Sunday, December 17, 2023

अभिनय और संगीत पियूष की रगों में दौड़ता था

कोमलांगी सिया प्यारी तू कहाँ? ढूँढता फिरता तुझको मैं यहाँ।” मंच पर राम का विलाप चल रहा है। सीता के आग्रह पर स्वर्ण मृग का आखेट करने गए राम लौटकर कुटिया में सीता को नहीं पाते। उन्हें मालूम नहीं है कि रावण ने छल करके सीता का हरण कर लिया है। उसी छल से लक्ष्मण भी सीता को अकेला छोड़कर उनके पीछे चले आए थे। अब दोनों भाई जंगल-जंगल सीता को खोज रहे हैं। वर्षा विगत शरद ऋतु आईऔर राम का धैर्य जवाब देने लगा है। पिया हीनउनका हृदय फटा जा रहा है। किसी अत्यंत करुण राग में निबद्ध गीत गाते हुए राम का व्याकुल स्वर खचाखच भरे मुरलीनगर के मैदान में एकाग्र चित्त बैठे दर्शकों का हृदय भी विदीर्ण कर रहा है। महिलाएं आंचल से आंखें पोछ रही हैं। उस दृश्य में तो वे सिसकने लगती हैं जब युद्ध के मैदान में लक्ष्मण को शक्ति लग गई है और संजीवनी बूटी लेने गए हनुमान अब तक लौटे नहीं हैं। लक्ष्मण का सिर गोद में रखे हुए राम सिसक रहे हैं- “रण बीच अकेला तड़पूं भैया, अंखिया खोल-खोल-खोल।” यह 1970 के दशक में मुरलीनगर में कुमाऊं परिषद की रामलीला का अविस्मरणीय दृश्य है।

वह पियूष पाण्डे का स्वर होता था जो राम के पात्र का पर्याय बन गया था। अपनी किशोरावस्था में तभी हमने पियूष पाण्डे का नाम सुना था। शास्त्रीय संगीत पर आधारित उस दौर की इस प्रख्यात रामलीला में राम की भूमिका कई किशोरों-युवाओं ने निभाई लेकिन पियूष पाण्डे जैसा राम कोई नहीं बन सका। इसीलिए वे कई-कई वर्ष राम बनते रहे। 1951 में जन्मे पियूष ने छह साल की उम्र से रामलीला में अभिनय करना शुरू कर दिया था और शत्रुघ्न से लेकर अंगद तक कई भूमिकाएं निभाईं लेकिन राम के रूप में पियूष की अदाकारी एवं गायकी को दर्शक कभी नहीं भूल सके। आज जब पियूष हमारे बीच से अनंत यात्रा पर चले गए हैं तो भी उनके उसी रूप की स्मृतियां उस पीढ़ी के दिल-दिमाग में ताज़ा हो रही हैं।

पियूष ही नहीं, उनका पूरा परिवार संगीत-अभिनय निपुण रहा है। नौकुचियाताल (नैनीताल) के सिलौटी गांव से लखनऊ आ बसे पीताम्बर पांडे ने 1930 के दशक में मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक (आज का भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत विशारद किया था। यही तब वहां की सर्वोच्च डिग्री होती थी। पित्दाके नाम से मशहूर पीताम्बर पाण्डे गायन और वादन निपुण थे और तत्कालीन सचिवालय के कई आईसीएस अधिकारियों के बच्चों को संगीत की शिक्षा दिया करते थे, जिसके प्रमाण पत्र आज भी एक संदूक में सुरक्षित हैं। लखनऊ में 1941 में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मेलन की आयोजन समिति में वे भी शामिल थे। तब उनके छोटे से घर में कई वाद्य यंत्र रखे रहते थे। वे ही कुमाऊं परिषद की रामलीला के संगीत उस्ताद थे। संगीत का जुनून उन पर इतनी हावी रहा कि उन्होंने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया लेकिन उनकी सभी नौ संतानों के डीएनए में संगीत खूब रचा-बसा और पल्लवित हुआ। छह लड़के और तीन लड़कियां, सभी गायन-वादन में बिना विधिवत प्रशिक्षण या डिग्री के भी पारंगत हुए। किताबी शिक्षा से अधिक संगीत ही उन सबकी पहचान बना और सभी ने रामलीलाओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही आकाशवाणी में भी खूब भागीदारी की।

पीताम्बर पाण्डे और विद्या देवी की पांचवें नम्बर की संतान पियूष सबसे अलग, जुनूनी और जिम्मेदार निकले। रामलीलाओं में उनका उल्लेखनीय प्रदर्शन उन्हें आकाशवाणी-दूरदर्शन और फिर शहर की रंग संस्थाओं की ओर ले गया। 1975 में बंसीधर पाठक जिज्ञासुजी ने कुमाऊंनी-गढ़वाली बोलियों के नाटक मंचन के उद्देश्य से शिखर संगमसंस्था बनाई तो पियूष ने पहले ही नाटक मी यो गयूं मी यो सटक्यूंमें शहरी पहाड़ी-प्रवासी के किरदार में जान डाल दी थी। अगले नाटक पुंतुरि’ (निर्देशन शशांक बहुगुणा) में अल्मोड़िया पाण्डे ज्यू के नौकर रेबाधर के रूप में उन्होंने ऐसा प्राणवान अभिनय किया कि दर्शक उनके मुरीद हो गए। शिखर संगमसंस्था बंद होने के बाद 1978 में जो दूसरी संस्था आंखरगठित हुई, पियूष उसके न केवल मुख्य कर्ता-धर्ता बने, बल्कि अनेक नाट्य प्रदर्शनों का सबसे चर्चित अभिनेता भी वही साबित हुए। आंखरने कानपुर, भोपाल, नैनीताल, अल्मोड़ा, मुरादाबाद में भी अपने कुमाऊंनी नाटक मंचित किए। आंखरनाम से ही कुमाऊंनी-गढ़वाली बोली की पत्रिका भी प्रकाशित की गई जिसमें प्रकाशक के रूप में पियूष का नाम छपता था। शंकरपुरी, फूलबाग, लखनऊ का उनका घर ही आंखरका स्थाई पता होता था। मोटर रोड’, ‘चंदन’, ‘ब्या है ग्यो’, ‘ह्यूना पौणसमेत कुछ और कुमाऊंनी नाटकों का उन्होंने निर्देशन किया। आंखरने देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में शेखर जोशी की चार कहानियों (दाज्यू, बोझ, व्यतीत एवं कोसी का घटवार) का कुमाऊंनी में मंचन किया तो पियूष अभिनय से लेकर आयोजन तक में स्तम्भ की तरह खड़े रहे।'कोसी का घटवार' में उन्होंने 'गुसांई' की भूमिका अदा की थी। 1982 में उन्होंने हिमांशु जोशी के उपन्यास कगार की आगके कुमाऊंनी नाट्य रूपांतर का निर्देशन किया। मैंने उन्हीं के साथ दैनंदिन चर्चा करते हुए और पूर्वाभ्यास के बीच ही इस उपन्यास का कुमाऊंनी नाट्य रूपांतर किया और गीत लिखे थे। यह आंखरका उत्कर्ष काल था तो अभिनेता के रूप में पियूष के मंजने और परिपक्व होने का समय भी।

यही वह दौर था जब पियूष अंकुर जी, उर्मिल कुमार थपलियाल और शशांक बहुगुणा जैसे प्रयोगशील निर्देशकों की नज़रों में चढ़ चुके थे। लक्रीसके वह सक्रिय सदस्य व अभिनेता ही नहीं, कर्ता-धर्ता भी थे। लक्रीसने मनोशारीरिक रंगमंच के सर्वथा नए प्रयोग करते हुए 'खड़िया का घेरा' और ‘तुगलक जैसे नाटकों का मंचन किया जिनमें पियूष ने देह से अभिव्यक्ति की नई रंग-भाषा सीखी। फिर पियूष ने करीब-करीब इसी शैली में 'दर्पण' के लिए 'सृष्टि' नाटक का निर्देशन किया। संगीत की दक्षता और नैसर्गिक अभिनय क्षमता ने उन्हें उर्मिल थपलियाल का एक प्रिय अभिनेता बनाया जो लोक संगीत को अपने नाटकों का मुख्य आधार बना रहे थे। उर्मिल उन दिनों नौटंकी की पुरानी परम्परा को नागरी नौटंकी के रूप में नया संस्करण देने में लगे थे। पियूष उनकी स्वाभाविक पसंद बने। 'यहूदी की लड़की', हरिश्चन्नर की लड़ाई’, ‘चूं-चूं का मुरब्बाऔर हम फिदाए लखनऊजैसे प्रदर्शनों में उन्होंने पियूष की प्रतिभा का शानदार उपयोग किया। हरिश्चन्नर की लड़ाईको पियूष अपना प्रिय नाटक मानते थे। उर्मिल ने अपने दादा भवानीदत्त थपलियाल जी के 1911 में लिखे गए गढ़वाली नाटक प्रह्लादके लोक-संगीत-प्रधान-मंचन में भी पियूष को भूमिका दी थी। इन प्रदर्शनों ने पियूष को नैसर्गिक, जीवंत एवं प्रतिभाशाली अभिनेता साबित किया। दर्पणके लिए उन्होंने शंकर शेष के नाटक कोमल गांधारका भी निर्देशन किया था। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों के लिए भी कुछ नाट्य-कार्यशालाएं एवं नाट्य प्रदर्शन किए।

प्रतिभा और क्षमता के अनुपात में पियूष के अभिनीत या निर्देशित नाटकों की सूची बहुत छोटी है। इसका मुख्य कारण उनका अत्यंत संकोची और अतिरिक्त स्वाभिमानी होना रहा। संकोच का एक बड़ा कारण उनकी सीमित स्कूली शिक्षा थी तो स्वाभिमान की अतिरिक्त सतर्कता ने उन्हें अग्रिम पंक्ति में आने से रोके रखा। अपनी पहल पर तो वे कोई प्रस्ताव रख ही नहीं सकते थे, बल्कि प्रस्ताव मिलने पर पीछे हटने लगते थे। जो नाटक उन्होंने किए, उसके लिए संस्थाओं/निर्देशकों ने उन्हें एक तरह से पकड़कर रखा। बहुत संकोची होना उनकी प्रतिभा के शिखरारोहण की राह में उनका शत्रु ही था।

