Friday, September 24, 2021

आपदा में डिजिटल क्रांति और बेचारी माँ

“एक मिनट फुर्सत नहीं होती जी। इनको दिन भर में तीन-चार बार चाय चाहिए, बेटी और बेटे को कॉफी। बिना आवाज किए उनके कमरे में पहुंचाना होता है। टीवी तक तो चला नहीं सकती। फोन बजे या गेट की घण्टी, दौड़कर जाना पड़ता है। जरा भी हल्ला नहीं होना चाहिए। सुबह का नाश्ता, फिर लंच, शाम का नाश्ता और फिर डिनर। कहते हैं, जितने दिन यहां हैं, घर का खाना खिला दो। बाहर का खाते-खाते जी ऊब गया है। कमर सीधी करने को नहीं मिलता।

बिल्कुल यही हाल यहां है। इस कोरोना ने तो हमारी अलग मुसीबत कर दी है।”

दो पड़ोसिनों का यह संवाद आजकल घर-घर की कहानी है। याद तब आई जब इसी सप्ताह डिजिटल क्रांतिपर हुए एक वेबिनार की खबर पढ़ी। बड़ी-छोटी सभी कम्पनियों के अधिकारी इस तथ्य से गदगद हैं कि कोविड महामारी के दौरान डिजिटल कारोबार ने ऐसी छलांग लगाई है कि जिसे डिजिटल रिवॉल्यूशनकहा जा सकता है और यह क्रांतिअब कायम रहनी है। दूसरे कई व्यवसाय इस दौरान पिटे हैं। कुछ कम्पनियां बंद हो गई हैं। पहले से जारी बेरोजगारी भीषण रूप ले चुकी है। दूसरी तरफ डिजिटल कारोबार से जुड़ी कम्पनियां और व्यवसाय खूब फले-फूले हैं।

वर्क फ्रॉम होमनई कार्य संस्कृति है। बहुत सारी कम्पनियों ने महामारी के चरम दौर में अपने कर्मचारियों को घर से ऑनलाइन काम करने की अनुमति दी थी। पहले यह सुरक्षा की दृष्टि से हुआ लेकिन अब इसने बहुत कम खर्चीली व्यवस्था का रूप ले लिया है। इसलिए स्थाई चलन हो गया है। उन्होंने न केवल अपने कर्मचारियों की संख्या घटा दी, बल्कि बड़े-बड़े दफ्तर बंद कर दिए। छोटे दफ्तरों से किराए की बचत हुई, कम स्टाफ से वेतन-बजट छोटा हुआ और दूसरे खर्चे भी कम हो गए। कर्मचारी अब दफ्तर की बजाय अपने घर का एसी, इण्टरनेट, आदि इस्तेमाल करते हैं और हर समय उपलब्ध भी रहते हैं।

दूर-दूर शहरों में काम करने वाले बच्चे अपने घर यानी माता-पिता के पास लौट आए हैं। ऑनलाइन ही काम करना है तो क्या दिल्ली-बंगलूर-हैदराबाद और क्या लखनऊ-सीतापुर-हल्द्वानी। लगभग सबके घर सुबह से शाम देर तक के दफ्तर बन गए हैं। माता-पिता के लिए यह परदेसी बच्चों के साथ रहने का मुश्किल से मिलने वाला सुख था तो बच्चों को मां के हाथ का खाना मिलना शुरू हुआ। शुरू-शुरू में यह सभी को अच्छा लगा लेकिन अब जबकि यह स्थाई रूप ले चुका है, मां के लिए लगभग चौबीस घण्टे की बेगारी बन गया है। उनके लिए न केवल घर का काम चौगुना हो गया है, बल्कि फुर्सत के क्षण दुर्लभ हो गए हैं। वर्क फ्रोम होमवाले बेटे-बेटियों की सेवा तो करनी ही पड़ती है, जोर से न बोलने, बर्तन न बजाने, टीवी न चलाने, फोन साइलेंट रखने, आदि की हिदायतें ऊपर से।

कुछ बच्चे घर से काम करते-करते बोर भी हो जाते हैं। उन्होंने डेस्टीनेशन ऑफिसका रास्ता निकाल लिया है। कभी गोवा तो कभी किसी पहाड़ में होम स्टेलेकर वहां से काम करने लगे हैं। काम का काम और घूमना ऊपर से। यह कुछ दिन का ही आनंद होता है। मां के हाथ का खानाउन्हें फिर वापस घर खींच लाता है। डिजिटल कारोबारियों के लिए यह आपदा में अवसरबना। वेबिनार में उन्होंने इसके लाभ गिनाए और उम्मीद जताई कि यह भविष्य में भी जारी रहेगा।

आपदा में भी आपदाजैसी गृहिणियों की नई स्थिति का कोई अनुमान डिजिटल कारोबारियों को नहीं होगा। कुछ बच्चे अमेरिका-यूरोप के कार्यालयों से मिलकर काम करते हैं। उनके लिए आधी रात और सुबह तड़के चाय-कॉफी की व्यवस्था भी मां के जिम्मे है। ऑनलाइन काम में डूबे बच्चों को ही इसका कितना भान है

(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 सितम्बर, 2021)            

Friday, September 17, 2021

इस शहर में ग़र बारिश के लिए ठिकाना होता

चौबीस घण्टे में 225 मिमी बारिश इतनी भीषण’  नहीं होती कि राजधानी और आस-पास के इलाके त्राहि-त्राहि करने लगें, घरों में पानी भर जाए और लोगों को सुरक्षित इलाकों में शरण लेनी पड़े। ऐसी बारिशें पहले भी होती रही हैं। हथिया नक्षत्र में तो किस्सा ही है कि हाथी की सूड़ जैसी मोटी धार बरसती है। फिर क्यों ऐसा हो गया है कि जलभराव ने बाढ़ जैसा संकट पैदा कर दिया और बिजली-पानी जैसी आवश्यक सुविधाएं ठप हो गईं, जिसकी मार अभी कुछ दिन तक जनता को झेलनी होगी?

कई बार कहा जाता रहा है कि धरती से बारिश का पानी सोखने की क्षमता छीन ली गई है। लखनऊ में कितने तालाब, बाग, खेत, वगैरह थे और आज कितने बचे हैं? बारिश का पानी जाए कहां? तारकोल की मोटी परतों वाली सड़कें हैं, उनसे जो जगह बची उनमें टाइल्स बिछी हैं और चारों तरफ कंक्रीट का जंगल घना होता गया है। बुधवार और गुरुवार को तो मूसलधार वर्षा हुई लेकिन यहां तो सामान्य बारिश में भी कई इलाके जलमग्न हो जाते हैं। पानी को बहने की जगह नहीं मिलेगी तो वह जमा ही तो होगा, घरों में भी घुसेगा और सड़कों में जहां थोड़ा पोला मिलेगा, वहीं धंसता जाएगा।

गांव हो या शहर, उसकी एक निश्चित ढाल होती है। पानी स्वभावत: उसी तरफ बहता है। उस ढाल में इमारतें बन जाएंगी तो पानी की राह रुकेगी लेकिन वह बहेगा उसी तरफ। परिणाम यह कि वहां जल भराव होगा। अखबारों में छपी उन इलाकों की सूची देख लें, जहां बुधवार और गुरुवार की भारी बारिश ने बाढ़-सा दृश्य रच दिया है, वे सब ढलवा इलाके हैं या पानी का रास्ता रोके हुए हैं। चौक या हुसेनगंज जैसे पुराने संकरे क्षेत्रों में जलभराव नहीं होता। होता भी है तो निकल जाता है। वे रिहायशी क्षेत्र सोच-समझकर बसाए गए थे।

इसके विपरीत नव-विकसित गोमती नगर का विशेषकर विभूति खण्ड क्षेत्र तालाबों को पाटकर विकसित किया गया है। ऐसे और भी कई इलाके हैं। पहले बारिश को यहां ठांव मिलता था, पानी तालाबों और निचले क्षेत्रों में रुकता था। इससे नदियां उफनाती नहीं थीं और जमीन के भीतर पानी का स्तर बढ़ता था। आज हम चिल्ला रहे हैं कि कई बहुमंजिला इमारतों के बेसमेंट में पानी भर गया है। पानी का क्या दोष! तालाब में इमारतें बनेंगी तो वह कहां जाएगा?

