Monday, January 31, 2022

बब्बन कार्बोनेट: द हो, अशोक पाण्डे की क्वीड़ पथाई के क्या कहते हो!

पहाड़ की मौखिक कथा परम्परा में ‘क्वीड़’  कहने का भी खूब चलन है। जब फुर्सत हुई, दो-चार जने बैठे तो लगा दी क्वीड़। किस्सागोई तो यह है लेकिन न पूरी तरह गप्प है, न कपोल कथा, न पूरा सत्य, कौछी-भौछी। इसे फसकभी कह सकते हैं लेकिन क्वीड़का सटीक अर्थ बताना मुश्किल ठहरा। वैसे ही आसान नहीं हुआ अशोक पाण्डे की बब्बन कार्बोनेटपुस्तक (नवारुण प्रकाशन) को परिभाषित करना। जैसे क्वीड़कहे कम, ‘पाथेअधिक जाते हैं, वैसे ही इस किताब को अशोक पाण्डे की नायाब क्वीड़ पथाई कह सकते हैं। खुद अशोक ने इसे फसकों की किताबकहा है। पहाड़ के हर गांव, कस्बे और बाजार में कोई-कोई गजब का क्वीड़ पाथने या फसक मारनेवाला होता है और दूर-दूर तक लोगबाग प्रशस्ति एवं आनन्द के साथ उसका नाम लेकर कहते हैं – दs, अमुक के क्वीड़!या ओहो, अमुक की फसक!वैसे ही अशोक पाण्डे के लिए कहा जा सकता है- आहा, अशोक पाण्डे के किस्से!फेसबुक पर उनकी गजब की फैन-फॉलोइंगऐसे ही नहीं बनी।

पिछली सदी के अंतिम दो-तीन दशकों के हमारे पहाड़ी कस्बे, उच्च-वर्गीय कामनाओं से ग्रस्त या कुंठित उनके निम्न-मध्य वर्गीय परिवार, उनकी किशोर से युवा होती पीढ़ी की उमंगें, सपने, आवारगी, विद्रोह या जी बाबू जीवाली पितृ-निष्ठा और सबसे बढ़कर, सिने तारिकाओं से लेकर पड़ोस की गली की हरेक कन्या से इश्क लड़ाने की दुर्दम्य कामना अथवा इकतरफा मुहब्बत की त्रासद किंवा हास्यास्पद परिणति, आदि-आदि अशोक पाण्डे के इन किस्सों के सदाबहार विषय हैं। वे कोई एक सच्चा किस्सा उठाकर उसे ले उड़ते हैं। फिर कब एक पड़ोसी या सहपाठी की कहानी सुदूर आकाश में टिक्कुल बनती पतंग की तरह दूर-दूर जाते कभी नाचती है, कभी गोता खाती है, कभी ऊपर-और-ऊपर तनती जाती है कि तभी हत्थे से कटकर लहराती चली जाती है। किस्से की सच्चाई कहीं पीछे छूट जाती है और हमारे समाज की परतें उघड़ती जाती हैं। पेंगें मारता किस्सा अचानक खत्म होता है और आप सोचते रह जाते हैं कि सच्ची, ऐसा हुआ होगा क्या!या शिबौ, बिचारा बब्बन!

अब जसंकर सिजलरको ही लीजिए। बिजनेसमैन बाप के गल्ले से गड्डी उड़ाकर दोस्तों को मौज-मस्ती कराने वाले जयशंकर जैसे दोस्त उस उम्र में लगभग सभी के होते हैं लेकिन अशोक उसे पंचतारा होटल  के रेस्त्रां में आग और धुआं उगलते सिजलरतक ले जाकर निम्न-मध्य वर्गीय अतृप्त कामनाओं का  ऐसा प्रहसन रच देते हैं कि जसंकरही नहीं, पाठक भी अंतत: फुटपाथी ढाबे के तृप्त कर देने वाले स्वाद का मुरीद होकर चटखारे लेने लगता है। वे ऐसा परम तटस्थता से करते हैं। इस खिलदंड़ेपन में भी एक बात नोट करने की यह है कि किस्सा पढ़ने के बाद आप शिबौ-शिबौ’ (बेचारा) कहेंगे भी तो जसंकर के लिए नहीं, पंचतारा वाले सिजलरके लिए ही। बब्बन कार्बोनेटमें ऐसे कई किस्से हैं जिनमें कस्बाई, निम्न मध्यवर्गीय बेचारगी बड़े शहराती ठाट को घुत्तीदिखाती नजर आती है। कुंठाओं के बयान लगने वाले ये किस्से अक्सर अपनी गरीबी या पराजय में छुपी मस्ती की अमीरी पर इतराते हुए सम्पन्न होते हैं। एक किस्से में जब कर्नल साहब के विदेशी डॉगी-द्वय मिस्टर जोसी के सड़क छाप कुत्ते से पराजित होकर उसके शिष्य बन जाते हैं और मिस्टर जोसीको ब्लडी सिविलयनकहकर हिकारत से देखने वाले वह नामविहीन कर्नल खुद जोशी जी के हम प्याला नज़र आते हैं, तब यही देसी ठाट सीना तान, महमह कर उठता है।  

अंग्रेजी मोह से ग्रस्त कस्बाई मध्य वर्ग की टांग खींचने का कोई मौका अशोक नहीं छोड़ते। इसके लिए वे कैसी-कैसी फसक मार देते हैं! नाना जी की प्रिय हीरोइन मिनरल मारले’ (मर्लिन मनरो), सुच्चा सिंह के थ्री हॉर्स’ (थ्री आवर्स), भैया जी की ओल्ड मैन एण्ड मी’ (ओल्ड मैन एण्ड द सी), विलायती मीम के साथ माल रोड पर घूमने वाले कलूटे प्रताप सिंह बिष्ट का अपने लिए किए गए तंज ब्यूटी एंड द बीस्टको बिस्ट इस ब्यूटीफुलबताना एवं पुरिया का गुस्सा आने पर फकिट ब्लडी हुडकहना उसी मानसिकता पर बहुत रोचक टिप्पणियां हैं। हास्य और आनंद से भर देने वाले ये किस्से अपने अंतर में एक पतनशील, बाजार-आक्रांत समाज का दर्द भी साथ लिए हुए हैं।

गरीबी में भी दोस्ती की शहंशाही और टूटे सपनों में मुहब्बत से इंद्रधनुषी रंग भर देने वाले रज्जोऔर दलिद्दर कथाजैसे किस्से भी यहां हैं जो लेखक की निस्संगता के बावजूद पाठक की आंख नम कर देते हैं। यहां शादी के लिए लड़की देखने गए पूरनदा की वह दास्तां है जो उस दौर के लगभग सभी कस्बाई युवकों की हो सकती है जिन्हें दाम्पत्य निभाते-निभाते बुढ़ापे में कहना पड़ जा सकता है कि (फोटो में) कनस्तर पर खड़ी है बुढ़िया!और, ठहाके के साथ निकला यह उद्गार वास्तव में घनघोर त्रासद ठहरता है।

उनचास फसकोंकी यह किताब उस दौर के कस्बाई जीवन के भांति-भांति के रंगों से साक्षात कराने के अलावा अशोक की अनोखी भाषा का निखालिस आनंद भी देती है। अशोक अपने पात्रों के सम्वादों को ऐन उनके होठों से उच्चारित होते ही शब्द-ध्वनियों में बांध देते हैं। साथ ही उनके दुनिया देखे-दुनिया पढ़े की बौद्धिक छौंक और स्थानीय लटक के संयोग से विकसित यह भाषा जादू जैसा असर छोड़ती है। उसमें लालित्य है, खनखनाहट है और अद्भुत किस्म की निस्संगता भी, जिससे पाठक को किस्से में अटका छोड़कर लेखक चुपके से सटक लेता है।

नवारुणसे सद्य: प्रकाशित इस किताब का हिंदी में खुले दिल से स्वागत होगा ही। उनकी किताब 'लपूझन्ना' को हाथों हाथ लिया ही जा रहा है, जिसे मुझे अभी पढ़ना है।

-न. जो. 31 जनवरी, 2022                    

        

   

         

Friday, January 28, 2022

टिकट वंचित नेताओं का रोना देखते हुए

नेतागण रोते दिख रहे हैं। न्यूज चैनलों के स्टूडियो में, प्रेस कांफ्रेंस में, अपने समर्थकों के बीच और पार्टी मुख्यालयों में नेताओं के आंसू बह रहे हैं। वे फफक कर रो पड़ते हैं, बच्चों की तरह गिड़गिड़ाते दिखते हैं- हमने पार्टी की कितनी सेवा की, क्षेत्र में हमारे बराबर काम किसी ने किया हो तो बताइए। फिर भी टिकट काट दिया!

