Friday, January 29, 2021

कचरे की गाड़ी, गाना और स्वच्छता सर्वेक्षण

पिछले सप्ताह समाचार पत्रों में प्रमुखता से यह छपा था कि स्वच्छता सर्वेक्षण-2021 में नागरिक फीडबैक के मामले में लखनऊ नम्बर एक बन गया है। उसने इंदौर को पछाड़ कर पहला स्थान पाया है।मध्य प्रदेश का इंदौर शहर पिछले कुछ सालों से लगातार इस सर्वेक्षण में देश में सबसे साफ-सुथरा शहर घोषित होता आ रहा है। लखनऊ का उसे पछाड़ना बड़ी बात थी लेकिन समाचार वास्तव में सर्वेक्षण के परिणाम के बारे में नहीं था। सूचना मात्र इतनी थी कि पिछले सप्ताह तक इंदौर के नागरिकों से अधिक संख्या में लखनऊ के नागरिक इस सर्वेक्षण में भाग ले चुके थे।

हास्यास्पद ही सही यह नम्बर एक होना, लेकिन पंद्रह जनवरी तक लखनऊ के पौने दो लाख से अधिक नागरिक अपने शहर के बारे में राय दे चुके थे। उन्होंने क्या और कैसी राय दी, यह तो बाद में पता चलेगा। पिछले सर्वेक्षणों में लखनऊ वालों की भागीदारी भी बहुत कम रही थी। शहरों की साफ-सफाई की श्रेणी तय करने के लिए केंद्र सरकार पिछले कुछ वर्षों से यह सर्वेक्षण कराती है। स्वच्छता ऐप डाउनलोड करके पूछे गए सवालों का जवाब देना होता है। शामिल होने वाले नागरिकों की कुल संख्या  पर भी नम्बर मिलते हैं।

लखनऊ नगर निगम को यह श्रेय देना होगा कि इधर के वर्षों में शहर की सफाई पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। कुछ खास इलाकों में तो सफाई कर्मी रोजाना आते हैं। उनके काम का निरीक्षण भी होता है। बहुत सारे क्षेत्र इससे बिल्कुल वंचित भी हैं या वहां कभी-कभार ही सफाई होती है। गाड़ी वाला आया कचरा निकालगीत बजाते हुए गाड़ियां कई इलाकों में घूमती देखी जा सकती हैं। सूखा, गीला और जैविक कचरा अलग-अलग रखने की व्यवस्था इन गाड़ियों में है। ये गाड़ियां कितनी मुस्तैदी ने कचरा ले जाती हैं और नागरिक कचरा देने में कितना सहयोग करते हैं, यह देखना कष्ट देता है। दोनों तरफ के पूर्ण समर्पण के बिना शहर की सफाई सम्भव नहीं।

इंदौर के साथी बताते हैं कि वहां नगर निगम का सिद्धांत और उसका अधिकतम पालन यह है कि कचरा जमीन पर गिरने ही नहीं दिया जाता। प्रत्येक घर से कचरा सीधे नगर निगम की गाड़ियों में डाला जाता है। बाजारों में कूड़ेदान नियमित रूप से साफ किए जाते हैं। नागरिकों का सहयोग सर्वोपरि है। वे अपने शहर की स्वच्छता पर गर्व करते हैं। अपने यहां मामला दोनों तरफ से उपेक्षा भरा है। एक ही कॉलोनी के अलग-अलग घरों में कूड़ा फेंकने की अलग-अलग काम चलाऊ व्यवस्थाएं हैं। नगर निगम की गाड़ियां कचरा लेने रोजाना आएंगी, ऐसा भरोसा ही नहीं बन पाया है। कोशिश भी नहीं हो रही। अधिकतर घरों से निजी ठेला गाड़ियां कचरा ले जाती हैं। खुले में कूड़ा फेंकने वाले भी कम नहीं हैं।

बांग्लादेशीकहलाने वाले श्रमिकों की बड़ी आबादी पचास-साठ से एक सौ रु तक महीना लेकर घर-घर से कूड़ा उठाते हैं। यही उनकी रोजी-रोटी है। नगर निगम ने इन्हें कभी अपने सफाई अभियान में शामिल नहीं किया हालांकि उनके ठेले में नगर निगम लिखवा दिया गया। नगर निगम की गाड़ियां जितना जोर-शोर से गाना बजाती हैं, उसका आधा ध्यान भी घर-घर से कूड़ा उठाने में नहीं लगातीं। यह जानने-समझने का कष्ट कोई नहीं करता कि नगर निगम की गाड़ियों को सभी घरों से कचरा क्यों नहीं दिया जाता।

इस बार अधिक संख्या में लखनऊ वालों ने स्वच्छता सर्वेक्षण में भाग लिया, अच्छी बात है लेकिन वे वास्तविक स्वच्छता बनाए रखने में कब भागीदार बनेंगे? नगर निगम कब यह भरोसा जीत सकेगा कि वह घर-घर से कचरा उठाने में वास्तव में गम्भीर है?          

(सिटी तमाशा, नभाटा, 30 जनवरी, 2021)  

किसान आंदोलन को तोड़ने की साजिश तो नहीं हुई थी?

गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के लिए स्वीकृत पथ का उल्लंघन करके आंदोलनकारी किसानों या उनके बीच पैठे अराजक तत्वों ने दिल्ली में आईटीओ और लाल किले पर जो बवाल किया सबसे पहले उसकी कड़ी निंदा की जानी चाहिए। पिछले दो महीने से दिल्ली की सीमाओं पर शांति पूर्ण आंदोलन चला रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से इस हिंसा को अराजक तत्वों की करतूत बताते हुए इससे पल्ला झड़ा है। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रतिरोध की जगह है लेकिन हिंसा और अराजकता की नहीं। उससे आंदोलन कमजोर होता है और भटकता है। छब्बीस जनवरी को नई दिल्ली में जो हुआ उससे नए कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों का संघर्ष, जो अब तक निरंतर मजबूत और व्यापक जन-समर्थन वाला होता जा रहा था, निश्चय ही कमजोर हुआ है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कई पहलू हैं। उनसे कई सवाल भी उठते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा हिंसा की सिर्फ निंदा करके नहीं बच सकता। उसकी बड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है। ऐसा क्यों हुआ कि पिछले दो महीने से बहुत अनुशासित चले रहे आंदोलनकारी किसानों में से कई ट्रैक्टर रैली में अनुशासनहीन हो गए? खबर है कि पच्चीस जनवरी की रात टिकरी सीमा पर बने आंदोलन के मंच पर कुछ ऐसे उग्र तत्वों ने कब्जा कर लिया था जो नेतृत्वकारी मोर्चे का हिस्सा नहीं थे और किसानों को दिल्ली कूचके लिए उकसा रहे थे। अगर यह सच है तो सवाल संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं पर भी उठते हैं। उन्होंने इसे नियंत्रित करने और रैली को अनुशासित रखने के लिए क्या किया?

निर्धारित पथ का उल्लंघन कर लाल किले तक जाने और हिंसा फैलाने वाले आंदोलनकारीया अराजक तत्व बहुत बड़ी संख्या में नहीं थे। बड़ी ट्रैक्टर रैली निर्धारित पथ पर ही शांतिपूर्ण तरीके से निकली। बैरियर तोड़कर लाल किले की तरफ जाने की खबर फैलने के बाद रैली से कई किसान उस तरफ दौड़े। दो महीने से वार्ताओं का कोई नतीज़ा नहीं निकलते और केंद्र सरकार की टाल-मटोल की नीति देखकर भी कई किसानों का धैर्य टूटा होगा। कुछ ऐसे चेहरे सामने आ रहे हैं जो किसानों को उकसाने और पुलिस बल पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। ये कौन लोग थे?

सरकार को आशंका थी कि किसान रैली में स्वीकृत पथ का उल्लंघन करने की कोशिश हो सकती है। इस आशंका पर लगातार गृह मंत्रालय विचार कर रहा था। बैठकें हो रही थीं। फिर इतनी अराजकता कैसे हो गई? क्या इसके लिए गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस उत्तरदाई नहीं हैं? सारा दोष किसानों और उनके नेताओं का ही है? इसे सरकार और प्रशासन की विफलता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? गौर किईजिए कि यह सामान्य दिन नहीं था। राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड हो रही थी। सारी सुरक्षा एजेंसियां और गुप्तचर इकाइयां पूर्ण सतर्क रही होंगी। इस अत्यंत संवेदशील समय पर दिल्ली की सड़कों पर अराजकता हो जाए तो ज़िम्मेदारी किसकी है?

तो, एक सवाल यह भी है कि क्या अराजकता करवाई गई या होने दी गई? यह सवाल उठने के पर्याप्त कारण हैं और पूर्व के उदाहरण भी। किसान पिछले दो महीने से दिल्ली की सीमा पर डटे हुए थे। आंदोलन अत्यंत शांतिपूर्ण और अनुशासित था। दिल्ली की ओर ज़बर्दस्ती बढ़ने की कोई कोशिश नहीं हुई। पुलिस से टकराव कहीं नहीं दिखता था। टिकरी और सिंघु सीमा पर किसानों का आंदोलन प्रतिरोध के सांस्कृतिक मेले में बदल गया था। धीरे-धीरे बाकी देश में उसके प्रति सहानुभूति बढ़ने लगी थी। बहुत सारे संगठन उनके समर्थन में जुट रहे थे। सरकार और उसके समर्थकों की ओर से आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें जारी थीं। कहा जा रहा था कि उसमें खालिस्तानी आतंकवादी घुस आए हैं। उसे खाए-अघाए अमीर किसानों और आढ़तियों का आंदोलन करार दिया जा रहा था। इस सबके बावजूद आंदोलन शांतिपूर्ण बना रहा।    

आंदोलन का शांतिपूर्ण और अनुशासित बना रहा उसकी सबसे बड़ी ताकत थी तो उसका टूटना-बिखरना हिंसक हो जाने से ही सम्भव था। 26 जनवरी को वह हो गया। आंदोलन न केवल कमजोर हुआ बल्कि उसे मिल रहा जन-समर्थन भी एकाएक विरोध में बदल गया। गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर जो हुआ उसका सारा दोष किसानों के मत्थे आ गया। जनता उसके विरुद्ध हो गई। सरकार को क्लीन चिट मिल गई कि उसने तो पहले बातचीत की, कृषि कानूनों को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया, फिर गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली की इजाजत भी दे दी। किसान ही ज़िद्दी और अतिवादी हैं। वे गणतंत्र दिवस के दिन हिंसा करने ही आए थे।      

