नवीन जोशी
हाल ही में प्रकाशित शीला
रोहेकर का चौथा उपन्यास ‘पल्लीपार’ अपने आकार
(446 पृष्ठ) में ही नहीं अपने कथानक, मंतव्य और वितान में भी विस्तृत है। उसमें
अनेक कथाएं हैं, कथाओं के भीतर कथाएं हैं, विविध लेकिन आपस में गुंथे एवं परस्पर उलझे हुए चरित्र हैं, उन सबका एक गुंजलक है, मिथक, गाथाओं
और इतिहास की छौंक है तथा हमारे समकाल की विकराल सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक
चुनौतियों से आमना-सामना है। इसके विविध चरित्र एक केंद्रीय चरित्र, नायिका सारा (यहूदी नाम ‘साराह’) से गहन रूप से जुड़े हैं जो अपनी-अपनी कहानियों की मार्फत उसके मानस,
स्वतंत्र व्यक्तित्व, निज की तलाश के संघर्षों
को चित्रित करने के साथ उस समय को भी बयां करते हैं जिसमें वे और उनके पुरखे रहते
आए हैं। इनकी कहानियों में अतीत बार-बार बोलता है, मिथक व इतिहास
गूंजता है और हमारा वर्तमान निरंतर विकट होती चुनौतियों के साथ पेश आता है। इस
वर्तमान की जड़ें अतीत में ही हैं। ‘पल्लीपार’ अपने नाम से ही संकेत कर देता है कि यह निरंतर पल्ली तरफ धकेले जाते
अल्पसंख्यकों, अति-अल्पसंख्यकों, वंचितों
के बाहरी-भीतरी संघर्ष की कथा है, लेकिन यह ‘पल्लीपार’ इससे भी व्यापक अर्थों वाला है। यहां विवेकशील,
लोकतांत्रिक, संवेदनशील मनुष्य होना ही पल्लीपार
होना हो गया है। उसमें भी स्वतंत्रचेता स्त्री के लिए तो यह शब्द भी छोटा पड़ जाता
है। वह हर तरह से पल्ली-पल्लीपार है।
अपने पिछले उपन्यास ‘मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथा’ (2013) की तरह ही शीला जी ‘पल्लीपार’ में
भी एक भारतीय यहूदी परिवार को केंद्र बनाती हैं लेकिन यह उपन्यास यहूदी परिवार और
समाज के संकटों-संघर्षों तक ही नहीं रहता, उससे कहीं आगे की कंटकाकीर्ण
राह पकड़ता है। इस यहूदी परिवार के चौगिर्द पूरे भारत का समकाल खड़ा नज़र आता है।
जैकब नवगांवकर और एस्थर दम्पति के दो बेटों और एक बेटी की कहानी क्रमश: विस्तार
लेती हुई हमारे देश की वर्तमान चुनौतियों, सामाजिक-राजनैतिक
हालात, बढ़ती साम्प्रदायिकता, दंगे,
मीडिया का निरंतर मूल्यच्युत होते हुए सत्ता का भौंपू बन जाना,
सबंधों का टकराव और टूटन, पारिवारिक बिखराव,
विस्थापन, बुजुर्गों का अकेलापन और विभिन्न
चरित्रों, विशेष रूप से नायिका के अपने वजूद की तलाश या
भटकाव को समेट लेती है। इस तरह यह उपन्यास गाथात्मक विस्तार लेते हुए पाठक को
झिझोड़ता रहता है।
अपने ‘जैन’ प्रोफेसर की बेटी
से प्यार कर बैठने की कीमत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब यहूदी युवक जैकब नवगांवकर ने तीसरे
दर्जे में पास होने, विश्वविद्यालयों की प्रोफेसरी के लिए
अनुपयुक्त ठहराए जाने और एक कॉलेज में उपेक्षित-सी मास्टरी करते हुए जीवन बिता
देने में चुकाई। उन्हें और भी बहुत चुकाना पड़ा। रिटायरमेण्ट के बाद फण्ड की रकम के
बड़े हिस्से से जिस सोसायटी में दो कमरे का फ्लैट खरीदा, वह
