पहाड़ में
हूं—उत्तराखण्ड के रामगढ़ में। देखते-देखते आषाढ़ बीत गया, सावन लगा है। रोज सुबह बारिश हो जा रही है। टिन की ढलवां छत पर बूंदों का
द्रुत-मंद्र संगीत अलार्म का काम करता है और नींद एक रोमांच में बदल जाती है। हलकी-बारीक
बूंदाबादी टिन को छेड़े बिना उसे भिगोती रहती है और हमें छत से टपकती धार से ही
उसके आने का पता चलता है लेकिन जैसे ही बारिश की बूंदें अपना आकार और वेग बढ़ाती
हैं, छत नगाड़े की तरह गूंजने लगती है। मुझे कई साल पहले लखनऊ
महोत्सव में सुना उस्ताद जाकिर हुसेन का तबला वादन स्मरण हो आता है, जब उन्होंने तबले पर अपनी अंगुलियों के जादू से बारिश का ऐसा ही नाद उत्पन्न
कर दिया था। ढोल सागर के अध्येता और लोक संगीत मर्मज्ञ केशव अनुरागी ढोल के पूड़े
पर संटी और हथेलियों की थाप से वर्षा का अवतरण करा देते थे।
मोबाइल की
स्क्रीन पांच बजा रही है। पिछले चार दिन से लगभग इसी समय बारिश हमें जगाने आ जा
रही है। दिन कभी सूखा-धुपैला, कभी बादलों ढका और कभी
वर्षा-भरा रहता है। आसमान में बादलों के रूपाकार निरंतर बदलते रहते हैं। बीच-बीच
में धूप खिल जाती है, चमकदार और पारदर्शी धूप, जिससे खेलने के लिए बादल का कोई आवारा टुकड़ा अचानक प्रकट हो जाता है और हवा की
गति के साथ नृत्य करने लगता है। ऊंचे-नीचे पहाड़ों और गहरी घाटियों में पसरी धुली, साफ हरियाली के बीच नृत्य सम्राट उदयशंकर के छायानृत्य की भांति आकर्षक
प्रस्तुतियां दिखाई देने लगती हैं--वह उछला हरिण का शावक, वह दबोचा बाघ ने चीतल, उतर आया परियों का झुण्ड
अपने पंख उड़ाते-समेटते हुए, लंकापति रावण ने हर ली है
सीता पंचवटी से और वायुगामी रथ पर बैठाकर भागा जा रहा है कि अचानक जटायु भिड़ गया
है दसकंधर से.... कितनी ही छाया-छवियां, रूपाकार पल-पल बनते-मिटते। अचानक
धूप अंतर्धान हो जाती है और छाया-नृत्य भी। आकाश फिर बादलों की घनी परतों से ढक
गया है। काले-भूरे-सफेद-चितकबरे बादल। वे चुपचाप मोर्चेबंदी कर रहे हैं, कोई गर्जन-तर्जन नहीं। लो, बरसने भी लग गए। भागो भीतर।
हमारे कमरे (होम
स्टे) की खूब बड़ी शीशेदार खिड़की सोच-समझकर बनवाई गई लगती है और छोटी-सी बालकनी भी, जहां से सामने के पहाड़ और नीचे तक घाटी का विहंगम दृश्य सामने होता है।
यहां-वहां उड़ते बादल अब सावधान की मुद्रा में तैनात होकर बरसने लगे हैं। फौज़ का सा
अनुशासन, किसी टुकड़े को आवारा फिरने की अनुमति नहीं। एक ओर काले हैं, दूसरी तरफ
भूरे। ‘काला बादल जी डरवावै, भूरा बादल पानी लावै!' नहीं, यहां दोनों
पानी ला रहे हैं, डरा कोई नहीं रहा। जब वे गुस्से में होते हैं तो डराते हैं।
फिलहाल वे बहुत शांति से मुहब्बत की तरह बरस रहे हैं। कुछ देर पहले तक चारों ओर उड़
रहा कोहरा बारिश में कहीं छुप गया है। उसकी जगह पानी की बौछारों के झीने-पारदर्शी
आवरण ने पहाड़ों को और खूबसूरत बना दिया है। छत पर बारिश का संगीत तड़के की राग
भैरवी से भिन्न है। मेरा बचपन काले पत्थर की पतली-पतली स्लेटों से छाई गई छतों
वाले मकान में बीता है। पत्थर की स्लेटों पर भी बारिश की आवाज होती थी, तीव्रता और आवेग के हिसाब से भिन्न-भिन्न। टिन की छतों पर वह अलग ही ताल में
