नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय
जनता पार्टी की प्रचण्ड विजय हुई है. 2019 की उनकी जीत 2014 से कई मायनों में बड़ी
है. उनके हिस्से आया वोट प्रतिशत 2014 के
31 से बढ़कर 37.4 हो गया. उसकी अपनी जीती सीटों की संख्या 282 से बढ़कर 302 हो गईं.
उसने अब तक अभेद्य पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा में भी शानदार प्रदर्शन करके वोट
प्रतिशत तथा सीटें बढ़ाईं और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को बड़ी
चुनौती दी है.
उत्तर प्रदेश में जहाँ
सपा-बसपा-रालोद का मजबूत गठबंधन भाजपा को
शिकस्त देने की उम्मीद पाले था, लगभग
विफल रहा. भाजपा 64 सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में कई सीटों पर उसे पचास से प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिले.
यह जीत भाजपा की नहीं अकेले नरेंद्र
मोदी की मानी जा रही है और ठीक भी है. उनकी छवि एक ‘फकीर’,
‘पिछड़े’, ‘ईमानदार’, ‘कर्मठ’,
‘हिंदू-उद्धारक’ और ‘बाहुबली’
के रूप में बड़े जतन से गढ़ी गयी थी. इस छवि पर उग्र राष्ट्रवाद और
पाकिस्तान को ‘घर में घुस कर मारने’ का
जोरदार मेक-अप चढ़ाया गया. यह प्रयोग बहुत सफल रहा, जिससे एक
लहर पैदा हुई. मोदी की इस देशव्यापी लहर को सिर्फ तमिलनाडु, आंध्र
प्रदेश और केरल ने रोका. काफी हद तक पंजाब ने भी.
सवाल जो उठते हैं
सभी राजनैतिक दलों और नेताओं की तरह
हम भी कहेंगे कि जनता के आदेश का सम्मान किया जाना चाहिए. किंतु बात यहीं खत्म
नहीं होती, बल्कि यहाँ से शुरू होती
है.
देश में व्याप्त भारी बेरोजगारी,
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कई
विफलताओं, नोटबंदी की अब तक जारी मार, कृषि की दुर्दशा के कारण किसानों के रोष, समाज के
साम्प्रदायिक विभाजन, गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग,
असहमति पर हमले, संवैधानिक संस्थाओं में
दखलंदाज़ी, आदि के बावजूद नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से आम
चुनाव जीते हैं तो देखना होगा कि इस जनादेश के उत्प्रेरक तत्व क्या रहे.
कुछ सवाल बेचैन करते हैं तो इस
प्रचण्ड विजय के कारणों में झाँकने का मौका भी देते हैं. जैसे कि राष्ट्रपिता महात्मा
गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बताने वाली तथाकथित साध्वी और आतंकवाद-अभियुक्त
प्रज्ञा ठाकुर का साढ़े तीन लाख वोटों से चुनाव जीतना क्या बताता है?
क्या यह मानें कि भोपाल के मतदाताओं का बहुमत प्रज्ञा ठाकुर की ही
तरह गोडसे को देशभक्त मानता है? या, इस
अत्यन्त क्षोभनाक, शर्मनाक और अनर्थकारी टिप्पणी, जिसकी स्वयं भाजपा नेताओं ने भी निंदा की और उनके दवाब में प्रज्ञा को
अनिच्छा से माफी मांगनी, की अनदेखी करके उसे जिताने के कोई
और बड़े कारण मतदाताओं के मन में थे?
क्या उत्तर प्रदेश में, जहाँ सपा-बसपा-रालोद के बहुत मजबूत गठबंधन के बावजूद भाजपा बहुत बेहतर
प्रदर्शन कर पाई, जातीय राजनीति समाप्त हो गयी, जैसा कि दावा किया जा रहा है? या गहरी जड़ों वाली
जातीय गोलबंदी की राजनीति से बड़ी कोई प्रभावशाली मुद्दा हावी हो गया?
