Friday, June 28, 2019

मरी गोमती के लिए घड़ियाली आँसू क्यों?


अभी जिस दिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की मॉनीटरिंग कमिटी ने गोमती नदी को इतनी ज़्यादा प्रदूषित बताया कि उसका पानी पीना और उसमें नहाना तो दूर, उसके किनारे टहलने से भी मनुष्य बीमार पड़ सकते हैं, उस दिन से फिर गोमती चिंता और चर्चा के केंद्र में हैं. ऐसा बीच-बीच में होता रहता है. कभी नदी में ऑक्सीजन इतनी कम हो जाती है कि मछलियाँ तक मर जाती हैं. कभी किसी की नज़र खुले नालों के सीधे नदी में गिरने पर पड़ जाती है. तब गोमती की चिंता में आँसू बहाए जाते हैं. शासन-प्रशासन से लेकर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, एनजीओ  और संवेदनशील नागरिक तक कुछ हरकत में आते हैं. बयान दिए जाते हैं, घोषणाएँ की जाती हैं, स्वयंसेवा होती है. कुछ दिन बाद सब गोमती को भूल जाते हैं. गोमती का मरना फिर शुरू हो जाता है.

आखिर इस रिपोर्ट में चौंकने वाले बात क्या है कि गोमती नदी में ऑक्सीजन शून्य हो चुकी है और घातक बैक्ट्रीरिया 10 हज़ार गुणा बढ़ गए हैं? अब तो इसे नदीकहना अपने को और सम्पूर्ण प्रकृति को ठगना है. केंद्र से लेकर राज्य सरकार और उसके प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा नगर निगम तक सबको पता है कि खुले नाले शहर का मल सीधे गोमती में गिराते हैं. वे पहले भी इसी तरह गिरते थे, आज भी खुले आम गिर रहे हैं और निकट भविष्य में उनके बंद होने या एसटीपी से साफ होने की कोई सम्भावना नहीं है.

वे सब यह भी जानते हैं कि पिछले कई वर्षों में नदी की सफाई के बहाने अरबों-खरबों रु बहा दिए गए हैं. पहले गंगा एक्शन प्लानऔर अबनमामि गंगेपरियोजना के अंतर्गत गोमती नदी को निर्मल बनाने के नाम पर भारी-भरकम बजट फूका जा चुका है. कितने वर्ष से हम एसटीपी का शोर सुन रहे हैं. नालों का पानी साफ करके ही नदी में डाला जाए, इस पर कितनी ही सरकारों के कितने ही मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों की घोषणाएँ हम सुनते-पढ़ते रहे हैं. बड़े-ब‌ड़े दावों के बीच शहर का मल-मूत्र नालों से सीधे गोमती में गिरना जारी रहा.

एनजीटी ने यह मॉनीटरिंग कमिटी चूँकि हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित की है, इसलिए रिपोर्ट में खरी-खरी कही गई है. सरकारी समितियाँ तो सिर्फ सच्चाई पर पर्दा डालने का काम करती हैं. इस कमिटी की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि गोमती की इस दुर्दशाके लिए राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और आला अधिकारियों की दायित्वहीनता ज़िम्मेदार है. प्रदेश सरकारों को सीधे ज़िम्मेदार बताया गया है क्योंकि नदी का प्रदूषण कम करने के लिए उन्होंने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया. इशारा तो यह भी किया गया है कि मॉनीटरिंग कमिटी अपना काम ठीक से न कर पाए, इसके लिए अड़ंगे लगाए गए.

नदियों को गंदे नाले और कचरा ही प्रदूषित नहीं करते. नदी को ज़िंदा रहने के लिए उसका पूरा पर्यावरण चाहिए. जल-ग्रहण क्षेत्र अवैध कब्जों से मुक्त हो, घास-पत्ती और पेड़-पौधे हों, उसके प्राकृतिक जल-स्रोत अबाध हों, मानव-हस्तक्षेप न्यूनतम हो, आदि-आदि. इस हिसाब से गोमती कबके मृतप्राय हो चुकी. पिछली अखिलेश सरकार ने गोमती रिवर फ्रण्ट के नाम पर नदी को कंक्रीट की विशाल दीवारों में बांध कर बिल्कुल ही मार दिया.

नदी के ज़िंदा रहने की शर्त यह है कि उसके दोनों ओर डेढ़-दो सौ मीटर के दायरे में प्रकृति से कोई छेड़-छाड़ न हो. वहाँ  किसी निर्माण का सवाल ही नहीं था.  शहर का कचरा शोधित किए बिना उसमें न बहाया जाए, यह काम बहुत मुश्किल नहीं था. किसी ने ज़िम्मेदारी के साथ यह काम किया क्या?

शासन-प्रशासन से अब भी कोई आशा बची है क्या?

(सिटी तमाशा, नभाटा, जून 29, 2019) 
   

     


Thursday, June 27, 2019

क्षेत्रीय क्षत्रपों का नया संकट



नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की प्रचण्ड विजय ने न केवल मुख्य विरोधी दल कांग्रेस को हतप्रभ किया है बल्कि भाजपा-विरोध का झण्डा उठाए ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के पैरों तले की ज़मीन भी खिसका दी है. ये दल पराजय से उबरने और नए सिरे से उठ खड़े होने की बजाय और भी बिखर रहे हैं. उनके खेमे में हताशा ही नहीं, भगदड़ भी मची है. आने वाले चुनावी अखाड़ों में उनके सामने जहाँ  भाजपा का तगड़ा पहलवान होगा, वहीं उनका अपना पहलवान बाहरी-भीतरी दाँवों से अभी से चित दिख रहा है.

दूसरी तरफ वे प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता, जिन्होंने मोदी-विरोध का परचम नहीं उठा रखा था या जो भाजपा की तरफ झुके हुए थे, उनके खेमे सकुशल और आनंद में हैं. न उनके सेनानी पाला छोड़कर भाग रहे हैं, न ही बाहरी ताकतें वहाँ सेंध लगा रही हैं.

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन, बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू मोदी को दोबारा सत्ता में न आने देने के लिए सबसे ज़्यादा कमर कसे हुए और मुखर थे. लोक सभा चुनाव में इन सबने ही मुँह की खाई. कहने को ममता बनर्जी ठीक-ठाक सीटें जीतने में कामयाब रहीं लेकिन भाजपा ने उनके किले में अप्रत्याशित रूप से भारी सेंध लगा दी है. सपा-बसपा गठबंधन पूरी तरह विफल रहने के बाद टूट चुका है और मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा बनाने में सक्रिय रहे चंद्रबाबू नायडू के पैर अपनी ज़मीन से उखड़ गए हैं.

चुनाव सम्पन्न होने के बावज़ूद इन क्षत्रपों की विपदाओं का अंत नहीं हुआ, बल्कि बढ़ गया है. मोदी के खिलाफ दहाड़ने वाली बंगाल की शेरनीसबसे ज़्यादा संकट में हैं. उनके छह विधायक, नगरपालिकाओं के दर्ज़नों सदस्य और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं. यह सिलसिला जारी है. बिना चुनाव लड़े भाजपा बंगाल में पहली बार एक ज़िला पंचायत में बहुमत हासिल कर चुकी है. यह संकेत है कि तृणमूल कांग्रेस में भारी हाला-डोला मचा है.

बंगाल में दो साल बाद विधान सभा चुनाव होने हैं. ममता परेशान हैं कि भाजपा से अपना साम्राज्य बचाने के लिए वे क्या करें. यह विडम्बना ही है कि जिन हथकण्डों से उन्होंने बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का सफाया किया, वैसे ही हथकण्डे भाजपा उनके साथ आज़मा रही है. उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा. कभी वे आरएसएस के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बंगाली अस्मिता से जोड़ने का दाँव खेलने की कोशिश कर रही हैं और कभी जय श्रीरामके ज़वाब में जय माँ कालीका नारा उछालने का बचकाना प्रयास करती दिख रही हैं.

ममता की तरह ही राजनैतिक चक्रव्यूह में फंसे हुए सपा और बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष क्रमश: अखिलेश यादव और मायावती भी हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए उन्होंने जो गठबंधन किया, वह विफल रहा. इस तथ्य के बावज़ूद कि देश के सबसे बड़े राज्य में भाजपा को चुनौती दे सकने वाली आज भी यही दो पार्टियाँ हैं, मायावती ने हार की ज़िम्मेदारी सपा पर डालते हुए गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया है. पहले तय था कि आगामी विधान सभा चुनाव तक गठबंधन कायम रहेगा. अब दोनों आने वाले चुनावों में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकेंगे. यह स्थिति भाजपा के लिए परम सुखदायक है.

मायावती अपने भाई-भतीजे को पार्टी की ज़िम्मेदारियाँ देकर दलितों में अपनी पकड़ फिर मज़बूत बनाना चाहती हैं लेकिन बदली परिस्थितियों और मतदाताओं के नये वर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप राह चुनने की शायद नहीं सोच रहीं.

अखिलेश यादव से ज़्यादा ठगा हुआ और कोई नेता आज अनुभव नहीं कर रहा होगा. उन्होंने मायावती का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार ही इसलिए किया था कि भाजपा को हराने के लिए जिन दलित वोटों का सहारा मिलेगा वे आगे भी उनकी राजनीति के सारथी बनेंगे. उनके लिए तो माया मिली न रामवाली स्थिति है. परिवार और चाचा से अखिलेश ने वैर लिया, पिता को किनारे किया, विपरीत सलाह के बावज़ूद बसपा से तालमेल किया और हाथ कुछ आया नहीं. उनके लिए आगे की राह कठिन और अनिश्चित है, यद्यपि उनके पास लम्बी पारी है.