कुमाऊं परिषद की जिस रामलीला ने उन्हें पहचान दी, लखनऊ के उत्तराखण्डियों की वह सबसे पुरानी संस्था 1980 के बाद न केवल निष्क्रिय हो गई बल्कि अपने अस्तित्व के संकट से जूझने लगी थी। लक्ष्मण भवन, हुसेनगंज स्थित उसका कार्यालय मुकदमेबाजी में फंस गया। करीब बीस वर्ष तक पियूष उसे बचाने के लिए लगभग अकेले अदालतों और वकीलों के दफ्तरों तक दौड़ते रहे। संस्था के संसाधन और सहयोगी बिखर गए थे और पियूष की अपनी आमदनी का कोई स्थाई माध्यम नहीं था। तब भी उन्होंने वर्षों तक लगभग अकेले मुकदमा लड़ा। कुमाऊं परिषद की अदालती पराजय और अंतत: संस्था का विलोपन उनकी स्थाई पीड़ा थी। उनकी प्रतिभा का बेहतर उपयोग कर सकने वाली लक्रीसऔर आंखरभी तब तक निष्क्रिय हो चुके थे। यदा-कदा उर्मिल थपलियाल और दर्पणउनका रचनात्मक प्रयोग करते रहे। उसमें भी पियूष का संकोच अक्सर आड़े आ जाता था।

गिर्दा भी पियूष को बहुत पसंद करते थे। 1980 के शुरुआती वर्षों में दोनों का सम्पर्क अंतरंग हो गया था। नैनीताल से लखनऊ आने का कार्यक्रम बनते ही पियूष के लिए गिर्दा का पोस्टकार्ड और बाद में फोन आ जाता था कि आ रहा हूं। गिर्दा की लखनऊ यात्रा के दिनों और शामों में जब हम अखबार के अपने काम में व्यस्त होते तो दोनों रिक्शे में बैठकर कभी अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क या जीपीओ पार्क या किसी धर्मशाला के कमरे में दोपहर से देर रात तक बात करते रहते थे। बातचीत के केंद्र में संगीत और मध्य में सुरा के गिलास होते। पियूष गिर्दा से कुमाऊंनी लोक संगीत की बारीकियां समझने का प्रयत्न करते तो गिर्दा अपनी अबूझ-सी प्रयोगशीलता उन्हें समझाने में जूझते दिखते थे। हम सबकी तरह पियूष गिर्दा से सम्मोहित रहते और गिर्दा बाद में शिकायत करते थे कि लखनऊ वालों को पियूष का बहुत बढ़िया उपयोग करना चाहिए। सचमुच, पियूष की प्रतिभा का बेहतर उपयोग नहीं ही हो पाया। उनके जाने के बाद यह अनुभूति गहरी होकर परेशान करने लगी है। ऐसी कितनी ही प्रतिभाओं के योगदान से समाज वंचित होता रहता है और पश्चाताप ही हमारे साथ रह जाता है।     

पिछले कोई डेढ़ दशक से जयपुरिया स्कूल, गोमतीनगर, लखनऊ ने ड्रामा डायरेक्टरके रूप में अनुबंधित करके उनकी प्रतिभा का सदुपयोग करना शुरू किया। बच्चों को समझाना-सिखाना उनकी पसंद का काम था और उन्होंने बहुत रुचि से विद्यार्थियों को नाट्य-प्रशिक्षण देना शुरू किया। बच्चों ने उनके निर्देशन में कई अच्छी प्रस्तुतियां दीं और प्रतियोगिताओं में पुरस्कार पाए। जयपुरिया स्कूल के साथ उनका अनुबंध अंतिम समय तक जारी रहा। इससे उनके जीवन में तनिक स्थायित्व और आर्थिक निर्भरता आई थी। महानगर रामलीला समति की वार्षिक रामलीला में भी पिछले कई वर्षों से वे कलाकारों को मांजने-संवारने का काम कर रहे थे। कई नए कलाकारों को उन्होंने तैयार किया। कैंसरग्रस्त होने के बावजूद बीते नवरात्र में भी उन्होंने इस रामलीला की तालीम का संचालन किया था। तब गले में उभरी गांठ इतनी खतरनाक नहीं लगती थी। डॉक्टरों ने भी कैंसर के ठीक हो जाने का विश्वास जताया था। दिसम्बर के पहले हफ्ते तक वे ठीक थे। दस दिसम्बर के बाद अचानक तबीयत बिगड़ने लगी। रक्त कोशिकाओं ने जवाब देना शुरू कर दिया था। 16 दिसम्बर की सुबह उनका जीवन एक कहानी भर रह गया।

अब पियूष नहीं हैं तो उनके न होने का शून्य रह-रहकर साल रहा है।

   - न जो, 17 दिसम्बर, 2023, चित्र- 'पुंतुरि में पियूष, फोटो- सुरेंद्र श्रीवास्तव            

             

Tuesday, October 31, 2023

पृथ्वी पर 15 वर्ष लम्बी वह ठंडी काली रात!

 

हमारी पृथ्वी से डायनासोर समेत कई जीव एवं वनस्पति प्रजातियों के लुप्त होने का कारण नए शोध और अध्ययन से अब और भी स्पष्ट हुआ है। इसके अनुसार करीब छह करोड़ साठ लाख वर्ष पहले एक विशाल उल्कापिण्ड पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भयानक थी कि धूल के घने बादलों ने पृथ्वी को पूरी तरह ढक लिया था। धूल की यह गाढ़ी परत पृथ्वी के ऊपर करीब पंद्रह वर्ष तक बनी रही। इस परत को सूर्य की किरणें नहीं भेद सकीं। धरती पर अंधेरा छा गया और लगातार गिरते तापमान के कारण सुदीर्घ शीतकाल छाया रहा। शुरुआती 620 दिन तो धुप्प अंधेरा और भीषण शीत रहा।धूप न मिलने से पेड़-पौधों के लिए आवश्यक फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया नहीं हो सकी और वे मरते गए। फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया में वनस्पतियां धूप की सहायता से पानी और कार्बन डाइऑक्साइड को तोड़कर अपना भोजन बनाती हैं। यह प्रक्रिया दो वर्ष तक तो पूरी तरह ठप हो गई थी। इस प्रकार एक विनाशलीला शुरू हुई जिसमें पृथ्वी पर उस समय उपलब्ध 75 फीसदी जीव एवं वनस्पति प्रजातियां विलुप्त होने लगीं थीं। इन्हीं में डायनासोर जैसे विशालकाय प्राणी भी थे जो पूरी तरह विलुप्त हो गए। इस विनाशलीला में जहां कई प्रजातियां सदा के लिए विलुप्त हो गईं, वहीं पृथ्वी पर स्तनपायी जीवों का विकास भी प्रारम्भ हुआ था। 

यह नया शोध-अध्ययन बेल्जियम की रॉयल ऑब्जर्वेटरी में किया गया। इसके प्रमुख अध्ययनकर्ता विज्ञानी सेम बर्क सेनेल हैं। ब्रिटेन, अमेरिका और नीदरलैण्ड्स के विज्ञानी भी इस अध्ययन में शामिल थे। उनके अध्ययन के निष्कर्ष बीते सोमवार को प्रतिष्ठित एवं विश्वसनीय विज्ञान पत्रिका 'नेचर जियोसाइंस' में प्रकाशित हुए हैं।

विज्ञानी करीब चालीस साल पहले से इस सम्भावना पर शोध कर रहे थे कि किसी विशाल उल्कापिण्ड के पृथ्वी से टकराव से जो पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हुआ उसी के कारण डायनासोर और अन्य प्रजातियां समाप्त हुई होंगी। अब इसकी पुष्टि हो गई है। यह भी स्पष्ट हुआ है कि पृथ्वी पर आया शीतकाल या हिमयुग कितना लम्बा चला था। 

पहले के अध्ययन यह पता लगा चुके थे कि एक विशाल उल्कापिण्ड पृथ्वी के साथ मैक्सिको के युकेंटन प्रायद्वीप के पास टकराया था। एक विशाल गड्ढा बना जो चिक्सुलुब कहलाता है और वर्तमान में उस प्रायद्वीप के नीचे कहीं दफ्न है। डॉ सेनेल ने बताया कि टक्कर के बाद धूल का जो घना बादल पृथ्वी पर छाया रहा उसमें सिलिका, कार्बन और सल्फर बड़ी मात्रा में थे। ये कण अत्यंत महीन थे, करीब एक माइक्रोमीटर आकार के। इसे ऐसे समझें- मनुष्य के सिर के एक बाल की मोटाई 20 से 200 माइक्रोमीटर तक होती है। इतनी बारीक धूल की घनी पर्त बरसों बरस पृथ्वी पर छाई रही थी। टक्कर के बाद के शुरुआती आठ वर्ष अत्यंत कठिन थे।औसत वैश्विक तापमान में 25 डिग्री सेंटीग्रेड की गिरावट आ गई थी। उस समय धरती पर तापमान शून्य से तीन से सात डिग्री नीचे रहा था। सिलिकेट मिश्रित धूल की घनी पर्त के नीचे फोटोसिंथेसिस बिल्कुल नहीं हो पाती। इस घातक धूल से पूरी तरह उबरने में अनेक वर्ष लगे। टक्कर से पहले का तापमान पाने में तो पृथ्वी को करीब बीस वर्ष लगे। 

(The Telegraph, 01/11/2023 में प्रकाशित रिपोर्ट पर आधारित। चित्र नेट से।)


Wednesday, October 25, 2023

आज के गांव-गिराम-किसान की प्रामाणिक कथा - अगम बहै दरियाव

शिवमूर्ति जी का नया उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' पढ़कर जितना उद्विग्न हूं उतना ही प्रसन्न भी। 

