Monday, July 28, 2014

तमाशा मेरे आगे-1/ दस बजे तक दवा और दारू सारी रात!



मोहनलालगंज में युवती के साथ बलात्कार और हत्या की भयानक वारदात के बाद हमारे जवान सी एम ने सख्ती दिखाई। तब ऊंचे स्तर पर समीक्षा बैठक हुई और महिलाओं से छेड़-छाड़ रोकने के लिए प्रशासन को कुछ दिशा-निर्देश जारी किए गए। उनमें से एक है कि शराब की दुकानों पर नज़र रखी जाए ताकि वहाँ से निकलने वाले महिलाओं को तंग न करें।

एक हफ्ता होने को है, प्रशासन ने मीटिंग करके शराब की दुकानों पर नज़र रखने के तौर-तरीके और तंत्र अभी तक बनाया ही नहीं। सो, हमने सोचा, क्यों न हम ही एक बार राजधानी की शराब दुकानों का जायजा लें। शुरू किया गोमती नगर से। सबसे बड़े और व्यस्त चौराहे की मॉडल शॉप। शाम के आठ बजे ही शॉप के बाहर मोटरसाइकिलों की भीड़। आहा, युवा लखनऊ का जोश यहाँ उबाल मार रहा है! सब पीने-खाने में मस्त। हर मेज़ पर बीयर,व्हिस्की की बोतलों-गिलासों के साथ बहसें भी गरम। मोहनलालगंज के भयानक हादसे से अब भी सब का गम बढ़ा हुआ था और पूछ रहे थे कि आखिर वह युवती रात के सन्नाटे में अकेले वहाँ करने क्या गई थी?

जो सवाल वे होशोहवाश में नहीं पूछ पाए थे, अब नशे में ज़ोर-ज़ोर से पूछ रहे थे। वे सब पुरुष थे। सोलह से छब्बीस और सत्ताईस से पचास-साठ तक के पुरुष। नशे में भी उन्हें महिलाओं के चरित्र और आचरण का बहुत ध्यान था। इसके अलावा वहाँ सिगरेट का धुआँ, गालियां और लड़खड़ाती जुबानें थीं।  

हमने दूसरी दुकान का रुख किया। वह और भी बड़ी थी और पीने-खाने का बेहतरीन इंतजाम। इसलिए बाहर और भी ज़्यादा बाइकें और अंदर खूब ज़्यादा धुआँ, बहसें और नशा। सड़क किनारे खड़ी गाड़ियों के अन्दर भी पैग बन रहे थे। इंजन और एसी चालू थे। एयरकण्डीशण्ड बार!
गोमती नगर, इंदिरा नगर, महानगर और हजरतगंज की मॉडल शॉपों पर नज़र डालते हुए (पता नहीं प्रशासन कब और कैसी नज़र डालेगा!) हम वापस गोमती नगर आ गए। दस बजने वाला था और मॉडल शॉपों के आस-पास देश-दुनिया और समाज की चिंता गहरी हो चुकी थी। इस चिंता में नॉन वेज के ठेले और खोंचे जल्दी-जल्दी खाली होने लगे थे। मॉडल शॉप से स्टार्ट हुई बाइकें फर्राटा मारती उड़ी जा रही थीं। उन पर सवार दो-दो, तीन-तीन युवक उत्साह में चीखते, हवा में हाथ लहराते, सीटियां और डॉयलॉग मारते उड़े जा रहे थे। कुछ के हाथों में अब भी बोतलें थीं। युवा भारत का जोश पूरे शबाब पर था। हम चौराहे के डिवाइडर पर खड़े इस छलकते उत्साह को सगर्व देखा किए।

दस बजते-बजते पूरा बाजार बंद हो गया लेकिन चौराहा बढ़ती भीड़ से गुलज़ार होता रहा। मॉडल शॉप हाउस फुल। सो, सड़क के दोनों तरफ कारों के भीतर, उनकी छत और डिक्कियों में, पान की गुमटियों और नॉन वेज के खोंचों तक इतने ज़ाम कि सड़क तक जाम हो गई।

तभी फर्राटा मारती दो बाइकें बीच चौराहे पर भिड़ गईं। उस तरफ दौड़ने वाले हम अकेले थे। भरा-पूरा चौराहा अपने में ही मस्त रहा। गनीमत कि लड़कों को चोट ज़्यादा नहीं आई थी। किसी का घुटना छिल गया था और किसी की उँगलियों से खून टपक रहा था। हेलमेट बाइकों में पीछे सुरक्षित बंधे थे और लड़कों के सिर भी सलामत थे। कुछ दवा-मरहम-पट्टी के इरादे से हम दवा की दुकान की तरफ लपके लेकिन वह तो बंद थी। पूरे बाज़ार के साथ दवा की दुकान भी कबके बंद हो चुकी थी।