वे हर पार्टी में हैं। टिकट पाने के लिए हर जतन किया। बड़ी उम्मीद से थे। अब टिकट नहीं मिला तो रो पड़ रहे हैं। वे पूरी तरह टूट गए हैं। घर भर और समर्थक भी वैसे ही हताश-निराश हैं जैसे बच्चे को कोटा भेजकर भी आईआईटी का रास्ता न खुला हो! सब कुछ लुट गया हो जैसे!

वे इसलिए नहीं रोते कि रोने से पार्टी सुप्रीमो का दिल पिघल जाएगा। रोना तभी आता है जब सारी सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। प्रतिद्वंद्वी टिकट मार चुका होता है। इसलिए उस रोने को नाटक नहीं कह सकते। वह रुलाई अपने आप फूटती है, निराशा, हताशा और दिल टूट जाने के चरम समय में।      

रोते हुए नेता कैसे लगते हैं?  जो इतनी सी बात पर रो पड़े उसे नेताकैसे कह सकते हैं? लेकिन आजकल ऐसे ही नेता मिलते हैं। अधिकतर तो वे जनता को ही रुलाते हैं लेकिन चुनाव लड़ने का टिकट न मिलने पर खुद रोने लगते हैं। क्यों? एक विधान सभा क्षेत्र से पार्टी एक व्यक्ति को ही टिकट दे सकती है। दावेदार बहुत सारे होते हैं। जिसे नहीं मिला वह इतना टूट क्यों जाता है जैसे सब कुछ छिन गया हो?

स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। पहले के नेता टिकट के लिए इतना कलपते नहीं थे। वे कभी रोते नहीं दिखते थे। अमृत महोत्सव तक आते-आते विधायकी और सांसदी इतनी कीमती चीज बन गई है कि नेता उसके लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है और दावेदारी नहीं मिलने पर बच्चों की तरह बिसूरता है। पहले टिकट जनसेवा का एक माध्यम भर था और उसके बिना भी जन सेवा की जाती थी। अब वह क्या है कि उसके लिए पार्टी, विचार, सिद्धांत, मूल्य, नैतिकता, आदि-आदि का कोई अर्थ नहीं बचा?          

वैसे, आज के नेता सिर्फ टिकट के लिए ही नहीं रोते। हमें कई कारणों से रोते हुए नेता दिखते हैं। कोई सदन में भावुक होकर आंखें पोछने लगता है कि अफसर उसकी बात नहीं सुनते, कि पुलिस ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया, कि उसकी सुरक्षा छीन ली गई और उसकी जान खतरे में है, वगैरह। कभी कोई सदन में इसलिए सिसक पड़ता है कि उसके खिलाफ झूठी धाराओं में मुकदमा दायर करके उसे जेल में डाल दिया गया था।

निजी कारणों से रोने के अलावा कई बार रोने या गला भर आने के अभिनय भी करने पड़ते हैं। टिकट कटने पर रोना अपने आप आ जाता है लेकिन रोने का अभिनय आसान नहीं होता। यहां सिने कलाकारों की तरह कृत्रिम आंसू बहाने की रासायनिक सुविधा उपलब्ध नहीं होती। इसलिए नेताओं को अभिनय में पारंगत होना पड़ता है। जैसे, कोविड महामारी से मारे गए फ्रंटलाइन वर्कर्सकी याद करते हुए आखें भर लाना या वोट मांगते समय भावुक हो जाना।

वैसे, हमारे नेता बिल्कुल बच्चों जैसे ही हो गए हैं। इस पाले में नहीं खिलाया तो फौरन पाला बदल लिया या भरभण्ड कर दिया या ईंटा मारकर भाग गए या गाली-गलौच करने लगे या अच्छा बेटा, देख लेंगेकी धमकी देकर सीना ताने कुढ़ते रहे या घर में उलटी-सुलटी चुगली लगा आए और कुछ नहीं तो बड़े-बड़े आंसू लुढ़काने लगे।     

(चुनाव तमाशा, नभाटा, 29 जनवरी, 2022)

          

यूपी चुनाव में सब पर भारी ओबीसी

उत्तर प्रदेश का यह विधान सभा चुनाव एक नया राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य उपस्थित कर रहा है। पिछले कई साल से चुनावी राजनीति में जो ओबीसी फैक्टर प्रमुखता पाता आया है, आज वह दलित फैक्टर ही नहीं, उग्र हिंदुत्व की राजनीति पर भी हावी हो गया है। हाल-हाल में उसने भाजपा की हिन्दुत्व की आक्रामक राजनीति को भी कदम पीछे खींचने को मजबूर कर दिया है। दलित वोटों के बहुमत पर एकाधिकार रखने वाली बसपा नेत्री मायावती इसी कारण एक किनारे होती दिख रही हैं। बसपा में बड़े बिखराव के बावजूद मायावती आज भी उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताकत हैं किंतु ओबीसी फैक्टर के हावी हो जाने से उनकी दावेदारी इस बार कमजोर लग रही है। मुख्य चुनावी संग्राम सपा और भाजपा के बीच सिमट गया है और दोनों अपने आधार वोटों के अलावा पूरा फोकस ओबीसी वोटों पर किए हुए हैं।

चंद रोज पहले प्रदेश की राजनीति पर पूरी तरह छाई भाजपा सरकार और पार्टी के भीतर एकाएक धमाका-सा हुआ। एक के बाद एक करके आधा दर्जन से अधिक मंत्री और विधायक पार्टी छोड़कर सपा के खेमे में पहुंच गए। इनमें अधिकसंख्य ओबीसी नेता हैं। ओबीसी नाराजगी का बम शायद काफी समय से फटने की तैयारी कर रहा था। इसके दो बड़े कारण अब सामने आ रहे हैं। पहला, ‘राजपूतमुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध क्रमश: बढ़ता गुस्सा जो ब्राह्मण से लेकर ओबीसी मंत्रियों-विधायकों में काफी समय से था। दूसरा बड़ा कारण है राम मंदिर, काशी विश्वनाथ धाम, गोरक्षा और मुस्लिम-विरोध की मार्फत जिस कट्टर हिंदुत्व की राजनीति को भाजपा ने अपना प्रमुख हथियार बना लिया है, वह उसके ओबीसी नेता-वर्ग को रास नहीं आ रहा था। वे सबका साथ-सबकाविकास की आड़ में वास्तव में हिंदुत्व की राजनीति को परवान चढ़ता देख रहे थे। 2014 से जिन दलित-ओबीसी जातियों को साथ लेकर भाजपा ने यूपी का किला भेदा, वे हिंदुत्व की हावी होती राजनीति में सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई को कमजोर होता अर्थात अपनी उपेक्षा होती देख रहे थे।

एक सप्ताह के भीतर दृश्य बिल्कुल बदल गया। मुख्यत: यादव-मुस्लिम आधार वाली जो समाजवादी पार्टी 2017 के विधान सभा चुनाव में गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन खो देने के बाद हाशिए पर चली गई थी, वह एकाएक भाजपा के मुकाबिल मजबूती से खड़ी हो गई। कारण सिर्फ यह कि मौर्य, कुशवाहा, लोध, कुर्मी, राजभर, जैसी जातियों के बड़े नेता भाजपा छोड़कर अखिलेश यादव के साथ आ खड़े हुए। कुछ ब्राह्मण और दलित नेता भी भाजपा से निकले लेकिन उसे सबसे बड़ा नुकसान ओबीसी नेताओं के जाने से हुआ। पार्टी छोड़ने वाले इन नेताओं ने भाजपा सरकार पर ओबीसी हितों की उपेक्षा करने का आरोप जड़ा। लगभग इसी समय मुख्यमंत्री योगी का यह बयान आया कि लड़ाई अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत है। इसने इन आरोपों को हवा ही दी।

अप्रत्याशित रूप से भाजपा ओबीसी विरोधी और सिर्फ हिंदुत्व को समर्पित पार्टी दिखाई देने लगी। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका था। राज्य से लेकर केंद्र तक के बड़े नेताओं के कान खड़े हुए। वे नुकसान की भरपाई के लिए सक्रिय हुए। भाजपा का पुराने प्रमुख ओबीसी चेहरे केशव प्रसाद मौर्य को, जो 2017 में योगी के उभरने से पहले मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार थे, फिर से सामने किया जा रहा है। हिंदुत्व के आक्रामक चेहरे योगी को तनिक मंद होने को कहा गया और सपा के ओबीसी के हमले की काट के लिए उसके घर में तोड़फोड़ के प्रयास किए गए। मुलायम की छोटी बहूजो काफी पहले से भाजपा में आना चाहती थी, अचानक महत्वपूर्ण हो गई। उसे और मुलायम के साढ़ू भाई को तत्काल सपा की सदस्यता दिलाई गई। कहा गया कि अखिलेश स्वयं अपने घर को नहीं सम्भाल पा रहे, ओबीसी का क्या भला करेंगे। किंतु यह उस बड़े ओबीसी नुकसान की भरपाई नहीं थी।

