Friday, January 31, 2020

घने अंधेरों से लड़ते हुए वसंत की प्रतीक्षा का दर्शन


इस बार जाड़ा कुछ लम्बा खिंच गया. शिशिर और हेमंत ने खूब कंपाया. अब वसंत आ गया है लेकिन जैसे अभी कुछ दिन अपने बड़े भाइयों का साथ नहीं छोड़ना चाहता. पहाड़ों पर वर्षा और हिमपात का एक और दौर चल रहा है. मैदानों में भी बदली-बारिश रहे. वसंत का वर्षा से भी रिश्ता है.

अब कुछ दिन के लिए सुबह-शाम की गुलाबी सर्दी रह जाएगी. दिन में धूप हर दिन तीखी होती दिखेगी और तेज़ हवाएं वृक्षों की शाखाओं को पत्र-विहीन कर देंगी. उन्हीं रूखी डालों पर फिर वसंत वासंती वसन पहने इतराएगा. वसंत का आना मौसम का त्वरित गति से बदलना होता है. शीत-सुप्तता से जागती सम्पूर्ण प्रकृति का आनन्दोत्सव. उसका सबसे मोहक और प्रजनक रूप.

लखनऊ का शाहीनबागबन गए घण्टाघर में हलकी फुहारों का सामना करते हुए वसंत पंचमी की शाम लगा कि वसंत भी वहां उपस्थिति दर्ज़ कराने आया है. उस बारिश से वहां कोई डरा-भागा नहीं. जो वसंत लाने के लिए लड़ते हैं, वे मौसमों के बदलने का स्वागत करते हैं.

प्रकृति के सहज-स्वाभाविक कायान्तरण की तरह मानव का जीवन भी चल पाता तो क्या बात थी! वहां कभी एक मौसम समय बीत जाने के बाद भी टलने का नाम नहीं लेता और कभी सारे मौसम एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो धमक पड़ते हैं. और, सबके लिए अलग-अलग. किसी के लिए वसंत का उल्लास छाया रहता है तो किसी को पतझड़ शोक संतप्त किए होता है.

मानव-समाज की प्रगति-यात्रा इन व्यक्तिगत मौसमों की परवाह नहीं करती. वह एक लम्बे दौर में तमाम विपरीत मौसमों, झंझावातों से लड़ती यहां तक पहुंची है. आग, पहिए और अब इण्टरनेट जैसे आविष्कारों ने उसकी दुनिया को बेहतर भविष्य की तरफ गति दी तो परिवार, समाज और राज्य की संरचना ने उसे सभ्यता सिखाई. हमें सभ्यबने कितना लम्बा समय गुजर गया लेकिन क्या सभ्यता का वसंत आ पाया?

जिसे हम मानव की विकास यात्रा कहते हैं, वह कितनी सारी विपरीत शक्तियां अपने साथ लिए चलती है. एक-दूसरे को दबाती-धकेलती हुई ये ताकतें कभी हमें पीछे की ओर ले जाती भी लगती हैं. ऐसा भी होता है, जैसे आजकल लग रहा है, कि यह पीछे की ओर जाना बहुत सारे लोगों को आगे की ओर जाना लगता है.

प्रतिगामी शक्तियां हर युग में रही हैं, कभी अन्तर्धारा की तरह चुपचाप, तो कभी हावी होती हुई. धर्म-जाति-नस्ल के झग़ड़े खत्म होते नहीं लगते और विनाशकारी युद्ध दुनिया में हर वक्त कहीं न कहीं चलते रहते हैं. हिटलर भी हमारे बीच पैदा होते हैं और गांधी भी. कोई गांधी की हत्या भी कर सकता है, यह कल्पनातीत लगता है लेकिन वह कोई अकेला सिरफिरा नहीं था, यह भी हम सब जानते हैं.

मानव सभ्यता का वसंत यदि सारे झगड़े मिट जाना है तो वह बहुत-बहुत दूर लगता है. सृष्टि ने तो इनसान को बांटा नहीं. इनसान ने ही अपने को तरह-तरह से बांट लिया और झगड़े खड़े कर लिए. झगड़ना ही जैसे जीवन का लक्ष्य बना हुआ है. कितने सारे झगड़े चारों ओर मचे हैं.

घण्टाघर में अकेले टहलते-सोचते, तरह-तरह की आवाजें सुनते हुए लग रहा था कि सब झगड़े मिटें, इसके लिए भी झगड़ना पड़ता है. कितनी सारी महिलाएं कितने दिनों से वहां जूझ रही हैं कि उनकी आवाज सुनी और मानी जाए. संविधान नाम की पवित्र पुस्तक में जो लिखा है, वह अमल में लाया जाए. उनकी आवाज को भी कितनी नज़रों से देखा जा रहा है.  वसंत लाने के लिए लड़ना पड़ता है. सतत.

हां! गहन शीत काल में शाखाओं-प्रशाखाओं के भीतर घने अंधेरों से कितनी बड़ी लड़ाई करके वसंत खिलखिला पाता है, यह हमें कहां दिखता है.  
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 01 फरवरी, 2020)  
 

Thursday, January 30, 2020

भाजपा के जाल में फंसे नीतीश सिर्फ छटपटा सकते हैं



नीतीश कुमार ने पवन कुमार वर्मा और प्रशांत किशोर को जनता दल (यू) से निकाल दिया है. कभी ये दोनों उनको विशेष प्रिय थे. राजनीति में ऐसा होता रहता है.

राजनीति में जो अक्सर नहीं होता, वह नीतीश कुमार का कुछ बेहतरीन मौके गंवा देना है. नीतीश ने खुद सुंदर मौके गंवाए, इससे ज़्यादा सही यह कहना होगा कि भाजपा ने उनसे छीन लिए. आज नीतीश को भाजपा ने इस तरह फंसा कर निरुपाय कर दिया है कि वे छटपटा तो सकते हैं लेकिन बाहर आने का रास्ता नहीं दिख रहा.

नीतीश को कहां होना था और हैं कहां! उन्हें मोदी के मुकाबले विपक्ष का सर्वाधिक विश्वसनीय एवं प्रतिष्ठित चेहरा होना था. देश के राजनैतिक मंच पर जो बहुत बड़ा भाजपा-विरोधी स्पेस है, उस पर नीतीश को छाए रहना था. उसकी बजाय आज वे भाजपा के लिए एक मोहरे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. मोदी के सामने उनकी कोई हैसियत नहीं है. विपक्ष के लिए वे भाजपा की गोद में बैठेमौका परस्त नेता से ज़्यादा नहीं रह गए हैं. जद (यू) में रहकर भाजपा को कोसते रहने वाले अपने दोनों नेताओं को निकालने के अलावा उनके पास चारा क्या था.

शानदर अवसर गंवा देने या भाजपा के हाथों लुटा बैठने की कसक नीतीश को अवश्य सताती होगी. पवन कुमार वर्मा ने नीतीश कुमार की बेचैनियों और हताशा की जो बातें उन्हीं के हवाले से लीक की हैं, वह निराधार नहीं.