तब हमें पता चला कि हमारे प्रदेश में रात दस बजे बाद दवा की दुकान नहीं खुल सकती मगर दारू की दुकान (हालांकि यह मॉडल शॉप की तौहीन है) रात ग्यारह बजे तक नियमतः और उसके बाद अनियमतः खुली रह सकती है।

वाह! हमने अपनी सरकार की दाद दी। दवा सिर्फ दस बजे तक लेकिन दारू आधी रात तक। नशा करने के बाद पूरी आज़ादी है। जो चाहे, करो- छिनैती, छेड़छाड़ या हत्या। बाज़ार दस बजे इसलिए बंद कि शरीफ जनता, खासकर महिलाएं ख़रीदारी, वगैरह निपटाकर सुरक्षित घर पहुँच जाएँ। दस बजे बाद निकलें तो अपनी ज़िम्मेदारी पर।

इसीलिए अखिलेश यादव के एक युवा मंत्री ने कहा है कि सरकार हर महिला के पीछे पुलिस नहीं लगा सकती। हमारा विनम्र सुझाव है कि सरकार हर शराबी के पीछे एक पुलिस वाला लगा दे। दोनों एक साथ मॉडल शॉप में बैठें और रात में एक साथ शहर की गश्त पर निकलें। देखें, कैसे नहीं रुकते महिलाओं के साथ होने वाले अपराध!

(रविवार, 27 जुलाई को नभाटा, लखनऊ में छपा कॉलम- "तमाशा मेरे आगे"। सुधीर ने यह कॉलम शुरू करवा तो लिया, देखिए, कितना निभ पाता है।)
 


 

Monday, July 21, 2014

नियम-कानून माने तो नेता कैसा!




चंद रोज़ पहले की खबर है कि व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल को अदालत ने फरार घोषित करके उनके नाम गैर जमानती वारण्ट भी जारी किया है। कंछल साहेब को खुले आम राजधानी में घूमते देखा जा सकता है। वे अक्सर सार्वजनिक समारोहों में शामिल हो रहे हैं जहां वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मौजूद रहते हैं और उनको सलाम बजाते हैं। उनके खिलाफ फ़रारी का आदेश और गिरफ्तारी का वारण्ट किसी सामान्य से मुकदमे में कई बार बुलाए जाने के बावजूद अदालत में हाजिर नहीं होने के कारण जारी किया गया है। यह मुकदमा पिछले करीब 17 वर्ष से चल रहा है और उन्होंने कभी अदालत में पेश होने की या जमानत करा लेने की ज़रूरत नहीं समझी। ऐसा ही एक मामला समाजवादी पार्टी के विधायक रविदास मेहरोत्रा का था जो करीब 25 वर्ष से अदालती नोटिसों और वारण्ट के बावजूद अदालत में हाजिर नहीं हुए थे। इसलिए अदालत को मजबूर होकर उन्हें फरार घोषित करते हुए गैर जमानती वारण्ट निकालना पड़ा था। तब कहीं जाकर रविदास महरोत्रा ने अदालत में पेशी दी और जमानत करवाई थी। यह अभी चंद महीने पहले की बात है।

कंछल और मेहरोत्रा किसी भी रूप में अपराधी नहीं हैं। कंछल वर्षों से व्यापारियों की राजनीति कर रहे हैं और आंदोलनों में जेल जाते रहे हैं और इस कारण उन पर मुकदमे भी हुए तो आश्चर्य नहीं। (उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ भी है जिसके लिए वे अवसरानुकूल राजीतिक पार्टियां बदलते रहते हैं, यह अलग बात है) रविदास मेहरोत्रा लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में खूब सक्रिय रहे हैं और पिछले कोई चालीस बरस से राजधानी लखनऊ में विविध धरना-प्रदर्शनों-गिरफ्तारियों में शामिल रहे हैं। उनका दावा है कि जेल जाने का कीर्तिमान उन ही के नाम है। सो, उनके खिलाफ मुकदमे होना स्वाभाविक ही है।

कंछल और रविदास यहाँ सिर्फ दो उदाहरण हैं। सवाल यह है कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय ये नेता बरसों-बरस अदालती नोटिसों और वारण्ट की भी जानबूझ कर अनदेखी क्यों करते हैं? ये सामान्य से मुकदमे होते हैं जिनमें खुद अदालत में पेश होने की जरूरत नहीं होती. आपका वकील ही सारी औपचारिकता पूरी कर देता है, व्यक्तिगत पेशी से छूट दिला देता है और ज़रूरत पड़ने पर जमानत भी करा लेता है। फिर ऐसा क्यों होता है कि कंछल 17 वर्ष और रविदास उससे भी कई बरस ज़्यादा अदालती फरमान का संज्ञान ही नहीं लेते और फरार घोषित किए जाने के बावजूद उनके चहरे पर शिकन तक नहीं आती?

