Tuesday, May 30, 2023

कवि का जीवन में भी संवेदनशील होना

 उनके लिए

छुपाना कविता है

मेरे लिए उघाड़ना

दरअसल झगड़ा 

यहीं से शुरू होता है

वे भाषा में रचनात्मकता चाहते हैं

मैं कविता में

               -महेश पुनेठा

 कवि होने के लिए संवेदनशील होना पहली शर्त है। यह संवेदनशीलता कविता के साथ-साथ कवि के जीवन में भी उतर आए तो कविता ही सुंदर नहीं होती, जीवन को सुंदर बनाने के अनेकानेक प्रयासों में भी परिलक्षित होती है। महेश पुनेठा हिंदी के प्रतिष्ठित कवि हैं, अच्छे अध्यापक हैं, विद्यार्थियों की रचनात्मक प्रतिभा को तराशने के लिए दीवार पत्रिकाको उत्तराखण्ड के स्कूलों में एक अभियान का रूप देने में सक्रिय हैं, ‘शैक्षिक दखलनाम की पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं और पठन-पाठन की संस्कृति को विकसित करने के लिए छोटे-छोटे कस्बों तक पुस्तकालय अभियान चलाने में उनकी प्रमुख भूमिका है। इसलिए उनकी कविताओं की चमक और प्रखरता बढ़ जाती है। वे अत्यंत सहज-सरल और अनुभूत सत्य का मार्मिक बयान हैं।

2021 में प्रकाशित अब पहुंची हो तुम’ (समय साक्ष्य, देहरादून) उनका तीसरा कविता संग्रह है। वे पहाड़ में ग्रामीण जन-जीवन के अत्यंत निकट रहते हैं, इसलिए पहाड़ और वहां का संघर्षपूर्ण जीवन उनकी कविताओं में सम्पूर्णता से आता है लेकिन देश-दुनिया के ज्वलंत मुद्दों और विद्रूपताओं से वे अछूती नहीं हैं। उनकी गहरी, तीखी दृष्टि सब देखती है  और उस तथ्य तक पहुंच जाती है, जिसे छुपाया जाता है-

पिछली बार उन्होंने घोषणा की थी

हम तुम्हारा भला चाहते हैं

कुछ सालों में ही

हमारे खेतों से

हमारे अपने बीज गायब हो गए  (हम तुम्हारा भला चाहते हैं)

 

न उस राजा के कारण

न पारदर्शी पोशाक के कारण

न उस पोशाक के दर्जी के कारण

न चापलूस मंत्रियों के कारण

न डरपोक दरबारियों के कारण

कहानी अमर हुई बस

उस बच्चे के कारण

जिसने कहा- राज़ा नंगा है     (अमर कहानी)

 पहाड़ की स्त्री और सामान्यत: पुरुषवादी-सामंती समाज में सदियों से दमित स्त्री पुनेठा जी की कविताओं में अपना हाल और प्रतिरोध कई प्रकार व्यक्त करती है-

 आखिर कब आएगा वह दिन

जब पति के बगल में

पत्नी की भी

पुरानी चिट्ठियां

पुरानी डायरियां सजी होंगी?   (उनकी डायरियों के इंतज़ार में)

 

वह आज अचानक नहीं मरी

हां आज अंतिम बार मरी

उसको जानने वाले कहते हैं

मरी क्या बेचारी तर गई  (जो दवाएं भी बटुए के अनुसार खरीदती थी)

 

प्रकृति से प्रक्रिया तक

वहां बदल गया है बहुत कुछ

लेकिन उन रसोइयों में भी

नहीं बदले हैं

सदियों से अब तक

रसोई को सजाने-संवारने वाले

वे  दो हाथ  (नहीं बदले)

 

वह कभी जींस-टॉप

कभी सलवार-कमीज

कभी साड़ी में भी दिख जाती है

वह अपने जीवन के सारे फैसले खुद लेती है

इन दिनों वह आपदा राहत कार्यों में लगी है

वह जब भी घर से निकलती है

मुहल्ले की औरतें

अपनी छत की रेलिंग पर खड़ी

उसको दूर तक जाते देखती रहती हैं

जैसे देख नहीं खोज रही हैं कुछ सदियों से  (उसके पास पति नहीं है)

संग्रह की शीर्षक-कविता प्रकाशन के बाद से बहुत उद्धृत की जा चुकी है, सोशल मीडिया से लेकर जर्नलों तक। पहाड़ों में जहां सड़कें सुगम यातायात के लिए आवश्यक मानी जाती हैं, वहीं वे भू-स्खलनों से लेकर प्राकृतिक-सम्पदा के अंधाधुंध दोहन का कारण भी बनती हैं। इस द्वैध में एक नया त्रासद कोण भी जुड़ता गया है कि जब तक गांवों से पलायन बहुत तेज नहीं हुआ था या पलायन आर्थिक पक्ष तक सीमित था, तब तक सड़कें दूर-दूर रहीं लेकिन अब अब विकास के नाम पर सड़कों का गांव-गांव जाल बिछाया गया है तो गांव खाली हो गए हैं। महेश पुनेठा इस विकास के पीछे छिपी राजनीति-पोषित लिप्सा पर लिखते हैं-

सड़क!

अब पहुंची हो तुम गांव

जब पूरा गांव शहर जा चुका है

सड़क मुस्कराई

सचमुच कितने भोले हो भाई

पत्थर, लकड़ी और खड़िया तो बची है न!   (गांव में सड़क)

 

मेरे गांव के पास से गुजरती हुई

एक सड़क फैल रही है

एक नदी सिकुड़ रही है  (ठिठकी स्मृतियां)     

बड़े बांध, विस्थापन का दर्द, पुनर्वास के छल, पलायन, स्थानीय स्वाद, बच्चे, रसोई, लोकतंत्र, मां, मजदूर और बाजार भी इन कविताओं में आते हैं , जैसे वे हमारे जीवन में आते हैं। यह इन कविताओं की सम-सामयिकता की पहचान है और अपने समय के सत्य से आंख मिलाने का कवि का साहस भी। कवि की दृष्टि बहुत साफ है, इसीलिए वह प्रार्थनाको अच्छी तरह पहचानता है-

 विपत्तियों से घिरे आदमी का

जब नहीं रहा होगा नियंत्रण

परिस्थितियों पर 

फूटी होगी उसके कण्ठ से पहली प्रार्थना

विपत्तियों से उसे बचा पाई हो या नहीं प्रार्थना

पर विपत्तियों ने अवश्य बचा लिया पार्थना को

 (-न जो, 31 मई, 2023)

 

     

Thursday, May 25, 2023

इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने

जब बम फट रहे हों अपनी धरती पर, मिसाइलें बरस रही हों, पैराशूटों से उतरे शत्रु सैनिक घरों में घुसकर बच्चोंं को खिड़कियों से बाहर उछाल दे रहे हों और महिलाओं से बलात्कार कर रहे हों, गलियों-सड़कों में लाशें बिछा रहे हों और शानदार इमारतें जमींदोज हुई पड़ी हों, तो उस समय कैसी कविता लिखी जा सकती है? यूक्रेन पर रूसी हमले को एक साल से अधिक हो गया है और युद्ध अभी जारी है। कब तक चलेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। एक बड़ा ताकतवर देश छोटे से देश को युद्ध में झोंके हुए है और यूक्रेन को अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ना है। ऐसे में यूक्रेन के कवियों की कविता कैसा युद्ध लड़ रही है? वह युद्ध के बीच तो है ही लेकिन युद्ध के बाहर भी है, मनुष्यता का सपना बचाती हुई। 

वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लेखक निधीश त्यागी ने रूस के हमले के बाद लिखी गई यूक्रेनी कविताओं के हिंदी अनुवाद का एक संकलन तैयार किया है- 'इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने', जिसे 'नवारुण प्रकाशन' के कुछ दिन पहले ही प्रकाशित किया है। इस संग्रह को पढ़ना केवल कविताओं को पढ़ना नहीं है, एक युद्ध के आतंक को, विनाश को- सिर्फ भौतिक ही नहीं, सांस्कृतिक भी, अनुभव करना है। साथ ही जीवन की उगती कोपलों के संकेत को देखना भी है। निधीश जी ने संगह की भूमिका बहुत तकलीफ के साथ लिखी है, जो स्वयं एक मार्मिक टिप्पणी है और दिल में बम के छर्रे की तरह धंस जाती है-

"हम इक्कीसवीं सदी में अपनी ही तरह के आदमजाद लोगों को मरते और मारते देख रहे हैं। कल तक जहां सब ठीक था, वहां एकदम से सब उलट गया है। दफ्तर, स्कूल, अस्पताल, प्रेक्षागृह, बाजार ,रिश्ते,मुहब्बतें, बच्चे। बूढ़ी औरतें। डबल रोटी। घर। मकान। ढूह। कंधे पर टंगी बिल्लियां। मोर्चे पर जाते पिता और देश छोड़कर जाते परिवार। खिड़की के चकनाचूर शीशे । ... तकलीफों के बीच यह भी थोड़ी राहत की बात है कि शोर, ध्वंस, हिंसा, नाउम्मीदी और क्रूरताओं के समय  में भी कुछ दिल हैं जो धड़क रहे हैं, कुछ नज़रें हैं जिनकी नज़रों से विस्मय अभी गया नहीं है, कुछ शब्द हैं जो तहखानों में लगी चिमनियों से निकल कर आ रहे हैं। अपनी गंधों, रसों, हताशा, क्षोभ, गुस्से, असहाय होने के बोध और सवालों के साथ। कभी धुंंएऔर कभी राख के साथ। ये कविताएं बहुत सी निशानियां लिए चलती हैं- पहचान में न आ सकने वाली लाशों से लेकर उन खाली घोंसलों तक जिनसे कबूतर कबके फड़फड़ा कर उड़ चुके हैं। पर वह कविता की निगाह में आ जाता है। वह जो युद्धोन्माद का शिकार भी है और गवाह भी। पर फिर भी हर कविता के केंद्र में युद्ध नहीं है। ज़िंदगी है-- सोती, जागती, चलती-फिरती और युद्ध जैसे कहीं बगल से निकल रहा है। इन कविताओं में वीर रस की अनुपस्थिति शायद इनका और हमारी मनुष्यता का सबसे बड़ा हासिल है।" उनकी यह टिप्पणी हमसे तीखा सवाल भी करती है- "कैसा लगना चाहिए हमें और आपको, जब हमारा मुल्क उस देश से तेल खरीदकर एक युद्धोन्मत्त और आतताई देश की आर्थिक स्थिति मजबूत कर रहा है?"

यूक्रेनी कवि लेसिक पैनासियुक की एक कविता देखिए-

रूसी फौजी शोरबा बना रहे हैं हमारे भण्डार और फ्रिज से सब्जियां छीनकर
और चूल्हे में हमारी किताबें फेंक रहे हैं   
जलाने के लिए

सबसे नौजवान यूक्रेनी कवियों के शानदार संस्करण जल रहे हैं
उनके बाद 2020 के दशक के, फिर 2010 के दशक के, 1990 वाले दशक के
फिर आठवें, छठे, पांचवें दशक के
और फिर इस तरह उक्रेनी साहित्य के आखिर तक तर्जुमे जल रहे हैं
और मूल किताबें भी

आग पर चढ़े हैं वे सारे लेखक
जिन्होंने हम पर अपना असर छोड़ा
आग भभकती है हर उस किताब पर
जो हमने नहीं पढ़ी, या पढ़ी, या पढ़ने का मन बनाया
जल रही हैं सारी कविताएं छपी, अनछपीं, अनलिखीं और दुबारा लिखीं

और इस तरह ये कविता
हमारे चेहरों के बारे में आग के पिछवाड़े की तरफ
उछाल दी गई
ताकि रूसी फौजी आखिरकार
गटक सकें अपना शोरबा 

एक और कविता जो दर्ज़ करना जरूरी समझता हूं वह है मरजाना सावका की 'ईश्वर यहां पड़ा है"-

ईश्वर यहां पड़ा है। कत्ल के बाद ताबूत में।
उसे फिर जी उठना था, पर लगता है, समय पर नहीं होने वाला।
पिछली और सबसे भयानक जंग में वह एक वालंटियर था।
पूरे शहर से बिना हथियार, बहुत शांति से गाड़ी चलाता हुआ
नरक जैसे ट्रैफिक से गुजरता डबलरोटी बांटता हुआ।
अपने आसपास के लोगों से बोलता: गुस्से में मत जियो।
आखिरकार सबसे भयानक गुनहगार के पास भी होता है पश्चाताप का मौका।
पर सूरज शहर पर से डूब रहा था स्याह होती पहाड़ियों के पीछे
और सूखे मस्तूलों की तरह इमारतें जल रही थीं। और ये लड़ाई रौशनी और
अंधेरे के बीच अभी थोड़ी और चलनी थी। एक मिसाइल का टुकड़ा
उसकी छाती से टकराया और उसे मार गिराया। बगल में उसके बारह
और थे, एक बच्चा भी उनके बीच।
करीब पचास लोगों ने उन्हें तेजी से घेरे में लिया।
वे कह रहे थे कि हेरोड्स ने किसी को नहीं छोड़ा, बच्चों को भी नहीं।
पर वे ज़ल्दी चले गए। क्योंकि कर्फ्यू पहले ही शुरू हो चुका था।
ईश्वर यहां पड़ा है। वह दयालु था। उसने डबलरोटी के टुकड़े किए।
वह आया था कहीं से-- इजीयुम से, बुचा से, पोसाना से।
वह पड़ा है ताबूत में। हम राह देख रहे हैं सबसे बड़े चमत्कार की।
उसने हमसे कहा किसी को मारो मत। वह हमारे बीच चलता फिरता रहा।
वह फिर से उठेगा। अपनी सलीब और मुलायमियत को छोड़ते हुए। 
वह फिर से उठेगा और हमारे साथ शामिल होगा।
बेचैन।
बहादुर।
परिचित।
ज़िंदा।

मात्र 76 पृष्ठों के इस संग्रह में दस यूक्रेनी कवियों की युद्ध के बीच लिखी गई कविताएं संकलित हैं। इस संग्रह को पढ़ा जाना चाहिए, इसलिए कि कविता अपने सम्मय से कैसे आंखें चुरा सकती है? अगर उसे प्रेम करना है तो भी कविता युद्ध से कैसे बच सकती है? निधीश त्यागी को इस संग्रह के लिए साधुवाद और नवारुण को भी। यूक्रेनी और रूसी में लिखी गई इन कविताओं के विभिन्न कवियों द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद से निधीश ने इन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया है।

'इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे चेहरे' संग्रह की कीमत रु 150/- है। इसे 9811577426 या 8057374761 पर सम्पर्क करके मंगवाया जा सकता है।