उद्विग्न इसलिए हूं कि भारतीय ग्रामीण-कस्बाई समाज, हमारी प्रशासनिक व्यवस्था, जातीय शिकंजे और राजनीति के विद्रूप का जैसा सच्चा एवं निर्मम चित्रण उन्होंने किया है, वह देखा-भाला व सुना-सुनाया होकर भी 'स्वतंत्रता के अमृतकाल' में इतनी तीव्रता से भेदता है कि आह भी नहीं निकल पाती। प्रसन्नता इसलिए कि हिंदी में गांव और किसान और दलित-पिछड़ी जातियों के संघर्षों के प्रामाणिक लेखन की बड़ी कमी को यह उपन्यास पूरा करता है। शिवमूर्ति जी को बहुत-बहुत बधाई। वैसे, उपन्यास पढ़ना समाप्त करने के तत्काल बाद उन्हें फोन करके बधाई देने से अपने को रोक न सका था। 

'अगम बहै दरियाव' पढ़ना शुरू करने के साथ ही 'गोदान', 'मैला आँचल', 'राग दरबारी', 'धरती धन न अपना', 'कब तक पुकारूं, और 'बेदखल' व 'पाहीघर' जैसे उपन्यास साथ चलने लगते हैं। यह इस उपन्यास की कमजोरी नहीं, खूबी है कि यह उन सबके मुद्दों को नए संदर्भों एवं वर्तमान स्थितियों में उठाता है और उनसे आगे निकल जाता है। 'गोदान' 1935 में आया था अर्थात स्वतंत्रता से पूर्व और यहां उल्लिखित अन्य उपन्यास  स्वतंत्रता के पश्चात लेकिन, अगर मैं गलत नहीं हूं तो, 1970-75 से पहले लिखे गए थे। उसके बाद भारतीय समाज में बहुत बड़ा बदलाव आ गया है। राजनीति से लेकर आर्थिक नीतियों तक में भारी उलट-पुलट हो गई। विकास कहते हैं जिसे, वह भी अपनी अन्तर्निहित बर्बादियों के साथ खूब नमूदार हुआ है। गांव और खेती-किसानी भी बदले हैं लेकिन किसानों के शोषण, उपेक्षाओं और अनेकानेक संकटों का शिकंजा कतई ढीला नहीं हुआ है। खेती घाटे का पेशा ही नहीं है, अगर सीमांत या लघु किसान हैं तो पूरी मरन है। 'अगम बहै दरियाव' 1970 के दशक से लेकर आज तक के उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज की प्रामाणिक कथा है, जिसके केंद्र में आम किसान हैं जो अपने कष्ट और संकट सीधे होरी और गोबर के समय विरासत में पाए चले आ रहे हैं। 

1980-90 के दशकों के बाद भारतीय समाज में विदेशी पूंजी आई, बाजार विकराल हुए और दलित पिछड़े समाज में अपने शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध राजनैतिक-सामाजिक चेतना भी आई। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ों को सभी क्षेत्रों में ताकत मिली। दलित राजनैतिक चेतना के विकास ने दलित जातियों को आवाज उठाने की हिम्मत दी और सत्ता का स्वाद चखाया, हालांकि यह परिवर्तन भी नव-सामंतवाद और ब्राह्मणवाद का शिकार होता गया। किसान के हिस्से क्या आया? एम एस पी का दिखावा, बीजों व उर्वरकों की आड़ में ठगी, ऋण का जाल और ऋण-माफी की राजनैतिक चालें। समर्थन मूल्य पर अनाजों की ठीक-ठाक खरीद की भी व्यवस्था 'अमृत काल' तक पहुंच चुकी आज़ादी नहीं दिला सकी। देश भर में पिछले दशकों में किसान आत्महत्याओं का भयावह आंकड़ा क्या बताता है? 'अगम बहै दरियाव' में एक पांड़े जी हैं, बैंक वाले जिन्हें सपने दिखाकर ट्रैक्टर के लिए ऋण दिलवाते हैं और अपने खेतों की नीलामी से लेकर क्या-क्या नरक नहीं झेलकर पांड़े जी अंतत: अपने प्यारे महुए के पेड़ की डाल से धोती का फंदा कसकर लटक जाते हैं।  ये पांड़े जी तो बाभन थे लेकिन थे तो किसान ही! और जो बाभन नहीं हैं और कहने  भर को किसान हैं लेकिन मजूरी से किसी तरह नमक-रोटी खा पाते हैं, उनका तो जीवन हर ओर से घुट रहा है। ठाकुर छत्रधारी की साजिशों के चलते छोटी-छोटी जोत वाले किसानों के एकाध खेत भी उनके कब्जे में जा रहे हैं और एक संतोखी हैं जो छत्रधारी के खास थे लेकिन उसने उनका भी खेत हड़प लिया तो वे ठान लेते हैं मर जाएंगे लेकिन अदालत से न्याय पाकर छत्रधारी से अपना खेत छुड़वाएंगे। छोटी से लेकर बड़ी अदालत तक संतोखी के पक्ष में फैसला देती हैं और 28 साल बद वह दिन आता है जब प्रशासन खेत में कब्जा भी दिला देता है लेकिन संतोखी को तो कब्जा नहीं मिलता क्योंकि छत्रधारी के बंदूकची खेती करने दें तब तो! थाना ही नहीं, पूरा प्रशासन और समाज का ऊपरी तबका छत्रधारी के साथ है। अदालत की भी नहीं मानी जाने पर संतोखी की शिकायत पर थाना प्रभारी कहते हैं कि यह बंदूक सबसे बड़ी अदालत है। आखिर बत्तीस साल बाद खेत संतोखी के कब्जे में तब आता है जब जंगू 'डकैत' छत्रधारी को धमकी देता है। और, यह जंगू कौन है? वह भी छत्रधारी का सताया-उजाड़ा दीन-हीन दलित है जिसने फूलन की राह पर चलकर गरीबों-शोषितों को न्याय दिलाने की ठानी है लेकिन जो राजपूतों-ब्राह्मणों की सरकार के निशाने पर है। मान्यवर और बहनजी के राजनैतिक पटल पर आगमन के बाद दलित समाज में जो उत्साह पैदा होता है,और जो एकता दिखती है और उनके सत्ता पाने के बाद जो हौसले बुलंद होते हैं और उसके विरुद्ध जो विष-वमन होता है, उस सबका बेहतरीन चित्रण शिवमूर्ति करते हैं और फिर यह भी कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश' है वाले बेमेल राजनैतिक गठबंधन के बाद और टिकट व जन्मदिनों के बहाने भारी वसूली अभियानों के कारण किस तरह दलित जनता का मोहभंग होता है। तूफानी जैसा चरित्र इस उत्थान-पतन का जीवंत गवाह है।

'अगम बहै दरियाव' विशाल कलेवर का उपन्यास है, 586 पेजों में बहुत सारे चरित्र हैं और उतनी ही कथाएं जो किसी न किसी सूत्र से अंतर्गुम्फित हैं। एक गांव के बहाने यह पूरा भारत है, कम से उत्तर भारत का आज का ग्रामीण समाज तो यह है ही। विशाल आकार और व्यापक फलक वाले इस उपन्यास की उपयोगिता इसे पढ़कर ही जानी जा सकती है और इसे खूब पढ़ा जाना चाहिए।

शिवमूर्ति की ग्रामीण जन-जीवन पर अद्भुत पकड़ है। इस उपन्यास के पात्र केवल ग्रामीण जन ही नहीं हैं, यहां पेड़-पौधे, फसलें, पशु-पक्षी, हवा-पानी भी पात्रों की तरह आते हैं और उनका व्यवहार मन को छू जाता है। एक-दो प्रसंगों का उल्लेख अवश्य करूंगा। भूसी चौधरी भेड़ें चरा रहे हैं और एक पेड़ के नीचे कमरी बिछाकर बैठे हैं। अब देखिए- "भेड़ें दूर तक चर रही हैं। दो भैंस थोड़ी दूर पर खड़ी हैं। एक भैंस के सींग पर बैठा कौआ उसकी बरौनियों से किलनी बीन निकाल रहा है। भैंस ने मुदित होकर पलकों को हल्के से झपका लिया है। आनंद से उसकी पूंछ तनिक उठ गई है,,, कौआ उठकर दूसरी भैंस के सींग पर बैठ गया। पहली भैंस थूथन उठाकर कौए के पास ले गई और नाक से दो बार सूं-सूं किया। यानी फिर मेरे पास आ जा। इस पर दूसरी भैंस ने गुस्से की मुद्रा बनाई और कान खड़े कर दिए, ताकि कौआ वापस न जाकर कान की किलनियां निकाले।" इसी प्रसंग आगे माठा बाबा भूसी के पास आते हैं। उन्हें एक बार भूसी के गामा नाम के सिंघाड़ा भेड़े ने ठोकर मार-मार कर गिरा लिया था लेकिन अब गामा बैकुंठ सिधार गया है। उसकी चर्चा आगे बढ़कर भेड़ों की रखवाली करते कुत्तों और घात में बैठे भेड़ियों तक जा पहुंचती है, जो अब खत्म हो गए हैं। भूसी बताते हैं कि एक बार खैरा (भेड़िया) उनके भेड़ के बच्चे को मुंह में दबा ले गया था और उन्होंने दौड़कर उसे छुड़ा लिया लेकिन... "मैंने पास जाकर देखा। बच्चे के गले पर दांत धंस गए थे। उसे मर ही जाना था। मैंने सोचा कि इसने इतना जोखिम उठाकर अकेले दम शिकार किया है। इसके मुंह का कौर छीनना ठीक नहीं। बच्चे को छोड़कर लौट आया।... भूसी थोड़ी देर तक खैरा की याद में खोए रहे। फिर बोले- "सब खतम हो गए। वे होते तो दुनिया और सुंदर होती।" 