बजती है- तीव्र सप्तक में। पत्थर की छत उसे मंद्र स्वरों से ऊपर नहीं उठने देती, बूंदें चाहे जितनी बड़ी हों।
टिन की ढलवां छत
से मकान के दोनों तरफ ‘बंधार’ गिर रही है। ‘बंधार’ को हिंदी में क्या कहूं? बारिश को भूलकर मैं ‘बंधार’ को देखने लगा हूं- छत का पानी पांच-छह सेंटीमीटर की दूरी पर मोटी-मोटी धाराओं
में गिर रहा है। अचानक ही मेरे कानों में कोई बहुत परिचित आवाज गूंजने लगी- “ओ
नवीन, भान-कुन बंधार में लगै दे च्यला।” सामने की पहाड़ी के खेतों
या जंगल में काम कर रही इजा पुकार रही है कि नवीन बेटे, घर के बर्तन बंधार में लगा दे। “होय-होय”, मैं उत्तर देता हूं और दौड़-दौड़कर भीतर से बाल्टी, बड़े तौले, भगोने, आदि लाकर बंधार में रख देता
हूं। तेज बंधार की चोट से पहले बर्तनों के तले बजते हैं, फिर पानी बजता है और जल्दी ही बर्तन भरकर छलकने लगते हैं। उनसे उछल-उछलकर
बूंदें बाहर कूद रही हैं और बुलबुले बन रहे हैं। गांवों में पानी को बरतने का एक
तमीज होता था। बारिश के पानी को सहेजा जाता था। बंधार से भरा पानी गाय, बैल, भैंस पीते थे। वह बर्तन, कपड़े धोने, लीपने और दूसरे कई कामों में आता था। दूर सोते से पानी ढोने
की मेहनत भी बच जाती थी। यह स्मृतियां हैं। यह अतीत है। यहां रामगढ़ में जो वर्तमान
है उसमें बंधार के पानी को सहेजने का कोई जतन नहीं है। विकास आने के साथ वह
संस्कार निपट गया। खूब पानी बरस रहा है और गधेरों से होते हुए नीचे नदी में जा रहा
है। पंद्रह दिन से रामगढ़ में हूं। यहां चारों तरफ पानी का संकट है, एक तरह से पानी की मारमारी है लेकिन बारिश का पानी व्यर्थ बहा जा रहा है। किसी
ने भी बंधार में बर्तन नहीं लगाए हैं। पहले यह गांव था, तब शायद ऐसा करते होंगे। तब यहां पानी के खूब सोते होते थे- स्वच्छ-निर्मल-स्वादिष्ट
जल। अब यह कस्बे से होता हुआ छोटा शहर बनता जा रहा है। चारों तरफ जमीनें बिक गईं, होटल और होम स्टे खुल गए हैं। सड़कें गांव-गांव पहुंच गईं हैं। अंधाधुंध
निर्माण, पहाड़ों की छाती खोदने और कंक्रीट से पाटने में जो मलबा
निकला उसका समुचित बंदोबस्त नहीं किया गया, बल्कि नीचे पहाड़ों में लुढ़का दिया गया। प्रधानमंत्री की चार धाम ऑल वेदर रोड योजना
में भी यही हो रहा है और रामगढ़ में ‘कॉटेज’ निर्माणों में भी। इस मलबे ने जल के प्राकृतिक स्रोत पाट दिए या सुखा दिए।
पानी की खपत खूब बढ़ गई लेकिन स्रोत सूखते गए। नतीजा यह है कि बड़े होटलों के लिए टेंकर
सूखती हुई नदियों से पानी ढो रहे हैं। आम जनता दूर-दूर से ढोकर लाती है और संकट
झेलती है। ‘हर घर नल’ योजना में घर-घर नल और पाइप
लग रहे हैं, जल नहीं है। मृणाल (पाण्डे) जी बताती थीं कि गुड़गांव में ऐसे-ऐसे
भव्य फ्लैट बने हैं कि उनमें सोने के नल लगे हैं लेकिन पानी नहीं आता। पहाड़ों को
हम पानी का पर्याय कहते हैं लेकिन पहाड़ प्यासे हैं। धराधार पानी बरस रहा है लेकिन पहाड़
प्यासे हैं। अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, पौड़ी-- पहाड़ के लगभग सभी शहरों मैंने पानी का संकट देखा है। इस बरसात में तो