इस यहूदी परिवार को कभी अपना नहीं समझ सका। बड़े बेटे मोजस को भी पिता की तरह मुहब्बत
में यहूदी होने के ऐवज में तगड़ी चोट खानी पड़ी। जिस यहूदी कन्या से अंतत: उसका
विवाह हुआ, वह आर्थिक एवं मानसिक संकट के दौर में उसे छोड़कर
चली गई। अंतत: मोजस नशे की लत एवं अवसाद के चलते माता-पिता की कथा को और त्रासद
बनाता हुआ फंदे से लटक गया। छोटा बेटा बेन (बेन्यामिन) अपनी परिवार-विमुख पत्नी के
साथ मुम्बई जा बसा। रही बेटी साराह, तो वह दोस्तियों और मुहब्बतों
के जटिल पेंचों-धोखों-त्यागों, पत्रकारिता की नौकरी की कालिमा
एवं उठापटक, दैहिक रिश्तों एवं मुहब्बती छलावों में अपने
वजूद की तलाश करते-भटकते ‘यू ब्लडी फकिंग बिच’ ठहराई गई। अपने सूने फ्लैट में दिन काट रहे और बार-बार अतीत में जाते बूढ़े
जैकब और एस्थर का अकेलापन इस तरह गूंजता है जैसे इस देश में अल्पसंख्यक ही नहीं,
संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों में विश्वास करने वाले नागरिक
किनारे धकेले जा रहे हैं, जिनके फ्लैट और रहे-बचे सामान पर
कबाड़ी तक की शातिर निगाह लगी हुई है।
पिता जैकब, मां एस्थर, दिवगंत
होने से पहले बड़े भाई मोजस, दूसरे भाई बेन्यामिन, बचपन की पक्की दोस्त लेकिन बाद में रकीब बन गई अवसादित रेवती, सहेली जबा, एक दौर का प्रेमी साहिल, मीडिया चैनल में उसके बॉस सलिल कपूर, जिनसे निकट होते
गए रिश्ते में सारा ने कभी अपनी पूर्णता भी देखी थी तथा संवेदनशील सहयोगी-पत्रकार
अशफाक की अलग-अलग कहानियों में और फुटकर स्मृतियों में सारा की कथा कई कोणों से आगे
बढ़ती है। हरेक की कहानी में सारा है। कभी प्यार-दुलार, कभी
दोस्ती, कभी अबूझ पहेली और कभी दुत्कारों-ठोकरों में सारा के
व्यक्तित्व और कुछ सीमा तक मन की भी परतें खुलती हैं। यह एक विवेकशील और चेतन
स्त्री की इस समाज में अपना ठौर तलाशने की जद्दोजहद है, अपनी
पहचान बनाने और समझने की कोशिश है, यह अपनी अस्मिता तलाशने
और स्वतंत्र रूप से सबल व्यक्ति के रूप में जीने की कश्मकश है। इस प्रक्रिया में
सारा का छला जाना-भटकना ही नहीं दिखाई देता, इस पुरुष प्रधान
समाज की सीवनें भी उघड़ती जाती हैं जिनसे तरह-तरह का कलुष झांकता है। एक प्रसंग में
जब सारा से बेन कहता है- “तुम क्या चाहती हो, यह शायद
तुम्हें भी मालूम नहीं” तो सारा का जवाब आता है- “ऐसा भी हो सकता है बेन कि मैं
अपने रिश्तों में पूरी तरह से ईमानदारी चाहती हूं जिसमें कोई स्वार्थ, आशंका, दबाव या स्खलन न हो और अपने समय के लिए
जवाबदेह हों।” बेन साफ कह देता है- “ऐसा बेलौस संसार तुम्हें मिलने से रहा। इसीलिए
भाग रही हो। इसे भटक जाना कहते हैं सारा, भटकाव है यह।”
सचमुच, भागती ही रही है सारा— परिवार
से, दोस्तों से, समझदार लगने वाले
सहकर्मियों से, प्यार या प्यार का नाटक करने वाले बॉस,
करीब आते उसके बेटे और मीडिया की नौकरियों से भी। शायद अपने आप से ही।
“रिबेलियस, स्वाभिमानी, जहीन और
