Thursday, December 29, 2022

इस देश के पल्लीपार बढ़ते जा रहे

 


नवीन जोशी

हाल ही में प्रकाशित शीला रोहेकर का चौथा उपन्यास पल्लीपारअपने आकार (446 पृष्ठ) में ही नहीं अपने कथानक, मंतव्य और वितान में भी विस्तृत है। उसमें अनेक कथाएं हैं, कथाओं के भीतर कथाएं हैं, विविध लेकिन आपस में गुंथे एवं परस्पर उलझे हुए चरित्र हैं, उन सबका एक गुंजलक है, मिथक, गाथाओं और इतिहास की छौंक है तथा हमारे समकाल की विकराल सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक चुनौतियों से आमना-सामना है। इसके विविध चरित्र एक केंद्रीय चरित्र, नायिका सारा (यहूदी नाम साराह) से गहन रूप से जुड़े हैं जो अपनी-अपनी कहानियों की मार्फत उसके मानस, स्वतंत्र व्यक्तित्व, निज की तलाश के संघर्षों को चित्रित करने के साथ उस समय को भी बयां करते हैं जिसमें वे और उनके पुरखे रहते आए हैं। इनकी कहानियों में अतीत बार-बार बोलता है, मिथक व इतिहास गूंजता है और हमारा वर्तमान निरंतर विकट होती चुनौतियों के साथ पेश आता है। इस वर्तमान की जड़ें अतीत में ही हैं। पल्लीपारअपने नाम से ही संकेत कर देता है कि यह निरंतर पल्ली तरफ धकेले जाते अल्पसंख्यकों, अति-अल्पसंख्यकों, वंचितों के बाहरी-भीतरी संघर्ष की कथा है, लेकिन यह पल्लीपारइससे भी व्यापक अर्थों वाला है। यहां विवेकशील, लोकतांत्रिक, संवेदनशील मनुष्य होना ही पल्लीपार होना हो गया है। उसमें भी स्वतंत्रचेता स्त्री के लिए तो यह शब्द भी छोटा पड़ जाता है। वह हर तरह से पल्ली-पल्लीपार है।

अपने पिछले उपन्यास मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथा’ (2013) की तरह ही शीला जी पल्लीपारमें भी एक भारतीय यहूदी परिवार को केंद्र बनाती हैं लेकिन यह उपन्यास यहूदी परिवार और समाज के संकटों-संघर्षों तक ही नहीं रहता, उससे कहीं आगे की कंटकाकीर्ण राह पकड़ता है। इस यहूदी परिवार के चौगिर्द पूरे भारत का समकाल खड़ा नज़र आता है। जैकब नवगांवकर और एस्थर दम्पति के दो बेटों और एक बेटी की कहानी क्रमश: विस्तार लेती हुई हमारे देश की वर्तमान चुनौतियों, सामाजिक-राजनैतिक हालात, बढ़ती साम्प्रदायिकता, दंगे, मीडिया का निरंतर मूल्यच्युत होते हुए सत्ता का भौंपू बन जाना, सबंधों का टकराव और टूटन, पारिवारिक बिखराव, विस्थापन, बुजुर्गों का अकेलापन और विभिन्न चरित्रों, विशेष रूप से नायिका के अपने वजूद की तलाश या भटकाव को समेट लेती है। इस तरह यह उपन्यास गाथात्मक विस्तार लेते हुए पाठक को झिझोड़ता रहता है।

अपने जैन प्रोफेसर की बेटी से प्यार कर बैठने की कीमत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब यहूदी युवक जैकब नवगांवकर ने तीसरे दर्जे में पास होने, विश्वविद्यालयों की प्रोफेसरी के लिए अनुपयुक्त ठहराए जाने और एक कॉलेज में उपेक्षित-सी मास्टरी करते हुए जीवन बिता देने में चुकाई। उन्हें और भी बहुत चुकाना पड़ा। रिटायरमेण्ट के बाद फण्ड की रकम के बड़े हिस्से से जिस सोसायटी में दो कमरे का फ्लैट खरीदा, वह इस यहूदी परिवार को कभी अपना नहीं समझ सका। बड़े बेटे मोजस को भी पिता की तरह मुहब्बत में यहूदी होने के ऐवज में तगड़ी चोट खानी पड़ी। जिस यहूदी कन्या से अंतत: उसका विवाह हुआ, वह आर्थिक एवं मानसिक संकट के दौर में उसे छोड़कर चली गई। अंतत: मोजस नशे की लत एवं अवसाद के चलते माता-पिता की कथा को और त्रासद बनाता हुआ फंदे से लटक गया। छोटा बेटा बेन (बेन्यामिन) अपनी परिवार-विमुख पत्नी के साथ मुम्बई जा बसा। रही बेटी साराह, तो वह दोस्तियों और मुहब्बतों के जटिल पेंचों-धोखों-त्यागों, पत्रकारिता की नौकरी की कालिमा एवं उठापटक, दैहिक रिश्तों एवं मुहब्बती छलावों में अपने वजूद की तलाश करते-भटकते यू ब्लडी फकिंग बिचठहराई गई। अपने सूने फ्लैट में दिन काट रहे और बार-बार अतीत में जाते बूढ़े जैकब और एस्थर का अकेलापन इस तरह गूंजता है जैसे इस देश में अल्पसंख्यक ही नहीं, संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों में विश्वास करने वाले नागरिक किनारे धकेले जा रहे हैं, जिनके फ्लैट और रहे-बचे सामान पर कबाड़ी तक की शातिर निगाह लगी हुई है।

पिता जैकब, मां एस्थर, दिवगंत होने से पहले बड़े भाई मोजस, दूसरे भाई बेन्यामिन, बचपन की पक्की दोस्त लेकिन बाद में रकीब बन गई अवसादित रेवती, सहेली जबा, एक दौर का प्रेमी साहिल, मीडिया चैनल में उसके बॉस सलिल कपूर, जिनसे निकट होते गए रिश्ते में सारा ने कभी अपनी पूर्णता भी देखी थी तथा संवेदनशील सहयोगी-पत्रकार अशफाक की अलग-अलग कहानियों में और फुटकर स्मृतियों में सारा की कथा कई कोणों से आगे बढ़ती है। हरेक की कहानी में सारा है। कभी प्यार-दुलार, कभी दोस्ती, कभी अबूझ पहेली और कभी दुत्कारों-ठोकरों में सारा के व्यक्तित्व और कुछ सीमा तक मन की भी परतें खुलती हैं। यह एक विवेकशील और चेतन स्त्री की इस समाज में अपना ठौर तलाशने की जद्दोजहद है, अपनी पहचान बनाने और समझने की कोशिश है, यह अपनी अस्मिता तलाशने और स्वतंत्र रूप से सबल व्यक्ति के रूप में जीने की कश्मकश है। इस प्रक्रिया में सारा का छला जाना-भटकना ही नहीं दिखाई देता, इस पुरुष प्रधान समाज की सीवनें भी उघड़ती जाती हैं जिनसे तरह-तरह का कलुष झांकता है। एक प्रसंग में जब सारा से बेन कहता है- “तुम क्या चाहती हो, यह शायद तुम्हें भी मालूम नहीं” तो सारा का जवाब आता है- “ऐसा भी हो सकता है बेन कि मैं अपने रिश्तों में पूरी तरह से ईमानदारी चाहती हूं जिसमें कोई स्वार्थ, आशंका, दबाव या स्खलन न हो और अपने समय के लिए जवाबदेह हों।” बेन साफ कह देता है- “ऐसा बेलौस संसार तुम्हें मिलने से रहा। इसीलिए भाग रही हो। इसे भटक जाना कहते हैं सारा, भटकाव है यह।” सचमुच, भागती ही रही है सारापरिवार से, दोस्तों से, समझदार लगने वाले सहकर्मियों से, प्यार या प्यार का नाटक करने वाले बॉस, करीब आते उसके बेटे और मीडिया की नौकरियों से भी। शायद अपने आप से ही।                  

