Monday, August 22, 2022

और भी जीवित हुआ है गिर्दा

आज शाम, बल्कि कुछ देर पहले ही 'म्योर पहाड़-म्येरि पछ्याण' ग्रुप में नई-पुरानी पीढ़ी को गिर्दा को याद करते हुए सुनना उत्तराखंडी समाज में गिर्दा की धड़कन को अनुभव करना था। सबने गिर्दा को अपने-अपने ढंग से याद किया। अधिकतर ने उनकी कविताएं-गीत-गजल सुनाए। गिर्दा कुमाउनी की खसपर्जिया शैली में लिखता बोलता था। आज वह कभी पछाईं में बोल रहा था, कभी सोर्याली में गुनगुना रहा था, कभी जोहारी लटक के साथ आंदोलित हो रहा था। इनमें कुछ गिर्दा के साथ के लोग थे और कुछ ने उन्हें देखा भी नहीं था लेकिन वे उसे ऐसे याद कर रहे थे जैसे कि वर्षों उसके साथ रहे हों। याद करने वालों से जाने-अनजाने उसके कुछ शब्द बदल गए थे, कुछ शब्दों ने दूसरी उप-बोलियों में नया रूप धर लिया था, लेकिन भाव वही थे, तेवर वही थे, भंगिमाएं वही थीं। कुछ ने गीतों को गिर्दा की अपनी धुनों में गाने की कोशिश की, कुछ ने धुन बदलने के प्रयोग किए और कुछ आंतरिक जोश में बेसुरे भी गाते गए। सच बात यह है कि गिर्दा की स्मृतियों में उनके लिए संगीत महत्त्वपूर्ण नहीं था, सुर-ताल का अर्थ नहीं था , अर्थ था गिर्दा के होने और कई-कई पीढ़ियों के मानस में उसके रच-बस जाने का। यह बड़ी बात है।

हम जानते हैं कि गिर्दा की स्मृतियां और उसका लिखा-गाया-बोला लोगों को याद है और याद रखा जाता रहेगा लेकिन आज शाम की चर्चा ने साबित किया कि वह अपने शारीरिक रूप से न होने के इन बारह वर्षों में उत्तराखण्ड के जन-मानस में और गहरे जीवित हुआ है। उसकी स्मृतियां प्राणवान हैं और प्रेरित कर रही हैं। समाज के इस अंधेरे समय में यह एक मशाल की तरह है। यह सवाल अलबत्ता बना रहेगा कि गिर्दा की इन स्मृतियों के साथ क्या उसकी सामाजिक-राजनैतिक चेतना भी जन मानस में पैठ बना रही है जो "जैंता एक दिन त आलो उ दिन यो दुनी में" के लिए अत्यावश्यक है?
-न जो, 22 अगस्त, 2022, 21.53

Sunday, August 21, 2022

अगला आंदोलन अधिक परिपक्व साबित होगा- गिर्दा

यार पुष्कर, तू तो दूर देश का प्राणी जैसा हो गया,’ एक दिन गिर्दा का फोन आया - आ जा, कोसी का घटवार के इलाके में चलेंगे, माठू-माठ।

पुष्कर नदी बचाओ आंदोलनमें शामिल होने उत्साह से गया। सूखती कोसी नदी के किनारे-किनारे नदियों, झीलों और हिमालय को बचाने की अपील करती, जन जागरण करती, गीत गाती यात्रियों की टोली में शामिल होकर वह तरोताज़ा हो गया। गिर्दा का साथ उसे वैसे भी ऊर्जा से भर देता था। काफी समय से उनकी सेहत ठीक नहीं चल रही थी। फिर भी यात्रा में आए और सदा की तरह एक गीत के साथ- मेरि कोसि हरै गे कोसि’ यानी 'मेरी कोसी खो गई है, कोसी!' यात्रा के दौरान गिर्दा से उसकी खूब बातें हुईं। उत्तराखण्ड के हालात से गिर्दा कम व्यथित नहीं थे लेकिन निराशा उनके पास फटक नहीं सकती थी।

आंदोलनकारी संगठनों के बिखराव, टूटन, अधकचरी राजनैतिक तैयारी, जन-विरोधी ताकतों के निरंतर मजबूत होने और जल-जंगल-जमीन की बढ़ती लूट पर पुष्कर की उदासी के संदर्भ में गिर्दा ने कहा- हां भुला, संगठनों में भटकाव है, ठहराव है। बहुत सी धाराएं-उपधाराएं पैदा हो गई हैं। सही धारा को समझना-पकड़ना मुश्किल हो रहा है... लेकिन, एक बात बताऊं पुष्कर तुझे, एक और आंदोलन इस समय उत्तराखंड के गर्भ में पल रहा है। जो हालात हैं, पक्का है कि अगला आंदोलन अधिक परिपक्व साबित होगा। जनता एक कदम और आगे बढ़ेगी। अभी बड़े धैर्य की आवश्यकता है।

पैदल चलते, थकते-हांफते गिर्दा के बीमार चेहरे पर उस भावी परिपक्व आंदोलन की चमक दिखाई दी।उसकी कौंध पुष्कर के भीतर भी पहुंची थी। 

(अपने ताज़ा उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' का एक अंश गिर्दा की याद में)