और, चंद्रबाबू नायडू? पिछले साल तक एनडीए में मोदी के साथ रहे नायडू ने आंध्र की राजनीति का गणित लगाकर न केवल मोदी का साथ छोड़ा, बल्कि उनके खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए एक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा बनाने की सक्रियता दिखाई. आज वे अपने राज्य में लगभग पैदल हैं. तेलुगु देशम के छह में से चार राज्य सभा सदस्य भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गए और नए मुख्यमंत्री जगन रेड्डी उनकी की बनाई इमारत तक तोड़ने पर उतारू हैं. जगन ने जैसा समर्थन पाया है, उसे देखते हुए नायडू को राज्य में अपना आधार बचाने के लिए बहुत पापड़ बेलने होंगे.

उधर, तीन प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता ऐसे हैं जिन्होंने चुनावों में मोदी विरोध को अपनी राजनीति का केंद्र नहीं बनाया था. उड़ीसा में नवीन पटनायक, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी ने या तो भाजपा के प्रति नरम रुख रखा या कांग्रेस एवं भाजपा से बराबर दूरी बनाए रखी. इन्होंने नई स्थितियों में  मतदाता को समझने में सफलता पाई. ये तीनों ही अपने-अपने राज्यों में निश्चिंत होकर शासन चला रहे हैं. उनकी पार्टियों में कोई भितरघात नहीं है, कोई पार्टी छोड़ कर नहीं जा रहा, किसी तरह की खरीद-फरोख्तकी शिकायत भी उनकी तरफ से नहीं आ रही.

तो क्या रह निष्कर्ष निकाला जाए कि मोदी-विरोधी क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी राजनीति की कीमत चुकानी पड़ रही है और भाजपा से बैर नहीं पालने वाले नेता इसी कारण अपने राज्यों में निश्चिंत हैं? यह तो साफ है कि जो क्षेत्रीय क्षत्रप धारा के विरुद्ध तैरे या जो जनता का मन समझ नहीं पाए या जो अपनी राजनीति के कैदी रहे, उन्हें मुँह की खानी पड़ी.

ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव और नायडू को अपने-अपने राज्यों में प्रासंगिक और प्रभावशाली बने रहने के लिए अपनी राजनीति बदलनी होगी क्योंकि मतदाता बदल रहा है. कभी हैदराबाद को आईटी सिटी बनाने के लिए ख्यात नायडू को सोचना होगा कि मतदाता ने उन्हें हाशिए पर क्यों धकेला. बेवजह गरजने की बजाय ममता को इस पर मंथन करना चाहिए कि 2011 में वाम गढ़ ध्वस्त कर तृणमूल कांग्रेस को सत्ता सौपने वाला बंगाल अब उनसे क्यों रूठ रहा है. मायावती और अखिलेश की निगाह अपने जातीय वोट बैंक के भीतर उभरते महत्वाकांक्षी युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर होनी चाहिए.  

पारम्परिक वोट बैंक के सहारे आगे की नैया आसानी से पार नहीं होगी. अगले विधान सभा चुनावों तक उनके पास पर्याप्त समय है. 

(प्रभात खबर, 27 जून, 2019)  
  

Friday, June 21, 2019

गुस्सा डॉक्टरों पर नहीं, व्यवस्था पर निकालिए


मरीज की मौत पर लापरवाही या गलत इलाज का आरोप लगाकर किसी झोला छाप या फर्जी डॉक्टर की पिटाई की खबर आज तक नहीं सुनी. अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं के अभाव, निदान एवं इलाज के लिए ज़रूरी मशीनों/उपकरणों की कमी या खराबी, डॉक्टरों की कमी, दवाइयों की अनुपलब्धता, आदि पर तीमारदारों का गुस्सा नहीं फूटता. अस्पतालों की बदहाली और स्वास्थ्य क्षेत्र के अत्यल्प बजट पर कभी आंदोलन तो छोड़िए, किसी मंत्री या विधायक का घेराव होते भी नहीं सुना. पीएचसी-सीएचसी की बदहाली और बंदी पर सिर्फ लाचारी सुनाई देती है, पब्लिक को गुस्सा नहीं आता.

गुस्सा आता है डॉक्टरों पर. इलाज में देरी या गड़बड़ी का आरोप लगाकर डॉक्टरों पर हमले की खबरें बराबर आती हैं और बढ़ती जा रही हैं. हाल में बंगाल में डॉक्टरों पर हुए घातक हमले के बाद देश भर के डॉक्टरों ने हड़ताल की. डॉक्टरों की हर समय कितनी ज़रूरत होती है, यह उनकी हड़ताल के दौरान ही समझ में आता है. एक ही दिन में त्राहि-त्राहि मच जाती है. सबसे ज़्यादा भुगतना आम मरीजों को होता है. इसलिए डॉक्टरों की हड़ताल की निंदा भी खूब होती है. डॉक्टरों का तर्क होता है कि हड़ताल के बिना न किसी का इस समस्या पर ध्यान जाता है न कोई सुनवाई होती है.

इस समस्या के कई पहलू हैं. निदान में कभी चूक या लापरवाही हो सकती है लेकिन ऐसा कोई डॉक्टर नहीं होगा जो पैसा कमाने के लिए मरीज की जान लेता हो. निजी नर्सिंग होमों में मरीजों से इलाज और जाँच के नाम पर लूट के मामले भी सामने आते हैं लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ भी किसी की जान लेने की साजिश की जाती हो. पैसा खूब खर्च होता है लेकिन स्वस्थ होकर घर जाने वाले मरीजों की संख्या मौतों की संख्या की तुलना में बहुत अधिक होती है.

सरकारी अस्पतालों  में जूनियर डॉक्टरों पर काम के दवाब की चर्चा भी इस संदर्भ में होती है. एक-एक रेजिडेण्ट डॉक्टर लगातार चौबीस घण्टे या उससे भी ज़्यादा ड्यूटी करते हैं. अधिकतर गम्भीर मरीज इधर-उधर इलाज कराने के बाद निराश होकर सरकारी अस्पतालों, संस्थानों में पहुँचते हैं. अक्सर देर हो चुकी होती है. तीमारदार गम्भीरता नहीं समझते या उन्हें बताया नहीं जाता. मीडिया भी बिना विशेषज्ञ जानकारी के गलत इलाज’, ‘लापरवाहीऔर उपेक्षाकी खबरें छापता-दिखाता है.

जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है उसकी चर्चा बहुत कम होती है. हमारी सरकारों ने चिकित्सा व्यवस्था को बदहाल बना रखा है. 2018 के आँकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर उत्तर प्रदेश सरकार मात्र 733 रु और बिहार सिर्फ 491 रु प्रति व्यक्त्ति सालाना खर्च करते हैं. 2018 के आँकड़ों के अनुसार इसका राष्ट्रीय औसत 1108 रु है. प्रति व्यक्ति डॉक्टर और अस्पताल भी अत्यंत कम हैं. भूटान, श्रीलंका और नेपाल हमसे कहीं बेहतर हैं.

स्वाभाविक है कि अस्पतालों में हर चीज की कमी है और आबादी की भरमार. ऐसे हालात हैं ही नहीं कि डॉक्टर चाह कर भी मरीजों को पर्याप्त समय और बेहतर सेवा दे सकें. सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और वीआईपी कल्चर ने हालात और खराब किए हैं. निजी अस्पतालों की बाढ़ के बावजूद सरकारी अस्पतालों, संस्थानों में ही अच्छा इलाज उपलब्ध है.

हाँ, डॉक्टर दूध के धुले भी नहीं हैं. और सेवाओं की तरह इस पेशे में भी बेईमानी, लापरवाही, लालच, आदि व्याप्त है लेकिन अपवादों के आधार पर पूरे पेशे को बदनाम नहीं किया जा सकता. रोड-रेजकी तरह हॉस्पीटल-रेजसे डॉक्टरों की सेवा पाना और कठिन होता जाएगा.  गुस्सा निकालिए तो इस व्यवस्था पर.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 22 जून, 2019)

Saturday, June 15, 2019

गरीब-गुरबों पर मेट्रो थोपना तुगलकी फैसला


लखनऊ मेट्रो के उद्घाटन पर जब इस शानदार सवारी और बेहतरीन निर्माण की चौतरफा तारीफ हो रही थी तो हमने इसी स्तम्भ में कुछ शंकाएं उठाई थीं.  मुख्य शंका यह थी कि लखनऊ जैसे शहर में जहां दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करने वाले लोग बहुतायत में है, क्या वहाँ महंगी मेट्रो को पर्याप्त सवारियाँ मिल पाएंगी?
उद्घाटन के बाद कुछ समय तक शौकिया सवारियों से मेट्रो गुलजार रही लेकिन धीरे-धीरे सवारियाँ कम होने लगीं. इन दिनों हालत यह है कि अमौसी से मुंशी पुलिया मार्ग पर ज़्यादातर हिस्से में मेट्रो में बहुत ही कम सवारियाँ दिखाई दे रही हैं. भारी-भरकम रकम खर्च करके खूब सवारियाँ न मिलें और सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल कम न हो तो क्या फायदा?  

यह देखते हुए मेट्रो प्रशासन ने यात्री बढ़ाने के उपाय खोजने शुरू किए. पहले उन्होंने मेट्रो रूट के आस-पास वाले इलाकों से मेट्रो स्टेशनों तक शटल सेवाएं चलाने की कवायद की. एक तो यह प्रयास कारगर नहीं हुआ, दूसरे इससे सवारियाँ बढ़ने के लक्षण नहीं दिखाई दिये. तब जिला प्रशासन को एक नायाब सुझाव दे डाला कि मेट्रो रूट पर ऑटो-टेम्पो चलाना बंद कर दिया जाए ताकि इस व्यस्त मार्ग की सवारियाँ मजबूरी में मेट्रो से सफर करें. बीते मंगलवार को जिला प्रशासन ने इस क्रूर फैसले पर मुहर लगा दी है.

