Friday, September 28, 2018

महिला पुलिस का क्रूर पुरुष-चेहरा




हमारे पुलिस बल में महिलाएं क्यों भर्ती की गयी होंगी? क्या सिर्फ इसलिए कि महिलाओं को पीटना हो, उन पर जुल्म करने हों तो उनकी जरूरत पड़ती है, क्योंकि पुरुष सिपाही का उन्हें हाथ लगाना अब अनुचित माना जाता है? जो काम पुरुष पुलिसकर्मी कर सकते हैं वह महिला क्यों नहीं कर सकतीं? क्या इस निर्णय में यह विचार भी शामिल है कि पुलिस कार्रवाई और जांच-पड़ताल के दौरान महिलाओं से सम्बंधित मामले सम्वेदनशीलता से निपटाए जा सकें, महिलाओं का पक्ष सही संदर्भों और उनके नजरिये से समझा जा सके?

महिलाएं चाहे तो गर्व कर सकती हैं कि महिला पुलिस वह सब करने में माहिर हो चुकी हैं जो उनके पुरुष सहकर्मी करते रहे हैं. गाली बकने से लेकर अत्याचार करने तक में उन्होंने बराबरी हासिल कर ली है. महिला होने के नाते उनमें महिलाओं के प्रति जो सम्वेदनशीलता होनी चाहिए थी, वह पूरी तरह कुंद हो चुकी है. उनके प्रशिक्षकों ने उन्हें 'पुलिस' बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्हें शाबाशी दी जानी चाहिए.

हम बहुत तकलीफ के साथ यह बात इसलिए कह रहे हैं कि मेरठ के ताजा मामले में उस लड़की की पिटाई करने वालों में दो महिला पुलिसकर्मी शामिल थीं, जो 'लव-जिहाद' से हिंदू धर्म को बचाने का ठेका लेने वाले उद्दण्ड लोगों से त्रस्त थी, जिसे स्वयं सुरक्षा और आश्वस्ति की आवश्यकता थी. महिला पुलिस को देख कर उसने राहत की सांस ली होगी किन्तु उन दोनों गर्वीली सिपाहियों ने उसे शारीरिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी बहुत प्रताड़ित किया. उन्होंने लड़की को पीटते हुए उसे लानत भेजी कि क्यों मुसलमान लड़के से दोस्ती करती है? तुम्हें इसके लिए शर्म नहीं आती? दोनों ने लड़की के  मुंह पर लिपटा स्कार्फ नोच लिया ताकि उसका चेहरा सब देखें यानी उसकी 'बदनामी' हो. पूरी तरह पुलिस बन जाने के बाद वे यह सोच नहीं सकतीं कि इसमें बदनामी के लिए क्या था.

मामला प्रचारित होने के बाद मामले में शामिल पुलिस जनों को निलम्बित कर दिया गया है. पुलिस महानिदेशक ने ट्वीट किया है कि मेरठ पुलिस के गैर-जिम्मेदाराना और संवेदनहीन रवैये को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. सच यही है कि हमारी पुलिस का व्यवहार अक्सर देश और संविधान को शर्मशार करने वाला होता है.

एक वयस्क छात्रा अपने दोस्त से मिलने उसके घर जाती है. दोस्त मुसलमान है. इस कारण हिंदू संगठनों के लोग हंगामा मचाते हैं कि यह लव जिहादका मामला है. पड़ोसियों के फोन करने पर पुलिस पहुँचती है लेकिन वह लड़के की पिटाई होते देखती रहती है.

यह पहली घटना नहीं है जब पुलिस का ऐसा अमानवीय एवं साम्प्रदायिक चेहरा सामने आया है. उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के इस दौर में हिंदू संगठनों के उद्दण्ड कार्यकर्ता लव जिहादका हल्ला ज्यादा ही मचाने लगे हैं. हर बार पुलिस भी लड़के-लड़की को ही दोष देते और प्रताड़ित करते हैं. तथाकथित हिंदू संगठनों के हिंसक कार्यकर्ताओं को वे रोकते-टोकते नहीं.