इसका सच यह है कि हमारे देश में नेता नाम के जीवों को नियम-कानून नाम की चिड़िया से ही बहुत नफरत है और यह कई-कई रूपों में प्रकट होता है। इस देश में यह अकल्पनीय है कि किसी नेता की गाड़ी चौराहे की लालबत्ती पर नियमानुसार ठहर जाए लेकिन यह दृश्य बहुत आम हैं कि नियमानुसार वाहन के कागजात दिखाने को कहने या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक गाड़ियों के शीशों से गाढ़ी काली फिल्म उतारने या नियम तोड़ने पर चालान करने वाले किसी सिपाही या बड़े पुलिस अधिकारी को नेता छाप लोग धमकाएँ या निलंबन और ट्रांसफर कराते मिलें। यहाँ नियम का पालन करना तौहीन मानी जाती है। इसलिए डंके की चोट पर नियम तोड़ने वाला बड़ा और रौबदार माना जाता है। जो नियम माने और कानून से डरे वह बेचारा और गऊ छाप समझा जाता है। तभी तो छुटभय्ये लोग नियम तोड़ना नेता बनने की पहली सीढ़ी मानते हैं।

तकलीफदेह बात यह है कि नियम-कानून का पालन कराने वाली पुलिस को खुद इस विसंगति पर कोई क्षोभ नहीं होता, बल्कि वह स्वयं नियम-कानून तोड़ने वाले नेताओं की सुरक्षा में लगी होती है। कंछल के प्रकरण में जब लखनऊ के एसएसपी से पूछा गया तो उनका जवाब था कि अभी उन्हें कोर्ट का आदेश नहीं मिला है और न ही आदेश की जानकारी है। रविदास के मामले में तो इधर गिरफ्तारी का आदेश था और उधर पुलिस के आला अफसर तक उनके बेटे की शादी की दावत में मेहमानों संग मेजबान को भी फर्सी सलाम बजा रहे थे।

यह हमारे नेताओं की ही महिमा है कि कानून-व्यवस्था की रखवाली करने के लिए बनी पुलिस ठीक उलटी भूमिका में दिखाई देती है। वह निरीह और लुटती-पिटती जनता की रक्षा में तैनात नहीं दिखाई देती लेकिन पहले से सी बहुत सुरक्षित नेताओं को जाने किस खतरे से बचाने के लिए मजबूत सुरक्षा घेरा बनाए चलती है। जिन दिनों प्रदेश विधान सभा का सत्र चलता है उन दिनों  पूर्वाह्न करीब ग्यारह बजे विधान भवन में जाते विधायकों के काफिले देख लीजिए। उनकी सरकारी और निजी सुरक्षा बलों की फौज आम जनता को, महिलाओं और स्कूली बच्चों तक को ऐसे घुड़कती चलती है जैसे कि वे दुश्मन हों! इसी रौब-दाब से हमारे नेताओं का खून बढ़ता है। तभी तो सुरक्षा दस्ता छिनते ही जैसे उनके प्राण ही सूख जाते हैं।

यही वह बड़ी वजह भी है कि नेताओं, उनके बेटे-भतीजों और चमचों के अपराधों में शामिल होने के बावजूद पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करती, बल्कि उनके बचाव में पैतरेबाजी करती रहती है। आज प्रदेश की सपा सरकार कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर विफलता के लिए जो ज़लालत झेल रही है, उसका मुख्य कारण भी यही है कि न तो पुलिस में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अभियुक्तों को पकड़ने का मनोबल है और न ही राजनीतिक नेतृत्व ने उसे इतनी स्वतन्त्रता दे रखी है।  

नतीजा कुल मिला कर यह कि नियम-कानून नेताओं और दबंगों के पैरों की ठोकर खाते लुढ़के पड़े हैं। सामान्य जनता ही है जो नियम-क़ानूनों से डरती है। 



       

Tuesday, July 01, 2014

नौकरी से रिटायर


पत्रकार के रूप में 37 साल की नौकरी के बाद 30 जून को मैं औपचारिक रूप से रिटायर हो गया. अगस्त 1977 में स्वतंत्र भारत’, लखनऊ  से यह सिलसिला शुरु हुआ था जहां से नव भारत टाइम्स’, फिर वापस स्वतंत्र भारत’, उसके बाद एक साल दैनिक जागरणऔर पिछले 15 वर्ष हिंदुस्तानमें बीते. छह महीने के लिए कानपुर और दो साल के लिए पटना का कार्यकाल छोड़ कर सारा समय लखनऊ में ही तैनात रहा. दिल्ली-मुम्बई समेत दूसरे शहरों में जाने से यह संकोची पहाड़ी बचता, बल्कि भागता ही रहा लेकिन लखनऊ में ही कुछ कम नहीं मिला.