भजपा का ओबीसी-प्रेम थमा नहीं है, यह साबित करने के लिए ओबीसी प्रत्याशियों को वरीयता दी जाने लगी। अब तक घोषित भाजपा प्रत्याशियों की दोनों सूचियों में ओबीसी उम्मीदवारों की भरमार है। जिन ओबीसी उम्मीदवारों के टिकट कटने की आशंका थी, उनकी नाव भी इस बयार में पार हो गई! इस पूरे घटनाक्रम में हुआ यह कि पिछड़ों-अति पिछड़ों का दबदबा एकाएक बढ़ गया। सभी दल, विशेष रूप से सपा और भाजपा, पिछड़ों की असल नुमाइंदगी की दावेदारी की प्रतिस्पर्धा करने लगे हैं। योगी जिसे अस्सी बनाम बीस (यानी हिंदू बनाम मुस्लिम) की लड़ाई कह रहे थे, वह पचासी बनाम पंद्रह (बहुजन बनाम अन्य) का संग्राम बन गया है।

मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के इतने वर्षों के बाद हुआ यह है कि अति पिछड़ी जातियों में भी सत्ता में अपना हिस्सा या अधिकार पाने की चेतना तेज हुई है। मण्डल के तत्काल बाद सिर्फ कुछ प्रभुत्वशाली पिछड़ा वर्ग ने अधिकतम लाभ हासिल किए। अब यह ललक नीचे तक पहुंची है। इसी कारण अति पिछड़ी जातियों के कई नेताओं ने सपा और बसपा से अलग होकर अपने छोटे-छोटे दल बनाए हैं। ये छोटे दल समय-समय पर बड़े दलों से गठबंधन करके सत्ता में भागीदारी मांगते हैं। भाजपा ने 2014 और 2017 के चुनावों में यूपी की अधिकाधिक सीटें जीतने के लिए इन्हीं छोटे दलों के साथ गठबंधन किया। गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव अनुसूचित जातियों को क्रमश: सपा और बसपा से अलग करके उसने अपने साथ लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं पिछड़ी जाति का होने को खूब प्रचारित किया था।

आज यूपी में पिछड़ी और दलित जातियों के ये छोटे-छोटे दल या नेता बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं। इनके जातीय वोट पूरी तरह इनके पीछे हैं। ये स्वयं जिताऊ उम्मीदवार तो होते ही हैं, कई अन्य सीटों पर अपने जातीय वोट दिलाने में सक्षम भी। इस बार अखिलेश यादव ने शुरू से ही इन छोटे दलों को साथ लेने की कोशिश की थी। बीते कुछ सालों में मांगें न मानी जाने के कारण भाजपा से नाराज हुए कुछ ओबीसी दल फौरन सपा के साथ आ गए थे। आज कम से कम आधा दर्जन ऐसे दलों का सपा से गठबंधन है। भाजपा ने कुछ दलों को अभी भी साधे रखा है। इसी तरह मायावती से नाराज कुछ अति दलित जातियों की छोटी-छोटी पार्टियां भाजपा, सपा या अब नए उभरे दलित नेता चंद्र शेखर आजाद के साथ आ गए हैं। वैसे, मायावती के उम्मीदवारों में भी ओबीसी की संख्या काफी है।

भाजपा यूपी में हिंदुत्व के एजेण्डे को तनिक पीछे करने या कम से कम उसी की बराबरी पर ओबीसी की राजनीति करने के लिए दवाब में आ गई है। उसे लगता है कि सवर्ण हिंदू तो कहीं नहीं जाएगा लेकिन अगर ओबीसी छिटक गया तो बड़ा नुकसान होगा। सपा ने भी अपने को अति पिछड़ा हितैषी दिखाने के लिए अपने मुस्लिम झुकाव को प्रचार में प्रमुखता नहीं दी है। वह ओबीसी प्रेम के साथ ही हिंदू-विरोधी न दिखने की राह पर है। फिलहाल यूपी में ओबीसी सब पर हावी हैं।               

(प्रभात खबर, 28 जनवरी, 2022)     

Friday, January 21, 2022

लड़ाई में होने की लड़ाई के दांव-पेच

खेला समझिए। अब चुनाव सीधे जनता के बीच नहीं लड़ा जाता। वहां तक जाने से पहले कई लड़ाइयां लड़ी जाती हैं। फिलहाल वही दांव-पेच चल रहे हैं  

पहला दांव अखिलेश ने मारा। भाजपा से नाराज ओबीसी मंत्री-विधायक तोड़ लिए। चंद रोज अखिलेश का जलवा खूब रहा। एक बाद एक किले ढहाए! फिर भाजपा ने मुलायम की छोटी बहूवाला दांव चल दिया। घर में ही सेंध लगा दी, हालांकि सेंध की जगह खुला दरवाजा पहले से मौजूद था। तो भी, दांव पर दांव! पहलवान पहले से चित था तो भी दिखाना है कि हमारे दांव से धराशाई हुआ। अब यह तय करने की लड़ाई है कि किसका दांव तगड़ा बैठा।

यह तय जनता को करना है मगर आगे-आगे कूद कर मीडिया तय किए दे रहा है। विश्लेषण और भाषण तय करने में लगे हैं कि कौन चित हुआ। कहा जा रहा है कि छोटी बहू वाला दांव अखिलेश पर भारी पड़ गया। जवाब में कहा जा रहा है कि छोटी बहू हैं ही क्या! वोट देने वाली जनता के हाथ में अभी कुछ नहीं है। वह तो अभी दृश्य से ही नदारद है। उसकी मंच-प्रवेश अंतिम दृश्य में होना है।

वास्तव में यह परसेप्शनकी लड़ाई है। यह दिखाने की लड़ाई कि लड़ाई में है कौन। किसका पलड़ा भारी लगता है। यह चुनाव से पहले चुनाव मैदान में खड़े हो पाने की लड़ाई है। मैदान में ही नहीं दिखेंगे तो लड़ेंगे क्या! यह पहला चरण है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। भाजपा प्रदेश की सत्ता में है। लड़ाई उसी से है। यानी वह पहले से मैदान में है। अब विपक्ष वालों को यह दिखाना होता है कि मुख्य मुकाबले में है कौन। सत्तारूढ़ दल का मुख्य प्रतिद्वद्न्द्वी कौन है जो उसे अपदस्थ कर सकता है।

यह दिखाने में इस बार समाजवादी पार्टी पहले आगे आ गई। उसने बड़े मौके से भाजपा पर सामाजिक आधार का हथियार छोड़ दिया। उसके दांव ने भाजपा सरकार की ओबीसी नाराजगी सामने ला दी। भाजपा से ओबीसी मंत्रियों-विधायकों के दल बदल ने उसे यह बढ़त दे दी।

दूसरी प्रतिद्वंद्वी, बसपा पता नहीं क्यों इस बार मैदान में उस जोर-शोर से नहीं उतरी जैसे उतरा करती थी। आम तौर पर वह सबसे पहले मैदान में आ जाती थी और दिखाती थी कि सत्तारूढ़ दल को मुख्य चुनौती वही दे सकती है। यह तनिक गहरे विश्लेषण, बल्कि शोध का विषय है कि मायावती इस बार चुनाव मोड में पहले क्यों नहीं आईं। खैर, सतीश मिश्र काफी पहले से उनकी भरपाई करने में लगे रहे।  कांग्रेस को तो खैर अपना अस्तित्व साबित करने की लड़ाई में लगी है।

अब इस पर क्या आश्चर्य करना कि चुनाव जनता के मुद्दों पर क्यों नहीं लड़ा जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी, रोजगार, भ्रष्टाचार, वगैरह कोई मुद्दे ही नहीं। कोविड के दूसरे दौर में स्वास्थ्य सुविधाओं की जोल पोल खुली और जो बेहिसाब मौतें हुईं, उसकी बात कोई क्यों करे कि भविष्य में ऐसा न हो, इसके पक्के प्रबंध किए जाएंगे! आप नहीं सुनेंगे कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक जरूरी सुविधाएं पहुंचाई जाएंगी। किसी दल को या नेता को यह आश्वासव देते नहीं सुना जाएगा कि बदहाल प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए उनके पास कोई बड़ी व्यावहारिक योजना है। मुफ्त बिजली-पानी, खाते में नकद धन, आदि वादे बहुत होंगे लेकिन कोई यह मुद्दा नहीं उठाएगा कि नौकरियां कैसे बढ़ें। कोरोना में जो करोड़ों मजदूर दूर-दूर से अपने गांवों का लम्बा रास्ता पैदल नापने को मजबूर हुए, उनके लिए कोई किसी कार्यक्रम की बात कहीं सुनाई दे रही है?