हैदर कैनाल और कुकरैल के आस-पास देख लीजिए। बेशुमार झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर बहुमंजिला अपार्टमेण्ट तक वहां खड़े हो गए। वैध-अवैध निर्माणों की बात करना अब निरर्थक लगता है। नदी-नालों के छोर तक इमारतें बना देंगे तो क्या हमारी सुविधा के लिए पानी रास्ता बदल देगा? तालाबों में इमारतें बनाना हमने सीख लिया लेकिन यह हमारे बूते की बात नहीं कि वर्षा-जल को बहने का मार्ग बदल देना सिखा सकें। भारी बारिश का पानी रोकने और समाने की जगह कहीं छोड़ी भी है हमने? सो, हलकी वर्षा में भी ये इलाके डूबते हैं और हम शोर मचाते हैं। मचाइए, क्योंकि यही नियति बन गई है। मूल कारणों को जान-बूझकर देखेंगे नहीं (क्योंकि उनका समाधान इस विकास-तंत्र को मुफीद नहीं) और जलभराव पर शोर मचाएंगे। शहरों का विकास इसी प्रकृति-विरुद्ध तरीके से हुआ है।

विकास की जो यह सोच सदियों से चल रही है, वह पूरी ही प्रकृति के विरुद्ध है। पहाड़ों में बादल फटनेसे होने वाली तबाही आए दिन खबरों में होती है। बादल तो पहले भी टूटकर बरसते थे और पहाड़ भी दरकते ही थे। आज हमने पहाड़ों का विकासकर दिया है। विस्फोटक दाग-दागकर बड़े बांध और बिजली घर बना लिए हैं। नदियों के तट पर रिवर व्यू होटलबना दिए हैं। जब बादल टूटते है तो अब तबाही का शोर मचना लाजिमी है। गोया कि सारा दोष बादलों और नदियों का हो!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 सितम्बर, 2021)


Wednesday, September 15, 2021

उत्तराखण्ड की महिलाएं- स्थितियों, संघर्षों और चुनौतियों का दस्तावेज

1970 के दशक का उत्तराखण्ड का चिपको आंदोलनविश्वविख्यात है। यह तथ्य भी कमोबेश ज्ञात है कि इस आंदोलन के पीछे मुख्य रूप से महिलाएं थीं। कुमाऊं में 1984 में छिड़ा नशा नहीं, रोजगार दोआंदोलन महिलाओं की जबर्दस्त भागीदारी के बिना उतनी व्यापकता में सम्भव ही नहीं होता। इन दो प्रसिद्ध जन-आंदोलनों के पहले भी उत्तराखण्ड (सन 2000 में राज्य बनने से पहले उत्तर प्रदेश के आठ पर्वतीय जिले) की महिलाएं आंदोलनों में खूब शामिल रहीं। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी उल्लेखनीय सक्रिय भूमिका रही तो उसके बाद हुए शराब विरोधी समेत अन्य सामाजिक आंदोलनों में वे अग्रिम कतार में थीं। लगभग आधी आबादी (मुख्यतया पुरुष) के प्रवास में होने के कारण उत्तराखण्ड की आर्थिकी से लेकर घर-परिवार तक की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाएं उठाती रही हैं। 

इस तथ्य के बावजूद वहां महिलाओं की स्थिति कुछ मायनों में शेष देश की महिलाओं की स्थिति से भी अधिक खराब है। आंदोलनों का अग्रिम दस्ता होने के बावजूद वे पितृसत्तात्मक समाज में उपेक्षित तथा दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश हैं। आंदोलनों में भागीदारी से चेतना के विकास और पंचायतों में पचास फीसदी आरक्षण से स्थिति में कुछ बदलाव आता दिखा है लेकिन ये महिलाएं न तो सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में प्रभावशाली नेतृत्वकारी भूमिका में हैं न ही सरकारी नीतियों और समाज की दृष्टि को महिला हितैषी बनाने के लिए निर्णायक हस्तक्षेप कर पा रही हैं।

नवारुण प्रकाशनसे हाल ही में प्रकाशित पुस्तक उत्तराखण्ड की महिलाएं: स्थिति एवं संघर्षइस पर्वतीय प्रदेश की स्त्रियों के हालात, विभिन्न आंदोलनों में उनकी भूमिका, उनकी राजनैतिक, सामाजिक और पारिवारिक चुनौतियों, आदि को ऐतिहासिक संदर्भ के साथ समग्रता में प्रस्तुत करती है। उमा भट्ट, शीला रजवार, बसंती पाठक और चंद्रकला के सम्पादन में आई यह किताब जनसंख्या, आंदोलन, शराब, हिंसा, स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पत्ति के अधिकार, विभिन्न समाजों में महिलाएं, विविध और राजनीति नाम से दस खण्डों में विभाजित है। इस तरह महिलाओं से जुड़े लगभग सभी मुद्दों को समग्रता में प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है। भूमिका से सचेत सम्पादकीय दृष्टि का संकेत मिलता है- “मध्यवर्गीय महिलाएं अपने हालात से परेशान होने के बावजूद चुप हैं। पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा महिलाएं अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं तथा अपनी निजी ज़िंदगी तक सीमित हैं। इसलिए परिस्थितियों से संघर्ष की चेतना से प्राय: शून्य हैं। ग्रामीण स्त्रियां परिस्थितियों को अधिक समझती हैं और वे मुखर भी हैं। आंदोलनों में वे सक्रिय रहती हैं पर वहां भी महिला नेतृत्व की कमी के कारण वे पिछड़ जाती हैं।’’

शुरुआती जनसंख्या खण्ड में बी आर पंत का लेख बताता है कि राज्य के पर्वतीय जिलों में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं का अनुपात (जनगणना 2011) अधिक है। नगरीय क्षेत्रों में अवश्य कम है। आंदोलन खण्डमें शीला रजवार और उमा भट्ट के लेख राष्ट्रीय आंदोलनों में उत्तराखंड की स्त्रियों की भूमिका के साथ उत्तराखण्ड के पुराने और हाल के आंदोलनों में उनके योगदान का विस्तार से उल्लेख तथा विश्लेषण करते हैं। पहाड़ में स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात राजनैतिक-सामाजिक आंदोलनों की लम्बी श्रृंखला है। महिलाएं बराबर उनमें शामिल रहीं। प्रख्यात गांधीवादी सरला बहन के उत्तराखण्ड में सक्रिय रहने एवं उनके द्वारा कौसानी में स्थापित कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल (लक्ष्मी आश्रम) ने विमला बहुगुणा (सुंदरलाल बहुगुणा की पत्नी जो उन्हें राजनीति से सामाजिक आंदोलनों की ओर खींच लाईं,) राधा बहन, शशिप्रभा रावत, शोभा बहन, देवाकी कुंजवाल, आदि समर्पित महिला नेत्री पैदा कीं जिन्होंने नगरों से अधिक ग्रामों में महिला शिक्षण और सामाजिक जागरूकता के लिए काम किया। 1960 के दशक में पहाड़ में शराब विरोधी आंदोलनों में महिलाओं की सक्रिय भूमिका रही।1970 के बाद अंतराष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर पर विकसित हुई महिला-स्वातंत्र्य चेतना की लहरें भी पहाड़ तक पहुंची। वहां भी कई नारी संगठन बने। सरकारी योजनाओं के लिए ग्राम स्तर पर बने महिला मंगल दलों ने भी महिलाओं को सचेत बनाने का काम किया।

1970 के दशक के प्रख्यात चिपको आंदोलनकी जमीनी फौजें वास्तव में महिलाएं ही थीं। उनकी जागरूकता एवं सक्रियता के बिना चिपकोउतना सशक्त और व्यापक आंदोलन नहीं बन सकता था। 1984 के नशा नहीं रोजगारआंदोलन को भी महिलाओं की व्यापक भागीदारी ने ही ताकत और अनुशासित तेवर दिए। दोनों ही चर्चित आंदोलनों में स्थानीय स्तर पर महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में होने के बावजूद नेतृत्व की पहली-दूसरी-तीसरी पंक्तियों में वे स्थान नहीं पा सकीं। पुरुष नेता ही छाए रहे। लेखों में इसका उल्लेख नहीं है लेकिन सम्भवत: महिला नेतृत्व के अभाव में ही जंगलों पर ग्रामीणों के हक-हकूक की बहाली के लिए शुरू हुआ चिपको आंदोलनशुद्ध पर्यावरण बचाओ आंदोलन के रूप में देश-दुनिया में चर्चित बना दिया गया। उमा भट्ट लिखती हैं कि “जिस प्रकार पुरुषों में नेतृत्व का विकास हुआ, उस प्रकार इन महिलाओं में नहीं हो सका। महिलाओं का अशिक्षित होना तथा अपनी घर-गृहस्थी, पशु-खेती-जंगल से बंधा होना इसके पीछे कारण हो सकता है।” शीला रजवार का निष्कर्ष है कि नेतृत्व में महिलाओं के अभाव में “वे अपनी स्थितियों को बदलने तथा उत्तराखंड की समस्याओं पर कोई निर्णायक हस्तक्षेप नहीं कर पा रही हैं, (यद्यपि) आज भी वे जल-जंगल-जमीन की लड़ाइयां लड़ रही हैं।” महिपाल सिंह नेगी और साहब सिंह सजवाण का लेख टिहरी के चिपको आंदोलन में विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी का नामोल्लेख सहित विस्तृत विवरण पेश करता है। इसी खण्ड में अनुपम मिश्र का 1978 में लिखा वह लेख भी शामिल है जो गौरा देवी के नेतृत्व में 1974 में महिलाओं द्वारा रेणी का जंगल बचा लेने की रोमांचक कथा कहता है।