पश्चिम बंगाल की शेरनी के गढ़ में
भाजपा की आशातीत सफलता का कारण क्या रहा? मध्य
प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में , जहां
कुछ महीने पहले ही मतदाताओं ने भाजपा को अपदस्थ करके कांग्रेस की सरकारें बनवाईं
थीं, वहां ऐसा क्या हुआ कि वोटरों ने लगभग सारी लोकसभा सीटें
भाजपा की झोली में डाल दीं? ऐसे और भी सवाल हैं जो परिणामों के
विश्लेषण और उत्तर तलाशने की मांग करते हैं.
एक बाहुबली का सुनियोजित
अवतार
उत्तरों की तलाश में सबसे पहले हमारा
ध्यान केदारनाथ धाम की ‘ध्यान गुफा’ से बहु-प्रचारित-प्रसारित उस तस्वीर की तरफ जाता है जो मतदान के अंतिम चरण
वाले दिन पूरे मीडिया में छाई हुई थी. उस सुसज्जित गुफा में कैमरों के फोकस के बीच
‘एकांतवास’ और ‘ध्यान’
करते और उससे पहले विवेकाननद और रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लबादा पहने,
हाथ में लाठी थामे केदारनाथ मंदिर के इर्द-गिर्द ‘पदयात्रा’ करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो बहुत
कुछ समझा देती है. कौन मानेगा कि यह ध्यान-साधना सुनियोजित नहीं थी. इसे हम सत्रहवीं
लोक सभा के चुनाव में भाजपा, बल्कि मोदी के प्रचार का समापन और
चरम-बिंदु मान सकते हैं.
यह तस्वीर हमें यह भी बताती है कि
भाजपा का पूरा चुनाव अभियान जितना जनता के मूल मुद्दों से दूर कट्टर हिंदुत्त्व और
उग्र राष्ट्रवाद पर केंद्रित था, उतना ही
मोदी की ‘न भूतो न भविष्यति’ छवि पर.
याद कीजिए कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत किसी भी भाजपा नेता के चुनाव भाषण हिंदू-गौरव,
मुस्लिम-घृणा, पाकिस्तान-विरोध और सेना की
शौर्य-गाथा के बिना पूरे नहीं होते थे. यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा ने यह
चुनाव बालाकोट पर हमले के बहाने हमारी सेनाओं को राजनैतिक प्रचार का माध्यम बना कर
लड़ा. भाजपा की हर चुनाव सभा में जनता से यह पूछा जाता था कि पाकिस्तान को सही जवाब
दिया कि नहीं दिया? क्या ऐसा करने का साहस पहले किसी नेता ने
दिखाया? क्या इस बार आपका वोट शहीद सैनिकों की याद में
समर्पित हो सकता है? (चुनाव आयोग की इस पर शर्मनाक चुप्पी एक
अलग प्रसंग है)
“पाकिस्तान चाहता है कि मोदी चुनाव
हार जाए”- चुनाव सभाओं में अपने
प्रधानमंत्री के मुँह से यह सुनना बहुत अफसोस पैदा करता रहा लेकिन वे तो मतदाताओं
के मन में एक खास संदेश बैठा रहे थे. पाकिस्तान के प्रति घृणा और विपक्षी
नेताओं के प्रति नाराज़गी पैदा करने के लिए
फिर वे कहते थे- “विरोधी नेताओं के भाषणों
पर पाकिस्तान में तालियाँ बजती हैं, वे वहाँ के अखबारों की
सुर्खियाँ बनते हैं.” इसी के बाद पुलवामा और उसके जवाब में बालाकोट का जिक्र किया
जाता था. सभा में ‘मोदी-मोदी’ का
उद्घोष किया-कराया जाता था.
दूसरे भाजपा नेता तो पाकिस्तान को
सबक सिखाने के लिए मोदी की तारीफ करते ही थे, स्वयं
मोदी ‘हमारी सेना’ की बजाय ‘मैंने’ कहते हैं- ‘’मैने घर
में घुस कर मारा.’ और, ‘घर में घुस कर
मारूंगा.’