गम्भीर” सारा की यह भटकन उसे जहां-जहां ले जाती है, जिस-जिस
से वह रिश्ते बनाती है, जहां भी मुहब्बत या धोखा पाती है,
जब भी लड़ती और जूझती है, वहां-वहां और तब-तब
हमारे समाज का कलुष, पौरुष और राजनीति की साजिशें सामने आ
जाते हैं। सारा की इस कथा में इतिहास और मिथकों के अनेक प्रसंगों के गूढ़ार्थों से
लेकर समकाल की भयावह स्थितियां तक गूंजते रहते हैं- “गायों को बचाया जा रहा है और
दलितों की खालों की जूतियां बन रही हैं। दुनिया भर के सयानों, दार्शनिकों और महानायकों को बोतलों में भरकर जिन्न बना दिया गया है ताकि
समयानुसार उन्हें बाहर निकालकर उपयोग में लाया जा सके। आजकल गांधी जी की ऐनक बाहर
निकली हुई है।” गुजरात के दंगे, जाहिरा शेख की त्रासदी,
दिल्ली के सीरियल धमाके, 2013 के मुजफ्फरनगर
दंगे, समझौता एक्सप्रेस के विस्फोट और भी कई वारदात, जो इस देश के मूल ढांचे पर ही हमला करते आए हैं,
सारा की कथा में गुंथे चले आते हैं और उनके पीछे की सच्चाई में झांकने का प्रयास
करते हैं। 2014 के आम चुनावों के बाद से
देश में जो ‘बदलाव’ आया, बल्कि लाया गया है, उसके दूरगामी प्रभावों की
अंतर्ध्वनियां और प्रतिक्रियाएं भी कथा में साफ-साफ सुने-देखे जा सकते हैं।
शीला रोहेकर स्वयं यहूदी हैं, इस अति-अल्पसंख्यक समुदाय
को अपनी पहचान खो देने का संकट, सामाजिक अलगाव, और भी क्या-क्या सहना पड़ता है, इसका उन्हें
स्वाभाविक ही गहरा अनुभव है। ‘मिस सैमुएल- एक यहूदी गाथा’
में जो त्रासद-कथा वे लिख गई हैं, उसकी
पीड़ादायक गूंज ‘पल्लीपार’ में भी बराबर
सुनाई देती है- “... दो हजार वर्ष में (जबसे यहूदियों का भारत आगमन माना जाता है)
करीब एक हजार वर्ष हमारी जाति अल्पसंख्यक, पिछड़ी या अछूत
समझी जाती रही। हमारे जैसे लोगों की बस्तियां नहीं होतीं, ‘पल्लीपार’ होता है, मुख्य बस्ती से दूर जहां उजाड़ होता है।
ऐसे में सारी इच्छाएं, भविष्य और प्रगति धूल बनकर उड़ती रहती
है।... हमारी जैसी जातियां निर्वासित हैं। हमारा इतिहास में कोई उल्लेख नहीं होता,
केवल गजेटियर्स में होता है हमारा उल्लेख...।” इसके साथ ही इस उपन्यास
में एक विशाल अल्पसंख्यक आबादी, यानी मुसलमानों को अपने ही
वतन में पराया, संदिग्ध और आतंकवादी करार दिए जाने की राजनीति-पोषित
नफरत का विस्तार से तकलीफदेह वर्णन है। 2013 में मुजफ्फरनगर के लाकबावड़ी गांव में सारा
के सहकर्मी पत्रकार अशफाक की बहन को मुहल्ले के ही लड़के खींच ले गए, बच्ची और मां का कत्ल कर दिया गया, सदमे में पिता
पत्थर हो गए, भाई विक्षिप्त बन गया और खुद अशफाक को दंगों में
बलात्कार और कत्लों के झूठे आरोपों का अभियुक्त बनाकर बिना सुनवाई जेल में ठूंस
दिया गया- “विश्व के तमाम देशों के अल्पसंख्यक और वंचित ‘पल्लीपार’
के ही निवासी होते हैं, यह बात मैंने जेल की
इस कोठरी से पूरी तरह मन में उतार ली है, क्योंकि इससे पहले
मैंने किसी हादसे या दुर्दिन को अपने घर के किवाड़ पर दस्तक देते नहीं देखा था।” यह
