षों ने इस भ्रांति को तोड़ा है कि क्षेत्रीय दल राजनीति में परिवाद को बढ़ावा देने में सबसे आगे हैं. यह धारणा शायद मुलायम, लालू, बादल, करुणानिधि जैसे परिवारों के कारण बनी होगी. सच्चाई यह है कि इस मामले में राष्ट्रीय दल ही अग्रणी हैं. इस बार क्षेत्रीय पार्टियों के 12 प्रतिशत उम्मीदवार परिवारवादी थे, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों का यही आंकड़ा 27 फीसदी ठहरता है.  

एक तथ्य यह भी है कि राजनैतिक परिवारों के वंशजों का चुनाव जीतने का औसत सामान्य प्रत्याशियों के विजयी होने के औसत से कहीं अधिक है. उसी रिपोर्ट के अनुसार इस बार चुनाव में 2189 उम्मीदवारों में  389 यानी 18 प्रतिशत राजनैतिक परिवारों के थे जबकि जीतकर लोकसभा पहुँचने वालों का प्रतिशत 30 (542 में 162) है. यह तथ्य स्पष्ट करता है कि सभी दल वंशवाद का पोषण क्यों करते हैं और क्यों इसकी सार्वजनिक निंदा करने वाली भाजपा भी इसी राह पर है.

अर्थात, यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय राजनीति में वंशवाद समाप्ति की ओर है.
         
(प्रभात खबर, 30 मई, 2019)

 



Friday, May 24, 2019

नयी पीढी, नयी राजनीति और लापता विरासत



नरेंद्र मोदी की प्रचण्ड विजय की कई व्याख्याएँ हैं. अभी कई दिन तक उन पर विभिन्न कोणों से चर्चा होती रहेगी. एक व्याख्या यह भी है कि कांग्रेस मोदी के हिंदुत्व-राष्ट्रवाद-विकास एजेण्डे के मुकाबिल अपने राजनैतिक मूल्य, जिसे वह 'आयडिया ऑफ इण्डिया' कहती है, कतई खड़े नहीं कर सकी. 

कांग्रेस क्या थी, भारत के बारे में उसका क्या विचार था, यह आज की पीढ़ी को पता ही नहीं और आज की कांग्रेस उसे समझा पाने में पूर्णत: विफल है. बल्कि, यह संदेह होता है कि क्या कांग्रेस का नया नेतृत्व स्वयं कांग्रेसियत को समझता है? इस संदेह के पर्याप्त कारण हैं.

1980-90 के दशकों से जो पीढ़ी बड़ी हुई उसने शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में राम मंदिर अभियान के दौरान कांग्रेस को पथ-विचलित होते और समर्पण करते देखा. उसके बाद से कांग्रेस मूल्यों की भटकन का ही शिकार होती चली गयी. हिंदुत्व की राजनीति उसी दौरान विकसित हो रही थी. नयी पीढ़ियों ने राजनीति के इसी बदले माहौल में आँखें खोलीं. उन्हें इस नयी राजनीति और कांग्रेस की विरासत का अन्तर बताने-समझाने वाला नेतृत्व नदारद रहा.

राजनैतिक परिदृश्य में जो निर्वात पैदा हुआ उसे हिंदुत्व की राजनीति के नये और आक्रामक पैरोकारों ने बहुत तेजी से भर लिया. नरेंद्र मोदी की 2104 की जीत भ्रष्ट यूपीए शासन से परेशान जनता की नयी उम्मीदों का परिणाम था, जिसे नयी राजनीति में पलती पीढ़ियों ने पूर्ण बहुमत भी दिलवाया.  सन 2019 की प्रचण्ड विजय उस नयी हिंदुत्त्ववादी राजनीति का अखिल भारतीय विस्तार है, जिसमें विकास के नारे और गरीबों के लिए कार्यक्रमों की चाशनी बड़ी खूबी से घोली गयी है.

देश के राजनैतिक मंच पर प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव हो चला था.  कांग्रेस इस मामले में भी गरीब साबित हुई. उस जगह को नरेंद्र मोदी ने बखूबी भर लिया. उन्होंने न केवल अपनी पार्टी में बल्कि, पूरी राजनीति पर मजबूत पकड़ बनायी. पिछले पाँच वर्षों में उनकी छवि शक्तिशाली और निडर नेता की बनती गयी. पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक ने उस पर पक्की मोहर लगा दी. पार्टी पीछे और नेता कहीं आगे हो गया. चुनाव भाजपा नहीं, मोदी जीते हैं.

