Monday, December 31, 2018

एक और साल बीता, एक नया आया


हम सब इस विश्वास एवं आशा के साथ जीते और लड़ते हैं कि यह दुनिया तथा मानव जीवन एक दिन बहुत खूबसूरत होंगे. फिलहाल तो साल-दर साल बीतते जा रहे हैं. हमारा जीवन ज्यादा संकट भरा होता जा रहा है. दुनिया खतरों से घिरती जा रही है. इसे सुंदर बनाने की लड़ाई कठिनतर हो रही है. कभी तो शंका होती है कि मनुष्य का संघर्ष कहीं पहुँच भी रहा है? जीवन भर बेहतरी के लिए लड़ने वाले लोग थकते और निराश होते दिखते हैं. अच्छी बात यही है कि नयी पीढ़ी इस मोर्चे पर कमर कसे खड़ी होती दिखाई देती है. मोर्चा मुश्किल होता जा रहा है लेकिन लड़ने वाले लोग आते जा रहे हैं. अपने जीवन के अंतिम प्रहर में पहुँच रहे लोग निराशा के बावजूद गिर्दा का यह गीत गा सकते हैं – जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में!

तो, साल 2018 भी अनेक निराशाओं और मुश्किलों  के बीच विदा हो गया है लेकिन 2019 के साथ उम्मीद की  किरणें भी जगमग कर रही हैं. इसलिए अपने थके कदमों से हमारी पीढ़ी नौजवानों की उमंगों के साथ कदमताल की कोशिश में नव वर्ष का स्वागत करने को प्रस्तुत है.

नया साल मुबारक होकहते हुए वे चुनौतियाँ और खतरे भूले-भुलाए नहीं जा सकते जो बीता साल हमारे सामने छोड़ गया है. नये साल में वे और भी जोर की टक्कर देने वाले हैं. दशकों पहले अज़ीम शायर फैज़ ने उम्मीद की थी कि जब सफ सीधा हो जाएगा और सब झगड़े मिट जाएंगे, तब हर एक देश के झण्डे में एक लाल सितारा माँगेंगे.इस बीच लाल सितारे वाले तो जाने कहाँ गुम-से हो गये हैं और कट्टर दक्षिणपंथी लहर अमेरिका, यूरोप और एशिया उप-महाद्वीप के कई देशों में उफान पर है. धार्मिक-जातीय गोलबंदियाँ और नस्लीय घृणा व हिंसा बढ़ रही है. साल 2018 ने झगड़े बढ़ाए ही हैं.

दूर क्या जाएँ, अपने मुल्क में हमने क्या-क्या नहीं देखा. गोरक्षा के बहाने मुसलमानों पर हमले बढ़े, मॉब लिंचिंग मीडिया की सुर्खियाँ बनती रही और उसे पेश करने का नजरिया भी ज्यादातर उतना ही संकीर्ण रहा. बुलंदशहर में दंगा भड़काने की साजिश पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या से कामयाब नहीं हुई लेकिन यह साफ हो गया कि समाज की सतरंगी चादर को तार-तार करने की तिकड़में कितनी गहरी हो रही हैं. जब प्रदेश का मुख्यमंत्री यह कहे कि इंसपेक्टर की मौत एक दुर्घटना थी, पहले गोहत्या की जांच होगी तो समझा जा सकता है इस सब के पीछे कौन सी ताकते हैं.

गाय की हत्या एक पुलिस अधिकारी की हत्या से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बना दी गयी. आप इस दुर्भाग्य पर अफसोस जताते हैं और चिंता करते हैं तो आपको देशद्रोही बता कर सीधे पाकिस्तान जाने का फतवा सुनाया जाता है. रंगमंच और फिल्म जगत के बड़े अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि उन्हें यह सब देख कर अपने बच्चों के बारे में फिक्र होती है क्योंकि हमने उन्हें मजहबी तालीम दी ही नहीं.  कल को अगर उन्हें भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिन्दू हो या मुसलमान? तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा. 

यह एक सम्वेदनशील कलाकार की सही और जरूरी चिंता है लेकिन देखिए कि नसीरुद्दीन को देशद्रोही बताकर गालियाँ दी जा रही है और पाकिस्तान जाने को कहा जा रहा है. जो लोग नसीर की चिन्ता में शामिल हैं वे भी गद्दार ठहराए जा रहे हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं, असहमति सुनना भी गवारा नहीं रहा. ऐसी असहिष्णुता इस देश ने अब तक नहीं देखी थी. और, जैसा नसीर ने कहा हालात जल्दी सुधरने वाले नहीं. नया साल इन चुनौतियों को कुछ कम कर पाएगा? इनके खिलाफ जरूरी लड़ाई लड़ी जा सकेगी?

गौरी लंकेश के हत्यारे छुट्टा घूम रहे हैं और गौतम नवलखा, वरवर राव, सुधा भारद्वाज जैसे बेहतरी के लिए लड़ने वाले जेल में हैं. सेकुलरशब्द कबके गाली बना दिया गया था. अब अर्बन नक्सलनया ठप्पा है. यह हमारे समय की कठिन चुनौतियों के उदाहरण हैं.

हिमालय और नदियाँ बल्कि पूरा पर्यावरण भारी खतरे में है. प्रकृति बार-बार चेतवनी दे रही है किंतु गंगा को बचाने के लिए आमरण अनशन करते स्वामी सानन्द उर्फ प्रो जी डी अग्रवाल को मर जाने दिया गया. प्रधानमंत्री को लिखी उनकी चिट्ठियाँ जवाब देने लायक भी नहीं समझी गईं. यह वही प्रधानमंत्री हैं जो अपने को गंगा का बेटाकहते नहीं थकते. गंगा का असली बेटा कौन है, जनता कब यह समझेगी?

अच्छे दिनोंके भुलावे में और विकास के नाम पर विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनवाने का ताज सिर पर पहना जा रहा है और अयोध्या में राम की भव्य विशाल प्रतिमा खड़ी करने की घोषणा हो रही है. देश को बनाने-सँवारने में जी-जान लगा देने वाले नेहरू और पटेल के भूत को लड़ाया जा रहा है लेकिन मेघालय की एक कोयला खान में फँसे मजदूरों को बचाने के लिए जरूरी उपकरण पंद्रह दिन तक भी दुर्घटना स्थल तक नहीं पहँचाये जा सके जबकि छोटे से देश थाइलैण्ड ने एक सुरंग में पानी भर जाने से फँसे फुटबॉल खिलाड़ियों को सकुशल निकाल लिया था.