क्या यह सोची-समझी रणनीति नहीं हो सकती? साल भर पहले भी ऐसा हुआ था। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ देश में जगह-जगह बेमियादी धरना-प्रदर्शन चल रहे थे। दिल्ली का शाहीनबाग इन विरोध-प्रदर्शनों का सबसे बड़ा अड्डा बन गया था, जहां इस देश के संविधान में आस्था रखने वाले विविध संगठन, समूह और स्वतंत्र चेता नागरिक भी बड़ी संख्या में शामिल हो रहे थे। कड़ाके की सर्दी, बारिश और बीमारियों के बावजूद शाहीनबाग का मोर्चा डटा रहा था। प्रदर्शन बहुत व्यवस्थित, शांतिपूर्ण और नियोजित था। प्रदर्शनकारी संविधान की उद्देश्यिका का पाठ करते और राष्ट्रीय ध्वज लहराते थे। किसी तरह की अराजकता और बाहरी उपद्रवी तत्वों पर निगरानी करने के लिए कार्यकर्ताओं की टीम तैनात थी। सरकार और विरोधियों को शाहीनबागों’ (विभिन्न शहरों-कस्बों के प्रदर्शन को भी यही नाम मिल गया था) को बदनाम करने का बहाना नहीं मिल रहा था, हालांकि वे उसे पाकिस्तान-समर्थक, देशद्रोही और आतंकवादियों का जमावड़ा बताने में लगे थे।

तभी एक दिन तत्कालीन केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर की सभा में नारे लगे- देश के गद्दरों को, गोली मारों सालों...।इसी के ठीक बाद दो घटनाएं एक के बाद एक हुईं। पहला, सीएए के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे जामिया मिलिया के छात्रों पर एक अवयस्क लड़के ने देसी कट्टे से गोलियां चला दीं। उस घटना की तस्वीरें आज भी गवाह हैं कि पुलिस वाले उसे गोली चलाते हुए खड़े-खड़े देख रहे थे। दूसरा, कपिल बैसला नाम के युवक ने शाहीनबाग में प्रदर्शकारियों बीच घुसकर जयश्री रामके नारे लगाए और गोली चलाई। दोनों घटनाओं को सरकार और प्रशासन की ओर से इस तरह पेश किया गया था कि जामिया मिलिया और शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी हिंसक, देशद्रोही और उग्रवादियों से मिले हुए हैं। इसकी पोल भी बहुत ज़ल्दी खुल गई थी, जब कपिल बिसारिया को भाजपा में शामिल कर लिया गया और बवाल मचने पर निकाल भी दिया गया था।

क्या ऐसे स्पष्ट संकेत नहीं थे कि जामिया मिलिया और शाहीनबाग के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने, जनता की नज़रों में उन्हें देशद्रोही साबित करने के लिए इन हमलों की साजिश रची गई थी? ऐसा ही जेएनयू में हुआ था जब बाहरी लोगों ने परिसर में घुसकर छात्रों-अध्यापकों के साथ मार-पीट और तोड़फोड़ की। पुलिस फाटक पर मूकदर्शक बनी रही थी। हमलावरों के वीडियो उपलब्ध होने के बावजूद आज तक किसी को पकड़ा नहीं गया।

जिस तरह शाहीनबाग संविधान से छेड़छाड़ के विरुद्ध राष्ट्रीय प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था, उसी तरह दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का बेमियादी जमावड़ा कृषि कानूनों और उन्हें पास कराने की सरकार की तानाशाहीके खिलाफ राष्ट्रीय मंच बन गया था। शाहीनबाग आंदोलन को कुछ अदालती निर्देशों और बाकी कोरोना के कारण वापस होना पड़ा था। किसान आंदोलन कोरोना के बावजूद जोर पकड़ता जा रहा था। गणतंत्र दिवस पर जो हुआ उसने उसे कमजोर और बदनाम कर दिया।

इसके पीछे किसका हाथ था और किसने क्या भूमिका निभाई, क्या इसकी निष्पक्ष जांच होगी? अराजकता फैलाने में जिन लोगों के नाम और फोटो सामने आ रहे हैं, क्या उनके विरुद्ध कार्रवाई होगी?        

(नवजीवन साप्ताहिक, 31 जनवरी, 2021) 

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Friday, January 22, 2021

तो, कम होने लगे हैं गांव और प्रधान!

क्या अपने प्रदेश या देश में  कभी ऐसा होगा कि एक भी ग्राम पंचायत नहीं होगी? ‘गांव और प्रधान जी नहीं होंगे? यह सवाल यूं ही नहीं उठा। प्रदेश में ग्राम पंचायतों के चुनाव पिछले साल हो जाने चाहिए थे लेकिन महामारी ने सब कुछ ठप कर दिया। अब इन्हें अगले कुछ महीनों में पूरा कराने की तैयारी शुरू हो गई है। पंचायती राज विभाग ने ग्राम पंचायतों का नया परिसीमन करके जो रिपोर्ट राज्य निर्वाचन आयोग को सौंपी है, उसके मुताबिक पिछली बार (2015) की तुलना में ग्राम पंचायतों और ग्राम प्रधानों की संख्या काफी कम होने वाली है।

पंचायती राज विभाग की ताज़ा रिपोर्ट और उसकी वेबसाइट के आंकड़ों में तनिक अंतर दिखता है (2015 में 59062 ग्राम पंचायतों का चुनाव हुआ था या 59074 का?) जो भी सही होसन 2021 में 880 (या 868ग्राम पंचायतें कम होंगी। इतने ही ग्राम प्रधान कम चुने जाएंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है कि साल-दर-साल ग्रामीण इलाके शहरी निकायों में शामिल होते जा रहे हैं और उनसे ग्राम’ का दर्ज़ा छिनता जा रहा है।