मोदी-राज के पाँच साल की कुछ बड़ी नकारात्मक बातें थीं. नोटबंदी, बेरोजगारी और किसानों का असंतोष कम से कम ऐसे मुद्दे थे जो आम जनता के मन में आक्रोश पैदा कर सकते थे. विपक्ष इन्हें बड़े चुनावी मुद्दों में तब्दील नहीं कर सका और मोदी ने प्रखर राष्ट्रवाद, मजबूत नेता की छवि एवं कतिपय विकास कार्यक्रमों के जरिए अपनी विफलताओं को ढकने में कामयाबी पा ली.

क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि इतने विशाल और विविधताओं वाले देश में 'सेकुलरिज्म' इस चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं था? हिंदुत्त्व की राजनीति इतनी प्रबल हो गयी है कि राजनैतिक दलों को इस शब्द से डर लगने लगा है. कांग्रेस नेता भी हिंदू बाना धारण करने लगें तो फिर क्या कहा जाए? इसीलिए कहा कि शायद कांग्रेस का नया नेतृत्व 'आयडिया ऑफ इण्डिया' के बारे में स्वयं ही स्पष्ट नहीं है.

नयी पीढ़ी यदि मोदी की दीवानी हो गयी है तो इसलिए कि उसे अपनी बहुलतावादी राजनीतिक विरासत की खूबियों के बारे में कुछ पता ही नहीं और बताने वाले नेता हैं नहीं. नेहरू की 'गलतियों' को भाजपा ने खूब प्रचारित किया लेकिन नेहरू के ऐतिहासिक योगदान को नयी पीढ़ी तक पहुँचाने में कांग्रेस क्यों मौन रही?

भाजपा की राजनीति की उदार नकल से उसकी राजनीति का मुकाबला नहीं किया जा सकता.  उसके सामने वैकल्पिक और बेहतर राजनीति खड़ी करनी होगी. जिस पार्टी के पास यह सब विरासत के रूप में मौजूद है, वही नाकारा हो जाए तो नतीजा और क्या हो सकता था!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 मई, 2019)       
   


Friday, May 17, 2019

तो, एक और चुनाव निपट चला



चुनाव की गर्मी अब समाप्त होने वाली है. बड़े-बड़े मंचों और रोड-शो से उगली जाने वाले आरोप-प्रत्यारोपों के थपेड़े बंद हो चुके हैं. नतीजों के इंतजार में जुबानी हमले चंद रोज़ और होंगे, हालांकि उनकी तेजी नर्म पड़ जाएगी. 23 मई को चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीति का मौसम बदल जाएगा.

चुनावी मौसम इस बार खूब लम्बा चला. 11 अप्रैल को पहले चरण का मतदान हुआ था. 19 मई को अंतिम चरण के वोट पड़ेंगे. चालीस दिन का यह दौर बहुत लम्बा है. 10 मार्च को चुनाव तिथियों की घोषणा हुई थी. देश उससे काफी पहले से चुनावी मोड में था.

पिछले वर्ष पांच राज्य विधान सभाओं के चुनाव हुए थे. तभी से लोक सभा चुनाव की गर्मी शुरू हो गयी थी. कह सकते हैं कि वर्ष 2019 ने चुनावी गर्मी में ही आँखें खोलीं. आधा साल चुनाव में ही निकला जा रहा है. लगता है यह देश हर समय चुनाव लड़ता रहता है.
सरकारों के फैसले चुनाव में नफा-नुकसान का आकलन करके होते हैं. विपक्ष की प्रतिक्रियाएं भी इसी तराजू पर तुलकर आती हैं. ऐसे कड़े फैसले जो देश की सेहत के लिए भले होते हैं लेकिन जिनसे जनता या उसका कोई वर्ग नाराज़ हो सकता है, नहीं ही लिए जाते. कोई फैसला इस लिहाज़ से उलटा पड़े तो उस पर खूब पैंतरेबाजी की जाती है.

याद करना कठिन होता है कि हाल के वर्षों में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष किस एक मुद्दे पर वास्तव में एक राय हुए. कुछ छिट-पुट सहमतियाँ बनी भी तो चुनावी लाभ का हिसाब लगाकर ही. सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाते समय अवश्य सब दिल से एक हो जाते हैं.