ऑटो-टेम्पो वालों की यूनियन है. इसलिए उनकी आपत्ति सुन ली गयी. कहा जा रहा है कि इस रूट पर चलने वाले ऑटो-टेम्पो को नये रूट दिये जाएंगे. लेकिन जनता की कोई यूनियन नहीं है, इसलिए उसकी तरफ से बोलने वाला कोई नहीं है. अमौसी-मुंशीपुलिया मार्ग पर ऑटो-टेम्पो बंद होने से आम जनता कितनी परेशान होगी और मेट्रो में ही चलने की बाध्यता उनकी कितनी जेब काटेगी, इसका अंदाज़ा न मेट्रो के कर्ता-धर्ता लगाना चाहेंगे न जिला प्रशासन को इसमें दिलचस्पी है. परिवहन विभाग के अनुसार ही इस मार्ग पर रोजाना करीब छह लाख लोग साढ़े तीन हजार ऑटो-टेम्पो से चलते हैं.

असल बात यह है कि मेट्रो अत्यधिक महंगी परियोजना है और वह लखनऊ जैसे छोटेशहरों के लिए कतई उपयुक्त नहीं है. जी हाँ, मेट्रो के लिहाज से लखनऊ छोटा ही कहलाएगा. लखनऊ ,इलाहाबाद, गोरखपुर, कानपुर, बनारस, आदि शहरों को भी जरूरत सस्ती, सुलभ और नियमित बस सेवा की है, जिस पर सरकारों का कतई ध्यान नहीं है.

लखनऊ में नव-धनाढ्यों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें सार्वजनिक परिवहन नहीं चाहिए. मध्य-वर्ग के जो लोग मेट्रो की सवारी कर सकते हैं उन्हें अपने वाहन से चलने का सार्वभौमिक नशा है. बाकी बचे गरीब-गुरबे, जिनकी संख्या सबसे ज़्यादा है, बल्कि एक तरह से शहर ही उनका है, वे बस के इंतज़ार में घण्टों बैठे रहते हैं या सस्ते ऑटो-टेम्पो का सहारा लेते है. उन्हें आलीशान मेट्रोनहीं, सस्ती एवं अच्छी बस सेवा चाहिए.

मेट्रो को आम परिवहन का माध्यम बनाना है तो उसे इतना सस्ता बनाइए कि गरीब-गुरबे भी यात्रा कर सकें. महंगा सौदा है तो सब्सिडी बढ़ाइए. चुनाव जीतने के लिए कितनी ही मुफ्तिया चीजें दी जाती हैं. मेट्रो को सस्ता क्यों नहीं कर सकते? अन्यथा, मेट्रो हमारे शहरों के लिए अभी कई साल तक आम परिवहन का माध्यम नहीं बनने वाली. वह खाली ही चलेगी और भारी घाटे में. हमें पूरी आशंका है कि लखनऊ मेट्रो का अगला फेज निकट भविष्य में शायद ही शुरू हो.

शहर के छह लाख आम लोगों को प्रतिदिन सस्ती ऑटो-टेम्पो सेवा से वंचित कर मेट्रो से चलने के लिए बाध्य करके प्रशासन बड़ा अत्याचार करने जा रहा है. यह तुगलकी फैसला है. सड़कों को अराजक टेम्पो-ऑटो, ई-रिक्शा और निजी बसों की रेलमपेल से बचाना है तो सस्ती, सुलभ और नियमित बस सेवा दीजिए या मेट्रो को सस्ता बनाइए.

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 15 जून, 2019)

Wednesday, June 12, 2019

कांग्रेस अब क्योंं ज़्यादा ज़रूरी है



लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए आवश्यक है कि सशक्त विपक्ष मौजूद हो. सत्तारूढ़ दल के पास प्रचण्ड बहुमत हो तो उसकी आवश्यकता और बढ़ जाती है ताकि सत्ता के निरंकुश होने की सम्भावना टाली जा सके. सशक्त विपक्ष बहुमत वाली सरकार को संविधान की मंशा के दायरे में ही कार्य करने के लिए नकेल का काम करता है.

2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी एक कल्टके रूप में उभरे हैं. उन्हीं की छवि से अकेले भाजपा को तीन सौ से ज़्यादा और एनडीए को साढ़े तीन सौ सीटें मिली हैं. देश के अधिसंख्य राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं. राज्य सभा में अभी सत्तारूढ़ दल बहुमत में नहीं है लेकिन एक साल में यह भी उसे हासिल हो जाएगा. तब सरकार अपने मनचाहे विधेयक पारित करा सकती है.

इन हालात में सशक्त विपक्ष की बड़ी जरूरत है जो न केवल सरकार पर चौकस निगाह रख सके बल्कि स्वस्थ और रचनात्मक आलोचना से उसकी सहायता भी कर सके. आज हमारे पास सशक्त विरोधी दल तो छोड़िए, लोक सभा में आधिकारिक प्रतिपक्ष के रूप में भी कोई पार्टी नहीं है. ले-दे कर कांग्रेस है लेकिन वह 2014 में जीती मात्र 44 सीटों को इस बार 52 तक ही ले जा सकी. ये उतनी भी सीटें नहीं हैं कि लोक सभा में उसके नेता को प्रतिपक्ष के नेता का संवैधानिक दर्जा मिल सके.

यहाँ यह भी कहना है कि संख्या बल ही सशक्त विपक्ष की गारण्टी नहीं है. नेहरू-युग में जब कांग्रेस बहुत ताकतवर थी और कोई दूसरा राष्ट्रीय दल उनके आस-पास भी नहीं था, तब विपक्ष के कई धुरंधर नेता अकेले दम कांग्रेस सरकार पर अंकुश रखने में सफल थे. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद उसी दौर की उपज था. 1971 की प्रचण्ड विजय के बाद जब इंदिरा गांधी निरंकुश होती गईं और 1975 में उन्होंने देश पर आपातकाल थोप कर संविधान को निलम्बित कर दिया तब छोटे-छोटे दलों ने एक होकर उन्हें जबर्दस्त चुनौती दी और सत्ता से बाहर किया. कांग्रेसी वर्चस्व को संयुक्त विपक्ष की सशक्त चुनौतियाँ मिलने के एकाधिक उदाहरण ताज़ा इतिहास में हैं.

क्या आज कांग्रेस इस स्थिति में है कि वह मोदी सरकार को, जो और भी शक्तिशाली होकर सत्ता में लौटी है, संसद से सड़क तक चुनौती दे सके?  पिछले दिनों राहुल गांधी ने कहा था कि हमारे 52 एमपी मोदी सरकार को चैन से बैठने नहीं देने के लिए काफी हैं. ऐसा हो सके तो लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण ही होगा लेकिन क्या आज कांग्रेस की हालत को देखते हुए उनकी बात पर भरोसा होता है?

सोलहवीं लोक सभा में जब कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई थी तो कहा गया था कि वह अपने सबसे कठिन दौर में है. सत्रहवीं लोक सभा में उसके आठ और सांसद जीत कर आ गये. इसके बावजूद कांग्रेस अब कहीं ज़्यादा गम्भीर संकट से गुजर रही है. देश की यह सबसे पुरानी और गहरी जड़ों वाली पार्टी फिर कैसे खड़ी होती है, यह समय बताएगा लेकिन फिलहाल तो खुद पुराने खांटी कांग्रेसी नेता पार्टी के भविष्य के प्रति चिंतातुर हैं.

वरिष्ठ कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली ने चंद रोज पहले यूँ ही नहीं कहा कि राहुल गांधी या तो पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा वापस लें या कोई सुयोग्य विकल्प दें लेकिन कांग्रेस के भीतर का असंतोष तत्काल दूर करने के उपाय करें. उनकी और दूसरे कांग्रेसी नेताओं की चिंता के पर्याप्त कारण हैं. तेलंगाना में कांग्रेस के 12 विधायक सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो गये. महाराष्ट्र में कांग्रेस विधायक दल में टूट के आसार हैं. कर्नाटक में कांग्रेस के भीतर कबसे घमासान मचा है, विधायक पाला-बदल कर रहे हैं और जद (एस) गठबन्धन तोड़ने की धमकी तक दे चुका है.

राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलौत और उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट खुलेआम लड़ रहे हैं. मध्य प्रदेश और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों को खुद कांग्रेसी विधायक कब अल्पमत में ले आएं, कहा नहीं जा सकता. एकमात्र कांग्रेसी राज्य पंजाब में, जो मोदी लहर को रोकने में कामयाब रहा, कांग्रेस के भीतर लड़ाई चल रही है. उत्तर- पूर्व के राज्यों में ज़्यादातर पुराने कांग्रेसी पार्टी छोड़ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में दो साल से पूर्णकालिक कांग्रेस अध्यक्ष नहीं है. बिहार में भी विधायक दल में असंतोष की खबरें आती रहती हैं. जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, झारखण्ड सभी जगह आपसी लड़ाइयाँ हैं. कोई एक राज्य ऐसा नहीं दिखता जहाँ कांग्रेस आज बेहतर संगठन और सक्रियता के लिए जानी जाती हो.

पार्टियों में असंतोष और झग‌ड़े नई बात नहीं हैं. भाजपा में भी कई राज्यों में बहुत असंतोष हैं लेकिन वहाँ पार्टी नेतृत्व उसे नियंत्रित करने में देर नहीं लगाता. कांग्रेस नेतृत्व ने हाल में किसी राज्य में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे लगे कि वह संगठन की समस्याओं के समाधान के लिए सजग और सक्रिय है.

चुनावों में बड़ी पराजय के बाद से राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर कोप-भवन में हैं. कुछ नेता उन्हें मनाने में लगे हैं. उधर पार्टी बिखर रही है. राहुल के अलावा किसी और को अध्यक्ष चुनना हो तो वह निर्णय शीघ्रातिशीघ्र किया जाना चाहिए. समस्या यह है कि इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस इस कदर नेहरू-गांधी वंश पर आश्रित होती गयी कि आज के कांग्रेसी उस परिवार के सदस्य के अलावा किसी और को अपना नेता चुनने की कल्पना तक नहीं कर सकते.