मोदी के भाषणों का एक और सतत राग ‘हिंदू-मुसलमान’ था. एक चुनावी सभा में उन्होंने कहा-
“कांग्रेस ही है जिसने हिंदू-आतंकवाद शब्द गढ़ कर इस देश के करोड़ों हिंदुओं का अपमान
किया है. इसीलिए उनके नेता हिंदुओं के आक्रोश से डर कर उस सीट से चुनाव लड़ने जा
रहे हैं जहां हिंदू अल्पसंख्या में हैं. क्या एक भी उदाहरण
है कि कोई हिंदू आतंकवादी बना?”
इस तरह मोदी नाम के एक ऐसे ‘बाहुबली’ हिंदू नेता की छवि गढ़ी गयी जो ‘इस देश को आतंकवादियों से, पाकिस्तान से और देश-भीतर
के पाकिस्तान-समर्थकों (आशय उनका मुस्लिम-समर्थकों से होता था) से बचा सकता है.
हिंदुओं का रखवाला तो वह है ही. इस देश के विरोधी दल, विशेष
रूप से कांग्रेस जो मुस्लिम-परस्त और पाकिस्तान-समर्थक हैं, इस
शक्तिशाली नायक के पीछे पड़े हुए हैं.’
देश के मतदाता को यह समझाने का काम
चुनाव सभाओं के अलावा गाँव-गाँव फैले भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने बखूबी
किया. देशभक्ति के नाम पर मतदाता उग्र-राष्ट्रवाद के चक्कर में आ गये. वे भूल गये
कि नोटबंदी ने उनके रोजगार छीने हैं, नौजवान
पीढ़ी भूल गयी कि उनके सामने बेरोजगारी का दानव मुँह बाये खड़ा है. किसान भूल गये कि
वे कितने गहरे संकट में हैं और किस तरह ठगे गये हैं. बड़ी तादाद में मतदाताओं ने यह
भूलकर कि उनके साथ कैसी वादाखिलाफी की गयी है, उस ‘शक्तिशाली’ मोदी के नाम पर वोट दे दिये क्योंकि वे
अपने देश को बेतरह प्यार करते हैं.
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में
गठबंधन बेअसर करने और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के किले में लगी गहरी सेंध लगाने
में मोदी कामयाब रहे.
अगर भाजपा यह दावा कर रही है कि यह
मोदी सरकार की पिछले पाँच साल की नीतियों-कार्यक्रमों की जीत है तो इसलिए क्योंकि
वह वास्तविकता पर स्वाभाविक ही पर्दा डाले रखना चाहती है. मोदी सरकार की कुछ
उपलब्धियाँ जरूर रही होंगी लेकिन स्वच्छता अभियान में बने शौचालय,
उज्ज्वला योजना में मिले गैस सिलेण्डर, प्रधानमंत्री
आवास योजना में मिले मकान और कुछ खातों में पहुँचे दो-दो हजार रुपए इतनी बड़ी जीत
का कारण नहीं हो सकते. ये योजनाएं यूपीए सरकार में भी दूसरे नामों से चल रही थीं,
भले ही उन पर उतना जोर नहीं था और प्रचार उससे भी कम. इन ‘गरीब-उद्धारक’ इन योजनाओं का सीमित लाभ चुनाव में
होता है, जैसे 2009 में ‘मनरेगा’
से यूपीए को हुआ था. इन ‘विकास कार्यक्रमों’ से लहर पैदा नहीं होती. लहर पैदा करने वाले कारणों की चर्चा ऊपर की जा
चुकी है.
हिंदुत्त्व की
प्रयोगशाला
प्रोफेसर अपूर्वानंद ने ‘द वायर’ में एग्जिट पोल के अनुमान आने के अगले दिन लिखा
था कि नतीजे ऐसे ही आते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगेंगे लेकिन वास्तव में
मोदी सरकार ने जो किया है वह हिंदू-मानस को ‘हैक’ करना है. अपूर्वानंद की टिप्पणी बिल्कुल सही है. लम्बे समय से चले आ रहे
भाजपा-संघ के कट्टर हिंदुत्त्व के अभियान को मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में
परवान चढ़ाया. उदार और उदात्त हिंदू मानस को कट्टर, संकीर्ण
और हिंसक बनाया. ये चुनाव नतीजे उसी का परिणाम कहे जा सकते हैं.