विकास’ का जो रास्ता हमने चुना हैउसमें गांवों को गांव रहते उतना विकास’ या बजट’ नहीं मिलता जितना उससे ऊपर के क्षेत्र’ और नगर को। उन्हें और विकसित’ होने के लिए गांव’ की परिभाषा से निकलना होता है। इसलिए गांव वाले नगर निकायों का हिस्सा बनना चाहते है। उधरनगरों के तेजी विकास’ का आलम यह है कि उन्हें फैलते रहने के लिए गांवों को निगलने की आवश्यकता पड़ती है। साल-दर-साल नगरों से लगे गांवों को उनकी सीमा में शामिल कर लिया जाता है। गांव वाले प्रसन्न होते हैं कि अब वे नगर’ हो गए हैंउन्हें भी नगरों वाला तेज विकास’ मिलेगा। यह अलग मुद्दा है कि हाल के वर्षों में जो गांव नगर सीमा में शामिल हुएउनका जमीनी हाल क्या है। कई गांव कहीं के नहीं रह गए, ‘गांव से बाहर निकल गए और नगर उन्हें अपना कुछ दे नहीं पाया। बीच में फंसे हुएउपेक्षित।

त्रिस्तरीय पंचायतों की जो संवैधानिक व्यवस्था की गई थीउसमें गांवों को शहर बना देने का विचार नहीं था। विचार यह था कि गांवों की अपनी छोटी-सी सरकार होगी जो अपना खुद विकास करेगी। लोकतंत्र द्वार-द्वार पहुंचेगा और स्थानीय संसाधनों से ग्राम सभाएं अपने लिए सारी सुविधाएं जुटाएंगी। गांधी जी ने कभी गांवों को स्वावलम्बी बनाने का सपना दिखाया था। आज के हमारे प्रधानमंत्री भी आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं लेकिन इतने वर्षों में हमारे निर्वाचित सांसदों-विधायकों ने जो किया वह पंचायती राज व्यवस्था का अपहरण ही कहा जाएगा। पंचायतों को वे अधिकार दिए ही नहीं जो संविधान के अनुसार देने थे। बड़े बजट और अधिकतर अधिकार प्रदेशों की बड़ी सरकारों और अफसरशाही ने अपने कब्जे में रखे। गांव वंचित ही रहे आए।

गांव, ‘गांव ही रहते लेकिन वहां का जीवन सुविधापूर्ण और सुकून भरा रहताखेती विकसित होती और छोटे किसान जमीन बेचकर शहरी मलिन बस्तियों में भागने को मजबूर न होतेशिक्षा से लेकर चिकित्सा तक के लिए शहर भागना मजबूरी न होती और ग्राम पंचायंतें सिर उठाकर बड़ी सरकारों के सामने खड़ी हो पातीं। ऐसा होने नहीं दिया गया और जो होने दिया गया उनमें गांवों को कागजी परिभाषा में बचना नहीं है।

गांव आज भी इस देश की आत्मा हैं। कोरोना काल में महानगरों से भाग’ कर गए शहरी’ लोगों ने यह खूब अनुभव किया। इसके बाद भी गांवों को गांव’ रहने देकर विकास’ का रास्ता पकड़ाया जाएइस बारे में कोई सोच-विचार नहीं हो रहा। ऐसे में गांवों और प्रधानों को धीरे-धीरे गायब ही होना होगा। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 जनवरी, 2021)

Friday, January 15, 2021

प्रकृति की पूजा के पर्व और यह हा-हाकार!

 

मकर संक्रांति हो गई। दिन पहले ही बड़े होने लगे थे। अब धीरे-धीरे सूरज की तिरछी किरणें धरती पर सीधा पड़ना शुरू होंगी। ताप बढ़ेगा और जीव-जंतुओं से लेकर वनस्पतियों तक में नए प्राण का संचार करेगा। वसंत के गर्भादान का भी यही समय है। कुछ ही समय में हमें सूखी शाखाओं पर नई कोपलें फूटती दिखाई देंगी। सूर्य की ऊर्जा ही इस सृष्टि की संचालक शक्ति है।

पूरी प्रकृति का जाग्रत होना इस पर्व के केंद्र में है। हमने भी उत्तरायणी (घुघुतिया) मनाई। कौवे के लिए पूरी, बड़े, साग, तरह-तरह के घुघुते (पकवान) पकाए और दूसरी सुबह-सुबह छत पर जाकर उसे पुकारा- काले कौवा, काले। यो घुघुते खा ले!उत्तराखण्ड के आबाद बचे गांवों में तड़के यह पुकार गूंजी होगी। कौवों के झुण्ड के झुण्ड का-का-काकरते हुए खूब दावत उड़ाने आए होंगे। उसकी अनुगूंजें अब तक मन में उठती रहती हैं। उनसे ऊर्जा मिलती है।

नीम की डाल पर बैठा कौवा छत की मुंडेर पर रखे पकवानों को गर्दन टेढ़ी कर देखता रहा। उससे थोड़ी दोस्ती है। पता नहीं किस दुर्घटना या हमले में एक पैर गंवा बैठा। उचक-उचक कर तिरछा दौड़ता है। एक पंख भी टेढ़ा है लेकिन उड़ लेता है। वैसे भी रोज अपनी रोटी की प्रतीक्षा करता है। आज तो दावत का दिन था। उसकी पुकार पर तत्काल तीन-चार और कौवे आ गए। फाख्ते का एक जोड़ा भी ललचाई नज़रों से देख रहा था लेकिन कौवे किसी को पास फटकनें दें तब तो! छत पर देर तक का-का-का होती रही। कौवों ने हमारी उत्तरायणी मना दी। सुबह आनंद से भर गई।