राज्य के लिए आवश्यक राजस्व के नाम पर सरकारी संरक्षण में शराब का बढ़ता धंधा और समाज में बढ़ती नशे की लत की मार सबसे अधिक महिलाओं पर ही पड़ती है। शराबखण्ड में गिरिजा पाण्डे, बसंती पाठक और प्रीति थपलियाल के लेख इस व्यवसाय के जन विरोधी इतिहास, सरकार की आबकारी नीति की विसंगतियों, शराब के विरोध में उत्तराखण्ड में हुए आंदोलनों और अब भी जारी प्रतिकार से सम्बंधित हैं। सैनिक भर्ती के लिए प्रख्यात उत्तराखण्ड में नशे की लत का परिणाम यह है कि “टी बी और सिरोसिस की बीमारी के कारण नवयुवकों की सेना में भर्ती दर घट रही है।” दूसरी तरफ, जब राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को सुनकिया, धारी की महिलाओं ने घेरा तो उन्होंने कहा- “देखिए, आप लोगों के विकास के लिए राजस्व की जरूरत होती है। पैसा कहां से आएगा? इस पर एक ग्रामीण महिला देवकी देवी ने कहा- आप हम लोगों से हर महीने पांच-पांच प्रति महिला रुपया इकट्ठा कर लो। गांव में शराब मत परोसो या हम सब पर मिट्टी का तेल छिड़को, पूरे क्षेत्र को तबाह कर दो।” महिलाओं के तीखे विरोध और रोष के बावजूद सरकारें शराब से अधिक से अधिक राजस्व कमाने की नीति पर चल रही हैं। तो फिर उपाय क्या है, पूछती हैं बसंती पाठक और जवाब में कहती हैं– “यहां-वहां होने वाले आंदोलन चाहे वह किसी भी मांग को लेकर हों, सरकार के लिए उन्हें तोड़ना आसान होता है लेकिन प्रदेश व्यापी या देश व्यापी आंदोलन सरकार को सोचने पर मजबूर करता है।”

उत्तराखण्ड और देश की भी समस्या यही है कि प्रदेश या देश व्यापी आंदोलन कैसे हो, जबकि आंदोलनकारी संगठन आपस में लड़ते और विभाजित होते आए हैं। प्रीति थपलियाल सरकार के इस तर्क को कि शराब विक्री से विकास के लिए राजस्व मिलता है, खारिज करते हुए लिखती हैं कि “जनता लगातार सलाह देती है कि यहां के प्राकृतिक संसाधनों का का उचित उपयोग किया जाय, नदी, घाटी बुग्याल तथा वन-सम्पदा का उपयोग करके... इस प्रदेश की सूरत बदली जा सकती है।” किंतु सरकारें हैं कि उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सम्पदाओं को माफिया और कॉरपोरेट घरानों के हाथ औने-पौने दाम लुटा रही है।

महिला हिंसा पर पुस्तक में महत्त्वपूर्ण लेख हैं जो महिला-हिंसा के विविध रूपों की गहरी पड़ताल करते हैं। महिलाओं पर हिंसा की शुरुआत बचपन से किए जाने वाले भेदभाव से शुरू होती है। कंचन भण्डारी लिखती हैं कि “गांव हो या शहर हर जगह महिलाओं को कमतर आंकने का मापदण्ड हमारे सामाजिक रीति-रिवाज, कहावतों, मान्यताओं, धारणाओं, गीतों व कविताओं में देखने को मिलता है, जिसके कारण महिलाएं व लड़कियां आए दिन भेदभाव व हिंसा से प्रभावित होती हैं।” विभिन्न कानूनों की जानकरी देने के साथ ही वे कहती हैं कि “सिर्फ कानून बना देने से ही हिंसा खत्म नहीं होती। इसके लिए आवश्यक है, लोगों तक कानून की जानकारी पहुंचाना तथा कानूनों का सरकार द्वारा सही कार्यान्वयन।” बसंती पाठक राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के हवाले से बताती हैं कि राज्य बनने के पंद्रह सालों (अब तो इक्कीस साल होने को हैं) में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में दो सौ प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ोत्तरी हो गई है।”

उत्तराखंड में महिला हिंसा के सबसे गम्भीर लेकिन अल्प चर्चित रूप, महिला तस्करी पर मनोज रावत का शोधपूर्ण लेख है। तहलका में 2013 में प्रकाशित हो चुका यह लेख विभिन्न गांवों के उदाहरण देकर बताता है कि कम उम्र की गरीब लड़कियों, विधवा और परित्यकता स्त्रियों को कभी घर वाले तथा रिश्तेदार या तस्कर गिरोहों के दलालों की मार्फत शादी के नाम पर दूसरे राज्यों में बेचा जाना आज भी जारी है। अनेक बार ये बेमेल विवाह होते हैं और बलात्कार आम बात है। शादी की आड़ में वेश्यावृत्ति कराई जाती है। अधिक उम्र हो जाने पर उनसे खून और किडनी जैसे अंगों का सौदा भी करवाया जाता है। उत्तराखण्ड के गांवों में गरीबी और पुरुषों से अधिक महिलाओं का अनुपात होने के कारण गांव-गांव विभिन्न प्रदेशों के दलाल सक्रिय हैं जो खाते-पीते घर में ब्याह और नकदी का लालच देकर लड़कियों को बाहर पहुंचा देते हैं। दलाल “जानते हैं कि इन लड़कियों के गरीब और असहाय परिवारों में उनके खिलाफ कुछ करने-बोलने वाला कोई नहीं है।” ये लड़कियां नारकीय जीवन जीती हैं और इनकी कभी मायका-वापसी नहीं हो पाती।

इन लेखों में महिला समाख्याके सदस्यों द्वारा महिला तस्करी के कई मामलों में हस्तक्षेप करने और रुकवाने के उदाहरण भी हैं लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता था क्योंकि विवाह की आड़ और परिवार या सम्बंधियों की रजामंदी के चलते हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत कम होती है। 2016 में उत्तराखण्ड सरकार ने महिला समाख्या योजना ही बंद कर दी। स्वाभाविक है कि उसके बाद थोड़ा बहुत हस्तक्षेप भी नहीं हो पाता होगा। इस नज़र से लेख को अद्यतन किए जाने की जरूरत थी।  

उत्तराखण्ड में महिला तस्करी का संगठित अपराध बहुत पुराना है। पुस्तक के इसी खण्ड में प्रख्यात इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक का एक अंश और गढ़वालीके सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला का 1913 में प्रकाशित लेख इसके प्रमाण हैं। चंदोला जी ने 1912 की अपनी बम्बई यात्रा में गढ़वाल से विवाह के बहाने तस्करी करके वहां ले जाई गई युवतियों से मुलाकात की और उनके नारकीय जीवन का विवरण अपने समाचार पत्र में लिखा था। तब की तरह आज भी हरिद्वार के पण्डे, गांवों के प्रधान और पण्डित दलालों के जरिए महिला तस्करी में लगे हैं। इसे रोकने के लिए और गिरोहों पर कार्रवाई के लिए कानून हैं। महिला तस्करी रोकने के लिए पुलिस में विशेष प्रकोष्ठ भी बनाया गया लेकिन यह सब प्रभावहीन है। 2013 तक प्रकोष्ठ में सिर्फ एक मामला दर्ज हुआ था। अच्छा होता यदि इस लेख के साथ सम्पादकीय नोट में स्थिति का अद्यतन हाल भी दे दिया गया होता। पुस्तक में शामिल पुराने लेखों में यह कमी लगती है।   