पुलिस के ऐसे शर्मनाक व्यवहार से यह क्यों नहीं समझा जाए कि या तो पुलिस को ऐसे निर्देश हैं या उसे लगता है कि हमलावरों की पीठ पर मौजूदा सत्ता का हाथ है या फिर पुलिस की भी वही मानसिकता बन गयी है जो हिंदुत्व की रक्षा का झण्डा उठाने वाले हमलावरों की है. अन्यथा क्या वजह है कि हमलावरों को खदेड़ने की बजाय वे लड़की को पीटते हैं, मुसलमान लड़के से दोस्ती करने के कारण उसे लतड़ाते हैं?


('सिटी तमाशा' नभाटा, 29 सितम्बर, 2018)

Tuesday, September 25, 2018

भाजपा सेकुलर और कांग्रेस हिंदू हुई ?


रोचक ही है यह दृश्य या इसे राजनैतिक प्रहसन कहा जाए? 2019 का आम चुनाव आते-आते धर्मनिरपेक्ष और  आयडिया ऑफ इण्डिया की रखवालीकांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी शिव-भक्तहो गये हैं. उधर कट्टर हिंदुत्ववादी, उग्र राष्ट्रवाद की पोषक भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मस्जिद में जा रहे हैं. मुसलमानों को देश का शत्रु मानने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत कहने लगे हैं कि मुसलमान इस देश में अवांछित हुए तो हिंदुत्व ही नहीं रह जाएगा.

क्या कांग्रेस और भाजपा एवं संघ सचमुच बदल गये हैं? संघ ने कह दिया है कि मुसलमानों के बारे में गुरु गोलवलकर के विचार शाश्वत नहीं हैं यानी कभी वह धारणा प्रासंगिक रही होगी लेकिन आज स्थितियां बदल गयी हैं. इसलिए भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है’. क्या कांग्रेस भी कहेगी कि भारत के बारे में अब पार्टी का विचार वही नहीं रहा जो उसकी लम्बी विरासत है, जिस पर वह गर्व करती रही है? जिस कांग्रेस को मोदी मुसलमानों की पार्टीबताते हैं, कांग्रेस के नये अध्यक्ष उसे हिंदुओं की पार्टीसाबित करने पर तुले हैं. भाजपा से कुछ कम हिंदू. राम मंदिर नहीं, राम वन-गमन-पथ बनवाने का वादा.    

क्या 2019 का चुनाव इतना कठिन है कि दोनों पार्टियों को अपना मूल चरित्र बदलना पड़ रहा है? यह बदलाव दिखावा है या सचमुच दिशाएं बदल रही हैं? जैसा भी हो, क्या यह छवि-परिवर्तन दोनों दलों को 2019 की लड़ाई जीतने का ब्रह्मास्त्र लग रहा है?

भारतीय जनता पार्टी और संघ का अपनी छवि बदलने का प्रयास समझ में आता है. कभी उत्तर भारत के उच्च जातीय कट्टर हिन्दुओं की पार्टी रही जनसंघ और फिर भाजपा आज गोवा और सुदूर उत्तर-पूर्व तक के राज्यों में शासन कर रही है तो उसे अखिल भारतीयता का मतलब समझ में आ रहा होगा. अन्यथा क्या कारण है कि उत्तर के राज्यों में गोवध और बीफ पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने वाली उसकी सरकारें दक्षिण और उत्तर पूर्व में यही फैसला लागू करने का साहस नहीं कर सकीं? यानी उसे लगने लगा है कि इस देश पर पचास साल तक राज करनेकी मंशा सभी धर्मों-जातियों-संस्कृतियों को अपनाये बिना सम्भव ही नहीं है. फिलहाल तो 2019 के लिए ही गुरु गोलवलकर के निर्देश शाश्वत नहीं मालूम दे रहे. भीतर से वह बदले या नहीं, फिलहाल ऊपर से संघ और भाजपा को बदला हुआ दिखना जरूरी लग रहा होगा. प्रधानमंत्री मोदी के पहली बार एक मस्जिद में जाने और मोहन भागवत के ताजा उद्गारों का निहितार्थ समझना कठिन नहीं होना चाहिए.