सच आज सिर्फ उपन्यास के पात्र अशफाक ही का नहीं है, एक बड़ी जीती-जागती
आबादी हमारे देखते-देखते पल्लीपार भेजी जा रही है। नतीजा यह है कि “कोई हादसा हो
जाता है तो हम अल्पसंख्यक, समाज के हाशिए पर चलने वाले लोग जाने-अनजाने
उन तमाम अनहोनियों की जिम्मेदारियों के लिए नापे-तौले जाते हैं।” एक बड़ी आबादी आज
के भारत में क्या लगातार शक के दायरे में नहीं ला दी गई है? यह
लक्षण 2014 से नहीं, 1990 से ही सामने आने लगे थे, जब आडवाणी की रथ-यात्रा के समय “दिल्ली के नामी पत्रकारिता कॉलेज में
मुसलमान लड़के कोई अनकही, अप्रकट झुरझुरी से खुद को और
एक-दूसरे को सामान्य दिखाने की कोशिश में रहते थे।” बढ़ती साम्प्रदायिकता और उसकी
विध्वंसक प्रवृत्तियों को शीला जी रेशे-रेशे खोलती हैं। सारा जैकब का यह कथन
देखिए- “सुना था जुहानपुरा मिनी पाकिस्तान बना दिया गया है, कल
खुद देख भी लिया। कल मैं अपने चैनल के एसाइनमेण्ट की रिपोर्टिंग के लिए वहां गई
थी। स्कूटर वाले ने मुझसे कहा, ‘बेन मिनी पाकिस्तान मां नहीं
जाऊं (मिनी पाकिस्तान में नहीं जाऊंगा) लेकिन आपको मैं बाघा बॉर्डर पर छोड़ दूंगा।
वहां से आप साइकिल रिक्शा लेकर चली जाइएगा। वैसे बेन, आप ऐसे
एरिया में जाती ही क्यों हो?’ यानी कि हिंदुओं की वेजलपुरा
बस्ती और मुस्लिमों की जुहानपुरा बस्ता के बीच से निकलती सड़क ‘बाघा बॉर्डर’?” नफरत का यह राजनैतिक खेल शीला जी के लेखन
के प्रमुख सरोकारों में शामिल है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के पहले और बाद की घटनाओं
की काली छाया सिर्फ मुसलमानों पर नहीं पड़ी, उसने यहूदी जैसे
अति-अल्पसंख्यक समाज को और भी अधिक संदेहों-उपेक्षाओं-दुत्कारों के घेरे में ला
दिया, जिसकी चर्चा ही नहीं होती। उपन्यास इस दर्द को बड़ी
शिद्दत से बयां करता है। यहूदी अपने समाज के भीतर भी किस कदर मूल्यों के टकराव से
जूझ रहे हैं, यह जैकब नवगांवकर के अंतिम संकल्प से प्रकट होता है। धर्म पर लेख
लिखने और दावे करने वाले नवगांवकर अपने अंतिम समय में पत्नी एस्थर से वादा लेते
हैं कि उन्हें यहूदी कब्रिस्तान में दफनाने की बजाय नगर निगम के शवदाह गृह में जला
दिया जाए क्योंकि “मुझे धर्म की इन नियमावलियों ने तोड़ दिया।” जीवन भर झेली
उपेक्षाओं और धर्म की कट्टरता से मोहभंग के बाद यही मौन विद्रोह वे कर सकते थे।
‘पल्लीपार’ का एक सशक्त कथा-पक्ष हमारे मीडिया
की भूमिका की चीर-फाड़ भी है। 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद देश तेजी से बदला और
उससे भी तेजी से बदला मीडिया। चैनल के कर्ता-धर्ता और सम्पादक “लाल टीका लगाए,
सिर पर रुमाल धरे फोटुओं में चमकने लगे थे। उनके चेहरे की संवेदना,
सोच और खरेपन की रेखाएं भोथरी होने लगी थीं।” तब सारा अपने विद्रोही स्वभाव के कारण ‘ए न्यूज डॉट कॉम’ से बाहर हुई और अशफाक को मजबूरन बाहर होना पड़ा- “मुझे नहीं
पता था कि सलिल कपूर जैसे सजग और प्रबुद्ध व्यक्ति को भी मैं किसी आतंकवादी गिरोह