यह चुनाव इसलिए भी याद किया जाएगा सारी नैतिकता और मर्यादाएं ध्वस्त हुईं. वह सब कहा गया जो नहीं कहा जाना चाहिए था. क्या किसी को भी इसका पश्चाताप होगा कि वह सब नहीं बोला जाना चाहिए था? अंतिम चरण से पहले पश्चिम बंगाल में जो हुआ उसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है लेकिन देखिए कि दोनों ही पक्षों ने अफसोस जताने की बजाय अपना दामन पाक-साफ बताया. दूसरा ही पूरी तरह दोषी है, हम तो निपट निर्दोष हैं. सभी यही मानते हैं.

इस साल देश गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है लेकिन उन पर लानत भी भेजी जा रही है. चुनाव में बापू की खूब दुर्गति की गयी. यह हमारी चुनावी राजनीति का ही कमाल है कि यहां किसी महान व्यक्ति की पूर्जा और दुर्गति एक साथ की जाती है. आम्बेडकर का भी यही हाल किया जाता रहा है. इस बार भूले-बिसरे महानायक ईश्वर चंद विद्यासागर भी राजनीति की सूली पर चढ़ा दिये गये, जिनका दलीय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. यह उनकी मूर्ति का तोड़ा जाना ही नहीं, कई मूल्यों का जमीदोज़ किया जाना भी है.

वैसे भी जैसा समाज बनाया जा रहा है उसमें न ग़ांधी की ज़रूरत है न आम्बेडकर की. हाँ, दोनों के नाम पर वोट की राजनीति की बड़ी जरूरत है. बेचारे ईश्वर चंद्र विद्यासागर पता नहीं कैसे लपेटे में आ गये. खैर, बांग्ला-अस्मिता के नाम पर वे भी राजनीति के काम आ ही रहे हैं. 

आम जन की समस्याएं सुलझने की बजाय उलझ रही हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों का हाल बहुत दयनीय है. किसान राजनीति के केंद्र में हैं लेकिन कृषि का हाल बेहाल है. भौतिक तरक्की चंद परिवारों में सिमट गई है. हर चुनाव में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं लेकिन हालात सुधरते नहीं. आंकड़ों से तरक्की के जो दावे किए जाते हैं वे जमीन पर दिखाई नहीं देते.

बहरहाल, एक और आम चुनाव निपट रहा है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 मई, 2019)         

Wednesday, May 15, 2019

क्यों मर्यादा में रहे नहीं?


चुनाव-दर-चुनाव हमारी राजनीति का विमर्श नैतिकता और मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है. सत्रह मई 2019 की शाम लोक सभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के लिए प्रचार समाप्त होने के साथ ही आशा की जानी चाहिए कि मर्यादा की सीमा लांघ कर अब तक के निम्नतम स्तर तक पहुँच गये आरोप-प्रत्यारोपों के सिलसिले पर विराम लग जाएगा.

हमारे नेता अक्सर गर्व से देश को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रबताते नहीं थकते, लेकिन जिस चुनाव से वह कायम रहता है, क्या उसकी बदहाली पर भी उनकी दृष्टि जाती है? चुनाव आचार संहिता का जैसा बेशर्म उल्लंघन इस बार किया गया और भाषा की मर्यादा ध्वस्त की गयी, क्या उस पर किसी पार्टी या नेता को शर्म आएगी?

हमारी लोक परम्परा में होली खेलने के दौरान मर्यादा के सीमोल्लंघन की कुछ छूट लेने का चलन है तो रंग-पर्व के समापन के समय माफी माँगने का रिवाज भी कि कहे-अनकहे की माफी देना.क्या हमारे नेता चुनाव बाद ही सही अपनी कहनी-नकहनी पर खेद जताते हुए एक-दूसरे से और जनता से भी क्षमा माँगने का बड़प्पन दिखाएंगे? इसकी आशा करना व्यर्थ होगा क्योंकि जो न कहने लायक कहा गया वह इरादतन बोला गया. उनके पास उसकी सफाई तो है, क्षमा-याचना नहीं.