सृष्टि के सह-जीवन के सम्मान के इस दर्शन की हमारे कथा-साहित्य में घोर अनुपस्थिति है लेकिन शिवमूर्ति के यहां यह अपने सुन्दर रूप में है। भेड़िए, बाघ, सांप, आदि मनुष्य के दुश्मन घोषित हैं और हमारे मुहावरों ने इस दृष्टि को पाला-पोषा है किंतु यह सृष्टि उनके होने से भी होती है और सुंदर होती है। 'अगम बहै दरियाव' में ऐसे कई प्रसंग हैं। एक और प्रसंग है जब पहलवान के बछड़े को कसाई खरीदने आया है। वे सोचते हैं कोई  किसान ले जाता तो बैल बनाकर खेत जोतता लेकिन अब तो खूंटे से बैल गायब ही होते जा रहे हैं। वे बेचना नहीं चाहते लेकिन मजबूरी आ पड़ी है। कसाई पगहा पकड़कर बछड़े को ले नहीं जा पा रहा। गाय अलग रंभा रही है। वह समझ रही है कि जो उसके बछड़े को ले जा रहा है, वह कम से कम किसान नहीं है। जानवर यह खूब समझते हैं, निगाह पहचान लेते हैं। तो, बछड़ा जोर लगाकर कसाई को पटककर पगहा छुड़ाकर लौट आया है। कसाई मिट्टी में सना हुआ आकर पहलवान से कहता है- "आप उसका पगहा खुद मेरे हाथ में पकड़ाइए और दूर तक हंकवा दीजिए। इससे जानवर जान जाएगा कि मालिक ने अपनी मर्जी से उसे सौंपा है। तब उसका जोर अपने आप आधा रह जाएगा। तभी उसे ले जा पाऊंगा।"

अवध क्षेत्र की कथा-भूमि वाले इस उपन्यास में शिवमूर्ति ने अवध की बोली-बानी और लुप्त होते जा रहे शब्दों का अत्यंत सुंदर-मोहक उपयोग किया है। अवधी गीतों, कहावतों और लोकगीतों का उपयोग कथा रस को आत्मीय तो बनाता ही है, जिसे कहते हैं 'चार चांद लगा देना' वैसा भी करता है। 

हिंदी समाज की कृपणता के बावजूद उम्मीद है कि शिवमूर्ति जी का यह उपन्यास चर्चित होगा और बहुत दूर तक अपनी छाप छोड़ेगा।

-न जो, 25 अक्टूबर, 2023

 


Wednesday, October 18, 2023

औरतों को अब कोई दुख नहीं हैं न!

'बनास जन' पत्रिका के माध्यम से पल्लव उल्लेखनीय और दस्तावेजी काम कर रहे हैं। दो मास पहले हरिशंकर परसाई पर उन्होंने पठनीय-संग्रहणीय अंक निकाला था। पहले भी वे कई रचनाकारों पर ऐसे अंक निकाल चुके हैं। 'बनास जन' का ताज़ा अंक (64) यूं तो 'सामान्य अंक' है लेकिन उसमें कुछ महत्त्वपूर्ण आलेख हैं। रांघेय राघव के शताब्दी वर्ष में वेंकटेश कुमार का लेख सप्रमाण बताता है कि विलक्षण प्रतिभा के धनी इस रचनाकार की साहित्यिकारों-समीक्षकों ने किस तरह उपेक्षा की। विद्यापति की चर्चित 'अश्लील दृष्टि' के विपरीत स्त्रियों की साहसिक और स्वतंत्र प्रेम-दृष्टि पर कमलानंद झा, सूरदास, बल्लभाचार्य और बल्लभ सम्प्रदाय पर माधव हाड़ा और प्रेमचंद की उपस्थिति पर उमाशंकर चौधरी के लेख ध्यान खींचते हैं लेकिन अंक अभी मिला ही है और इन्हें पढ़ा जाना है। 

'बनास जन' के इस अंक में जिन दो लम्बी कविताओं ने तत्काल ध्यान आकृष्ट किया और पढ़वा ले गईं, वे हैं आशीष त्रिपाठी की 'गहनों की दुकान पर' और प्रभात की 'नीलम मर जाएगी तो इण्डिया खाली थोड़े हो जाएगा'। अंक खोलते ही दोनों कविताओं के शीर्षकों ने पकड़ा और फिर उनकी विषय वस्तु ने। इस तात्कालिक टिप्पणी का आशय फिलहाल इन कविताओं की तनिक चर्चा करना है। 

दोनों लम्बी कविताओं का केंद्र हमारे समाज की आम लड़की या कहिए कि स्त्रियां हैं। 'गहनों की दुकान पर' में आशीष त्रिपाठी गहनों और खरीदारों से लकदक भरे एक विशाल शो रूम में अपनी बारी की प्रतीक्षा में सकुचाई बैठी मां-बेटी का बयान करते हैं, जो अपने को वहां बिल्कुल अवांछित पाते हैं लेकिन चूंकि इस बेटी की शादी तय हुई है और लड़के वालों की ओर से ठीक-ठाक मांग आई है, इसलिए अपनी औकात के बाहर के इस शोरूम से खरीदारी करना उनकी विवशता है। शोरूम में प्रतीक्षारत मां-बेटी प्रकटत: चुप बैठी हुई हैं लेकिन भीतर-भीतर अपने से संवादरत हैं और उसी से हमारे समाज में महिलाओं-लड़कियों की स्थिति, निम्न मध्यम्वर्गीय परिवारों की विवशताएं, प्रेम की आकांक्षा एवं दुविधाएं, समाज के हालात और मानव मन के अंतर्द्वंद्व खुलते हैं- "उसका ध्यान गया अपनी साड़ी की ओर/ दुकान में खरीदारी करती/ ज़्यादातर औरतों की तुलना में/ वह कितनी मामूली थी/ और उसकी सस्ती चप्पल में तो/ जैसे झलकती थी उसकी पूरी बेचारगी/ उसकी बेटी का सलवार सूट भी कितना औसत-सा था...।"  इस कविता में जो बेटी है, जिसका ब्याह तय हुआ है, उसमें बार-बार की दिखाई, होने वाले ससुरालियों की पड़ताल और दहेज की मांगों के विरुद्ध प्रतिरोधी चेतना के संकेत तो मिलते हैं लेकिन परिवार के हालात शायद उसको साहस नहीं देते और वह सब करती जा रही है जो कहा जा रहा है। उसके भीतर प्रेम की आंकाक्षा भी फड़फड़ाती दिखती है, जो विश्वविद्यालय के दिनों में एक लड़के के यह कहने पर कि तुम बिना गहनों के ही सुंदर लगती हो, मुग्ध तो होती है लेकिन कुछ पूछने या कहने का साहस नहीं कर पाती। हाल के दशकों में स्त्रियों में आई चेतना और प्रतिरोध के उनके तीखे होते स्वरों के बावजूद हमारे शहरी-कस्बाई-ग्रामीण समाज में ऐसी बेटियों की अभी बहुत बड़ी संख्या है जिनके सपने स्वयं अपने ही कदमों से कुचल दिए जाने के लिए ही कुलबुलाते हैं। यह कविता इसी समाज का मार्मिक आख्यान है।

प्रभात की कविता में नीलम, जो एक बेटे की मां भी है, मायके में परित्यक्ता का जीवन जी रही है और मां से लेकर रिश्तेदारों तक की आंखों में बहुत खटक रही है। उसका दोष मात्र इतना है कि ससुराल में सास, जेठ और पति द्वारा दासी की तरह सताई-पीटी जाती हुई उसने एक बार मायके आते हुए मात्र इतना कह दिया था, पति नाम के पुरुष से कि 'लेने आओगे तो आऊंगी' और वह कभी नहीं आया। उसका अन्यत्र ब्याह कर दिया गया। इसलिए नीलम मायके में ससुराल से भी अधिक प्रताड़ना झेलती को विवश है, इतनी कि अपनी दुसह वेदना के कारण पागल तक ठहरा दी गई और एक दिन मर गई लेकिन ऐसी स्त्रियां मरती कहां हैं! वे हर जगह पाई जाती हैं- "कुछ का कहना है वह मरी नहीं/ ना ही मरेगी कभी/ और मरी भी कभी तो/मरेगी तब मरेगी/ फिलहाल उसके मरने की कोई आस नहीं/ वह दिखती रहेगी पृथ्वी पर जहां-तहां/ आस पड़ोस में घर में अखबार में।"  नीलम के माध्यम से कवि 'औरतों के दुखों' के बारे में लिखे जाने को, विशेष रूप से कविताओं को प्रश्नांकित करता भी दिखता है- "... कवि बनना ठीक रहेगा/ जब मैं कवि बन जाऊंगी/ औरतओं के दुखों के बारे में/ ऐसा-ऐसा लिखूंगी/ कि सब सोच में पड़ जाएंगे/ औअर्तों को कभी दुख न दे पाएंगे/ .... चुपचाप वह घर के बाहर जाकर खड़ी हो जाती/ हरेक से पूछती/ अब औरतों को कोई दुख नहीं न?/ सब जानने लग गए थे उसे मुहल्ले में/ हंसते हुए कहते- 'नहीं, कोई दुख नहीं है'/ 'पता है यह कैसे हुआ/ क्योंकि मैंने औरतों के दुखों के बारे में लिखा'।"

दोनों कविताओं की विषय-वस्तु अथवा काव्य-वस्तु नई नहीं है। काव्य-शिल्प में वे प्रतीकों, बिम्बों और सांकेतिकता की अपेक्षा कहानियों जैसा वर्णनात्मक वितान लिए हुए हैं लेकिन इनमें काव्य-संवेदना अत्यंत गहन है, गहरे तक छू जाती हैं, झिझोड़ती हैं और पश्न पूछती हैं। 

'बनास जन' के इस अंक के बारे में फिलहाल इतना ही।

-न जो, 19 अक्टूबर, 2023

Friday, October 13, 2023

सपने हैं, सपनों का क्या!

 

साल-दो साल पहले जब पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड) के नैनी-सैनी हवाई पट्टी से विमान सेवा शुरू होने की खबर पढ़ी थी तो दिल-दिमाग स्मृतियों के झंझावात में फँस गया था. (कुछ दिन यह सेवा चली और फिर ठप हो गई थी) इस सुंदर पर्वतीय घाटी में छोटे विमानों के उड़ने-उतरने लायक यह हवाई पट्टी बने करीब पच्चीस वर्ष हो गये. वह शायद 1998 या 99 का साल था जब मैं उस पर खड़ा था. पहाड़ों की गोद में बनी हवाई पट्टी देखने की उत्कंठा थी. देख कर निराशा ही हुई. आस-पास चर रहे ग्रामीणों के जानवर हवाई पट्टी से आ-जा रहे थे. चारों ओर लगी तार-बाड़ उन्हें रोकने में कामयाब नहीं थी. 