कांग्रेस को क्यों आवश्यक लग रहा है कि उसे हिंदू पार्टी हो जाना या कम से कम दिखना चाहिए? राहुल गांधी क्यों तेजी से परम संस्कारी, जनेऊ धारी, मत्था-टेकू, कैलास-यात्री हिंदू बनने में लगे हैं? क्या उन्हें लगता है कि इस रास्ते चलकर ही वे मोदी की भाजपा का मुकाबला कर पाएंगे? क्या वे यह समझ रहे हैं कि देश का आम मतदाता 2014 के बाद इस कदर हिंदूवादी हो गया है कि उसके वोट पाने के लिए हिंदू-चोला धारण करना आवश्यक है? जिन मूल्यों के लिए कांग्रेस जानी जाती थी, क्या उनकी जगह इस देश में नहीं रह गयी? ‘कांग्रेसहो कर ही क्यों नहीं भाजपा को हराया जा सकता?  क्या कांग्रेसी मूल्य भाजपाई विचार के सामने पस्त हो गये हैं?

राहुल के सभा मंचों पर मंत्रोच्चार करते पण्डों, ‘शिव-भक्त राहुलके पोस्टरों और कुर्ते के ऊपर से जनेऊ दिखाते युवा कांग्रेस अध्यक्ष को देख कर उनके पुरखे जवाहरलाल नेहरू की बरबस याद आ जाती है. नेहरू की धर्मनिरपेक्षता का पैमाना यह था कि उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के शंकराचार्य के चरण स्पर्श करने और गृह मंत्री सरदार पटेल के  सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार समारोह में शामिल पर भी घोर आपत्ति थी. उनके विविध लेखों, भाषणों,  मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्रों और स्वयं उनके आचरण में  ये मूल्य दिखाई देते रहे. उन्हीं नेहरू की कांग्रेस आज कहां आ गयी है?

इस भटकाव के लिए अकेले राहुल गांधी को दोष देना उचित न होगा. नेहरू का कुछ रास्ता राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने ही छोड़ दिया था. उनके पिता राजीव गांधी ने राजनीति में जिस तरह हिंदू कार्ड खेला उसने कांग्रेस की नींव हिलाने का काम ज्यादा किया. बाबरी मस्जिद का ताला उन्होंने खुलवाया. अयोध्या की विवादित भूमि पर राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति भी उन्होंने ही दी. कहते हैं कि देवरहा बाबा का आशीर्वाद लेने गये राजीव को बाबा ने कहा था-बच्चा, हो जाने देऔर उन्होंने शिलान्यास हो जाने दिया. उत्साहित राजीव गांधी ने 1989 के लोक सभा चुनाव के लिए प्रचार-अभियान की शुरुआत अयोध्या की धरती से की थी. किंतु हुआ क्या? यह हिंदू कार्ड राजीव की कांग्रेस को फला क्या? उलटे, मुसलमान कांग्रेस से नाराज हुए और राम मंदिर की पहल बरास्ता विश्व हिंदू परिषद, भाजपा ने हथिया ली. वह उग्र अभियान चलाकर हिंदुओं को अपने खेमे की तरफ बहका ले गयी. दलित राजनीति का उभार उस समुदाय को भी कांग्रेस से दूर ले गया.

हिंदू-राजनीति की ओर झुकाव कांग्रेस की भारी भूल साबित हुई थी. 1984 में राजीव गांधी लोकप्रियता के चरम पर थे. 1989 आते-आते वे हाशिये पर चले गये. आज कांग्रेस अपने अस्तित्व-संकट से जूझ रही है तो राहुल उसी हिंदू-मंत्र से कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं. क्या उनका निष्कर्ष यह है कि 2014 से 2018 तक देश भर में कांग्रेस की पराजय थोड़ा कम हिंदू होने के कारण हुई? इसलिए उसे कुछ और हिंदू दिखना चाहिए? क्या इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी कि आज की कांग्रेस अपने मूल मार्ग से कितना भटक गयी है? क्या आज वह इस बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई, बहु-सांस्कृतिक देश का प्रतिनिधित्व कर पा रही है? क्या वह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर पाने में सक्षम रही है?            

कांग्रेस की असफलताएं ही भाजपा के विस्तार का कारण बनीं. उन भूलों-भटकनों की भरपाई हिंदू बाना धारण करने से होगी या उन मूल्यों की ओर लौटने से जिनके लिए कांग्रेस पहचानी-सराही जाती थी और जो इस विविधतापूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने में सक्षम है? जनता को हिंदू पार्टी ही चुननी है तो वह पूरी हिंदू भाजपा को  क्यों नहीं चुने? अगर आयडिया ऑफ इण्डियाखतरे में है तो उसे बचाने का उपाय क्या है? कांग्रेस के पास जनता को दिखाने के लिए राहुल का शिव-भक्तके अलावा कोई दूसरा चेहरा भी है?