Tuesday, May 16, 2023

मेघालय में मातृसत्तात्मक बनाम पितृसत्तात्मक

मेघालय में इन दिनों मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बीच रोचक संघर्ष छिड़ा हुआ है। पिछले मास 'खासी हिल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल' ने यह आदेश जारी किया कि जो बच्चे अपने नाम के साथ पिता का वंशनाम लिखने लगे हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र जारी नहीं किया जाएगा। राज्य की तीन प्रमुख जनजातियां- खासी, गारो और जैंटिया मातृसत्तात्मक समाज हैं। उनकी सन्ततियां अपने नाम के साथ माता का कुलनाम लिखती आई हैं। 1960 के आस-पास से एकाध संगठन इसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। कोई डेढ़ बरस पहले एक नई राजनैतिक पार्टी बनी- द वॉयस ऑफ द पीपल पार्टी। पिछले चुनावों में उसके चार विधायक भी चुने गए। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था अपनाने के लिए प्रयत्नशील ही नहीं बल्कि आक्रामक रुख अपना रही है। उन खासी युवतियों के बच्चों पर पिता का वंशनाम लिखने का दबाव पड़ रहा है जो गैर-खासी समुदाय में विवाह करती हैं। पिता का वंशनाम लिखने वाले ऐसे बच्चे जब अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र लेने जा रहे हैं तो उन्हें अब मना कर दिया जा रहा है। खासी हिल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के 1970 में बने एक कानून के मुताबिक अपने नाम के साथ माता का कुलनाम लिखने वाले बच्चे ही खासी माने जाएंगे। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए लड़ने वाले कुछ पुरुष अधिकार संगठन भी इस संघर्ष में कूदे हुए हैं।

हमारे देश में आज भी कई आदिवासी समाजों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था है। पूर्वोत्तर भारत में उनकी संख्या काफी है। 201 की जनगणना के अनुसार मेघालय में खासी जनजाति की जनसंख्या एक लाख 41 हजार बताई गई है। खासी, गारो और जैंटिया मिलाकर इस राज्य में 85 प्रतिशत से ऊपर हैं। उत्तराखण्ड और हिमाचल जैसे हिमालयी समाजों में मातृसत्तात्मक जनजातियों की संख्या क्रमश: कम होती जा रही है। उत्तराखण्ड में थारू, बुक्सा और राजी मातृसत्तात्मक जनजातियां हैं जो आधुनिक जीवन और 'विकास' के सम्पर्क में आकर अपनी पहचान और संख्या खोती जा रही हैं। राजी या वनराजि तो चार-पांच सौ की संख्या में ही रह गए हैं।
अपना देश इतना विशाल और विविध है कि हम बहुत से समाजों और उनकी व्यवस्थाओं के बारे में जानते ही नहीं। भाषाई मीडिया भी उनकी ओर नहीं देखता। अंग्रेजी मीडिया में कभी-कभार कुछ पढ़ने को मिल जाता है। यह जानकारी मुझे आज के 'The Hindu' के पहले पन्ने पर प्रकाशित एक समाचार से मिली।

Wednesday, May 03, 2023

संग-साथ-- तीसरी आंख से देखे गए अविस्मरणीय चित्र

अशोक अग्रवाल की गिनती हिंदी के विशिष्ट कथाकारों में होती है। इस बार उनके संस्मरण उन्हें विशिष्ट बना रहे हैं। संस्मरणों की नवीनतम कृति से उन्होंने साबित किया है कि वे अपने करीबी रचनाकारों की स्मृतियों में अपनी कथाओं एवं चरित्रों की तरह ही प्राण भर देते हैं। जब तक हम संग साथके साथ रहते हैं यानी उसे पढ़ रहे होते हैं, उतनी देर वे सभी लोग स्मृतियों के संसार से उतरकर हमारे साथ चलते-फिरते, बोलते, झगड़ा और प्यार करते हैं। किताब बंद करते ही वे हमें अकेला छोड़ जाते हैं। एक रिक्ति और कचोट मन में गहरे बनी रह जाती है, जैसे- बहुत करीब से उठकर चला गया कोई!

शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय, त्रिलोचन और विनोद कुमार शुक्ल की स्मृतियों में आत्मीयता होने के बावजूद तनिक लिहाज की दूरी भी दिखाई देती है। यह उनकी विराट छवियों के कारण भी हो सकता है जिसके भीतर आप अत्यंत सहजता से प्रवेश पा तो जाते हैं लेकिन अपने ही संकोच में कुछ न कुछ देखना और स्पर्श करना हर बार रह जाता है। नागार्जुन को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता था लेकिन एक तो बाबा किसी अपिरिचित के साथ भी सारी दूरियां स्वयं ही पाट देते रहे और अशोक जी ने तो उन्हें बाहर-भीतर से देखा-जाना बहुत करीब से और कई कोणों से। बल्कि, उन्होंने वह भी देखा और अनुभव किया जिसे बाबा के कई करीबी नहीं देख पाए या अनदेखा कर गए, इसलिए यहां बाबा को पूरा खुले में देखा जा सकता है। उनका यह नायाब संस्मरण जब पहलमें छपा था तो इसके एक-दो प्रसंगों पर विवाद हुआ और ज्ञानरंजन को स्पष्टीकरण प्रकाशित करना पड़ा था। वे विवादितअंश इस पुस्तक से निकाल दिए गए हैं लेकिन ज्ञान जी का स्पष्टीकरण शामिल किया गया है जिससे जानने वालों को उन प्रसंगों की अनुगूंज सुनाई दे ही जाती है। स्वाभाविक ही बाबा के साहित्य और साहित्येतर में भी प्रवेश करने की एक खिड़की यह संस्मरण है।   

जो संस्मरण संग-साथके धड़कते प्राणों सरीखे हैं, वे बहुत कम या लगभग नहीं जाने गए रचनाकारों के बारे में हैं।  नवीन सागर, अमितेश्वर, प्रियदर्शी प्रकाश, अशोक माहेश्वरी, जितेंद्र कुमार, पंकज सिंह और विश्वेश्वर से जुड़ी यादों में कथाकार अशोक अग्रवाल की परकाया प्रवेश की दक्षता चकित करती है। इन संस्मरणों को पढ़ते हुए एक कसक और बेचैनी बहुत तीव्रता से जकड़ लेती है। अशोक अग्रवाल इनके निजी और रचना संसार के भीतर न केवल प्रत्येक ओने-कोने को महसूस कर आए हैं, बल्कि अपना भी कुछ वहीं छोड़ आए हैं। इसीलिए वे स्मृति-चित्र हमारे भीतर अंकित रह जाते हैं और रह-रह टीसते हैं। लगता है अशोक जी के पास अपने इन अत्यंत आत्मीय रचनाकारों के व्यक्तित्व के देखे-अनदेखे, उजले-स्याह पक्षों को खोलकर रख देने की कोई कुंजी होगी! जैसे, जितेंद्र कुमार के बारे में वे लिखते हैं- “खुद अपना एक अपयश वह केंद्रीय भाव है जिसे पकड़कर जितेंद्र कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मर्म को कुछ हद तक समझा जा सकता है।” ऐसी ही कोई कुंजी उनसे नवीन सागर के वे अनलिखे किस्से कहलवा देती है जो असमय काल-कवलित हुए इस कहानीकार की अद्भुत प्रतिभा को उजागर करते हैं।

लक्ष्मीधर मालवीय पर जो संस्मरण है, वह इस मायने में तनिक भिन्न है कि उसमें मालवीय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को करीब से जानने के अलावा हम एक बेहतरीन यात्रा-वृतांत भी पढ़ते हैं। संग-साथसे पता चलता है कि अशोक अग्रवाल घूमक्कड़ स्वभाव के रहे हैं। घुमक्कड़ी, बल्कि आवारगी, किसी भी इनसान को विलक्षण अनुभवों और संवेदनशीलता से समृद्ध करती है। लेखक के लिए तो वह तीसरी आंख अर्जित करने जैसा है जिसे खोलने पर जीवन और जगत के भीतर के अदृश्य को देखा और अनुभव किया जा सकता है। इन संस्मरणों में यही अनुभव-समृद्धि दिखाई देती है। इस किताब में वर्णित अधिकसंख्य रचनाकार भी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के रहे हैं। यह दुतरफा लगाव इन स्मृति-चित्रों में और भी प्राण फूंकता है। गद्य तो अशोक जी का सरस और बहते पानी-सा निर्मल है ही।  