का सदस्य या दूर का कोई रिश्तेदार अथवा जासूस लगूंगा।” ये सलिल कपूर न्यूज चैनल के
सम्पादकीय प्रभारी थे। 2007 की शुरुआत में जब नई दिल्ली से चलकर लाहौर जा रही
समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट हुए जिसमें अधिकतर पाकिस्तानी मुसाफिर मारे गए तभी
से ‘ए न्यूज डॉट कॉम’ की पंचलाइन बदलने लगी लेकिन 2014
के बाद सभी सीमाएं पार हो गईं। तब अशफाक तो भीतर ही घुटकर रह गया लेकिन उसके साथी
पंकज सिंह ने सलिल कपूर को चेतावनी देते हुए इस्तीफा उस पर उछाल दिया – “जनता को
बरगलाकर आप उन्हें ऐसे कारखाने में ले जा रहे हैं जहां रोबोट बनाए जाते हैं। वे
रोबोट सही और गलत का दायरा तय नहीं कर पाएंगे क्योंकि सबके मस्तिष्क में एक सी ही
चिप पड़ी होगी। उन सारी इकाइयों के सोच, समझ, संवेदना, आवाज और प्रतिरोध के दमन का क्या कोई जवाबदेह
नहीं होगा?” सारा, पंकज और अशफाक जैसे
पत्रकारों को चैनल से बाहर होना पड़ा और चारण बने सम्पादक तरक्की और वेतन-भत्तों की
सीढ़ियां चढ़ते गए।
हाल के वर्षों में मीडिया को केंद्र में रखकर या मीडिया की
पड़ताल को कथावस्तु का एक हिस्सा बनाकर कुछ उपन्यास आमने आए हैं। कुछेक में मीडिया
का अंदरूनी संसार और विकृतियां अति नाटकीय बना दिए गए हैं लेकिन शीला रोहेकर ने ‘पल्लीपार’
में मीडिया के अध:पतन का, विशेष रूप से
साम्प्रदायिक तथा ‘सेलेक्टिव’ होते
जाने का विश्वसनीय चित्र दर्ज़ किया है। यह बदलाव या पतन घटनाओं में अंतर्गुम्फित
है और सारा, अशफाक, पंकज, सलिल कपूर जैसे मीडियाकर्मियों के जरिए विभिन्न घटनाओं में अभिव्यक्त हुआ
है, इसलिए विवरणात्मक या विश्लेषणात्मक होने से बचा रहा है।
‘पल्लीपार’ में शीला जी के कहन या कथा-शैली
पर अवश्य बात की जानी चाहिए। उनके पहले के उपन्यासों में भी ऐसी विशिष्ट शैली
दिखाई देती है जिसमें वे सीधी–सरल रेखा में कथा न कहकर उसकी बारीक बुनावट वाली
डिजायन रचती हैं, प्रतीकों, मिथकों और
इतिहास का सहारा लेती हैं जिसमें अतीत-वर्तमान-अतीत के बीच आवाजाही चलती रहती है। ‘पल्लीपार’ में वे नया प्रयोग करती हैं। यहां अतीत और
वर्तमान के बीच आती-जाती हिंडोले-सी पेंगें तो हैं ही, स्वयं
लेखिका एक सूत्रधार की तरह कथा का सिरा पाठक को कभी पकड़ाती और कभी छुड़वाती हैं।
पहला अध्याय पूरी तरह लेखिका का अपना ‘स्पेस’ है – “मैं कहानियां बुनती हूं। कहानियों की चाल-सीधी-सरल नहीं होती। न ही
अपनी बात क्रमबद्ध अथवा लयबद्ध ढंग से कर पाती हैं। भटकती, छितराती,
बेसुरी या वक्र होती वे अपनी मन-मरजी से आगे बढ़ती हैं। अक्सर ऐसा भी
होता है कि खड़ी हो जाती हैं बीच में और आगे बढ़ने को नकार देती हैं....।” पल्लीपार
में ऐसी ही बुनावट है और खूब है। कोई क्रम नहीं, कोई लय नहीं,
कोई सीधी रेखा नहीं, वक्र और तिर्यक। कहानियां
छलांग लगाती हैं, एक सिरा वहीं छोड़कर आगे या बहुत पीछे कूद