“रिबेलियस, स्वाभिमानी, जहीन और गम्भीर” सारा की यह भटकन उसे जहां-जहां ले जाती है, जिस-जिस से वह रिश्ते बनाती है, जहां भी मुहब्बत या धोखा पाती है, जब भी लड़ती और जूझती है, वहां-वहां और तब-तब हमारे समाज का कलुष, पौरुष और राजनीति की साजिशें सामने आ जाते हैं। सारा की इस कथा में इतिहास और मिथकों के अनेक प्रसंगों के गूढ़ार्थों से लेकर समकाल की भयावह स्थितियां तक गूंजते रहते हैं- “गायों को बचाया जा रहा है और दलितों की खालों की जूतियां बन रही हैं। दुनिया भर के सयानों, दार्शनिकों और महानायकों को बोतलों में भरकर जिन्न बना दिया गया है ताकि समयानुसार उन्हें बाहर निकालकर उपयोग में लाया जा सके। आजकल गांधी जी की ऐनक बाहर निकली हुई है।” गुजरात के दंगे, जाहिरा शेख की त्रासदी, दिल्ली के सीरियल धमाके, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे, समझौता एक्सप्रेस के विस्फोट और भी कई वारदात, जो इस देश के मूल ढांचे पर ही हमला करते आए हैं, सारा की कथा में गुंथे चले आते हैं और उनके पीछे की सच्चाई में झांकने का प्रयास करते हैं। 2014 के आम  चुनावों के बाद से देश में जो बदलावआया, बल्कि लाया गया है, उसके दूरगामी प्रभावों की अंतर्ध्वनियां और प्रतिक्रियाएं भी कथा में साफ-साफ सुने-देखे जा सकते हैं।

शीला रोहेकर स्वयं यहूदी हैं, इस अति-अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी पहचान खो देने का संकट, सामाजिक अलगाव, और भी क्या-क्या सहना पड़ता है, इसका उन्हें स्वाभाविक ही गहरा अनुभव है। मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथामें जो त्रासद-कथा वे लिख गई हैं, उसकी पीड़ादायक गूंज पल्लीपार में भी बराबर सुनाई देती है- “... दो हजार वर्ष में (जबसे यहूदियों का भारत आगमन माना जाता है) करीब एक हजार वर्ष हमारी जाति अल्पसंख्यक, पिछड़ी या अछूत समझी जाती रही। हमारे जैसे लोगों की बस्तियां नहीं होतीं, ‘पल्लीपार होता है, मुख्य बस्ती से दूर जहां उजाड़ होता है। ऐसे में सारी इच्छाएं, भविष्य और प्रगति धूल बनकर उड़ती रहती है।... हमारी जैसी जातियां निर्वासित हैं। हमारा इतिहास में कोई उल्लेख नहीं होता, केवल गजेटियर्स में होता है हमारा उल्लेख...।” इसके साथ ही इस उपन्यास में एक विशाल अल्पसंख्यक आबादी, यानी मुसलमानों को अपने ही वतन में पराया, संदिग्ध और आतंकवादी करार दिए जाने की राजनीति-पोषित नफरत का विस्तार से तकलीफदेह वर्णन है। 2013 में मुजफ्फरनगर के लाकबावड़ी गांव में सारा के सहकर्मी पत्रकार अशफाक की बहन को मुहल्ले के ही लड़के खींच ले गए, बच्ची और मां का कत्ल कर दिया गया, सदमे में पिता पत्थर हो गए, भाई विक्षिप्त बन गया और खुद अशफाक को दंगों में बलात्कार और कत्लों के झूठे आरोपों का अभियुक्त बनाकर बिना सुनवाई जेल में ठूंस दिया गया- “विश्व के तमाम देशों के अल्पसंख्यक और वंचित पल्लीपारके ही निवासी होते हैं, यह बात मैंने जेल की इस कोठरी से पूरी तरह मन में उतार ली है, क्योंकि इससे पहले मैंने किसी हादसे या दुर्दिन को अपने घर के किवाड़ पर दस्तक देते नहीं देखा था।” यह सच आज सिर्फ उपन्यास के पात्र अशफाक ही का नहीं है, एक बड़ी जीती-जागती आबादी हमारे देखते-देखते पल्लीपार भेजी जा रही है। नतीजा यह है कि “कोई हादसा हो जाता है तो हम अल्पसंख्यक, समाज के हाशिए पर चलने वाले लोग जाने-अनजाने उन तमाम अनहोनियों की जिम्मेदारियों के लिए नापे-तौले जाते हैं।” एक बड़ी आबादी आज के भारत में क्या लगातार शक के दायरे में नहीं ला दी गई है? यह लक्षण 2014 से नहीं, 1990 से ही सामने आने लगे थे, जब आडवाणी की रथ-यात्रा के समय “दिल्ली के नामी पत्रकारिता कॉलेज में मुसलमान लड़के कोई अनकही, अप्रकट झुरझुरी से खुद को और एक-दूसरे को सामान्य दिखाने की कोशिश में रहते थे।” बढ़ती साम्प्रदायिकता और उसकी विध्वंसक प्रवृत्तियों को शीला जी रेशे-रेशे खोलती हैं। सारा जैकब का यह कथन देखिए- “सुना था जुहानपुरा मिनी पाकिस्तान बना दिया गया है, कल खुद देख भी लिया। कल मैं अपने चैनल के एसाइनमेण्ट की रिपोर्टिंग के लिए वहां गई थी। स्कूटर वाले ने मुझसे कहा, ‘बेन मिनी पाकिस्तान मां नहीं जाऊं (मिनी पाकिस्तान में नहीं जाऊंगा) लेकिन आपको मैं बाघा बॉर्डर पर छोड़ दूंगा। वहां से आप साइकिल रिक्शा लेकर चली जाइएगा। वैसे बेन, आप ऐसे एरिया में जाती ही क्यों हो?’ यानी कि हिंदुओं की वेजलपुरा बस्ती और मुस्लिमों की जुहानपुरा बस्ता के बीच से निकलती सड़क बाघा बॉर्डर’?” नफरत का यह राजनैतिक खेल शीला जी के लेखन के प्रमुख सरोकारों में शामिल है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के पहले और बाद की घटनाओं की काली छाया सिर्फ मुसलमानों पर नहीं पड़ी, उसने यहूदी जैसे अति-अल्पसंख्यक समाज को और भी अधिक संदेहों-उपेक्षाओं-दुत्कारों के घेरे में ला दिया, जिसकी चर्चा ही नहीं होती। उपन्यास इस दर्द को बड़ी शिद्दत से बयां करता है। यहूदी अपने समाज के भीतर भी किस कदर मूल्यों के टकराव से जूझ रहे हैं, यह जैकब नवगांवकर  के अंतिम संकल्प से प्रकट होता है। धर्म पर लेख लिखने और दावे करने वाले नवगांवकर अपने अंतिम समय में पत्नी एस्थर से वादा लेते हैं कि उन्हें यहूदी कब्रिस्तान में दफनाने की बजाय नगर निगम के शवदाह गृह में जला दिया जाए क्योंकि “मुझे धर्म की इन नियमावलियों ने तोड़ दिया।” जीवन भर झेली उपेक्षाओं और धर्म की कट्टरता से मोहभंग के बाद यही मौन विद्रोह वे कर सकते थे।   

पल्लीपारका एक सशक्त कथा-पक्ष हमारे मीडिया की भूमिका की चीर-फाड़ भी है। 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद देश तेजी से बदला और उससे भी तेजी से बदला मीडिया। चैनल के कर्ता-धर्ता और सम्पादक “लाल टीका लगाए, सिर पर रुमाल धरे फोटुओं में चमकने लगे थे। उनके चेहरे की संवेदना, सोच और खरेपन की रेखाएं भोथरी होने लगी थीं।” तब सारा अपने विद्रोही स्वभाव के कारण ए न्यूज डॉट कॉमसे बाहर हुई और अशफाक को मजबूरन बाहर होना पड़ा- “मुझे नहीं पता था कि सलिल कपूर जैसे सजग और प्रबुद्ध व्यक्ति को भी मैं किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य या दूर का कोई रिश्तेदार अथवा जासूस लगूंगा।” ये सलिल कपूर न्यूज चैनल के सम्पादकीय प्रभारी थे। 2007 की शुरुआत में जब नई दिल्ली से चलकर लाहौर जा रही समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट हुए जिसमें अधिकतर पाकिस्तानी मुसाफिर मारे गए तभी से ए न्यूज डॉट कॉमकी पंचलाइन बदलने लगी लेकिन 2014 के बाद सभी सीमाएं पार हो गईं। तब अशफाक तो भीतर ही घुटकर रह गया लेकिन उसके साथी पंकज सिंह ने सलिल कपूर को चेतावनी देते हुए इस्तीफा उस पर उछाल दिया – “जनता को बरगलाकर आप उन्हें ऐसे कारखाने में ले जा रहे हैं जहां रोबोट बनाए जाते हैं। वे रोबोट सही और गलत का दायरा तय नहीं कर पाएंगे क्योंकि सबके मस्तिष्क में एक सी ही चिप पड़ी होगी। उन सारी इकाइयों के सोच, समझ, संवेदना, आवाज और प्रतिरोध के दमन का क्या कोई जवाबदेह नहीं होगा?” सारा, पंकज और अशफाक जैसे पत्रकारों को चैनल से बाहर होना पड़ा और चारण बने सम्पादक तरक्की और वेतन-भत्तों की सीढ़ियां चढ़ते गए।