संग-साथकी समृद्धि प्रकारांतर से हमें हिंदी साहित्य-संसार की गरीबी भी दिखा देती है। कैसे-कैसे अद्भुत रचनाकार-कलाकार अनजाने रहे चले आए और बिखरते-टूटते गए। अपने रचनाकर्म और जीवन को योजनाबद्ध ढंग से व्यवस्थित या प्रचारित न करने वालों की यहां कोई पूछ या गिनती नहीं। कैसे-कैसे हीरे थे जिन्हें तराशा, सम्भाला और सामने लाया जाना था। उनका लगभग गुमनामी में तिरोहित हो जाना और उनकी रचनात्मकता की सुध भी न लेना, उनकी अपनी अराजकता से अधिक हिंदी साहित्य-समाज की अहंमन्यता है। अशोक जी को साधुवाद कि कुछ हीरों की चमक वे दिखा सके, भले ही उनके बुझ जाने के बाद।

- न जो, 03 मई, 2023

(संग-साथ- अशोक अग्रवाल, सम्भावना प्रकाशन, मूल्य-300/-, सम्पर्क- 7017437410)       

Tuesday, May 02, 2023

यह सपना बचा रहे कि कोई पल्लीपार नहीं किया जाएगा

हाल ही में प्रकाशित शीला रोहेकर का चौथा उपन्यास पल्लीपारअपने आकार (446 पृष्ठ) में ही नहीं अपने कथानक, मंतव्य और वितान में भी विस्तृत है। उसमें अनेक कथाएं हैं, कथाओं के भीतर कथाएं हैं, विविध लेकिन आपस में गुंथे एवं परस्पर उलझे हुए चरित्र हैं, उन सबका एक गुंजलक है, मिथक, गाथाओं और इतिहास की छौंक है तथा हमारे समकाल की विकराल सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक चुनौतियों से आमना-सामना है। इसके विविध चरित्र एक केंद्रीय चरित्र, नायिका सारा (यहूदी नाम साराह) से गहन रूप से जुड़े हैं जो अपनी-अपनी कहानियों की मार्फत उसके मानस, स्वतंत्र व्यक्तित्व, निज की तलाश के संघर्षों को चित्रित करने के साथ उस समय को भी बयां करते हैं जिसमें वे और उनके पुरखे रहते आए हैं। इनकी कहानियों में अतीत बार-बार बोलता है, मिथक व इतिहास गूंजता है और हमारा वर्तमान निरंतर विकट होती चुनौतियों के साथ पेश आता है। इस वर्तमान की जड़ें अतीत में ही हैं। पल्लीपारअपने नाम से ही संकेत कर देता है कि यह निरंतर पल्ली तरफ धकेले जाते अल्पसंख्यकों, अति-अल्पसंख्यकों, वंचितों के बाहरी-भीतरी संघर्ष की कथा है, लेकिन यह पल्लीपारइससे भी व्यापक अर्थों वाला है। यहां विवेकशील, लोकतांत्रिक, संवेदनशील मनुष्य होना ही पल्लीपार होना हो गया है। उसमें भी स्वतंत्रचेता स्त्री के लिए तो यह शब्द भी छोटा पड़ जाता है। वह हर तरह से पल्ली-पल्लीपार है।

अपने पिछले उपन्यास मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथा’ (2013) की तरह ही शीला जी पल्लीपारमें भी एक भारतीय यहूदी परिवार को केंद्र बनाती हैं लेकिन यह उपन्यास यहूदी परिवार और समाज के संकटों-संघर्षों तक ही नहीं रहता, उससे कहीं आगे की कंटकाकीर्ण राह पकड़ता है। इस यहूदी परिवार के चौगिर्द पूरे भारत का समकाल खड़ा नज़र आता है। जैकब नवगांवकर और एस्थर दम्पति के दो बेटों और एक बेटी की कहानी क्रमश: विस्तार लेती हुई हमारे देश की वर्तमान चुनौतियों, सामाजिक-राजनैतिक हालात, बढ़ती साम्प्रदायिकता, दंगे, मीडिया का निरंतर मूल्यच्युत होते हुए सत्ता का भौंपू बन जाना, सबंधों का टकराव और टूटन, पारिवारिक बिखराव, विस्थापन, बुजुर्गों का अकेलापन और विभिन्न चरित्रों, विशेष रूप से नायिका के अपने वजूद की तलाश या भटकाव को समेट लेती है। इस तरह यह उपन्यास गाथात्मक विस्तार लेते हुए पाठक को झिझोड़ता रहता है।

अपने जैन प्रोफेसर की बेटी से प्यार कर बैठने की कीमत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब यहूदी युवक जैकब नवगांवकर ने तीसरे दर्जे में पास होने, विश्वविद्यालयों की प्रोफेसरी के लिए अनुपयुक्त ठहराए जाने और एक कॉलेज में उपेक्षित-सी मास्टरी करते हुए जीवन बिता देने में चुकाई। उन्हें और भी बहुत चुकाना पड़ा। रिटायरमेण्ट के बाद फण्ड की रकम के बड़े हिस्से से जिस सोसायटी में दो कमरे का फ्लैट खरीदा, वह इस यहूदी परिवार को कभी अपना नहीं समझ सका। बड़े बेटे मोजस को भी पिता की तरह मुहब्बत में यहूदी होने के ऐवज में तगड़ी चोट खानी पड़ी। जिस यहूदी कन्या से अंतत: उसका विवाह हुआ, वह आर्थिक एवं मानसिक संकट के दौर में उसे छोड़कर चली गई। अंतत: मोजस नशे की लत एवं अवसाद के चलते माता-पिता की कथा को और त्रासद बनाता हुआ फंदे से लटक गया। छोटा बेटा बेन (बेन्यामिन) अपनी परिवार-विमुख पत्नी के साथ मुम्बई जा बसा। रही बेटी साराह, तो वह दोस्तियों और मुहब्बतों के जटिल पेंचों-धोखों-त्यागों, पत्रकारिता की नौकरी की कालिमा एवं उठापटक, दैहिक रिश्तों एवं मुहब्बती छलावों में अपने वजूद की तलाश करते-भटकते यू ब्लडी फकिंग बिचठहराई गई। अपने सूने फ्लैट में दिन काट रहे और बार-बार अतीत में जाते बूढ़े जैकब और एस्थर का अकेलापन इस तरह गूंजता है जैसे इस देश में अल्पसंख्यक ही नहीं, संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों में विश्वास करने वाले नागरिक किनारे धकेले जा रहे हैं, जिनके फ्लैट और रहे-बचे सामान पर कबाड़ी तक की शातिर निगाह लगी हुई है।