उदाहरण के तौर पर पश्चिम बंगाल की जमीनी
रिपोर्टों का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जिसे भाजपा ने कई वर्षों से हिंदुत्त्व
की प्रयोगशाला बना रखा है. ‘इण्डियन एक्सप्रेस’
में पिछले दिनों मुकुलिका बनर्जी का एक लेख प्रकाशित हुआ था.
मुकुलिका अपने शोध के सिलसिले में पश्चिम बंगाल के दो गाँवों का पिछले काफी समय से
अध्ययन कर रही हैं. मदनपुर और चिश्ती नाम के दोनों गाँव मुस्लिम और दलित बहुल हैं.
इनमें हो रहे परिवर्तन को आधार बनाकर उन्होंने बताने की कोशिश की कि किस तरह वहाँ
भाजपा-संघ का हिंदुत्त्व अपना रंग फैला रहा है.
उन्होंने लिखा कि “हिंदू पहचान का पहला चिह्न मुझे तब दिखाई दिया जब इन गाँवों
में बड़ी श्रद्धा से रामनवमी मनाई जाने लगी. देवी की आराधना करने वाले बंगाल के
गाँवों में रामनवमी मनाना अजूबा ही है. मुसलमानों से भी चंदा लेकर दलित-बहुल आबादी
बाकायदा लाउडस्पीकर लगाकर धूमधाम से रामनवमी मनाने लगी है.
इससे भी चौंकाने वाली बात उन्होंने यह
देखी कि “पड़ोस के हिंदू बहुल सीतापुर गाँव में बंगाली नव-वर्ष के दिन हनुमान उत्सव
मनाया जाने लगा. हनुमान का नाम इन गांवों में पहले नहीं सुना गया था. मैंने एक
गाँव में एक पेड़ के नीचे छोटी सी हनुमान प्रतिमा देखी, जो किसी ने बताया कि एक ट्रक से गिर गई थी. इसे ‘शुभ’ मानकर पूजा शुरू करा दी गई. कई युवक अपनी बाइक
में हनुमान अंकित दो-मुखी लाल झण्डा लेकर घूमते रहते हैं.”
मुकुलिका ने अपने लेख में यह साफ-साफ
नहीं लिखा है कि इस ‘पोरिबोर्तन’ के
पीछे कौन है लेकिन संकेतों में बताने की कोशिश की है कि बंगाली समाज का किस तरह
भगवाकरण किया जा रहा है.
‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में ऐन चुनावों के दौरान प्रकाशित एक खबर इसकी तस्दीक करती है. यह खबर
बताती है कि किस तरह सुंदरबन इलाके की ‘बोनबीबी’ (वनबीबी) को, जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों ही
पूजते-मानते थे कि वह वन में बाघों से हम सबकी रक्षा करती है, हिंदू ‘बोनदेवी’ (वन देवी) बना
दिया गया है. हिंदू संगठनों ने अपने पुजारियों के जरिए यह प्रचार धीरे-धीरे किया
और ‘बोनबीबी’ को ‘बोनदेबी’ बताकर उनकी पूजा-अर्चना हिंदू विधि-विधान
से करने लगे. नतीजा यह हुआ कि सुन्दरबन के मुसलमान अब ‘बोनबीबी’
से दूर हो गये हैं. इस तरह साम्प्रदायिक अलगाव पैदा किया गया है.
बंगाल में वामपंथी दलों के पराभव के
बाद बड़ी संख्या में उनके कार्यकर्ता ‘बेरोज़गार’
हो गये. आक्रामक-प्रवृत्ति के इस कैडर को नये संरक्षक चाहिए थे.