हाल के वर्षों में मीडिया को केंद्र में रखकर या मीडिया की पड़ताल को कथावस्तु का एक हिस्सा बनाकर कुछ उपन्यास आमने आए हैं। कुछेक में मीडिया का अंदरूनी संसार और विकृतियां अति नाटकीय बना दिए गए हैं लेकिन शीला रोहेकर ने पल्लीपारमें मीडिया के अध:पतन का, विशेष रूप से साम्प्रदायिक तथा सेलेक्टिवहोते जाने का विश्वसनीय चित्र दर्ज़ किया है। यह बदलाव या पतन घटनाओं में अंतर्गुम्फित है और सारा, अशफाक, पंकज, सलिल कपूर जैसे मीडियाकर्मियों के जरिए विभिन्न घटनाओं में अभिव्यक्त हुआ है, इसलिए विवरणात्मक या विश्लेषणात्मक होने से बचा रहा है।

पल्लीपार में शीला जी के कहन या कथा-शैली पर अवश्य बात की जानी चाहिए। उनके पहले के उपन्यासों में भी ऐसी विशिष्ट शैली दिखाई देती है जिसमें वे सीधी–सरल रेखा में कथा न कहकर उसकी बारीक बुनावट वाली डिजायन रचती हैं, प्रतीकों, मिथकों और इतिहास का सहारा लेती हैं जिसमें अतीत-वर्तमान-अतीत के बीच आवाजाही चलती रहती है। पल्लीपारमें वे नया प्रयोग करती हैं। यहां अतीत और वर्तमान के बीच आती-जाती हिंडोले-सी पेंगें तो हैं ही, स्वयं लेखिका एक सूत्रधार की तरह कथा का सिरा पाठक को कभी पकड़ाती और कभी छुड़वाती हैं। पहला अध्याय पूरी तरह लेखिका का अपना स्पेसहै – “मैं कहानियां बुनती हूं। कहानियों की चाल-सीधी-सरल नहीं होती। न ही अपनी बात क्रमबद्ध अथवा लयबद्ध ढंग से कर पाती हैं। भटकती, छितराती, बेसुरी या वक्र होती वे अपनी मन-मरजी से आगे बढ़ती हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि खड़ी हो जाती हैं बीच में और आगे बढ़ने को नकार देती हैं....।” पल्लीपार में ऐसी ही बुनावट है और खूब है। कोई क्रम नहीं, कोई लय नहीं, कोई सीधी रेखा नहीं, वक्र और तिर्यक। कहानियां छलांग लगाती हैं, एक सिरा वहीं छोड़कर आगे या बहुत पीछे कूद जाती हैं, कोई दूसरी कथा की झलक प्रकट होती है, फिर कहीं छूट गया पिछला कोई सिरा पाठक की पकड़ में आ जाता है। कथाकार एक पल किसी एक पात्र या किस्से के साथ होती हैं कि अचानक दूसरा पात्र या किस्सा साथ हो लेता है और तभी उसकी जगह तीसरा पात्र बोलने लगता है। जैसे, वे जो बात कहना चाहती हैं, उसे थोड़ा-सा कहकर पाठक के भीतर भीगने के लिए छोड़ देती है। और जब उस संकेत की व्याप्ति गहरे उतर जाती है तो उसी प्रसंग पर फिर लौट आती हैं। दोहराव का खतरा तो है पर है यह शैली बहुत भेदक। हर बार उसी प्रसंग के विविध कोने-कतरे, आयाम खुलते हैं। उपन्यास का प्रत्येक अध्याय एक अलग पात्र की कहानी या जुबानी है लेकिन कोई शीर्षक या संकेत नहीं है। पाठक को ही समझना है कि अब कहानी की डोर किसने थाम ली है, कौन उसे आगे ढील दे रहा है या पीछे खींचे जा रहा है। पढ़ते हुए कभी ब्रेख्त के एलियनेशन सिद्धांतकी याद आती है, तो कभी लगता है नेपथ्य में कोई प्रलाप-सा चल रहा है। इस कारण इस उपन्यास को पढ़ना तनिक दुरूह लग सकता है, विशेष रूप से तब जब आप सूत्रधार-लेखिका की वक्रया तिर्यकचाल से तादात्म्य नहीं बैठा पाते। यह तालमेल बन जाए तो फिर पल्लीपारआपको छोड़ता नहीं और लेखिका लाख कहे कि पात्र उनका कहा नहीं मान रहे, पाठक को ऐसी कोई जिद या मान-मनौवल नहीं दिखाई देती। उसके लिए कथा बहता नीर बन जाती है।

यह भी उल्लेखनीय है कि पल्लीपारको पढ़ते हुए अचानक रेत समाधिभी साथ चलने लगती है! रचनात्मक आवेग के ये सुंदर संयोग हैं। जैसे रेत समाधि पढ़ते हुए मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेसका ट्रांसजेण्डर पात्र साथ हो लेता है, वैसे ही। दोनों उपन्यासों में लेखिकाएं बीच-बीच में सूत्रधार के रूप में प्रकट होती रहती हैं। और, ‘पल्लीपारमें एस्थर की खिड़की पर रोज आ बैठने वाली श्यामा चिड़िया हमें रेत समाधि के उस कौवे की याद दिला देती है जो चंद्रप्रभा देवी उर्फ अम्मा की बालकनी से लेकर सीमापार पाकिस्तान के सुदूर बीहड़ इलाके में भी उनके आसपास रहता, संवाद करता और घटनाओं का साक्षी बनता है। पल्लीपारमें एस्थर और श्यामा पक्षी एक-दूसरे से बात करते हैं। एस्थर की कहानी तो ज़्यादातर श्यामा पक्षी को सुनाते हुए कही गई है। दोनों का अत्यंत आत्मीय सम्बंध है। एस्थर के बचपन का वह भीतर तक कंपकपा देने वाला प्रसंग, जब नन्हीं एस्थर अपने से भी छोटी बहन लिली को आबा (पिता) के आतंक से पानी के ड्रम में डूबकर सदा के लिए मौन हो जाते देखती है, चूरमे का घी-गुड़ का लिली के हिस्से का लड्डू भी खा लेने का वह जो अपराध बोध जीवन भर उसका पीछा करता है, उसे वह  श्यामा के अलावा सुनाए भी किससे- “बताओ श्यामा, तुम्हारे पक्षी जगत में ऐसे लिंग-भेद होते हैं? हमारी दुनिया में तो नर सर्वोपरि मान लिया जाता है क्योंकि ऐसा न होता तो मां ने बाद में नौ लड़के पैदा किए। दो की मृत्यु असमय हुई, तब भी बचे सात और मैं आठवीं। सबसे बड़ी। बहुत कद्र हुई मां की बाद में। दादी तो बेटीके सिवा बुलाती ही नहीं थी। करमजली’, ‘चुप्पीनाम थे उसके पहले।” पितृसत्ता ने हर तरह की आस्थाओं वाले समाज के भीतर स्त्री को इसी तरह तोड़ा है लेकिन यह स्त्री ही है जो टूटने के बजाय लड़ती आई है। मां एस्थर और बेटी सारा की ज़िंदगियों का भीषण द्वंद्व सहने और लड़ने रहने का ही द्वंद्व है। अकथ पीड़ा और भटकन इसी का परिणाम है।  

हमारे समय, देश, विभिन्न समाजों, धर्म, राजनीति, स्त्री, वंचित समुदायों, अपनी अस्मिता के लिए जूझते पात्रों की यह विस्तृत और उलझी-सुलझी गाथा पाठक के मन में अपना गहर असर छोड़ती है लेकिन अवसादित भी कर जाती है। उपन्यास के विस्तार में अकेलापन, विस्थापन, निरंतर हाशिए पर धकेले जाना, बाहर-भीतर से टूटते रहना, स्मृतियों में जीना, छला जाना, अफसोस करना और मृत्यु का इंतजार छाया रहता है। यहां खुशी, आनन्द, उत्साह और उम्मीदें लगभग नदारद हैं। संघर्ष और प्रतिरोध की अंतर्धारा उपस्थित तो है लेकिन क्षीण। अच्छा यह है कि यह धारा कतई आरोपित या नारेबाजी वाली नहीं है। यह हमारे समय का सच ही है, जिसमें संघर्ष और प्रतिरोध की बहुत जरूरत है, इच्छा भी है लेकिन कोई साफ रास्ता नहीं सूझता। पल्लीपारअतीत एवं वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आज की पीड़ादायक कहानी है जिसमें पल्लीपार होते हुए भी पल्लीपार नहीं होने की चेतना उपस्थित है। उस समाज का सपना बचा रहना चाहिए जहां कोई पल्लीपार नहीं किया जाएगा। इसीलिए अज़हर इनायती का यह शेर किताब के शुरू में ही दे दिया गया है- “ये और बात है कि आंधी हमारे बस में नहीं / मगर चराग जलाना तो इख्तियार में है।”