किस्सा 2017 में शुरू हुआ. जब नीतीश ने लालू यादव और कांग्रेस के साथ बना महागठबंधन, जिसने बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा को हराकर बहुमत पाया था, अचानक तोड़ दिया और भाजपा से एक बार फिर अपनी डोर बांध ली. नीतीश ने उस समय सोचा था कि लालू से पिण्ड छुड़ाकर वे अपनी मिस्टर क्लीनकी छवि बचा रहे हैं लेकिन वे सिर्फ मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचा पाए. एक बड़े विपक्षी नेता का दर्जा, विश्वसनीयता और आने वाले समय में भाजपा-विरोधी स्पेश पर छा कर मोदी से बराबर की टक्कर लेने के शानदार अवसर उन्होंने गंवा दिए.      

भाजपा ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी थीं. वह दूर तक देख रही थी. नीतीश कुमार की नज़र वहां तक नहीं गई या उनका हिसाब गड़बड़ा गया था.

मोदी सरकार ने लालू यादव पर उनके किए पुराने घोटालों के कारण सीबीआई का ऐसा शिकंजा कसा कि नीतीश को उनके साथ रहना अपनी स्वच्छ छवि पर बड़ा दाग लगने लगे. लालू जैसे महाभ्रष्टका साथ देने के लिए भाजपा नीतीश को खूब लताड़ती भी थी. लालू के बेटे और तकालीन उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के कारण नीतीश के लिए स्थितियां और कठिन हो गई थीं. 

महागठबंधन के भीतर इसका कोई रास्ता निकालने की बजाय तब नीतीश भाजपा के बुने जाल में फंस गए. उन्होंने महागठबंधन से नाता तोड़ कर भाजपा के साथ सरकार बना ली. भाजपा की इसके पीछे बड़ी चाल थी, जिसे नीतीश नहीं भांप पाए.

2017 आते-आते मोदी सरकार के खिलाफ कई राष्ट्रीय मुद्दे खड़े हो गए थे. नोटबंदी के दुष्परिणाम से गरीब-गुरबे और छोटे उद्यमी त्राहि-त्राहि कर रहे थे. बेरोजगारी लगातार बढ़ रही थी. किसान असंतोष चरम पर था. गुजरात में पटेल और महाराष्ट्र में मराठा जैसे तातकतवर समुदाय आक्रोशित थे. खुद भाजपा को लग रहा था कि 2019 का आम चुनाव उसके लिए बहुत कठिन होने वाला है. उसका आन्तरिक चुनावी आकलन चिंताजनक था.

उधर, विपक्ष एक जुट होने की कोशिश कर रहा था. दिल्ली में विपक्षी नेताओं की कई बैठकें हो चुकी थीं. एक संयुक्त मोर्चा बनाने की पहल हो रही थी. नीतीश कुमार इनमें अग्रणी थे. भाजपा-विरोधी विपक्षी खेमा उन्हें सोनिया और राहुल से ज़्यादा महत्त्व दे रहा था. राष्ट्रपति चुनाव में राजग प्रत्याशी के मुकाबले संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार उतारने के लिए नीतीश कुमार ही पहल कर रहे थे. इसके लिए 18 दलों का जो मोर्चा बन रहा था, नीतीश कुमार को उसका संयोजक बनाया गया था.

पूरी सम्भावना बन रही थी कि भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथ में आएगा. साफ-सुथरी छवि, बिहार में अच्छा काम करने का रिकॉर्ड और साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध खड़े रहने की उनकी रणनीति (बिहार में पहले भाजपा के साथ सरकार चला चुकने के बावजूद उनकी ऐसी छवि कायम थी) उन्हें 2019 तक मोदी के बराबर खड़ा कर देगा. मोदी को वे लगातार चुनौती दे भी रहे थे. दूसरा कोई विपक्षी नेता इस स्थिति में था नहीं. सोनिया और राहुल पर कई क्षेत्रीय क्षत्रपों को आपत्ति रही है.

भाजपा क्यों चाहती कि नीतीश कुमार जैसा प्रतिद्वंद्वी मोदी के खिलाफ खड़ा हो पाए. उसने बिहार में ऐसा दांव चला कि नीतीश उसके पाले में आ गिरे. तब से नीतीश की हैसियत बिहार के मुख्यमंत्री से अधिक कुछ नहीं है. मोदी और शाह उनके नेता है और वे इन दोनों के लिए एक राज्य का मुख्यमंत्री भर.

2019 में कोई विपक्षी मोर्चा बनता और नीतीश उसके नेता होते तो चुनाव का नतीज़ा क्या होता, यह कयास लगाने का कोई अर्थ आज नहीं है. हो सकता है तब भी परिणाम वही होते, लेकिन नीतीश का कद एक बड़े राष्ट्रीय विपक्षी नेता का अवश्य होता और वे आज भी मोदी को चुनौती दे रहे होते. देश भर की भाजपा-विरोधी आवाज़ का प्रतिनिधित्व वे कर रहे होते.

यह अवसर खो देने का मलाल निश्चय ही नीतीश को है. पवन कुमार वर्मा की चिट्ठी और कुछ दूसरी रिपोर्ट बताती हैं कि 2018 के उत्तरार्द्ध में ही नीतीश को यह लगने लगा था कि भाजपा ने उन्हें फंसा लिया है. ऐसे तथ्य भी सामने आए हैं कि तब उन्होंने राहुल गांधी से चार मुलाकातें की थीं कि कोई दूसरी राह खुले.  पवन कुमार वर्मा के अनुसार नीतीश ने कुछ महीने पहले उनसे कहा था कि भाजपा उन्हें अपमानित करती है और यहां उनकी कोई हैसियत नहीं रह गई है. मोदी सरकार के कई फैसलों पर भी वे व्यक्तिगत बातचीत में गुस्सा प्रकट करते रहे हैं.    

नागरिकता कानून पर पहले सरकार का साथ देने के बाद नीतीश कुमार ने शायद अपने कदम कुछ वापस इसीलिए खींचे हैं. अब एनआरसी को गैर-जरूरी बताने लगे हैं. एनपीआर पर भी वे बिहार में कुछ बदलाव करने की बात कर रहे हैं.

भाजपा आज भी नहीं चाहती कि नीतीश कुमार उससे अलग हों. उसे नीतीश की बेचैनी और घुटन का अंदाज़ा अवश्य होगा. इसीलिए अमित शाह ने पिछले दिनों घोषणा कर दी कि बिहार विधान सभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. यह भाजपा की उदारता नहीं, नीतीश कुमार को बांधे रखने की चाल है.

नीतीश की छटपटाहट स्वाभाविक है. इस समय जब विपक्ष का कोई विश्वसनीय, सर्व स्वीकार्य बड़ा नेता नहीं है, नीतीश एक बड़ी सम्भावना हो सकते हैं. 2019 में वे यह जगह बहुत अच्छी तरह भर सकते थे. तब भाजपा ने फंसा लिया था. आज नीतीश एनडीए में कसमसा रहे हैं लेकिन भाजपा ने उन्हें बांध रखा है.

पवन कुमार वर्मा और प्रशांत किशोर को निकाल कर नीतीश कुमार ने यही विवशता दिखाई है.  