जीवन का यह ढंग, जिसमें हमारे पुरखों ने बड़ी आत्मीयता से पशु-पक्षियों-वनस्पतियों को बराबर साझीदार बना रखा था, क्रमश: लुप्त हो रहा है। प्रकृति के अत्यंत निकट रहे समाजों में, वनवासियों के बीच यह साझा अब भी बना हुआ है। शहरी आपाधापी में खो जाने के बावजूद परम्पराओं-स्मृतियों में वह साथ चला आया और अक्सर जोर मारता है। वहां प्रत्येक संक्रांति एक पर्व है। वह फसलों से, पशुओं से, पक्षियों से, जंगल से, नदियों से जुड़ा है। ये सब मानव के संगी-साथी और जीवन-आधार हैं। पर्वों के बहाने उन्हें जीवन में बराबर शामिल रखना है।

वास्तव में हो यह रहा है कि यह जीव-जगत हमारे जीवन से बाहर हो रहा है। पशु-पक्षियों से लेकर नदियों तक का कितना और कैसा स्थान रह गया है जीवन में? मकर संक्रांति पर हर नदी गंगा बन जाती है लेकिन देखिए तो इसी लखनऊ में बहुत सारे लोगों ने कैसी गोमती में डुबकी लगाई! श्रद्धा बची रही, नदियां नहीं। मानव कोरोना से जूझ रहा है और पक्षी एवियन फ्लूसे मर रहे हैं। उस दिन यह खबर सुनकर मन कैसा तो खराब हो गया था कि कानपुर चिड़िया घर के सारे पक्षियों को मार देने का आदेश हुआ है। उसकी नौबत नहीं आई लेकिन क्या भरोसा! कितनी बार तो हो ही चुका है। अब तो लगता है मनुष्य के हाथ से दुनिया निकली जा रही है।

कोरोना का आधा-अधूरा (उसके पूरे परीक्षण, प्रभाव और सुरक्षा पर अभी परीक्षण जारी हैं) टीका लगाकर उस बीमारी को जीतने के दावे किए जा रहे हैं जिसको अभी ठीक से पहचाना भी नहीं गया है। विज्ञानियों को अभी कई सवालों का जवाब देना है; लेकिन आज की दुनिया को बहुत ज़ल्दबाजी है।

एक तरफ प्रकृति से जुडे आत्मीय पर्व और दूसरी तरफ यह मारा-मारी। अपने होने की यात्रा के किस मुकाम पर आ पहुंचा है मनुष्य?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 जनवरी, 2021)    

Friday, January 08, 2021

अमरूद खाने के और दिखाने के और?

धूप में अमरूद खाने न बैठे तो जाड़े का क्या आनंद! चौराहे के ठेले वाले ने ललकार कर बुलाया और डेढ़ किलों में दो तोल दिए! हम आधा किलों में पांच-छह दाने लाते थे। कुछ नायाब ले आने के गुरूर से भरे घर आए तो सुनने को मिला- अमरूद लेने गए थे, ये क्या ले आए? हमने कुछ ठेले वाले की, कुछ दोस्तों से सुनी और कुछ अपनी पढ़ी सुना दी।

यह जम्बो अमरूद है और नाम है इसका वीएनआर-बिही। रायपुर (छतीसगढ़) के नारायण चावड़ा की खोज है जिन्होंने कभी थाइलैण्ड के अमरूद से ललचा कर इसे विकसित किया। अब पूरे देश में इसकी  खूब खेती हो रही है और अच्छा मुनाफा भी दे रही है। कुछ युवा कम्प्यूटर इंजिनीयरों ने भी नौकरी छोड़कर इसे उगाना शुरू किया है, ऐसा गूगल बता रहा है। ठेले वाले अस्सी रु किलो बेच रहे हैं तो फलों की दुकान में उसे जालीदार टोपी पहना कर सौ रु किलो तक बेचा जा रहा है। एक अमरूद कम से कम आधा किलो का है, कोई कोई तो पौन से एक किलो तक का।

तत्काल मुस्किया कर सुनाया गया- लेकिन अपने लखनउवा और कनपुरिया के सामने न टिकेगा। बात ठीक निशाने पर जा लगी। छोटे-छोटे, सफेद, मीठे और खुशबूदार लखनउवा-कनपुरिया अमरूदों की याद जोर मारने लगी। स्वाद ने रंग कुछ और चोखा किया। ऊपर चित्तीदार और अन्दर से लाल-गुलाबी इलाहाबादी अमरूद तो इसकी तरफ देखे भी न! बड़ा हुआ तो क्या हुआ, वह मौलिक स्वाद और रूप-रस कहां से लाओगे? अमरूद हो तो तरबूज की तरह क्यों फूल रहे? गूदा खूब भरे हो, बीज भी कम हैं और सुना है कि दस-पंद्रह दिन तक खराब भी नहीं होते हो! मियां छतीसगढ़ी, यह अमरूद की तासीर नहीं। वह भी कोई अमरूद हुआ जो डाल से टूटते ही कहे, फौरन खा लो नहीं तो बासी हो जाउंगा!

पौन किलो का अमरूद क्या बोलता! वह प्लेट में वैसे ही फब नहीं रहा था। गोल-मटोल, जैसे धानी बैगन! ऐसा भी क्या कि एक काटो तो पूरा परिवार खा ले और फिर भी बचा रहे! हम लखनऊ वाले तो अमरूद को छोटा, प्यारा और मीठा बनाए रखने के लिए उसे अरमूदकहते आए हैं। और भला, इत्ते बड़े को जेब में कैसे छुपाएं, दांत से काटकर कैसे खाएं!