मनोज रावत लिखते हैं कि “उत्तराखण्ड बनने के बाद लड़कियों को ब्याह के नाम पर बेचने के हजारों मामले हुए हैं लेकिन आज तक एक भी मामला विधान सभा में नहीं उठा है। हर पर्वतीय विधायक के क्षेत्र में यह काला व्यापार हो रहा है लेकिन उन्होंने इन मामलों का कोई संज्ञान नहीं लिया।.... उत्तराखंड में हर आंदोलन की अगुवाई महिलाएं ही करती हैं लेकिन बेटियों के इस कुत्सित और घृणित व्यापार के विरोध में कोई आंदोलन होना तो दूर एक संगठित आवाज तक नहीं उठी।” यह सचमुच अत्यंत चिंता और क्षोभ का कारण है। 2013 में यह लिखने वाले मनोज रावत आज केदारनाथ विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक हैं। हम उम्मीद करते हैं उन्हें अपनी यह तकलीफदेह बात याद होगी।   

उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में दिल्ली जाती महिलाओं के साथ दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में तत्कालीन प्रदेश सरकार की शह पर जो भीषण दमन, उत्पीड़न तथा बलात्कार हुआ और जिस तरह अदालती लड़ाई भटकाई गई, उसका विवरण देता कमल नेगी, शीला रजवार और उमा भट्ट का लेख भी इस खण्ड में है।

स्वास्थ्य खण्ड के लेख महिलाओं के स्वास्थ्य की समस्याओं के लिए मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष भेदभाव, सामाजिक मान्यताओं, शर्म-संकोचों और अंधविश्वासों को ज़िम्म्देदार ठहराते हैं। चंद्रकला लिखती हैं कि “महिला के स्वास्थ्य की समस्या केवल उसकी समस्या न होकर एक सामाजिक और सामुदायिक मुद्दा होना चाहिए।” लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। महिलाओं के स्वास्थ्य की जो चिंताएं घर-परिवार या सरकार में हैं भी वे प्रसव से सम्बंधित हैं। वह भी इसलिए कि वंश-वृद्धि में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उसकी बाकी शारीरिक मानसिक आवश्यकताओं की उसी की तरह उपेक्षा होती रहती है। अविवाहित लड़कियों, विशेष रूप से किशोरियों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है। इससे वह अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों की ज़द में आ जाती हैं। उत्तराखंड में ग्रामीण समाज में ही नहीं, पढ़े-लिखे नागर समाज में भी महिलाओं की बीमारियों को भूत-प्रेत या देवी-देवताओं के प्रकोप से जोड़ कर और गम्भीर बना दिया जाता है। सरोजिनी जोशी ने इन रूढ़ियों के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गम्भीर प्रभावों पर विस्तार से लिखा है। ऐसा ही हाल शिक्षा का है। स्वाति मेलकानी और चंद्रकला भण्डारी का निष्कर्ष है कि “पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को अच्छी शिक्षा के स्थान पर घरेलू काम-काज में ही दक्ष कर देना पर्याप्त समझता है।”

महिलाओं के भूमि अधिकारों का सवाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस खण्ड में चम्पा उपाध्याय, चंद्रकला और मधुबाला काण्डपाल के लेख हैं। शेष देश की तरह उत्तराखण्ड की महिलाओं को भी भूमि पर वास्तविक अधिकार हासिल नहीं हैं, हालांकि खेती का पूरा भार उन्हीं के कंधों पर है। पिछले कुछ वर्षों में कानूनों में संशोधन करके उसे कतिपय अधिकार देने की कागजी पहल हुई है लेकिन वास्तव में भूमि पर परिवार के पुरुषों का ही अधिकार है। कानूनन जो अधिकार उन्हें हासिल हैं, उनकी जानकारी भी अत्यंत कम (25 प्रतिशत) महिलाओं को है और उनमें भी अधिकसंख्य (73 फीसदी) का मानना है कि सम्पत्ति के लिए न्यायालय जाना उचित नहीं है क्योंकि “मायके से सम्बंध खराब होते हैं।” यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि परिवार की एकता, सम्मान, सम्बंध, आदि ऐसे लिहाज़ हैं जिनसे बंधी महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ने से बचती और सहती रहती हैं।           

उत्तराखण्ड के समाज के मुख्यत: तीन घटक हैं- सवर्ण, दलित और आदिवासी। पुस्तक में दलित एवं आदिवासी समाज की स्त्रियों पर विशेष निगाह डाली गई है। जहां आदिवासी (थारू, बुक्सा, भोटिया, शौका, वनराजी और जौनसारी) महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मिली हुई है, वहीं दलित स्त्रियों की स्थिति बहुत गई बीती है। थारू आदिवासियों में फसलों और पालतू पशुओं को स्त्रियों की सम्पत्ति माना जाता है। उनकी मर्जी के बिना पुरुष भूमि नहीं बेच सकते। बुक्साओं में परिवार में बुजुर्ग महिला का वही स्थान होता है जो पुरुष मुखिया का। भोटिया और शौका महिलाएं अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। लुप्तप्राय वनराजी समाज मुख्य धारा से बाहर होने के कारण कष्टप्रद जीवन जीता है। स्वाभाविक ही इन महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। जौनसारी महिलाएं अपनी कुछ प्रथाओं के कारण स्वतंत्र जीवन जीती लगती हैं लेकिन हैं उपेक्षित ही।

अत्यंत गरीबी, अस्पृश्यता, दासता और श्रम की अधिकता ने ग्रामीण क्षेत्रों की दलित स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय बना रखी है। कन्या विक्रय और  विनिमय (अपनी कन्या के बदले बहू ले आना) से लेकर विधवा एवं परित्यक्ता विवाह जैसे चलन आम हैं लेकिन प्रीति आर्य का यह लिखना शायद उचित नहीं है कि “पति द्वारा त्यागी हुई स्त्री व विधवाओं की स्थिति दलित वर्ग में सवर्ण स्त्रियों की अपेक्षा कहीं बेहतर है।” लगभग उन्मुक्त विवाह परिपाटी में भी चलती पुरुष की ही मर्जी है। उसे एकाकी और अनेक निषेधों वाले जीवन से मुक्ति भले मिल जाती हो, पुरुष की क्रीत दासी से अधिक दर्ज़ा उसे नहीं मिलता। हाड़ तोड़ श्रम करने वाली मजदूरिनों में इसी वर्ग की महिलाओं की बहुतायत होती है। यह लेख दलित महिलाओं के वैवाहिक रिश्तों के लेखे-जोखे से आगे जाकर कुछ और गहरी दृष्टि की मांग करता है।   

उत्तराखण्ड के गांवों में आज भी बड़ी संख्या में परित्यक्ता महिलाएं पाई जाती हैं, जिनके हाल पर रमेश पांडे कृषक ने संवदेनापूर्ण दृष्टि डाली है। संतान न होने, काम-धंधे में निपुण न होने, पति के दूसरे विवाह कर लेने और अन्य कारणों से भी कम उम्र में ही महिलाएं मायके में रह जाने को विवश होती हैं। अधिकतर मामलों में इनका विधिवत विवाह विच्छेद नहीं होता। इसलिए वे सरकारी अनुदान की पात्र नहीं होती और मायके में अत्यंत उपेक्षापूर्ण जीवन जीती हैं। ऐसा ही हाल उन कन्याओं का भी होता है जिनका विवाह ही नहीं हो पाता। विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता, चालीस साल से अधिक की अविवाहित महिलाओं तथा विकलांग पतियों वाली स्त्रियों को एकल महिलाका दर्ज़ा हासिल है। गीता पाण्डे लिखती हैं कि “भारत में एकल महिलाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। 2001 से 2011 की जनगणना के बीच इनकी संख्या में तीस फीसदी की वृद्धि हुई है।” इसका एक बड़ा कारण स्त्री-शिक्षा और जागरूकता भी हो सकता है। बहुत सारी पढ़ी-लिखी और अपने पैरों पर खड़ी युवतियां अब पुरुष की दासता और पारिवारिक उपेक्षा और हिंसा बर्दाश्त करने की बजाय स्वतंत्र जीवन जीना पसंद करती हैं लेकिन ऐसा बड़े शहरों में ही हो रहा है। गांवों-कस्बों की एकल स्त्री का जीवन अत्यंत कष्टप्रद है। 2015 में उत्तराखण्ड में गठित एकल नारी शक्ति संगठनने पाया कि ये महिलाएं “परिवार के सदस्यों व समाज द्वारा मानसिक एवं शारीरिक हिंसा का शिकार होती है, केवल इसलिए कि उनके पीछे किसी पुरुष का सहारा नहीं है।”   