पिता जैकब, मां एस्थर, दिवगंत होने से पहले बड़े भाई मोजस, दूसरे भाई बेन्यामिन, बचपन की पक्की दोस्त लेकिन बाद में रकीब बन गई अवसादित रेवती, सहेली जबा, एक दौर का प्रेमी साहिल, मीडिया चैनल में उसके बॉस सलिल कपूर, जिनसे निकट होते गए रिश्ते में सारा ने कभी अपनी पूर्णता भी देखी थी तथा संवेदनशील सहयोगी-पत्रकार अशफाक की अलग-अलग कहानियों में और फुटकर स्मृतियों में सारा की कथा कई कोणों से आगे बढ़ती है। हरेक की कहानी में सारा है। कभी प्यार-दुलार, कभी दोस्ती, कभी अबूझ पहेली और कभी दुत्कारों-ठोकरों में सारा के व्यक्तित्व और कुछ सीमा तक मन की भी परतें खुलती हैं। यह एक विवेकशील और चेतन स्त्री की इस समाज में अपना ठौर तलाशने की जद्दोजहद है, अपनी पहचान बनाने और समझने की कोशिश है, यह अपनी अस्मिता तलाशने और स्वतंत्र रूप से सबल व्यक्ति के रूप में जीने की कश्मकश है। इस प्रक्रिया में सारा का छला जाना-भटकना ही नहीं दिखाई देता, इस पुरुष प्रधान समाज की सीवनें भी उघड़ती जाती हैं जिनसे तरह-तरह का कलुष झांकता है। एक प्रसंग में जब सारा से बेन कहता है- “तुम क्या चाहती हो, यह शायद तुम्हें भी मालूम नहीं” तो सारा का जवाब आता है- “ऐसा भी हो सकता है बेन कि मैं अपने रिश्तों में पूरी तरह से ईमानदारी चाहती हूं जिसमें कोई स्वार्थ, आशंका, दबाव या स्खलन न हो और अपने समय के लिए जवाबदेह हों।” बेन साफ कह देता है- “ऐसा बेलौस संसार तुम्हें मिलने से रहा। इसीलिए भाग रही हो। इसे भटक जाना कहते हैं सारा, भटकाव है यह।” सचमुच, भागती ही रही है सारापरिवार से, दोस्तों से, समझदार लगने वाले सहकर्मियों से, प्यार या प्यार का नाटक करने वाले बॉस, करीब आते उसके बेटे और मीडिया की नौकरियों से भी। शायद अपने आप से ही।                  

“रिबेलियस, स्वाभिमानी, जहीन और गम्भीर” सारा की यह भटकन उसे जहां-जहां ले जाती है, जिस-जिस से वह रिश्ते बनाती है, जहां भी मुहब्बत या धोखा पाती है, जब भी लड़ती और जूझती है, वहां-वहां और तब-तब हमारे समाज का कलुष, पौरुष और राजनीति की साजिशें सामने आ जाते हैं। सारा की इस कथा में इतिहास और मिथकों के अनेक प्रसंगों के गूढ़ार्थों से लेकर समकाल की भयावह स्थितियां तक गूंजते रहते हैं- “गायों को बचाया जा रहा है और दलितों की खालों की जूतियां बन रही हैं। दुनिया भर के सयानों, दार्शनिकों और महानायकों को बोतलों में भरकर जिन्न बना दिया गया है ताकि समयानुसार उन्हें बाहर निकालकर उपयोग में लाया जा सके। आजकल गांधी जी की ऐनक बाहर निकली हुई है।” गुजरात के दंगे, जाहिरा शेख की त्रासदी, दिल्ली के सीरियल धमाके, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे, समझौता एक्सप्रेस के विस्फोट और भी कई वारदात, जो इस देश के मूल ढांचे पर ही हमला करते आए हैं, सारा की कथा में गुंथे चले आते हैं और उनके पीछे की सच्चाई में झांकने का प्रयास करते हैं। 2014 के आम  चुनावों के बाद से देश में जो बदलावआया, बल्कि लाया गया है, उसके दूरगामी प्रभावों की अंतर्ध्वनियां और प्रतिक्रियाएं भी कथा में साफ-साफ सुने-देखे जा सकते हैं।

शीला रोहेकर स्वयं यहूदी हैं, इस अति-अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी पहचान खो देने का संकट, सामाजिक अलगाव, और भी क्या-क्या सहना पड़ता है, इसका उन्हें स्वाभाविक ही गहरा अनुभव है। मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथामें जो त्रासद-कथा वे लिख गई हैं, उसकी पीड़ादायक गूंज पल्लीपार में भी बराबर सुनाई देती है- “... दो हजार वर्ष में (जबसे यहूदियों का भारत आगमन माना जाता है) करीब एक हजार वर्ष हमारी जाति अल्पसंख्यक, पिछड़ी या अछूत समझी जाती रही। हमारे जैसे लोगों की बस्तियां नहीं होतीं, ‘पल्लीपार होता है, मुख्य बस्ती से दूर जहां उजाड़ होता है। ऐसे में सारी इच्छाएं, भविष्य और प्रगति धूल बनकर उड़ती रहती है।... हमारी जैसी जातियां निर्वासित हैं। हमारा इतिहास में कोई उल्लेख नहीं होता, केवल गजेटियर्स में होता है हमारा उल्लेख...।” इसके साथ ही इस उपन्यास में एक विशाल अल्पसंख्यक आबादी, यानी मुसलमानों को अपने ही वतन में पराया, संदिग्ध और आतंकवादी करार दिए जाने की राजनीति-पोषित नफरत का विस्तार से तकलीफदेह वर्णन है। 2013 में मुजफ्फरनगर के लाकबावड़ी गांव में सारा के सहकर्मी पत्रकार अशफाक की बहन को मुहल्ले के ही लड़के खींच ले गए, बच्ची और मां का कत्ल कर दिया गया, सदमे में पिता पत्थर हो गए, भाई विक्षिप्त बन गया और खुद अशफाक को दंगों में बलात्कार और कत्लों के झूठे आरोपों का अभियुक्त बनाकर बिना सुनवाई जेल में ठूंस दिया गया- “विश्व के तमाम देशों के अल्पसंख्यक और वंचित पल्लीपारके ही निवासी होते हैं, यह बात मैंने जेल की इस कोठरी से पूरी तरह मन में उतार ली है, क्योंकि इससे पहले मैंने किसी हादसे या दुर्दिन को अपने घर के किवाड़ पर दस्तक देते नहीं देखा था।” यह सच आज सिर्फ उपन्यास के पात्र अशफाक ही का नहीं है, एक बड़ी जीती-जागती आबादी हमारे देखते-देखते पल्लीपार भेजी जा रही है। नतीजा यह है कि “कोई हादसा हो जाता है तो हम अल्पसंख्यक, समाज के हाशिए पर चलने वाले लोग जाने-अनजाने उन तमाम अनहोनियों की जिम्मेदारियों के लिए नापे-तौले जाते हैं।” एक बड़ी आबादी आज के भारत में क्या लगातार शक के दायरे में नहीं ला दी गई है? यह लक्षण 2014 से नहीं, 1990 से ही सामने आने लगे थे, जब आडवाणी की रथ-यात्रा के समय “दिल्ली के नामी पत्रकारिता कॉलेज में मुसलमान लड़के कोई अनकही, अप्रकट झुरझुरी से खुद को और एक-दूसरे को सामान्य दिखाने की कोशिश में रहते थे।” बढ़ती साम्प्रदायिकता और उसकी विध्वंसक प्रवृत्तियों को शीला जी रेशे-रेशे खोलती हैं। सारा जैकब का यह कथन देखिए- “सुना था जुहानपुरा मिनी पाकिस्तान बना दिया गया है, कल खुद देख भी लिया। कल मैं अपने चैनल के एसाइनमेण्ट की रिपोर्टिंग के लिए वहां गई थी। स्कूटर वाले ने मुझसे कहा, ‘बेन मिनी पाकिस्तान मां नहीं जाऊं (मिनी पाकिस्तान में नहीं जाऊंगा) लेकिन आपको मैं बाघा बॉर्डर पर छोड़ दूंगा। वहां से आप साइकिल रिक्शा लेकर चली जाइएगा। वैसे बेन, आप ऐसे एरिया में जाती ही क्यों हो?’ यानी कि हिंदुओं की वेजलपुरा बस्ती और मुस्लिमों की जुहानपुरा बस्ता के बीच से निकलती सड़क बाघा बॉर्डर’?” नफरत का यह राजनैतिक खेल शीला जी के लेखन के प्रमुख सरोकारों में शामिल है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के पहले और बाद की घटनाओं की काली छाया सिर्फ मुसलमानों पर नहीं पड़ी, उसने यहूदी जैसे अति-अल्पसंख्यक समाज को और भी अधिक संदेहों-उपेक्षाओं-दुत्कारों के घेरे में ला दिया, जिसकी चर्चा ही नहीं होती। उपन्यास इस दर्द को बड़ी शिद्दत से बयां करता है। यहूदी अपने समाज के भीतर भी किस कदर मूल्यों के टकराव से जूझ रहे हैं, यह जैकब नवगांवकर  के अंतिम संकल्प से प्रकट होता है। धर्म पर लेख लिखने और दावे करने वाले नवगांवकर अपने अंतिम समय में पत्नी एस्थर से वादा लेते हैं कि उन्हें यहूदी कब्रिस्तान में दफनाने की बजाय नगर निगम के शवदाह गृह में जला दिया जाए क्योंकि “मुझे धर्म की इन नियमावलियों ने तोड़ दिया।” जीवन भर झेली उपेक्षाओं और धर्म की कट्टरता से मोहभंग के बाद यही मौन विद्रोह वे कर सकते थे।   