तब तक उत्तराखण्ड राज्य नहीं बना था. पर्वतीय विकास विभाग के बड़े बजट से, जिसमें केन्द्र सरकार का भी अच्छा योगदान होता था, हवाई पट्टी बना कर उत्तर प्रदेश सरकार उसे भूल चुकी थी. सन 2000 में उत्तराखण्ड अलग राज्य बन गया. राज्य बनने के 18 वर्षों में वहाँ कांग्रेस और भाजपा की सरकारें अदल-बदल कर आती रहीं. कभी-कभार उन्हें इस हवाई-पट्टी की याद आती थी. कभी उसकी मरम्मत और कभी उद्घाटन की औपचारिकता के साथ शीघ्र विमान सेवा शुरू करने की घोषणाएँ भी हुईं जिन्हें जल्दी ही भुला दिया जाता रहा. बहरहाल, हवाई पट्टी बनने के दो दशक से ज्यादा समय बाद नैनी-सैनी से हवाई सेवा शुरू हो गयी.

इस खबर से मन में झंझावात उठने का सम्बंध बीस साल पहले उस हवाई पट्टी पर खड़े-खड़े देखे गये सपने से है. मैं सोचने लगा था कि कंक्रीट के जंगल बन गये महानगरों में तमाम शारीरिक-मानसिक व्यथाएँ झेलते रहने की बजाय हम अपने गाँव ही में रहते. गाँव अच्छी सड़कों से जुड़े होते. हम सुबह अपनी छोटी कार से या बस सेवा से इस हवाई अड्डे तक आते. हेलीकॉप्टर या विमान से बड़े शहरों की अपनी नौकरी में जाते और शाम को गाँव वापस लौट आते. गाँव का शुद्ध हवा-पानी मिलता. अपने खेतों का कीटनाशक-रसायन-विहीन अन्न और शाक-भाजी खाते. सेहत ठीक रहती और परिवार के साथ जीवन बीतता. शहर भी जनसंख्या के दवाब में चरमारने से बचे रहते. पहाड़ी शिखरों तक बढ़िया नेटवर्क होता. हमारे बच्चे इस तेज नेटवर्क के सहारे दुनिया भर से जुड़े होते. फुर्सत में मैं भी अखरोट या बांज वृक्ष के नीचे बैठ कर लैपटॉप पर कहानी या लेख लिख लेता और सम्पादकों को ई-मेल कर देता.... साथ आये स्थानीय मित्रों ने वापस चलने का आग्रह करते हुए उस दिन मेरा स्वप्न भंग कर दिया था.

इतने वर्षों में वह स्वप्न मैं कभी भूला नहीं. लखनऊ की चौतरफा अराजकता, घातक प्रदूषण, अनियंत्रित यातायात, मिलावटी खान-पान और  पत्थर होते आपसी रिश्तों से त्रस्त मन अक्सर सोचता है कि आखिर मेरा सपना साकार क्यों नहीं हो सकता था. तरक्की का वही रास्ता हमने क्यों चुना जिसमें शहर विकराल होते गये और गाँवों को लीलते गये? तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं से गाँवों को विकसित करने की राह क्यों नहीं चुनी गयी? प्रकृति को बचाते हुए उसकी गोद में सुखपूर्ण मानव जीवन क्यों सम्भव नहीं था? गाँव में रहते हुए हम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और टेक्नॉलॉजी की सुविधाएँ क्यों नहीं पा सके? क्यों भीख माँगने के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ता है? क्यों ऐसा हो गया कि घर के भीतर एयर-प्यूरीफायर लगाकर फेफड़े बचाने पड़ रहे हैं? खूबसूरत सपने के बाद हकीकत देख कर मन व्यथा से भर उठता है.

जब पिथौरागढ़ से विमान सेवा शुरू होने का समाचार पढ़ा तो व्यथा और गहरी हो गयी थी. कुछ वर्ष पहले मैं अपने छोटे बेटे के आग्रह पर उसे अपना गाँव दिखाने ले गया था. पिथौरागढ़ जिले का वह हरा-भरा खूबसूरत दूरस्थ गाँव हमसे कबके छूट गया. मोटर रोड से साढ़े तीन किमी का पहाड़ी रास्ता पार कर जब हम अपनेगाँव पहुँचे तो पलायन से उजड़े वीरान या खण्डहर मकानों ने हमसे लाख उलाहने किये. कभी चहल-पहल से ग़ूँजता गाँव मात्र सात व्यक्तियों के रहने से किसी तरह जीवित मिला. इन में एक साठ वर्ष से ऊपर और बाकी सत्तर-अस्सी साल वाले हैं. सीढ़ीनुमा खेतों में फसलें नहीं, कंटीले झाड़-झंखाड़ उगे थे. जंगल फैलते-फैलते मकानों तक बढ़ आये हैं. गाँव के सारे कुत्ते बाघों के पेट में चले गये. बाघों के डर से गाय-भैंस धूप में भी गोठ से बाहर नहीं बांधे जाते. बंदरों और जंगली सुअरों के आतंक से क्यारियों में साग-भाजी उगाना भी बंद हो गया. चार मील दूर राशन की दुकान से गल्ला ढोया जाता है.             

हमने बहुत धीरे से अपने मकान का बंद दरवाजा धकेला था. मकड़ियों के जालों से भरा खोलीका रास्ता पार कर हम भीतर दाखिल हुए. घर तो वह रहा नहीं लेकिन मकान की दीवारें, बल्लियाँ और छत के पाथर ठीक-ठाक मिले. भीतर के कमरे में जहाँ हमारे कुलदेवता का ठीया था, वहाँ स्थापित मेरे हाथ की नाप की वेदी, जो मेरे यज्ञोपवीत के समय बनायी गयी थी, मौजूद थी. क्या देवता अब भी वहाँ होंगे? पास में ही वह थूमी तो साबूत है जिस पर बंधी रस्सी को नचा-नचा कर ईजा नय्यीमें दही फेंट कर मक्खन बिलोती थी. हथचक्की पता नहीं कहाँ गयी लेकिन उसकी घर्र-घर्रमेरे कानों में गूँजने लगी थी. उसी के साथ बचपन, किशोरावस्था और जवानी के दिनों की सैकड़ों ध्वनियाँ भी...

“तुम्हारे मकान में नल लगाने वाले मजदूर रहे. बिजली वाले भी. लीपते थे, चूल्हा जलाते थे. उस धुएँ से मकान बचा है.एक बहन ने बताया तो मैं वर्तमान में लौटा. अच्छा, अब गाँव में बिजली आ गयी है, जब उजाला करने वाले नहीं रहे. घरों तक नल भी आ गये. आधे-अधूरे शौचालय बने दिखे. मोबाइल का सिग्नल है. यह विकासकी निशानियाँ हैं. गाँव का उजड़ना किस विकास की निशानी है?

लौटने के बाद से गाँव अक्सर मेरे सपनों में आता है. विमान सेवा शुरू होने के बाद सपने बढ़ गये हैं और दर्द भी. जानता हूँ, उन विमानों से पर्यटक, प्रवासी तथा अधिकारी उतरेंगे और दौराकरके राजधानियों को लौट जाएंगे. उस हवाई पट्टी पर उतरने वालों का गाँवों से कोई रिश्ता न होगा. समय के साथ विमानों की आवा-जाही बढ़ेगी. उधर, गाँव में हमारा मकान एक दिन चुपचाप ढह जाएगा.

 

   

  

Thursday, October 12, 2023

बारिश में पहाड़

 

पहाड़ में हूं—उत्तराखण्ड के रामगढ़ में। देखते-देखते आषाढ़ बीत गया
, सावन लगा है। रोज सुबह बारिश हो जा रही है। टिन की ढलवां छत पर बूंदों का द्रुत-मंद्र संगीत अलार्म का काम करता है और नींद एक रोमांच में बदल जाती है। हलकी-बारीक बूंदाबादी टिन को छेड़े बिना उसे भिगोती रहती है और हमें छत से टपकती धार से ही उसके आने का पता चलता है लेकिन जैसे ही बारिश की बूंदें अपना आकार और वेग बढ़ाती हैं, छत नगाड़े की तरह गूंजने लगती है। मुझे कई साल पहले लखनऊ महोत्सव में सुना उस्ताद जाकिर हुसेन का तबला वादन स्मरण हो आता है, जब उन्होंने तबले पर अपनी अंगुलियों के जादू से बारिश का ऐसा ही नाद उत्पन्न कर दिया था। ढोल सागर के अध्येता और लोक संगीत मर्मज्ञ केशव अनुरागी ढोल के पूड़े पर संटी और हथेलियों की थाप से वर्षा का अवतरण करा देते थे।

मोबाइल की स्क्रीन पांच बजा रही है। पिछले चार दिन से लगभग इसी समय बारिश हमें जगाने आ जा रही है। दिन कभी सूखा-धुपैला, कभी बादलों ढका और कभी वर्षा-भरा रहता है। आसमान में बादलों के रूपाकार निरंतर बदलते रहते हैं। बीच-बीच में धूप खिल जाती है, चमकदार और पारदर्शी धूप, जिससे खेलने के लिए बादल का कोई आवारा टुकड़ा अचानक प्रकट हो जाता है और हवा की गति के साथ नृत्य करने लगता है। ऊंचे-नीचे पहाड़ों और गहरी घाटियों में पसरी धुली, साफ हरियाली के बीच नृत्य सम्राट उदयशंकर के छायानृत्य की भांति आकर्षक प्रस्तुतियां दिखाई देने लगती हैं--वह उछला हरिण का शावक, वह दबोचा बाघ ने चीतल, उतर आया परियों का झुण्ड अपने पंख उड़ाते-समेटते हुए, लंकापति रावण ने हर ली है सीता पंचवटी से और वायुगामी रथ पर बैठाकर भागा जा रहा है कि अचानक जटायु भिड़ गया है दसकंधर से.... कितनी ही छाया-छवियां, रूपाकार पल-पल बनते-मिटते। अचानक धूप अंतर्धान हो जाती है और छाया-नृत्य भी। आकाश फिर बादलों की घनी परतों से ढक गया है। काले-भूरे-सफेद-चितकबरे बादल। वे चुपचाप मोर्चेबंदी कर रहे हैं, कोई गर्जन-तर्जन नहीं। लो, बरसने भी लग गए। भागो भीतर।