पुस्तक का अंतिम लेकिन महत्त्वपूर्ण खण्ड राजनीति में महिलाओं की भूमिका, बल्कि उन्हें हाशिए पर रखे जाने की पड़ताल करता है। जया पाण्डे लिखती हैं- “पंचायतों में आरक्षण देने से ऐसा लग रहा था कि राज्य स्तर पर महिला नेतृत्व उभरेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। उत्तराखण्ड राज्य में जहां महिला आंदोलनकारी हैं और पंचायतों में पचास फीसदी आरक्षण है, 70 सदस्यीय विधान सभा में 2017 में सिर्फ पांच महिलाएं चुनकर आई हैं।” अब तक की यह अधिकतम संख्या है। ऐसा इसलिए भी है कि “जिन राज्नैतिक दलों ने पंचायती राज कानून बनने में आसानी से सहमति दी, वे ही संसद और विधानसभाओं में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण वाले 81 वें (संविधान) संशोधन विधेयक के विरोध में हिंसा पर उतर आए।” पंचायतों में भी पूरे देश की तरह प्रधान-पति, प्रधान-पुत्र, आदि ही हावी हैं। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को दोयम दर्ज़े का बनाए रखने की पुरुषों की साजिश को बेनकाब करती हुई रेनू लिखती हैं कि “महिलाओं की सामाजिक-राजनैतिक भूमिका को सीमित करने व महिलाओं को सामंती मूल्यों की ओर धकेलने के लिए अलग-अलग माध्यमों से बाजार का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है... पिछले दस-बीस वर्षों में इन सामंती रीति-रिवाजों के प्रति शिक्षित महिलाओं का मोह अधिक बढ़ा है।” वे यह भी नोट करती हैं कि महिलाएं “अपने आसपास की राजनैतिक गतिविधियों के प्रति पूरी तरह अनजान रहती हैं और राजनैतिक मुद्दों पर बात करना पसंद नहीं करती हैं।” और, यह भी कि “बिना राजनैतिक चेतना के हम किसी भी आंदोलन या संघर्ष में जीत हासिल नहीं कर सकते क्योंकि कोई भी सामाजिक बदलाव राजनैतिक तैयारी व हस्तक्षेप के बिना सम्भव नहीं है।”

पिछले कई दशक से जनांदोलनों और महिला मुद्दों पर नेतृत्वकारी भूमिका में रहने वाली कमला पंत का क्षोभ है कि “समय-समय पर महिलाओं द्वारा किए जा रहे जंगल बचाने या शराब विरोधी या अन्य छिट-पुट आंदोलन, कभी भी ये आंदोलन या इनका नेतृत्व कर रहे नेतृत्वकारी एक स्पष्ट दिशाबद्ध राजनीति को परिभाषित करने या वर्तमान सत्ता के चरित्र के समानांतर क्या राजनीति है, इसे स्प्ष्ट करने में सफल नहीं रहे।” वे यह भी साफ कहती हैं कि “हमारे समाज में बहुत से महिला संगठन हैं जो लम्बे समय से  समाज में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन उनकी भी सामान्यत: यही सोच रहती है कि इस भ्रष्ट राजनीति में जाना उचित नहीं है।”

यह बड़ा सवाल है कि भ्रष्ट राजनीतिमें ईमानदार, जुझारू ताकतें नहीं जाएंगी तो राजनीति जनमुखी कैसे बनेगी? वैसे, राजनीति में महिलाओं की बराबर की भागीदारी का मुद्दा बहुत पेचीदा है। जो महिलाएं विभिन्न राजनैतिक दलों में सक्रिय हैं, वे उन दलों का मोहरा होने के कारण ही वहां हैं। अन्यथा बाहर कर दी जाती हैं। पंचायतों में आरक्षण से उनमें राजनैतिक चेतना आई है लेकिन अभी रास्ता बहुत लम्बा और कठिन है।

बहरहाल, यह किताब भारतीय समाज और उत्तराखण्ड जैसे कठिन भौगोलिक, कई परम्पराओं से जकड़े लेकिन सतत आंदोलित समाज में महिलाओं की स्थितियों, मुद्दों, चुनौतियों और संघर्षों का अच्छा दस्तावेज है। सम्पादक यह नोट करना भी नहीं भूली हैं कि उत्तराखंड में सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर ब्राह्मणवाद हावी है। ब्राह्मण संस्कृति के वर्चस्व के कारण अन्य वर्गों की संस्कृतियों, आदि पर उसका गहरा प्रभाव है। रूढ़ियां और अंधविश्वास बहुत हैं और स्त्रियों ने कट्टरता से उसे बनाए-बचाए रखा है। ग्रामीण एवं गरीब ही नहीं, मध्यवर्गीय शिक्षित स्त्रियां भी इस मामले में सामंती युग में जी रही हैं।”

इस सम्पादकीय दृष्टि का निर्वाह पुस्तक के लेखों में भी सायास किया गया होता तो स्थिति और स्पष्ट होती। आंदोलनकारी का तमगा मिलने के बावजूद उत्तराखण्ड की महिलाओं की स्थितियां कठिन हैं और बाहरी ही नहीं, भीतरी भी बहुत हैं। पुस्तक यह भली-भांति दर्ज़ करती है। यद्यपि बेहतर की गुंजाइश हमेशा रहती है। सम्पादक-मण्डल और नवारुण प्रकाशन इस पुस्तक के लिए साधुवाद के अधिकारी हैं।

-    “उत्तराखण्ड की महिलाएं- स्थिति एवं संघर्ष”, सम्पादक- उमा भट्ट, शीला रजवार, बसंती पाठक, चंद्रकला। नवारुण प्रकाशन (+91 9811577426) पृष्ठ- 300, मूल्य- रु 375/-

-न जो                                

Friday, September 10, 2021

बच्चे डॉक्टर हो गए, पिता अब भी मेडिकल छात्र!

 

अगर कुछ मेडिकल छात्र बीस साल में भी डॉक्टरी की परीक्षा पास नहीं कर सके तो उनका क्या किया जाना चाहिए? लखनऊ के छत्रपति साहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय ने पिछले मास एक बार फिर इस जटिल प्रश्न पर विचार किया। तय हुआ कि ऐसे मेडिकल छात्रों को परीक्षा पास करने लिए कृपा के रूप में दो अवसर और दिए जाएं।

पहली दृष्टि में यह समाचार चकित करता है। लखनऊ के चिकित्सा विश्वविद्यालय में बीस ऐसे एमबीबीएस छात्र हैं जो साल-दर-साल परीक्षा देने के बाद भी पास नहीं हो सके। इनमें सबसे पुराना छात्र 1994 में एमबीबीएस में भर्ती हुआ था। एक को 1997 में और बाकी को सन 2000 से 2013 के बीच प्रवेश मिला था। कई बार प्रयास करने के बाद भी वे इम्तहान पास नहीं कर पाए। अब दो और अवसरों के बाद उन्हें अपने लिए दूसरा रास्ता खोजना होगा।

हास्यास्पद कहिए या त्रासद, इनमें दो ऐसे मेडिकल छात्र हैं जिनके बच्चे मेडिकल परीक्षा पास करके डॉक्टर बन चुके हैं। पिता अब भी परीक्षा देने में लगे हैं। यह त्रासद अधिक इसलिए है कि इस समस्या का सम्बंध हमारी सामाजिक विसंगतियों से भी है। इन बीस मेडिकल छात्रों में करीब आधे अनुसूचित जाति-जनजाति के हैं। वे प्रवेश परीक्षा में मिलने वाली छूट के कारण मेडिकल में चुन लिए गए लेकिन परीक्षा पास करने में सफल नहीं हो पा रहे।

इन छात्रों ने अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग से यह शिकायत भी की कि उन्हें जातीय भेदभाव और उत्पीड़न के कारण पास नहीं होने दिया जाता। आयोग ने इसकी जांच की लेकिन शिकायत को सत्य नहीं पाया। इनमें करीब आधे छात्र सामान्य वर्ग के भी हैं। कॉलेज प्रशासन का कहना है कि उसने इन छात्रों के लिए विशेष कक्षाएं चलाईं लेकिन उसका भी सुखद परिणाम नहीं निकला। प्रतिभा या क्षमता से अधिक रुचियों, संसाधनों और दबावों के कारण भी ऐसा हो जाता होगा।