बड़े से बड़े संवैधानिक व सम्मानित पदों पर बैठे हुए नेता भी चुनाव में क्यों करते हैं ऐसा आचरण? अपेक्षा तो यह की जाती है कि सत्तारूढ़ दल के नेता अपने कार्यकाल की उपलब्धियों, जनहित की योकनाओं और भविष्य के कार्यक्रमों के आधार पर जनता के पास जाएंगे. विपक्षी दल सरकार की असफलताओं, अधूरे या भूले वादों, भ्रष्टाचार, जनविरोधी कार्यों और देश के सामने उपस्थित चुनौतियों से निपटने के लिए अपने वैकल्पिक कार्यक्रमों, नीतियों, आदि के आधार पर सत्तारूढ़ दल को चुनौती देंगे.

स्वाभाविक है कि इस संग्राम में आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला भी चलेगा. आशा यही की जाती है कि आरोप-प्रत्यारोप अपने-अपने तथ्यों के आधार पर उपलब्धियों या काम-काज  के दावों और उन्हें नकारने तक सीमित रहेंगे. आक्रामकता स्वाभाविक है कि होगी लेकिन व्यक्तिगत लांछनों और चरित्र-हनन से बचा जाएगा. व्यवहार में ऐसी आदर्श स्थिति शायद ही होती हो. आरोप-प्रत्यारोप कई बार बहुत कटु भी हुए हैं और व्यक्तिगत स्तर तक भी लेकिन शालीनता और नैतिकता की सीमा नहीं टूटा करती थी.

याद कीजिए 1963 में नेहरू सरकार पर लोहिया के आरोप. लोक सभा की वह लम्बी बहस आज और भी प्रासंगिक हो गयी है. वह चुनाव का समय नहीं था. तब भी लोहिया ने तथ्यों , आंकड़ों, अपने अध्ययन एवं अनुभव के बूते नेहरू सरकार की धज्जियाँ उड़ा दी थीं. उन्होंने यहां तक कहा था कि जब देश की गरीब जनता औसत तीन आने पर गुजारा कर रही है तब आप पर पचीस हजार रु खर्च किया जा रहा है.’ तत्कालीन प्रधानमंत्री पर यह आरोप लगाने वाले लोहिया स्वयं बहुत सादगीपूर्ण जीवन जीते थे और गरीब जनता के लिए जमीनी संघर्ष करते थे.

आज कांग्रेसी या भाजपाई नेताओं की क्या कहें, लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाले भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं और ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं. इसलिए सरकार में रहते हुए अपने बचाव या विपक्षी नेता के तौर पर सरकार पर हमले करते हुए उनके आरोपों में कोई विश्वसनीयता नहीं होती. उलटे, वे हास्यास्पद लगते हैं.
इसी बात से हमें आज की मर्यादा-विहीन एवं चरित्र-हनन की राजनीति के कारणों का एक सूत्र भी मिलता है. आज की राजनीति जन-सेवा का पर्याय नहीं है. विचार और सिद्धांतों की राजनीति भी कबके विदा हो चुकी. यह येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने और सत्ता हथियाने का दौर है. इसके लिए चुनाव में ऐसे वादे भी खूब कर दिये जाते हैं, जिन्हें पूरा करना लगभग असम्भव होता है या जिन्हें अमल में लाने पर देश और समाज की तरक्की के रास्ते बंद अथवा संकुचित हो जाते हैं.  

वर्तमान समय में किसी पार्टी अथवा नेता में यह नैतिक बल नहीं है कि वह, उदाहरण के लिए, यह कह सके कि किसानों की कर्ज-माफी अर्थव्यवस्था के लिए घातक कदम होगा और न ही इससे कृषि और किसानों का दीर्घकालीन लाभ होगा. उलटे, वे एक-दूसरे से बढ़कर कर्ज-माफी का वादा करते हैं. इसी तरह गरीब जनता के खाते में रकम डालने या किसानों की आय बढ़ाने जैसे वादे करने में एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं. विभिन्न दलों के चुनाव घोषणा-पत्रों में हम ऐसे कई उदाहरण देख सकते हैं. वे शायद ही इसकी चिंता करते हों कि चुनाव जीत जाने पर ये वादे पूरे नहीं किये जा सके तो जनता उन्हें वादाखिलाफ समझेगी. पिछले वर्ष इस बारे में भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी का एक बयान विवादित हो चुका है.