भाजपा ने उन्हें खुशी-खुशी अपना लिया. त्रिपुरा में भी भाजपा और संघ ने यही काम किया था. त्रिपुरा विधान सभा
चुनावों में भाजपा की बड़ी विजय के बाद की रिपोर्ट बता रही थीं कि उत्तर भारत से
भेजे गये संघ के कार्यकर्ता आदिवासी इलाकों में दो साल से डेरा डाले हुए थे.
उन्होंने आदिवासियों के बीच ही बस कर उनका ब्रेनवाश किया. कई रपटें
पिछले दिनों ऐसी पढ़ने में आईं कि बड़ी संख्या में वाम दलों के छुटभैये नेता और
कार्यकर्ता ही नहीं, उनके कार्यालय तक
भाजपा की सेवा में लग गये हैं.
लाल झण्डों का इतनी आसानी से भगवा हो
जानाआश्चर्यजनक से ज्यादा भारतीय वाम पार्टियों के खोखलेपन का ही परिचायक है.
विपक्ष कहाँ विफल हुआ
कहना न होगा कि विपक्ष भाजपा के इस
अभियान का मुकाबला करने में पूरी तरह विफल रहा. वह मोदी की बाहुबली-छवि की असलियत मतदाताओं को नहीं दिखा सका. भाजपाई प्रचार मशीनरी के सामने
वह टिक नहीं सका. इसलिए यह मोदी की जीत के बराबर ही विपक्ष की विफलता भी है.
यह बात बहुत मायने नहीं रखती कि
विपक्ष मोदी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन नहीं कर सका,
इसलिए भाजपा विरोधी वोट बंट गये. नतीजे बताते है कि विपक्ष का कोई
एक राष्ट्रीय मोर्चा बना होता तो भी भाजपा की कुछ सीटें कम होने के अलावा और कोई फर्क
नहीं पड़ता. मोदी तब भी जीतते और सरकार बना ले जाते.
विपक्ष की चुनौती सिर्फ यह नहीं है
कि मोदी भारी बहुमत से फिर सरकार में आ गये. उससे बड़ी चुनौती यह है कि संघ और
भाजपा ने मिल कर भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज के दिल-दिमाग में अलगाव और कट्टरता
के बीज बो दिये हैं. हिंदू समाज हमेशा से बहुत उदार और सहिष्णु रहा है. उसे अब इतना
कट्टर और असहिष्णु बना दिया गया है कि आये दिन मॉब लिंचिंग की खबरें आने लगीं.
यह पुराना भारत नहीं है. यह मोदी का
वह ‘नया भारत’ है
जिसमें बहुलतावाद, अल्पसंख्यक समुदायों का सम्मान और असहमति
की जगह सिमटती जा रही है. मोदी चुनाव हार भी जाते (एक दिन वे हारेंगे ही) तो भी यह
जो जहर बो दिया गया है,आने वाले समय में उसकी फसल भारतीय
राष्ट्र-राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनने वाली है.
विपक्ष की असली और मुख्य चुनौती इस
बड़े खतरे से निपटना है. फिलहाल तो वह चुनाव में मोदी से ही नहीं निपट सका. इस खतरे
से निपटने के लिए तो बहुत धैर्य, समझ,
संगठन और समर्पण की जरूरत है.
भारतीय समाज के सामने उपस्थित इस बड़ी
भारी चुनौती से राजनैतिक रूप से निपटने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी
की है, जिसके
मूल विचार और दर्शन में वह भारत था (आज भी होना चाहिए) जिसकी वज़ह से यह बहुभाषी-बहुसांस्कृतिक-बहुधार्मिक-बहुजातीय-बहुभौगोलिक
देश एक पहचान के साथ एकसूत्र में बंधा रह सका है. गांधी-नेहरू की यह विरासत
कालान्तर में कई विचलनों, समझौतों, भ्रष्ट
आचरणों और वंशवाद की तोहमतों के बावजूद कांग्रेस सम्भाले रह सकी.