चुनाव किसी और ही धरातल पर लड़ा जा रहा है। इसलिए वही सब सुनाई देगा जिसका जनता से कोई वास्ता नहीं।     

(चुनाव तमाशा, नभाटा, 22 जनवरी, 2022)              

Wednesday, January 19, 2022

मार्केज, विवाहेतर प्रेम सम्बंध और बेटी

यह 'One Hundred Years of Solitude' तथा 'Love In the Time Of Cholera' जैसे विश्व प्रसिद्ध उपन्यासों (जिनके हिंदी में भी एकाधिक अनुवाद उपलब्ध हैं) के नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की लोकप्रियता ही कही जाएगी कि उनकी मौत के आठ साल बाद उनके विवाहेतर प्रेम सम्बंध से जन्मी एक कन्या (अब युवती) का पता लगाने वाली 'खोजी खबर' दुनिया भर के समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुई है। भारत के कई अंग्रेजी अखबारों ने भी इसे सुर्खियों में छापा है और यह रेखांकित करना नहीं भूले हैं मार्केज ने उस बेटी का नाम इंदिरा रखा क्योंकि वे इंदिरा गांधी से प्रभावित थे। 1982 में नोबेल पुरस्कार मिलने पर इंदिरा गांधी उन्हें बधाई देने वालों में सबसे पहले थीं, ऐसा भी खबर बता रही है।

जिस दुनिया में विवाहेतर प्रेम प्रसंग कोई चौंकाने या छुपाने वाली खबर न होती हो और जहां ऐसे विवाद आम तौर पर राजनैतिक नेताओं के सम्बंध में छेड़े जाते हों, वहां एक लेखक के इस सबंध को विवाद रहित सुर्खियांं बनाना उसकी लोकप्रियता ही कहा जाएगा।

यह खबर कोलम्बिया की पत्रकार गुस्टावो टैटिस ने 'ब्रेक' की है और दुनिया भर के कई नामी पत्रकारों ने उस आधार पर अपनी खबरें लिखी हैं। मार्केज कोलम्बिया के ही मूल निवासी थे।
खबर के अनुसार 1990 के दशक में जब मार्केज अपनी पत्नी मर्सेदेस बार्चा और दो बेटों के साथ सुखमय जीवन जी रहे थे, उसी दौर में लेखिका सुसानो काटो के साथ उनके प्रेम सम्बंध बने। उससे एक बेटी जन्मी जो अब मैक्सिको में इंदिरा काटो के नाम से डॉक्युमेण्ट्री फिल्में बनाती हैं। उस दौर में सुसानो मैक्सिको सिटी में रहते हुए फिल्मों की पटकथा लिखती थींं। मार्केज इस बेटी का खर्चे वहन करतेे थे।
इस समाचार में विस्तार से ये कयास भी लगाए गए हैं कि क्या मार्केज की पत्नी को उनके प्रेम सम्बंध और एक बेटी होने का पता था, कि क्या मार्केज के बेटे आज भी यह बात जानते हैं, और जानते हैं तो क्या उनका अपनी इस बहन से सम्पर्क है, वगैरह। मार्केज की भतीजियों ने बताया है कि वे इंदिरा के सम्पर्क में हैं। उन्होंने कहा कि हमें इंदिरा के बारे में पहले से पता था लेकिन हमारे मां-बाप ने कहा था कि चुप्पी ही बेहतर है। मार्केज के कुछ परिवारीजनों ने पत्रकार को बताया कि उन्होंने इस खबर को उनके प्रति 'सम्मान के मारे' छुपाए रखा था हालांकि उन्हें सम्भवत: इसकी भनक थी।
मार्केज का 2014 में और उनकी पत्नी मर्सेदेस का 2020 में निधन हो गया था। मार्केज के निधन पर उनको श्रद्धांजलि देने के लिए मैक्सिको सिटी की सड़कों पर प्रशंसकों लम्बी-लम्बी लाइनें लग गईं थीं। ऐसी लोकप्रियता हाल के वर्षों में शायद ही किसी लेखक को मिली हो। यही कारण है कि उनके प्रेम सम्बंध की खबर आज भी अत्यंत पठनीय मानकर प्रमुखता से प्रकाशित की गई है।

- न जो, 20 जनवरी, 2022

Tuesday, January 18, 2022

भीलों का जीवन, राजा से रंक होने और विद्रोह का इतिहास


हमारी दुनिया में स्थान विशेष के मूल निवासियों/ जनजातियों का इतिहास दमन-शोषण और साजिशन हाशिए पर धकेले जाने का इतिहास रहा है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासी (एबोरिजनल) हों या अमेरिकी 'रेड इण्डियंस' या हमारे देश के विभिन्न इलाकों के आदिम निवासी, जनजातीय कबीले, बाहरी लोगों की चतुराई, साजिश और आक्रमण के कारण वे अपने इलाकों से खदेड़े गए, गुलाम बनाए गए और शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं से वंचित रखे गए। 

विदेशी हमालवरों ने ही नहीं, देसी राजे-रजवाड़ों, जमींदारों और तथाकथित उच्च वर्गीय सभ्य समाजों ने मूल निवासियों को द्त्कारा और खदेड़ा। कुछ कबीले अपना अस्तित्व बचाने के लिए लड़े और कुछ ने सहज ही आत्म समर्पण कर दिया। आदिवासियों के पास अपनी धरती, अपनी संस्कृति और प्राकृतिक संसाधन बचाए रखने और उनके साथ तादात्म्य बनाकर जीवन जीने के मौलिक व मानवीय तरीके थे। मनुष्य की विकास यात्रा में इस धरती और प्रकृति को बचाए रखने में उनका मौलिक योगदान रहा है।  

'सभ्य समाज' ने इन मूल निवासियों को उनके इलाकों एवं संसाधनों से ही नहीं खदेड़ा बल्कि उनके जीवन, संघर्ष और योगदान को इतिहास से भी बाहर कर दिया या उनका अपने मन माफिक गलत चित्रण किया। पिछले कुछ दशकों से सामाजिक-शैक्षिक चेतना के फैलने के साथ वंचित समाजों का यथासम्भव वस्तुपरक इतिहास सामने लाने की कोशिशें तेज हुई हैं। 

हाल ही में प्रकाशित 'भील विद्रोह- संघर्ष के सवा सौ साल' (हिंद युग्म) ऐसी ही एक पुस्तक है। हिंदी कहानी  के चर्चित हस्ताक्षर सुभाष चंद्र कुशवाहा की यह किताब 'चोर-लुटेरे-डकैत-हत्यारों' के रूप में वर्णित, सरल लेकिन बहादुर भीलों के जीवन और अस्तित्व के लिए उनके संघर्ष को ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ नई दृष्टि से प्रस्तुत करती है। 

कुशवाहा जी अपनी साहित्यिक सक्रियता के साथ-साथ वंचितों के वास्तविक इतिहास की पड़ताल का  गुरुतर कार्य भी कर रहे हैं। पहले प्रकाशित उनकी दो इतिहास परक किताबें- 'चौरी-चौरा और स्वतंत्रता आंदोलन' एवं 'अवध का किसान विद्रोह' भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। दोनों पुस्तकें इन प्रसिद्ध घटनाक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लेकिन उपेक्षित रखे गए वंचित जातियों के नायकों के योगदान को रेखांकित करती हैं।

मध्य भारत और गुजरात-राजस्थान के विस्तृत पहाड़ी इलाकों में किसी समय भीलों का साम्राज्य था। उनके मुखिया अपने-अपने इलाकों के राजा थे। सातवीं सदी से चौदहवीं सदी के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा खदेड़े गए राजपूत अफगानिस्तान के रास्ते राजस्थान और गुजरात पहुंचे। सैन्य बल से मजबूत इन राजपूतों ने भीलों को खदेड़ना शुरू किया। अरबों, पिण्डारियों, होल्करों, मराठों, आदि ने भी भीलों के इलाके लूटे और उन्हें खदेड़ा। बाद में अंग्रेज आए तो उन्होंने भीलों के स्वतंत्र जीवन में बहुतेरे हस्तक्षेप किए और उन्हें दबाया।

अस्तित्व रक्षा के लिए भील पहाड़ों और घने जंगलों में जा बसे। बहादुर और लड़ाके भील चुपचाप नहीं रहे, बल्कि सभी हमलावरों से लड़ते रहे। स्वाभाविक ही उनकी लड़ाई छापामार शैली की थी। गांवों-खेतों और उत्पादन के संसाधनों से वंचित कर दिए गए भील लूट-पाट, चोरी-डकैती करके जीवन यापन करने को मजबूर हुए। वे बहादुर थे और तीरों-भालों, पत्थरों, पेड़ों से युद्ध करने में माहिर। धीरे-धीरे उनकी पहचान पूरी तरह खूंखार चोरों-डकैतों के रूप में बना दी गई। इसी कारण उनकी हत्याएं की गईं या फांसी पर लटकाए गए। इतिहास में वे इसी रूप में दर्ज़ किए गए।