नैनीताल में भी एक तिहाई घरों के नल करीब दस दिन तक सूख रहे। फिर भी कहीं वर्षा जल
का उपयोग करने का संस्कार विकसित नहीं हो रहा, न जनता में और न सरकार में। सरकार के लिए तो ‘रेन वाटर
हार्वेस्टिंग’ मात्र एक नारा है। कुछेक निजी संगठनों ने अवश्य आसपास वर्षा
जलसंग्रह के प्रयोग किए हैं।
अच्छा, मैं जल-कष्ट चिंतन में लग गया और बारिश बंद भी हो गई! नहाया-धोया पहाड़ कितना
साफ लग रहा है! बादलों की फौज को जैसे ‘डिस्पर्स’ का आदेश मिल गया हो। वे इधर-उधर बिखरने लग गए हैं। एक कोने से नीला पर्दा
झांकने लगा है। वह देखिए, नीचे की घाटी से रुई के
फाहों-सा कोहरा उठने लगा है, जगह-जगह से उठकर धीरे-धीरे
फैल रहा है। धुले-पुछे पहाड़ों पर कोहरा लिपट रहा है, जैसे उसका बदन पोछ रहा है! शेखर जोशी कहते हैं कि पहाड़ चिलम फूंक रहे हैं। अपनी
यादगार कहानियों के लिए प्रसिद्ध शेखर जोशी जी कविताएं भी सुंदर लिखते थे। उनकी एक
छोटी-सी कविता है, ‘पहली वर्षा के बाद’ शीर्षक से और क्या खूब कविता है- “भूरी मटमैली चादर ओढ़े/ बूढ़े पुरुखों से चार
पहाड़/ मिलजुल बैठे ऊँघते-ऊँघते-ऊँघते/ घाटी के ओंठों से कुहरा
उठता/ मन मारे, थके-हारे बेचारे/ दिन-दिन भर/ चिलम फूंकते-फूंकते-फूंकते!” सचमुच, मैं पहाड़ों को चिलम फूंकते और खूब धुआं उड़ाते देख रहा हूं। धुनी हुई रुई के
सफेद फाहों-सा धुआं उड़ता चला आ रहा है, पहाड़ की चोटी की ओर, मेरी खिड़की की ओर, हर ओर। यह देखिए, मुझे छूकर कमरे में दाखिल हो
गया और उधर दरवाजे से बाहर निकल गया है। उसका स्पर्श मुझे नम कर गया! ऊपर से मैं नमी अनुभव कर रहा हूं और भीतर से पूरा भीग गया हूं। इस कोहरे में
नीचे बहती नदी की खुशबू है, खेतों –जंगलों में उगी
वनस्पतियों का स्पर्श है इसमें, आड़ू-आलूबुखारू-खुबानी और सेब
के पेड़ों की गंध लेकर आ रहा है यह। यह मैदानी शहरों की सर्दियों का स्मॉग नहीं है, दुर्गंध युक्त। इस कोहरे में प्राण वायु है। अब यह पहाड़ों से पूरी तरह लिपट
गया है, किसी की छाती में पशमीने के शॉल की भाँति तो किसी पहाड़ के
सिर पर टोपी की तरह बैठ गया है, दो पहाड़ियों के बीच के कटोरे
में नवनीत-सा भर गया है, दो चोटियों के बीच पुल की
तरह ठहर गया है। पहाड़ से गलबहियां कर चुकने के बाद अब कोहरा बादलों से मिलने चल दिया
है। भूरे-काले बादलों के बीच यह दूधिया कोहरा अलग से पहचाना जा रहा है लेकिन थोड़ी
ही देर में उन्हीं का हिस्सा बन गया है। बादल विनीत हो पहाड़ों पर उतर आए हैं, ऊपर-ऊपर तिर रहे हैं, लिपट रहे हैं, हवा के वेग से उसे प्यारी चपत लगा रहे हैं। नागार्जुन याद आते हैं- ‘अमल-धवल
गिरि के शिखरों पर बादल को तिरते देखा है!’ यहां अमल-धवल गिरि नहीं हैं, हरिताभ हैं या भूरे-धूसर
किंतु नहाए-निखरे हुए। ये मेघदूत किसका संदेश लेकर भटक रहे हैं? बाबा ने
कालिदास के मेघदूत को ‘जाने दो वह कवि-कल्पित था’ कहकर खारिज क्यों किया होगा, जबकि वे स्वयं दिव्य
कैलाश-मानसरोवर के समीप खड़े होकर ‘महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते’ देख रहे थे!