(https://www.yoyocial.news/yoyo-in-depth/najaria/nitish-trapped-in-bjps-net-can-only-splash)

Wednesday, January 29, 2020

संसदीय विशेषाधिकार पर प्रश्न


बीती 21 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी पर देश का विशेष ध्यान नहीं गया या उसका कम नोटिस लिया गया. नए नागरिकता कानून और एनआरसी पर जारी राष्ट्रव्यापी विवाद और गणतंत्र दिवस समारोहों की गहमागहमी एक कारण हो सकता है. या क्या पता, नेतागण इस स्थिति का सामना ही नहीं करना चाहते हों! 

उस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद को सलाह दी कि उसे संविधान संशोधन करके सदन के अध्यक्षों से दल-बदल कानून के तहत किसी सदस्य (सांसद/विधायक) की सदस्यता खत्म करने या बनाए रखने का विशेषाधिकार वापस लेने पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए. यानी, दल बदल करने वाला सांसद/विधायक सदन की सदस्यता के योग्य रह गया है या नहीं, यह फैसला करने का अधिकार सदन के अध्यक्ष के पास अब नहीं रहना चाहिए.

दल-बदल कानून में व्यवस्था है कि सांसद अथवा विधायक की सदस्यता पर फैसला केवल और केवल सदन का अध्यक्ष ही कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट भी इस व्याख्या से सहमत होता आया है. अलग-अलग मामलों में वह कई बार निर्देश दे चुका है कि विधान सभाध्यक्ष को किसी विषेष मामले में उचित समय के भीतर निर्णय कर लेना चाहिए. अब उसकी राय इस व्यवस्था पर सिरे से ही पुनर्विचार करने की है.

ऐसी सलाह देने के कारण हैं. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि सदन के अध्यक्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपने इस गरिमापूर्ण दायित्व के बावज़ूद एक पार्टी-विशेष से जुड़ा रहता है. इसलिए दल-बदल के मामलों में फैसला करते समय अध्यक्ष के आसन पर बैठे राजनैतिक व्यक्ति का विवेक प्रभावित होता है. अत: सदन की सदस्यता के योग्य या अयोग्य घोषित करने का अधिकार किसी बाहरी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को सौंप देना चाहिए जिसका प्रभारी सुप्रीम कोर्ट का अवकाशप्राप्त न्यायाधीश या किसी उच्च न्यायालय का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या कोई अन्य व्यक्ति हो ताकि फैसला शीघ्र और निष्पक्ष ढंग से लिया जा सके.

सीधे-सीधे कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने साफ माना है कि दल-बदल कानून पर फैसला लेते समय सदन के अध्यक्षों के फैसले राजनैतिक स्वार्थ से प्रभावित होते हैं. इसी कारण दल-बदल कानून बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा. बल्कि, अनेक बार उसका मखौल बनकर रह जाता है.

सर्वोच्च न्यायालय ने यह सलाह पहली बार नहीं दी है, बीते नवम्बर मास में भी उसने ऐसी ही टिप्पणी की थी, जब कर्नाटक के कुछ विधायकों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का मामला विधान सभाध्यक्ष के पास लम्बित पड़ा था. फैसला सुनाने से पहले वे पूरी तरह आश्वस्तहोना चाहते थे और इसमें समय लग रहा था. तब सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यहां तक कह दिया था कि अगर कोई विधान सभाध्यक्ष अपनीराजनैतिक पार्टी की इच्छा से अप्रभावित नहीं रह सकता तो उसे उस पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है.

पिछले सप्ताह भी तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ऐसी ही बात कही. पीठ ने सवाल उठाया कि विधान सभाध्यक्ष, जो एक राजनैतिक पार्टी से जुड़ा होता है, उसे राजनैतिक कारणों से दल-बदल करने वाले सदस्य की सदस्यता के बारे में फैसला करने का एकमात्र और अंतिम अधिकार क्यों होना चाहिए. इसीलिए शीर्ष अदालत चाहती है कि संसद इस संवैधानिक व्यवस्था पर पुनर्विचार करे.

यह सलाह इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में ऐसे मामले बढ़ते आए हैं. अरुणाचल, उत्तराखण्ड, मणिपुर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आदि ताज़ा उदाहरण हैं. दल-बदल करने वाले सदन की सदस्यता के योग्य रह गए हैं या नहीं, हर बार यह प्रश्न विधान सभाध्यक्ष के पास पहुंचता है. वे अपने विवेक का पूरा उपयोग करते हैं. कई बार फैसला तुरन्त आ जाता है और कई मामलों में महीनों लम्बित रहता है.

विधान सभाध्यक्षों के विवेकपूर्ण फैसले से कभी कोई सरकार गिर जाती है और कोई अल्पमत में होने की सम्भावना के बावज़ूद बनी रहती है. अनेक बार तो अध्यक्ष का लम्बित फैसला और भी सदस्यों को दल-बदल करने के पर्याप्त अवसर देता लगता है. ऐसे में अक्सर प्रभावित पार्टी सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है. वहां से यही फैसला आता है कि यह निर्णय करने का अधिकार सिर्फ विधान सभाध्यक्ष को है और उन्हें उचित समयके भीतर निर्णय दे देना चाहिए. यह उचित समय क्या हो, यह भी अध्यक्ष ही तय करता है. कई बार इसमें महीनों लग जाते हैं. कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अध्यक्ष को एक समय-सीमा के भीतर निर्णय करने का निर्देश भी दिया, जिसे अध्यक्ष ने अपने अधिकारों में हस्तक्षेप माना.

जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यहीनता आती गई, हमारी कई संवैधानिक व्यवस्थाओं की कड़ी परीक्षा होती रही. संविधान निर्माताओं ने व्यवस्थाएं बनाते समय यही सोचा होगा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता से निरपेक्ष होकर यथासम्भव निष्पक्ष निर्णय देंगे. इसीलिए सदन के अध्यक्ष के आसन पर बैठने वाले व्यक्ति से अपेक्षा की गई है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति समान भाव रखेगा. मूल्यहीनता के वर्तमान दौर में ऐसा होता नहीं.  तब क्या उपाय हो? क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदला जाना चाहिए, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय चाहता है?

दल-बदल कानून भी एक तरह से हाल के वर्षों की व्यवस्था है. वह 1985 में बना, जब आया राम, गया रामकी नई परिपाटी ने दलगत निष्ठा और मतदाता के चयन को ही खिलवाड़ बनाकर रख दिया था. कुछ समय तक लगा कि नए कानून से दल-बदल का अनैतिक और स्वार्थी खेल रुक रहा है या कम से कम कुछ अंकुश लग रहा है. शीघ्र ही इस कानून से बचने के संवैधानिक रास्ते भी निकाल लिए गए. तब? यदि सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार सदन के अध्यक्ष का अधिकार किसी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को दे दिया जाए, तो आज के दौर में क्या गारण्टी है कि वह यथासम्भव निष्पक्ष और दबाव-मुक्त रह ही सकेगा?

हमारे संविधान निर्माता बड़े दूरदर्शी थे. उन्होंने विचारों और मूल्यों की राजनीति की थी. ऐसी ही अपेक्षा वे आने वाली पीढ़ी से भी करते थे, हालांकि आशंकित भी थे. 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में डॉ आम्बेडकर और डॉ राजेंद्र प्रसाद दोनों ने स्पष्ट चेता दिया था कि हम चाहे कितना ही अच्छा संविधान बना दें, यदि आने वाले लोग, जिन पर इस संविधान के पालन का दायित्व होगा, अच्छे नहीं हुए तो संविधान  भी अच्छा साबित नहीं होगा.