जाती हैं, कोई दूसरी कथा की झलक प्रकट होती है, फिर कहीं छूट गया पिछला कोई सिरा पाठक की पकड़ में आ जाता है। कथाकार एक पल
किसी एक पात्र या किस्से के साथ होती हैं कि अचानक दूसरा पात्र या किस्सा साथ हो
लेता है और तभी उसकी जगह तीसरा पात्र बोलने लगता है। जैसे, वे
जो बात कहना चाहती हैं, उसे थोड़ा-सा कहकर पाठक के भीतर भीगने
के लिए छोड़ देती है। और जब उस संकेत की व्याप्ति गहरे उतर जाती है तो उसी प्रसंग पर
फिर लौट आती हैं। दोहराव का खतरा तो है पर है यह शैली बहुत भेदक। हर बार उसी
प्रसंग के विविध कोने-कतरे, आयाम खुलते हैं। उपन्यास का
प्रत्येक अध्याय एक अलग पात्र की कहानी या जुबानी है लेकिन कोई शीर्षक या संकेत
नहीं है। पाठक को ही समझना है कि अब कहानी की डोर किसने थाम ली है, कौन उसे आगे ढील दे रहा है या पीछे खींचे जा रहा है। पढ़ते हुए कभी ब्रेख्त
के ‘एलियनेशन सिद्धांत’ की याद आती है, तो कभी लगता है नेपथ्य में कोई प्रलाप-सा चल रहा है। इस कारण इस उपन्यास
को पढ़ना तनिक दुरूह लग सकता है, विशेष रूप से तब जब आप
सूत्रधार-लेखिका की ‘वक्र’ या ‘तिर्यक’ चाल से तादात्म्य नहीं बैठा पाते। यह तालमेल
बन जाए तो फिर ‘पल्लीपार’ आपको छोड़ता
नहीं और लेखिका लाख कहे कि पात्र उनका कहा नहीं मान रहे, पाठक
को ऐसी कोई जिद या मान-मनौवल नहीं दिखाई देती। उसके लिए कथा बहता नीर बन जाती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि ‘पल्लीपार’ को पढ़ते हुए अचानक ‘रेत समाधि’ भी साथ चलने लगती है! रचनात्मक आवेग के ये सुंदर संयोग हैं। जैसे ‘रेत समाधि’ पढ़ते हुए ‘मिनिस्ट्री
ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का ट्रांसजेण्डर पात्र साथ हो लेता है,
वैसे ही। दोनों उपन्यासों में लेखिकाएं बीच-बीच में सूत्रधार के रूप
में प्रकट होती रहती हैं। और, ‘पल्लीपार’ में एस्थर की खिड़की पर रोज आ बैठने वाली श्यामा चिड़िया हमें ‘रेत समाधि के उस कौवे की याद दिला देती है जो चंद्रप्रभा देवी उर्फ अम्मा
की बालकनी से लेकर सीमापार पाकिस्तान के सुदूर बीहड़ इलाके में भी उनके आसपास रहता, संवाद करता और घटनाओं का साक्षी बनता है। ‘पल्लीपार’
में एस्थर और श्यामा पक्षी एक-दूसरे से बात करते हैं। एस्थर की
कहानी तो ज़्यादातर श्यामा पक्षी को सुनाते हुए कही गई है। दोनों का अत्यंत आत्मीय
सम्बंध है। एस्थर के बचपन का वह भीतर तक कंपकपा देने वाला प्रसंग, जब नन्हीं एस्थर अपने से भी छोटी बहन लिली को आबा (पिता) के आतंक से पानी
के ड्रम में डूबकर सदा के लिए मौन हो जाते देखती है, चूरमे
का घी-गुड़ का लिली के हिस्से का लड्डू भी खा लेने का वह जो अपराध बोध जीवन भर उसका
पीछा करता है, उसे वह श्यामा के अलावा सुनाए भी किससे- “बताओ श्यामा,
तुम्हारे पक्षी जगत में ऐसे लिंग-भेद होते हैं? हमारी दुनिया में तो नर सर्वोपरि मान लिया जाता है क्योंकि ऐसा न होता तो
मां ने बाद में नौ लड़के पैदा किए। दो की मृत्यु असमय हुई, तब