घाटियों की
गहराइयों से एक नया ऑर्केस्ट्रा गूंजने लगा है। इसे पहाड़ में ‘शूंशाट-भूंभाट’ कहते हैं। बारिश का पानी पहाड़ी ढलानों से बहते हुए गधेरों (नालों) में मिलकर
नदियों की ओर उछलते-कूदते दौड़ पड़ा है। पहले बारिश बज रही थी, अब गधेरे गूंज रहे हैं। जगह-जगह झरने भी फूट आए हैं और वे सुर-ताल की चिंता
किए बगैर दहाड़े जा रहे हैं। हमने बचपन में अपने गांव के पहाड़ों पर कई जगह बरसाती
झरनों के उद्गम देखे हैं। रात की भारी और दीर्घ वर्षा के बाद सुबह-सुबह धारे से
पानी भरकर लाई मां हमें जगाती थी- “सुकि सालना रौड़ (गांव में एक
जगह) में कितना पानी आया है, देखो तो!” हमारी नींद उड़
जाती और उस तरफ दौड़ पड़ते। गांव को आती पगडण्डी के ऊपर आम तौर पर सूखी रहने वाली उस
बड़ी-सी चट्टान के मुंह से ‘ग्वां-ग्वां-ग्वां-स्वां-स्वां-स्वां’ की भयानक आवाज में पानी की मोटी-मोटी धाराएं लम्बी छलांग मारती हुई नीचे कूदा
करती थीं। हम उन धाराओं की लम्बी कूद के नीचे बन गए गलियारे में नाचा-कूदा-चीखा
करते थे। हमारी उत्साहित-उत्फुल्लित चीखों की अनसुनी करता हुआ पानी हमें भिगाए
बिना नीचे उछाल मारता रहता था। हवा के साथ उड़कर आती महीन फुहारें ही हमारे हिस्से
आती थीं। झरने को पहाड़ की कोख से ठीक उसके उद्गम पर फूटते देखना, चट्टान की कोख से आकुल-व्याकुल पानी को हरहराते आते देखना अत्यंत रोमांचक होता
था। गिनती याद कर रहे हम बच्चे पूछते थे कितनी बूंदें होती होंगी एक उछाल में! अरब-दस
अरब, खरब-दस खरब, नील-दस नील, शंख-दस शंख,पद्म बूंदों के एक होने, एक-दूसरे से होड़ लेकर आगे कूदने और किसी के भी पीछे न रहने की यह गर्जन भरी
प्रतियोगिता अनिवर्चनीय होती थी। कई दिन तक वह चट्टान, जिसके ऊपर का पूरा पहाड़ सूखा दिखता था, असीम पानी उगलती रहती थी जिसका वेग धीरे-धीरे कम होता जाता था और बरसात के बाद
बिल्कुल सूख जाता था। हम कहते थे कि पहाड़ ने जितना पानी पिया है, वह सब उसके पेट से फूट रहा है। वह शोर आज भी कानों में गूंजता है। कुछ झरने
लगभग स्थाई होते हैं लेकिन बरसात में उनका वेग और शोर बढ़ जाते हैं। झरनों, गधेरों, गाड़ों (नदियों) की सम्मिलित गूंज ऊपर उठती आ रही है। उसे
कोहरे की तरह उठता-बहता देखा नहीं जा सकता लेकिन उसे सुनना एक अलग ही आनंद है। वर्षों
बाद मैं इस ऑरकेस्ट्रा को सुन रहा हूं।
दूर बाईं तरफ के
पहाड़ में अचानक धुंध दिखने लगी है। वास्तव में यह बारिश का झीना पर्दा है। पहाड़ों
में आप बारिश को दूर बरसते हुए, पास आते या दूर जाते हुए देख
सकते हैं। मैं जहां बैठा हूं वहां बादलों के बीच बनी झिर्री से धूप खिलखिला रही है
लेकिन बाईं ओर की पहाड़ियां बारिश से धुंधली हो गई हैं। स्थानीय लोग बता सकते हैं