यह समझना कठिन नहीं होना चाहिए कि मोदी को हराने के लिए मोदी की नकल करना नहीं, मोदी का बेहतर विकल्प बनना जरूरी है. कांग्रेस इस दिशा में क्या सोच रही है?

(प्रभात खबर, 26 सितम्बर 2018)

Sunday, September 23, 2018

ऐसे कैसे होगी सरकारी खर्चों में कमी?


इन निर्देशों का सख्ती से पालन होना चाहिए कि सरकारी अधिकारी विदेश यात्राओंपंचातारा होटलों में बैठकों-गोष्ठियों और दावतोंबंगलों की सजावटआदि-आदि पर खर्च में कटौती करें. जनता के धन को ऐसे कई मदों में फूकने की बजाय जनहित में इस्तेमाल किया जाना चाहिए. प्रदेश के मुख्य सचिव ने तीन दिन पहले जो 18-सूत्री निर्देश जारी किये हैंउनमें से ज्यादातर पर असहमति का कोई कारण नहीं होना चाहिए.

चिकित्सा और पुलिस विभागों को छोड़ कर अन्य विभागों में नयी नियुक्तियां नहीं करने का आदेश कर्मचारी संगठनों को नाराज करने वाला है किंतु यह भी सच है कि कई विभागों में काम से ज्यादा कर्मचारी हैं. कम्प्यूटर आ जाने का बाद काम काफी हलका हुआ हैकाम में हीला-हवाली करने और भ्रष्टाचार के लिए सरकारी विभाग कुख्यात हैं. सरकारी विभागों के कई काम पहले से ठेके पर (आउटसोर्सिंग) दिये जा रहे हैं. नया आदेश इसे और बढ़ाने की बात करता है. काम में टालमटोल के आदी कर्मचारियों को यह भी नहीं सुहाएगा.

सवाल यह है कि क्या सरकार मितव्ययिता पर वास्तव में गम्भीर हैऐसे आदेश पहले की सरकारों में भी यदा-कदा जारी हुए थे. ईमानदारी से पालन कभी नहीं हुआ. पूरा सरकारी अमलाचतुर्थ श्रेणी कर्माचारी से लेकरआला अफसरों तकजनता के धन को मुफ्त के माल की तरह उड़ाने का आदी है. अफसरों की चाय-पानीदफ्तर एवं घर की साज-सज्जा और स्टेशनरी का हिसाब ही मांग लीजिए तो आंखें खुल जाती हैं.

सरकार सही में मितव्ययी होना चाहती है तो सिर्फ अफसरों से ही उम्मीद क्यों की जा रही हैऐसा ही फरमान सरकार के मुखिया क्यों नहीं जारी करतेक्यों नहीं विधायकों के विभिन्न भत्तों में कुछ कटौती की जातीक्यों नहीं मंत्रियों के बेशुमार खर्चों पर लगाम लगाई जातीमंत्रियों की सुरक्षा व्यवस्था पर कितना खर्च होता हैक्या सब के सब हर समय बहुत खतरे में रहते हैंउसमें कुछ कटौती नहीं की जा सकतीमुख्यमंत्री के काफिले को थोड़ा छोटा नहीं किया जा सकताये सब जन-प्रतिनिधि हैं. जनहित और प्रदेश के विकास की चिंता उन्हें होनी ही चाहिए. जिम्मेदारी भी उन्हीं की है?

होना भी यही चाहिए कि सरकारी अमले को निर्देश देने से पहले नेतृत्व स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करे. पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं. अपनी निजी गाड़ियों में तेल भरवाते समय दस बार सोचा जाता होगालेकिन सरकारी गाड़ियों के फर्राटे में कहीं कोई संकोच नहीं है. मंत्री हों या अफसरहरेक को नयी गाड़ी चाहिए. विभागों के अन्य मदों के बजट से गाड़ियां खरीदी जाती हैं. विभिन्न विभागों के अधीन दर्जनों निगम हैं. इन निगमों की गाड़ियां मंत्रियों-अफसरों की सेवा में तैनात रहती हैंजिसकी शायद ही लिखत-पढ़त होती हो.
ये चंद उदाहरण हैं. सरकारी फिज़ूलखर्ची के इतने ओने-कोने हैं कि हमारी नजर वहां तक पहुंच नहीं सकती. सरकार अपने अनुत्पादक व्यय कम करना ही चाहे तो ऐसे बहुतेरे मद होंगे जिनमें कटौती करके सरकार अच्छी-खासी बचत कर सकती है. योजनाओं में विलम्ब ही कितनी बड़ी चपत लगा देता है. भ्रष्टाचार तो खैर ईश्वर का चढ़ावा-सा है. उस पर बात करना व्यर्थ है.