बड़बोले एवं अव्यावहारिक वादों से जनता की उम्मीदें बहुत बढ़ जाती हैं. चुनाव जीतकर सत्ता में आने के बाद ऐसी चुनावी घोषणाएं पूरा करना सम्भव नहीं होता या उन्हें आधा-अधूरा पूरा करके खानापूरी की जाती है. अगले चुनाव में स्वाभाविक है कि यह वादाखिलाफीमुद्दा बनेगी. जनता नहीं तो विरोधी दल निश्चय ही पूछेंगे कि अमुक वादों का क्या हुआ? सत्तारूढ़ दल इस अप्रिय स्थिति से बचना चाहेगा. उसे कोई आड़ चाहिए.

यह आड़ पूरे न हुए वादों पर सवालों से बचने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि कई और अप्रियस्थितियों एवं  मुद्दों को दबाने के लिए भी जरूरी लगती है. हमारे विविध और विशाल देश में समय-समय पर अनेक चुनौतियाँ सिर उठाती रहती हैं. भूख-गरीबी, बेरोजगारी, खेती-किसानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, साम्प्रदायिक तनाव-फसाद, आतंकवाद, अंतरराज्यीय विवाद, जैसे कई मुद्दे कमोबेस स्थाई समस्या बने रहते हैं. इनमें से चंद कुछेक समस्याएँ विकराल हो जाती हैं.

जवलंत समस्याओं का चुनावों में मुद्दा बनना स्वाभाविक है. सत्ता में कोई भी पार्टी हो वह कतई नहीं चाहेगी कि ऐसे मुद्दे चुनाव में जनता के सिर चढ़ कर बोलें. इसलिए उसकी हरचंद कोशिश होती है कि चुनावी विमर्श में कुछ और ही विषय छा जाएं ताकि असल मुद्दे दबे रहें. इसलिए व्यक्तिगत आरोपों से लेकर अनर्गल बातें तक चुनाव मंचों से सुनाई देने लगती है.

शुरू में विरोधी दल ज्वलंत मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन धीरे-धीरे वे भी व्यक्तिगत आरोपों का जवाब अमर्यादित भाषा में देने लगते हैं. वास्तव में विपक्ष के पास भी जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई विश्वसनीय वैकल्पिक कार्यक्रम या योजनाएं नहीं होतीं. तब हम पाते हैं कि बंदर, राक्षस, दुर्योधन-अर्जुन, पिल्ले की दुम, अली-बजरंगबली, जूते-चप्पल, चड्ढी, पप्पू-पप्पी जैसी अनर्गल टिप्पणियों से लेकर व्यक्तिगत लांछन और तीस-चालीस साल पुरानी अप्रासंगिक बातें चुनाव-सभाओं से उठकर मीडिया की सुर्खियाँ बनने लगती हैं.

इसका चेन-रिएक्शन होता है और आचार संहिता ही नहीं मर्यादा भी तार-तार होती रहती है.       
     
    

Friday, May 10, 2019

अब और प्रतिभाशाली पीढ़ी पैदा नहीं होगी?


केंद्रीय शिक्षा बोर्डों के परीक्षा परिणाम आने के बाद कुछ रोचक और कुछ गम्भीर बहस छिड़ी हुई है. सोशल साइटों में राजनैतिक पालेबाजी और गाली-गलौज के बीच कभी-कभी अच्छी और विचारोत्तेजक चर्चा भी हो जाती है. पिछले कुछ दिन से 90 से 99 फीसदी, बल्कि इससे भी ज्यादा नम्बर पाने वाले बच्चों के बारे में  सचित्र-सगर्व पोस्ट देखने को मिल रही हैं. इस गर्वीली सफलता पर सवाल उठाने वाली टिप्पणियाँ पढ़ना रोचक ही नहीं, सुखद भी है.  

कोई यह पूछ ले रहा है कि क्या कोई माता-पिता 60-70 प्रतिशत नम्बर पाने वाले अपने बच्चों से भी इतना ही खुश है? जवाब में कोई कह रहा है कि हम तो बहुत खुश हैं कि हमारा बच्चा सिर्फ पढ़ाई में ही नहीं डूबा रहा, खेलते-कूदते और मस्ती करते हुए 75 फीसदी नम्बर लाया. ऐसे चंद माता-पिताओं को शाबाशी देने वाले भी हैं.

यह बहस भी खूब चल रही है कि इन परीक्षाओं में 99 प्रतिशत नम्बर लाने का विशेष अर्थ नहीं है. जीवन की परीक्षा अलग ही तरीके से होती है. यह बताने वाले भी हैं कि बहुत सफल और शीर्ष जगहों पर पहुँचे ज्यादातर व्यक्ति स्कूलों के टॉपर नहीं रहे. कुछ तो फेल भी हुए थे लेकिन व्याहारिक पाठ उन्होंने अच्छा पढ़ा और उसी ने जीवन में साथ दिया. 