कि वह बारिश इधर आएगी या दूसरी ओर चली जाएगी। मानसून की प्रगति और दिशा का अध्ययन
करने वाले मौसम विज्ञानियों की तरह स्थानीय लोग जानते हैं कि किस दिशा से घिर रहा
बादल किस ओर और कहां तक बरसेगा। इसी जानकारी के चलते सूखने के लिए बाहर रखा उनका
अनाज या कपड़े तुरंत समेट लिए जाते हैं या निश्चिंतता से पड़े रहने दिए जाते हैं।
अगर आप पहाड़ के किसी ऊंचे कूबड़ पर बैठे हैं तो सावन-भादौ आपके लिए एक अद्भुत
भू-दृश्य प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से संध्याकाल में-
किसी पहाड़ की चोटी धूप में हंस रही है, किसी घाटी में कोहरे का
कटोरा भरा रखा है, किसी ढलान पर सूरज सोने की परत मढ़ गया है और किसी छोर पर
बारिश का परदा हिल है!
पहाड़ बरसात में
ही सबसे सुंदर लगते हैं। क्षण-क्षण अपना रूप बदलते हैं, भीगते हैं, ठिठुरते हैं, कोहरा ओढ़ते-पहनते हैं, बादलों के साथ आंख-मिचौली खेलते हैं, अचानक आई धूप में खिलखिलाते
हैं, अपने हृदय का मीठा जल उलीचते हुए किलकते हैं—नन्हें
शिशुओं की भांति। आप बैठे-बैठे उनको देखते रहिए और मुग्ध होइए। कहां से आए ये पहाड़
बादलों को चूमने, उनसे खेलने के लिए? भूगर्भशास्त्री और इतिहासकार बताते हैं कि भारतीय भू-भाग कभी अफ्रीका महाद्वीप
से जुड़ा था और करीब पौने सोलह करोड़ वर्ष पहले वहां से धीरे-धीरे खिसकते हुए उत्तर
की ओर बढ़ने लगा। करीब साढ़े पांच-छह करोड़ वर्ष पहले यह भू-भाग यूरेशियन प्लेट से
टकराया। इस ‘टक्कर’ से आज का यह हिमालय, जो कभी टैथिस सागर के नीचे का भू-भाग था, ऊपर उठने लगा। उठते-उठते आज यह विराट हिमालय हमारे समाने है और अब भी ऊपर उठ
रहा है। यह दुनिया का सबसे छोटा बच्चा और नाजुक पहाड़ है। सबसे पुराना मजबूत पहाड़
बहुत दूर नहीं है। दिल्ली से जो अरावली पर्वत शृंखला शुरू होती है, विज्ञानी उसे सबसे पुराना पहाड़ बताते हैं जो घिसते-घिसते छोटा हो गया है। मैं सबसे
युवा पहाड़ की गोद में बैठा इसका सौंदर्य निहार रहा हूं। मैं उस मानवजाति का एक
क्षुद्र प्राणी हूं, जो इस नाजुक व सुन्दर पहाड़ की कद्र करना नहीं सीख पाया। सबसे
पुराने अरावली पहाड़ को खोद-खोद कर बर्बाद कर दिया गया है और हिमालय-बच्चा मानव की
अतियों से बेहाल हो गया है। उसने इसके विरुद्ध कबसे विद्रोह करना शुरू कर रखा है।
2013 की केदारनाथ त्रासदी (जो केदारनाथ के अलावा भी उत्तराखण्ड के बड़े हिस्से में
हुई थी) और 2021 की अतिवृष्टि से हुई अकूत क्षति इसी विद्रोह का परिणाम हैं। ऐसे
विद्रोहों का लम्बा सिलसिला है लेकिन अपनी श्रेष्ठता के बोध में फूली मानव जाति
सुनने को ही तैयार नहीं है। रामगढ़ में घूमते हुए मैं जगह-जगह पॉलिथीन और अजैविक