पल्लीपारका एक सशक्त कथा-पक्ष हमारे मीडिया की भूमिका की चीर-फाड़ भी है। 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद देश तेजी से बदला और उससे भी तेजी से बदला मीडिया। चैनल के कर्ता-धर्ता और सम्पादक “लाल टीका लगाए, सिर पर रुमाल धरे फोटुओं में चमकने लगे थे। उनके चेहरे की संवेदना, सोच और खरेपन की रेखाएं भोथरी होने लगी थीं।” तब सारा अपने विद्रोही स्वभाव के कारण ए न्यूज डॉट कॉमसे बाहर हुई और अशफाक को मजबूरन बाहर होना पड़ा- “मुझे नहीं पता था कि सलिल कपूर जैसे सजग और प्रबुद्ध व्यक्ति को भी मैं किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य या दूर का कोई रिश्तेदार अथवा जासूस लगूंगा।” ये सलिल कपूर न्यूज चैनल के सम्पादकीय प्रभारी थे। 2007 की शुरुआत में जब नई दिल्ली से चलकर लाहौर जा रही समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट हुए जिसमें अधिकतर पाकिस्तानी मुसाफिर मारे गए तभी से ए न्यूज डॉट कॉमकी पंचलाइन बदलने लगी लेकिन 2014 के बाद सभी सीमाएं पार हो गईं। तब अशफाक तो भीतर ही घुटकर रह गया लेकिन उसके साथी पंकज सिंह ने सलिल कपूर को चेतावनी देते हुए इस्तीफा उस पर उछाल दिया – “जनता को बरगलाकर आप उन्हें ऐसे कारखाने में ले जा रहे हैं जहां रोबोट बनाए जाते हैं। वे रोबोट सही और गलत का दायरा तय नहीं कर पाएंगे क्योंकि सबके मस्तिष्क में एक सी ही चिप पड़ी होगी। उन सारी इकाइयों के सोच, समझ, संवेदना, आवाज और प्रतिरोध के दमन का क्या कोई जवाबदेह नहीं होगा?” सारा, पंकज और अशफाक जैसे पत्रकारों को चैनल से बाहर होना पड़ा और चारण बने सम्पादक तरक्की और वेतन-भत्तों की सीढ़ियां चढ़ते गए।

हाल के वर्षों में मीडिया को केंद्र में रखकर या मीडिया की पड़ताल को कथावस्तु का एक हिस्सा बनाकर कुछ उपन्यास आमने आए हैं। कुछेक में मीडिया का अंदरूनी संसार और विकृतियां अति नाटकीय बना दिए गए हैं लेकिन शीला रोहेकर ने पल्लीपारमें मीडिया के अध:पतन का, विशेष रूप से साम्प्रदायिक तथा सेलेक्टिवहोते जाने का विश्वसनीय चित्र दर्ज़ किया है। यह बदलाव या पतन घटनाओं में अंतर्गुम्फित है और सारा, अशफाक, पंकज, सलिल कपूर जैसे मीडियाकर्मियों के जरिए विभिन्न घटनाओं में अभिव्यक्त हुआ है, इसलिए विवरणात्मक या विश्लेषणात्मक होने से बचा रहा है।

पल्लीपार में शीला जी के कहन या कथा-शैली पर अवश्य बात की जानी चाहिए। उनके पहले के उपन्यासों में भी ऐसी विशिष्ट शैली दिखाई देती है जिसमें वे सीधी–सरल रेखा में कथा न कहकर उसकी बारीक बुनावट वाली डिजायन रचती हैं, प्रतीकों, मिथकों और इतिहास का सहारा लेती हैं जिसमें अतीत-वर्तमान-अतीत के बीच आवाजाही चलती रहती है। पल्लीपारमें वे नया प्रयोग करती हैं। यहां अतीत और वर्तमान के बीच आती-जाती हिंडोले-सी पेंगें तो हैं ही, स्वयं लेखिका एक सूत्रधार की तरह कथा का सिरा पाठक को कभी पकड़ाती और कभी छुड़वाती हैं। पहला अध्याय पूरी तरह लेखिका का अपना स्पेसहै – “मैं कहानियां बुनती हूं। कहानियों की चाल-सीधी-सरल नहीं होती। न ही अपनी बात क्रमबद्ध अथवा लयबद्ध ढंग से कर पाती हैं। भटकती, छितराती, बेसुरी या वक्र होती वे अपनी मन-मरजी से आगे बढ़ती हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि खड़ी हो जाती हैं बीच में और आगे बढ़ने को नकार देती हैं....।” पल्लीपार में ऐसी ही बुनावट है और खूब है। कोई क्रम नहीं, कोई लय नहीं, कोई सीधी रेखा नहीं, वक्र और तिर्यक। कहानियां छलांग लगाती हैं, एक सिरा वहीं छोड़कर आगे या बहुत पीछे कूद जाती हैं, कोई दूसरी कथा की झलक प्रकट होती है, फिर कहीं छूट गया पिछला कोई सिरा पाठक की पकड़ में आ जाता है। कथाकार एक पल किसी एक पात्र या किस्से के साथ होती हैं कि अचानक दूसरा पात्र या किस्सा साथ हो लेता है और तभी उसकी जगह तीसरा पात्र बोलने लगता है। जैसे, वे जो बात कहना चाहती हैं, उसे थोड़ा-सा कहकर पाठक के भीतर भीगने के लिए छोड़ देती है। और जब उस संकेत की व्याप्ति गहरे उतर जाती है तो उसी प्रसंग पर फिर लौट आती हैं। दोहराव का खतरा तो है पर है यह शैली बहुत भेदक। हर बार उसी प्रसंग के विविध कोने-कतरे, आयाम खुलते हैं। उपन्यास का प्रत्येक अध्याय एक अलग पात्र की कहानी या जुबानी है लेकिन कोई शीर्षक या संकेत नहीं है। पाठक को ही समझना है कि अब कहानी की डोर किसने थाम ली है, कौन उसे आगे ढील दे रहा है या पीछे खींचे जा रहा है। पढ़ते हुए कभी ब्रेख्त के एलियनेशन सिद्धांतकी याद आती है, तो कभी लगता है नेपथ्य में कोई प्रलाप-सा चल रहा है। इस कारण इस उपन्यास को पढ़ना तनिक दुरूह लग सकता है, विशेष रूप से तब जब आप सूत्रधार-लेखिका की वक्रया तिर्यकचाल से तादात्म्य नहीं बैठा पाते। यह तालमेल बन जाए तो फिर पल्लीपारआपको छोड़ता नहीं और लेखिका लाख कहे कि पात्र उनका कहा नहीं मान रहे, पाठक को ऐसी कोई जिद या मान-मनौवल नहीं दिखाई देती। उसके लिए कथा बहता नीर बन जाती है।