कई बार यह आरक्षण बनाम प्रतिभा की इकतरफा बहस का मुद्दा भी बनता है। आरक्षण-विरोधी ऐसे उदाहरणों से अपने तर्क-कुतर्क साबित करने की चेष्टा करते हैं। क्या आप स्वयं ऐसे किसी डॉक्टर से अपना इलाज कराना चाहेंगे?’ व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ वे ऐसे सवाल करते हैं। उन्हें यह समझाना मुश्किल होता है कि सदियों की उपेक्षा और दमन ने जो भारी अन्याय किया है, उसमें प्रतिभा-प्रदर्शन भी बड़ा शिकार बना है। अनेक अवसरों पर यह सिद्ध हो चुका है कि प्रतिभा किसी खास वर्ग की बपौती नहीं होती। डॉक्टरी समेत विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिवर्ष अनेक एससी-एसटी छात्र ससम्मान पास होते हैं।   

दलित-पिछड़ा वर्ग के हों या सामान्य, इन छात्रों का भविष्य क्या है? अगर 45-50 साल की उम्र तक भी कोई डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी नहीं कर सका है तो उसका अपने करिअर के बारे में क्या दृष्टिकोण है? क्या डॉक्टर बनना अब भी रोमांचक सपना है? इतने वर्षों के बाद पढ़ने और परीक्षा पास करने की ललक रह भी गई है? यह लेखक एक ऐसे छात्र को जानता है जो सफेद कोट पहनकर मेडिकल कॉलेज में पढ़ने  की बजाय वर्षों से शहर की राजनैतिक एवं अन्य गतिविधियों में शामिल रहता है। वह कुछ संगठनों का सक्रिय सदस्य है। लगता नहीं कि डॉक्टर बनने में उसकी कोई रुचि शेष है या उसे कोई आर्थिक समस्या है। छात्रबने रहने के कारण रियायती दरों पर हॉस्टल और मेस की सुविधा मिल ही जाती है।

एकाधिक बार मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया ने मेडिकल परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए समयावधि निश्चित की लेकिन वह निर्णय कई कारणों से लागू नहीं हो सका। दो और कृपा-अवसरों में भी जो पास नहीं हो सकेंगे, वे करेंगे क्या?   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 सितम्बर, 2021)   

Friday, September 03, 2021

रोचक विज्ञान और साहित्य में गुंथी यात्रा-कथाएं


विज्ञान की जटिल लगने वाली गुत्थियों को आकर्षक एवं पठनीय साहित्य बना देने वाले देवेंद्र मेवाड़ी हमारे समय के बड़े लेखक हैं। मानव जीवन के रहस्य
, पशु-पक्षियों का अनोखा संसार, फसलों का रोचक जीवन चक्र, हमारी इस धरती तथा अनंत अंतरिक्ष के गुह्य द्वार जिस सहजता और रोचकता से वे खोलते चलते हैं, वह हिंदी में विरल ही है। आनंद यह कि वे निरा विज्ञान नहीं लिखते। हिंदी और विश्व साहित्य में भी बराबर रुचि होने के कारण उनका विज्ञान लेखन उच्च कोटि के साहित्य का दर्ज़ा रखता है| उसमें कविताओं, कहानियों, नाटकों, चित्रों, आदि की सुंदर एवं सहज बुनावट भी रहती है। इसी कारण  मेवाड़ी जी लोकप्रिय लेखक हैं।

हाल के वर्षों में मेवाड़ी जी अपना पिट्ठू लगाकर देश के सुदूर ओनों-कोनों के बच्चों को विज्ञान सुनाने निकलने लगे हैं। वे उन्हें अपने कल्पना-यान में बैठाकर अंतरिक्ष की सैर कराते हैं, विभिन्न ग्रहों और आकाशगंगाओं से उनकी भेंट कराते हैं, उन्हें अपने आस-पास की प्रकृति से मिलवाते हैं, पेड़ों, पक्षियों और फसलों से अंतरंग परिचय कराने के साथ ही उनसे संवाद स्थापित करना सिखाते हैं।

उनकी इस नई भूमिका ने जहां स्कूली बच्चों को अपने आस-पास के वातावरण को जिज्ञासु दृष्टि से देखना, सवाल करना एवं उत्तर तलाशना (मेवाड़ी जी कहते हैं कि यही तो विज्ञान है) सिखाया है, वहीं उनके शिक्षकों तथा वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने के काम में लगे स्वयंसेवी संगठनों को भी नई दृष्टि दी है। स्वयं मेवाड़ी जी का अनुभव संसार विस्तृत हुआ है जिसने उन्हें 75-पार वय में लिखने, कथाएं सुनाने और यात्राएं करने की नव-ऊर्जा से भर दिया है।

सम्भावना प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित पुस्तक कथा कहो यायावरमें मेवाड़ी जी की इन्हीं यात्राओं में बच्चों के साथ-साथ नदियों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और ग्रह-नक्षत्रों से होती मुहब्बतें हैं। इन यात्रा-कथाओं को पढ़ने में मेवाड़ी जी की कक्षाओं में बैठकर सुनने जैसा सुख मिलता है। उन्हें पाठक को बांधकर अपने साथ बहा ले जाने में महारत हासिल है। वे लिखते हैं कि सामने बोलते हैं! उनका बोलना मंत्र मुग्ध करता है। औपचारिक रूप से विज्ञान सुनाने में ही नहीं, टेलीफोन वार्ता में भी वे मोह लेते हैं। उनकी बातों से जैसे कथा-रस टपकता है।

जिन्होंने मेवाड़ी जी की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक मेरी यादों का पहाड़पढ़ी है, वे जानते हैं कि जिस दुर्गम लेकिन प्रकृति-सम्पन्न पहाड़ी गांव में वे जन्मे, उसी ने उन्हें विविध जिज्ञासाओं से भरा और उसकी परतें खोलना सिखाया। इस पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं-

“मैं तो देख-देख कर हैरान होता था हमारी किताबों के अलावा कितना कुछ है हमारे चारों ओर और प्रकृति की किताब में! उसे तो बस पढ़ो और पढ़ते रहो। जीवन भर भी पढ़ते रहें तो विराट प्रकृति के कुछ ही अध्याय पढ़े जा सकेंगे। लेकिन, जितना भी पढ़ा जा सके, वह बताता है कि हम एक अटूट रिश्ते की डोर से जुड़े हुए हैं, फिर चाहे वह हवा में झूमती घास की कोई छोटी सी पत्ती हो, पंख तौलती तितली, वन में कुलांचें भरता हिरन का शावक, नदियों के नीले जल में उछलकर डुबकियां लगाने वाली मछलियां या फिर हवा में पत्तियों की  हथेलियों से तालियां बजाता हरा-भरा पीपल।”

प्रकृति की हर चीज कुछ कहती है। बस, उसे सुनना आना चाहिए। मेवाड़ी जी को यह कला खूब आती है। वे जहां भी जाते हैं, उत्तराखण्ड के नगर हों या दूर-दराज इलाकों के विद्यालय, शिवना के तट पर हों या भीमबेटका या भोजपुर या अलीगढ़ या राजस्थान के व्यावर, मसूदा, अजमेर, आदि क्षेत्रों में या हिमाचल अथवा दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में, हर जगह कभी बहुत पहचाना और कभी अनचीन्हा कोई पेड़ उन्हें बुलाता है।

अपने आतिथेयों से मिलने से पहले वे उस पेड़ से गले लग आते हैं जो कह रहा होता है- “दिल्ली से आए हो, आओ मिल तो लो” और वे उससे मिलने चल पड़ते हैं, उसकी सुन और अपनी कह आते हैं। फिर बच्चों को बताते हैं कि पेड़ ने उनसे क्या कहा। यह भी कि तुम सब भी मिलना पेड़ से और बतियाना। बच्चे अचम्भित होते हैं कि भला पेड़ से कैसे बात की जा सकती है। फिर यह सम्वाद देखिए-