स्त्री और पुरुष रचनाकारों का वर्गीकरण कतई अपेक्षित नहीं है लेकिन यह नोट किया जाना चाहिए कि हाल के वर्षों में स्त्री उपन्यासकारों ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक फलक वाले उपन्यास हिंदी पाठकों को दिए हैं। अपने अध्ययन की सीमा के बावजूद मैं पल्लीपारके साथ रेत समाधि’, ‘खेला’, ‘बिसातपर जुगनूऔर कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिएका उल्लेख करना चाहूंगा। ये उपन्यास हिंदी में महिला रचनाकारों के दायरेको बड़ी दावेदारी के साथ ध्वस्त करते हैं- कथानक में ही नहीं, शैली और वितान में भी। शीला रोहेकर तो अपने पहले के उपन्यासों से ही यह घोषणा करती आई हैं। जैसी कि आम तौर पर परम्परा है, ‘पल्लीपारउपन्यास किसी को भी समर्पित नहीं किया गया है। उस स्थान पर दर्ज़ हंगेरियन कवि मिलोश राद्नोती की पंक्तियां बहुत सारा बयां कर देती हैं-

“मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा,

जब विश्वासघात और हत्या का आदर होता था।

खूनी, गद्दार और चोर हीरो थे। और जो चुप

रहता था और ताली नहीं बजाता था उससे ऐसी नफरत

की जाती थी जैसे उसे कोढ़ हो।”      

(उपन्यास- पल्लीपार’, लेखिका- शीला रोहेकर, प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, मूल्य- रु 525/-)

- न जो                           


Tuesday, November 15, 2022

सात लाख अस्सी हजार साल से खाना पकाता आ रहा मानव

अभी तक यह माना जाता था कि मानव ने करीब 1,70,000 वर्ष (एक लाख सत्तर हजार साल) पहले पहली बार आग पर खाना पकाया था। दक्षिण अफ्रीका की एक गुफा में मिले जंगली कंद के जले हुए अवशेष मिलने से यह निष्कर्ष निकाला गया था। कंद के ये अवशेष एक लाख सत्तर हजार साल पहले के पाए गए। अब नई खोज से पता चला है कि हमारे पूर्वजों ने कोई 7,80,000 (सात लाख अस्सी हजार) वर्ष पूर्व पहली बार आग पर अपना भोजन पकाया था। हाल ही में इस्राइल में जॉर्डन नदी के किनारे एक जगह पुरातत्वविदों को मछलियों की दो प्रजातियों के भुने हुए दांत मिले हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि हमारे पुरखे 7,80,000 साल पहले आग का नियंत्रित उपयोग करते हुए खाना पकाना जानते थे। इस तरह आग पर खाना पकाने की शुरुआत की हमारी जानकरी करीब छह लाख वर्ष पीछे पहुंच गई है।

कॉलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'द टेलीग्राफ' में आज प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि तेल अवीव विश्वविद्यालय के स्टेनहार्ट म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और ओरानिम अकेडमिक कॉलेज के क्यूरेटर आइरिट ज़ोहार ने इस पुरातात्विक अध्ययन का नेतृत्व किया। आइरिट बताती हैं कि इस खोज का अर्थ यह भी है कि खाना पकाने के लिए आग का पहली बार उपयोग करने का श्रेय होमो सेपियंस (आधुनिक मनुष्य के सगे पूर्वज) की बजाय 'होमो इरेक्टस' (मनुष्य के विकास क्रम का और भी पुराना चरण)  को जाता है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जॉर्डन नदी के तट पर स्थित उत्खनन स्थल 'गेशर बेनेट याकूव' से मछलियों के जो भुने हुए अवशेष मिले हैं उनसे इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि उस जगह पर मछली पकाई और खाई गई थी। 

विज्ञानी बहुत पहले से यह मानते आए थे कि आधुनिक मानव के लुप्तप्राय पुरखे 'होमो इरेक्टस' ने, जो 18 लाख वर्ष से ढाई लाख वर्ष पहले तक अफ्रीका और यूरेसिया में रहते थे, अग्नि की खोज कर ली थी और वे उसका नियंत्रित उपयोग करके अपना भोजन भी पकाने लगे थे। 'होमो सेपियंस' यानी हमारे सगे पूर्वज इस धरती पर दो लाख वर्ष पहले प्रकट हुए। 2004 में पुरातत्वविदों ने इसी स्थल पर मिले चकमक पत्थर, लकड़ी और अन्य वस्तुओं के आधार पर यह पहचान कर ली थी कि वे आग का नियंत्रित इस्तेमाल जानते थे। गेशर बेनेट याकूव  इलाके में प्रारम्भिक मनुष्य के निवास करने के प्रमाण मिलते हैं। 

अध्ययन दल का नेतृत्व करने वाली जोहार और उनकी टीम ने इस उत्खनन स्थल से विभिन्न परतों में मिले मछलियों के 39,000 अवशेषों का अध्ययन-विश्लेषण किया है। सभी में आग के उपयोग अर्थात उन्हें पकाए जाने के प्रमाण हैं। मछलियों के इन अवशेषों में दो विशेष प्रजातियां सर्वाधिक पाई गई हैं। अगर ये मछालियां यहां प्राकृतिक तौर पर एकत्र हुई होतीं तो उनकी प्रजातियों में कहीं ज्यादा विविधता होती, ऐसा भी विज्ञानियों का मानना है। अवशेषों में मछलियों के दांत ही पाए गए हैं, बाकी कांटे नहीं मिले हैं। उनमें चूल्हे के भी निशानात हैं। मछलियों के कांटे नहीं मिलने का अर्थ विज्ञानी यह लगाते हैं कि मछलियों को नियंत्रित आंच पर देर तक पकाया गया होगा, जिससे दांत तो बच गए लेकिन कांटे गल गए। नेशनल हिस्ट्री म्यूजियम, लंदन में एक विशेष प्रकार के एक्स-रे से यह साबित हुआ कि मछलियों को 500 डिग्री सेल्सियस से कम आंच पर पकाया गया होगा, इसीलिए वे जली नहीं। 200 से 500 डिग्री तापमान में कांटे गल जाते हैं  लेकिन दांत साबुत रहते हैं। 

सुश्री जोहार ने बताया कि जॉर्डन नदी के उस तट पर आज भी मछलियों की वे प्रजातियां पाई जाती हैं जिनके अवशेष प्राप्त हुए हैं, हालांकि अब उनका आकार छोटा मिलता है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि सतत प्रवास के उस काल में भी मानव समाज नदियों के आस-पास बसता रहा था ताकि साल भर उसे भोजन मिलता रहे।

- नवीन जोशी, 15-11-2022

( The Telegraph,Calcutta में 15.11.2022 को प्रकाशित  G S Mudur की रिपोर्ट पर आधारित)

Tuesday, November 08, 2022

बनना एक राज्य का उर्फ वजीरा पानी पिला!

आठ नवम्बर, सन दो हजार की रात। परेड मैदान, देहरादून।

यह मनुष्यों की भीड़ है या बांस-बल्लियों की? कहां से आए हैं ये लोग? अनजाने-पराए क्यों लग रहे हैं? चमोली की जनता नहीं दिख रही? पौड़ी वाले कहां है, राजू भाई? महिलाएं पीछे रह गई क्या? ओ विमला जी, तारा जी, मंच के करीब आइए न! महिलाओं को सबसे आगे रहना है। इस राज्य के लिए असली लड़ाई उन्हीं ने लड़ी। शैली, मेरे दोस्त, देखो, महिलाओं की ताकत! तुम बेवजह ही संदेह करते रहे। वो रहा गैरसैण, चौखुटिया, द्वाराहाट, सोमेश्वर वालों का विशाल दल। ढोल-नगाड़े बज रहे। निशाण हवा में लहरा रहे। अरे, इधर आओ, इधर। वहां कहां जा रहे, उलटी दिशा में? निशाण वालों को कहो, मंच इस तरफ है... कहां गायब होते जा रहे सब? … ये कौन लोग आ गए इतने सारे? पुलिस वाले कहां से आ गए? अरे शम्भू, तुमने खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा-टोपी क्यों पहन लिए आज? सी पी है कि चन्दर कि राधाबल्लभ? … इनकी शक्लें क्यों बदली हुए हैं? फूली तोंद वाले, मसाला चबाते-थूकते, लाल गालों वाले मुस्टण्डे। शैली, तुम इन्हें लखनऊ से क्यों ले आए यहां? बाहर निकालो... हमारे उत्तराखण्ड की सरकार का शपथ ग्रहण समारोह है। यूपी समझ रखा है क्या! इनका यहां कोई काम नहीं। काम तो पुलिस का भी नहीं है।

गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण। गैरसैण-गैरसैण ...।

शांत रहो, दोस्तो! अब क्यों नारे लगा रहे हो? राजधानी गैरसैण ही होगी। मंच से घोषणा होने वाली है। धीरज धरो। पहले शपथ तो होने दो। सी पी, राधाबल्लभ, समझाओ यार, इन लड़कों को। आज नारे लगाने का दिन नहीं है। आज त्योहार का दिन है। अरे, जनता ने घरों में अंधेरा क्यों कर रखा है? बिजली के लट्टू जलाओ। दीपमाला बारो। आज मनाओ बग्वाल, गोवर्धन, एगास। गोठ के गाय-बैलों को छापो, ओने-कोने का दलिद्दर भगाओ। भुय्यां निकाल दो गरीबी की, उपेक्षा और शोषण की। गई गोरख्याली! पहाड़ के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हो रहा है...। शैली... शैली... मैं बैठना चाहता हूं... थक गया हूं। खुशी मुझसे सम्भाली नहीं जा रही...। वजीरा, पानी पिला। हां, अब ठीक है।

सुनो-सुनो, मंच से कोई घोषणा हो रही है! बहुत शोर है यार। ठीक से सुनाई नहीं दे रहा। क्या कह रहे हैं? अच्छा, गिर्दा को बुला रहे हैं मंच पर! बढ़िया बात है, शपथ ग्रहण समारोह की शुरुआत जन-संघर्षों के गीतों से ही होनी चाहिए... आज हिमाल तुमन कें धत्यूछौ.... जाग गए हैं, जाग गए हैं अब मेरे लाल... शर्माओ नहीं गिर्दा! आज सड़क पर नहीं, मंच से गाने का दिन है... बीड़ी का सुट्टा लगाने में रह गए क्या? क्या कहा, गिर्दा नहीं आए हैं? क्यों नहीं आए बल...! ये भी ऐन मौके पर टेड़ी जाते हैं। चलो नरेंद्र भाई, तुम आ जाओ। एक ही बात हुई.. बोल भै-बंदू तुमथैं कनु उत्तराखण्ड चयेणू छ... अभी बताएंगे नरेंद्र भाई, हमारे भाई-बंधुओं को कैसा उत्तराखंड चाहिए। तनिक प्रतीक्षा करो। बस, रात के बारह बजने ही वाले हैं। आओ-आओ, बाबा जीवनलाल और रामप्रसाद जी, पधारो। मंच पर आपके नाम के आसन विराजमान हैं। सही समय पर पधारे। आप के बिना कैसे बने उत्तराखण्ड।

मैं…’

मैं, सुजीत बरनाला ...

क्या! मना कर रहे हैं बरनाला जी? अच्छा, बडूनी जी को बुला रहे हैं शपथ लेने के लिए? … नहीं, बरनाला जी, इंद्रमणि बडूनी तो कूच कर गए लड़ते-लड़ते। उनको चाहिए भी नहीं था कोई पद। ना, आप ले लो शपथ ... वाहे गुरुजी दी फतह, वाहे गुरुजी दा खालसा ... राज करेगा खालसा। शैली डियर, हम पंजाब में कैसे पहुंच गए? हम तो परेड मैदान, देहरादून में थे! ये उत्तरांचल-उत्तरांचल किसने लगा रखी है मंच से? वजीरा, पानी पिला। गला सूख रहा है।

गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण ...। दून नहीं गैरसैण, राजधानी गैरसैण।

मैं...

मैं, सत्यानंद स्वामी... मुख्यमंत्री के रूप में भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा ... मैं...

तालियां! बधाई! बधाई, चमोली की महिलाओ, पौड़ी के लड़ाकाओ, अल्मोड़ा के आंदोलनकारियो, नैनीताल के जांबाजो, सीमांतों के रहवासियो, हमको अपना राज्य मिल गया, राज्यपाल मिल गया, मुख्यमंत्री मिल गया। बधाइयां, शुभकामनाएं! दीप जलाओ घर-घर...घी के दीए... इस दिन के लिए कितना संघर्ष किया, कितने बलिदान दिए। अंतत: यह दिन आ गया... वजीरा, पानी पिला दे।

ट्रिस्ट विद डेस्टिनी! ... आज आधी रात को जबकि दुनिया सोती है, उत्तराखण्ड के लिए नई सुबह हो रही है। ऐसा क्षण इतिहास में विरले ही आता है, जब हम पुराने युग से निकलकर नए युग में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त हो जाता है... जब तक एक भी आंख में आंसू है, तब तक हमारा काम समाप्त नहीं होगा...।

सत्यानंद स्वामी ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद-जिंदाबाद, भारतीय जनता पार्टी, जिंदाबाद! ... गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण!

किसकी तबीयत खराब है, शैली? नहीं, मैं ठीक हूं। हां, स्वामी जी के घुटनों में दर्द है। उम्र हो गई। पहाड़ों में लिफ्ट नहीं होती, बता देना उनके पीएस को। चढ़ाई में अधिक नहीं दौड़ा देना।

ठहरो-ठहरो! कहां चले? राज्य-गीत तो हुआ नहीं... उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि, ओ भूमि तेरी जै-जैकारा, म्यार हिमाला... बुम-बुहुम-बुम-बुम... हिमाला तेरी जै-जैकारा।  

सुनो-सुनो, मुख्यमंत्री क्या कह रहे हैं... शैली, ठीक से नोट करना... राजधानी गैरसैण, गैरसैण-गैरसैण... पहले नारे लगाने वालों को चुप कराओ...। लाठी मत चलाओ, एसपी साहब! आंदोलन नहीं हो रहा। लड़कों को आज के दिन मारो मत...। सी एम की सुनो, क्या रहे? जुलूस निकालने वाली दस-पंद्रह महिलाओं को चाय पर बुला रहे? उन्हें मना लेंगे कह रहे? गिनती गड़बड़ हो गई, स्वामी जी! पूरा उत्तराखंड भरकर हैं महिलाएं। चाय रहने दे वजीरा, पानी पिला।

शैली, मुझे लेटने दो... वो देखो, ऊपर। अरे वाह बाबू! आज तुम खित-खित हंस रहे हो! तुम जो अपने पुरखों के गांव को जीवित रखने के लिए लखनऊ में गली-गली घूमकर अखबार बेचा करते थे, जिसे एक दिन अपने सपनों के साथ ट्रक कुचल गया था। ओ मेरी इजा, तुम खुश दिख रही हो! तुम, जो सालों साल पूरा पहाड़ अपने सिर पर उठाए पति और बेटे की प्रतीक्षा में रातों के बुखार से तड़प-तड़प कर मर गई... ओ हमीदा चच्ची, प्यारे प्रताप सिंह... ओ, हंसा धनाई और बेलमती चौहानसलीम अहमद और परमजीत, भैजी रवींद्र रावत और पंकज त्यागी और तुम सब नाम-अनाम शहीदो, जो ऊपर से देख रहे हो, तुम सबको बधाई वजीरा, पानी पिला।

बहुत गर्मी है। राज्य बनने में इतनी गर्मी लगती है क्या! शैली डियर, छत्तीसगढ़ वालों से पूछो तो।

(उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' का एक अंश)

Sunday, November 06, 2022

उत्तराखंड के बनने-बिगड़ने का मुकम्मल दस्तावेज- “देवभूमि डेवलपर्स”

 राकेश                                   

"पिछले पाँच दशकों के उत्तराखंड के आंदोलनों ने जनता को सामाजिक रूप से चेतना सम्पन्न तो बनाया लेकिन उसमें परिवर्तनकारी राजैतिक चेतना पैदा करने में वे असफल रहे। बल्कि यह कहना सही होगा कि (वाम संगठनों को छोड़कर) सक्रिय आंदोलनकारी संगठन, स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि के अभाव या उससे परहेज़ के कारण जनता को कोई राजनीतिक विकल्प नहीं दे सके और स्वयं भी अप्रासंगिक होते गए। सत्ता के बगलगीर होकर लाभ लेने और विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने एवं पहाड़ों का विनाश करने वाला बड़ा स्वार्थी वर्ग इसी दौर में तेज़ी से विकसित हुआ। आंदोलनकारी संगठनों, दलों और नेताओं ने भी कुछ खोया नहीं, जिसे त्याग करना कहा जा सकता, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक रूप से काफी कुछ पाया ही। उनकी व्यक्तिगत अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय छवियां बनीं, सम्मान-पुरस्कार और पद मिले या उनके लिये जोड़-तोड़ की गई, वे स्थापित-प्रतिष्ठित हुए और अनेक संस्थाएं-संस्थान-एनजीओ पुष्पित-पल्लवित हुए। इस कारण भी जनता के बीच उनकी पहचान "त्यागी" और विश्वसनीय जन-हितैषी की नहीं बनी।"                               

यह वह निष्कर्ष है जिसे नवीन जोशी ने अपने ताज़ा उपन्यास "देवभूमि डेवलपर्स" के अंत में उपन्यास की, एक अर्थों में 1984 से 2015 तक उत्तराखंड के विविध आंदोलनों की सहयात्री रही कविता श्रीवास्तव की "उत्तराखंड के आंदोलनों का अध्ययन" के बहाने दर्ज़ किया है।   इस विश्लेषण पर आंदोलनों के दूसरे सहयात्री पुष्कर तिवारी का सवाल भी दर्ज़ है- "त्यागी मतलब?"                 