यह भी उल्लेखनीय है कि पल्लीपारको पढ़ते हुए अचानक रेत समाधिभी साथ चलने लगती है! रचनात्मक आवेग के ये सुंदर संयोग हैं। जैसे रेत समाधि पढ़ते हुए मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेसका ट्रांसजेण्डर पात्र अंजुम साथ हो लेता है, वैसे ही। दोनों उपन्यासों में लेखिकाएं बीच-बीच में सूत्रधार के रूप में प्रकट होती रहती हैं। और, ‘पल्लीपारमें एस्थर की खिड़की पर रोज आ बैठने वाली श्यामा चिड़िया हमें रेत समाधि के उस कौवे की याद दिला देती है जो चंद्रप्रभा देवी उर्फ अम्मा की बालकनी से लेकर सीमापार पाकिस्तान के सुदूर बीहड़ इलाके में भी उनके आसपास रहता, संवाद करता और घटनाओं का साक्षी बनता है। पल्लीपारमें एस्थर और श्यामा पक्षी एक-दूसरे से बात करते हैं। एस्थर की कहानी तो ज़्यादातर श्यामा पक्षी को सुनाते हुए कही गई है। दोनों का अत्यंत आत्मीय सम्बंध है। एस्थर के बचपन का वह भीतर तक कंपकपा देने वाला प्रसंग, जब नन्हीं एस्थर अपने से भी छोटी बहन लिली को आबा (पिता) के आतंक से पानी के ड्रम में डूबकर सदा के लिए मौन हो जाते देखती है, चूरमे का घी-गुड़ का लिली के हिस्से का लड्डू भी खा लेने का वह जो अपराध बोध जीवन भर उसका पीछा करता है, उसे वह  श्यामा के अलावा सुनाए भी किससे- “बताओ श्यामा, तुम्हारे पक्षी जगत में ऐसे लिंग-भेद होते हैं? हमारी दुनिया में तो नर सर्वोपरि मान लिया जाता है क्योंकि ऐसा न होता तो मां ने बाद में नौ लड़के पैदा किए। दो की मृत्यु असमय हुई, तब भी बचे सात और मैं आठवीं। सबसे बड़ी। बहुत कद्र हुई मां की बाद में। दादी तो बेटीके सिवा बुलाती ही नहीं थी। करमजली’, ‘चुप्पीनाम थे उसके पहले।” पितृसत्ता ने हर तरह की आस्थाओं वाले समाज के भीतर स्त्री को इसी तरह तोड़ा है लेकिन यह स्त्री ही है जो टूटने के बजाय लड़ती आई है। मां एस्थर और बेटी सारा की ज़िंदगियों का भीषण द्वंद्व सहने और लड़ने रहने का ही द्वंद्व है। अकथ पीड़ा और भटकन इसी का परिणाम है।  

हमारे समय, देश, विभिन्न समाजों, धर्म, राजनीति, स्त्री, वंचित समुदायों, अपनी अस्मिता के लिए जूझते पात्रों की यह विस्तृत और उलझी-सुलझी गाथा पाठक के मन में अपना गहर असर छोड़ती है लेकिन अवसादित भी कर जाती है। उपन्यास के विस्तार में अकेलापन, विस्थापन, निरंतर हाशिए पर धकेले जाना, बाहर-भीतर से टूटते रहना, स्मृतियों में जीना, छला जाना, अफसोस करना और मृत्यु का इंतजार छाया रहता है। यहां खुशी, आनन्द, उत्साह और उम्मीदें लगभग नदारद हैं। संघर्ष और प्रतिरोध की अंतर्धारा उपस्थित तो है लेकिन क्षीण। अच्छा यह है कि यह धारा कतई आरोपित या नारेबाजी वाली नहीं है। यह हमारे समय का सच ही है, जिसमें संघर्ष और प्रतिरोध की बहुत जरूरत है, इच्छा भी है लेकिन कोई साफ रास्ता नहीं सूझता। पल्लीपारअतीत एवं वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आज की पीड़ादायक कहानी है जिसमें पल्लीपार होते हुए भी पल्लीपार नहीं होने की चेतना उपस्थित है। उस समाज का सपना बचा रहना चाहिए जहां कोई पल्लीपार नहीं किया जाएगा। इसीलिए अज़हर इनायती का यह शेर किताब के शुरू में ही दे दिया गया है- “ये और बात है कि आंधी हमारे बस में नहीं / मगर चराग जलाना तो इख्तियार में है।”

स्त्री और पुरुष रचनाकारों का वर्गीकरण कतई अपेक्षित नहीं है लेकिन यह नोट किया जाना चाहिए कि हाल के वर्षों में स्त्री उपन्यासकारों ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक फलक वाले उपन्यास हिंदी पाठकों को दिए हैं। अपने अध्ययन की सीमा के बावजूद मैं पल्लीपारके साथ रेत समाधि’, ‘खेला’, ‘बिसात पर जुगनूऔर कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिएका उल्लेख करना चाहूंगा। ये उपन्यास हिंदी में महिला रचनाकारों के दायरेको बड़ी दावेदारी के साथ ध्वस्त करते हैं- कथानक में ही नहीं, शैली और वितान में भी। शीला रोहेकर तो अपने पहले के उपन्यासों से ही यह घोषणा करती आई हैं। जैसी कि आम तौर पर परम्परा है, ‘पल्लीपारउपन्यास किसी को भी समर्पित नहीं किया गया है। उस स्थान पर दर्ज़ हंगेरियन कवि मिलोश राद्नोती की पंक्तियां बहुत सारा बयां कर देती हैं-

“मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा,

जब विश्वासघात और हत्या का आदर होता था।

खूनी, गद्दार और चोर हीरो थे। और जो चुप

रहता था और ताली नहीं बजाता था उससे ऐसी नफरत

की जाती थी जैसे उसे कोढ़ हो।” 

- न.जो.    

('तद्भव'- 46 (जनवरी 2023) में प्रकाशित )

उपन्यास- पल्लीपार’, लेखिका- शीला रोहेकर, प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, मूल्य- रु 525/-

                          

Monday, May 01, 2023

गांधीजी की शहादत, गोडसे और आरएसएस

-राम पुनियानी

हाल में (अप्रैल 2023) में एनसीईआरटी ने स्कूली पाठ्यपुस्तकों में से बहुत सी सामग्री हटाने का फैसला किया। हटाई गई सामग्री में मुगलकालीन इतिहासगुजरात दंगेवर्ण व्यवस्था के उदय के साथ-साथ गांधीजी की हत्या से संबंधित कुछ विवरण भी शामिल है। ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उनके (गांधीजी) निरंतर प्रयासों से हिन्दू अतिवादी इस हद तक भड़क गए कि उन्होंने गांधीजी की हत्या के कई प्रयास किए...गांधीजी की मृत्यु का देश की साम्प्रदायिक स्थिति पर लगभग जादुई प्रभाव हुआ..भारत सरकार ने साम्प्रदायिक घृणा फैलाने वाले संगठनों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की...राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया...”।

जहां इस विवरण को हटाए जाने की कड़ी आलोचना हो रही है वहीं आरएसएस के नेता राम माधव ने द इंडियन एक्सप्रेस के 22 अप्रैल 2023 के अंक में प्रकाशित अपने लेख में इस आलोचना की आलोचना की है। उन्होंने इस निर्णय का बचाव करते हुए उस हिस्से को हटाने को उचित बताया है जिसमें हत्यारे गोडसे को हिन्दू अतिवादी,  अग्रानी नामक हिंदू अतिवादी समाचारपत्र का संपादक और महाराष्ट्र का ब्राम्हण बताया गया है।