इसीलिए कांग्रेस
को भाजपा-संघ के क्रमश: बढ़ते हिंदुत्व और
उग्र राष्ट्रवाद के एजेण्डे के मुकाबिल अपने राजनैतिक मूल्य, जिसे
वह 'आयडिया ऑफ इण्डिया' कहती
है, खड़े करने चाहिए थे, जिसमें
वह पूरी तरह विफल रही. उसकी सबसे बड़ी गलती यह है कि वह अपनी विरासत छोड़कर उदार
हिंदुत्त्व के चोले से इस बड़ी चुनौती का सामना करने की राह पर चल पड़ी.
यह एकाएक
नहीं हुआ. पिछले कोई चालीस साल से जैसे-जैसे संघ की समाज में पैठ बढ़ती गयी, वैसे-वैसे
कांग्रेस में अपनी विरासत से विचलन के लक्षण दिखाई देने लगे थे. संघ के लिए कोई
चुनौती नहीं रही.
कांग्रेस
क्या थी, भारत के बारे में उसका क्या विचार था, यह
आज की पीढ़ी को पता ही नहीं और आज की कांग्रेस उसे समझा पाने में पूर्णत: विफल है.
बल्कि, यह संदेह होता है कि क्या कांग्रेस का नया नेतृत्व स्वयं
उस ‘कांग्रेसियत’ को समझता है?
1980-90 के
दशकों से जो पीढ़ी बड़ी हुई उसने शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में राम मंदिर अभियान के
दौरान कांग्रेस को पथ-विचलित होते और समर्पण करते देखा. उसके बाद से कांग्रेस
मूल्यों की भटकन का ही शिकार होती चली गयी.
शाहबानो
प्रकरण में के रूप में एक प्रगतिशील कदम उठाने का शानदार मौका तत्कालीन
प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिला था लेकिन उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथियों के
सामने समर्पण कर दिया. फिर इसका संतुलन साधने के लिए उन्होंने हिंदू कट्टरपंथियों
को खुश करने के वास्ते अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और राम मंदिर के
लिए भूमि-पूजन की अनुमति दे दी.
इन दो
ऐतिहासिक गलतियों से कांग्रेस ने अपने और देश के लिए भी भस्मासुर खड़े कर लिए.
आरएसएस (संघ) को वह मौका मिल गया जिसकी वह वर्षों से तलाश में था. कट्टर हिंदुत्व
की राजनीति विकराल होती गयी. मुस्लिम-तुष्टीकरण के आरोप दिमागों में पैठ बनाने लगे
थे. नयी पीढ़ियों ने राजनीति के इसी बदले माहौल में आँखें खोलीं. उन्हें इस नयी
राजनीति और कांग्रेस या देश की विरासत का अन्तर बताने-समझाने वाला नेतृत्व
धीरे-धीरे नदारद होता गया.
राजनैतिक
परिदृश्य में जो निर्वात पैदा हुआ उसे हिंदुत्व की राजनीति के नये और आक्रामक
पैरोकारों ने बहुत तेजी से भर लिया. हिंदुत्त्व के ‘मुखौटों’ को
नेपथ्य में धकेल कर मुखौटाविहीन नेताओं ने भाजपा पर कब्जा कर लिया. नरेंद्र मोदी
की 2104 की जीत भ्रष्ट यूपीए शासन से परेशान जनता की नयी उम्मीदों का परिणाम था, जिसे
नयी राजनीति में पलती पीढ़ियों ने उत्साहपूर्वक सिर-माथे बिठा लिया. सन 2019 की
प्रचण्ड विजय उस आक्रामक हिंदुत्त्ववादी राजनीति का अखिल भारतीय विस्तार है, जिसमें
विकास के नारे और गरीबों के लिए कार्यक्रमों की चाशनी बड़ी खूबी से घोली गयी है.
क्या यह
चौंकाने वाली बात नहीं है कि इतने विशाल और विविधताओं वाले देश में 'सेकुलरिज्म' इस
चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं था? हिंदुत्त्व
की राजनीति इतनी प्रबल हो गयी है कि राजनैतिक दलों को इस शब्द से डर लगने लगा है. वाम
दल और समाजवादी हाशिए पर चले गये और कांग्रेस नेताओं ने स्वयं हिंदू बाना धारण कर
लिया. भारत की विरासत अनाथ-सी हो गयी. 'आयडिया ऑफ
इण्डिया' खतरे में क्यों नहीं होगा.