कमी कानून या संविधान में नहीं, उसकी असली मंशा समझने और उसे लागू करने वालों में है. ऐसे में क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल कर उस मंशा की रक्षा की जा सकती है जो संविधान या कानून का मूल ध्येय है?
        
(प्रभात खबर, 30 जनवरी, 2020)  
 

Saturday, January 25, 2020

‘पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो स्वतंत्रता खतरे में होगी’


इन दिनों जब मोदी सरकार के कतिपय संविधान-विरोधी कदमों के कारण देश आंदोलित है और भाजपा पर जान-बूझकर संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ करने के चौतरफा आरोप लग रहे हैं, स्वाभाविक ही यह जानने की इच्छा होती है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनी अगली पीढ़ियों से क्या अपेक्षा की थी? क्या लम्बे विचार-विमर्श और वाद-विवाद के बाद आम सहमति से एक संविधान बनाकर ही वे निश्चिंत हो गए थे कि भविष्य में सब ठीक-ठाक चलेगा? क्या उन्हें कुछ आशंकाएं थीं कि भविष्य में कभी कोई सरकार उनकी मंशा के विपरीत आचरण कर सकती है?

इस बारे में संविधान सभा की अंतिम बैठकों की कार्यवाही महत्त्वपूर्ण रोशनी डालती है. उससे पता चलता है कि हमारे संविधान निर्माताओं को ऐसी कोई गलतफहमी नहीं थी कि उनका बनाया श्रेष्ठ संविधान इस देश को अपने आप निश्चित राह पर चलाता रहेगा और भविष्य के नेताओं को कुछ नहीं करना पड़ेगा. बल्कि, उन्होंने भविष्य के नेताओं से संविधान की मूल भावना को लगातार समझने और उसके अनुरूप आचरण करते रहने की अपेक्षा की थी. साथ ही कुछ चेतावनियां भी दे डाली थीं.

संविधान की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष डॉ भीम राव आम्बेडकर और संविधान सभा के सभापति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने जो कहा था उसे आज के संदर्भ में अवश्य देखना चाहिए. वे निश्चय ही भविष्यद्रष्टा थे. इसीलिए दूर-दूर तक देख पा रहे थे. 25 - 26 नवम्बर, 1949 को हुई संविधान सभा की अंतिम बैठकों में डॉ आम्बेडकर की यह चेतावनी देखिए-

“मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा. दूसरी ओर, संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा.... कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनैतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? जातियों तथा सम्प्रदायों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा, विभिन्न तथा परस्पर विरोधी विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दल बन जाएंगे. क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता. लेकिन यह बात निश्चित है कि यदि राजनैतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और सम्भवतया हमेशा के लिए खतरे में पड़ जाए.” (हमारा संविधान, सुभाष काश्यप, पृष्ठ 31)

क्या आम्बेडकर उन राजनैतिक ताकतों को पहचान रहे थे जो ऐसा कर सकते हैं? क्या वे 1949 में 2014 और उसके बाद पैदा होने वाले आज के खतरे देख पा रहे थे? क्या उन्होंने इसीलिए आगे यह नहीं कहा था कि “हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए. हमें अपनी आज़ादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए.’’
और देखिए, समापन भाषण में डॉ राजेंद्र प्रसाद क्या कह गए- “आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है. इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों के द्वारा होता है जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं. भारत को ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हों और देश के हित को सर्वोपरि रखें. हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. हममें साम्प्रदायिक अंतर हैं, जातिगत अंतर हैं, भाषागत अंतर हैं, प्रान्तीय अंतर हैं. इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले लोगों की, दूरदर्शी लोगों की ज़रूरत है जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदाब न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं. हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आएंगे.” (हमारा संविधान, सुभाष काश्यप, पृष्ठ 32)       

आज ठीक वही खतरे और आशंकाएं हमारे सामने सिर उठाए खड़े हैं जिनके बारे में संविधान निर्माता हमें आगाह कर गए थे. देश से ऊपर पंथ को रखने की कोशिश की जा रही है. धर्म के आधार पर भेद करने वाला कानून बना दिया गया है. संविधान के नाम पर शपथ लेने वाले ही उसकी मूल भावना के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.  

खतरे सामने आए हैं तो डॉ राजेंद्र प्रसाद की उम्मीदें भी फल-फूल रही हैं. आज यह देखना आश्वस्तिदायक है कि नए नागरिकता कानून और एनआरसी के विरुद्ध देश भर में जारी आंदोलनों में जनता, विशेष रूप से युवा पीढ़ी अपने संविधान की दुहाई दे रही है, उसकी प्रस्तावना का पाठ कर रही है. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के हाथों में संविधान बचाने की अपील करते पोस्टर हैं. याद नहीं पड़ता कि इससे पहले कभी अपने संविधान और उसकी मूल भावना को आंदोलनकारियों ने इस तरह अपनी ताकत बनाया हो. यह आह्लादकारी है.

आंदोलन में संविधान के इस रचनात्मक उपयोग ने नागरिकता कानून के संविधान-विरोधी होने को ही रेखांकित नहीं किया है, बल्कि संविधान को भी आम चर्चा के केंद्र में ला दिया है. जो संसद और अदालतों में संविधान को उद्धृत किय, जिस पर कानूनविद बहस करते हैं, वह आज जनता के हाथों में भी दिख रहा है. अनेक विविधताओं के बावज़ूद इस देश को एक सूत्र में बांधे रखने वाले किसी संविधान के कहीं होने की जो प्रतीति होती थी, वह आज व्यवहार में है

सन 2020 की शुरुआत में संविधान संसद या अदालतों में रखा गया कोई पवित्र ग्रंथ भर नहीं रह गया है. आज आंदोलनकारियों के हाथों में संविधान की प्रतियां हैं. कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लड़के-लड़कियां संविधान की प्रस्तावना हाथ में लिए लहरा रहे हैं. उसे पढ़ रहे हैं. समझ रहे हैं. समझ कर और जोर से नारे लगा रहे हैं. इस देश के आम जन को, युवा पीढ़ी को संविधान का अर्थ समझ में आ रहा है. उन्हें लग रहा है कि मोदी सरकार ऐसा कुछ कर रही है जो संविधान के विरुद्ध है. संविधान के विरुद्ध है तो देश के विरुद्ध है. इसलिए उसका प्रतिकार होना चाहिए. यह समझ उनके प्रतिरोध को त्वरा दे रही है. वे यह भी ठीक से समझ रहे हैं कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने का यह अधिकार उन्हें यही संविधान देता है. वे पहली बार अच्छी तरह यह जान रहे हैं कि संविधान आम भारतीय जनता को कुछ ऐसे मूल अधिकार देता है जिन्हें कोई नहीं छीन सकता. अब तक उन्होंने यह किताबों में पढ़ा था और परीक्षाओं में लिखा भर था. आज वे इसे अनुभव कर रहे हैं. इसलिए लड़ रहे हैं.