वे अपने लेख की शुरूआत एक मुस्लिम अब्दुल रशीद द्वारा स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के विवरण से करते हैं। गांधीजी ने इस हत्या की आलोचना की लेकिन रशीद को भाई कहकर संबोधित किया और कहा कि इस हत्या के लिए उसे दोषी नहीं माना जाना चाहिएबल्कि दोषी उन्हें माना जाना चाहिए जिन्होंने नफरत का माहौल बनाया। लगता है माधव यह कहना चाहते हैं कि रशीद और गोडसे का रवैया एक-दूसरे के विपरीत था जबकि सच्चाई इससे उलट है।

बेशक अपनी हत्या के बाद गांधीजीगोडसे के बारे में अपनी राय देने के लिए मौजूद नहीं थे लेकिन इस कायराना कृत्य के बारे में उनका रवैया तभी साफ हो गया था जब सन् 1944 में गोडसे ने पुणे के पास पंचगनी में उन पर एक खंजर से हमला करने का प्रयास किया था। घटनाक्रम कुछ इस प्रकार था, ‘‘उस शाम एक प्रार्थना सभा के दौरान गोडसेजो नेहरू शर्टपजामा और जैकिट पहने हुए थागांधीजी की ओर लपका। उसके हाथ में एक खंजर था और वह गांधी-विरोधी नारे लगा रहा था। लेकिन गोडसे को काबू में कर लिया गया...” और गांधीजी की जान बच गई। इस पर गांधीजी ने गोडसे से कहा कि वह ‘‘आठ दिनों तक उनके साथ रहे ताकि वे दोनों एक दूसरे को समझ सकें”। गोडसे ने इस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया और उदार ह्दय गांधीजी ने उसे वहां से जाने दिया। इस तरह अब्दुल रशीद और गोडसेदोनों के मामले में गांधीजी की प्रतिक्रिया एक सी थी।

जहां तक गांधीजी द्वारा घृणा को स्वामी श्रद्धानंद की हत्या की वजह बताने का सवाल हैयही मत संघ पर प्रतिबंध लगाने वाले गांधीजी के शिष्य सरदार पटेल का था। माधव का यह कहना गलत है कि नेहरू की जिद के कारण संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। वास्तविकता गृह मंत्रालयजो कि सरदार पटेल के पास थाद्वारा जारी विज्ञप्ति से जाहिर होती है। 

चार फरवरी 1948 को जारी विज्ञप्ति में केन्द्र सरकार ने कहा कि ‘‘देश की स्वतंत्रता को खतरे में डालने और उसको बदनाम करने में रत घृणा और हिंसा फैलाने वाली शक्तियांजो हमारे देश के अच्छे नाम को बदनाम कर रही हैंको समूल उखाड़ने के लिए आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है...यह पाया गया है कि देश के कई भागों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग आगजनीलूट डकैती और हत्या जैसे हिंसक कृत्यों में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार और असलहा जमा किया है। उन्हें ऐसे पर्चे वितरित करते हुए पाया गया है जिनमें लोगों को आतंकवादी हमलों हथियार एकत्रित करनेसरकार के खिलाफ असंतोष फैलाने और पुलिस व सेना को विद्रोह के लिए उकसाने का प्रयास किया गया है।

एम. एस. गोलवलकर को संबोधित एक पत्र में पटेल ने लिखा, ‘‘उनके (आरएसएस के सदस्यों के) भाषण साम्प्रदायिक जहर से भरे होते थे...इस जहर का अंतिम नतीजा यह हुआ कि देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान देना पड़ा। जनता और सरकार में आरएसएस के प्रति जरा सी भी सहानुभूति बाकी न रही। यह विरोध तब और प्रबल हो गया जब आरएसएस वालों ने गांधीजी की मौत पर हर्ष व्यक्त किया और मिठाईयां बांटीं।’’

संघी विचारक माधव का कहना है कि आरएसएस पर प्रतिबंध का जिक्र अर्धसत्य है क्योंकि अदालतों ने प्रतिबंध को अवैधानिक घोषित कर हटा दिया था। किंतु जो अनुच्छेद हटाया गया है उसमें ठीक यही लिखा था कि प्रतिबंध केवल कुछ समय के लिए लगाया गया था। वैसे गांधी से लेकर पटेल और नेहरू तक सभी को इस बात का अहसास था कि एक व्यक्ति के रूप में गोडसे से अधिक घृणा का माहौल गांधीजी और स्वामी श्रद्धानंद की हत्या सहित हिंसा की सभी घटनाओं के लिए जिम्मेदार था। यद्यपि आरएसएस पर प्रतिबंध वैधानिक दृष्टि से वैध नहीं पाया गयाकिंतु प्रतिबंध इसलिए लगाया गया था क्योंकि आरएसएस द्वारा घृणा फैलाई जा रही थी जिसके नतीजे में हिंसा और गांधीजी की हत्या समेत हत्याएं हो रहीं थीं। आरएसएस गांधीजी की तारीफ करते नहीं थकता लेकिन वह आज भी वही कर रहा है जो शुरू से करता आया है - मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाना और साथ ही प्राचीन पदानुक्रमित समाज का महिमामंडन करना।

गोडसे के मन में जो घृणा भरी थी वह आरएसएस की देन थी। गोडसे लिखता है, ‘‘हिन्दुओं के उत्थान का कार्य करते हुए मुझे अहसास हुआ कि हिन्दुओं के न्यायपूर्ण हितों की रक्षा के लिए देश की राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना आवष्यक है। इसलिए मैं संघ (आरएसएस) छोड़कर हिन्दू महासभा में शामिल हो गया” (गोडसे, ‘वाय आई एसेसीनेटिड महात्मा गांधी‘ 1993, पृष्ठ 102)। वह महात्मा गांधी को मुसलमानों के तुष्टिकरण का और उसके नतीजे में पाकिस्तान के निर्माण का दोषी मानता था। वह उस समय के एकमात्र हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दलहिन्दू महासभा में शामिल हुआ और उसकी पुणे शाखा का महासचिव बना। बाद में उसने अग्राणी या हिन्दू राष्ट्र नामक एक अखबार का प्रकाशन कियाजिसका वह संस्थापक संपादक था।

अब्दुल रशीद और गोडसे के दिलों में भरी घृणा को आज के संदर्भ में ऐसे समझा जा सकता है कि धार्मिक जुलूसों में लाठी और तलवार घुमाते और पिस्तौल लेकर चलने वाले युवा बेशक दोषी हैं लेकिन उनसे अधिक दोषी है बांटने वालीघृणा भरी विचारधारानफरत भरे भाषण और सोशल मीडियाजो लगातार धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति द्वेष फैलाती है। यदि हम अपने पड़ोस की ओर देखें तो इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म आधारित राष्ट्रवाद का मुख्य आधार होता है घृणा उत्पन्न करना और उसे फैलाना। एक तरह से हम पाकिस्तान और श्रीलंका के रास्ते पर  चल रहे हैं। पाकिस्तान में इस्लामिक राष्ट्रवाद के चलते हिन्दुओं और ईसाईयों के खिलाफ लोगों के दिलों में भरी नफरत के नतीजे में उनकी प्रताड़ना हो रही है। श्रीलंका में बौद्ध सिंघली राष्ट्रवाद से उत्पन्न घृणा का नतीजा हिन्दू (तमिल)मुसलमान और ईसाई भुगत रहे हैं।

अब पाठ्यपुस्तकों में किए गए इन विलोपनों के साथ हिन्दू राष्ट्रवादी और उनके समर्थक घृणा की उस आग को और भड़का रहे हैं जो कई हिंसक घटनाओं के लिए जिम्मेदार है और जिससे अल्पसंख्यक अलग-थलग पड़ रहे हैं। ये विलोपनविशेषकर गांधीजी की हत्या एवं उसमें आरएसएस की भूमिकावर्तमान समय के घृणा फैलाने के एजेंडे को आगे बढ़ाने का एक और प्रयास है। (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)