सबसे गम्भीर बहस इस पर छिड़ी हुई है कि हिंदी या अंग्रेजी भाषा और संगीत जैसे विषय में 100 में 100 नम्बर कैसे दिये जा सकते हैं. गणित और विज्ञान में तो ठीक है कि पूरे नम्बर आते रहे हैं. क्या भविष्य में इनसे ज्यादा होशियार बच्चे नहीं होंगे?

इस साल आईएससी की 12वीं दर्जे की परीक्षा में दो बच्चों को 400 में 400 अंक मिले. नम्बरों के हिसाब से यह सफलता का अंतिम पायदान है. इससे दो दिन पहले सीबीएसई के बारहवीं कक्षा के नतीजों में दो टॉपर बच्चों को 500 में 499 अंक मिले. सिर्फ एक विषय में 99 अंक, बाकी सब में 100 में 100.

क्या यह परिणाम चौंकाता नहीं है? क्या हम प्रतिभा की पराकाष्ठा पर पहुँच गये हैं? सवाल बहुत प्रासंगिक हैं. भाषा और संगीत जैसे विषयों में पूरे अंक मिलना और भी बड़े सवाल खड़े कर रहा है. ये ऐसे विषय हैं जिनमें कोई कितनी ही निपुणता हसिल कर ले, उससे श्रेष्ठ करने की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी. अपने समय के सर्वश्रेष्ठ भाषाविद्‍ या संगीतविद्‍ को भी सर्वकालिक श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र कैसे दिया जा सकता है?

यह एवरेस्ट का शिखर नहीं है कि उससे ऊंचा चढ़ना सम्भव ही नहीं होगा. क्या आने वाले वर्षों में जो बच्चे पूरे-पूरे नम्बर पाएंगे, वे सब बराबर प्रतिभाशाली होंगे? रोचक होगा यह देखना कि जिन्हें आज पूरे नम्बर मिले हैं, वे भविष्य में क्या बनते और कहाँ पहुँचते हैं.

बच्चे और अभिभावक तो प्रसन्न होंगे ही, दोनों बोर्डों के पदाधिकारी भी खुशी से फूले नहीं समा रहे लेकिन कई शिक्षा विशेषज्ञ इस प्रवृत्ति को चिंताजनक मान रहे हैं. प्रसिद्ध शिक्षाविद्‍ कृष्ण कुमार ने कहा है कि मुख्य समस्या प्रश्न बनाने, उनके उत्तर लिखाने और मूल्यांकन के मशीनी तरीके में है, जो दोषपूर्ण है. कृष्ण कुमार इसे रटा-रटा कर इम्तहान पास कराने वालों की सफलता मानते हैं.

नई पीढ़ी निश्चय ही प्रतिभाशाली है. उनके लिए दुनिया गोल नहीं, सामने खुला सपाट मैदान है. उन्हें बुलंदियाँ छूनी हैं लेकिन उनकी मेधा का मूल्यांकन किसी मशीनी तरीके से ढाई-तीन घण्टे की परीक्षा में मिले नम्बरों से किया जा सकता है, यह धारणा कतई सही नहीं है. दूसरे, यह बच्चों को अनावश्यक नम्बर होड़, तनाव, कुण्ठा और हताशा में डालना भी है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 मई, 2019)   


Saturday, May 04, 2019

वाट्सऐप है तो और क्या चाहिए हमें !


कुछ वर्ष पहले जब मोबाइल पर वाट्सऐप  डाउनलोड किया था तब कभी-कभार आने वाले सन्देश की सूचना देती हलकी-सी टिन-टिन मधुर लगती थी. अब हर एक मिनट में न्यूनतम दो-चार संदेश मिलने की सूचना देती वही टिन-टिन कर्ण-कटु लगने लगी है. आस-पास जितने भी हैं, हर पल किसी न किसी का मोबाइल वाट्सऐप संदेशों की भांति-भांति की घण्टी बजाता रहता है. काम के संदेश मुश्किल से एक-आध ही होते हैं. ज्यादातर फॉरवर्ड किये गये बेहूदा संदेश या वीडियो. फेक-न्यूज की भरमार. आजकल तो चुनावी संदेशों की बाढ़ आयी हुई है.