राहुल गांधी करें या कोई और, कांग्रेस को अपना घर सम्भालते हुए न केवल नये सिरे से खड़ा करना है बल्कि उनकी मुख्य चुनौती उस विचार को देश भर में फिर से अच्छी तरह प्रसारित करने की है जिसे वह आयडिया ऑफ इण्डियाकहते हैं. आज देश में मतदाताओं का विशाल युवा वर्ग ऐसा है जिसने कांग्रेसी मूल्यों के पराभव, पार्टी के क्षरण और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों के दौर में आंखें खोली हैं. इसी दौरान भाजपा और आरएसएस के विविध संगठनों के ज़रिए कट्टर हिंदुत्व एवं उग्र राष्ट्रवाद का विचार तेजी से फैला है.

इस पीढ़ी को सही-सही पता ही नहीं कि कांग्रेस किन मूल्यों की पोषक रही है. उदाहरण के लिए, जब भाजपा की तरफ से नेहरू का छवि-मर्दन किया गया, तब कांग्रेस यह बताने में विफल रही कि नेहरू की इस देश को वास्तविक देन क्या है.

सशक्त प्रतिपक्ष बनने या सत्ता में वापसी के लिए आज की कांग्रेस को अपनी कांग्रेसियतपहले खुद पहचाननी होगी. उसके पास स्वतंत्रता आंदोलन और इस विविधतापूर्ण देश की बहुलता के सम्मान की विरासत है. उन्हीं मूल्यों के कारण ही आज उसकी और भी ज़्यादा ज़रूरत है. 

(प्रभात खबर, 13 जून, 2019) 
  

   
        

Friday, June 07, 2019

देखिए तो, ट्रैफिक नियम तोड़ने वाले हैं कौन?



अगर प्रदेश सरकार यह सोचती है कि यातायात नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने की राशि कई गुणा बढ़ा देने से शहरों की यातायात समस्या सुधर जाएगी तो वह गलफहमी में है या वह समस्या  की जड़ में झांकना नहीं चाहती. हमारे शहरों में यातायात नियमों का घोर उल्लंघन होता है, अनेक बार यह जानलेवा साबित होता है, यह सच है. सड़कों पर जाम और भारी अव्यवस्था का यह बड़ा कारण है.

बीते मंगलवार को योगी सरकार ने ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों पर ज़ुर्माने की रकम आठ गुणा तक बढ़ा दी. सरकार का मानना है कि जुर्माने की राशि में भारी वृद्धि से बार-बार ट्रैफिक नियम तोड़ने की जनता की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी. अगर ऐसा हो तो बहुत अच्छी बात है लेकिन पहले के उदाहरण बताते हैं कि ऐसा होने के कोई आसार नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले भी जुर्माना बढ़ाया गया था. बीच-बीच में परिवहन विभाग भी आदेश जारी करता रहा है लेकिन क्या उसका कोई असर हुआ या नियमोल्लंघन बढ़ता गया?

अधिसंख्य जनता नियम-कानूनों का पालन करती है या ऐसा करना चाहती है क्योंकि उसे कानून का भय होता है. कुछ ही लोग होते हैं जिन्हें कानून का कोई डर नहीं होता. ये कौन लोग हैं जो कानून से डरते नहीं हैं? चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल को नहीं मानने वाले कौन लोग हैं? ट्रैफिक सिपाही को आंखें दिखाते हुए लाल बत्ती पार कर जाने वाले कौन  हैं? चालान काटने और जुर्माना वसूलने वाले सिपाही या इंस्पेक्टर को धक्का देने और कॉलर पकड़ कर औकातबता देने की धमकी देने वाले कौन हैं?

करोड़ों रुपए खर्च कर लगी ट्रैफिक लाइटों का होना न होना बराबर है. चौराहे पर ट्रैफिक सिपाहियों का होना लगभग व्यर्थ है. वे जानते हैं कि उनका मुख्य काम वीआईपी गाड़ियों को बिना रोक-टोक निकल जाने देना है. इसके अलावा ट्रैफिक नियम वही तोड़ते हैं जो राजनैतिक-आपराधिक प्रभाव वाले हैं. सिपाही जानते हैं कि ऐसे जबरिया वीआईपीको टोकने पर वह आंखें दिखाता है या देख लेने की धमकी देता है. उस पर कोई सख्ती की भी जाए तो ऊपर से फोन घनघनाने लगते हैं, डॉट पड़ती है और इस गुस्ताखीपर कभी निलम्बन की सजा भी भोगनी पड़ती है.

इसलिए ट्रैफिक नियम तोड़ने वाले ज़्यादातर लोगों की जान-बूझ कर अनदेखी की जाती है. रोक-टोक कर क्यों आ बैल मुझे मारकहें! यह हीला-हवाली देख कर आम जनता भी नियम तोड़ने को प्रेरित होती है. उनमें कुछ बच निकलते हैं, रिक्शा-सायकल वाले थप्पड़ खाते हैं, कुछ दो पहिया-चौपहिया वाले जुर्माना भरते हैं. बाकी निरीह जनता ट्रैफिक नियम मानती ही मानती है.

यह वीआईपी कल्चरखत्म किये बिना यातायात सुधार नहीं हो सकते. मोदी सरकार के कुछ अच्छे फैसलों में वीआईपी कल्चर खत्म करने की घोषणा भी थी. लाल-नीली बत्ती पर रोक लगाई गयी. किंतु वीआईपी कल्चर खत्म हुआ क्या? गाड़ियों से लाल-नीली बत्तियाँ गायब हो गईं लेकिन पुलिस की  एस्कॉर्ट गाड़ियाँ हूटर बजाती उनके आगे-पीछे चलती हैं. नाक ऐसे नहीं पकड़ी घुमा कर पकड़ ली!

जिस दिन तथाकथित वीआईपी अपने ड्राइवर को नियमानुसार गाड़ी चलाने की हिदायत देंगे, जिस दिन मंत्रियों, विधायकों, अफसरों की गाड़ियाँ नो-पार्किंगमें खड़ी होना बंद हो जाएंगी, जिस दिन रुतबा-धारी लोग ट्रैफिक लाइट या सिपाही के इशारे पर रुकने लगेंगे और गलती होने पर चुपचाप जुर्माना भरने लगेंगे, उसी दिन से यातायात व्यवस्था का कायाकल्प हो जाएगा.

तब जुर्माने की रकम बढ़ाने की ज़रूरत नहीं रहेगी. अन्यथा जुर्माना सौ गुणा भी बढ़ा दें तो देगा कौन और वसूलेगा कौन?  


Monday, June 03, 2019

सच और झूठ में किसकी अधिक ज़रूरत है- रसूल हमज़ातोव


युग-युगोंं से सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं. युग-युगों से उनके बीच यह बहस चल रही है कि उनमें से किसकी अधिक ज़रूरत है. कौन अधिक उपयोगी और शक्तिशाली है. झूठ कहता है कि मैं और सच कहता है कि मैं. इस बहस का कभी अंत नहीं होता.

एक दिन उन्होंने दुनिया में जाकर लोगों से पूछने का फैसला किया. झूठ तंंगऔर टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर आगे-आगे भाग चला. वह हर सेंध में झाँकता, हर सूराख में सूँघा-साँघी करता और हर गली में मुड़ता. मगर सच गर्व से गर्दन ऊँची उठाए सिर्फ सीधे, चौड़े रास्ते पर ही जाता. झूठ लगातार हँसता था, पर सच सोच में डूबा हुआ और उदास रहता था.

उन दोनों ने बहुत से रास्ते, नगर और गाँव तय किये. वे बादशाहों, कवियों, ख़ानों, न्यायाधीशों, व्यापारियों, ज्योतिषियों और साधारण लोगों के पास भी गए. जहाँ झूठ पहुँचता, वहाँ लोग इतमीनान और आज़ादी महसूस करते. वे हँसते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखते, यद्यपि इसी वक्त एक-दूसरे को धोखा देते होते और उन्हें यह भी मालूम होता कि वे ऐसा कर रहे हैं. मगर फिर भी वे बेफिक्र और मस्त थे तथा उन्हें एक-दूसरे को धोखा देते और झूठ बोलते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आती थी.

जब सच सामने आया तो लोग उदास हो गए, उन्हें एक-दूसरे से नज़रें मिलाते हुए झेंप होने लगी, उनकी नज़रें झुक गईं. लोगों ने (सच के नाम पर) खंजर निकाल लिए, पीडित पीड़कों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, गाहक व्यापारियों पर, साधारण लोग ख़ानों पर और ख़ान शाहों पर झपट पड़े. पति ने पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या कर डाली. ख़ून बहने लगा. इसलिए अधिकतर लोगों ने झूठ से कहा-

'तुम हमें छोड़कर न जाओ. तुम हमारे सबसे अच्छे दोस्त हो. तुम्हारे साथ जीना बड़ा सीधा-सादा और आसान मामला है. और सच, तुम तो हमारे लिए सिर्फ परेशानी लाते हो. तुम्हारे आने पर हमें सोचना पड़ता है, हर चीज़ को दिल से महसूस, घुलना और संघर्ष करना होता है.तुम्हारी वज़ह से क्या कम योद्धा, कवि और सूरमा मर चुके हैं?'

'अब बोलो', झूठ ने सच से कहा, 'देख लिया न कि मेरी अधिक आवश्यकता है और मैं ही अधिक उपयोगी हूँ. कितने घरों का हमने चक्कर ल्गाया है और सभी जगह तुम्हारा नहीं, मेरा स्वागत हुआ है.'

'हाँ, हम बहुत सी आबाद जगहों पर तो हो आए. आओ, अब चोटियों पर चलें. चल कर निर्मल जल के ठण्डे चश्मों, ऊँची चरागाहों में खिलने वाले फूलों, सदा चमकने वाली सफेद बर्फों से पूछें.'

'शिखरों पर हज़ारों वर्षों का जीवन है. वहाँ नायकों वीरों, कवियों बुद्धिमानों, संत-साधुओं के अमर और न्यायपूर्ण कृत्य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं. चोटियों पर वह रहता है जो अमर है और पृथ्वी की तुच्छ चिंताओं से मुक्त है.'

'नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊंगा,' झूठ ने जवाब दिया.

'तो क्या तुम ऊँचाई से डरते हो?... हाँ, मुझे मालूम है तुम डरते हो. तुम तो हो ही बुज़दिल...'