“दोस्तो, क्या तुमने कभी सेम या मटर के बीजों को उगते हुए देखा है? नहीं, तो अब देखना। धरती में नमी पाकर उनमें कैसे अंकुर फूटते हैं। फिर दो पत्तों की हथिलियां हवा में निकल आती हैं। उनमें लम्बी-पतली उंगलियां निकल आती हैं, जो हवा में हिलकर यहां-वहां डोलते हुए किसी टहनी या लकड़ी का सहारा ढूंढती हैं। सहारा छूने पर उससे लिपटना शुरू कर देती हैं। उनके सहारे पौधा ऊपर उठता जाता है। तुम इस तरह पेड़-पौधों को देखोगे तो तुम्हें उनसे प्यार हो जाएगा। वे भी तुमसे प्यार करने लेगेंगे। तब तुम उनकी बातें समझने लगोगे।”

यह सिर्फ भावुक बातें नहीं हैं। इसका विज्ञान समझना हो तो पीतमपुरा दिल्ली में कल्पतरुके परिसर घूम लीजिए, जहां लेखक को भी हैरानी में डाल देने वाले देश-विदेश के पेड़-पौधों का संग्रह है और “स्कूल का हर पेड़-पौधा माली लछमन को पहचानता है। उसके पास आते ही वे जैसे खुश हो जाते हैं।”   

पशु-पक्षियों से मेवाड़ी जी की पुरानी दोस्ती है। उनकी प्यारी दुनिया के बारे में वे किताबें लिख चुके हैं। इन यात्राओं में जगह-जगह उनकी चिड़ियों से भेंट होती रहती है। वे उनके सुर पकड़ते हैं और किताब पढ़ते हुए हमारे मस्तिष्क में उनकी चहचहाट गूंजती है।

स्वी ई ई ई..यह काली पूंछ वाला धैयाल (ओरियंटल मैगपाई रोबिन) बोल रहा है अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए। दूसरा नर आ गया है तो चुर्र र्र र्रबोलकर उसे भगा देता है। की-कुकि-कीईक’- यह कौन बोला? और किसने की- स्वीट-स्वीट!यह तो फाख्ता है- कूरूरू-रूरू-कूरूरू-कू।न्याहो-न्याहो-न्याहो’, ‘चीं-चुर-चुर-च र्र र्र र्र’, ‘टी-टिटिट्ट’, ‘कुक्कू-कुक्कू’… कितनी चहचहाटें हमें सुनाई देती हैं। उन पक्षियों के बारे में भी हम जानने लगते हैं।

कहीं से एक काली-सफेद बुशचैट आकर घास में तेजी से इधर-उधर चारा-दाना ढूढने लगी। सोच ही रहा था कि वह अकेली क्यों है कि तभी भूरे-मटमैले रंग की उसकी पत्नी भी आ गई। थोड़ी देर में सतभैया वैबलरों की जोड़ी चली आई। टोली में वे पांच थीं। उनमें से एक चारों ओर नज़र रख रही थी कि कहीं कोई खतरा तो नहीं। मुझसे उन्हें भी कोई खतरा नहीं लगा। दो-एक वेबलर मेरी बेंच के पास तक चली आईं। दो-चार मैनाएं भी वहां आकर चहकीं। एक टेलरबर्ड यानी दर्जिन, एक किंगफिशर और एक ट्री-पाई भी आई। हवा में से एक वागटेल नीचे उतरी और तेजी से चहलकदमी करने लगी। ... लाल पगड़ी पहने एक कठफोड़वा भी आकर सामने के पेड़ के तने को चोंच से ठकठकाता ऊपर चढ़ा और वहां कुछ न पाकर फुर्ती से उड़ गया।”

चिड़ियों, जानवरों, हवा और बादलों की ध्वनियों से सभागार में जंगल रचकर वे बच्चों को जैसे सम्मोहन में बांध लेते हैं-

“पहले हमारे देश में चारों ओर घनघोर जंगल थे। उनमें लाखों जीव रहते थे। जंगल कटे, शहर बने और आज हम चिड़ियाघरों में उन चंद बचे जीवों को देख रहे हैं। दोस्तो, जरा सोचो, कल क्या होगा? ..वे सोचते रहे और मैं अपनी कल्पना में वे उन्हें पचास साल बाद के चिड़ियाघर में ले गया, जहां आज के तमाम पशु-पक्षी थे, लेकिन सभी मशीनी पशु-पक्षी थे। उदास बच्चे वर्तमान में वापस लौटे तो भविष्य की कल्पना कर सिहर उठे। उन्होंने संकल्प लिया कि वे जंगलों को बचाएंगे, जीव-जंतुओं को बचाएंगे।”

ये यात्राएं देश के विभिन्न भागों में बच्चों से विज्ञान-सम्वाद के वास्ते की गई हैं लेकिन पुस्तक में हम उन विस्तृत चर्चाओं का संकेत भर या कहीं-कहीं थोड़ा-सा जिक्र पाते हैं। बाकी जो है वह लेखक का बाल-सुलभ कौतुक, प्रश्न एवं जिज्ञासा-समाधान और अपने आस-पास को देखना है। यह देखनाअत्यंत संवेदनशील दृष्टि से है और रोचक भी। इनमें वैज्ञानिक दृष्टि तो है ही, साहित्य भी बहुत खूबसूरती से चला आता है।

“आंखों के सामने से हालांकि तमाम दृश्य गुजर रहे थे लेकिन मन के आकाश में प्रसिद्ध चित्रकार जे स्वामीनाथन की चिड़िया उड़ती रही। लम्बी, सीधी, काली पूंछ वाली वह चिड़िया स्वामीनाथन की पेंटिंग के तीन पहाड़ों के ऊपर सूरज से, कभी जल में अपना अक्श देखते पहाड़ों के पैताने और कभी पेड़ के छत्र से आकर मेरे मन के आकाश में उड़ने लगती।”

कभी उन्हें आलू की कहानी सुनाते हुए वॉन गॉग की आलू खाते हुए लोग वाली पेंटिंग याद आ जाती। कभी सौरमण्डल की सैर पर कुमार अम्बुज की कविता स्मरण हो आती- “सोचते हुए खरामा-खरामा पहुंचा मंगल ग्रह/ जहां मिले दो चंद्रमा जिन्होंने किया स्वागत” या युवा कवि राकेश रोहित की कविता पंक्ति- “मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता धरती के बारे में है।”

सुमित्रा नंदन पंत तो कई जगह बोलते हैं- न जाने नक्षत्रों में कौन/संदेशा भेजता मुझको मौन।” अगस्त्यमुनि (उत्तराखण्ड) में मंदाकिनी देखकर चंद्र कुंवर बर्त्वाल गाने लगते हैं- “हे तट मृदंगोत्तालध्वनिते/ लहर वीणा वादिनी/ मुझको डुबा निज काव्य में/ हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी।” इसी तरह कभी दुष्यंत कुमार याद आते हैं, कभी नागार्जुन, कभी भवानी प्रसाद मिश्र और कभी हरिशंकर परसाई। लोक कथाएं एवं लोकगीत तो यहां-वहां गूंजते ही रहते हैं।

हरिद्वार में चम्पा के पेड़ के नीचे छिड़ा यह प्रसंग, साहित्य का सुंदर पाठ है और विज्ञान का भी- “मिराण्डा कॉलज, नई दिल्ली में हिंदी साहित्य की शिक्षिका डा संज्ञा उपाध्याय ने पूछा था कि महाकवि बिहारी ने नायिका की नाक की लौंग को लक्ष्य कर दोहा लिखा है कि जैसे चाम्पा की कली पर भौंरा आ बैठा हो। लेकिन, बाद में जगन्नाथ दास रत्नाकर ने व्याख्या करते हुए लिखा है कि चम्पा के फूल पर तो भौंरे बैठते ही नहीं। सच क्या है? मैंने उन्हें बताया कि चम्पा के फूलों में मकरंद नहीं बनता। इसलिए भौंरे या अन्य कीट उन पर नहीं मंडराते। तो देखिए, इस तरह विज्ञान साहित्य से भी जुड़ गया। असल में प्रकृति से जुड़ा हर ज्ञान अंतर्सम्बंधित है।”