हमारा पुराना अपना दर्द उभर आया। एक-एक कर देसी स्वाद पिट रहे हैं। कितने बाग थे लखनऊ में अमरूदों के, क्या हुए? बचपन में रेजीडेंसी के आस-पास खूब चुरा कर खाए। कानपुर से चला आता था अपनी अलग ही खुशबू लिए और गंगा किनारे झव्वा-झव्वा बिका करता था। एकदम मद्दा। स्वाद में निराला। एक बार में पूरा गप्प और आधा किलों एक बार में चट। तनिक हरी धनिया और हरी मिर्च की लहसुन वाली चटनी मिल जाए फिर देखो!

अभी चंद रोज पहले खबर पढ़ी थी कि इलाहाबादी अमरूद संकट में है। उसे किसी रोग ने धर लिया। कई साल हुए वैसा इलाहाबादी न मिला जो हुआ करता था। झोले में छुपा कर लाओ तो बाजार और मुहल्ला महक जाए। इधर कभी मिला भी तो खराब और कीड़े पड़ा हुआ।

क्यों भई उपोष्ण फल-विज्ञानियो, अपने देसी अमरूदों को क्यों नहीं बचा रहे? हाइब्रिड तो बहुत लोग बना ले रहे हैं। देसी टपका आम के पेड़ काट-काट कर कलमी लगा लिए। यही अमरूदों का हो रहा। प्रयोग दर प्रयोग। कलमी को इनाम मिले मगर स्वाद नदारद। हुआ तो नकली ही! हम तो दशहरी को भी देसी न मानें।

यह बढ़ती उम्र का दोष है या जीभ के स्वाद तंतुओं का कि वापस चौराहे पर गए और साठ रु किलो वाले देसी दाने बीन लाए। वह मुटल्ला छतीसगढ़ी दिखाने-सजाने के काम आ रहा!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 जनवरी, 2021)

 

 



Tuesday, January 05, 2021

वैक्सीन नहीं, स्वयं विपक्ष घिर गया

महामारियां, वैज्ञानिक अनुसंधान, चिकित्सा शोधादि, देश की सुरक्षा और सेनाएं अनर्गल और दलगत राजनैतिक बयानबाजी का मुद्दा नहीं बनते थे। ऐसे सम्वेदनशील विषयों पर सभी राजनितिक दल लगभग एक स्वर बोलते या फिर मौन रहा करते थे। इक्कीसवीं शताब्दी मर्यादाओं के ध्वस्त होने की भी सदी बन रही है। पिछले कुछ वर्षों में हमने सैन्य बलों और उनकी कार्रवाइयों तक को वोट की राजनीति के पंक में घसीटे जाते देखा। सत्तारूढ दल को घेरने और विपक्ष की छवि ध्वस्त करने के लिए वोट की यह राजनीति अब कोविड-19 महामारी से बचाव के लिए बने टीकों तक चली आई है।

दो दिन पहले जब भारत के औषधि नियामक (केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन या सीडीएससीओ) ने कोविशील्डऔर कोवैक्सिननाम के दो टीकों (वैक्सीन) के सीमित एवं आपातकालीन प्रयोग की अनुमति दी तो कतिपय ज़िम्मेदार नेताओं के मुखारविंद से सर्वथा मर्यादाविहीन बोल फूटे। सबसे गैर-ज़िम्मेदाराना बयान उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के युवा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिया। उन्होंने इन टीकों को सीधे-सीधे भाजपाई टीकाबताते हुए ऐलान कर दिया कि मैं तो यह टीका नहीं लगवाऊंगा। अखिलेश यादव युवा हैं, उनके पास आस्ट्रेलिया के एक विश्वविद्यालय से अध्ययनोपरांत अर्जित पर्यावरण विज्ञान की डिग्री है। सारी दुनिया को हलकान किए हुए एक वायरस से बचाव के लिए वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से बने टीकों के बारे में उनसे ऐसे बयान की उम्मीद कोई नहीं करता, भले ही वह धुर-भाजपा-विरोधी राजनीति के राही हों।

कुछ अन्य बयान चंद कांग्रेसी दिग्गजों की ओर से आए, यद्यपि उन्होंने राजनैतिक बयानबाजी को तकनीकी सवालों की आड़ देने की सतर्कता बरती। शशि थरूर और जयराम रमेश ने सवाल उठाया कि जब टीके की प्रभावशीलता के बारे में सुस्पष्ट आंकड़े और जानकारियां नहीं हैं तो अनुमति देने में आतुरता क्यों दिखाई गई। प्रक्रिया आधारित कुछ सवाल वरिष्ठ काग्रेसी नेता आनंद शर्मा ने भी उठाए जो कि इस मामले में गृह मंत्रालय की उस संसदीय समिति के अध्यक्ष भी हैं, जिसने टीके की अनुमति देने के विविध पक्षों पर विचार किया। आनंद शर्मा ने पूछा कि अनुमति देने के लिए तीसरे चरण के जारी परीक्षणों के परिणामों और उनके विश्लेषण की अनिवार्यता को क्यों अनदेखा किया जा रहा है। सरकार की ओर से स्वास्थ्य मंत्री समेत कई बड़े नेताओं को इन विपक्षी नेताओं को आड़े हाथों लेने का अवसर भला क्यों छोड़ना था!