 'नहीं, मैं तुम्हारी ऊँचाइयों से नहीं डरता. मगर मैं वहाँ करूँगा ही क्या, क्योंकि वहाँ लोग नहीं हैं. मेरा तो वहीं बोलबाला है जहाँ लोग रहते हैं. वे सब मेरी प्रजा हैं. केवल कुछ साहसी मेरा विरोध करने की हिम्मत करते हैं और तुम्हारे पथ पर चलते हैं, मगर ऐसे लोग तो इने-गिने हैं.'

'हाँ, इने-गिने हैं. मगर इसीलिए इन लोगों को युगनायक माना जाता है और कवि अपने सर्वश्रेष्ठ गीतों में उनका स्ततुति-गान करते हैं.'

- 'दागिस्तान' में रसूल हमज़ातोव

अकेले कवि का किस्सा- रसूल हमज़ातोव

यह किस्सा मुझे अबू तालिब ने सुनाया. किसी ख़ान की रियासत में बहुत-से कवि रहते थे. वे गाँव-गाँव घूमते और अपने गीत गाते. उनमें से कोई वायलिन बजाता, कोई चोंगुर, कोई ज़ुरना. ख़ान को जब अपने काम-काज और बीवियों से फ़ुरसत मिलती, तो वह शौक से उनके गीत सुनता,

एक दिन उसने एक ऐसा गीत सुना, जिसमें ख़ान की क्रूरता, अन्याय और लालच का बयान किया गया था. ख़ान आग-बबूला हो उठा. उसने हुक्म दिया कि ऐसा विद्रोह भरा गीत रचने वाले कवि को पकड़ कर लाया जाए.

गीतकार का पता नहीं लग सका. तब वज़ीरों और नौकरों-चाकरों को सभी कवियों को पकड़ लाने का आदेश दिया गया. ख़ान के टुकड़खोर शिकारी कुत्तों की तरह सभी गाँवों, रास्तों, पहाड़ी पगडण्डियों और सुनसान दर्रों में जा पहुँचे. उन्होंने सभी गीत रचने और गाने वालोंंम को पकड़ लिया और महल की काल-कोठरियों में लाकर बंद कर दिया. सुबह को ख़ान सभी बंदी कवियों के पास जाकर बोला-

'अब तुममें से हरेक मुझे एक गीत गाकर सुनाए.'

सभी कवि बारी-बारी से ख़ान की समझदारी, उसके उदार दिल, उसकी सुन्दर बीवियों, उसकी ताकत, उसकी बड़ाई और ख्याति के गीत गाने लगे. उन्होंने यह गाया कि इस पृथ्वी पर ऐसा महान और न्यायपूर्ण ख़ान कभी पैदा ही नहीं हुआ था.

ख़ान एक के बाद एक कवि को छोड़ने का आदेश देता गया. आख़िर तीन कवि रह गये, जिन्होंने कुछ भी नहीं गाया. उन तीनों को फिर से कोठरियों में बंद कर दिया गया और सभी ने यह सोचा कि ख़ान उनके बारे में भूल गया है.

मगर तीन महीने बाद ख़ान फिर से उन बंदी कवियों की पास आया- 'तो अब तुममें से हरेक मुझे कोई गीत सुनाए.'

उन तीन कवियों में एक फ़ौरन ख़ान, उसकी समझदारी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी बड़ाई और ख्याति के बारे मेंं गाने लगा. उसने यह भी गाया कि पृथ्वी पर ऐसा महान ख़ान नहीं हुआ.

इस कवि को भी छोड़ दिया गया. उन दो को जो कुछ भी गाने को तैयार नहीं थे, मैदान में पहले से तैयार किए गए अलाव के पास ले जाया गया.

'अभी तुम्हें आग की नज़र कर दिया जाएगा.' ख़ान ने कहा. 'आख़िरी बार तुमसे कहता हूँ कि अपना कोई गीत सुनाओ.'

उन दो में से एक की हिम्मत टूट गई और उसने ख़ान, उसकी अक्लमंदी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, बड़ाई और ख्याति के बारे में गीत गाना शुरू कर दिया. उसने गाया कि दुनिया में ऐसा महान और न्यायपूर्ण ख़ान कभी नहीं हुआ.

इस कवि को भी छोड़ दिया गया. बस, एक वही ज़िद्दी बाकी रह गया, जो कुछ भी गाना नहीं चाहता था.

'उसे खम्भे से बाँध कर आग जला दो.' ख़ान ने हुक्म दिया.

खम्भे के साथ बँधा हुआ कवि अचानक ख़ान की क्रूरता, अन्याय और लालच के बारे में वही गीत गाने लगा जिससे यह सारा किस्सा शुरू हुआ था.

'जल्दी से इसे खोलकर नीचे उतारो.' ख़ान चिल्ला उठा- :मैंं अपने मुल्क के अकेले असली शायर से हाथ धोना नहीं चाहता.'

'ऐसे समझदार और नेकदिल ख़ान तो शायद ही कहीं होंगे.' अबूतालिब ने यह किस्सा ख़त्म करते हुए कहा, 'मगर ऐसे कवि भी बहुत नहीं होंगे.' 

- रसूल हमज़ातोव (मेरा दागिस्तान) 

Saturday, June 01, 2019

रिकॉर्ड गर्मी के लिए ‘विकास’ को सराहें


गुरुवार को, जिस दिन नरेंद्र मोदी ने दोबारा प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, इलाहाबाद का तापमान देश में  सर्वाधिक 48.6 दिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया. उसी दिन लखनऊ में करीब-करीब 45 डिग्री तापमान था. इस रिकॉर्ड तापमान और भीषण गर्मी का अकेले नरेंद्र मोदी से कोई लेना-देना नहीं है. इसमें हम सबका बराबर का योगदान है.

सन 1951 में मौसम विभाग बना और तभी से अधिकतम-न्यूनतम तापमान दर्ज करना शुरू हुआ. राजस्थान के फलोदी कस्बे में 23 मई 2016 को अब तक देश का सर्वाधिक तापमान, 51 डिग्री सेल्सियस पाया गया है. हमारे इलाहाबाद के लिए 48.6 डिग्री सर्वाधिक है. आने वाले दिनों में और भी ज़्यादा तापमान दर्ज हो तो आश्चर्य नहीं. इस पृथ्वी को हम उसी दिशा में ले जा रहे हैं.

लखनऊ में मौसम विभाग के उपकरण अमौसी में लगे हैं, जहाँ अपेक्षाकृत खुली जगह है. कंक्रीट का जंगल इतना घना नहीं हौ, जितना बाकी शहर में. इसलिए जो तापमान वहाँ 44.8 डिग्री दर्ज किया गया, वह तारकोल की सड़कों और कंक्रीट की इमारतों के बीच निश्चित ही 45 डिग्री पार होगा.

साल-दर-साल सूरज उतनी ही आग उगलता रहा है. उसकी भट्ठी कभी कम या ज़्यादा नहीं जलती. तापमान बढ़ने के लिए उसे दोष देना बेकार है. हमारा वायुमण्डल उसकी लपटों को रोक पाने में कमजोर होता गया है. धरती में में भी तापमान बर्दाश्त करने की क्षमता कम होती गयी है. और, ‘विकासकरते मनुष्य ने धरती पर आग उगलने वाले उपकरण बना लिए. सूरज की गर्मी में धरती की गर्मी मिलती गई. तापमान के रिकॉर्ड टूटते गये.

इस तरह का कोई अध्ययन नहीं हुआ है कि किसी शहर के कुल वातानुकूलन संयंत्र, वाहन और अन्य उपकरण अपने दिन-रात के उत्सर्जन से उसका तापमान कितना बढ़ा देते होंगे. इसे महसूस किया जा सकता है जब आप किसी घर या दफ्तर में लगे एसी के पीछे से गुजरें. एक लू तीखी धूप से निकलती है, एक इन संयंत्रों से. दोनों मिलकर शहर का तापमान बढ़ा रहे हैं. इसे थोड़ा  भी कम कर सकने वाली हरियाली भी गायब होती गयी है.
इसी लखनऊ शहर में सरकारी दफ्तर हों या निजी कोठियाँ 1970 के दशक तक गर्मियों में खस की चट्टियों-पर्दों का प्रयोग करते थे. भीगी खस से गुज़रने वाली गर्म हवा इतनी शीतल हो जाती थी कि आज के एसी शरमा जाएँ. भीषण गर्मी में दफतरों के बरामदे ही नहीं आस-पास का इलाका भी शीतल-सुखदाई रहता था.

सन 1975 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने सचिवालय के अपने कक्ष में पहला एसी लगवाया था. उत्तर प्रदेश का वह एकमात्र एसी देहरादून के उस डाक बंगले से निकलवा कर लाया गया था, जहाँ नेहरू जी अपनी बीमारी के दिनों आराम करने जाया करते थे. आने वाले सालों में धीरे-धीरे सचिवालय ही नहीं, सारे सरकारी दफ्तरों में एसी लगने लगे. आज खस का नाम भी लोग भूल गये होंगे. सरकारी दफ्तरों के गलियारे-बरामदे अब एसी का इतना तेज गर्म भभका छोड़ते हैं कि वहाँ एक मिनट खड़ा रहना मुश्किल है.

शहर की हवा में हम कितनी गर्मी और जहरीली गैसें छोड़ रहे हैं, इसकी चिंता शायद ही कोई करता होगा.  इससे वातावरण की वह ओज़ोन परत छीज रही है जिससे सूरज कीअतिशय गर्मी और खतरनाक किरणें ऊपर ही रुक जाती थीं.  फ्रिज और दीवारों का रासायनिक पेण्ट हमारे घर-भीतर का तापमान कितना बढ़ा देते हैं, इसका अनुमान शायद ही किसी को हो. इनसे अन्य दुष्प्रभाव भी होते हैं. आधुनिक होने के पैमाने ऐसे बना दिये गये हैं कि सुराही का पानी पीने वाले का मज़ाक बनाया जाता है.