 "जैसे, शंकर गुहा नियोगी या ब्रह्मदेव शर्मा या मेधा पाटकर---ऐसा भी कोई  हुआ यहां?" कविता के जबाब पर पुष्कर सहमति में सिर हिलाता रह गया था। यह उपन्यास उत्तराखंड के जनांदोलनों और उससे जुड़े संगठनों के जय-पराजय, उत्थान-पतन, लड़ाकू योद्धाओं, जन गायकों, जनता के पक्षधर पत्रकारों,  संस्कृतिकर्मियों  की गाथा के साथ-साथ पहाड़ के लोगों की बोली-बानी, संस्कृति-संस्कार, लोकगीत-नृत्य, पलायन, स्त्रियों की जिजीविषा, जातीय संरचना के विद्रूप-विडम्बना, सत्ता-पूंजी के गठजोड़ और कथित विकास के छद्म का एक तरह से आंखों देखा इतिहास है।                                       

उत्तराखंड के आंदोलनों की इस "आँखन-देखी" में नवीन जोशी की दो आंखें हैं एक, अल्मोड़ा के सुदूर बीहड़ गांव "सुमकोट" का मूल निवासी, मातृभूमि के प्रति अपनत्व और रूमानियत से भरा, उत्तराखंड के आंदोलन की उपज पत्रकार और आन्दोलनकारी  पुष्कर तिवारी, जिसके "ब्राह्मण" होने की विडंबना भी उपन्यास में दर्ज़ है, जिस पर चर्चा बाद में। दूसरी आंख है कविता श्रीवास्तव जिसके इंजीनियर पिता बचपन में ही संन्यास ले कर पत्नी और बेटी को अकेला छोड़कर चले गए थे। कविता माँ की मृत्यु के बाद दिल्ली में अपने जमे-जमाये पत्रकारिता के कैरियर को छोड़ कर पुष्कर से विवाह करके उसके पैतृक गांव और आंदोलन में ही रच-बस जाती है। उसके विश्लेषण में एक "तटस्थता" है लेकिन कहीं-कहीं वह पुष्कर की रूमानियत से प्रभावित भी है।                               

उपन्यास कूच करो भई, कूच करो, ‘खोली के धूसर द्वार की चमकदार आरसी, ‘बांध दी गई नदी में डूबता समाज, ‘राजधानी से राज्य छुड़ा कर लाना है, ‘शांत हिमालय धधक रहा है, ‘वजीरा, पानी पिला उर्फ़ बनना एक राज्य का, ‘प्रधानी का चुनाव और जंगल में नेचर हट्स, ‘विकास अर्थात ट्रिकल डाउन इकॉनमी, तथा देवी का थान पतुरिया नाचे शीर्षकों के साथ नौ खंडों में विभाजित है जिसमें उत्तराखंड के विविध आंदोलनों और पुष्कर-कविता और उनके पत्रकार एवं आंदोलनकारी मित्रों  की जीवन-यात्रा समानांतर रूप से  दर्ज है। इस गाथा में   26 मार्च, 1984 से शरू नशा विरोधी आंदोलन, उमेश डोभाल की हत्या, संघर्ष वाहिनी की टूटन, आरक्षण विरोधी आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन, टिहरी के डूबने, अलग राज्य उत्तराखंड के आंदोलन, भाजपा और फिर कांग्रेस के सत्ता में आने और दोनों के ही विकास के नाम पर पूंजी और भू-माफिया से गठजोड़ से  2014 में मोदी के आने के बाद साम्प्रदायिकता के उभार तक को इस उपन्यास में समेटा गया है। अलग अलग खंडों की कथा-वस्तु की चर्चा न करते हुए मैं  सामाजिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, जातीय-संरचना, विकास के नाम पर लूट, सत्ता-भूमाफिया गठजोड़, विकास के नाम पर संसाधनों के दोहन, जनवादी आन्दोलनों की असफलताओं, आम आंदोलनकारियों और महिलाओं की जिजीविषा, कथित 'पर्यावरण-पहाड़ पुरुषों' की  उदासीनता जैसे उन विन्दुओं को रेखांकित करने का प्रयास करूंगा जिनकी मीमांसा लेखक ने निस्पृहता के साथ की है।                   

 उपन्यास की शुरुआत "नशा नहीं, रोजगार दोआंदोलन के साथ होती है:-   " गरमपानी बाज़ार आक्रोश से उबल रहा था। आंदोलनकारी जगह-जगह पहरा दे रहे थे।"   ज़ाहिर है कि "चिपको आंदोलन" के बाद संघर्ष वाहिनी द्वारा संचालित पहाड़ की जनता का "नशे" के विरोध में यह एक और पड़ाव था जिसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी।   शराब की अति का शिकार अपने बेटे की कुछ दिन पहले हुई मृत्यु का बदला शराब व्यवसायी बलवंत से बूढी सावित्री इस तरह लेती है "इस खबीस को पूरा नंगा कर दो।" सावित्री ने दातुले से बलवंत के कच्छे का नाड़ा काट दिया और वापस सड़क की मुंडेर पर बैठ कर रोने लगी।            इस खंड में "नशा विरोधी आंदोलन", संघर्ष वाहिनी में पनप रही फूट और कविता-पुष्कर के विवाह, उनके पैतृक गांव जाने की कथा समानांतर रूप से साथ-साथ चलती है। आंदोलन की कथा में प्रवेश होता है, उत्तराखंड के अनेक जनांदोलनों के नायक, कवि, जन गायक जीवंत "गिर्दा" का और तब पाठकों को पता लगता है कि "कूच करो भई, कूच करो, जन एकता कूच करो" उस गीत का मुखड़ा है जिसे गिर्दा ने इस आंदोलन के लिए तैयार किया है। यह आंदोलनकारी जन  गायक अन्य आंदोलनकारियों के साथ कविता-पुष्कर की शादी का बराती भी है और उसी तर्ज़ पर "शकुनाखर" भी गा रहा है:- "बन्नी के दाज्यू बर ढूँढ निकले/बन्नी की भाभी ये पूछती है/कितना बन्ने ने पढ़ा लिखा है/क्या करने को वो जा रहे हैं/एमए-बीए बर पढ़ा लिखा है/आंदोलन करने को वो जा रहे हैं/नैनीताल रैली को वो जा रहे हैं।" नैनीताल रैली के बाद पुष्कर और कविता के पुष्कर की बहन के गांव जाने और गांव में उनके स्वागत के दिलचस्प विवरण हैं पहाड़ की ग्रामीण संस्कृति, संस्कारों, बानी-बोली और लोक गीतों का अद्भुत और मोहक समन्वय है। मोहक इतना कि कविता पुष्कर के पैतृक गांव जाने की घोषणा कर देती है।                                    पुष्कर के पैतृक गांव "सुमकोट" जाने की कहानी के समानांतर "संघर्ष वाहिनी" की टूटन और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की आहट दर्ज़ है। गांव के बारे में पाठक को पता लगता है- "इस तरह पूरा सुमकोट गांव तिवाड़ी-ब्राह्मणों का था, गांव की दक्षिणी सीमा पर बसे चार हलवाहा परिवारों को छोड़कर। वैवाहिक रिश्तों में कहीं-कहीं ऊंच-नीच भी हुई थी लेकिन वह कलह के समय ही एक-दूसरे को सुनाई जाती थी।" गांव के बदलाव की कथा यूँ तो हर अन्तरसंवाद में दर्ज है लेकिन उसकी एक बानगी- "सड़क गाँव से आज भी दूर थी, बिजली नहीं पहुंची थी और पानी दूर धारे या नौले से भरकर लाना पड़ता था। इसके बावजूद नई पीढ़ी को बाहर की हवा छू रही थी। घाघरा-आँगड़ा की जगह "धोती-बिलौज" आम पहनावा हो गया था। किशोरियों ने माला-मुनड़ी (अंगूठी) और चूड़ी से आगे "किरीम-पौडर-लिपस्टिक" और 'नेल-पॉलिश' का आकर्षण सीख लिया थाकिशोर होते लड़के 'नंगे-सिर'(बिना टोपी) देसी फूंकने (हिंदी बोलने) में शान समझने लगे थे।"                                               