हमारे कमरे (होम स्टे) की खूब बड़ी शीशेदार खिड़की सोच-समझकर बनवाई गई लगती है और छोटी-सी बालकनी भी, जहां से सामने के पहाड़ और नीचे तक घाटी का विहंगम दृश्य सामने होता है। यहां-वहां उड़ते बादल अब सावधान की मुद्रा में तैनात होकर बरसने लगे हैं। फौज़ का सा अनुशासन, किसी टुकड़े को आवारा फिरने की अनुमति नहीं। एक ओर काले हैं, दूसरी तरफ भूरे। काला बादल जी डरवावै, भूरा बादल पानी लावै!' नहीं, यहां दोनों पानी ला रहे हैं, डरा कोई नहीं रहा। जब वे गुस्से में होते हैं तो डराते हैं। फिलहाल वे बहुत शांति से मुहब्बत की तरह बरस रहे हैं। कुछ देर पहले तक चारों ओर उड़ रहा कोहरा बारिश में कहीं छुप गया है। उसकी जगह पानी की बौछारों के झीने-पारदर्शी आवरण ने पहाड़ों को और खूबसूरत बना दिया है। छत पर बारिश का संगीत तड़के की राग भैरवी से भिन्न है। मेरा बचपन काले पत्थर की पतली-पतली स्लेटों से छाई गई छतों वाले मकान में बीता है। पत्थर की स्लेटों पर भी बारिश की आवाज होती थी, तीव्रता और आवेग के हिसाब से भिन्न-भिन्न। टिन की छतों पर वह अलग ही ताल में बजती है- तीव्र सप्तक में। पत्थर की छत उसे मंद्र स्वरों से ऊपर नहीं उठने देती, बूंदें चाहे जितनी बड़ी हों।

टिन की ढलवां छत से मकान के दोनों तरफ बंधारगिर रही है। बंधारको हिंदी में क्या कहूं? बारिश को भूलकर मैं  बंधारको देखने लगा हूं- छत का पानी पांच-छह सेंटीमीटर की दूरी पर मोटी-मोटी धाराओं में गिर रहा है। अचानक ही मेरे कानों में कोई बहुत परिचित आवाज गूंजने लगी- “ओ नवीन, भान-कुन बंधार में लगै दे च्यला।” सामने की पहाड़ी के खेतों या जंगल में काम कर रही इजा पुकार रही है कि नवीन बेटे, घर के बर्तन बंधार में लगा दे। “होय-होय”, मैं उत्तर देता हूं और दौड़-दौड़कर भीतर से बाल्टी, बड़े तौले, भगोने, आदि लाकर बंधार में रख देता हूं। तेज बंधार की चोट से पहले बर्तनों के तले बजते हैं, फिर पानी बजता है और जल्दी ही बर्तन भरकर छलकने लगते हैं। उनसे उछल-उछलकर बूंदें बाहर कूद रही हैं और बुलबुले बन रहे हैं। गांवों में पानी को बरतने का एक तमीज होता था। बारिश के पानी को सहेजा जाता था। बंधार से भरा पानी गाय, बैल, भैंस पीते थे। वह बर्तन, कपड़े धोने, लीपने और दूसरे कई कामों में आता था। दूर सोते से पानी ढोने की मेहनत भी बच जाती थी। यह स्मृतियां हैं। यह अतीत है। यहां रामगढ़ में जो वर्तमान है उसमें बंधार के पानी को सहेजने का कोई जतन नहीं है। विकास आने के साथ वह संस्कार निपट गया। खूब पानी बरस रहा है और गधेरों से होते हुए नीचे नदी में जा रहा है। पंद्रह दिन से रामगढ़ में हूं। यहां चारों तरफ पानी का संकट है, एक तरह से पानी की मारमारी है लेकिन बारिश का पानी व्यर्थ बहा जा रहा है। किसी ने भी बंधार में बर्तन नहीं लगाए हैं। पहले यह गांव था, तब शायद ऐसा करते होंगे। तब यहां पानी के खूब सोते होते थे- स्वच्छ-निर्मल-स्वादिष्ट जल। अब यह कस्बे से होता हुआ छोटा शहर बनता जा रहा है। चारों तरफ जमीनें बिक गईं, होटल और होम स्टे खुल गए हैं। सड़कें गांव-गांव पहुंच गईं हैं। अंधाधुंध निर्माण, पहाड़ों की छाती खोदने और कंक्रीट से पाटने में जो मलबा निकला उसका समुचित बंदोबस्त नहीं किया गया, बल्कि नीचे पहाड़ों में लुढ़का दिया गया। प्रधानमंत्री की चार धाम ऑल वेदर रोड योजना में भी यही हो रहा है और रामगढ़ में कॉटेजनिर्माणों में भी। इस मलबे ने जल के प्राकृतिक स्रोत पाट दिए या सुखा दिए। पानी की खपत खूब बढ़ गई लेकिन स्रोत सूखते गए। नतीजा यह है कि बड़े होटलों के लिए टेंकर सूखती हुई नदियों से पानी ढो रहे हैं। आम जनता दूर-दूर से ढोकर लाती है और संकट झेलती है। हर घर नलयोजना में घर-घर नल और पाइप लग रहे हैं, जल नहीं है। मृणाल (पाण्डे) जी बताती थीं कि गुड़गांव में ऐसे-ऐसे भव्य फ्लैट बने हैं कि उनमें सोने के नल लगे हैं लेकिन पानी नहीं आता। पहाड़ों को हम पानी का पर्याय कहते हैं लेकिन पहाड़ प्यासे हैं। धराधार पानी बरस रहा है लेकिन पहाड़ प्यासे हैं। अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, पौड़ी-- पहाड़ के लगभग सभी शहरों मैंने पानी का संकट देखा है। इस बरसात में तो नैनीताल में भी एक तिहाई घरों के नल करीब दस दिन तक सूख रहे। फिर भी कहीं वर्षा जल का उपयोग करने का संस्कार विकसित नहीं हो रहा, न जनता में और न सरकार में। सरकार के लिए तो रेन वाटर हार्वेस्टिंगमात्र एक नारा है। कुछेक निजी संगठनों ने अवश्य आसपास वर्षा जलसंग्रह के प्रयोग किए हैं।

अच्छा, मैं जल-कष्ट चिंतन में लग गया और बारिश बंद भी हो गई! नहाया-धोया पहाड़ कितना साफ लग रहा है! बादलों की फौज को जैसे डिस्पर्सका आदेश मिल गया हो। वे इधर-उधर बिखरने लग गए हैं। एक कोने से नीला पर्दा झांकने लगा है। वह देखिए, नीचे की घाटी से रुई के फाहों-सा कोहरा उठने लगा है, जगह-जगह से उठकर धीरे-धीरे फैल रहा है। धुले-पुछे पहाड़ों पर कोहरा लिपट रहा है, जैसे उसका बदन पोछ रहा है! शेखर जोशी कहते हैं कि पहाड़ चिलम फूंक रहे हैं। अपनी यादगार कहानियों के लिए प्रसिद्ध शेखर जोशी जी कविताएं भी सुंदर लिखते थे। उनकी एक छोटी-सी कविता है, ‘पहली वर्षा के बादशीर्षक से और क्या खूब कविता है- “भूरी मटमैली चादर ओढ़े/ बूढ़े पुरुखों से चार पहाड़/ मिलजुल बैठे ऊँघते-ऊँघते-ऊँघते/ घाटी के ओंठों से कुहरा उठता/ मन मारे, थके-हारे बेचारे/ दिन-दिन भर/ चिलम फूंकते-फूंकते-फूंकते!” सचमुच, मैं पहाड़ों को चिलम फूंकते और खूब धुआं उड़ाते देख रहा हूं। धुनी हुई रुई के सफेद फाहों-सा धुआं उड़ता चला आ रहा है, पहाड़ की चोटी की ओर, मेरी खिड़की की ओर, हर ओर। यह देखिए, मुझे छूकर कमरे में दाखिल हो गया और उधर दरवाजे से बाहर निकल गया है। उसका स्पर्श मुझे नम कर गया! ऊपर से मैं नमी अनुभव कर रहा हूं और भीतर से पूरा भीग गया हूं। इस कोहरे में नीचे बहती नदी की खुशबू है, खेतों –जंगलों में उगी वनस्पतियों का स्पर्श है इसमें, आड़ू-आलूबुखारू-खुबानी और सेब के पेड़ों की गंध लेकर आ रहा है यह। यह मैदानी शहरों की सर्दियों का स्मॉग नहीं है, दुर्गंध युक्त। इस कोहरे में प्राण वायु है। अब यह पहाड़ों से पूरी तरह लिपट गया है, किसी की छाती में पशमीने के शॉल की भाँति तो किसी पहाड़ के सिर पर टोपी की तरह बैठ गया है, दो पहाड़ियों के बीच के कटोरे में नवनीत-सा भर गया है, दो चोटियों के बीच पुल की तरह ठहर गया है। पहाड़ से गलबहियां कर चुकने के बाद अब कोहरा बादलों से मिलने चल दिया है। भूरे-काले बादलों के बीच यह दूधिया कोहरा अलग से पहचाना जा रहा है लेकिन थोड़ी ही देर में उन्हीं का हिस्सा बन गया है। बादल विनीत हो पहाड़ों पर उतर आए हैं, ऊपर-ऊपर तिर रहे हैं, लिपट रहे हैं, हवा के वेग से उसे प्यारी चपत लगा रहे हैं। नागार्जुन याद आते हैं- अमल-धवल गिरि के शिखरों पर बादल को तिरते देखा है!यहां अमल-धवल गिरि नहीं हैं, हरिताभ हैं या भूरे-धूसर किंतु नहाए-निखरे हुए। ये मेघदूत किसका संदेश लेकर भटक रहे हैं? बाबा ने कालिदास के मेघदूत को जाने दो वह कवि-कल्पित थाकहकर खारिज क्यों किया होगा, जबकि वे स्वयं दिव्य कैलाश-मानसरोवर के समीप खड़े होकर महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़तेदेख रहे थे!   