कचरे के ढेर देख रहा हूं। पॉलिथीन पहाड़ी ढलानों पर फैली हुई है, हवा के साथ उड़ रही है और बारिश से बहकर गधेरों-नदियों में जा रही है। यह कितना
उत्पात नहीं मचाएगी? होटल और होम-स्टे खूब चल रहे हैं, मुनाफा भी कमा रहे हैं लेकिन शायद ही किसी ने कचरे का उचित प्रबंधन करने के
उपाय किए हैं। सीवेज का भी सही प्रबंधन है या नहीं, कौन जाने! हर होटल के नीचे पहाड़ी ढलान पर रंग-बिरंगी पॉलिथीन दूर से चमकती दिख
रही है। स्थानीय निवासी भी इस बारे में बिल्कुल सचेत नहीं हैं। ‘स्वच्छ
रामगढ़’ और ‘खुले में शौच मुक्त गांव’ के सरकारी विज्ञापन जगह-जगह लगे हैं और वहीं पर कचरे के ढेर भी पड़े हैं।
राजस्थान का एक होटल-ग्रुप है, ‘निमराणा’, उसका भी ‘गैर-होटल होटल’ यहां है। विचित्र नाम है! होटल
है और नहीं भी। खैर, एक उसी ने अपना कचरा हलद्वानी ले जाकर निर्धारित स्थान पर
डालने के लिए गाड़ी लगा रखी है। निमराणा के प्रबंधक बता रहे थे कि उन्होंने रामगढ़
के अन्य होटल वालों से भी इस अभियान में शामिल होने के लिए कहा हैं लेकिन सकारातमक
उत्तर नहीं मिलता। पहाड़ सुंदर हैं, शीतल, शांत वातावरण और प्रदूषणमुक्त हवा है यहां लेकिन हम इसे बचाए-बनाए रखने के प्रति
अत्यंत उदासीन हैं। उलटे, इसे लूट रहे हैं, उजाड़ रहे हैं। प्लास्टिक कचरा हमारी अतियों का बहुत छोटा अंश है। नाजुक पहाड़ों
में विस्फोट किए जा रहे हैं, नदियों को सुरंगों में डाला
जा रहा है, नदी किनारे कंक्रीट के स्तम्भ बनाकर ‘रिवर व्यू
होटल-मोटल’ बनाए जा रहे हैं, कानून को धता बताकर वन काटे
जा रहे हैं, केदारनाथ-बदरीनाथ में क्षमता से अधिक पर्यटक (तीर्थयात्री
बहुत कम हैं) मस्ती कर रहे हैं, गाड़ियों से पहाड़ी सड़कें जाम
हैं। उत्तराखंड के आंदोलनकारी, जन-कवि गिर्दा का गीत ‘पानी के
ब्योपारी’ साफ चेतावनी देता है – “सारा पानी चूस रहे हो/ नदी-समंदर
लूट रहे हो/ गंगा-यमुना की छाती पर/ कंकड़-पत्थर कूट रहे हो/ लेकिन जिस दिन डोलेगी
यह धरती/ सर से निकलेगी सब मस्ती/ बोल ब्योपारी तब क्या होगा?” लेकिन नवउदारवादी
अर्थव्यवस्था की लहरों पर सवार बौराए समाज की भविष्य-दृष्टि बाधित है। उसे ‘तब’ की चिंता ही नहीं है। उसकी भावी पीढ़ियों को इस मस्ती का कैसा-कितना मोल चुकाना
होगा? बरसात में धुला-खिला-हंसता पहाड़ देखते हुए यह व्यथा बेचैन
करती है और जी उचाट हो जाता है। इस पृथ्वी के मानव-इतिहास में हमसे बहुत पहले की
उन्नत सभ्यताएं सम्भवत: अपनी ही अतियों से विनष्ट हो गईं थीं, जिसकी प्रामाणिक निशानियां उत्खननों में मिलती रही हैं। हड़प्पा सभ्यता के नष्ट
होने के लिए उसकी जीवनदायिनी नदी का सूख जाना प्रमुख कारण बताया जाता है। क्या हम
भी उसी ओर बढ़ रहे हैं?