लखनऊ के जीपीओ पार्क में गांधी प्रतिमा के नीचे या पटना के आयकर गोलम्बर पर या दिल्ली के जंतर-मंतर और शाहीन बाग में या कर्नाटक और मुम्बई की सड़कों पर जब इस देश का युवा अपने संविधान की प्रस्तावना का सजोर पाठ करता है तो उन शब्दों का मर्म उसके दिमाग में गूंजता है- “हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उन सबमें बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं.”

ये सामान्य शब्द नहीं हैं. यह भारत की समस्त जनता का भारत की समस्त जनता से किया गया दृढ़ संकल्प है. यह दृढ़ संकल्प ऐसे ही नहीं कर लिया गया था. इसके पीछे सालों-साल गहन विचार-विमर्श हुआ था, लम्बी-लम्बी बहसें हुई थीं, वैचारिक आलोड़न-विलोड़न हुआ था और समुद्र मंथन से निकले अमृत की तरह इसे हासिल किया गया था. इन शब्दों का सड़कों-चौराहों पर पाठ करते हुए इस देश का युवा आज बहुत अच्छी तरह समझ रहा है कि संविधान की उद्देशिका में वर्णित न्याय के मायने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय है, स्वतंत्रता की परिभाषा में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता शामिल है और समानता के अर्थ हैं प्रतिष्ठा और अवसर की समानता.

तब? पूछ रहा है इस देश का आम जन, मोदी सरकार से कि आप कोई विभेदकारी कानून कैसे बना सकते हो? संविधान की उद्देशिका में लिए गए संकल्प का उल्लंघन कैसे कर सकते हो? इस देश की जनता से संविधानिक छल कैसे कर सकते हो?

देश का युवा संविधान की रक्षा में खड़ा हुआ है. यह 2020 के गणतंत्र दिवस का शुभ होना है.    

(नवजीवन, 26 जनवरी, 2020)      

Friday, January 24, 2020

लखनऊ नगर निगम, विद्युत शवदाह गृह और मरा कुत्ता



यह पिछले सप्ताह की बात है. हम के के नय्यर साहब की पार्थिव देह लेकर भैंसाकुण्ड श्मशान घाट गए थे. विद्युत शवदाह गृह वह खराब पड़ा था. नीचे घाट पर जहां चिताएं जलती हैं, इतनी भीड़ थी जैसे बहुत विलम्ब से आ रही किसी ट्रेन को पकड़ने के लिए यात्री रेलवे प्लेटफॉर्म पर ठुंसे हों. हर निर्धारित ठौर पर चिताएं जल रही थीं और कई शव प्रतीक्षा में थे. उनके साथ आए शोकाकुल परिवारीजन-मित्र-सम्बंधी इधर-उधर दौड़ रहे थे कि इंतज़ार लम्बा न हो.

तीन दिन से बारिश हो रही थी. लकड़ियां गीली थी और आग नहीं पकड़ रही थीं. उन्हें राल डाल-डाल तक सुलगाने की कोशिश हो रही थी. चिरायंध भरा काला-भूरा धुआं पूरे घाट पर छाया हुआ था. जमीन पर कीचड़ था. शव आते जा रहे थे. उनके लिए बने विश्राम स्थल भरे हुए थे. आने वाले शवों को उसी कीचड़दार जमीन में थोड़ी साफ जगह ढूंढ कर  प्रतीक्षा करने के अलावा लोगों के पास कोई चारा नहीं था.

इनमें से कई अंत्येष्टियां विद्युत शवदाह गृह में होनी थी लेकिन वह खराब पड़ा था.  खराब पड़ा है या जान-बूझ कर बंद किया गया है- यह चर्चा चल रही थी. सब लकड़ी ठेकेदारों से मिले रहते हैं- यह आम धारणा थी.  हमारे सरकारी विभागों पर जनता का विश्वास रहा ही नहीं. मशीन वास्तव में खराब रही हो तो भी यही कहा जाता.

नगर निगम द्वारा संचालित घाट और विद्युत शवदाह गृह में कोई हलचल या संकेत नहीं थे जिनसे पता चले कि ज़िम्मेदारों को उसे ठीक कराने की चिंता है. किसी को फिक्र नहीं थी कि श्मशान घाट पर अपने प्रिय जनों के शव लेकर आए लोग किस कदर परेशान हैं. नगर निगम में ऊपर से नीचे तक सब उस बदली-बारिश और शीतलहरी वाले दिन कहीं आराम फरमा रहे थे. ज़िम्मेदार अभियंता का फोन बज रहा था लेकिन कोई उठा नहीं रहा था.

यह 2020 का साल है और लखनऊ नगर निगम अपने एकमात्र विद्युत शवदाह गृह को चालू रखने की हालत में नहीं है. हम पर्यावरण बचाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, हवा की गुणवत्ता खतरनाक होने पर कल-कारखाने बंद करते हैं, हर साल रिकॉर्ड पौधारोपण के दावे करते हैं लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश की राजधानी में एक बिजली शवदाह घर नहीं चला सकते. कहां तो यह होना था कि भैंसाकुण्ड के अलावा शहर के दूसरे श्मशान घाटों पर भी एक से ज़्यादा विद्युत शवदाह घर होते. जनता को प्रेरित किया जाता कि वे इसी विधि से अंतिम संस्कार कराएं.  वास्तविकता यह है कि जो विद्युत शवदाह गृह का उपयोग करना चाहते हैं, उन्हें  भी ग्यारह मन लकड़ी फूंकने के लिए विवश किया जा रहा है.

चलते-चलते नगर निगम की एक और उपलब्धि को सलाम कर दें. बीते शनिवार को विनय खण्ड, पत्रकारपुरम के एक पार्क में कुत्ता मरा पड़ा होने की सूचना स्वच्छ भारत ऐप  पर डाली. तस्वीर भी अपलोड की. दूसरे दिन किन्ही पंकज भूषण जी की टिप्पणी ऐप पर थी-सेण्ट टु एसएफआई.इसका जो भी मतलब हो, उसी दिन अगली टिप्पणी थी-  वर्क इज डन.’ देखा तो मरा कुत्ता उसी जगह वैसे ही पड़ा था. फीडबैक में हमने लिखा कि "सॉरी सर, काम नहीं हुआ. रविवार 19 जनवरी को 11-06 बजे भी कुत्ता वहीं पड़ा है" इसका कोई ज़वाब नहीं आया. ऐप में हमारी शिकायत के सामने लिखा है कि 'रिजॉलव्ड' और सिटीजन संतुष्ट है.हमने फिर लिखना चाहा कि काम अब भी नहीं हुआ है लेकिन ऐप कह रहा है कि आप अपना फीडबैक दे चुकेन्हैन यानी 'सिटीजन सेटिसफाइड.'  हकीकत यह है कि 24 जनवरी की दोपहर भी मरा कुत्ता उसी जगह सड़ रहा है.

पूरा तंत्र एक मज़ाक बना हुआ है. हंसिए या रो लीजिए. 
  