उत्तराखण्ड में  ऐसी चार धाम ऑल वेदर रोडबनवाई जा रही है जो पहले से उजड़ रहे पहाड़ को और भी उजाड़ देने वाली है. कमजोर पहाड़ों पर ऐसी चौड़ी सड़क की क्या जरूरत है, क्या दुनिया के किसी पहाड़ में ऐसी विनाशकारी परियोजना चलाई गयी, यह सोचना जरूरी नहीं समझा गया. विरोध के स्वर सुनना तो मंजूर ही नहीं है.

जनता की वाजिब चिंताएँ और प्रतिरोध के स्वर सुने जाते तो पंचेश्वर बांध योजना पर पुनर्विचार किया जाता. विशाल भू-भाग, उपजाऊ घाटी और आबाद गांवों को उजाड़ देने वाले बड़े बांध की बजाय छोटे-छोटे बांध बनाये जाते. जन-सुनवाई के नाम पर नाटक हुआ, विरोध करने वालों को बोलने नहीं दिया गया और फर्जी तरीके से गाँव वालों की सहमति हासिल की गयी. कहीं कोई चिन्ता नहीं कि आने वाले कल के लिए कितने भयावह खतरे जमा किये जा रहे हैं.

गाँव और किसान निरंतर उपेक्षित हैं और स्मार्ट शहर बसाने के हवाई किले बांधे जा रहे हैं. किसानों की आत्महत्याएँ कोई हलचल नहीं मचाती. समर्थन मूल्य में रिकॉर्ड वृद्धि के दावों के बावजूद किसान को फसलों का लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा. पुणे के एक किसान को डेढ़ टन प्याज का मूल्य सिर्फ चार रु मिला जो उसने चंद रोज पहले केंद्रीय कृषि मंत्री को मनी ऑर्डर करके भेजा है. लेकिन कहीं कोई पत्ता नहीं हिल रहा. सभाओं में कहा जा रहा है कि किसानों के लिए जितना हमने कर दिया है उतना सत्तर साल में मिलाकर भी नहीं हुआ.

आश्चर्य नहीं कि देश भर में किसान साल भर सड़कों पर रहे. वोट की राजनीति ऐसे मुकाम पर ला दी गयी है कि जाट, पाटीदार और मराठा जैसे अपेक्षाकृत सम्पन्न समूह आरक्षण के लिए आंदोलन करते रहे. असंगठित मजदूरों, भूमिहीन किसानों  और गरीब-गुरबों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं. संसद में शोर मचा रहा तीन तलाक विधेयक पर, दलित एक्ट पर, सीबीआई के झग़ड़े पर और तालियाँ बजीं सर्जिकल स्ट्राइक के दावों पर.

साल 2018 के मी-टूअभियान ने बड़े-बड़े नायकों की महिला-उत्पीड़क शक्ल उजागर की लेकिन चंद  महिलाओं का यह प्रतीकात्मक साहस आम भारतीय स्त्री को यौन हिंसा और उत्पीड़न से कतई राहत नहीं पहुँचा सका. साल बीतते-बीतते पौड़ी और आगरा में जिस तरह दो लड़कियों को जिंदा जला दिया गया वह सबूत है कि पुरुष और बर्बर हुआ है. महिलाओं की बराबरी और स्वतंत्रता की राह बहुत कठिन बनी हुई है. कामना है कि 2019 का साल उन्हें मुखर होने और लड़ने की और ताकत दे.       

साल 2018 ने केरल में बाढ़ की तबाही का इतिहास लिखा और पीने के पानी के संकट को सबसे बड़ी समस्याओं में शामिल किया. हाल के विधान सभा चुनाव नतीजों ने भाजपाई-संघी जकड़न से कुछ राहत पहुँचाई लेकिन कांग्रेस का उदार हिंदुत्त्वकी राह पकड़ना दूसरी तरह के खतरों का संकेत दे गया. नेहरू की कांग्रेस का यह पतन भले रणनीतिक चातुर्य हो, राजनीति में धर्म के घालमेल और जनता के जरूरी मुद्दों की उपेक्षा का ही उदाहरण है.

देश की प्रतिष्ठित संवैधानिक संस्थाओं पर सरकारी शिकंजा कसा और उनकी स्वायत्तता पर हमले जारी रहे. धर्मशास्त्रों की आड़ में वैज्ञानिक तथ्यों की खिल्ली उड़ाई गयी. अपने समय के आवश्यक मुद्दे उठाने में मीडिया का बड़ा हिस्सा दुम दबाये पालतू जानवर-सा व्यवहार करता रहा. 56-इंची सीने वाले अपने पीएम बहादुर इस साल भी मीडिया के सामने नहीं आए. जिस किसी ने प्रकारांतर से सवाल पूछने या पोल खोलने की कोशिश की वह प्रताड़ित हुआ. सत्य का मुँह स्वर्ण पात्र से ढका रहा. 

ऐसे में अपने उत्तराखण्ड के हाल शेष देश से बेहतर कैसे हो सकते हैं. सपनों या राज्य आंदोलन की अपेक्षाओं  वाला प्रदेश हकीकत में दूर होता जा रहा है. गांवों के खाली होने  के बीच रिवर्स पलायनका ढिंढोरा पीटने वाली राज्य सरकार ने सुदूर गांवों तक की जमीन की खुली लूट का रास्ता तैयार कर दिया है. पहले जो थोड़ी बंदिश थी भी उसे हटाकर नये कानून से उत्तराखण्ड की जमीन ग्रामीणों से छीनने की छूट हर किसी को दे दी गयी है. ऐसा किसी दूसरे पहाड़ी राज्य में नहीं है.