विकास के हमारे ढर्रे ने जहाँ इस धरती को लगातार गर्म करने काम किया है वहीं गर्मी बर्दाश्त करने की हमारी क्षमता भी घटा दी है. प्रकृति की ओर वापसी का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता.   

(सिटी तमाशा, 01 जून, 2019)  

बहुलतावाद पर बहुसंख्यकवाद की विजय



नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की प्रचण्ड विजय हुई है. 2019 की उनकी जीत 2014 से कई मायनों में बड़ी है. उनके हिस्से आया वोट प्रतिशत 2014 के 31 से बढ़कर 37.4 हो गया. उसकी अपनी जीती सीटों की संख्या 282 से बढ़कर 302 हो गईं. उसने अब तक अभेद्य पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा में भी शानदार प्रदर्शन करके वोट प्रतिशत तथा सीटें बढ़ाईं और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को बड़ी चुनौती दी है.

उत्तर प्रदेश में जहाँ सपा-बसपा-रालोद  का मजबूत गठबंधन भाजपा को शिकस्त देने की उम्मीद पाले था, लगभग विफल रहा. भाजपा 64 सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में  कई सीटों पर उसे पचास से  प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिले.

यह जीत भाजपा की नहीं अकेले नरेंद्र मोदी की मानी जा रही है और ठीक भी है. उनकी छवि एक फकीर’, ‘पिछड़े’, ‘ईमानदार’, ‘कर्मठ’, ‘हिंदू-उद्धारकऔर बाहुबलीके रूप में बड़े जतन से गढ़ी गयी थी. इस छवि पर उग्र राष्ट्रवाद और पाकिस्तान को घर में घुस कर मारनेका जोरदार मेक-अप चढ़ाया गया. यह प्रयोग बहुत सफल रहा, जिससे एक लहर पैदा हुई. मोदी की इस देशव्यापी लहर को सिर्फ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल ने रोका. काफी हद तक पंजाब ने भी.   

सवाल जो उठते हैं

सभी राजनैतिक दलों और नेताओं की तरह हम भी कहेंगे कि जनता के आदेश का सम्मान किया जाना चाहिए. किंतु बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहाँ से शुरू होती है.

देश में व्याप्त भारी बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कई  विफलताओं, नोटबंदी की अब तक जारी मार, कृषि की दुर्दशा के कारण किसानों के रोष, समाज के साम्प्रदायिक विभाजन, गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग, असहमति पर हमले, संवैधानिक संस्थाओं में दखलंदाज़ी, आदि के बावजूद नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से आम चुनाव जीते हैं तो देखना होगा कि इस जनादेश के उत्प्रेरक तत्व क्या रहे.

कुछ सवाल बेचैन करते हैं तो इस प्रचण्ड विजय के कारणों में झाँकने का मौका भी देते हैं. जैसे कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बताने वाली तथाकथित साध्वी और आतंकवाद-अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर का साढ़े तीन लाख वोटों से चुनाव जीतना क्या बताता है? क्या यह मानें कि भोपाल के मतदाताओं का बहुमत प्रज्ञा ठाकुर की ही तरह गोडसे को देशभक्त मानता है? या, इस अत्यन्त क्षोभनाक, शर्मनाक और अनर्थकारी टिप्पणी, जिसकी स्वयं भाजपा नेताओं ने भी निंदा की और उनके दवाब में प्रज्ञा को अनिच्छा से माफी मांगनी, की अनदेखी करके उसे जिताने के कोई और बड़े कारण मतदाताओं के मन में थे?

क्या उत्तर प्रदेश में, जहाँ सपा-बसपा-रालोद के बहुत मजबूत गठबंधन के बावजूद भाजपा बहुत बेहतर प्रदर्शन कर पाई, जातीय राजनीति समाप्त हो गयी, जैसा कि दावा किया जा रहा है? या गहरी जड़ों वाली जातीय गोलबंदी की राजनीति से बड़ी कोई प्रभावशाली मुद्दा हावी हो गया?

पश्चिम बंगाल की शेरनी के गढ़ में भाजपा की आशातीत सफलता का कारण क्या रहा? मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में , जहां कुछ महीने पहले ही मतदाताओं ने भाजपा को अपदस्थ करके कांग्रेस की सरकारें बनवाईं थीं, वहां ऐसा क्या हुआ कि वोटरों ने लगभग सारी लोकसभा सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं? ऐसे और भी सवाल हैं जो परिणामों के विश्लेषण और उत्तर तलाशने की मांग करते हैं.

एक बाहुबली का सुनियोजित अवतार

उत्तरों की तलाश में सबसे पहले हमारा ध्यान केदारनाथ धाम की ध्यान गुफासे बहु-प्रचारित-प्रसारित उस तस्वीर की तरफ जाता है जो मतदान के अंतिम चरण वाले दिन पूरे मीडिया में छाई हुई थी. उस सुसज्जित गुफा में कैमरों के फोकस के बीच एकांतवासऔर ध्यानकरते और उससे पहले विवेकाननद और रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लबादा पहने, हाथ में लाठी थामे केदारनाथ मंदिर के इर्द-गिर्द पदयात्रा करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो बहुत कुछ समझा देती है. कौन मानेगा कि यह ध्यान-साधना सुनियोजित नहीं थी. इसे हम सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव में भाजपा, बल्कि मोदी के प्रचार का समापन और चरम-बिंदु मान सकते हैं.

यह तस्वीर हमें यह भी बताती है कि भाजपा का पूरा चुनाव अभियान जितना जनता के मूल मुद्दों से दूर कट्टर हिंदुत्त्व और उग्र राष्ट्रवाद पर केंद्रित था, उतना ही मोदी की न भूतो न भविष्यतिछवि पर.

याद कीजिए कि नरेंद्र  मोदी और अमित  शाह समेत किसी भी भाजपा नेता के चुनाव भाषण हिंदू-गौरव, मुस्लिम-घृणा, पाकिस्तान-विरोध और सेना की शौर्य-गाथा के बिना पूरे नहीं होते थे. यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा ने यह चुनाव बालाकोट पर हमले के बहाने हमारी सेनाओं को राजनैतिक प्रचार का माध्यम बना कर लड़ा. भाजपा की हर चुनाव सभा में जनता से यह पूछा जाता था कि पाकिस्तान को सही जवाब दिया कि नहीं दिया? क्या ऐसा करने का साहस पहले किसी नेता ने दिखाया? क्या इस बार आपका वोट शहीद सैनिकों की याद में समर्पित हो सकता है? (चुनाव आयोग की इस पर शर्मनाक चुप्पी एक अलग प्रसंग है)

“पाकिस्तान चाहता है कि मोदी चुनाव हार जाए”- चुनाव सभाओं में अपने प्रधानमंत्री के मुँह से यह सुनना बहुत अफसोस पैदा करता रहा लेकिन वे तो मतदाताओं के मन में एक खास संदेश बैठा रहे थे. पाकिस्तान के प्रति घृणा और विपक्षी नेताओं  के प्रति नाराज़गी पैदा करने के लिए  फिर वे कहते थे- “विरोधी नेताओं के भाषणों पर पाकिस्तान में तालियाँ बजती हैं, वे वहाँ के अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं.” इसी के बाद पुलवामा और उसके जवाब में बालाकोट का जिक्र किया जाता था. सभा में मोदी-मोदीका उद्घोष किया-कराया जाता था.

दूसरे भाजपा नेता तो पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए मोदी की तारीफ करते ही थे, स्वयं मोदी हमारी सेनाकी बजाय मैंनेकहते हैं- ‘’मैने घर में घुस कर मारा. और, ‘घर में घुस कर मारूंगा.

मोदी के भाषणों का एक और सतत राग हिंदू-मुसलमानथा. एक चुनावी सभा में उन्होंने कहा- कांग्रेस ही है जिसने हिंदू-आतंकवाद  शब्द गढ़ कर इस देश के करोड़ों हिंदुओं का अपमान किया है. इसीलिए उनके नेता हिंदुओं के आक्रोश से डर कर उस सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं जहां हिंदू अल्पसंख्या में हैं. क्या एक भी उदाहरण है कि कोई हिंदू आतंकवादी बना?”

इस तरह मोदी नाम के एक ऐसे बाहुबली हिंदू नेता की छवि गढ़ी गयी जो इस देश को आतंकवादियों से, पाकिस्तान से और देश-भीतर के पाकिस्तान-समर्थकों (आशय उनका मुस्लिम-समर्थकों से होता था) से बचा सकता है. हिंदुओं का रखवाला तो वह है ही. इस देश के विरोधी दल, विशेष रूप से कांग्रेस जो मुस्लिम-परस्त और पाकिस्तान-समर्थक हैं, इस शक्तिशाली नायक के पीछे पड़े हुए हैं.

देश के मतदाता को यह समझाने का काम चुनाव सभाओं के अलावा गाँव-गाँव फैले भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने बखूबी किया. देशभक्ति के नाम पर मतदाता उग्र-राष्ट्रवाद के चक्कर में आ गये. वे भूल गये कि नोटबंदी ने उनके रोजगार छीने हैं, नौजवान पीढ़ी भूल गयी कि उनके सामने बेरोजगारी का दानव मुँह बाये खड़ा है. किसान भूल गये कि वे कितने गहरे संकट में हैं और किस तरह ठगे गये हैं. बड़ी तादाद में मतदाताओं ने यह भूलकर कि उनके साथ कैसी वादाखिलाफी की गयी है, उस शक्तिशालीमोदी के नाम पर वोट दे दिये क्योंकि वे अपने देश को बेतरह प्यार करते हैं.

यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन बेअसर करने और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के किले में लगी गहरी सेंध लगाने में मोदी कामयाब रहे.   