किताब के शुरू में ही सुभाष लिखते हैं- "आदिवासी समुदाय के प्रति हमारी दृष्टि अभिजन बनाम अभिशप्तजन में विभाजित है। यह सुघड़ और फूहड़ के मनोरोग से ग्रसित रही है।" अपने शोध में वे इसी 'मनोरोगी' इतिहास दृष्टि के उलट भीलों के जीवन, उनके संघर्ष या विद्रोहों, उनकी कुरीतियों, विशेषताओं, बर्बरताओं, बहादुरियों, आदि को स्वस्थ दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं। वे पाते हैं कि "शिक्षा से वंचित इस सरल हृदय समुदाय ने छल-बल, तिकड़मों और धोखे से राजा से रंक तक की यात्रा तय की है।"   

भीलों का सबसे बड़ा और लम्बा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध चला। भीलों की बहादुरी, जंगलों से छापामार युद्ध में उनके कौशल एवं विद्रोही तेवरों को समझते ही अंग्रेजों ने चालाकी से काम लिया। "उन्हें लग गया था कि पहाड़ी दर्रों पर जब तक भीलों का नियंत्रण रहेगा, मध्य भारत और राजपूताना पर ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक लाभ नहीं होने वाला। उनके व्यापारिक मार्ग असुरक्षित रहेंगे। उन्होंने कुछ भील मुखियाओं से समझौता करना जरूरी समझा। कुछ की जागीरें लौटाईं, कुछ को पेंशन दी, कुछ को सीमांत चेक पोस्टों पर तैनात किया और अंतत: भीलों को अनुशासित सेना में बदल देने के लिए भील कॉर्प्स का गठन कर उन्हें ब्रिटिश सैन्य बल का अंग बना लिया।" 

इसके बावजूद भीलों का विद्रोह जारी रहा। कई बार तो भील सेना (कॉर्प्स या कोर) ही विद्रोही भीलों के खिलाफ इस्तेमाल की गई। 1857 के विद्रोह में भी भीलोंं की भूमिका थी। इस तरह अपने-अपने इलाकों में विभिन्न भील समूह सन 1800 से 1925 तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। कुछ अंग्रेजों ने भीलों पर थोड़ा सामाजिक दृष्टि से लिखा और उनकी बहादुरी या बर्बरता दर्ज़ की। ब्रिटिश और आस्ट्रेलियाई अखबारों में कुछ भील नायकों पर खबरें और धारावाहिक लेख तक छपे।         

सुभाष चंद्र कुशवाहा ने भारतीय के अलावा ब्रिटिश और आस्ट्रेलियाई अभिलेखागारों से उस दौर की सामग्री तलाश करके भीलों के सवा सौ साल के इसी संघर्ष को पुस्तक में दर्ज़ किया है। उनका दावा है और सही ही होगा कि इस किताब की अधिकांश सामग्री और उससे सम्बद्ध दस्तावेज पहली बार सामने आए हैं। दो सौ से अधिक भील नायकों-योद्धाओं, उनकी लूटों-विद्रोहों और बलिदानों का उल्लेख इस किताब में आया है। लेखक के अनुसार, इससे पहले प्रकाशित पुस्तकों में एक दर्जन से भी कम भील लड़ाकाओं का जिक्र मिलता था। 

सम्भवत: सबसे बहादुर भील नायक खंडवा और निमाड़ क्षेत्र का टंट्या था, जिसने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। उसकी गाथा विदेशों अखबारों में विस्तार से छपी। टंट्या भील पर इस किताब में ठीक-ठाक सामग्री है। उस पर कुशवाहा जी की अलग से पूरी किताब भी अब प्रकाशित हो गई है- "टंट्या भील- द ग्रेट इण्डियन मूनलाइटर।"   

सुभाष चंद्र कुशवाहा ने यह महत्वपूर्ण काम किया है। सहज-सरल भाषा में प्रस्तुति किताब को पठनीय बनाती है। 'हिंद युग्म' ने इसे अच्छी तरह प्रकाशित किया है। 352 पेज की किताब का 249 रु मूल्य प्रचलित दरों से सस्ता है। लेखक-प्रकाशक को बधाई।

- न जो, 19 जनवरी, 2022    

   

Monday, January 17, 2022

भारतीय अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी तो देखिए


यदि भारत के दस सबसे धनी लोगों में से प्रत्येक प्रतिदिन 7, 44,01,400/- यानी सात करोड चौवालीस लाख एक हजार चार सौ रुपए खर्च करे, तब भी उन्हें आज की अपनी पूरी सम्पत्ति खर्च करने में 84 वर्ष लग जाएंगे।

क्या इससे आप भारतीय अमीरों की कमाई का कोई अनुमान लगा पाते हैं? उन्हें अरबपति-खरबपति कहना तो गणित की संंख्याओं के साथ भद्दा मजाक होगा। अगर किसी को गिनती का भारतीय सिलसिला याद हो तो शायद उन्हें नीलपति-शंखपति कहा जा सकता है।

और, यह जानना कैसा लगेगा कि जब महामारी के दौर में देश में नौकरियां जा रही थीं, तनख्वाहें काटी जा रही थीं, बच्चों की पढ़ाई छूट रही थी, मजदूर वर्ग भूखे मर रहा था, तब भी भारतीय अमीरों की सम्पत्ति बढ़ती रही। यह वृद्धि छोटी-मोटी नहीं थी। देश के सभी धनपतियों की सम्मिलित आमदनी महामारी के दौरान दोगुनी से अधिक हो गई। साल 2021 में सबसे अधिक धनवान एक सौ भारतीयों की सम्मिलित सम्पत्ति 57.3 लाख करोड़ रु ( पांच नील सत्तर खरब रु)  पई गई। धनपतियों की संंख्या में भी इस बीच 39 फीसदी वृद्धि हुई।

इस बीच गरीबों का क्या हाल रहा? सन 2020 में चार करोड़ साठ लाख भारतीय गरीबी से भयानक गरीबी में पहुंच गए। इस साल  पूरी दुनिया में जितने गरीब थे उनमें से आधे भारतीय हैं।

ऑक्सफैम, इण्डिया नाम की स्वतंत्र वैश्विक संस्था ने कल जो आंकड़े जारी किए, उनसे यही तस्वीर सामने आती है। इस रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2020 से नवम्बर 2021 तक यानी महामारी के दौरान भारत के धनपतियों की सम्पत्ति 23.1 लाख करोड़ से बढ़कर 53.2 लाख करोड़ हो गई। इसके विपरीत 84 प्रतिशत भारतीयों की आमदनी बहुत कम हो गई। यह दौर कोरोना के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौतों और रोजगार छिन जाने का रहा।

'हमारे' अमीरों के बारे में आंकड़े इस तरह भी देखे जा सकते हैं- 142 धनपतियों के पास जितनी सम्पत्ति है (डॉलर में 719 अरब) वह 55 करोड़ 50 लाख भारतीयों की कुल सम्पत्ति से भी अधिक है। ये लोग रोज साढ़े सात करोड़ रु खर्च करने लगें तब भी इन्हें यह धन खर्च करने में 84 साल लग जाएंगे। सबसे गरीब 55 करोड़ 50 लाख भारतीयों के पास मिलाकर जितनी 'सम्पत्ति' है, उतनी तो सिर्फ 98 अमीरों के पास है। 

ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान महिलाओं की नौकरियां भी खूब गईं। 2019 की तुलना में 2020 में एक करोड़ तीन लाख महिलाएं रोजगार में कम पाई गईं। महिलाओं के रोजगार छिनने से उनकी 59.1  लाख करोड़ रु की आमदनी चली गई। रोजगार और कमाई में पुरुषों की बराबरी हासिल करने में महामारी से पहले महिलाओं को 99 वर्ष लगने थे तो अब इसमें 135 वर्ष लग जाएंगे। 

 ऑक्सफैम की रिपोर्ट का जितना हिस्सा अखबारों में मेरे देखने में आया उनमें अमीरों की सम्पत्ति इस कदर बढ़ने के कारणों का उल्लेख नहीं मिला। तो भी यह जानना मुश्किल नहीं है कि यह प्र्वृत्ति आर्थिक उदारीकरण (1991) के बाद तेज हुई। आर्थिक नीतियां पहले भी गरीबों के पक्ष में नहीं थीं लेकिन उसके बाद ऐसा नवपूंजीवाद आया जिसने अमीरों को बहुत तेजी से अमीर और गरीबों को गरीब बनाए रखना तेज किया। हर क्षेत्र में निजी क्षेत्र यानी अमीरों की घुसपैठ बढ़ी। 'कल्याणकारी राज्य' का विचार, जिसमें गरीबों का ध्यान रखा जाता था, कमजोर होता गया। सरकारी यानी सार्वजनिक सम्पत्तियों की नीलामी होती गई।  