भारी बहुमत से चुनी गयी सरकार का मुखिया जनता दरबार में एक अकेली असहाय अध्यापिका को इसलिए गिरफ्तार करवा देता है कि उसने वर्षों कठिन पहाड़ी क्षेत्र में तैनाती के बाद शहरी क्षेत्र में तबादले की गुहार लगाई थी, जबकि खुद उस मुखिया के अध्यापक पत्नी वर्षों से नियम विरुद्ध देहरादून में तैनात है. इससे पता चलता है कि सरकार के एजेण्डे में आम जन हैं ही नहीं. उसका एकमात्र ध्येय आरएसएस का एजेण्डा लागू करना है. वर्ना क्यों उत्तराखण्ड की विधान सभा गाय को राष्ट्र माताघोषित करके ऐसा करने वाली पहली सरकार होने का श्रेय लूटती. गाय के राष्ट्र माता घोषित करने से क्या आम पहाड़ी माता के दुखों में कुछ कमी होगी?

निर्बुद्धि राजैक काथै-काथ.  कहाँ तक कहिए.

उत्तराखण्ड के आंदोलनकारियों की लड़ाई यहाँ-वहाँ कमोबेश जारी है. नशा नहीं रोजगार दो और गैरसैण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग के लिए बीते साल फिर जोश उमड़ा. पदयात्रा निकली तो गैरसैण में महापंचायत जैसी भी हुई. यह बहस अलग है कि गैरसैण राजधानी बन भी गयी तो उत्तराखण्ड का क्या भला हो जाने वाला है. पंचेश्वर बांध विरोधी आवाजें भी खूब उछलीं तो महिला आंदोलनकारियों ने जमीनी मुद्दों पर चर्चाएँ छेड़ीं. जमीनों की खुली लूट वाला ताजा कानून कितना विरोध खड़ा कर पाता है, यह साल 2019 में देखना है.

यह उम्मीद  2018 में नहीं बन सकी कि उत्तराखण्ड के बिखरे आंदोलनकारी एकजुट हों. क्या 2019 में ऐसी कोई सूरत बनेगी? शमशेर सिंह बिष्ट के रूप में उत्तराखण्ड और देश के जन आंदोलनकारियों ने एक विश्वसनीय और सम्मानित आवाज खो दी. उनकी स्मृति के बहाने ही सही एकता और संयुक्त लड़ाई की पहल की आशा बनी रहेगी.

जिनको हमने खो दिया उनकी सूची लम्बी है. कबूतरी देवी, नईमा उप्रेती, के डी रूबाली, हिमांशु जोशी, ललित कोठियाल, कमला उप्रेती, भगवती प्रसाद नौटियाल जैसे कुछ नाम अभी याद आ रहे हैं. कुलदीप नैयर, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, विष्णु खरे, सतीश चंद्र, समीर अमीन, गिरिजा देवी जैसी कई आवाजें भी मौन हो गईं. स्टीफन हॉकिंग जैसे जीवट वाले अद्भुत प्रतिभाशाली विज्ञानी का जाना भी स्मृति में दर्ज है.

आना-जाना सृष्टि का अटूट नियम है और वक्त का पल-प्रतिपल बीतना भी. विपरीत स्थितियाँ मन को निराशा से घेरती हैं लेकिन लेकिन यह स्थाई भाव नहीं. जीवन का निरंतर आगे बढ़ना और हर अँधेरी रात के बाद सूर्योदय बड़ा सत्य है. इसी से उम्मीदें जागती हैं. मनुष्य का इतिहास कभी हार नहीं मानने का प्रमाण है.

तो, जैसा वीरेन डंगवाल अपनी कविता में कहते हैं, ‘आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे’, तमाम उम्मीदों के साथ साल 2019 का स्वागत.                  

(samachar.org.in) 
   




       





 


Saturday, December 29, 2018

उत्तर प्रदेश की बेचारी गरीब पुलिस



कुछ महीने पहले एक बैंक में ऑनलाइन धोखाधड़ी हुई. एक पार्टी का ईमेल हैक करके जालसाजों ने बड़ी रकम किसी फर्जी खाते में ट्रांसफर करवा दी. मामला खुलने पर बैंक ने सबद्ध कर्मचारियों को निलम्बित कर दिया. उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे हैक की गयी ईमेल पहचान नहीं पाये. मामला पुलिस के पास पहुँचा. जालसाजों के तार मुम्बई में मिले. स्थानीय पुलिस को तहकीकात के लिए मुम्बई जाना था. निलम्बित कर्मचारी  चाहते थे कि पुलिस जल्द से जल्द जालसाजों को पकड़े ताकि उनकी निर्लिप्तता साबित हो. उन्होंने जांच टीम से सम्पर्क किया तो कहा गया कि मुम्बई आने-जाने-ठहरने का खर्चा वहन करें तो टीम तुरंत चली जाएगी. उन कर्मचारियों ने मजबूरी में पुलिस टीम का सारा खर्च खुद उठाया. तब यह जानकर हैरत होने के साथ गुस्सा भी आया था.

पुलिस सप्ताह के दौरान गुरुवार को जब एक वरिष्ठ अधिकारी ने प्रदेश पुलिस थानों की गरीबी के आंकड़े सामने रखे तो पता चला कि हमारी भ्रष्ट पुलिस बेहद गरीब भी है. बल्कि, उसके भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण गरीबी भी है. हमारी सरकारों ने पुलिस थानों को इतना दयनीय बना रखा है कि उनके पास सामान्य जांच-पड़ताल के लिए भी धन नहीं होता. थानों में एफ आई आर लिखने के लिए भी पीड़ित से कागज मंवाया जाता हो तो क्या आश्चर्य.

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (तकनीकी) सेवा आशुतोष पाण्डे ने पुलिस महकमे के मुखिया के सामने जो तथ्य रखे वे चौंकाने वाले ही नहीं अत्यंत दुखद और चिंताजनक हैं. जिन थानों को सामान्य काम-काज और विवेचना के लिए हर महीने कम से कम पचास हजार रु की आवश्यकता होती है उनमें किसी को साल भर में चालीस हजार और किसी को सिर्फ बीस हजार रुपये मिलते हैं. यानी हर मास साढ़े तीन हजार से सत्रह सौ रुपये तक! इस नामालूम रकम में  थानेदार की जीप का एक हफ्ते का डीजल भी नहीं आएगा. समझा जा सकता है कि थाने अपने तमाम खर्च चलाने के लिए कैसी-कैसी वसूली नहीं करते होंगे.