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 जनवरी, 2020) 
  




Friday, January 17, 2020

के के नय्यर: इक परिन्दा-सा उड़ा हो जैसे



नय्यर साहब अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर सुना दिया करते थे, खासकर जब उनके साथ देर तक बैठने के बाद लौटने लगता था- उसने कुछ मुझसे कहा हो जैसे/ एक परिंदा-सा उड़ा हो जैसे.

16 जनवरी, 2020 की शाम वे सचमुच एक परिंदे की तरह उड़ गए, अपने पीछे तमाम यादगार कामों की अनुगूंज छोड़ते हुए.

अभी कुछ ही दिन पहले, चार दिसम्बर 2019 को अपना 90वां जन्म दिन मनाते हुए के के नय्यर चहक रहे थे. के के नय्यर यानी कि शायर, संस्कृतिकर्मी, पंजाबी एवं उर्दू साहित्य के विद्वान और किसी जमाने में रेडियो यानी आकाशवाणी की बेहतरीन आवाज अब हमारे बीच नहीं हैं. नए साल में कड़ाके की सर्दी में चंद रोज की बीमारी उन्हें हमसे जुदा कर गई.

उस दिन अपने जन्म दिन पर वे देर तक हाथ में माइक पकड़े, ह्वील चेयर में बैठे-बैठे अपने हर उस पुराने साथी या परिचित की विशेषताओं के बारे में बता रहे थे जो खूबसूरत गुलदस्तों, उपहारों और दुआओं के साथ उन्हें झुककर सलाम कह रहे थे. हरी दूब के उस बागीचे में गुनगुनी धूप खिली थी और सफेद-घनी दाढ़ी में उनका चेहरा दमक रहा था. उनकी जिंदादिली और हंसी-खुशी हमें आश्वस्त कर रही थी कि वे अभी लम्बे समय तक हमारे बीच रहेंगे. पिछले बाईस साल से कष्टकारी अपंगता का बहादुरी से मुकाबला करते हुए उन्होंने अपना मन-मस्तिष्क सचेत और सक्रिय रखा था. चलने-फिरने से लाचार लेकिन बहुत जीवंत और हमेशा धड़कते हुए.

सितम्बर 1998 में जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर रेडियो स्टेशन का स्वर्ण जयंती समारोह हुआ था. नय्यर साहब को लखनऊ से उस समारोह के लिए विशेष रूप से बुलवाया गया था. वे उस केंद्र के निदेशक भी रह चुके थे. मंच पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज और फारूख अब्दुल्ला विराजमान थे. उसी मंच से अपना मार्मिक वक्तव्य देते हुए नय्यर साहब को ब्रेन-स्ट्रोक हुआ था. पहले श्रीनगर में आपात चिकित्सा और बाद में दिल्ली के बड़े अस्पताल में इलाज हुआ. सरकार अस्पताल भिजवा देने के बाद भूल गई. बेटी-दामाद ने उनके इलाज और देखभाल में कुछ भी उठा नहीं रखा. जान बच गई लेकिन उनका आधा शरीर निष्क्रिय हो गया. पिछले बाईस साल से वे ह्वील चेयर या बिस्तर पर थे. इसके बावजूद अपने गजब के जीवट से वे हमेशा जीवंत और यथासम्भव सक्रिय बने रहे. उनके पास बैठने और उनको सुनने वाले भी विपरीत हालात में जिंदादिली से जीना सीखते थे.

16-17 साल के थे और रावलपिण्डी (आज का पाकिस्तान) में पढ़ रहे थे जब देश का विभाजन हुआ. परिवार को लाहौर छोड़कर भारत आना पड़ा. वे सहमते और डरते हुए उस मार-काट के बारे में बताते थे और उस इनसानी भरोसे का जिक्र करते हुए उनकी आंखों में चमक आ जाती थी जब विधर्मीया काफिरहोकर भी पड़ोसी एक-दूसरे की जान बचा रहे थे. इन घटनाओं से इंसानियत पर उनका अटूट विश्वास बना. उनकी आंखों के सामने चलचित्र-सा चलता जो उनके शब्दों के जादू से हम भी देख पाते थे. 1958 में वे आकाशवाणी के मुलाजिम बने और दूरदर्शन के अपर महानिदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए. आकाशवाणी के लखनऊ और श्रीनगर समेत कई केंद्रों का निदेशक रहने के दौरान उन्होंने कई रचनातमक और नए काम किए. उनके 90वें जन्म-दिन पर जमा हुए आकाशवाणी के पुराने साथियों ने वह सब खूब याद किया था.

नय्यर साहब रेडियो इण्टरव्यू लेने में उस्ताद थे. आकाशवाणी के लिए उन्होंने पाकिस्तान जाकर मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां से लेकर बेनजीर भुट्टो जैसे कई कलाकारों-नेताओं-खिलाड़ियों के यादगार इण्टरव्यू किए. पृथ्वीराज कपूर, कुमार गंधर्व, राजकुमार, अमिताभ बच्चन, कपिल देव आदि के साथ उनकी बातचीत रेडियो पर खूब सुनी गई. आकाशवाणी के संग्रहालय में आज भी वे साक्षात्कार होने चाहिए, जिन्हें यदि अब तक डिजिटल रूप देकर सुरक्षित नहीं किया गया हो तो अब अवश्य करना चाहिए ताकि नई पीढ़ी साक्षातकार लेने का वह कौशल सीख सके. कहना न होगा कि इन बातचीत में खुद नय्यर साहब की विद्वता और तैयारी आवाज की सघनता के साथ बोलती थी जो सामने वाले का पूरा व्यक्तित्त्व खुलवा लेती थी.

संगीत की उन्हें बड़ी समझ थी और नामी संगीतकारों से बेहतरीन रिश्ते भी. दूरदर्शन के आ जाने के बाद उन्होंने इस माध्यम का खूबसूरत उपयोग किया. पंजाब के आतंकवाद पर 'होश' नाम से बड़ी संवेदनशील टेलीफिल्म बनाई. इत्र उद्योग पर बनी उनकी टेलीफिल्म 'बलखाती खुशबू' सचमुच महकती थी. ऐसी कुछ और यादगार छोटी फिल्में हैं, जिनमें नय्यर साहब की विशिष्ट पहचान बोलती है. दरअसल वे जिस काम को हाथ में लेते थे उसमें डूब जाते थे.  

भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान युद्ध-बंदियों की कुशलता के लिए परिवारीजनों की बेचैनी देखते हुए नय्यर साहब ने आकाशवाणी से एक कार्यक्रम शुरू किया था- खैरियत से हूं’. खुद नय्यर साहब ने पाकिस्तानी युद्ध बंदियों के इण्टरव्यू रिकॉर्ड किए. ये इण्टरव्यू सीमा के दोनों तरफ अत्यन्त उत्सुकता और सराहना के साथ सुने जाते थे. पाकिस्तान में इस कार्यक्रम की बहुत तारीफ हुई थी.  

उनके पास स्मृतियों का अमूल्य खजाना था और उनको सुनना लगभग एक सदी से गुजरना होता था. नूरजहां ने बातचीत के बाद उनसे पूछ लिया था कि आप कहां के रहने वाले हैं. रहता हिंदुस्तान में हूं लेकिन पैदा आपके शहर में हुआ था’- नय्यर साहब का यह जवाब सुनकर नूरजहां का चेहरा खिल उठा था और वे उर्दू छोड़ कर धारा-प्रवाह पंजाबी में बोलने लगी थीं कि उर्दू बोलते-बोलते जुबान पक गई है. मैं तो पंजाबी बोलते के लिए तरस रही थी.फिर नूरजहां बड़ी मुहब्बत से बम्बई और वहां की फिल्मी दुनिया को याद करने लगी थीं.