नयी पीढ़ी
यदि मोदी की दीवानी हो गयी है तो इसलिए कि उसे अपनी बहुलतावादी राजनीतिक विरासत की
खूबियों के बारे में कुछ पता ही नहीं और बताने वाले नेता हैं नहीं. नेहरू की 'गलतियों' को
भाजपा ने खूब प्रचारित किया लेकिन हैएअत हौ कि नेहरू के ऐतिहासिक योगदान को नयी
पीढ़ी तक पहुँचाने में कांग्रेस सर्वथा अक्षम साबित हुई? इतने
व्यापक दुष्प्रचार का प्रतिकार करने की कोशिश तक नहीं हुई.
खतरनाक
समय और कठिन चुनौतियाँ
पिछले पाँच
साल से भारतीय समाज का बहुलतावादी ढाँचा जो खतरे झेल रहा था, वे
अब और बढ़ गये हैं. चुनाव नतीजे आने के बाद से ही भीड़-हिंसा की खबरें आने लगी हैं.
भोपाल, दिल्ली और कुछ स्थानों पर बीफ ले जाने का आरोप लगाकर
निर्दोष लोगों की पिटाईऔर गोल टोपी उतार कर ‘जय
श्रीराम’ के नारे लगवाने जैसी वारदात हुई हैं. प्रचण्ड बहुमत के
नशे में हिंदू संगठनों का यह उत्पात और बढ़ेगा ही. गोरक्षकों की बेलगाम फौज सड़कों
पर निकलेगी.
‘सिकुलरों’, ‘अर्बन
नक्सलियों’, 'अवार्ड वापसी गैंग' और ‘टुकुड़े-टुकुड़े
गैंग’ के खिलाफ सोशल साइट्स पर और सार्वजनिक रूप से भी हमले
बढ़ेंगे. प्रतिरोध के इन स्वरों की देशद्रोही बताकर पहले ही काफी लानत-मलामत की जा
रही थी. अब यह देखकर कि ‘फासीवाद’ के जिस खतरे
के प्रति ये जनता को आगाह करते रहे, उसका
मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा, इन पर आक्रमण
तेज हो जाएंगे.
मुख्य धारा
के मीडिया का बड़ा हिस्सा,
जो पिछले पाँच
वर्ष में ‘गोदी मीडिया’ का विशेषण
पा चुका है, अब और बेशर्म हो उठेगा. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल
में यह मीडिया और भी रेंगेगा. मीडिया जो कुछ हिस्सा सवाल पूछने और जनता के जरूरी
मुद्दे उठाने की कोशिश करता रहा है, उस पर दवाब
और बढ़ेगा. मोदी और शाह ऐसे मीडिया के लिए बिल्कुल दुर्लभ हो जाएंगे. दूसरी तरफ
उनके गद-गद साक्षात्कार यदा-कदा दिखाई देंगे.
अपनी
स्वायत्तता खो रही संवैधानिक संस्थाओं में दखलंदाज़ी अब बेरोकटोक होगी. चुनाव आयोग
की विवादास्पद भूमिका हमने इन चुनावों में देख ही ली है. इतिहास, विज्ञान, साहित्य, कला, आदि
की संस्थाओं पर अवैज्ञानिक सोच वाले संघी लोगों का पूरा दबदबा हो जाएगा.
राजनैतिक और
सामाजिक स्तर पर प्रतिपक्ष के लिए जनता को यह समझाना बहुत मुश्किल होगा कि भारतीय
समाज और लोकतंत्र किस तरह खतरे में है. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से सम्मोहित की जा
चुकी जनता की आंखें खोलने का काम बहुत चुनौतीपूर्ण हो गया है. सोशल साइटों और जनता
के बीच सक्रिय रहने वाले प्रतिरोधी सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, स्वयंसेवी
संगठनों, आदि की आवाज़ दबाने, उनकी
गिरफ्तारी की घटनाएँ और बढ़ेंगी.