एमए-हैमे करके पहाड़ लौट कर मास्टर बनने की ख्वाहिश थी. संयोग कि पढ़ाई के दौरान ही पत्रकार बन गया और इसी में रम गया मगर कभी पछतावा नहीं हुआ. हां, पहाड़ न लौट पाने का मलाल बना हुआ है.

छात्र जीवन में छिट-पुट लिखने की कोशिश करते इस युवक को ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा ने बहुत प्रेरित और उत्साहित किया. अशोक जी पहले सम्पादक और पत्रकारिता के गुरु मिले. उन्होंने खूब रगड़ा-सिखाया. नई पीढ़ी अशोक जी के बारे में शायद ही जानती हो. वे दैनिक संसारमें पराड़कर जी के संगी रहे और उन ही की परम्परा के और विद्वान सम्पादक थे. उन्होंने हिंदी टेलीप्रिण्टर के की-बोर्ड को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी, हिंदी में क्रिकेट कमेण्ट्री की शुरुआत की थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में रहते हुए हिंदी में तकनीकी शब्द कोशों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था. फिर राजेंद्र माथुर मिले जिनके मन में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का विराट स्वप्न (विजन) था और ज़ुनून भी जिसे वे अपनी टीम के नवयुवकों के साथ शायद ज़्यादा बांटते थे. 1983 में नव भारत टाइम्सका लखनऊ संस्करण शुरू करते वक़्त पत्रकारों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन उन्होंने खुद लिखा था उसके शब्द आज भी दिमाग में गूंजते हैं- “…वे ही युवा आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकें और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.” (नई पीढ़ी के पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र गौर फरमाएं ) आज जब मीडिया में भाषा ही सबसे ज़्यादा तिरस्कृत हो रही हो तो अशोक जी और राजेंद्र माथुर बहुत याद आते हैं. यहां मृणाल (पाण्डे) जी का भी ज़िक्र करना चाहूंगा जिनके साथ अखबार की भाषा (चंद्रबिंदु को लौटा लाने तक की कवायद) पर काम करने से लेकर रचनात्मक और सार्थक पत्रकारिता के सुखद अवसर भी मिले.

पिछले 15 वर्ष हिंदुस्तानमें अत्यंत चुनौती भरे, उत्साह पूर्ण और बहुत कुछ सीखने-सिखाने वाले रहे. यह ऐतिहासिक अखबार जो (बिहार को छोड़कर) गिनती में भी कहीं नहीं था, आज हिंदी के अग्रणी पत्रों में शामिल है. इसमें सम्पादकों से लेकर कुशल प्रबंधकों की एक बड़ी टीम का योगदान है. गर्व रहेगा कि मैं भी इस टीम में शामिल रहा.

अपनी 37 वर्षों की पत्रकारिता में मीडिया संस्थानों का स्वरूप बदलते करीब से देखा. सम्पादकों-पत्रकारों की प्राथमिकताएं और सफलता के पैमाने बदलते देखे. लम्बी गाथा है यह लेकिन संतोष है कि सम्पूर्णता में भारतीय पत्रकारिता आज भी अपना फर्ज़ निभा ले जाती है और संवेदनशील मानवीय मुद्दों के लिए हाशिए भी बचे हुए हैं.  

मेरे लिए यह कम आह्लाद की बात नहीं है कि अपने सभी सम्पादकों और प्रबंधन से मुझे बहुत स्नेह और सम्मान मिला. सबसे महत्वपूर्ण हासिल वे सहयोगी हैं जो इस दौरान मिले-बिछुड़े और जिनसे बहुत कुछ सीखा और गुस्सा व प्यार पाया. कुछ के साथ गाढ़ी दोस्ती हुई और पारिवारिक रिश्ते भी बने. स्वाभाविक है कि गिले-शिकवे भी बहुतों को होंगे और रहेंगे. चूंकि मैं सिर्फ एक नौकरी से रिटायर हुआ हूँ, इसलिए मेरे मन में उनकी जगह वैसी ही बनी रहेगी. मेरे बारे में क्या-कैसा सोचना या न सोचना पूरी तरह उनका विशेषाधिकार है.  

सभी का शुक्रिया.

-    नवीन जोशी, लखनऊ, 2 जुलाई, 2014