देश को बदलने, गरीबों का कल्याण करने और भारतीयता एवं स्वदेशी का राग अलापने वाली  भाजपा सरकार ने भी पूरी तरह नव पूंजीवाद के सामने समर्पण कर रखा है। उसने अमीरों को और अमीर बनाने वाली नीतियों पर और भी जोर-शोर से अमल किया। यह सरकार तो एलआईसी से लेकर रेलवे जैसी सार्वजनिक सम्पत्तियों को निजी हाथों में देती जा रही है। अमीरों को बहुत तेजी से और भी अमीर होना ही है। 

मध्य वर्ग के हिस्से नवपूंजीवाद की थोड़ी जूठन आती है लेकिन हाशिए पर पड़े गरीब किसान, मजदूर, आदि गरीबी की खाई में ही पड़े रहते हैं। महामारी और बेरोजगारी की मार भी इसीलिए इसी वर्ग पर सबसे अधिक पड़ती है।

महत्त्वपूर्ण बात यह कि गरीबों को नकद मदद देने से, जैसा अब सभी सरकारें करती हैं और भाजपा सरकार ने जिसका खूब ढोल पीट रखा है, गरीबी नहीं जाती। गरीबी जाती है उन्हें रोजगार देने से, उत्पादन के संसाधनों पर अधिकार देने से। यही नहीं हो रहा। गरीब कल्याण, किसान कल्याण, आदि के नाम पर उनके खातों में नकद राशि देने से वोट तो मिल सकते हैं लेकिन वे गरीब-और गरीब बनते जाते हैं। 

-न जो, 18 जनवरी, 2022     

Friday, January 14, 2022

‘दल बदलू’ नहीं, वंचितों की दावेदारी के ‘नायक’

 

चुनाव के ऐन मौके पर राजनैतिक दलों में पाला-बदल की भगदड़ अक्सर देखी जाती है। सभी करते थे लेकिन भाजपा ने विरोधी दलों में सेंध लगाने की नई ही परिपाटी डाली। अल्पमत में होने के बावजूद बड़े दल में तोड़-फोड़ मचाकर उसने अपनी सरकारें तक बना लीं। इस बार उत्तर प्रदेश में वह स्वयं इस दांव का शिकार हो रही है। चुनावों का ऐलान होते ही उसने न केवल कई विधायक बल्कि अपने कुछ मंत्री भी खो दिए। इनमें अधिकतर वे हैं जो दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में आए थे। राजनैतिक विद्वान और मीडिया इस प्रवृत्ति का कई तरह से विश्लेषण कर रहे हैं

पाला-बदल की ऐसी भगदड़ देखकर आम जनता क्या सोचती होगी? क्या उसके मन में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होती होगी कि अपने ही दांव से चित भाजपा’, ‘ओबीसी ने दिया झटका,’ ‘उग्र हिंदू राजनीति से पिछड़ा और दलित खफा’, या टिकट की सौदेबाजी नहीं चली तो पाला बदला’, वगैरह? जनता पाला बदलने वाले नेताओं की रणनीति समझने की कोशिश करती होगी या उनके अवसरवादपर हंसती-माथा पीटती होगी? और विशेष रूप से, दल बदल करने वाले नेताओं के मतदाताओं की क्या प्रतिक्रिया होती होगी?

यह सवाल इसलिए कि दल बदल करने वाले नेता अपने-अपने क्षेत्रों के दिग्गज हैं और जिस पार्टी में जाएं, अधिकतर चुनाव जीत जाते हैं। अर्थात उनके मतदाता उन्हें दल बदलू’, ‘अवसरवादी,’ ‘सत्ता के भूखे,’ आदि-आदि नहीं मानती। मतदाताओं के सोचने का तरीका फर्क होता है। मीडिया और विशेषज्ञ चाहे जो कहें।

पिछले दिनों हुए चौंकाने वाले दल-बदल का विमर्श इस विचार की पुष्टि करता है। वे दल बदलूकी संज्ञा की बजाय सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा पिछड़ा व दलित जनता की उपेक्षा के विरुद्ध बगावत करने वाले साहसीनेताओं का विशेषण पा रहे हैं। ताज़ा राजनैतिक विमर्श यह है कि भाजपा सरकार ने पिछड़ी एवं दलित जातियों का भला करने के दावों के विपरीत उनकी उपेक्षा की। इसलिए ये नेता पार्टी व सरकार छोड़कर इस समाज की व्यापक नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। उनके मतदाता उन्हें हाथों हाथ ले रहे हैं।

इसके मायने यह हैं कि जिस साफ-सुथरी राजनीति की बातें लेखों, सेमिनारों और निजी बातचीत में भी होती हैं, जिसमें सत्ता पाने के लिए किया जाने वाला दल बदल सबसे निंदनीय होता है, वह व्यवहार में लागू नहीं होता। और, राजनैतिक दल जातीय गुणा-भाग के हिसाब से जो राजनीति करते हैं और जिसे विद्वतजन बढ़ती जातीयता और वैमनस्य के लिए धिक्कारते हैं, वही वास्तव में जमीनी विमर्श है। जनता इसी तरह सोचती है। इसे खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि जातीय भेदभाव और प्रभु वर्गों द्वारा वंचितों की सतत उपेक्षा हाल के वर्षों में राजनीति का महत्वपूर्ण विमर्श बन गया है।

मण्डल आयोग की रिपोर्ट खुलने और ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद से भारतीय राजनीति ने बिल्कुल नई करवट ली। अब पिछड़ों एवं दलितों में भी अति वंचित जातियों ने सामाजिक-राजनैतिक चेतना पाकर सत्ता की राजनीति में अपनी दावेदारी मजबूती से पेश की है। जिन नेताओं को आम तौर पर दल बदलू और सत्ता लोलुप कहकर धिक्कारा जा रहा है, वे इन्हीं वंचित जातियों की महत्वाकांक्षा के प्रतिनिधि बन गए हैं। इसीलिए वे चुनाव जीतने की ताकत पाते हैं। इसीलिए बड़े दल उन्हें अपनी तरफ खींचते हैं और वे अपनी कीमत वसूलते हैं।

जिस तरह पिछड़ा-दलित जातियों में वर्चस्वशाली जातियों ने पहले मलाई खाई और अब चुनौती का सामना कर रहे हैं, हो सकता है आने वाले वर्षों में इन नेताओं को भी अपने जातीय समूहों के भीतर से बड़ी चुनौती मिले। फिलहाल तो ये आंखों के तारे ही हैं।           

(चुनावी तमाशा, नभाटा, 15 जनवरी, 2022)

Thursday, January 13, 2022

योगी आदित्यनाथ की एक बेबाक जीवनी

इन दिनों जब नेताओं की जीवनियां लिखने-छापने की होड़ सी मची हुई है और अधिकसंख्य जीवनियां उनके प्रशस्ति गायन से आगे नहीं जा रहीं, तब दो वरिष्ठ पत्रकारों, शरत प्रधान और अतुल चंद्रा की सद्य: प्रकाशित पुस्तक "YOGI ADITYANATH- Religion, Politics and Power- The Untold Story' (Penguin Books) लेखकीय ईमानदारी, पत्रकारीय वस्तुनिष्ठता, गहन शोध और इस दौर में आवश्यक साहसिक लेखन का बेहतरीन उदाहरण है।

गोरखपुर के प्रसिद्ध गोरक्ष पीठ से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे और करीब पांच साल के शासन के बाद अब चुनाव का सामना करने जा रहे 'महाराज' योगी की यह जीवनी उनके व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन से लेकर शासन-प्रशासन के साथ-साथ खुले-छिपे एजेण्डे एवं कार्य शैली की बारीक पड़ताल करती है। गढ़वाल के एक सुदूर गांव के बालक अजय सिंह बिष्ट के गोरक्ष पीठ पहुंचने, आदित्यनाथ योगी के रूप में महंत अवेद्यनाथ के उत्तराधिकारी बनने, गोरक्षा एवं 'खतरे में पड़ते' सनातन धर्म की रक्षा की राजनीति के जरिए कट्टर हिंदू नेता बनने और पांच बार गोरखपुर से सांसद चुने जाने, 'हिंदू युवा वाहिनी' नाम से आक्रामक हिंदू सेना खड़ी करने और भाजपा नेताओं से सीधा टकराव लेकर अपना दम दिखाने और अंतत: आरएसएस की पसंद से उत्तर प्रदेश का मुख्यमंंत्री बनने की कहानी यह किताब प्रामाणिक संदर्भों के साथ कहती है। 