प्रश्न है कि हमारे सरकारी विभाग निजी क्षेत्र के कार्यालयों की तरह चुस्त-दुरस्त और त्वरित परिणाम देने वाले क्यों नहीं बन सकतेक्या कभी वहां हर एक पैसे के खर्च की उपयोगिता साबित होगीप्रत्येक कर्मचारी समय का पाबंद और अपने काम के प्रति कब उत्तरदाई होगा?
मितव्ययिता अपनी जिम्मेदारी समझने से आती है.

(सिटी तमाशा, 23 सितम्बर, 2018)  


Friday, September 14, 2018

‘ओडीएफ’ यानी सरकारी अभियानों की त्रासदी



पहले यह तय कर दिया गया कि इस दो अक्टूबर को मुख्यमंत्री लखनऊ जिले को खुले में शौच-मुक्त (ओडीएफ) घोषित करेंगे. आपा-धापी मचनी ही थी. जिले के अधिकारी दौड़-भाग में लगे हैं. कर्मचारियों, एजेंसियों, ठेकेदारों, आदि को चेतावनी दी जा रही है कि शौचालय बनवाओ. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही अभी हजारों शौचालय बनने हैं और बड़ी संख्या में बनने की प्रक्रिया में हैं. बनवाने वालों के पेच कसे जा रहे हैं कि जल्दी करो.
महापौर सुबह-सुबह दौड़ रही हैं. उन्हें बताया गया है कि कम से कम 114 जगहें ऐसी हैं जहां लोग खुले में शौच जा रहे हैं. उन इलाकों का दौरा हो रहा है. लोगों को चेतावनी दी जा रही है कि खुले में क्यों जा रहे हैं. उन पर जुर्माना भी लगाया जा रहा है. लोग फिर भी मान नहीं रहे हैं.

वे क्यों नहीं मान रहे हैं? कारण जानने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत नहीं. आपके इसी अखबार ने कई रिपोर्ट छापी हैं जो बताती हैं कि लक्ष्य पूरा करने के लिए शौचालय बनवाने की खानापूरी की जा रही है. ज्यादातर इस लायक बने ही नहीं कि उन्हें इस्तेमाल किया जाए. किसी में दरवाजे नहीं है तो किसी की दीवारें बनते ही ढह गईं. सीटें टूटी हैं. पानी की व्यवस्था नहीं है. लोग उनका इस्तेमाल शौच के लिए करने की बजाय उनमें भूसा, कण्डे, आदि रख रहे हैं.

प्रशासन चूंकि दो अक्टूबर को जिले को खुले में शौच मुक्त घोषित किये जाने की तैयारी कर रहा है, इसलिए उसे यह देखने की फुर्सत नहीं है कि शौचालय कैसे बने हैं, वे इस्तेमाल लायक हैं या नहीं या जनता को कैसे प्रेरित करना है. टूटे शौचालयों के लिए वह जनता को ही दोषी ठहरा रहा है. उन पर कार्रवाई की बात हो रही है.
खुले में शौच से मुक्ति का जो अभियान प्रधानमंत्री ने चलाया है, वह वास्तव में सराहनीय है. इस लक्ष्य को पूरा किया ही जाना चाहिए. दुर्भाग्य यह है कि इसे भी बाकी सरकारी लक्ष्यों की तरह पूरा करने की होड़ मची है. कई जिले इससे मुक्त घोषित किये जा चुके हैं. यानी फाइलों में लक्ष्य के मुताबिक शौचालय बना दिये गये हैं. बजट पूरा खर्च कर दिया गया है. वे इस्तेमाल लायक हैं या नहीं, जनता वास्तव में उनका उपयोग कर रही है या नहीं, या ठेकेदार ही ने टूटी सीट तो नहीं लगा दी, यह देखना जरूरी नहीं समझा जाता. खबरें हैं कि बहुत सारे लोग अब भी खुले में जा रहे हैं.