वैसे, भारतीय
समाज और लोकतंत्र में अभी काफी ताकत है. वह इतनी आसानी से फासीवाद के किसी
प्रच्छन्न अभियान से कुचला नहीं जा सकेगा लेकिन खतरे बढ़ गये हैं. उसी अनुपात में
स्वतंत्रता, समानता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे संवैधानिक मूल्यों
के समर्थकों-रखवालों की चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं.
रास्ता
क्या है?
भाजपा की
राजनीति की उदार नकल से उसकी राजनीति का मुकाबला नहीं किया जा सकता. उसके सामने बेहतर राजनीति खड़ी करनी होगी, जनता
को बताना होगा कि भारत जैसे विविधता वाले देश के लिए ‘एक
देश, एक धर्म, एक संस्कृति’ वाला
राष्ट्रवाद क्यों खतरनाक है, कि
गांधी-नेहरू-आम्बेडकर की विरासत क्या है. और, ऐसा
करने के लिए जन-जन तक प्रभावी तरीके पहुँच सकने वाला संगठन बनाना होगा.
स्वराज
पार्टी के योगेंद्र यादव पिछले कुछ समय से देश में कई जगह यह पूछ रहे हैं कि आरएसएस 90 साल से हिंदुत्त्व और
सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद के लिए सघन अभियान चलाए हुए है. बड़े धैर्य से उसका संगठन
अपना विस्तार करता रहा है,
जनता को अपना
एजेण्डा समझाता रहा है लेकिन क्या हमने (मतलब, इस
देश की बहुलता में विश्वास करने वाले दलों, संगठनों
ने) जनता के साथ 90 दिन भी बिताए?
यह बहुत
महत्त्वपूर्ण बात है. हिंदुत्त्व की राजनीति का इतना विस्तार न हुआ होता यदि संघ
के समर्पित गणसेवकों का जाल जन-जन तक न फैला होता. वे उड़ीसा,
त्रिपुरा और उत्तर-पूर्व के राज्यों में आदिवासियों के बीच दो-दो, तीन-तीन
साल तक रहकर अपना काम करते हैं. पश्चिम बंगाल के सुदूर गाँवों में चुपचाप फैलकर
रामनवमी और हनुमान जयंतियों के आयोजन करते-करवाते हैं, वे
शाखाओं में संघ की नयी-नयी पौध तैयार करते हैं.
मोदी की आज
की प्रचण्ड विजय में इस फौज का बहुत बड़ा हाथ है. यह एक दिन में नहीं हुआ. वर्षों
की मेहनत का परिणाम है. इसलिए इसकी काट भी एक दिन में यानी भाजपा के विरुद्ध विपक्षी
मोर्चा बनाकर नहीं किया जा सकता. इसका प्रतिकार करने के लिए उनकी जैसी ही तैयारी और
संगठन चाहिए. वह कांग्रेस करे या कोई गठबंधन, काम
उसी स्तर पर करना होगा.
चूंकि भारत
में पंथ-निरपेक्ष बहुलतावाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, इसलिए
उस विचार को आज के जन-मानस में बैठाने के लिए उतना लम्बा वक्त नहीं लगना चाहिए
जितना संघ-परिवार को लगा.
‘आयडिया ऑफ इण्डिया’ को
बचाने के लिए भाजपा को सत्ता से अपदस्थ करना ही नहीं, समाज
में घोल दिये गये जहर का ‘एंटीडोज़’ देना भी
बहुत जरूरी है. इसके लिए हर स्तर पर प्रतिरोधी स्वरों को और ऊँचा, और
तेज करना होगा. प्रगतिशील विचार वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं हर विधा में सक्रिय
बुद्धिजीवियोंकी सक्रियता महत्त्वपूर्ण हो गयी है.
(नैनीताल समाचार, 01-15 जून, 2019)