इस किताब में बहुत कुछ है जो योगी के बारे में अनजाना या बहुत काम जाना गया है। जो गोरखपंथ हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण में तनिक भी भेद नहीं करता रहा और राजनीति से परहेज करता था, वह महंत दिग्विजयनाथ के समय से कैसे हिंदू-राजनीति करने लगा एवं महंत अवेद्यनाथ से होते हुए योगी आदित्यनाथ  के समय में कैसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाने की आक्रामक राजनीति का अगुआ बना, यह सब सिलसिलेवार बताती है यह किताब। गोरखपंथ के समर्पित अनुयायी अनेक मुस्लिम जोगी, जो घूम-घूम कर सारंगी बजाते हुए गुरु मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरखनाथ के साथ ही कबीर के भजन गाते गांव-गांव फिरते थे, वे क्यों एवं कैसे लोप हो गए और आज उनके वंशज किस हाल में हैं, बताती है यह किताब। जिस गोरखनाथ धाम के भीतर आज भी मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं होता, बल्कि आज भी जहां कुछ जिम्मेदार पदों पर मुसलमान बैठे हैं, जहां जनता दरबार से लेकर जन सेवा के अनेक कार्यक्रमों में मुसलमानों को बराबर मौका मिलता है, वहीं मठ के बाहर की राजनीति क्यों नफरत भरी और भेदभावपूर्ण है, इस आश्चर्य को स्पष्ट करती है यह पुस्तक। 

मुख्यमंंत्री बनने से पहले और बाद के योगी के राजनीतिक भाषणों, उनके खिलाफ दर्ज मुकदमों और उनके हश्र, मुख्यमंत्री बनने के बाद उनमें आए बदलावों, उनकी प्रारम्भिक प्रशासनिक अनुभवहीनता और क्रमश: बढ़ती पकड़, उनकी सख्त मिजाजी, सरकार के फैसलों,  उनकी खूबियों, कमियों, मंत्रियों-अफसरों से टकरावों, वगैरह-वगैरह पर शरत और अतुल की यह किताब विस्तार से बात करती है। कोविड महामारी से सफलतापूर्वक निपटने, भ्रष्टाचार समाप्त कर देने और अपराधियों को दुबकने पर मजबूर कर देने के योगी सरकार के दावों की निर्मम पड़ताल भी इसमें है। सोलह अध्यायों में और भी बहुत कुछ है।  

किताब बताती है कि जो आदित्यनाथ भाजपा और संघ से सीधे टकराते रहे, यहां तक कि कभी भाजपा उम्मीदवारों को हराने तक में लगे रहे थे, सबको चौंकाते हुए उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया तो इसके पीछे मोदी और शाह से कहीं अधिक  आरआरएस की जबर्दस्त पैरवी थी क्योंकि हिंदू राष्ट्र बनाने की आक्रामक राजनीति में योगी ने सभी भाजपाई दावेदारों को पीछे छोड़ रखा था। और, क्या उनकी यही राजनीति और आक्रामक तेवर 2024 के बाद मोदी के उत्तराधिकारी यानी भावी प्रधानमंत्री की दावेदारी के करीब ले जा रहे हैं, इस सवाल का उत्तर भी तलाश करते हैं पत्रकार-द्वय। योगी जी की राजनीति की सतथ्य आलोचना करते हुए लेखक-द्वय उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों, विशेष रूप से अखिलेश यादव और मायावती को भी नहीं बखश्ते।

पुस्तक लिखने में किया गया व्यापक शोध एवं श्रम तथा तथ्यों के आधार पर की गई साहसिक टिप्पणियां इस पुस्तक की विशेषता हैं। ये टिप्पणियां और तथ्य अनेक बार योगी जी को कटघरे में खड़ा करते हैं तो लेखक कुछ बातों के लिए उनकी प्रशंशा करने में भी संकोच नहीं करते। लेखकों को योगी जी की सबसे बड़ी अच्छाई उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी, चारित्रिक दृढ़ता, पारदर्शिता और स्पष्टता लगती है। यह जानना रोचक हो सकता है कि सरकार के शुरुआती दिनों में भ्रष्टाचार रोकने के लिए पारदर्शिता पर योगी जी की दृढ़ता ने कई मंत्रियों, विधायकों और अधिकारियों के सामने ऐसा संकट खड़ा कर दिया था कि उनकी शिकायत दिल्ली तक की गई और अमित शाह को दो दिन लखनऊ में रहकर सुनवाई करनी पड़ी थी। 

वर्तमान राजनीतिक हालात एवं हिंदू आक्रामकता से उपस्थित हुई चुनौतियों को समझने के लिए यह किताब पढ़ी जानी चाहिए। सीखने को उत्सुक पत्रकारों को यह किताब समाचारों एवं लेखों में वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी लाने के लिए शोध एवं तथ्यों की अनिवार्यता समझाएगी। शरत प्रधान और अतुल चंद्रा को बहुत-बहुत बधाई।  

 - नवीन जोशी, 13 जनवरी, 2022    

  

    

Wednesday, January 12, 2022

भाजपा की बड़ी सेना के सामने डटे अखिलेश


अखिलेश जीते तो राम मंदिर पर बुलडोजर चलवा देंगे,’ भाजपा नेता उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को आगाह करते फिर रहे हैं। उधर, अखिलेश मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना कर रहे हैं, ब्राह्मण भगवानपरशुराम की मूर्तियां लगवा रहे हैं और जोर-शोर से कहते हैं कि राम मंदिर बन गया तो दर्शन करने अवश्य जाऊंगा।

उत्तर प्रदेश का चुनाव कई दृष्टियों से घमासान है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सभाओं-रैलियों में जिस तरह भीड़ उमड़ी (फिलहाल निर्वाचन आयोग ने कोरोना के कारण इन पर रोक लगा दी है) उससे भाजपा नेताओं के कान खड़े हुए हैं। मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा में ही होता दिख रहा है। राज्य की तीसरी बड़ी ताकत बहुजन समाज पार्टी है लेकिन मायावती के अब तक प्रचार में नहीं निकलने के कारण उसकी लड़ाई की तस्वीर साफ नहीं हो पाई है। तीसरे नम्बर पर तो वह है ही। प्रियंका गांधी ने लड़की हूं, लड़ सकती हूंके नारे के साथ महिलाओं को आगे करके जिस तरह जोर बांधा है उससे भीड़ तो जुटी लेकिन कांग्रेस लड़ाई में आ पाएगी, इसमें सभी को संदेह है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री चुनाव की घोषणा होने और सभाओं-रैलियों पर रोक लगने से पहले ही उत्तर प्रदेश के तूफानी दौरे कर चुके हैं। मोदी जी ने प्रदेश के अपने दौरों में उत्तर प्रदेश के लिए अरबों-खरबों रु की विकास योजनाओं की घोषणा की। गरीबों के कल्याण (मुख्य रूप से खातों में नकद धन भेजना) और विकास योजनाओं के जरिए प्रश्न प्रदेशको उत्तर प्रदेशबनाने का उनका ऐलान यह दिखाने का पुरजोर प्रयास है कि भाजपा का मुख्य फोकस विकास पर है। मुख्यमंत्री योगी भी विकास के दावे करते हुए अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाना नहीं भूलते। किंतु भाजपा का असली चुनावी तुरुप धार्मिक ध्रुवीकरण और मंदिर की राजनीति ही है। इस तुरुप को चलने में वे कोई संकोच भी नहीं बरत रहे। योगी जी ने खुले आम कहा है कि मुकाबला अस्सी बनाम बीस है।उनका इशारा लगभग बीस प्रतिशत मुसलमानों की ओर ही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आक्रामक हिंदू नेता और महंत वाली छवि को प्रमुखता से पेश किया जा रहा है।  

प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ समय पूर्व भव्य समारोह में अयोध्या में राम मंदिर का नींव पूजन किया और अभी हाल में काशी विश्वनाथ मन्दिर कॉरीडोर का उद्घाटन किया, जनता को बार-बार उसकी याद दिलाना वे नहीं भूलते। इन कार्यक्रमों का देश भर में सजीव प्रसारण किया गया और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सामूहिक दौरा कराकर उन्हें योगी के यूपी मॉडलके दर्शन कराए गए। मोदी, शाह और योगी समेत भाजपा नेता अपने भाषणों में जनता को बार-बार यह याद दिलाते हैं कि उनकी सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त किया, पाकिस्तानी आतंकवाद को करारा जवाब दिया, वगैरह। इसके साथ ही वे समाजवादी पार्टी को मुस्लिम परस्त और आतंकियों के मददगार के रूप में पेश करते हैं। कांग्रेस और बसपा पर उनके हमले अब कम हो गए हैं। समाजवादी पार्टी को ही मुख्य निशाने पर रखा जा रहा है और इस तरह से कि हिंदुओं के मन में उसकी छवि हिंदू-विरोधी एवं मुस्लिम-हितैषी की बनी रहे। यही कारण है कि अब्बाजान,’ ‘कब्रिस्तान और जिन्नाका बार-बार उल्लेख किए बिना भाजपा नेताओं के भाषण पूरे नहीं होते।