मैंने ऊपर कहा
कि पहाड़ बरसात में ही सर्वाधिक सुंदर लगते हैं। तभी से कोई मुझे भीतर से कोच रहा
है- ‘बहुत खूब, नवीन भाई! आपने भी क्या
पर्यटकी रोमान परोसा है! होम-स्टे की खिड़की से बारिश में नहाते पहाड़ से लिपटते कोहरे
को देखकर मुग्ध होते हुए भूल गए गांव के जीवन को?’ यह आवाज मुझे झिंझोड़ देती है और बचपन के उन्हीं दिनों में पहुंचा देती है...
धार-धार पानी बरस रहा है, एक हफ्ते से थोड़ा भी ‘बिद’ (बारिश का थमना) नहीं होता। सतझड़ लगा है। कभी-कभी तो इतनी भयानक बारिश कि लोगों
को फागुन की होली के बोल याद आने लगते हैं- ‘हस्ति
प्रमाण को ओला बरसे, सूंड़ प्रमाण की धार लला!’ गोकुल के नर-नारी कृष्ण को क्या पूजने लगे कि इंद्र कुपित हो गए। उन्होंने
गोकुलवासियों को सबक सिखाने की ठान ली है। पूरा आसमान टूट पड़ा है गोकुल पर, हाथी के आकार के ओले गिर रहे हैं और सूड़ बराबर मोटी धार। गोकुल डूबने लगा है, हाहाकार मच गया है। तभी मुस्कराते हुए कृष्ण आ गए हैं। उन्होंने एक हाथ से
बंसी बजाई और दूसरे हाथ की कनिष्ठा पर गोवर्धन पर्वत उठाकर छतरी-सा तान दिया है।
अब बरसाओ इंद्र, जितना चाहे पानी बरसाओ, गोकुल सुरक्षित है। इंद्र ने हार मान ली है... लेकिन गांव के जीवन में कोई
कृष्ण नहीं है। वहां वर्षा ने आफत उड़ेल रखी है। बाहर निकलना मुश्किल हो गया है
लेकिन घर भीतर बैठे रहना सम्भव नहीं है। गोठ से गाय-बछिया, बैल, भैंस रंभा रहे हैं, बकरियां मिमियाते हुए बारिश के सुर में सुर मिला रही हैं। सुबह होने के बाद
उन्हें गोठ में बंद रहना नहीं सुहाता। उन्हें जंगल जाना है, सावन की हरी-हरी घास चरनी है। सूखे चारे की ओर इन दिनों वे देखते तक नहीं।
गृहिणी परेशान है कि इस मूसलधार वर्षा में कैसे जानवरों को खोले। उन्हें भूखा भी
नहीं रखा जा सकता। उसने धोती से कमर बांध ली है। खाली बोरे को सिलाई की तरफ से आधा
अंदर दबाकर सूप जैसे ‘छोप’ को सिर से कमर तक ओढ़ लिया है
और हंसिया-डलिया लेकर निकल पड़ी है। यह गोवर्धन-धारण जैसी सुरक्षा नहीं है, मात्र एक भरम है। पांव मिट्टी में धंस रहे हैं। वह जल्दी-जल्दी घास काट रही है
लेकिन सतर्क है कि हंसिया से कहीं कीट-पतंगे न कट जाएं, जिन्होंने वहां शरण ले रखी है। डलिया भरने तक वह पूरी तरह तर हो चुकी है-
निझूत। छोप सुरक्षा देने के बजाय भीगकर बोझ बन गया है। हरी घास पाकर जानवरों का
रोना-मिमियाना थम गया है लेकिन गृहिणी को दूसरी चिंता ने घेर लिया है। ऊपर पहाड़ से
तेज गति से बहता आता पानी खेत की मिट्टी को काट-बहा रहा है। उसे पर्याप्त रास्ता न
दिया गया तो हरहराता पानी उपजाऊ मिट्टी ही नहीं काटेगा, खेत की पुश्त भी ढहा ले जाएगा। गांव भर में चीख-पुकार मची हुई है कि कहां, किसका खेत बहने-कटने वाला है, दौड़ो, बचाओ! लोग ‘बॉस’ (कुदाल) लेकर दौड़
पड़े हैं और खेतों के किनारे और बीच में गहरी नालियां खोदने में जुट गए है। पानी इन
नालियों से नीचे जाएगा तो खेत बच जाएगा। पुरुष गांवों में बहुत कम हैं। सो, पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर है। कमर टूटने को हो आई है लेकिन झुकी कमर से वे