आशुतोष पाण्डे ने यह भी बताया कि तेलंगाना जैसे नवसृजित राज्य में शहरी एवं ग्रामीण थानों को हर महीने क्रमश: पचास हजार और पचीस हजार रु मिलते हैं. हैदराबाद में जहाँ पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू है, वहाँ हर थाने को 75 हजार रु प्रतिमास मिलते हैं. उनकी तुलना में हमारी पुलिस कितनी असहाय है. पीड़ितों से वसूली करके विवेचना न करे तो क्या करे! हालांकि इस लाचारी से उसके भ्रष्ट तौर-तरीकों का बचाव नहीं किया जाना चाहिए.

उत्तर प्रदेश में अपराधियों का बड़ा तंत्र है. संगठित गिरोहों के अलावा छुटभैये अपराधी आये दिन बड़ी वारदात किया करते हैं. साइबर अपराध बढ़ते जा रहे हैं. पुलिस की विवेचना का काम बहुत चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है. उससे त्वरित कार्रवाई की अपेक्षा की जाती है. पर्याप्त संसाधनों के अभाव में वह कैसे अपराधियों का सामना करे? अपराधी स्मार्ट और पुलिस लाचार. यह हाल पुलिस महकमे के लिए ही नहीं सरकार के लिए भी शर्मनाक हैं.

यह हाल पिछले कई दशक से चल रहे होंगे. अपराध नियंत्रण के लिए सभी सरकारों के मुखिया पुलिस को चेतावनी देते रहे हैं लेकिन आश्चर्य है कि किसी ने भी उसकी इस संसाधन विहीनता पर ध्यान नहीं दिया. पुलिस के बड़े अधिकारी इस समस्या से अवगत न हों ऐसा नहीं हो सकता. थानों की अवैध कमाई हर महीने लाखों में होती है जिसका हिस्सा कहते हैं कि ऊपर तक पहुँचता रहता है. क्या इसी आधार पर मान लिया गया कि पुलिस थानों को पर्याप्त सरकारी बजट की जरूरत नहीं है?        


(सिटी तमाशा, नभाटा, 29 दिसम्बर, 2018) 

Thursday, December 27, 2018

छोटे दल और गठबन्धन के लड्डू


रामविलास पासवान ने एनडीए से गठबन्धन में शामिल रहने की मनमाफिक कीमत वसूल ली. उन्हें खुश करने के लिए भाजपा को अपने हिस्से में कटौती करनी पड़ी. उससे पहले उपेंद्र कुशवाहा सौदा नहीं पटने पर गठबंधन छोड़ कर विपक्षी यूपीए में शामिल हो गये. ऐसा करने से पहले उन्होंने लम्बी नाराजगी दिखाते हुए सौदेबाजी की पूरी कोशिश की. नीतीश कुमार से छत्तीस का रिश्ता होने के कारण उनके पास ज्यादा जोर था भी नहीं.

उत्तर प्रदेश में अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की नाराजगी बिल्कुल नई है. अचानक ही उन्हें लगने लगा है कि एनडीए में उनकी हैसियत आलू के बोरेकी तरह रही है जिसे एक कोने में रख देने के बाद कोई झांकता तक नहीं. रामविलास पासवान को मिली बेहतरीन डील के बाद यूपी में कुर्मियों की नेतागीरी की दावेदारी करने वाले अपना दल की नेता को लगने लगा है कि यह बढ़िया मौका है. मोदी की बजाय उनकी पार्टी मायावती की तारीफ करने लगी है. इस घोषणा के बाद अमित शाह के कान खड़े हुए हैं, उन्होंने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को उन्हें मनाने में लगा दिया है.

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में शामिल सुहेलदेव राजभर पार्टी के नेता और केबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर करीब साल भर से भाजपा से बहुत नाराज हैं. योगी-मोदी सरकार की आलोचना करते रहते हैं. इधर कुछ समय से उनके बयान ज्यादा आक्रामक होने लगे हैं. भाजपा उन्हें मंत्रिमण्डल से निकालना तो दूर, चेतावनी देने का साहस भी नहीं कर पा रही.

आम चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं. चूंकि भाजपा 2014 जैसा प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद नहीं कर सकती, इसलिए गठबंधन में शामिल छोटे दल अकड़ दिखाने लगे हैं. वे अपने समर्थन की पूरी कीमत चाहते हैं. भाजपा सबको खुश करने की स्थिति में नहीं होगी लेकिन वह इस नाजुक समय पर उनकी नाराजगी भी मोल नहीं ले सकती.

उधर, कांग्रेस भी विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों के अलावा छोटे दलों को साथ लेने के लिए हाथ-पैर मार रही है. भाजपा को सत्ता बचानी है और कांग्रेस उसे छीनने की पुरजोर कोशिश में है. इसलिए क्षेत्रीय क्षत्रप ही नहीं एक-दो सीटें जीत सकने वाले छोटे जातीय समूहों के नेता भी अपने पाले में करने जरूरी हो गये हैं. 

साल 2014 का चुनाव भाजपा ने करीब 35 विभिन्न दलों का गठबंधन बनाकर लड़ा था. 1996 में 12 दलों का गठबंधन था, 1998 में यह संख्या 18 हुई जो 1999 में 24 तक पहुँच गयी थी. पिछले चुनाव में आशा के विपरीत अकेले  बहुमत मिल जाने के बावजूद भाजपा ने सभी साथी दलों को जोड़े रखा. जो दल चंद सीटें जीत सके और जातीय गोलबंदी के हिसाब से महत्त्वपूर्ण हैं उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दी. पिछले चार वर्षों में कुछ दल अपने कारणों से एनडीए से अलग भी हो गये.  

चूंकि भारतीय राजनीति पूरी तरह धर्म और जाति केंद्रित होती गयी, इस कारण कतिपय जातीय-धार्मिक समूहों के नेता अपने-अपने समुदायों में लोकप्रिय बन कर चुनाव जीतने में विशेषज्ञता हासिल कर चुके हैं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद मध्य जातियों के उभार से उनकी राजनीति और चमकती गयी. लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं.  बिहार में लालू या नीतीश की तरह वे बड़ी पार्टी नहीं खड़ी कर सके लेकिन 1977 से आज तक केंद्र में हर गठबन्धन या मोर्चे के लिए महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं. बिहार की राजनीति में कोई भी गठबंधन उनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं रहता. यही कारण है कि अमित शाह को उनकी सारी मांगें माननी पड़ी हैं.

उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली ओबीसी जातियों को समाजवादी पार्टी ने और दलित एवं अत्यंत पिछड़ी जातियों को बहुजन समाज पार्टी ने गोलबंद कर लिया. दोनों ही बड़ी ताकतवर पार्टियां बन गईं. कालांतर में निजी महत्त्वाकांक्षाओं से पीस पार्टी, अपना दल सुहेलदेव राजभर पार्टी, आदि का जन्म हुआ.

इन दलों के सहयोग से 2014 और 2017 में भाजपा ने भारी विजय हासिल की. 2019 के लिए ये छोटे दल और भी महत्त्वपूर्ण हो गए हैं. बल्कि, इन दलों के भीतर आपस में भी इसलिए संग्राम छिड़ा हुआ है कि सौदेबाजे में अपने-अपने गुट के लिए अधिक से अधिक हिस्सा हासिल कर लिया जाए.

पहले के छिट-पुट उदाहरणों के बाद हम 1984 से लगातार देश में गठबन्धन की राजनीति देखते आये हैं. ये गठबन्धन दो तरह के हैं. पहला वह जिसमें एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कई छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर सरकार चलाती रही. जैसे यूपीए या एनडीए, जिनमें कांग्रेस और भाजपा क्रमश: बड़ी पार्टी के रूप में उसकी धुरी बनीं. दूसरी तरह के गठबंधनों में कोई भी पार्टी बड़ी ताकत नहीं रही. कोई 60 सदस्यों वाला दल गठबन्धन की धुरी नहीं बन पाता, जैसे जनता पार्टी, जनता दल और संयुक्त मोर्चा के समय हुआ.

दूसरी तरह के गठबंधन एकदलीय वर्चस्व  पर नियंत्रण का काम करते हैं और क्षेत्रीय दलों को मुख्य धारा में आने का अवसर देते हैं; लेकिन वे राजनैतिक स्थायित्व नहीं दे पाते. देश को जल्दी-जल्दी चुनावों का सामना करना पड़ता है. दीर्घकालीन नीतियां और विकास कार्य प्रभावित होते हैं. न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी लागू नहीं हो पाते.

पहली तरह के गठबंधन, जिसमें एक बड़ी पार्टी धुरी होती है लेकिन बहुमत के लिए छोटे-छोटे दलों पर निर्भर करती है, स्वार्थपूर्ण राजनैतिक सौदेबाजी को ही बढ़ावा देती है जो न लोकतंत्र होता  है, न कोई राजनैतिक विचार. इस समय भी कुछ राज्यों में हम एक-दो सदस्यीय दलों से गठबंधन के उदाहरण देख रहे हैं.  

जाति विशेष के वोटों पर टिके ये छोटे दल अपनी जाति के लोगों का कितना भला कर पाए, यह तो शोध का विषय होगा लेकिन ऐसी लगभग सभी पार्टियां पारिवारिक सम्पत्ति बनती चली गईं. रामविलास पासवान ने बेटे के हाथ कमान सौंप दी है लेकिन अपना दल पर अधिकार को लेकर माँ-बेटी में जंग छिड़ी है. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी भी बगावत झेल रही है. इन नेताओं की सौदेबाजी का क्या कोई जनहित-पक्ष भी होता होगा?

जाति-आधारित इन लघु दलों का अस्तित्व मूलत: जनता में शिक्षा और जागरूकता की कमी से ही है. कभी गरीब, शोषित-उत्पीड़ित जनता के पक्ष में वामपंथी पार्टियां गांव-स्तर तक सक्रिय रहती थीं. क्या यह वामपंथियों की विफलता है कि शोषित-उत्पीड़ित जनता जातीय झण्डों के नीचे एकत्र हो गयी? या क्या जातीय गौरव-बोध के जागरण ने वामपंथ और समाजवाद की जमीन खोखली कर दी? भूख, बेरोजगारी, अन्याय, गैर-बराबरी के मुद्दों के लिए जनता को गोलबंद करने वाले क्यों विफल होते गये? इन समस्याओं से त्रस्त जनता पर जातीय-अस्मिता क्यों हावी हो गयी? क्या उसमें मुक्ति और बराबरी को कोई रास्ता दिखाई देता है?   
  

     

नसीरुद्दीन को देशद्रोही बताने वाले क्या स्वयं देशप्रेमी हैं?



रंगमंच और फिल्मी दुनिया के मशहूर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक ताज़ा बयान से संघी हिंदुत्त्व की धारा में जाने-अनजाने बह रहे कथित राष्ट्रवादियों को जहर उगलने का नया मौका मिल गया है. सोशल मीडिया में खुल कर और मुख्य धारा की मीडिया में भी काफी हद तक नसीरुद्दीन के खिलाफ उग्र बयानों और गाली गलौज की बाढ़-सी आयी हुई है.

इस विष-वमन के लिए इस प्रतिबद्ध अभिनेता के बयान को मन मुताबिक खूब तोड़ा-मरोड़ा गया है. नमूने के तौर पर डीबी (दैनिक भारत) न्यूज की पोस्ट देखिए, जिसमें 20 दिसम्बर को पोस्ट किया गया- “भारत रहने लायक देश नहीं है. मुझे तो अपने बच्चों के लिए डर लगता है. घटिया देश है भारत- नसीरुद्दीन शाह.”
इस पोस्ट को उसी दिन 767 लाइक मिले, 530 बार इसे शेयर किया गया और 11 हज़ार टिप्प्णियां की गईं जिनमें जा भड़वे, किसने रोका है” जैसी गालियों की भरमार थी. दैनिक भारत ने इसी शीर्षक से नसीरुद्दीन का कथित बयान प्रकाशित भी किया.

इसी तरह के हजारों पोस्ट फेसबुक और ट्विटर पर भी चले और अब भी चल रहे हैं. नसीरुद्दीन शाह के वास्तविक बयान को सामने रख कर उसका बचाव करने वालों को भी खूब गालियां पड़ रही हैं. उन्हें भी पाकिस्तान जाने की सलाह दी जा रही है.