घाटियों की गहराइयों से एक नया ऑर्केस्ट्रा गूंजने लगा है। इसे पहाड़ में शूंशाट-भूंभाटकहते हैं। बारिश का पानी पहाड़ी ढलानों से बहते हुए गधेरों (नालों) में मिलकर नदियों की ओर उछलते-कूदते दौड़ पड़ा है। पहले बारिश बज रही थी, अब गधेरे गूंज रहे हैं। जगह-जगह झरने भी फूट आए हैं और वे सुर-ताल की चिंता किए बगैर दहाड़े जा रहे हैं। हमने बचपन में अपने गांव के पहाड़ों पर कई जगह बरसाती झरनों के उद्गम देखे हैं। रात की भारी और दीर्घ वर्षा के बाद सुबह-सुबह धारे से पानी भरकर लाई मां हमें जगाती थी- सुकि सालना रौड़ (गांव में एक जगह) में कितना पानी आया है, देखो तो!” हमारी नींद उड़ जाती और उस तरफ दौड़ पड़ते। गांव को आती पगडण्डी के ऊपर आम तौर पर सूखी रहने वाली उस बड़ी-सी चट्टान के मुंह से ग्वां-ग्वां-ग्वां-स्वां-स्वां-स्वांकी भयानक आवाज में पानी की मोटी-मोटी धाराएं लम्बी छलांग मारती हुई नीचे कूदा करती थीं। हम उन धाराओं की लम्बी कूद के नीचे बन गए गलियारे में नाचा-कूदा-चीखा करते थे। हमारी उत्साहित-उत्फुल्लित चीखों की अनसुनी करता हुआ पानी हमें भिगाए बिना नीचे उछाल मारता रहता था। हवा के साथ उड़कर आती महीन फुहारें ही हमारे हिस्से आती थीं। झरने को पहाड़ की कोख से ठीक उसके उद्गम पर फूटते देखना, चट्टान की कोख से आकुल-व्याकुल पानी को हरहराते आते देखना अत्यंत रोमांचक होता था। गिनती याद कर रहे हम बच्चे पूछते थे कितनी बूंदें होती होंगी एक उछाल में! अरब-दस अरब, खरब-दस खरब, नील-दस नील, शंख-दस शंख,पद्म बूंदों के एक होने, एक-दूसरे से होड़ लेकर आगे कूदने और किसी के भी पीछे न रहने की यह गर्जन भरी प्रतियोगिता अनिवर्चनीय होती थी। कई दिन तक वह चट्टान, जिसके ऊपर का पूरा पहाड़ सूखा दिखता था, असीम पानी उगलती रहती थी जिसका वेग धीरे-धीरे कम होता जाता था और बरसात के बाद बिल्कुल सूख जाता था। हम कहते थे कि पहाड़ ने जितना पानी पिया है, वह सब उसके पेट से फूट रहा है। वह शोर आज भी कानों में गूंजता है। कुछ झरने लगभग स्थाई होते हैं लेकिन बरसात में उनका वेग और शोर बढ़ जाते हैं। झरनों, गधेरों, गाड़ों (नदियों) की सम्मिलित गूंज ऊपर उठती आ रही है। उसे कोहरे की तरह उठता-बहता देखा नहीं जा सकता लेकिन उसे सुनना एक अलग ही आनंद है। वर्षों बाद मैं इस ऑरकेस्ट्रा को सुन रहा हूं।              

दूर बाईं तरफ के पहाड़ में अचानक धुंध दिखने लगी है। वास्तव में यह बारिश का झीना पर्दा है। पहाड़ों में आप बारिश को दूर बरसते हुए, पास आते या दूर जाते हुए देख सकते हैं। मैं जहां बैठा हूं वहां बादलों के बीच बनी झिर्री से धूप खिलखिला रही है लेकिन बाईं ओर की पहाड़ियां बारिश से धुंधली हो गई हैं। स्थानीय लोग बता सकते हैं कि वह बारिश इधर आएगी या दूसरी ओर चली जाएगी। मानसून की प्रगति और दिशा का अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानियों की तरह स्थानीय लोग जानते हैं कि किस दिशा से घिर रहा बादल किस ओर और कहां तक बरसेगा। इसी जानकारी के चलते सूखने के लिए बाहर रखा उनका अनाज या कपड़े तुरंत समेट लिए जाते हैं या निश्चिंतता से पड़े रहने दिए जाते हैं। अगर आप पहाड़ के किसी ऊंचे कूबड़ पर बैठे हैं तो सावन-भादौ आपके लिए एक अद्भुत भू-दृश्य प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से संध्याकाल में- किसी पहाड़ की चोटी धूप में हंस रही है, किसी घाटी में कोहरे का कटोरा भरा रखा है, किसी ढलान पर सूरज सोने की परत मढ़ गया है और किसी छोर पर बारिश का परदा हिल है!      

पहाड़ बरसात में ही सबसे सुंदर लगते हैं। क्षण-क्षण अपना रूप बदलते हैं, भीगते हैं, ठिठुरते हैं, कोहरा ओढ़ते-पहनते हैं, बादलों के साथ आंख-मिचौली खेलते हैं, अचानक आई धूप में खिलखिलाते हैं, अपने हृदय का मीठा जल उलीचते हुए किलकते हैंनन्हें शिशुओं की भांति। आप बैठे-बैठे उनको देखते रहिए और मुग्ध होइए। कहां से आए ये पहाड़ बादलों को चूमने, उनसे खेलने के लिए? भूगर्भशास्त्री और इतिहासकार बताते हैं कि भारतीय भू-भाग कभी अफ्रीका महाद्वीप से जुड़ा था और करीब पौने सोलह करोड़ वर्ष पहले वहां से धीरे-धीरे खिसकते हुए उत्तर की ओर बढ़ने लगा। करीब साढ़े पांच-छह करोड़ वर्ष पहले यह भू-भाग यूरेशियन प्लेट से टकराया। इस टक्करसे आज का यह हिमालय, जो कभी टैथिस सागर के नीचे का भू-भाग था, ऊपर उठने लगा। उठते-उठते आज यह विराट हिमालय हमारे समाने है और अब भी ऊपर उठ रहा है। यह दुनिया का सबसे छोटा बच्चा और नाजुक पहाड़ है। सबसे पुराना मजबूत पहाड़ बहुत दूर नहीं है। दिल्ली से जो अरावली पर्वत शृंखला शुरू होती है, विज्ञानी उसे सबसे पुराना पहाड़ बताते हैं जो घिसते-घिसते छोटा हो गया है। मैं सबसे युवा पहाड़ की गोद में बैठा इसका सौंदर्य निहार रहा हूं। मैं उस मानवजाति का एक क्षुद्र प्राणी हूं, जो इस नाजुक व सुन्दर पहाड़ की कद्र करना नहीं सीख पाया। सबसे पुराने अरावली पहाड़ को खोद-खोद कर बर्बाद कर दिया गया है और हिमालय-बच्चा मानव की अतियों से बेहाल हो गया है। उसने इसके विरुद्ध कबसे विद्रोह करना शुरू कर रखा है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी (जो केदारनाथ के अलावा भी उत्तराखण्ड के बड़े हिस्से में हुई थी) और 2021 की अतिवृष्टि से हुई अकूत क्षति इसी विद्रोह का परिणाम हैं। ऐसे विद्रोहों का लम्बा सिलसिला है लेकिन अपनी श्रेष्ठता के बोध में फूली मानव जाति सुनने को ही तैयार नहीं है। रामगढ़ में घूमते हुए मैं जगह-जगह पॉलिथीन और अजैविक कचरे के ढेर देख रहा हूं। पॉलिथीन पहाड़ी ढलानों पर फैली हुई है, हवा के साथ उड़ रही है और बारिश से बहकर गधेरों-नदियों में जा रही है। यह कितना उत्पात नहीं मचाएगी? होटल और होम-स्टे खूब चल रहे हैं, मुनाफा भी कमा रहे हैं लेकिन शायद ही किसी ने कचरे का उचित प्रबंधन करने के उपाय किए हैं। सीवेज का भी सही प्रबंधन है या नहीं, कौन जाने! हर होटल के नीचे पहाड़ी ढलान पर रंग-बिरंगी पॉलिथीन दूर से चमकती दिख रही है। स्थानीय निवासी भी इस बारे में बिल्कुल सचेत नहीं हैं। स्वच्छ रामगढ़ और खुले में शौच मुक्त गांवके सरकारी विज्ञापन जगह-जगह लगे हैं और वहीं पर कचरे के ढेर भी पड़े हैं। राजस्थान का एक होटल-ग्रुप है, ‘निमराणा’, उसका भी गैर-होटल होटल यहां है। विचित्र नाम है! होटल है और नहीं भी। खैर, एक उसी ने अपना कचरा हलद्वानी ले जाकर निर्धारित स्थान पर डालने के लिए गाड़ी लगा रखी है। निमराणा के प्रबंधक बता रहे थे कि उन्होंने रामगढ़ के अन्य होटल वालों से भी इस अभियान में शामिल होने के लिए कहा हैं लेकिन सकारातमक उत्तर नहीं मिलता। पहाड़ सुंदर हैं, शीतल, शांत वातावरण और प्रदूषणमुक्त हवा है यहां लेकिन हम इसे बचाए-बनाए रखने के प्रति अत्यंत उदासीन हैं। उलटे, इसे लूट रहे हैं, उजाड़ रहे हैं। प्लास्टिक कचरा हमारी अतियों का बहुत छोटा अंश है। नाजुक पहाड़ों में विस्फोट किए जा रहे हैं, नदियों को सुरंगों में डाला जा रहा है, नदी किनारे कंक्रीट के स्तम्भ बनाकर रिवर व्यू होटल-मोटलबनाए जा रहे हैं, कानून को धता बताकर वन काटे जा रहे हैं, केदारनाथ-बदरीनाथ में क्षमता से अधिक पर्यटक (तीर्थयात्री बहुत कम हैं) मस्ती कर रहे हैं, गाड़ियों से पहाड़ी सड़कें जाम हैं। उत्तराखंड के आंदोलनकारी, जन-कवि गिर्दा का गीत पानी के ब्योपारीसाफ चेतावनी देता है – “सारा पानी चूस रहे हो/ नदी-समंदर लूट रहे हो/ गंगा-यमुना की छाती पर/ कंकड़-पत्थर कूट रहे हो/ लेकिन जिस दिन डोलेगी यह धरती/ सर से निकलेगी सब मस्ती/ बोल ब्योपारी तब क्या होगा?” लेकिन नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की लहरों पर सवार बौराए समाज की भविष्य-दृष्टि बाधित है। उसे तबकी चिंता ही नहीं है। उसकी भावी पीढ़ियों को इस मस्ती का कैसा-कितना मोल चुकाना होगा? बरसात में धुला-खिला-हंसता पहाड़ देखते हुए यह व्यथा बेचैन करती है और जी उचाट हो जाता है। इस पृथ्वी के मानव-इतिहास में हमसे बहुत पहले की उन्नत सभ्यताएं सम्भवत: अपनी ही अतियों से विनष्ट हो गईं थीं, जिसकी प्रामाणिक निशानियां उत्खननों में मिलती रही हैं। हड़प्पा सभ्यता के नष्ट होने के लिए उसकी जीवनदायिनी नदी का सूख जाना प्रमुख कारण बताया जाता है। क्या हम भी उसी ओर बढ़ रहे हैं?