कुदाल चला रही हैं। उधर, घर से बच्चे चीख रहे हैं कि
छत टपक रही है। बंदरों के उत्पात और हवा के जोर से पत्थर की स्लेटें खिसक गई होंगी
और छत जगह-जगह से चू रही है। बच्चे अपने तईं भरसक कोशिश कर रहे हैं कि टपकने की
जगह बर्तन लगा दें लेकिन उनसे सध नहीं रहा। गृहिणी खेतों से दौड़ी आई है लेकिन
बच्चे चिल्ला रहे हैं कि उसके पैरों से लहू बह रहा है। पंजों से घुटनों तक कई ‘जुग’ (जोंक) चिपके हुए हैं। जहां से जोंकें पेट भरकर निकल गईं, वहां से खून बह रहा है। मां और बच्चे मिलकर जोंक निकाल रहे हैं, रिसते घावों पर मिट्टी लेप रहे हैं। टप-टप-टप चूती छत मिट्टी की फर्श पर छेद
कर रही है। उसका जतन हो ही पाया था कि बच्चे भूख-भूख करने लगे हैं। अपनी अंतड़ियां
भी कुलबुला रही हैं लेकिन चूल्हा जलाना मुश्किल हो गया है। चूल्हे के पास सम्भाली
गई लकड़ियां सप्ताह भर की बारिश में जला ली गई हैं। अब गोठ में रखी लकड़ियों का
सहारा है लेकिन वे बुरी तरह सीली हुई हैं और आग पकड़ती ही नहीं। झुंझलाने से क्या
होगा, धुएं से मिचमिचाती आंखों के बावजूद फूक मार-मारकर चूल्हा
जलाना है। मुश्किल से ही सही, लकड़ियों ने आग पकड़ ली है और
साग छौंक दिया गया है। क्या सुवास उठी है! ‘गिर्दा’ के एक गीत की पंक्तियां हैं- ‘मुश्किल से आमा का चूल्हा
जला है/ गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है! साग क्या छौंका कि गों महका है, ओ हो रे, ये गंध निराली!’ भूख है और स्वाद है। तमाम
आफतों के बीच यह जीवन के संघर्षों की सुवास है। प्रकृति के बीच रहना है तो प्रकृति
के हिसाब से रहना है। प्रकृति हमारे हिसाब से नहीं चलेगी। बारिश अनवरत जारी है।
बाहर के काम नहीं हो सकते तो भीतर कामों की कमी नहीं। कूटना-पीसना-बीनना-लीपना...।
रात वह पस्त होकर जब लेटती है तो बदन तड़क रहा है, हरारत है, पैर की मांसपेशियां पलट रही हैं। आखिर, बारिश पर उसे कोप हो ही आया है। झुंझलाकर वह कह देती है- ‘सरगा, तेरे द्वार ढक जाएं!’
द्वारों का बंद
हो जाना पहाड़ में गाली है। किसी के भी द्वार, भले ही आसमान के हों, बंद होना अशुभ है। अशुभ ही
हो रहा है कि पहाड़ के गांवों में द्वार बंद ही होते जा रहे हैं। रोजी-रोटी कमाने
गए लोग अब लौटते नहीं। द्वार के द्वार बंद हैं। तमाम कष्टों के बावजूद जो गांवों
में रह रहे हैं, वे दरवाजे खुले रखने के जतन में लगे हैं। आसमान के द्वार
बंद हो जाने की गाली क्षणिक आवेश है, अशुभ का शाप नहीं। बारिश
नहीं होगी तो जीवन और कठिन होगा। बादलो, बरसो! चातुरमास का धर्म
निभाओ। धरती को तृप्त करो। हम अपने स्वार्थ देख रहे हैं, तुम इस प्रकृति का जीवन रस हो। शीत-ताप-घाम-वर्षा-हिम अपने समय से आते रहने चाहिए।
लिप्सा में डूबे मनुष्य को उसकी अतियों के लिए यथासम्भव क्षमा किया जाए, उसे
सद्भुद्धि दी जाए! बरस-बरस बरसा आए!
- नवीन जोशी
(जुलाई 2023 में रामगढ़-प्रवास में लिखा गया और 'बनास जन' के सितम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)