किसी ने जानने-समझने की कोशिश नहीं की कि नसीरुद्दीन ने वास्तव में क्या कहा, किस संदर्भ में कहा और उनका मन्तव्य क्या था. या, शायद शाह के बयान को सही शब्दों और संदर्भ में देखने से राष्ट्रवादियों के जहर फैलाने के मंसूबे धरे रह जाते. उन्हें तो मौका चाहिए, कोई भी मौका वे छोड़ते नहीं.

आमिर खान के एक बयान पर पिछले साल कैसा और कितना बवाल मचाया गया था. उन्हें राष्ट्रद्रोही घोषित करके सपत्नीक पाकिस्तान जाने के फतवे सुनाये गये थे.

पहले देखते हैं कि नसीरुद्दीन ने क्या कहा था. वे “कारवाँ-ए-मुहब्बत इण्डिया’’ नामक यू-ट्यूब चैनल से बातचीत कर रहे थे. इस इण्टरव्यू में देश में साम्प्रदायिक वातावरण की चर्चा करते हुए उन्होंने बुलंदशहर की हाल की घटना का जिक्र करते हुए कहा था-

“...हमने हाल में देखा कि आज के भारत में गाय की मौत एक पुलिस अधिकारी की मौत से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है. ….

“हमने अपने बच्चों को मज़हबी तालीम बिल्कुल भी नहीं दी. मेरा ये मानना है कि अच्छाई और बुराई का मज़हब से कोई लेना देना नहीं है. अच्छाई और बुराई के बारे में जरूर उनको सिखाया . हमारे जो विलीव्स हैं , दुनिया के बारे में हमने उनको सिखाया . क़ुरान की एक आध आयतें जरूर सिखाई क्योंकि मेरा मानना है कि उसे पढ़कर तलफ्फुज सुधरता है , जैसे हिन्दी का सुधरता है रामायण या महाभारत पढ़कर....

“फ़िक्र होती है मुझे अपने बच्चों के बारे में . कल को अगर उन्हें भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिन्दू हो या मुसलमान? तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा क्योंकि हालात जल्दी सुधरते मुझे नज़र नहीं आ रहे हैं . 
“इन बातों से मुझे डर नहीं लगता . ग़ुस्सा आता है . मैं चाहता हूँ कि हर राइट थिंकिंग इंसान को ग़ुस्सा आना चाहिए . डर नहीं लगना चाहिए . हमारा घर है . हमें कौन निकाल सकता है यहाँ से.     

नसीरुद्दीन ने क्या गलत कह दिया? किस पर लांछन लगा दिया? किस पार्टी या किस नेता की व्यक्तिगत आलोचना कर दी? क्या उन्होंने इस देश को घटियाकहा है? इस बयान से देश की निंदा होती है? यह राष्ट्रद्रोही बयान है?

वास्तव में यह बयान इस देश के एक जिम्मेदार और सम्वेदनशील नागरिक की चिंता है. जैसा माहौल आज देश में बन गया है या जानबूझ कर बनाया जा रहा है उसमें  किसी भी संवेदनशील नागरिक का चिंतित होना स्वाभाविक है. वे मुसलमान नागरिक के रूप में चिंतित नहीं हैं, न ही इस देश के मुसलमानों का डर बयां कर रहे हैं.

जब गाय की हत्या पुलिस अधिकारी की हत्या से बड़ी बना दी जाती है, जब रास्ता रोक कर आपका धर्म पूछ कर हमला किया जाता है, जब किसी की रसोई में घुस कर वहाँ गोमांस मिलने की अफवाह फैला कर उसे मार डाला जाए, जब किसी निरपराध को ट्रेन में कत्ल कर दिया जाए क्योंकि वह दूसरे धर्म का है, जब किसी गोपालक को गोहत्यारा घोषित करके भीड़ को उकसा कर उसे मरवा दिया जाए, तब किसी भी नागरिक को चिंतित और गुस्सा क्यों नहीं होना चाहिए?

क्योंकि नसीरुद्दीन शाहएक मुसलमान नाम है, इसलिए उनके बयान को कुछ का कुछ बना दिया जाएगा? उसके अर्थ का अनर्थ किया जाएगा? देश और समाज के प्रति उनकी दिली चिंता को देशद्रोह बताया जाएगा?
देखिए कि नसीरुद्दीन कितनी बड़ी और जिम्मेदाराना बात कहते हैं - इन बातों से मुझे डर नहीं लगता. ग़ुस्सा आता है. मैं चाहता हूँ कि हर राइट थिंकिंग इंसान को ग़ुस्सा आना चाहिए.

गौर कीजिए कि वे डर की बात नहीं कहते, गुस्से की बात कहते हैं. डरने की क्या बात है. यह उनका घर है. घर के हालात पर चिंता नहीं होगी? गुस्सा नहीं आएगा? आना ही चाहिए और वे ठीक कहते हैं कि हर हर राइट थिंकिंग इंसान को ग़ुस्सा आना चाहिए .   

क्यों डरेंगे नसीरुद्दीन? आखिर यह उनका देश है. हाँ, वे चिंतित हैं. उनकी चिंता और गुस्सा वास्तव में इस देश के प्रति उनका प्यार है. यह हमारा घर है. हमें कौन निकाल सकता है यहाँ से?’  और ये कथित राष्ट्रवादी उन्हें देशद्रोही करार दिए दे रहे हैं.

इन हिंदुत्ववादियों को, जिनका हिंदू धर्म से वास्तव में कुछ लेना-देना नहीं है, नसीरुद्दीन में सिर्फ एक मुसलमान दिखाई देता है और उनके अनुसार मुसलमान तो देशप्रेमी हो नहीं सकता.

क्या यह चिन्ताजनक बात नहीं है कि वे एक  मुसलमान को इस देश का जिम्मेदार और समर्पित नागरिक नहीं मानते जो किसी भी देश प्रेमी नागरिक की तरह इस मुल्क से बेपनाह प्यार करता है और इसके बिगड़ते हालात के लिए चिंतित रहता है और गुस्सा भी  करता है. इस देश के मुसलमान नागरिक को देश के हालात पर चिंता और गुस्सा करके का हक नहीं है?