अगर भाजपा यह दावा कर रही है कि यह मोदी सरकार की पिछले पाँच साल की नीतियों-कार्यक्रमों की जीत है तो इसलिए क्योंकि वह वास्तविकता पर स्वाभाविक ही पर्दा डाले रखना चाहती है. मोदी सरकार की कुछ उपलब्धियाँ जरूर रही होंगी लेकिन स्वच्छता अभियान में बने शौचालय, उज्ज्वला योजना में मिले गैस सिलेण्डर, प्रधानमंत्री आवास योजना में मिले मकान और कुछ खातों में पहुँचे दो-दो हजार रुपए इतनी बड़ी जीत का कारण नहीं हो सकते. ये योजनाएं यूपीए सरकार में भी दूसरे नामों से चल रही थीं, भले ही उन पर उतना जोर नहीं था और प्रचार उससे भी कम. इन गरीब-उद्धारकइन योजनाओं का सीमित लाभ चुनाव में होता है, जैसे 2009 में मनरेगासे यूपीए को हुआ था. इन विकास कार्यक्रमों से लहर पैदा नहीं होती. लहर पैदा करने वाले कारणों की चर्चा ऊपर की जा चुकी है.

हिंदुत्त्व की प्रयोगशाला

प्रोफेसर अपूर्वानंद ने द वायरमें एग्जिट पोल के अनुमान आने के अगले दिन लिखा था कि नतीजे ऐसे ही आते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगेंगे लेकिन वास्तव में मोदी सरकार ने जो किया है वह हिंदू-मानस को हैक करना है. अपूर्वानंद की टिप्पणी बिल्कुल सही है. लम्बे समय से चले आ रहे भाजपा-संघ के कट्टर हिंदुत्त्व के अभियान को मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में परवान चढ़ाया. उदार और उदात्त हिंदू मानस को कट्टर, संकीर्ण और हिंसक बनाया. ये चुनाव नतीजे उसी का परिणाम कहे जा सकते हैं.

उदाहरण के तौर पर पश्चिम बंगाल की जमीनी रिपोर्टों का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जिसे भाजपा ने कई वर्षों से हिंदुत्त्व की प्रयोगशाला बना रखा है. इण्डियन एक्सप्रेसमें पिछले दिनों मुकुलिका बनर्जी का एक लेख प्रकाशित हुआ था. मुकुलिका अपने शोध के सिलसिले में पश्चिम बंगाल के दो गाँवों का पिछले काफी समय से अध्ययन कर रही हैं. मदनपुर और चिश्ती नाम के दोनों गाँव मुस्लिम और दलित बहुल हैं. इनमें हो रहे परिवर्तन को आधार बनाकर उन्होंने बताने की कोशिश की कि किस तरह वहाँ भाजपा-संघ का हिंदुत्त्व अपना रंग फैला रहा है.

उन्होंने लिखा कि हिंदू पहचान का पहला चिह्न मुझे तब दिखाई दिया जब इन गाँवों में बड़ी श्रद्धा से रामनवमी मनाई जाने लगी. देवी की आराधना करने वाले बंगाल के गाँवों में रामनवमी मनाना अजूबा ही है. मुसलमानों से भी चंदा लेकर दलित-बहुल आबादी बाकायदा लाउडस्पीकर लगाकर धूमधाम से रामनवमी मनाने लगी है.

इससे भी चौंकाने वाली बात उन्होंने यह देखी कि “पड़ोस के हिंदू बहुल सीतापुर गाँव में बंगाली नव-वर्ष के दिन हनुमान उत्सव मनाया जाने लगा. हनुमान का नाम इन गांवों में पहले नहीं सुना गया था. मैंने एक गाँव में एक पेड़ के नीचे छोटी सी हनुमान प्रतिमा देखी, जो किसी ने बताया कि एक ट्रक से गिर गई थी. इसे शुभमानकर पूजा शुरू करा दी गई. कई युवक अपनी बाइक में हनुमान अंकित दो-मुखी लाल झण्डा लेकर घूमते रहते हैं.

मुकुलिका ने अपने लेख में यह साफ-साफ नहीं लिखा है कि इस पोरिबोर्तनके पीछे कौन है लेकिन संकेतों में बताने की कोशिश की है कि बंगाली समाज का किस तरह भगवाकरण किया जा रहा है.

टाइम्स ऑफ इण्डिया में ऐन चुनावों के दौरान प्रकाशित एक खबर इसकी तस्दीक करती है. यह खबर बताती है कि किस तरह सुंदरबन इलाके की बोनबीबी’ (वनबीबी) को, जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों ही पूजते-मानते थे कि वह वन में बाघों से हम सबकी रक्षा करती है, हिंदू बोनदेवी’ (वन देवी) बना दिया गया है. हिंदू संगठनों ने अपने पुजारियों के जरिए यह प्रचार धीरे-धीरे किया और बोनबीबीको बोनदेबीबताकर उनकी पूजा-अर्चना हिंदू विधि-विधान से करने लगे. नतीजा यह हुआ कि सुन्दरबन के मुसलमान अब बोनबीबीसे दूर हो गये हैं. इस तरह साम्प्रदायिक अलगाव पैदा किया गया है.

बंगाल में वामपंथी दलों के पराभव के बाद बड़ी संख्या में उनके कार्यकर्ता बेरोज़गारहो गये. आक्रामक-प्रवृत्ति के इस कैडर को नये संरक्षक चाहिए थे. भाजपा ने उन्हें खुशी-खुशी अपना लिया. त्रिपुरा में भी भाजपा और संघ ने यही काम किया था. त्रिपुरा विधान सभा चुनावों में भाजपा की बड़ी विजय के बाद की रिपोर्ट बता रही थीं कि उत्तर भारत से भेजे गये संघ के कार्यकर्ता आदिवासी इलाकों में दो साल से डेरा डाले हुए थे. उन्होंने आदिवासियों के बीच ही बस कर उनका ब्रेनवाश किया. कई रपटें पिछले दिनों ऐसी पढ़ने में आईं कि बड़ी संख्या में वाम दलों के छुटभैये नेता और कार्यकर्ता ही नहीं, उनके कार्यालय तक भाजपा की सेवा में लग गये हैं.
लाल झण्डों का इतनी आसानी से भगवा हो जानाआश्चर्यजनक से ज्यादा भारतीय वाम पार्टियों के खोखलेपन का ही परिचायक है.   

विपक्ष कहाँ विफल हुआ

कहना न होगा कि विपक्ष भाजपा के इस अभियान का मुकाबला करने में पूरी तरह विफल रहा. वह मोदी की बाहुबली-छवि की असलियत मतदाताओं को नहीं दिखा सका. भाजपाई प्रचार मशीनरी के सामने वह टिक नहीं सका. इसलिए यह मोदी की जीत के बराबर ही विपक्ष की विफलता भी है.

यह बात बहुत मायने नहीं रखती कि विपक्ष मोदी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन नहीं कर सका, इसलिए भाजपा विरोधी वोट बंट गये. नतीजे बताते है कि विपक्ष का कोई एक राष्ट्रीय मोर्चा बना होता तो भी भाजपा की कुछ सीटें कम होने के अलावा और कोई फर्क नहीं पड़ता. मोदी तब भी जीतते और सरकार बना ले जाते.

विपक्ष की चुनौती सिर्फ यह नहीं है कि मोदी भारी बहुमत से फिर सरकार में आ गये. उससे बड़ी चुनौती यह है कि संघ और भाजपा ने मिल कर भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज के दिल-दिमाग में अलगाव और कट्टरता के बीज बो दिये हैं. हिंदू समाज हमेशा से बहुत उदार और सहिष्णु रहा है. उसे अब इतना कट्टर और असहिष्णु बना दिया गया है कि आये दिन मॉब लिंचिंग की खबरें आने लगीं.

यह पुराना भारत नहीं है. यह मोदी का वह नया भारतहै जिसमें बहुलतावाद, अल्पसंख्यक समुदायों का सम्मान और असहमति की जगह सिमटती जा रही है. मोदी चुनाव हार भी जाते (एक दिन वे हारेंगे ही) तो भी यह जो जहर बो दिया गया है,आने वाले समय में उसकी फसल भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनने वाली है.

विपक्ष की असली और मुख्य चुनौती इस बड़े खतरे से निपटना है. फिलहाल तो वह चुनाव में मोदी से ही नहीं निपट सका. इस खतरे से निपटने के लिए तो बहुत धैर्य, समझ, संगठन और समर्पण की जरूरत है.

भारतीय समाज के सामने उपस्थित इस बड़ी भारी चुनौती से राजनैतिक रूप से निपटने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी की  है, जिसके मूल विचार और दर्शन में वह भारत था (आज भी होना चाहिए) जिसकी वज़ह से यह बहुभाषी-बहुसांस्कृतिक-बहुधार्मिक-बहुजातीय-बहुभौगोलिक देश एक पहचान के साथ एकसूत्र में बंधा रह सका है. गांधी-नेहरू की यह विरासत कालान्तर में कई विचलनों, समझौतों, भ्रष्ट आचरणों और वंशवाद की तोहमतों के बावजूद कांग्रेस सम्भाले रह सकी.

इसीलिए कांग्रेस को भाजपा-संघ के क्रमश:  बढ़ते हिंदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के एजेण्डे के मुकाबिल अपने राजनैतिक मूल्य, जिसे वह 'आयडिया ऑफ इण्डिया' कहती है, खड़े करने चाहिए थे, जिसमें वह पूरी तरह विफल रही. उसकी सबसे बड़ी गलती यह है कि वह अपनी विरासत छोड़कर उदार हिंदुत्त्व के चोले से इस बड़ी चुनौती का सामना करने की राह पर चल पड़ी.

यह एकाएक नहीं हुआ. पिछले कोई चालीस साल से जैसे-जैसे  संघ की समाज में पैठ बढ़ती गयी, वैसे-वैसे कांग्रेस में अपनी विरासत से विचलन के लक्षण दिखाई देने लगे थे. संघ के लिए कोई चुनौती नहीं रही.

कांग्रेस क्या थी, भारत के बारे में उसका क्या विचार था, यह आज की पीढ़ी को पता ही नहीं और आज की कांग्रेस उसे समझा पाने में पूर्णत: विफल है. बल्कि, यह संदेह होता है कि क्या कांग्रेस का नया नेतृत्व स्वयं उस कांग्रेसियत को समझता है?