संघर्ष वाहिनी की टूटन : "संघर्ष वाहिनी आरोप प्रसारिणी बनी हुई थी ….संघर्ष वाहिनी टूट गई थी। सबसे बड़ी टूटन पुष्कर के मन में हुई। उस रात उसने कविता की तरफ मुँह करके भारी साँस छोड़ते हुए पश्चाताप व्यक्त किया-"ेकार ही लखनऊ छोड़ा।" इस सम्बंध में आंदोलन के सजग और कर्मठ साथी सलीम और पुष्कर के बीच का संवाद इस टूटन को स्पष्टता से रेखांकित करता है।                        अगला खंड "बांध दी गई नदी में डूबता समाज"- इस खंड में कुछ जीवंत चरित्र हैं, कुछ सही नामों से, कुछ बदले हुए नामों के साथ। सही नामों के साथ आते हैं पत्रकार उमेश डोभाल, लेखक और सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल। बदले हुए नामों के साथ टिहरी बांध के विरोध में अनशन  कर रहे बाबा  जीवनलाल। पाठक सहज ही समझ लेता है कि यह सुंदरलाल बहुगुणा हैं। आंदोलन में अपनी अनुपस्थिति से भी उपस्थिति दर्ज कराते रामप्रसाद हैं। पाठक उन्हें भी चंडी प्रसाद भट के रूप में पहचान सकता है, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की वास्तविक शुरुआत करने वाले  वीरेंद्र दत्त सकलानी को भी। इन सबकी निस्पृह चरित्र मीमांशा भी उपन्यास में दर्ज है, शायद इसीलिए कुछ नाम परिवर्तित किये गए  जबकि सीधे सपाट आंदोलनकारी अपने सही नामों के साथ हैं। डूब की कगार पर टिहरी के मार्मिक विवरण, मुआवज़े के खेल, पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या, हत्या के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन, सी बी आई जांच के समानांतर कविता और पुष्कर की भावी संतान की उम्मीद को तोड़ती कविता की जटिल शल्य-चिकित्सा। जैसे, लेखक ने उम्मीदों को तोड़ने के कई समानान्तर रूपक गढ़े हों।                               सी बी आई की विशेष अदालत द्वारा उमेश डोभाल की हत्या के अभियुक्तों को बाइज्जत बरी करने का विवरण- "मोहन नेगी समेत सभी अभियुक्तों ने अदालत के बाहर निकलते ही ख़ूब ख़ुशी मनाई। अब वे अभियुक्त नहीं थे। अदालत के फ़ैसले ने उनके सभी दाग धो दिए थे। वे उजले, माननीय, मसीहा लोग थे। जो दाग बिना धुले रह गए थे, वे उमेश डोभाल के नाम पर थे। यह न्याय हुआ।" पहाड़ की खुदाई के कारण भू-स्खलन, गाँवों में फिर पसर रही नशे की लत, मंडल कमीशन के विरोध में छात्रों के आंदोलन, उत्तराखंड के दलित और पिछड़ों की विडंबना से लेकर दिल्ली में  अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए रैली के विवरण,  उत्तराखंड की मांग के लिए निकले लोगों के दमन, रामपुर तिराहा और नारसन में स्त्रियों के बलात्कार के विवरण स्वप्न और यथार्थ के मर्मस्पर्शी संयोजन से बुने गए हैं। स्वप्न के रेशे की टीस यथार्थ है और यथार्थ स्वप्न सरीखा। कविता और पुष्कर के बीच संवाद की एक बानगी- "जब फ़ौजें दुश्मन देश में घुसती हैं तो सबसे पहले उसकी औरतों का रेप करती हैं। युद्धों का इतिहास बलात्कारी फ़ौजों के कुकर्मों का इतिहास भी हैउत्तराखंड एक दिन बनेगा साहबो, लेकिन इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा। वोट की राजनीति के लिये तुमने लाशें ही नहीं गिराईं, पहाड़ की स्त्रियों के समूचे अस्तित्व और उनकी आत्मा को रौंदने का षड्यंत्र किया।"

"हाँ कविता, उत्तराखंड एक दिन अवश्य बनेगा। जब लोग बलिदानों को याद करेंगे तो स्त्रियों का ज़िक्र सबसे पहले आएगा।" पुष्कर भावुक हो गया।                                           

कविता ने तड़प कर पुष्कर को देखा- "नहीं, तुम पुरूषों के लिए बलात्कार को भी बलिदान बना देना कितना आसान है। बलिदान नहीं, यह बर्बर पुरुष-समाज और शासन-व्यवस्था का पाशविक व्यवहार है। यह स्त्री उत्तराखंड राज्य में भी ठगी और लूटी जाएगी।" मुज़फ्फरनगर से सुलगी आग पहाड़ों की तरफ सरपट दौड़ी। अखबारों में झूठ परोसने की शुरुआत हो चुकी थी।                                   

उत्तराखंड राज्य- उत्तर प्रदेश की कोख से आज आधी रात को एक नया राज्य जन्म लेने वाला है। लखनऊ से कई उत्सुक प्रवासी उत्तराखंडी, मीडिया के दल और सत्ता के गलियारों में घूमने वाले भांति-भांति के लोग सैकड़ों की संख्या में देहरादून पहुंच रहे थे। नए राज्य की राजधानी कहाँ होगी, यह विधेयक में बताया न राजाज्ञा में। नेता नैनीताल या देहरादून या कालागढ़ जैसे नाम सुझाने लगे। जनता की निर्विवाद राजधानी गैरसैंण का कहीं नाम ही नहीं। लगता है दलाल-माफिया-नेता-अफसर गठजोड़ पर्दे के पीछे सक्रिय हो गया है। इनमें एक है लखनऊ में रियल-स्टेट कारोबारी, प्रवासी कुंदन शाह जो लखनऊ में पहाड़ के प्रवासियों के लिए कई सहकारी समितियों का संचालक है, 'कुमाऊँ गौरव' और  'उत्तराखंड श्री' सम्मान से सम्मानित है। नए राज्य में उसने भी दस्तक दे दी है। फिलहाल भीमताल में भवाली रोड के कुछ नीचे  आठ नाली और देहरादून-मसूरी रोड पर सहस्त्रधारा के पास दो एकड़ ज़मीन खरीद कर वहां क्रमशः ' कूर्मांचल कॉटेजेज' और 'सहस्त्रधारा कॉटेजेज' का बोर्ड लगा दिया है। राजपुर रोड पर एक बड़े से बंगले में 'देवभूमि डेवलपर्स' का कार्यालय खुल गया है। कविता और पुष्कर गांव आ कर बस गए हैं। भाजपा के नेतृत्व में बने "उत्तरांचल" के पहले विधान सभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई के बीच आर्थिक रूप से  विपन्न लोक वाहिनी, क्रांति दल और कम्युनिस्ट पार्टियों का संयुक्त मोर्चा भी चुनाव में है। कांग्रेस की विधान सभा मे जीत, हरीश रावत की जगह नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्री बनने के समानांतर पुष्कर के गांव में 'शाह-चड्ढा ग्रुप ऑफ नेचर कॉटेजेज' के बहाने किसानों से ज़मीन हथियाने और नेता-माफिया गठजोड़ के सामने पुष्कर के ग्राम प्रधानी का चुनाव हारने, पुष्कर की हताशा लेकिन गैरसैंण में राजधानी बनाने के लिए चल रहे आंदोलन में कविता की भागीदारी के साथ टिहरी के डूबने के जादुई यथार्थ में पगे मर्मस्पर्शी विवरण हैं।