बड़ी चिंता की बात यह भी है कि हिंदुत्त्ववादियों के इस कुप्रचार से सीधे-सरल नागरिक भी भरमा गये हैं. वे नसीर के बयान को राष्ट्रद्रोहभले न मानें, उसे गैर-जिम्मेदाराना और राजनीति प्रेरित मान रहे हैं. उन्हें इस बयान में मोदी-विरोध दिखाई दे रहा है. वे पूछ रहे हैं कि नसीरुद्दीन को पहले क्यों डर नहीं लगा? नसीरुद्दीन तो सबसे सुरक्षित लोगों में हैं.  या वे एक-दो घटनाओं के बहाने पूरे देश को बदनाम कर रहे हैं.

अनुपम खेर, रामदेव और भाजपा-संघ के नेताओं के उत्तेजक बयान आग में घी का काम करते हैं. ठीक ऐसा ही तब भी हुआ था जब आमिर खान ने अपनी पत्नी किरन राव की एक शंका को सार्वजनिक कर दिया था या जब असहिष्णुता का आरोप लगा कर बहुत सारे लेखकों, विज्ञानियों, इतिहासकारों, अभिनेताओं, आदि ने अपने पुरस्कार वापस कर दिये थे. वे सब देशद्रोही घोषित किये गये थे.

आप नसीरुद्दीन शाह के बयान से असहमत हो सकते हैं. उसके जवाब में अपना बयान जारी कर सकते हैं. लेकिन उनकी या किसी भी नागरिक की देशभक्ति पर अंगुली नहीं उठा सकते. यह अधिकार किसी को भी हासिल नहीं है.

आज एक बड़ी भीड़ नसीरुद्दीन शाह को धमकाने-गरियाने में लगी है तो इससे उनकी चिंता और भी जायज ठहरती है. देश का माहौल सचमुच अच्छा होता तो ये सारे लोग उन्हें देशद्रोही बताने और गरियाने की बजाय कहते कि आपको चिंतित होने की जरूरत नहीं, हम आपके साथ हैं.

सच बात तो यह है कि नसीरुद्दीन शाह का बयान उन्हें जिम्मेदार कलाकार, बेहतर नागरिक और बड़ा देश प्रेमी साबित करता है. जो लोग उन्हें देशद्रोही बताते हुए देश निकाला दे रहे हैं, शंका उनके  देशप्रेम पर की जानी चाहिए.

साम्प्रदायिकता देश में पहले भी थी. दंगे भी होते थे और हत्याएं भी. लेकिन गोरक्षा, हिंदुत्त्व, लव-जिहाद, राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसा विष-वमन नहीं होता था. इनके नाम पर मॉब-लिंचिंग नहीं होती थी. 

किसने ऐसा माहौल बना दिया है? देश के भोले-भाले नागरिकों को कौन यह जहरीली घुट्टी पिला रहा है?


Friday, December 21, 2018

कौन सी जन सेवा करते हैं विधायक?



गुरुवार को विधान परिषद में मात्र 28 मिनट में अनुपूरक बजट और चार विधेयक पारित कर दिये गये. इन पर कोई चर्चा नहीं हुई. हाल के वर्षों में दोनों सदनों का यही हाल रहा है. 70 के दशक तक यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि बिना चर्चा के बजट या महत्त्वपूर्ण विधेयक पास हो जाएं. खूब विचार-विमर्श, तीखी बहसें और विद्वतापूर्ण वक्तव्य होते थे. अब तो सदन की बैठकें ही बहुत कम होने लगी हैं.

सन 2018 बीत रहा है. गुरुवार तक प्रदेश विधान सभा की कुल 21 बैठकें हुईं हैं. भाजपा जब विपक्ष में थी तो अक्सर सरकार की तीखी आलोचना करती थी कि वह विधानमण्डल की कम से कम बैठकें करके जरूरी मुद्दों पर बहस से बचती है, इस तरह लोकतंत्र की हत्या की जा रही है. तब उसका तर्क होता था कि नियमानुसार साल भर में कम से कम 90 बैठकें तो होनी ही चाहिए.

आज भाजपा सत्तारूढ़ है तो वह भी दूसरे दलों की तरह व्यवहार कर रही है. विधान परिषद की तो मात्र 17 बैठकें हुईं हैं. अब विपक्ष वैसे ही आरोप लगा रहा है जैसे पहले भाजपा लगाया करती थी. इस पर गुरुवार को विधान सभा में संसदीय कार्य मंत्री का उत्तर आश्चर्यजनक था. आंकड़े देकर उन्होंने बताया  कि सपा और बसपा ने अपने कार्यकाल में भी सदन बहुत कम दिन चलाये. जिनके घर शीशे के होते हैं वे हवा में पत्थर नहीं उछालते.  
दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सन 1997 से आज तक किसी सरकार ने 48 दिन से ज्यादा सदन नहीं चलाया. 2017 में मात्र 17 दिन, 2016 में 24 दिन और 2015 में 27 दिन विधान सभा बैठी. न्यूनतम 90 बैठकों का नियम शायद सभी भूल गये. नयी पीढ़ी के विधायकों को शायद इस नियम की जानकारी भी न हो. जरूरी विधेयक बिना चर्चा के पास करा दिये जाते हैं. कभी-कभी तो बजट प्रस्ताव भी हंगामे के बीच पास मान लिये जाते हैं.

इस मामले में सभी राज्यों का हाल ऐसा ही है. सिर्फ केरल विधान सभा अपवाद है. 2017 में उसकी 151 बैठकें हुईं थीं. केरल वैसे भी कई मामलों में अन्य राज्यों को आईना दिखाया करता है. बाकी राज्यों का हाल उत्तर प्रदेश जैसा ही है.

राजनीति में ऐसे व्यक्ति आ गये हैं जिन्हें जनता की समस्याओं से विशेष लेना-देना नहीं रहा या उनसे निपटने के उनके अपने तरीके हैं. उनके लिए संसदीय व्यवस्था चुनाव जीतने तक सीमित है. पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता नहीं, विधायी नियमों-व्यवस्थाओं की उन्हें जरूरत ही नहीं पड़ती. उत्तर प्रदेश विधान सभा के समृद्ध पुस्तकालय में शायद ही कोई विधायक जाता हो या संदर्भ सामग्री मंगाता हो. सदन बैठे, चर्चा और बहसें हों तो इस सामग्री की जरूरत भी पड़े.