उधर, अखिलेश यादव पूरी कोशिश कर रहे हैं कि मुस्लिम-विरोधी हिंदू ध्रुवीकरण की भाजपा की कोशिश पूरी तरह सफल न हो। उन्होंने भाजपा की इस तुरुप चाल को विफल करने के लिए अपनी रणनीति बदल रखी है। 2017 के चुनाव में उन्होंने भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के जवाब में मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश की थी। तब उनकी सरकार ने कब्रिस्तानों की चारदीवारी बनवाने के लिए अनुदान जारी किए, आतंकवादी गतिविधियों के अभियुक्त निर्दोषमुसलमान युवकों को रिहा कराया और हाईस्कूल-इण्टर पास करने वाली मुस्लिम लड़कियों के लिए वजीफे घोषित किए। भाजपा ने उनकी सरकार के इन फैसलों से उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने में सफलता पाई। प्रधानमंत्री मोदी तक ने कब्रिस्तान बनाम श्मशानके ताने कसकर तालियां लूटी थीं। मोदी और योगी आज तक उसका उल्लेख करना नहीं भूलते।

इस बार अखिलेश जानबूझकर मंदिरों में जा रहे हैं, बाबरी मस्जिद गिराए जाने का कोई उल्लेख नहीं कर रहे, बल्कि राम मंदिर बनने पर दर्शन करने की बात कर रहे हैं और जगह-जगह भगवान परशुरामकी मूर्ति लगवा रहे हैं। वे पूरी कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा उन्हें हिंदू विरोधी साबित न कर सके। भाजपा से नाराज बताए जा रहे ब्राह्मणों को खुश करने की उनकी पूरी कोशिश है। यह सच है कि यादवों के अलावा मुसलमान वोट उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं लेकिन इस बार वे मुसलमानों को खुश करने की प्रकट रूप में कोई ऐसी कोशिश नहीं कर रहे कि वह नज़र में आए। इसी कारण उन्होंने कट्टर मुस्लिम नेता माने जाने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से गठबंधन नहीं किया। इससे हिंदुओं में सपा के विरुद्ध ध्रुवीकरण तेज ही होता। मुस्लिम आबादी के बीच सपा का चुपचाप प्रचार अभियान चल रहा है। वे मानते हैं कि भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों के पास समाजवादी पार्टी ही एकमात्र विकल्प है। वे किसी और को वोट नहीं देंगे।

अखिलेश यादव ने राजनैतिक परिपक्वता दिखाते हुए इस बार न केवल अपने बागीचाचा शिवपाल यादव की पार्टी को गले लगा लिया, बल्कि पिछड़ी जातियों के अन्य छोटे-छोटे दलों से भी चुनाव  समझौता करने की पहल की। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 2014 से अति पिछड़ी और अति दलित जातियों को जोड़ने की जो पहल की है उसके मुकाबले के लिए अखिलेश ने भी गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों की कम से कम पांच छोटी पार्टियों से चुनाव समझौता किया है। पश्चिम में जयंत चौधरी उनके सहयोगी हैं ही। दलित जातियों में सेंध लगाने के लिए उन्होंने मायावती से खिन्न और बसपा से बहिष्कृत कई दलित नेताओं को सपा में शामिल किया है। कांग्रेस और बसपा के कई नेताओं के अलावा भाजपा के चंद असंतुष्ट नेता भी सपा में शामिल हुए हैं। इसे सपा की बढ़ती दावेदारी का संकेत माना जा रहा है। मीडिया में भाजपा का वृहद विज्ञापन अभियान सपा के विरुद्ध ही केंद्रित है।

उत्तर प्रदेश की सत्ता कायम रखना भाजपा के लिए 2024 के आम चुनाव की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है तो अखिलेश के लिए उसे अपदस्थ करना अपना राजनैतिक अस्तित्व कायम रखने के लिए बहुत जरूरी है। बसपा और कांग्रेस अभी हाशिए की पार्टियां नज़र आती हैं। भाजपा के पास मोदी की लोकप्रियता और योगी की कट्टर हिंदू नेता की छवि के अलावा अमित शाह समेत स्टार प्रचारकों की बड़ी फौज है। कोरोना काल में डिजिटल प्रचार में भी भाजपा बहुत आगे है। बूढ़े और बीमार पिता मुलायम सिंह यादव की अनुपस्थिति में अखिलेश अकेले दम पर इस विशाल सेना के खिलाफ डटे हैं। मुकाबला वास्तव में घमासान और रोचक है।                                         

(प्रभात खबर, 13 जनवरी, 2022)

Friday, January 07, 2022

महंगे चुनावों को सस्ता क्यों नहीं किया जाए?

चुनाव प्रचार के लिए खर्च की सीमा एक बार फिर बढ़ाई जा रही है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में अब लोक सभा चुनाव के प्रत्याशी 95 लाख रु खर्च कर सकते हैं। अब तक यह सीमा 70 लाख थी। छोटे राज्यों में यह सीमा 54 लाख से बढ़ाकर 75 लाख की जा रही है। विधान सभा चुनाव में इसे क्रमश: 28 लाख की बजाय 40 लाख और 20 लाख की बजाय 40 लाख किया जा रहा है। यह कागजी सीमा है। सभी जानते हैं कि प्रत्याशी इस सीमा से कई गुणा खर्च करते हैं।

चुनाव आयोग का तर्क है कि महंगाई बहुत बढ़ गई है। इसलिए चुनाव खर्च बढ़ाया जाना चाहिए। महामारी के पहले-दूसरे दौर में जो चुनाव हुए थे उनके लिए खर्च सीमा में 10 फीसदी की वृद्धि पहले ही कर दी गई थी- ऑनलाइन प्रचारको बढ़ावा देने के लिए।  

महंगाई बढ़ने का तर्क देकर चुनाव प्रचार खर्च की सीमा बढ़ाते जाना कितना उचित है? क्या चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाकर चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता जनता के उस वर्ग से छीनी नहीं जा रही है जो इतने बड़े  पैमाने पर खर्च करने की होड़ में शामिल नहीं हो सकते? गरीब जनता के सामान्य प्रतिनिधि कैसे चुनाव लड़ें? जो प्रत्याशी विज्ञापनों, सभाओं-रैलियों, पोस्टर-बैनरों-होर्डिंगों, समर्थकों के हुजूम, आदि पर बेहिसाब खर्च नहीं कर सकते, वे चुनाव मैदान में अपने होने को कैसे साबित करें?

क्या यह बात चुनाव आयोग से छिपी है कि अवैध रूप से शराब और नकदी बांट कर बाहुबली और धनबली प्रत्याशी चुनाव लड़ते और जीतते हैं? यह गुप-चुप खर्च होता है जो करोड़ों रु तक जाता है। प्रचार खर्च की सीमा बढ़ाना प्रकारांतर से उन्हीं की मदद करना नहीं है? क्या यह चुनावों पर बढ़ते धन के प्रभाव को और बढ़ाना नहीं है? क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि बेहिसाब धन बहाकर चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल और नेता अथाह पैसा कमाते हैं? क्या यह राजनैतिक भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करना नहीं है?

देश के विभिन्न भागों में सामाजैक-राजनितिक जन आंदोलनों से उभरे समर्पित और ईमानदार नेता समाज और राजनीति में बदलाव लाने के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं। कई चुनाव मैदान में उतरते भी हैं। उनके पास अपना प्रचार करने के लिए जन सहयोग से जुटाया गया बहुत थोड़ा धन होता है। इसी कारण वे धनबली प्रत्याशियों के सामने कहीं टिक नहीं पाते। उनके चुनाव लड़ने की सूचना तक क्षेत्र की जनता को पूरी तरह नहीं हो पाती। मीडिया भी उन्हीं की ओर ध्यान देता है जो भारी खर्च करके छाए रहते हैं। अगर लोकतंत्र में सबको चुनाव लड़ने का बराबर अधिकार है तो उन्हें प्रचार के स्तर पर भी समानता मिलनी चाहिए। क्या चुनाव खर्च की वर्तमान सीमा में समानता के इस अधिकार की रक्षा हो पा रही है?

जिस तरह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी, मकान जैसी आवश्यक सुविधाओं पर धनबलियों का कब्जा है, उसी तरह चुनाव लड़ना और जीतना भी धनबलियों का विशेषाधिकार बन गया है। एक जमाना था जब जन जनसेवक पैदल या साइकिल से प्रचार करके चुनाव जीत जाते थे। चंद पूर्व विधायक या सांसद अभी मिल जाते हैं जो बताते हैं कि उन्होंने सिर्फ दो-चार हजार रु में चुनाव लड़ा था। अब जनसेवक रहे नहीं और धनसेवक जनाधार के बिना भी धनाधार से चुनाव जीत जाते हैं या मुख्य मुकाबले में रहते हैं। नामांकन के समय दाखिल किए जाने वाले शपथपत्र गवाह हैं।

महंगाई बढ़ने का चुनाव आयोग का तर्क वास्तव में गरीबों पर लागू होना चाहिए, धनबलियों-बाहुलियों पर नहीं। बढ़ती महंगाई के कारण चुनाव लड़ना सस्ता किया जाना चाहिए यानी खर्च सीमा कम की जानी चाहिए।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 08 जनवरी, 2022)