स्थापित सत्य है कि कोविड-19 से बचाव के जो भी टीके भारत समेत पूरी दुनिया में बने हैं, उनका तीसरा और सम्पूर्ण परीक्षण अभी नहीं हुआ है। अमेरिका और यूरोप में भी अभी आपातकालीन अनुमति के अंतर्गत ही ये टीके लगाए जा रहे हैं। परीक्षणों का निर्णायक दौर चल ही रहा है। किसी भी टीके की अंतिम रूप से अनुमति उसके शत-प्रतिशत सुरक्षित प्रमाणित होने पर ही दी जाती है। यह बहुत लम्बी प्रक्रिया है। टीके से तनिक भी हानि होने की आशंका भर से उसकी सुरक्षित प्रभावशीलता की गारण्टी प्रयोगशालाओं में सहमी-अटकी रहती है। टीका बनने के बाद उसके अंतिम रूप से सफल एवं सुरक्षितघोषित होने में कई साल लग जाते हैं। आज तक सबसे ज़ल्दी जिस टीके को अंतिम अनुमति मिली वह गलसुआ (मम्प्स) का टीका है जिसे बना लेने के साढ़े चार साल बाद पूर्ण रूप से सुरक्षित घोषित किया गया था।

कोविड-19 महामारी से दुनिया जिस तरह त्रस्त है उस पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। सन 2021 की अगवानी करना हुआ विश्व इस आशा से बहुत राहत अनुभव कर रहा है बचाव का टीका पहुंच में आ गया है। इसके पीछे सदियों की वैज्ञानिक तरक्की और चिकित्सा विज्ञानियों की अनथक मेहनत है। निश्चय ही इसमें दवा-कम्पनियों की घनघोर प्रतिस्पर्द्धा और उनके भारी मुनाफे का गणित भी शामिल होगा लेकिन कोई इनकार नहीं करेगा कि कोविड-19 से बचाव का टीका साल भर में बना लेना चिकित्सा विज्ञान की ऐतिहासिक छलांग है, हालांकि अभी इन टीकों को लेकर कई चिंताएं, आशंकाएं और प्रश्न हैं। अंतिम शोध-परीक्षणों के आंकड़ों से पुष्ट, अधिकतम प्रभावी एवं पूर्ण सुरक्षित टीकों के बारे में बहुत से सवाल अनुत्तरित हैं। ये सवाल पूरी दुनिया में उठ रहे हैं और उठने भी चाहिए। स्वयं विज्ञानी और कम्पनियां इन प्रश्नों से इनकार नहीं कर रहीं। यह विषय और क्षेत्र भी उन्हीं का है। और, ध्यान रहे कि आम जन का टीकाकरण शुरू नहीं हो रहा, अनुमति मात्र सीमित एवं आपातकालीनहै।

इसका आशय यह नहीं कि राजनैतिक दलों को टीकों या वैज्ञानिक शोधों के बारे में सवाल पूछने का अधिकार नहीं है। सरकार के निर्णयों पर विपक्ष प्रश्न नहीं पूछेगा तो करेगा क्या? यह उसकी राजनीति और उत्तरदायित्व के लिए आवश्यक है कि वह सही अवसर पर सही सवाल उठाए और सरकार से जवाब मांगे; लेकिन इसे क्या कहेंगे कि उसके प्रश्न सरकार की बजाय स्वयं उसकी विश्वसनीयता को हास्यास्पद बना दें, अप्रासंगिक प्रश्नों से विज्ञानी और और कम्पनियां हतोत्साहित हों और जनता अनावश्यक रूप से  भ्रमित हो?

हमारे देश में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो रोग निरोधक टीकों को संदेह और साजिश के रूप में देखता है। अब भी कुछ टीकों को नपुंसकता बढ़ाने वाला माना जाता है। राजनैतिक नेताओं के अनुत्तरदायित्वपूर्ण बयान ऐसे वर्गों का संदेह बढ़ाते हैं। नेशनल कांफ्रेंस के नेता और अखिलेश यादव के हम उम्र उमर अब्दुल्ला ने ठीक ही टिप्पणी की कि टीका किसी राजनैतिक दल का नहीं होता। मैं तो उसे लगवाऊंगा। तब अखिलेश को भी सफाई पेश करनी पड़ी।

विपक्ष की समस्या वास्तव में यह है कि वह भाजपा के विरुद्ध कोई ठोस और प्रभावी मुद्दा खड़ा नहीं कर पा रहा। 2014 के देशव्यापी उभार के बाद भाजपा लगातार मजबूत होती गई है। 2019 की और भी बड़ी विजय के बाद उसने जिस तरह कश्मीर से अनुछेद 370 को निष्प्रभावी करके उसका विभाजन किया और नागरिकता संशोधन कानून लेकर आई, उससे मोदी सरकार की मजबूती और विपक्ष की निरुपायता साबित हुई। मोदी सरकार को घेरने के लिए वह विश्वसनीय जनमत नहीं बना पा रहा है, यद्यपि देश में जनहित के मुद्दों की कमी नहीं है। आर्थिक मोर्चे की असफलताएं, भारी बेरोजगारी, महंगाई, किसानों का भारी असंतोष, महामारी सम्बंधी कतिपय निर्णयों की मार, चिकित्सा तंत्र की खस्ताहाली, आदि-आदि के बावजूद विपक्ष मोदी सरकार के विरुद्ध प्रभावी मोर्चाबंदी कर पाने में सफल नहीं हो रहा। इस निरुपायता में कई बार वह संवेदनशील विषयों पर गैर-ज़िम्मेदाराना बयान दे देता है। इससे स्वयं वह जनता की दृष्टि में विश्वसनीयता खोकर अपना संकट और बढ़ा लेता है।