राज्यपाल का उत्तरदायित्व होता है कि वे सदन की बैठकों के बीच छह महीने से अधिक अंतराल न होने दें. वे समय पर सदन की बैठकें बुलाते हैं. यह दायित्व सरकार का है कि वह कितने दिन सदन चलाए. कई बार तो सदन बैठने की औपचारिकता निपटा कर ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं.

सवाल है कि निर्वाचित विधायकों का मुख्य उत्तरदायित्व क्या है? अगर वे अपना अधिकतम समय सदन को नहीं देते तो फिर वह कौन सी जन सेवा करने के लिए लालायित रहते हैं? चुनाव लड़ने और किसी भी कीमत पर जीतने का उनका उद्देश्य क्या होता है? जनता का अनुभव बताता है कि वे अपने क्षेत्र में भी कम ही दिखाई देते हैं. कहावत ही बन गयी है कि नेता जी के दर्शन पांच साल बाद ही होते हैं. 

फिर वे कैसी जन सेवाकरते हैं?

(सिटी तमाशा, 22 दिसम्बर, 2018)
 




Friday, December 14, 2018

लक्षणों का इलाज करने से रोग कैसे दूर होगा



बलिया का सूरज लखनऊ में सड़क किनारे अमरूद का ठेला लगाता है. गोण्डा का मातादीन चौराहे के नुक्कड़ पर झव्वे में मूँगफली बेचता है. दीनदयाल फूलों का ठेला लगाता है. दूर-दराज के इलाकों से राजधानी आकर ऐसे हजारों लोग सड़क किनारे या किसी कोने में या फुटपाथ पर या जहां भी ठौर मिले रोजी-रोटी के लिए ठेला खोंचा या गुमटी लगाते हैं. पुलिस ने ऐसे लोगों की पकड़-धकड़ शुरू कर दी है. कहा जा रहा है कि ये लोग अतिक्रमण करके जाम लगा रहे हैं. कुछ लोगों को जेल भी भेज दिया गया है.

जब भी नगर निगम या पुलिस अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाती है, उनकी मार ऐसे ही सीधे-सादे गरीब लोगों पर पड़ती है. तकनीकी तौर पर ये लोग अतिक्रमणकारी माने जा सकते हैं लेकिन क्या वास्तव में इन्हीं की वजह से सड़कों पर जाम लगता है? ये ही बड़े और असली अतिक्रमणकारी हैं? इस जुर्म में इन गरीबों को जेल भेजा जाना चाहिए?

सारे बाजार अवैध निर्माण और अतिक्रमण से भरे हैं. बड़ी-बड़ी दुकानें आधी सड़क घेरे हुए हैं. सभी आवासीय क्षेत्र अवैध बहुमंजिली इमारतों से भर गये हैं जिनमें शो-रूम, होटल, रेस्त्रां, जिम, वर्कशॉप वगैरह खुले हुए हैं. किसी ने पार्किंग नहीं बनायी है. ग्राहकों के वाहन सड़क पर खड़े होते हैं. व्यस्त इलाकों में तो सड़क के दोनों तरफ गाड़ियां खड़ी होती है. रेस्त्रां वाले सड़क पर खड़ी कारों में खाने का सामान तक करते हैं. ट्रैफिक के लिए पतली-सी पट्टी बच पाती है. इनसे जाम नहीं लगता? ये अतिक्रमणकारी नहीं है? इन्हें जेल नहीं भेजना चाहिए?

वीआईपी गाड़ियां खतरनाक तरीके से फर्राटा ही नहीं भरतीं, सड़कों को अपनी मिल्कियत समझती हैं. वे कहीं भी गाड़ी खड़ी करने के लिए आजाद हैं. उलटी दिशा में चलना उनकी शान में शुमार है. उनका चालान करने की हिम्मत कोई पुलिस वाला करे भी तो सजा पा जाता है. इनसे जाम नहीं लगता होगा!

कार्रवाई हो रही है ई-रिक्शा वालों पर. आखिर ये ई-रिक्शे चले ही क्यों? क्यों बेशुमार टेम्पो-ऑटो चल रहे हैं? आपने बेहतर और सस्ती परिवहन सुविधा दी होती तो इनसे सड़कें भरी न रहतीं. गरीब जनता के लिए ये सबसे आसान और सस्ती सवारी हैं. होना तो यह चाहिए था कि खून-पसीना बहा कर रिक्शा खींचने वाले गरीबों को ई-रिक्शा उपल्बध कराये जाते ताकि वे आसानी से रोजी चला सकें.  

हमारी सरकारों ने और प्रशासन ने वह सब किया नहीं जिससे शहरों में जीवन सुविधाजनक बनता. आवासीय कॉलोनियों को बेतरतीब बाजार बनने से रोका जाता. हर किसी के लिए यातायात नियमों का पालन आवश्यक होता. बाजार व्यवस्थित होते, पार्किंग की सुविधाएं होतीं. हुआ बिल्कुल उलटा. शहर बेतरतीब और अराजक ढंग  फैले. प्रभावशाली लोगों ने खूब नियम तोड़े. उन्हें वह सब करने की छूट है जो शहरों को नारकीय बनाता है.

जिन खोंचे-ठेला वालों को आप हटा रहे हो, कभी उनके बारे में भी जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वे कौन हैं और किन हालात में परिवार पालने की कोशिश कर रहे हैं. वे बच्चों को भूखा नहीं मार सकते इसलिए ठेला-रेहड़ी जरूर लगाएंगे, रिक्शा चलाएंगे. ये जो वेण्डिंग जोन आप बना रहे हो, यह कोई नई चीज नहीं है. दसियों बरस से बीच-बीच में ऐसी कोशिशें होती रहीं लेकिन कामयाब नहीं हुईं. पता कीजिए कि वेण्डिंग जोन क्यों नहीं चल पाते. 

ठेला-रेहड़ी वालों को हटा कर आप सिर्फ मामूली लक्षण का इलाज करना चाह रहे हैं. रोग बना रहेगा तो लक्षण बार-बार उभरेंगे. पुराना रोग है. पहचानते सब हैं. उसका उपचार करने के लिए बड़ी इच्छा शक्ति चाहिए. वह है कहीं

(सिटी तमाशा, नभाटा, 15 दिसम्बर, 2018)