दुखी होकर हमने नोटीफिकेशन बंद कर दिया. अब जब भी मोबाइल उठाइये, व्हाट्सऐप का आयकन बताता है कि वहाँ सैकड़ों सन्देश हमारा इंतज़ार कर रहे हैं. डिलीट और एक्जिट करते-करते भी दस वाट्स-ऐप  ग्रुप ऐसे हैं जिनमें बने रहना अनेक कारणों से मजबूरी बन गयी है. इनमें सुबह से रात तक सात-आठ सौ संदेश आते हैं. गुड मॉर्निग से लेकर गुड नाइट तक, नेहरू गांधी खानदान का देशद्रोह बताने से लेकर फासीवादी राजनीति का चेहरा उघाड़ने तक, फिल्मी गीतों से लेकर साँप-नेवले की लड़ाई तक के वीडियो, जाने क्या-क्या. इनसे छुट्टी पाने में कम से कम दोनों टाइम आधा घण्टा लगता है.

सोचता हूँ, कितने सारे लोग हर वक्त सिर्फ वाट्सऐप  पर ही लगे रहते हैं. जहां जाइए, जहाँ देखिए सभी हाथ के मोबाइल फोन में डूबे है. स्मार्ट फोन नहीं है तो जिंदगी बेकार है. कहीं बिल बिल जमा करने जाइए या बैंक, काउण्टर के पीछे बैठा व्यक्ति घड़ी-घड़ी काम रोककर वाट्सऐप  देखता है और जवाब देता है. काउण्टर के इस तरफ वाला कुढ़ता है. फिर वह भी अपना वाट्सऐप  खोल लेता है. पूरी लाइन इसी में लगी रहती है.

भारत में 45 करोड़ से अधिक व्यक्तियों के हाथों में स्मार्ट फोन हैं और इनमें 20 करोड़ से ज्यादा वाट्सऐप  के सक्रिय उपयोगकर्ता हैं. गूगल महाशय यह आंकड़ा तीस करोड़ तक पहुँचता बता रहे हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही यह संख्या और आगे निकल जाए. रोजगार वैसे भी कम हो रहे हैं. बेरोजगारों के लिए वाट्सऐप  और फेसबुक से अच्छा काम कोई है नहीं. प्रसंगवश, अपने देश में तीस करोड़ से ज्यादा व्यक्ति फेसबुक में लगे रहते हैं.

ऐसा कोई अध्ययन सामने नहीं आया है कि इन माध्यमों का कितना उपयोग रचनात्मक या सार्थक काम में होता है. जुकरबर्ग ने फेसबुक बनाया था हारवर्ड के विद्यार्थियों में नोट्स, आदि शेयर करने के वास्ते. आज इन माध्यमों का कितना उपयोग बेहतरी के लिए हो रहा है? अपने देश में तो हद है. हम दुनिया भर में सबसे ज्यादा वाट्सऐप करने वाला देश हैं. दंगा भड़काने, नफरत फैलाने, किसी को बदनाम करने या समय नष्ट करने में हमारा शानी नहीं.

टेक्नॉलॉजी का उपयोग जीवन की बेहतरी के लिए होना चाहिए. हर नई ईजाद के साथ मुश्किल काम आसान हुए हैं. हफ्तों लम्बी यात्रा कुछ घण्टों में होने लगी है. विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने काम आसान बनाकर हमारा समय बचाया है. आज हमारे पास खूब समय है. उस वक्त का कैसा उपयोग हम कर रहे हैं?

हाल के एक शोध ने बताया कि सबसे ज्यादा फेक न्यूज यानी झूठ और अफवाहें भारत से उपजती और फैलाई जाती हैं. चुनावी राजनीति ने फेक न्यूज की विशाल इण्डस्ट्री तैयार कर दी हैं. युवा पीढ़ी इसमें सबसे ज्यादा व्यस्त  है. बिल्कुल अशिक्षित और बहुत कम पढ़े-लिखे भी ‘वाट्सऐप  यूनिवर्सिटीसे पीएच-डी कर चुके हैं.
किसी देश की युवा पीढ़ी की ऊर्जा उसकी सबसे बड़ी ताकत होती है. वह बेहतरी के लिए बदलाव का माध्यम बनती है. वाट्सऐप में पारंगत हमारे युवा कैसा बदलाव लाने वाले हैं, यह सोच-सोच कर चिंता होती है.     
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 4 मई, 2019)