कोविड-19 के टीकों को अनुमति देने पर उचित प्रश्न अपनी जगह रहेंगे और सही जगह उन पर पड़ताल होती रहेगी लेकिन विपक्ष को पहले अपनी विश्वसनीयता और जनाधार पर लगे प्रश्नों का उत्तर तलाशना होगा।

(प्रभात खबर, 6 जनवरी, 2021)

     

    

        

     

Friday, January 01, 2021

वह जो पुराना है, उससे कुछ नया निकले

यूं तो यह कई दिनों से जारी किसानों के व्यापक आंदोलन का असर लगता है लेकिन मुख्यमंत्री योगी ने सरकार के कई वरिष्ठ अफसरों को प्रदेश के 75 जिलों में भेजकर ठीक किया ताकि वे देखकर आएं कि जिला स्तर पर धान खरीद केंद्रों से लेकर आवश्यक सुविधाओं का क्या-कैसा हाल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके प्रत्यक्ष अनुभवों का असर सरकार के काम-काज पर पड़ेगा।

वैसे, वरिष्ठ अधिकारियों को साल में कम से कम एक बार जिलों/गांवों में भेजने की परिपाटी-सी पहले के मुख्यमंत्री भी निभाते रहे हैं। अक्सर इसका रूप जिलों में कम से कम एक रात बितानेके निर्देश के रूप में होता रहा है। जिला स्तरीय तैनातियों से ऊपर प्रोन्नत हो चुके अधिकारियों का गांव दौरा कई बार रोचक और कई हास्यास्पद स्थितियां उत्पन्न करता है। कई अधिकारी सर्किट हाउस की सुविधाओं में भी बेचैन पाए गए और कई आधी रात बिताकर राजधानी भाग आते रहे या सुबह चौपाल लगाकर शाम तक लौट आते रहे। कई वर्ष पहले हमने अपने तब के अखबार में एक सचिव की कार की छत में लखनऊ से कूलर लाद ले जाते हुए फोटो छापा था।

वरिष्ठ अधिकारियों की क्या कहें, गांवों से तो अब उन नेताओं का भी वास्ता नहीं रहा जो गांव-देहात और दलित-पिछड़ा राजनीति करते हैं। आज का शायद ही कोई बड़ा नेता दौरे के बाद गांव में रात बिताता हो। चुनावी दौरा हो या त्योहार-उत्सव, दिन भर जन-सम्पर्कके बाद उड़नखटौले नेताओं को राजधानी की सुख-सुविधा पूर्ण ज़िंदगी में लौटा लाते हैं। दलितों-पिछड़ों के घर भोजन करने का फैशन चल पड़ा है लेकिन कोई उनके आंगन की खाट पर कोई एक रात नहीं बिता पाता।

विकास और कल्याणकारी योजनाओं में गांवों का खूब उल्लेख होता है लेकिन लेकिन गांवों और ग्रामीणों की वास्तविक स्थितियों एवं समस्याओं का गहन प्रत्यक्ष अनुभव न आज के नेताओं को है और न अधिकारियों को। पत्रकारिता तो बहुत पहले उससे कट गई थी। किसान-किसान का दिन-रात जाप कर रहे इनमें अधिकतर लोग धान और गेहूं की फसल में फर्क नहीं कर पाते। किस इलाके का ग्रामीण कैसा जीवन जी रहा है या किस तरह बदल गया है, इस पर ध्यान नहीं है। एक जमीनी पत्रकार साथी ने हाल में बहुत सही टिप्पणी की थी कि किसान आंदोलन में सरकारी पक्ष जाने-अनजाने 1936 के होरी और गोबर को तलाश रहा है और ट्रैक्टर पर आए पिज्जा खाते किसानों का मजाक बना रहा है।

सचिवालय स्तर पर गांव-देहात के प्रत्यक्ष अनुभवों और सम्पर्कों के अभाव ही का परिणाम है कि योजनाओं पर अमल की वस्तुस्थिति छोटे कर्मचारी-अधिकारी आसानी से फाइलों-घोषणाओं में छुपा ले जाते हैं, झूठे दावे दस्तावेजी प्रमाण बन जाते हैं और आम जनता मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों-अधिकारियों के घरों-दफ्तरों के चक्कर काटती है। अन्यथा जनता दरबारोंकी आवश्यकता क्यों पड़नी चाहिए? जनता के मामूली काम हों या योजनाओं का लाभ, उन्हें अपनी जगह ही क्यों समाधान नहीं मिलना चाहिए? इस आई टी जमाने में इसे कितना आसान और पारदर्शी हो जाना चाहिए था। वरिष्ठ अधिकारियों को जिलों में भेजने की वर्तमान सरकार की पहल नए साल में कुछ प्रभावी रूप लेगी, यह कामना है।

अब हम नए सालमें हैं। सन 2020 को सबसे बुरा साल कहकर उसे कोसते हुए संदेशों की कई दिन से बाढ़ लगी है। शुभकामनाओं और आशाओं से भरा रहना मनुष्य की जीजीविषा का हिस्सा है, इसलिए सन 2021 का जोर-शोर से स्वागत होना ही चाहिए। किंतु ध्यान दें कि हम 2020 को खारिज नहीं कर सकते। वह बुरा था लेकिन जितना बुरा हो सकता था, उतना नहीं हुआ। वक्त की बेरहमी के किस्से मत कहिए। उससे सीखना है और हर बुरे वक्त को अच्छे में बदलने की सामर्थ्य पर भरोसा रखना है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 जनवरी, 2021)