इन यात्राओं में लेखक की भेंट ऐसे लोगों/संस्थाओं से भी होती है जो चुपचाप अत्यंत निर्धन और बेसहारा बच्चों का भविष्य संवारने में लगे हैं। उत्तराखण्ड में गुप्तकाशी के निकट कालीमठ के जैक्स वीन नेशनल स्कूल की कहानी ही नहीं, उद्देश्य भी प्रेरक है। कभी अध्यात्म की खोज में आए फ्रांसीसी मनोचिकित्सक डॉ जैक्स वीन ने यहां एक मजदूर को अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया था। वही बालक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद आज लखपत सिंह राणा के रूप में डॉ जैक्स वीन (जो अब ब्र्ह्मचारी विज्ञानानंद हैं) के नाम से ही एक स्कूल, छात्रावास और मेस चला रहा है जिसमें मुख्य रूप से अत्यंत गरीब परिवारों के बच्चे और 2013 की केदारनाथ त्रासदी में अनाथ हुए बच्चे रहते-पढ़ते हैं। ऐसे ही देहरादून के एक जीर्ण-शीर्ण सरकारी विद्यालय भवन को जनता से सहायता मांग-मांग कर, उसे ठीक करके हुकुम सिंह उनियाल आवासीय विद्यालय चला रहे हैं जिसमें करीब ढाई सौ बेसहारा बच्चे पढ़ रहे हैं।

इनमें से कई भीख मांगते थे, कई बच्चे कूड़ा बीनते थे, जिनके माता-पिता नहीं रहे और ऐसे भी बच्चे हैं जिनके माता-पिता अलग हो गए या उन्होंने दूसरी शादी करके बच्चे बेसहारा छोड़ दिए।” नाम को वह आज भी सरकारी विद्यालय है लेकिन यह सब काम उनियाल जी ने अखबारों में विज्ञापन छपवाकर दान प्राप्त करके किया है। उनकी पूरी कहानी तबीयत से एक पत्थर उछलकर आकाश में सूराख करनेकरने की सत्य कथा है। इस धरती पर ऐसी कथाएं फैली हुई हैं। बस, देखने-सुनने वाली आंख चाहिए।  

मेवाड़ी जी की यात्रा-कथाओं में नदियां हैं, घने जंगल हैं, हिमालय की पर्वत श्रंखलाएं हैं, दूर-दूर तक फैले मैदान हैं और सब इस तन से बुजुर्ग और मन से बालक यात्री में सौंदर्य बोध से अधिक उत्सुकता जगाते हैं। उनकी जिज्ञासा यहां तक जाती है कि शहर का नाम इटारसीकैसे पड़ा होगा और ब्यावर? अपने मेजबानों और स्थानीय लोगों से पूछ-पूछ कर वे उत्तर तलाश लाते हैं कि जहां ईटोंऔर रस्सीका व्यापार होता था, वह इटारसीबन गया और बी अवेयरसे ब्यावरनाम पड़ गया। बी अवेयरक्यों? क्योंकि छापामार युद्ध में माहिर चौहान राजपूतों से अंग्रेज खौफ खाते थे, इसलिए अपने बसाए इस शहर में हरेक को सावधान करते रहते थे- बी अवेयर!

पूरी किताब एक जिज्ञासु यात्री और प्रेक्षक की दृष्टि का कमाल है। इसमें विज्ञान है, साहित्य है, रोचक एवं प्रेरक कहानियां हैं, आविष्कारों का इतिहास है और हमारे आस-पास के प्रकृति-संसार से लेकर आसमान में चमकते तारों (शहरों में तो अब वे दिखते ही नहीं) से अद्भुत मिलन है। अगर आपके पास जिज्ञासु मन है और भीतर सवाल कुलबुला रहे हैं, तो यायावर देवेंद्र मेवाड़ी से कथाएं सुनने को तैयार हो जाइए।

(किताब- कथा कहो यायावर। प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन, हापुड़ (7017437410) पृष्ठ-206, मूल्य- 250 रु)

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बेरोजगारी, ठगी और काबिलियत के सवाल

ठगी के किस्से पढ़ते-पढ़ते मैं ठगों के प्रति प्रशंसा-भाव से भरता जा रहा हूं। इसीलिए पिछले एक साल में यह दूसरी बार है कि ठगों और ठगे जाने वालों के बारे में लिख रहा हूं। समाचार-पत्रों के अपराध पृष्ठ पर प्रतिदिन ठगी की कई खबरें प्रकाशित रहती हैं। उन्हें पूरा पढ़ना मेरी आदत में शामिल हो गया है। अक्सर मेरे मुंह से ठगों की प्रशंसा निकलती है। जो ठगे जाते हैं, असावधान बुजुर्ग, महिलाओं और भोले-भाले ग्रामीणों को छोड़कर, उनके प्रति मुझे कोई सहानुभूति नहीं होती। जिस आसानी से पढ़े-लिखे, समझदार और उच्च पदस्थ लोग ठग लिए जाते हैं, लगता है वे ठगे जाने के लिए ही समझदारबने हैं।

ठगों में राजनेता और उनके छुटभैये भी शामिल हैं। उनकी भी तारीफ कम नहीं बनती लेकिन यहां मैं उनके बारे में नहीं लिखने जा रहा। उनकी करनी जनता भोग ही रही है। इस बार मुझे प्रभावित किया है उस ठग ने जिसने एक डॉक्टर और उसके पिता दोनों को यह झांसा देने में सफलता पाई कि वह डॉक्टर को एक नामी निजी अस्पताल में नौकरी दिला देगा। इसके लिए उसने पहले कुछ रुपए वसूले। बाकी इण्टरव्यू के बाद देना होगा, यह बताया। फिर ठग उस्ताद ने इण्टरव्यू भी करा दिया और बाकी रकम वसूल कर ली। डॉक्टर बेटे और पिता को उसके बाद ही पता चला कि वे ठग लिए गए हैं।

वैसे, डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस तथा आईपीएस अफसर भी ठगे जाते हैं। बैंक खाते सबंधी विवरणों पर बहुत से लोग झांसे में आकर ओटीपी बता देते हैं। लेकिन एक नामी अस्पताल में नौकरी दिलाने के नाम पर डॉक्टर को ठगे जाने के इस किस्से ने मुझे सचमुच बहुत प्रभावित किया। पहले मुझे इस खबर पर बहुत आश्चर्य होता था कि मेडिकल कॉलेजों में बीस-बीस साल से ऐसे होनहार मेडिकल छात्र पढ़ रहे हैं जो डॉक्टरी की परीक्षा पास ही नहीं कर पा रहे। अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा है कि इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसके और भी कई आयाम हैं, जिस पर फिर कभी।

मैं समझता हूं कि नामी एवं प्रतिष्ठित अस्पतालों (प्रतिष्ठा का कोई सम्बंध बेहतर चिकित्सा-व्यवस्था से हो ही, यह आवश्यक नहीं) में डॉक्टरों की भर्ती की एक निश्चित प्रक्रिया होती होगी। उसके लिए आवेदन, स्क्रीनिंग, इंटरव्यू, आदि की प्रक्रिया होगी। इसमें न्यूनतम पारदर्शिता भी बरती जाती होगी। अब अगर कोई ठग किसी डॉक्टर साहेब को इस सब से निकालकर सीधे वहां नौकरी दिला देने के लिए भरोसे में ले ले तो उसकी प्रतिभा का कायल तो होना ही पड़ेगा। पता नहीं उसने स्वयं मेडिकल या सिविल सेवा परीक्षा क्यों नहीं दी होगी!

यह बेरोजगारी की इंतिहा ही है कि हमारे इस ठग जैसे प्रतिभाशाली लोग अच्छी नौकरी नहीं पा सके। हो सकता है उसे नौकरी मिली हो किंतु उसमें वह रोमांच और नित नई सनसनी न रही हो जो डॉक्टर या बड़े-बड़े अफसरों को ठगने में मिलती है। राजनीति अगर नेता-पुत्रों के लिए आरक्षित नहीं होती तो ऐसे ठग किसी भी राजनैतिक दल में काफी ऊपर पहुंचते। वहां आम व्यक्ति के लिए सम्भावनाएं अत्यंत कम हैं, बावजूद भाजपा के इस दावे के कि वहां सामान्य कार्यकर्ता भी शीर्ष तक पहुंच सकता है।

हमारे देश में डॉक्टरों की काफी कमी है और बहुत सारे पद खाली हैं। उसके बावजूद यह किस्सा हुआ तो कई सवाल भी उठाते हैं। ऐसे डॉक्टरों और उन्हें तैयार करने वाले मेडिकल कॉलेजों की काबिलियत से लेकर नामी अस्पतालों की साख पर सवालिया निशान तो हैं ही, डॉक्टर जैसे ज़िम्मेदार पदों पर भर्तियों में रिश्वत, जोड़-जुगाड़ और दलाली पर भरोसा करने की सच्चाई भी उजागर होती है। बेरोजगारी हर क्षेत्र में है लेकिन योग्यता की कमी भी अपने देश में एक बड़ा संकट है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 सितम्बर, 2021)