“देश का वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ाने और कार्बन उत्सर्जन कम करते रहने के अंतरराष्ट्रीय वायदे को निभाने के लिए” मोदी सरकार जो नया वन (संरक्षण और संवर्धन) विधेयक लाई है और जिसे बीते बुधवार को लोक सभा ने ध्वनिमत से पारित कर दिया है, यदि कानून बन जाता है तो न केवल सरकार को प्राकृतिक वनों में ‘विकास’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर कई तरह के निर्माण करने की छूट मिल जाएगी, बल्कि वनों में रहने वाले या उन पर आश्रित आदिवासी/ग्रामीण समाजों के सिर पर निरन्तर मंडराता विस्थापन का खतरा कई गुणा बढ़ जाएगा। वन अधिनियम 1980, जिसमें संशोधन प्रस्तावित हैं, के अनुसार वनक्षेत्र में किसी भी प्रकार के निर्माणों के लिए सरकार को पर्यावरण मंत्रालय से हरी झण्डी लेनी होती है और प्रभावित होने वाले ग्रामीण समाजों से उनकी सहमति भी लेनी होती है। नए संशोधनों के बाद यह औपचारिकता भी नहीं रह जाएगी। पूर्वोत्तर भारत से लेकर हिमाचल और उत्तराखण्ड के प्राकृतिक वन और जैव विविधता पर खतरा बहुत बढ़ गया है।
लोक सभा में पारित हो चुके वन
अधिनियम संशोधनों के प्रमुख उद्देश्यों में कहा तो यही गया है कि देश का
वनाच्छादित क्षेत्रफल बढ़ाने की बड़ी जरूरत है लेकिन जो प्रावधान किए गए हैं उनसे इस
उद्देश्य की सचमुच पूर्ति होने की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं हैं, बल्कि यह लक्ष्य उन उद्देश्यों में
परिलक्षित ही नहीं होता। इन संशोधनों के बाद “देश की अंतराष्ट्रीय सीमाओं पर सड़कों, रेलवे लाइनों और सामरिक महत्त्व के
अन्य निर्माणों” के लिए सरकार को खुली छूट मिल जाएगी। यहां यह नोट किया जाना चाहिए
कि देश की सीमाओं से लगे क्षेत्रों में ही सर्वाधिक प्राकृतिक वन हैं, जो जैव-विविधता से भरपूर हैं। देश
की सुरक्षा के मुद्दे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन जैव विविधता से सम्पन्न ये वन
भी देश की सुरक्षा, पर्यावरण एवं उसके लिए सबसे आवश्यक जैव विविधता के लिए कम
महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। अगर इन क्षेत्रों में सैन्य या अन्य सामरिक महत्त्व की
परियोजनाएं चलानी हैं तो उस पर संसद और उसके बाहर गहन विचार-विमर्श एवं विशेषज्ञों
से सलाह की आवश्यकता है और वनों पर निर्भर समुदायों के जीवन का मुद्दा भी अनदेखा
नहीं किया जा सकता। पूर्व में इन्ही कारणों से सरकारी परियोजनाओं को भी पर्यावरण
मंत्रालय की मंजूरी को अनिवार्य बनाया गया था और आदिवासी समाजों की सहमति को भी। सर्वोच्च
न्यायालय ने भी 1996 में टी एन गोदावर्मन बनाम केंद्र सरकार मामले में प्राकृतिक वनों
को बचाने के लिए महत्त्वपूर्ण निर्देश दिए थे।
‘वन’ या ‘वनाच्छादित क्षेत्र’ की सरकार की समझ या दावेदारी में
बड़ा खोट है। वह सरकारी और निजी बंगलों,
रिसॉर्टों, उद्यानों, आदि को भी ‘वनक्षेत्र’ में शामिल कर लेती है और इस तरह
दिखा देती है की वनक्षेत्र बढ़ रहा है। (देखें - https://apne-morche-par.blogspot.com/2023/03/blog-post.html ) वास्तविक रूप से वन उन्हें माना जाना चाहिए जहां प्राकृतिक