1980-90 के दशकों से जो पीढ़ी बड़ी हुई उसने शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में राम मंदिर अभियान के दौरान कांग्रेस को पथ-विचलित होते और समर्पण करते देखा. उसके बाद से कांग्रेस मूल्यों की भटकन का ही शिकार होती चली गयी.

शाहबानो प्रकरण में के रूप में एक प्रगतिशील कदम उठाने का शानदार मौका तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिला था लेकिन उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने समर्पण कर दिया. फिर इसका संतुलन साधने के लिए उन्होंने हिंदू कट्टरपंथियों को खुश करने के वास्ते अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और राम मंदिर के लिए भूमि-पूजन की अनुमति दे दी.

इन दो ऐतिहासिक गलतियों से कांग्रेस ने अपने और देश के लिए भी भस्मासुर खड़े कर लिए. आरएसएस (संघ) को वह मौका मिल गया जिसकी वह वर्षों से तलाश में था. कट्टर हिंदुत्व की राजनीति विकराल होती गयी. मुस्लिम-तुष्टीकरण के आरोप दिमागों में पैठ बनाने लगे थे. नयी पीढ़ियों ने राजनीति के इसी बदले माहौल में आँखें खोलीं. उन्हें इस नयी राजनीति और कांग्रेस या देश की विरासत का अन्तर बताने-समझाने वाला नेतृत्व धीरे-धीरे नदारद होता गया.

राजनैतिक परिदृश्य में जो निर्वात पैदा हुआ उसे हिंदुत्व की राजनीति के नये और आक्रामक पैरोकारों ने बहुत तेजी से भर लिया. हिंदुत्त्व के मुखौटोंको नेपथ्य में धकेल कर मुखौटाविहीन नेताओं ने भाजपा पर कब्जा कर लिया. नरेंद्र मोदी की 2104 की जीत भ्रष्ट यूपीए शासन से परेशान जनता की नयी उम्मीदों का परिणाम था, जिसे नयी राजनीति में पलती पीढ़ियों ने उत्साहपूर्वक सिर-माथे बिठा लिया. सन 2019 की प्रचण्ड विजय उस आक्रामक हिंदुत्त्ववादी राजनीति का अखिल भारतीय विस्तार है, जिसमें विकास के नारे और गरीबों के लिए कार्यक्रमों की चाशनी बड़ी खूबी से घोली गयी है.

क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि इतने विशाल और विविधताओं वाले देश में 'सेकुलरिज्म' इस चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं था? हिंदुत्त्व की राजनीति इतनी प्रबल हो गयी है कि राजनैतिक दलों को इस शब्द से डर लगने लगा है. वाम दल और समाजवादी हाशिए पर चले गये और कांग्रेस नेताओं ने स्वयं हिंदू बाना धारण कर लिया. भारत की विरासत अनाथ-सी हो गयी. 'आयडिया ऑफ इण्डिया' खतरे में क्यों नहीं होगा.

नयी पीढ़ी यदि मोदी की दीवानी हो गयी है तो इसलिए कि उसे अपनी बहुलतावादी राजनीतिक विरासत की खूबियों के बारे में कुछ पता ही नहीं और बताने वाले नेता हैं नहीं. नेहरू की 'गलतियों' को भाजपा ने खूब प्रचारित किया लेकिन हैएअत हौ कि नेहरू के ऐतिहासिक योगदान को नयी पीढ़ी तक पहुँचाने में कांग्रेस सर्वथा अक्षम साबित हुई? इतने व्यापक दुष्प्रचार का प्रतिकार करने की कोशिश तक नहीं हुई.

खतरनाक समय और कठिन चुनौतियाँ

पिछले पाँच साल से भारतीय समाज का बहुलतावादी ढाँचा जो खतरे झेल रहा था, वे अब और बढ़ गये हैं. चुनाव नतीजे आने के बाद से ही भीड़-हिंसा की खबरें आने लगी हैं. भोपाल, दिल्ली और कुछ स्थानों पर बीफ ले जाने का आरोप लगाकर निर्दोष लोगों की पिटाईऔर गोल टोपी उतार कर जय श्रीरामके नारे लगवाने जैसी वारदात हुई हैं. प्रचण्ड बहुमत के नशे में हिंदू संगठनों का यह उत्पात और बढ़ेगा ही. गोरक्षकों की बेलगाम फौज सड़कों पर निकलेगी.

सिकुलरों’, ‘अर्बन नक्सलियों’, 'अवार्ड वापसी गैंग'  और टुकुड़े-टुकुड़े गैंगके खिलाफ सोशल साइट्स पर और सार्वजनिक रूप से भी हमले बढ़ेंगे. प्रतिरोध के इन स्वरों की देशद्रोही बताकर पहले ही काफी लानत-मलामत की जा रही थी. अब यह देखकर कि फासीवादके जिस खतरे के प्रति ये जनता को आगाह करते रहे, उसका मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा, इन पर आक्रमण तेज हो जाएंगे.

मुख्य धारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा, जो पिछले पाँच वर्ष में गोदी मीडियाका विशेषण पा चुका है, अब और बेशर्म हो उठेगा. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह मीडिया और भी रेंगेगा. मीडिया जो कुछ हिस्सा सवाल पूछने और जनता के जरूरी मुद्दे उठाने की कोशिश करता रहा है, उस पर दवाब और बढ़ेगा. मोदी और शाह ऐसे मीडिया के लिए बिल्कुल दुर्लभ हो जाएंगे. दूसरी तरफ उनके गद-गद साक्षात्कार यदा-कदा दिखाई देंगे.

अपनी स्वायत्तता खो रही संवैधानिक संस्थाओं में दखलंदाज़ी अब बेरोकटोक होगी. चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका हमने इन चुनावों में देख ही ली है. इतिहास, विज्ञान, साहित्य, कला, आदि की संस्थाओं पर अवैज्ञानिक सोच वाले संघी लोगों का पूरा दबदबा हो जाएगा.  

राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर प्रतिपक्ष के लिए जनता को यह समझाना बहुत मुश्किल होगा कि भारतीय समाज और लोकतंत्र किस तरह खतरे में है. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से सम्मोहित की जा चुकी जनता की आंखें खोलने का काम बहुत चुनौतीपूर्ण हो गया है. सोशल साइटों और जनता के बीच सक्रिय रहने वाले प्रतिरोधी सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, स्वयंसेवी संगठनों, आदि की आवाज़ दबाने, उनकी गिरफ्तारी की घटनाएँ और बढ़ेंगी.

वैसे, भारतीय समाज और लोकतंत्र में अभी काफी ताकत है. वह इतनी आसानी से फासीवाद के किसी प्रच्छन्न अभियान से कुचला नहीं जा सकेगा लेकिन खतरे बढ़ गये हैं. उसी अनुपात में स्वतंत्रता, समानता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे संवैधानिक मूल्यों के समर्थकों-रखवालों की चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं. 

रास्ता क्या है?

भाजपा की राजनीति की उदार नकल से उसकी राजनीति का मुकाबला नहीं किया जा सकता. उसके सामने  बेहतर राजनीति खड़ी करनी होगी, जनता को बताना होगा कि भारत जैसे विविधता वाले देश के लिए एक देश, एक धर्म, एक संस्कृतिवाला राष्ट्रवाद क्यों खतरनाक है, कि गांधी-नेहरू-आम्बेडकर की विरासत क्या है. और, ऐसा करने के लिए जन-जन तक प्रभावी तरीके पहुँच सकने वाला संगठन बनाना होगा.

स्वराज पार्टी के योगेंद्र यादव पिछले कुछ समय से देश में कई जगह यह पूछ रहे हैं  कि आरएसएस 90 साल से हिंदुत्त्व और सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद के लिए सघन अभियान चलाए हुए है. बड़े धैर्य से उसका संगठन अपना विस्तार करता रहा है, जनता को अपना एजेण्डा समझाता रहा है लेकिन क्या हमने (मतलब, इस देश की बहुलता में विश्वास करने वाले दलों, संगठनों ने) जनता के साथ 90 दिन भी बिताए?

यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है. हिंदुत्त्व की राजनीति का इतना विस्तार न हुआ होता यदि संघ के समर्पित गणसेवकों का जाल जन-जन तक न फैला होता. वे उड़ीसा, त्रिपुरा और उत्तर-पूर्व के राज्यों में आदिवासियों के बीच दो-दो, तीन-तीन साल तक रहकर अपना काम करते हैं. पश्चिम बंगाल के सुदूर गाँवों में चुपचाप फैलकर रामनवमी और हनुमान जयंतियों के आयोजन करते-करवाते हैं, वे शाखाओं में संघ की नयी-नयी पौध तैयार करते हैं.

मोदी की आज की प्रचण्ड विजय में इस फौज का बहुत बड़ा हाथ है. यह एक दिन में नहीं हुआ. वर्षों की मेहनत का परिणाम है. इसलिए इसकी काट भी एक दिन में यानी भाजपा के विरुद्ध विपक्षी मोर्चा बनाकर नहीं किया जा सकता. इसका प्रतिकार करने के लिए उनकी जैसी ही तैयारी और संगठन चाहिए. वह कांग्रेस करे या कोई गठबंधन, काम उसी स्तर पर करना होगा.

चूंकि भारत में पंथ-निरपेक्ष बहुलतावाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, इसलिए उस विचार को आज के जन-मानस में बैठाने के लिए उतना लम्बा वक्त नहीं लगना चाहिए जितना संघ-परिवार को लगा.

आयडिया ऑफ इण्डियाको बचाने के लिए भाजपा को सत्ता से अपदस्थ करना ही नहीं, समाज में घोल दिये गये जहर का एंटीडोज़देना भी बहुत जरूरी है. इसके लिए हर स्तर पर प्रतिरोधी स्वरों को और ऊँचा, और तेज करना होगा. प्रगतिशील विचार वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं हर विधा में सक्रिय बुद्धिजीवियोंकी सक्रियता महत्त्वपूर्ण हो गयी है.
     
(नैनीताल समाचार, 01-15 जून, 2019)