यह सब बताते हुए नय्यर साहब उन्हीं दिनों में लौट जाते. बेटी-दामाद एवं चंद साथियों ने अच्छा किया कि उनकी यादों की कुछ रिकॉर्डिंग करवा रखी है. कुछ यू-ट्यूब पर भी डाली हैं. योजना तो उनकी यादों की किताब बनाने की भी थी. सोचने और करने के बीच बड़ा फासला बना लेना हमारी कमजोरियां रही हैं. जब नय्यर साहब के पास वक्त था और बहुत कुछ कीमती भी तब हम वक्त को ठगते रहे लेकिन असल में ठगे हम ही गए.       

अब नय्यर साहब के पास फुर्सत नहीं है. हम उन्हें सिर्फ सलाम भेज सकते हैं और इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि ज़वाब में वे अपनी उसी ग़ज़ल का दूसरा शेर सुना देंगे-

दूर जाते हुए कदमों के निशां
आके वो लौट गया हो जैसे.

  
(नभाटा, 18 जनवरी, 2020 में प्रकाशित श्रद्धांजलि का यह तनिक विस्तार है. )  

अवैध को वैध करती सरकारी नीतियां



सरकारें स्वयं अपनी ही नीतियों का कैसे उल्लंघन करती हैं, इसके प्रचुर उदाहरण सामने आते रहते हैं. एक तरफ स्मार्ट सिटी के सपने और घोषणाएं हैं, दूसरी तरफ पुरानी नीतियों में ऐसे संशोधन किए जा रहे हैं, जिनके स्मार्ट सिटी बन ही न सकें. स्मार्ट सिटी बनाने के लिए घोषित शहर अवैध निर्माणों से भरे पड़े हैं. निरन्तर अतिक्रमण और अवैध निर्माण होते जा रहे हैं. किसी शहर को स्मार्ट तो छोड़िए, तनिक व्यस्थित बनाने के लिए भी ये अतिक्रमण और अवैध निर्माण बड़ी बाधा हैं. इसे कैसे दूर किया जाए, पूर्व घोषित नीतियों पर सख्ती से कैसे अमल किया जाए, यह तय करने की बजाय अवैध को वैध घोषित करने की नीति बनाई जा रही है.

विभिन्न शहरों में विकास प्राधिकरण यह काम पहले से करते रहे हैं. वे पहले अवैध निर्माण होने देते हैं. साल दर साल होते अतिक्रमणों एवं अवैध निर्माणों से शहर पट जाते हैं, सड़कें संकरी हो जाती हैं, तालाब पाट दिए जाते हैं. पार्कों में ही नहीं, नाले-नालियों के ऊपर भी अवैध निर्माण कर लिए जाते हैं. पूरी-पूरी अवैध बस्तियां बस जाती हैं. बीच-बीच में कभी कोर्ट के आदेश से अवैध निर्माण और अतिक्रमण हटाने के दिखावटी अभियान चलते हैं. समस्या जस की तस ही नहीं, बढ़ती जाती है.

फिर एक दिन सरकारी विभाग खुद ही इस सब अवैध को वैध कर देता है. अवैध बस्तियों को सुविधायुक्त बनाने की अधकचरी और लगभग असम्भव-सी कोशिश की जाती है. राजधानी लखनऊ में ही ऐसी अनेक बस्तियां हैं जो यहां-वहां कब्जा करके बसीं और अब वैध घोषित हैं. चूंकि इन्हें  सुधारना और विकसित करना सम्भव नहीं होता, इसलिए वे गंदगी और सड़ांध से बजबजा रही हैं.

आवास-विकास विभाग की नई नीति विभिन्न प्राधिकरणों का यह काम और आसान करने वाली है. इसके पीछे तर्क भी बहुत बढ़िया दिया गया है. सरकार मान रही है कि इन अवैध निर्माणों में जनता का बहुत धन लग चुका है. इसलिए इन्हें ध्वस्त करना मानवीय दृष्टि से उचित और व्यावहारिक नहीं होगा. इसलिए इनसे शमन शुल्क लेकर इन्हें नियमित करार दिया जाएगा. शमन शुल्क लेने की नीति पहले से है. इस बार इस शुल्क भी कम किया जा रहा है.

क्या यह अवैध निर्माणों को साफ-साफ प्रोत्साहित करना नहीं है? पिछली नीति करीब दस वर्ष पहले बनी थी. उसका पालन हुआ होता तो अवैध निर्माण बढ़ते नहीं. वे बढ़ते गए, यह सरकार स्वयं मान रही है. आवास-विकास विभाग के पास ही करीब साढ़े तीन लाख अवैध निर्माणों की सूची है. इस सूची से बड़ी संख्या उनकी होगी जो गिने-देखे नहीं गए. इतनी बड़ी संख्या में अवैध निर्माण एक रात में नहीं हुए होंगे. तब विभाग और उसके प्राधिकरण क्या कर रहे थे? अब कहा जा रहा है कि इनमें बहुत धन लग चुका है. धन क्यों और किसने लगने लगने दिया? इसी इंतज़ार में कि एक दिन इन्हें ढहाना अव्यावहारिक और अमानवीय करार दिया जा सके?

अब इनको वैध करने के लिए शमन शुल्क घटा कर अवैध को वैध करना आसान बनाया जा रहा है. भविष्य में किए जाने वाले निर्माणों  के लिए अवैधकी परिभाषा भी बदली जा रही है. अभी तक जो अवैध है, वह वैध मानकर किया जा सकेगा.

नीति ही ऐसी बनेगी तो कैसे रुकेंगे अराजक-अव्यवस्थित निर्माण? स्मार्ट सिटी किसी और दुनिया में बनेंगे क्या? या स्मार्ट सिटी की परिभाषा भी इसी तरह बदली जाती रहेगी?        


(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 जनवरी, 2020)

Wednesday, January 08, 2020

सन 2020, हालात और चंद सवाल



सन 2020 की तारीख डालते हुए सहसा सन 1920 की याद आने लगी. ठीक सौ साल पहले भारत में कैसी उथल-पुथल मची थी? देश  कैसी सामाजिक-राजनैतिक करवट ले रहा था? बीसवी सदी के तीसरे दशक ने देश को कैसी दिशा दी? उस दौर को याद करना आज किस तरह प्रासंगिक है? क्या उस संदर्भ में आज के कुछ सवाल मौजू हो सकते हैं?   

सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी नाम के एक वकील याद आते हैं जो दक्षिण अफ्रीका में असहयोग और प्रतिरोध के कुछ अभिनव प्रयोग करके चार वर्ष पहले भारत लौटे थे. ब्रिटिश दासता से आज़ादी का स्वप्न पालते देश में वे अपने प्रयोगों की विकास-भूमि तलाश रहे थे. चम्पारन के शोषित किसानों की व्यथा-कथा और उसके अहिंसक प्रतिरोध से सत्याग्रह का जो रास्ता निकला उसने 1920 के भारतीय दशक के सर्वथा अभिनव आंदोलन का अध्याय लिखा. असहयोग आंदोलन से लेकर नमक सत्याग्रह तक और आगे भी.