रूप से वन हों और उनमें पूरी जैव विविधता हो, यानी ऐसे जंगल जो प्राकृतिक रूप से
विकसित हुए हों, या मानव प्रयत्नों से भी विकसित हुए हों तो, उनमें वन्य जीव-जंतु-कीट-पतंगे, विविध प्रकार की वनस्पतियां, एक-दूसरे को पोषित करने वाले जैविक
कारोबार अबाध चलते हों। यह भी कह सकते हैं कि जिन जंगलों में सृष्टि के विराट रूप
के सूक्ष्म दर्शन होते हों उन्हें वास्तविक वन कहा जाना चाहिए। इस धरती पर जीवन को
सिर्फ हरियाली नहीं चाहिए, पूर्ण जैव विविधता चाहिए। इसी को वास्तविक पर्यावरण संरक्षण
कहा जाता है। दुर्भाग्य से सरकार और सामान्य समझ वालों के लिए पेड़ लगाना/बचाना ही
पर्यावरण बचाना हो गया है। इसीलिए सरकार वनों के अपने आंकड़ों में मंत्रियों की
कोठियों की हरियाली भी शामिल कर लेती है।
28 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस में
प्रकाशित रवि चेलम (मेटास्ट्रिंग फाउण्डेशन के सीईओ और बायोडाइवर्सिटी कोलाबरिटिव
के कोआर्डिनेटर) के लेख के अनुसार देश में मात्र 12.37 प्रतिशत प्राकृतिक वन बचे
हैं, हालांकि वनाच्छादित क्षेत्र 21 प्रतिशत है। 33 प्रतिशत वन
क्षेत्र का लक्ष्य पाने के लिए लम्बा किंतु समझदारी भरा सफर तय करना है। बड़ी चिंता
की बात यह है कि पूर्वोत्तर भारत के प्राकृतिक वन सर्वाधिक जैव विविधता वाले हैं
और वहां 2009 से 2019 के बीच 3199 वर्ग किमी वनक्षेत्र कम हो गया है और जो वनक्षेत्र
बढ़ा है, वह व्यावसायिक वृक्षारोपण और शहरी पार्कों के रूप में है।
वन अधिनियम -1980 और 1996 के
सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने प्राकृतिक वनों को सुरक्षित रखने में काफी हद तक मदद
की है। इन प्रावधानों पर और भी ईमानदारी से अमल किए जाने की आवश्यकता है लेकिन यह
सरकार पूर्व की अपेक्षाकृत बेहतर व्यवस्था को बदल करके अपने लिए खुली छूट लेने जाने
रही है। वन अधिनियम तो बदल ही जाएगा 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी एक
किनारे करने का रास्ता खुल जाएगा।
मोदी सरकार वन अधिनियम को कितना
महत्त्व देती रही है इसए समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। उत्तराखण्ड में
मोदी का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’
कहे जाने वाली ऑलवेदर चारधाम रोड
परियोजना के लिए कानून के मुताबिक पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति की आवश्यकता थी
क्योंकि उसमें हजारों पेड़ों की बलि होनी थी। इस कानून से बचने के लिए सरकार ने करीब
900 किमी की इस ऑलवेदर रोड को नौ छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया क्योंकि एक सौ
किमी से कम सड़क के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। इस मामले में सुप्रीम
कोर्ट द्वारा गठित रवि चोपड़ा कमेटी की सिफारिशों की भी अनदेखी करने का रास्ता
निकाल लिया गया था जिससे खिन्न होकर रवि चोपड़ा ने समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा
देना ठीक समझा।
यह है मोदी सरकार का पर्यावरण
प्रेम। इस बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए इंडियन एक्सप्रेस का यह लेख देखें-
- - न. जो,
29 जुलाई, 2023