जनता की इच्छा और सहभागिता के बिना ऐसे अभियान सफल नहीं होते. ज्यादातर ग्रामीण खुले में जाना आदतन अच्छा समझते हैं तो शहरों की बड़ी आबादी मजबूरी में . शौचालय दोनों की ही जरूरत हैं. उससे ज्यादा जरूरी है मानसिक परिवर्तन. सरकार अनुदान देकर निजी और सामुदायिक शौचालयों के भवन खड़े करवा दे रही है. उनमें पानी की व्यवस्था हो, नालियां और सोक-पिटसही बने हों, हवादार हों और बदबू न करते हों, तब तो जनता उनका इस्तेमाल करे. तब भी उनका मन बदलने के उपाय करने होंगे. प्रशासन डण्डा लेकर तैनार रहे, लुंगी-लोटा छीने, जुर्माना लगाए, इससे तो उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं.

सरकारी अनुदान देकर शौचालय बनवाने का अभियान सरकारें दशकों पहले से चला रही हैं. मोदी जी ने कोई नयी घोषणा नहीं की. उन्होंने एक लक्ष्य जरूर तय कर दिया. काम कराने वाला सरकारी तंत्र वही है. पहले भी शौचालय बनवाने की औपचारिकताएं होती थीं. आज भी हो रही हैं. कागज पर लक्ष्य पूरे हो जाएंगे, जमीन पर नहीं.  
('सिटी तमाशा', नभाटा. 15 सितम्बर, 2018) 

Friday, September 07, 2018

मेट्रो से ज्यादा जरूरत नगर बस सेवा की



एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने हाल के अपने अध्ययन से बताया है कि भारतीय शहरों में सार्वजनिक परिवहन की हालत अत्यनत दयनीय है. नगर बसें कम होती जा रही हैं. जनता निजी वाहनों पर ही भरोसा करती है. यह चिंताजनक हालत बताने के लिए हमें किसी विश्व स्तरीय एजेंसी की रिपोर्ट की जरूरत नहीं थी. हम रोज ही इस कटु सत्य से रू-ब-रू होते हैं. सड़कों पर हर महीने बढ़ते निजी वाहन और चारों तरफ जाम लगने का एक बड़ा कारण निरन्तर घटती नगर बसें हैं. 

यह आंकड़ा चौंका सकता है कि इस वक्त लखनऊ के नगर बस बेड़े में मात्र 180 बसें हैं. इनमें भी सड़कों पर रोजाना चलने की हालत में कितनी हैं, पता नहीं. लखनऊ की विशाल आबादी के लिए सिर्फ 180 बसें! मोटा अनुमान है कि यहां कम से कम 1500 बसों की जरूरत है. कुछ वर्ष पहले 650 नगर बसें चलती थीं. यह शायद किसी समय चलने वाली बसों की अधिकतम संख्या थी. कोई भी सरकार राजधानी को बेहतर और चुस्त बस सेवा नहीं दे सकी. बातें बहुत हुईं लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं रहा.

नतीजा क्या हुआ? लखनऊ आरटीओ में तीन-चार वर्ष पहले तक हर महीने दस हजार वाहनों की रजिस्ट्री होती थी. आजकल हर अट्ठाईस दिन में दस हजार नम्बरों की शृंखला खत्म हो जाती है. यानी अब दस हजार वाहन सिर्फ 28 दिन में सड़कों पर आ जाते हैं. इनमें सबसे ज्यादा संख्या दो पहिया और चार पहिया वाहनों की है. हर कोई अपना वाहन लेना चाहता है. गाड़ी खरीदने की मध्यवर्गीय तमन्ना के अलावा इसका कारण भरोसे लायक परिवहन सेवा का न होना है. सड़कों पर जाम क्यों नहीं लगेगा? गाड़ी चलाने, यातायात नियम मानने और पार्किंग की तमीज के बारे में यहां बात करना बेकार है.