भी बचे सात और मैं आठवीं। सबसे बड़ी। बहुत कद्र हुई मां की बाद में। दादी तो ‘बेटी’ के सिवा बुलाती ही नहीं थी। ‘करमजली’, ‘चुप्पी’ नाम थे उसके
पहले।” पितृसत्ता ने हर तरह की आस्थाओं वाले समाज के भीतर स्त्री को इसी तरह तोड़ा
है लेकिन यह स्त्री ही है जो टूटने के बजाय लड़ती आई है। मां एस्थर और बेटी सारा की
ज़िंदगियों का भीषण द्वंद्व सहने और लड़ने रहने का ही द्वंद्व है। अकथ पीड़ा और भटकन
इसी का परिणाम है।
हमारे समय, देश, विभिन्न समाजों,
धर्म, राजनीति, स्त्री,
वंचित समुदायों, अपनी अस्मिता के लिए जूझते
पात्रों की यह विस्तृत और उलझी-सुलझी गाथा पाठक के मन में अपना गहर असर छोड़ती है
लेकिन अवसादित भी कर जाती है। उपन्यास के विस्तार में अकेलापन, विस्थापन, निरंतर हाशिए पर धकेले जाना, बाहर-भीतर से टूटते रहना, स्मृतियों में जीना,
छला जाना, अफसोस करना और मृत्यु का इंतजार छाया
रहता है। यहां खुशी, आनन्द, उत्साह और
उम्मीदें लगभग नदारद हैं। संघर्ष और प्रतिरोध की अंतर्धारा उपस्थित तो है लेकिन
क्षीण। अच्छा यह है कि यह धारा कतई आरोपित या नारेबाजी वाली नहीं है। यह हमारे समय
का सच ही है, जिसमें संघर्ष और प्रतिरोध की बहुत जरूरत है,
इच्छा भी है लेकिन कोई साफ रास्ता नहीं सूझता। ‘पल्लीपार’ अतीत एवं वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आज
की पीड़ादायक कहानी है जिसमें पल्लीपार होते हुए भी पल्लीपार नहीं होने की चेतना
उपस्थित है। उस समाज का सपना बचा रहना चाहिए जहां कोई पल्लीपार नहीं किया जाएगा।
इसीलिए अज़हर इनायती का यह शेर किताब के शुरू में ही दे दिया गया है- “ये और बात है
कि आंधी हमारे बस में नहीं / मगर चराग जलाना तो इख्तियार में है।”
स्त्री और पुरुष रचनाकारों का वर्गीकरण कतई अपेक्षित नहीं
है लेकिन यह नोट किया जाना चाहिए कि हाल के वर्षों में स्त्री उपन्यासकारों ने कुछ
अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक फलक वाले उपन्यास हिंदी पाठकों को दिए हैं। अपने
अध्ययन की सीमा के बावजूद मैं ‘पल्लीपार’ के साथ ‘रेत समाधि’, ‘खेला’, ‘बिसातपर जुगनू’
और ‘कुलभूषण का नाम दर्ज़ कीजिए’ का उल्लेख करना चाहूंगा। ये उपन्यास हिंदी में ‘महिला
रचनाकारों के दायरे’ को बड़ी दावेदारी के साथ ध्वस्त करते हैं-
कथानक में ही नहीं, शैली और वितान में भी। शीला रोहेकर तो
अपने पहले के उपन्यासों से ही यह घोषणा करती आई हैं। जैसी कि आम तौर पर परम्परा है,
‘पल्लीपार’ उपन्यास किसी को भी समर्पित नहीं
किया गया है। उस स्थान पर दर्ज़ हंगेरियन कवि मिलोश राद्नोती की पंक्तियां बहुत
सारा बयां कर देती हैं-
“मैं एक ऐसे
जमाने में इस धरती पर रहा,
जब विश्वासघात
और हत्या का आदर होता था।
खूनी, गद्दार
और चोर हीरो थे। और जो चुप
रहता था और
ताली नहीं बजाता था उससे ऐसी नफरत
की जाती थी
जैसे उसे कोढ़ हो।”
(उपन्यास- ‘पल्लीपार’, लेखिका-
शीला रोहेकर, प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, मूल्य-
रु 525/-)
- न जो