राष्ट्रीयता के उसी उफान भरे दौर में चौरी-चौरा काण्ड हुआ था जिसने सत्य और अहिंसा की शक्ति के बारे में गांधी की परीक्षा ली थी. अपने प्रति गुस्से और बगावत के तीव्र स्वरों के बावजूद गांधी उस कठिन परीक्षा में अव्वल नम्बर से पास हुए थे. विश्व ने हाड़-मांस के एक पुतले को महात्मा के रूप में स्वीकारे जाते देखा था. आधी धोती धारे महात्मा ने उस ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थीं जिसके शासन में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था.

1905 में बनी मुस्लिम लीग और जवाब में 1915 में सामने आई हिंदू महासभा की साम्प्रदायिक राजनीति ने भी 1920 के दशक की राजनीति को उद्वेलित किया. 1925 में राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ बनने पर यही गांधी के जीवन की यह सबसे बड़ी चुनौती बन गई. 1917 में सोवियत क्रांति के बाद भारत में कम्युनिस्टों के उभार और राजनीति में छाने का दौर भी वही दशक लाया. खुद कांग्रेस के भीतर समाजवादी खेमा बना जिसने गांधीवादी नेहरू को वाम झुकाव दिया और बाद तक कांग्रेस की अंतर्धारा के रूप में मौज़ूद रहा.

1920 के दशक की शुरुआत भारत में किसान जागरण और आंदोलन के वर्ष भी थे. जमीदारों के शोषण-अत्याचार के खिलाफ बड़े आंदोलन हुए. मजदूर संगठनों के बनने और सक्रिय होने का दौर वही था तो छात्रों के राजनैतिक रूप से सक्रिय होने का भी. भगत सिंह सरीखे युवाओं का मानस उसी दौरान परिपक्व हो रहा था.

तो, जो गांधी 1920 की शुरुआत में सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों  से महात्मा बन रहे थे और जिनका रास्ता बाद के दशकों में देश-दुनिया की नई रोशनी बना रहा, सन 2020 की शुरुआत में उनके मूल्यों की कैसी विकट परीक्षा हो रही है? आज गांधी का नाम लेना कोई नहीं भूलता किंतु उनकी अवमानना करने में कोई पीछे भी नहीं रहता? गांधी जिसआज़ादी के लिए लड़े-जूझे और जैसा समाज बनाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे, वह आज़ादी और समाज आज किस हाल में हैं?

आज़ादी के बाद से देश ने बहुत तरक्की  है. आज हम दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और ताकतों में शुमार है लेकिन बहुलता में अद्भुत समन्वय वाला संविधान होने के बावज़ूद क्या वही चुनौती 2020 में विकराल होकर सामने नहीं आ खड़ी हुई है, जो सौ साल पहले सिर उठा रही थी? देश का विभाजन और हिंदू-मुस्लिम आज फिर हमारी राजनीति के केन्द्र में कैसे आ गए? इसीलिए क्या आज के भारत को या पूरी दुनिया को ही फिर एक साक्षात गांधी की आवश्यकता नहीं लग रही?

गांधी की बहुत चर्चा है लेकिन गांधी कहीं नहीं हैं. जिन्हें वे वारिस बना गए थे उन जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस भी देश की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाने की स्थिति में है? यह अलग चर्चा का विषय होगा कि जो कांग्रेस बची हुई है, वह कितनी गांधी की और कितनी नेहरू की रह गई है.

जो कम्युनिस्ट विचारधारा उस दौर में भारत के बड़े युवा वर्ग और राजनीति को काफी प्रभावित कर रही थी, वह हाल के दशकों में हाशिए से भी क्यों सिकुड़ गई है? वह आरोपित विचार रहा या भारत में अपने लिए आधार तैयार करने में विफल, जबकि यहां मजदूरों-किसानों-गरीबों के हालात भयानक गैर-बराबरी, शोषण, अत्याचार और दमन का शिकार रहे और आज भी हैं?1920 के दशक ने वाम राजनीति को अवसर दिए थे. इक्कीसवीं शताब्दि के तीसरे दशक की शुरुआत के युवा भारत में वह अप्रभावी है और ट्रेड यूनियन बिखरे हुए.        

इस सबके विपरीत जिस हिंदू महासभा और आरएसएस की राजनीति को 1920 के दशक से आज़ादी के दशकों बाद तक भारतीय मुख्यधारा ने उभरने के अवसर ही नहीं दिए, वह सन 2020 में सड़क से संसद तक छाई हुई दिखती है. जो एकांगी राजनीति 1960 के दशक तक बाकी दलों के लिए पूरी तरह अछूतमानी जाती थी, वह उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूरब तक सहज स्वीकार्य बन गई है. इसी स्वीकार्यता का परिणाम वह संसदीय बहुमत है जिसके बल पर  कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता के सवाल नए सिरे से तय करने जैसे विवादित फैसले किए जा सके हैं जिनसे समाज और राजनीति का पूरा विमर्श ही बदल गया है.

यह बदलाव सामान्य नहीं ही है. 1980 के दशक तक इस परिवर्तन की आहट विशेष नहीं थी. 1990 के दशक में जब बदलाव की धमक आर-पार सुनाई देने लगी थी, तब भी लगता था कि यह बहुत अस्थाई लहर है जो भारतीय राष्ट्र-राज्य के मूल चरित्र को छू भी न सकेगी. क्या ऐसा सोचने वाले राजनेता, विश्लेषक, अध्ययेता गलत थे? क्या वे परिवर्तन की हवा को क्रमश: ऊंची होती लहरों में बदलते नहीं देख पा रहे थे? वे नासमझ थे या अपनी जमीन से कटे हुए, अभिमानी, अति-विश्वास से भरे असावधान लोग?  

भारतीय लोकतंत्र, संविधान और समाज की बहुलता में बहुत ताकत और क्षमता है. इसकी गहराई और उदारता को ही श्रेय है कि जो लम्बे समय तक राजनीति के हाशिए पर थे, वे अब मुख्यधारा में हैं. मुख्यधारा वाले अपने पैंरों तले की खिसकती जमीन देखकर हैरान-परेशान क्यों हैं? बिना मेहनत वैचारिक जमीन के बंजर पड़ने का ही खतरा था. जिन्होंने लम्बे समय तक अपने विचार और जमीन के लिए काम किया है, उन्हें यह लोकतंत्र अवसर क्यों नहीं देता भला?

1920 का समय बहुत पीछे छूट चुका है. सामने जो नया दौर है वह जिन्हें चिन्ताओं और बेचैनियों से भर रहा है, उनके लिए यह हैरानी और विलाप का नहीं, उन सवालों के उत्तर तलाशने का समय है, जो पिछले दशकों में उनकी ही भूमिकाओं ने खड़े कर दिए हैं. गलतियां पहचानने और समयानुकूल सार्थक भूमिका तय करने से धाराएं पलटती हैं.


(प्रभात खबर, 09 जनवरी, 2020)