मैंने ऊपर कहा कि पहाड़ बरसात में ही सर्वाधिक सुंदर लगते हैं। तभी से कोई मुझे भीतर से कोच रहा है- ‘बहुत खूब, नवीन भाई! आपने भी क्या पर्यटकी रोमान परोसा है! होम-स्टे की खिड़की से बारिश में नहाते पहाड़ से लिपटते कोहरे को देखकर मुग्ध होते हुए भूल गए गांव के जीवन को?’ यह आवाज मुझे झिंझोड़ देती है और बचपन के उन्हीं दिनों में पहुंचा देती है... धार-धार पानी बरस रहा है, एक हफ्ते से थोड़ा भी बिद’ (बारिश का थमना) नहीं होता। सतझड़ लगा है। कभी-कभी तो इतनी भयानक बारिश कि लोगों को फागुन की होली के बोल याद आने लगते हैं- हस्ति प्रमाण को ओला बरसे, सूंड़ प्रमाण की धार लला!गोकुल के नर-नारी कृष्ण को क्या पूजने लगे कि इंद्र कुपित हो गए। उन्होंने गोकुलवासियों को सबक सिखाने की ठान ली है। पूरा आसमान टूट पड़ा है गोकुल पर, हाथी के आकार के ओले गिर रहे हैं और सूड़ बराबर मोटी धार। गोकुल डूबने लगा है, हाहाकार मच गया है। तभी मुस्कराते हुए कृष्ण आ गए हैं। उन्होंने एक हाथ से बंसी बजाई और दूसरे हाथ की कनिष्ठा पर गोवर्धन पर्वत उठाकर छतरी-सा तान दिया है। अब बरसाओ इंद्र, जितना चाहे पानी बरसाओ, गोकुल सुरक्षित है। इंद्र ने हार मान ली है... लेकिन गांव के जीवन में कोई कृष्ण नहीं है। वहां वर्षा ने आफत उड़ेल रखी है। बाहर निकलना मुश्किल हो गया है लेकिन घर भीतर बैठे रहना सम्भव नहीं है। गोठ से गाय-बछिया, बैल, भैंस रंभा रहे हैं, बकरियां मिमियाते हुए बारिश के सुर में सुर मिला रही हैं। सुबह होने के बाद उन्हें गोठ में बंद रहना नहीं सुहाता। उन्हें जंगल जाना है, सावन की हरी-हरी घास चरनी है। सूखे चारे की ओर इन दिनों वे देखते तक नहीं। गृहिणी परेशान है कि इस मूसलधार वर्षा में कैसे जानवरों को खोले। उन्हें भूखा भी नहीं रखा जा सकता। उसने धोती से कमर बांध ली है। खाली बोरे को सिलाई की तरफ से आधा अंदर दबाकर सूप जैसे छोपको सिर से कमर तक ओढ़ लिया है और हंसिया-डलिया लेकर निकल पड़ी है। यह गोवर्धन-धारण जैसी सुरक्षा नहीं है, मात्र एक भरम है। पांव मिट्टी में धंस रहे हैं। वह जल्दी-जल्दी घास काट रही है लेकिन सतर्क है कि हंसिया से कहीं कीट-पतंगे न कट जाएं, जिन्होंने वहां शरण ले रखी है। डलिया भरने तक वह पूरी तरह तर हो चुकी है- निझूत। छोप सुरक्षा देने के बजाय भीगकर बोझ बन गया है। हरी घास पाकर जानवरों का रोना-मिमियाना थम गया है लेकिन गृहिणी को दूसरी चिंता ने घेर लिया है। ऊपर पहाड़ से तेज गति से बहता आता पानी खेत की मिट्टी को काट-बहा रहा है। उसे पर्याप्त रास्ता न दिया गया तो हरहराता पानी उपजाऊ मिट्टी ही नहीं काटेगा, खेत की पुश्त भी ढहा ले जाएगा। गांव भर में चीख-पुकार मची हुई है कि कहां, किसका खेत बहने-कटने वाला है, दौड़ो, बचाओ! लोग बॉस’ (कुदाल) लेकर दौड़ पड़े हैं और खेतों के किनारे और बीच में गहरी नालियां खोदने में जुट गए है। पानी इन नालियों से नीचे जाएगा तो खेत बच जाएगा। पुरुष गांवों में बहुत कम हैं। सो, पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर है। कमर टूटने को हो आई है लेकिन झुकी कमर से वे कुदाल चला रही हैं। उधर, घर से बच्चे चीख रहे हैं कि छत टपक रही है। बंदरों के उत्पात और हवा के जोर से पत्थर की स्लेटें खिसक गई होंगी और छत जगह-जगह से चू रही है। बच्चे अपने तईं भरसक कोशिश कर रहे हैं कि टपकने की जगह बर्तन लगा दें लेकिन उनसे सध नहीं रहा। गृहिणी खेतों से दौड़ी आई है लेकिन बच्चे चिल्ला रहे हैं कि उसके पैरों से लहू बह रहा है। पंजों से घुटनों तक कई जुग’ (जोंक) चिपके हुए हैं। जहां से जोंकें पेट भरकर निकल गईं, वहां से खून बह रहा है। मां और बच्चे मिलकर जोंक निकाल रहे हैं, रिसते घावों पर मिट्टी लेप रहे हैं। टप-टप-टप चूती छत मिट्टी की फर्श पर छेद कर रही है। उसका जतन हो ही पाया था कि बच्चे भूख-भूख करने लगे हैं। अपनी अंतड़ियां भी कुलबुला रही हैं लेकिन चूल्हा जलाना मुश्किल हो गया है। चूल्हे के पास सम्भाली गई लकड़ियां सप्ताह भर की बारिश में जला ली गई हैं। अब गोठ में रखी लकड़ियों का सहारा है लेकिन वे बुरी तरह सीली हुई हैं और आग पकड़ती ही नहीं। झुंझलाने से क्या होगा, धुएं से मिचमिचाती आंखों के बावजूद फूक मार-मारकर चूल्हा जलाना है। मुश्किल से ही सही, लकड़ियों ने आग पकड़ ली है और साग छौंक दिया गया है। क्या सुवास उठी है!  गिर्दाके एक गीत की पंक्तियां हैं- मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है/ गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है! साग क्या छौंका कि गों महका है, ओ हो रे, ये गंध निराली!भूख है और स्वाद है। तमाम आफतों के बीच यह जीवन के संघर्षों की सुवास है। प्रकृति के बीच रहना है तो प्रकृति के हिसाब से रहना है। प्रकृति हमारे हिसाब से नहीं चलेगी। बारिश अनवरत जारी है। बाहर के काम नहीं हो सकते तो भीतर कामों की कमी नहीं। कूटना-पीसना-बीनना-लीपना...। रात वह पस्त होकर जब लेटती है तो बदन तड़क रहा है, हरारत है, पैर की मांसपेशियां पलट रही हैं। आखिर, बारिश पर उसे कोप हो ही आया है। झुंझलाकर वह कह देती है- सरगा, तेरे द्वार ढक जाएं!

द्वारों का बंद हो जाना पहाड़ में गाली है। किसी के भी द्वार, भले ही आसमान के हों, बंद होना अशुभ है। अशुभ ही हो रहा है कि पहाड़ के गांवों में द्वार बंद ही होते जा रहे हैं। रोजी-रोटी कमाने गए लोग अब लौटते नहीं। द्वार के द्वार बंद हैं। तमाम कष्टों के बावजूद जो गांवों में रह रहे हैं, वे दरवाजे खुले रखने के जतन में लगे हैं। आसमान के द्वार बंद हो जाने की गाली क्षणिक आवेश है, अशुभ का शाप नहीं। बारिश नहीं होगी तो जीवन और कठिन होगा। बादलो, बरसो! चातुरमास का धर्म निभाओ। धरती को तृप्त करो। हम अपने स्वार्थ देख रहे हैं, तुम इस प्रकृति का जीवन रस हो। शीत-ताप-घाम-वर्षा-हिम अपने समय से आते रहने चाहिए। लिप्सा में डूबे मनुष्य को उसकी अतियों के लिए यथासम्भव क्षमा किया जाए, उसे सद्भुद्धि दी जाए!  बरस-बरस बरसा आए! 

- नवीन जोशी

(जुलाई 2023 में रामगढ़-प्रवास में लिखा गया और 'बनास जन' के सितम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)