मेट्रो चलने का बड़ा हल्ला है. पहले की सपा सरकार और अब भाजपा सरकार दोनों मेट्रो संचालन का श्रेय खुद लेते हैं लेकिन किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मेट्रो-मैन श्रीधरन ने क्या कहा था. उन्होंने सलाह दी थी कि मेट्रो चले इससे पहले शहर में कम से कम 700 बसें चलाई जाएं ताकि लोगों में निजी वाहन की बजाय सार्वजनिक वाहन इस्तेमाल करने की आदत पड़े. हम शहरियों की आदत ऐसी हो गयी है कि घर से अपना वाहन निकाला और चल पड़े. बस स्टॉप तक जाना और इंतजार करना हम भूल ही गये. नवाब साहेब मेट्रो स्टेशन तक कैसे पहुंचेंगे?

मेट्रो की सवारी महंगी है. चारबाग से ट्रांसपोर्ट नगर तक साढ़े सात किमी के तीस रुपये लगते हैं. ऑटो सिर्फ दस रु में पहुंचा देता है. शहर की एक बड़ी आबादी महंगी मेट्रो में नहीं चल सकती. विशेषज्ञ तो यह भी मानते हैं कि लखनऊ जैसे शहर को अभी आने वाले कई वर्षों तक बेहद खर्चीली मेट्रो सेवा की जरूरत ही नहीं थी. मेट्रो यहां घाटे में ही रहेगी. उसे पर्याप्त सवारियां नहीं मिलेंगी. इसके बावजूद गोरखपुर जैसे शहर में मेट्रो चलाने की बात के जा रही है. जनहित पर राजनीति हावी है.

हमारे शहरों की सबसे बड़ी जरूरत  सस्ती, सुलभ और चुस्त नगर बस सेवा है. तभी सड़कें चलने लायक रह सकेंगी. मेट्रो चमत्कारिक लगती है, जनता का ध्यान खींचती है और इसीलिए  पार्टियों में श्रेय लूटने का कारण बनी है. अच्छी नगर बस सेवा भी सरकार की उपलब्धि हो सकती है, यह सोच ही नदारद है. कोई छह-सात महीने पहले घोषणा की गयी थी कि चालीस इलेक्ट्रिक बसें एक महीने में चलने लगेंगी. कोई बतायेगा कि उनका क्या हुआ?

 

Wednesday, September 05, 2018

इस बार मण्डल के साथ कमण्डल


लगभग तीन दशक बाद मण्डल-राजनीति का नया दौर शुरू हुआ है. रोचक बात यह है कि इस बार वही भारतीय जनता पार्टी इसकी जोरदार पहल कर रही है जिसकी कमण्डल-राजनीति की काट के लिए 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों से धूल झाड़ कर उसे लागू करने की तुरुप चाल चली थी. 2019 के लिए भाजपा मण्डल और कमण्डल दोनों का एक साथ इस्तेमाल कर रही है.

चार बातों पर गौर करिए. एक- बीते शुक्रवार को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की कि 2021 की जनगणना में ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियों) की गिनती की जाएगी. 1931 की जनगणा के बाद ऐसा पहली बार होगा. इस घोषणा से पिछड़ी जातियों और उनके नेताओं की पुरानी मांग पूरी की गयी है. यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना में यह गिनती करायी थी लेकिन कुछ गड़बड़ियों के कारण वह रिपोर्ट जारी नहीं की गयी.

दो- कुछ समय पहले ही केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिला चुकी है. अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग की तरह अब इसे भी संवैधानिक शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं. 

तीन- ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण कोटे में अत्यंत पिछड़ी जातियों के वास्ते अलग से कोटा निर्धारित करने के लिए अक्टूबर 2017 मोदी सरकार ने समिति गठित की थी. आशा की जाती है कि समिति शीघ्र ही अपनी रिपोर्ट सौंप देगी. कोटा भीतर कोटालागू हुआ तो अति पिछड़ी जातियों की यह शिकायत दूर होगी कि ओबीसी आरक्षण का ज्यादातर लाभ चंद जातियां उठाती रही हैं.

चार- जिस दिन राजनाथ सिंह ने ओबीसी जनगणना कराने का ऐलान किया उसी दिन उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पिछड़ी जातियों के नायकों को सम्मानित करने के अभियान की शुरुआत की. इस अभियान में  विभिन्न जिलों में तेली, साहू-राठौर, नाई, चौरसिया, विश्वकर्मा, गिरि-गोस्वामी, आदि 28 ऐसी जातियों को सम्मान और गौरव-बोध कराया जाना है जो ओबीसी में शामिल होने के बावजूद आरक्षण के लाभों से वंचित या अल्प-लाभांवित हुए हैं.  

हिदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के साथ सबका साथ, सबका विकासका यह मिश्रण भाजपा की चुनावी रणनीति का मुख्य हिस्सा है. ओबीसी पर भाजपा का यह फोकस नया नहीं है. 2014 की उसकी जीत में ओबीसी का भी बड़ा योगदान था. 2017 में उत्तर प्रदेश भाजपा को तीन चौथाई बहुमत दिलाने में उच्च जातियों एवं दलितों के अलावा ओबीसी वोटों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. लेकिन इस नये फोकस के खास कारण हैं.

सन 2014 के चुनाव नतीजों का लोकनीतिका अध्ययन बताता है कि भाजपा को दलितों के वोट बहुत बड़े पैमाने पर मिले थे. उसके बाद के सर्वेक्षणों में भी दलितों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ते जाने के संकेत थे. याद कीजिए कि 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के सभी बड़े नेता दलित-हितैषी दिखने का हर जतन कर रहे थे. अम्बेडकर के अस्थि कलश के सामने शीश नवाते प्रधानमंत्री से लेकर दलित घरों में भोजन करते भाजपा के शीर्ष नेताओं की तस्वीरें मीडिया में छायी रहती थीं. लोकनीतिके सर्वे में पाया गया था कि मई 2017 में दलितों में भाजपा का समर्थन 32 फीसदी तक बढ़ गया था. लेकिन मई 2108 में सामने आया कि भाजपा से दलितों का बड़े पैमाने पर मोहभंग हुआ है. एससी-एसटी एक्ट को नरम करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद यह बदलाव देखा गया. व्यापक दलित वर्ग तो आंदोलित हुआ ही, स्वयं भाजपा के दलित सांसदों ने नेतृत्त्व से नाराजगी व्यक्त की थी.

देश भर में दलितों के उग्र प्रदर्शन के बाद हालांकि मोदी सरकार ने संसद में विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से बहुत सख्त बना दिया है, लेकिन दलितों की नाराजगी दूर नहीं हुई है. लोकनीतिके अनुसार पिछले कुछ महीनों में भाजपा को दलितों का समर्थन 2014 के स्तर से नीचे चला गया है. दूसरा बड़ा बदलाव उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में आया, जहां भाजपा ने 2014 में 80 में 73 सीटें जीती थीं. सपा-बसपा के गठबंधन ने यहां समीकरण बदल दिये हैं. दलित वोटों का बड़ा हिस्सा और मुख्यत: यादव वोटों का जोड़ भाजपा पर भारी पड़ रहा है. इसलिए भाजपा ने ओबीसी आबादी के उस दो-तिहाई हिस्से पर फोकस किया है जो अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा है.

भाजपा के पास उच्च जातियों का अपना मुख्य वोट-बैंक बरकरार है. केंद्र की सत्ता कायम रखने के लिए उसे जो अतिरिक्त समर्थन चाहिए, वह कहां से सुनिश्चित हो? पिछली बार इसका बड़ा भाग दलितों से मिला था. इस बार दलित छिटक रहे हैं तो उसकी भरपाई के लिए कुछ गोटें बैठानी होंगी.

लगता तो यही है कि इसी आवश्यक अतिरिक्त समर्थन के लिए भाजपा ने मण्डल के साथ कमण्डल का जोड़ बैठाने की कोशिश की है. विशेष रूप से उन जातियों को आकर्षित करना होगा जो ओबीसी कतार में सबसे पीछे और उपेक्षित हैं. उनकी शिकायत रही है कि ओबीसी आरक्षण की मलाई यादव, कुर्मी जैसी कुछ जातियां खाती रही हैं. यादव वैसे भी यूपी में सपा और बिहार में राजद के साथ हैं.

उपेक्षित ओबीसी समुदाय को अपनी तरफ कर सकी तो भाजपा को दोहरा लाभ होगा. वह स्वयं तो मजबूत होगी ही, यूपी में सपा के कमजोर होने से बसपा से उसका गठबंधन ढीला पड़ सकता है, जो भाजपा का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है. यह रणनीति कितनी सफल होगी, वक्त बताएगा.


(प्रभात खबर, 5 सितम्बर, 2108)