विकास अर्थात ट्रिकल डाउन इकोनॉमी: "खतलिंग से निकलने वाली भिलंगना नदी टिहरी में भागीरथी से मिलने की आतुरता में भी अपने गांवों को जीवन से सराबोर करना नहीं भूलती। घणसाली कस्बे से दसेक किमी और ऊपर जाने पर फलेंडा, सरुणा, जनेत, बहेड़ा, थरेली, रौसाल, डाबसौड़ जैसे गाँव धान की रोपाई के लिये बादलों का मुँह नहीं जोहते। भिलंगना के दोनों तटों पर बनाई गई छह पक्की गूलें(नहरें) पानी नहीं ज़िंदगी बहाती चलती हैं।" यहीं कथित विकास की दौड़ में 'पावर-प्रोजेक्ट' बनने जा रहा था। ग्रामीण आंदोलन पर हैं, दमन का शिकार हो रहे हैं। "भिलंगना घाटी के ग्रामीणों का जीवन पटरी से उतर गया था। सन 2004 से लड़ते लड़ते 2006 आ गया …. उनके संघर्ष की ओर किसी पार्टी, संगठन या पर्यावरण-संत का ध्यान नहीं था। 'हिमालय को बचाने के लिए ' टिहरी में अनशन कर चुके बाबा जीवन लाल और 'पर्यावरण पुरूष' बन चुके रामप्रसाद जी को न हिमालय खतरे में दिखा न पर्यावरण। क्षेत्र का विधायक कंपनी की भाषा बोल रहा था।उत्तराखंड की दूसरी विधानसभा के चुनाव(2007) भी सम्पन्न हो गए। मात्र एक परिवर्तन के पुरानी ही कहानी दोहराई गई। कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा सत्ता में आ गई। …. कुंदन शाह के दोनों हाथों में फिर लड्डू होने ही थे। ….अखबारों में पूरे पेज के रंगीन विज्ञापन और खबरिया चैनलों में लघु फिल्में जोर-शोर से एलान कर रही थीं- उत्तराखंड विकास के पथ पर तेज़ी से अग्रसर।"

इस नए राज्य में लेखक जन गायक गिर्दा के गीत के साथ उपस्थित होता है। "कस होलो उत्तराखंड, कास हमारा नेता/कसि होलो विकास नीति,कसि होली व्यवस्था/जड़ि-कंजड़ि उखेल भली कै, पुरि बहस करुंलो/हम लड़ते रयाँ भुलू,हम लड़ते रूंलो। ज़माने को जगाने वाला गिर्दा गहरी नींद सो गया।" कोई नहीं कहेगा कि खामोश रहा गिर्दा,कभी नहीं। उसकी छटपटाहट से निकलते रहे गीत,कविताएं, नाटक, नारे, सुर-ताल और सबकी बेचैनी को स्वर देते रहे। छटपटाहट की लहरें पैदा करते रहे। इसीलिए कभी ठीक से सो ही नहीं पाया।" आंदोलन होते रहे लेकिन सत्ता सिर्फ एक हाथ से दूसरे में हस्तांतरित होती रही।" सन 2012 में उत्तराखंड विधानसभा के तीसरे चुनाव थोड़े हेर-फेर के साथ पहले जैसे परिणाम देकर संपन्न हो गए। भाजपा अपदस्थ और कांग्रेस सत्तारूढ़ हो गई। इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, आईटी हब, एमओयू और इंटरनेशनल टूरिस्ट डेस्टिनेशन जैसे शोर में आंदोलनकारियों के यदा-कदा जुलूस, धरना-प्रदर्शन और जन गीत खो जा रहे थे।" नानीसार में आंदोलनकारी किसानों और ग्रामीणों का दमन करके नए मुख्यमंत्री रावत द्वारा पहले इंटरनेशनल स्कूल का शिलान्यास किया जा रहा था। …. पुष्कर के गांव का हाल यह था- "पैंतीस-चालीस मवासों के सुमकोट में अब मुश्किल से बारह परिवार रह गए थे।" हलवाहे धनराम के पलायन के बाद ब्राह्मण असहाय महसूस कर रहे थे। ऐसे में एक दिन "खेत में सचमुच बैल जुते हुए थे। हल की मूंठ पुष्कर के हाथ मे थी।" पुष्कर की काकी ब्राह्मण-भतीजे के हल चलाने को लेकर न सिर्फ उससे संबंध विच्छेद कर लेती है, बल्कि मृत्यु के बाद 'क्रिया-कर्म' के लिए भी मना करती है। जातीय व्यवस्था की इस जकड़न का लेखक ने मार्मिक चित्रण किया है।  अलग राज्य की मांग मंडल कमीशन की पिछड़ों के लिए आरक्षण के विरोध में सवर्ण छात्रों के आंदोलन के गर्भ से जन्मी लेकिन यहां भी लेखक ने सजगता के साथ दलित और पिछड़ों के पक्ष को रेखांकित किया है। "आप अवश्य अपनी रणनीति तय कीजिए। मैं और मेरे बहुत से साथी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं लेकिन हमारी कुछ शंकाएँ हैं। हम दलित युवक किस भरोसे इस आंदोलन में शामिल हों? पिछड़ी जातियां भी उत्तराखंड में हैं। कम हैं लेकिन हैं। वे आंदोलन में कैसे साथ आएं, क्यों आएं?"                                             

माओवाद के नाम पर आदिवासियों का दमन- "लंगड़ा बोझ गाँव में सलीम अहमद के ठिकाने से हथियार, गोलियां, हथगोले और प्रतिबंधित साहित्य बरामद हुआ है। ….गिरफ्तार माओवादियों से पूछताछ चल रही है।" पुष्कर जेल में सलीम से मिलने पहुंचा है। "ये रामचंदर, गोकुल और गोवर्धन वही हैं न जिनसे हम कुछ साल पहले दिनेशपुर के ढाबे में मिले थे, जब कविता बीबीसी के लिये रिपोर्ट कर रही थी? जिनकी ज़मीन सिख रसूखदारों ने हड़प रखी है?"  सलीम ने हाँ में गर्दन हिला दी- "पकड़ा भी वहीं गाँव से।"          मीडिया में मुठभेड़ की खबर है, जंगल मे ट्रेनिंग कैम्प।"  "पुराने पुलिसिया तरीके।" वह हंसा। फिर एकाएक  गंभीर होकर कहने लगा "एक काम करोगे, पुष्कर भाई? भाभी के और अपने पत्रकार मित्रों से कहो कि पता लगाएं कि कहां, कब और कैसे मुठभेड़ हुई? ट्रेनिंग कैम्प लगा होगा और गोलियां चली होंगी तो कुछ सबूत होंगे ….कोई जाकर पूछे दिनेशपुर, लंगड़ाबोझ गांव में, क्या कहते हैं वे आदिवासी? उनकी ज़मीन किसके कब्जे में है जिसका लगान वे खुद भरते आये हैं। …. मुझे जेल से डर नहीं है,  न ही मार खाने से, न मौत से। यह जरूर चाहता हूँ कि जनता के सामने सच्चाई आये।" 

साम्प्रदायिकता की आहट: "मास्टर मुस्तफा टेलरिंग शॉप" के सामने ऊंचे स्टूल पर चढ़े असगर भाई दूकान के नाम-पट को साफ कर रहे थे।"  "अच्छा किया पुष्कर, आ गए। तुम्हें कई दिनों से याद कर रहा था।"  "बताइये भैया"  "बताना क्या है, ऊपर देखो"  किसी ने 'मुस्तफा' को काटकर उसके ऊपर 'माओवादी' लिख दिया था।  "किसने किया? कब?” पुष्कर सदमे से उबर नहीं पा रहा था। "अक्सर कोई रात में कर देता है। कभी बीफ ईटर लिख देते हैं" वे रुआंसे हो गए। 

इस प्रकरण पर लेखक की टिप्पणी बहुत कुछ कहती है- "इसी अल्मोड़े की रामलीला का मंच सलीम के दादा मास्टर मुस्तफा बनाया करते थे, जिन्हें यहीं के कुछ लंपट अब 'माओवादी' और 'बीफ ईटर' लिख रहे हैं। कलीम चच्चा मंच निर्माण की व्यस्तता के कारण अपनी दुकान भी बंद कर देते थे। यहां के प्रसिद्ध दशहरा जुलूस के पुतलों की रखवाली में हमीदा चाची रात भर जागती थीं। कुछ पुतले तो उन्हीं के आंगन में बनते थे। तो, 2014 के बाद हिंदुस्तान इस तरह बदल रहा है।"

उपन्यास का समापन गांव लौटते हुए पुष्कर और कविता के बीच आसपास पसर रहे बाज़ार, कथित विकास और आंदोलन की जरूरत के संवादों और गांव के ऊपर पहाड़ी पर एक जोरदार धमाके के साथ होता है। यह विकास का धमाका है। 

कुल मिलाकर वरिष्ठ पत्रकार, लेखक नवीन जोशी का उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' पहाड़ की बोली-बानी, संस्कृति-संस्कार में रचा-पगा अत्यंत पठनीय और पहाड़ को समझने का अनूठा दस्तावेज है।

((जनसंदेश टाइम्स में रविवार, 6 नवम्बर 2022 को प्रकाशित